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सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

एक रचना-
ओ मेरी तुम
*
ओ मृगनयनी!
ओ पिकबयनी!
ओ मेरी तुम!!
*
भोर भयी
बाँके सूरज ने
अँखियाँ खोलीं।
बैठ मुँडेरे
चहक-चहक
गौरैया बोली।
बाहुबंध में
बँधी हुई श्लथ-
अलस देह पर-
शत-शत इंद्र-
धनुष अंकित
दमिनियाँ डोलीं।
सदा सुहागन
दृष्टि कह रही
कुछ अनकहनी।
ओ मृगनयनी!
ओ पिकबयनी!
ओ मेरी तुम!!
*
चिबुक निशानी
लिये, नेह की
इठलाया है।
बिखरी लट,
फैला काजल भी
इतराया है।
टूटा बाजूबंद
प्राण-पल
जोड़ गया रे!
कँगना खनका
प्रणय राग गा
मुस्काया है।
बुझी पिपासा
तनिक, देह भई
कुसुमित टहनी
ओ मृगनयनी!
ओ पिकबयनी!
ओ मेरी तुम!!
*
कुण्डी बैरन
ननदी सी खटके
कुछ मत कह।
पवैया सासू सी
बहके बहके
चुप रह।
दूध गिराकर
भगा बिलौटा
नटखट देवरा
सूरज ससुरा
दे आसीसें
दामन में गह
पटक न दे
बचना जेठानी
भैंस मरखनी
ओ मृगनयनी!
ओ पिकबयनी!
ओ मेरी तुम!!
*
५-२-२०१६
HA ७ अमरकंटक एक्सप्रेस
२१. १२ 

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