ॐ
पुस्तक सलिलां-
‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
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‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
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‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।
इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना, कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।
कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी, सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।
किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है।
सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।
अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।
सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है।
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ , salil.sanjiv@gmail.com
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