- शेष धर तिवारी
हमें भी ढाई आखर का अगर संज्ञान हो जाए
वही गीता भी हो जाए वही कुरआन हो जाए
मजाज़ी औ हक़ीक़ी का अगर मीज़ान हो जाए
मेरा इज़हार यारों मीर का दीवान हो जाए
जला कर ख़ाक करना, कब्ल उसके ये दुआ देना
कि मेरा जिस्म सारा खुद ब खुद लोबान हो जाए
खुदा को भूलने वालों तुम्हारा हस्र क्या होगा
खुदा तुमसे अगर मुह मोड ले, अनजान हो जाए
मजारें चादरों से ढक गयीं पर खल्क नंगी है
हमारे रहनुमाओं वाइजों को ज्ञान हो जाए
सभी घर मंदिर-ओ-मस्जिद में खुद तब्दील हो जाएँ
अगर इंसानियत इंसान की पहचान हो जाए
मेरे हाँथों से भी नेकी भरा कुछ काम करवा दे
जहां छोडूं तो हर नेकी मेरी उन्ह्वान हो जाए
परिंदे मगरिबी आबो हवा के “शेष” शैदा हैं
कहीं ऐसा न हो अपना चमन वीरान हो जाए
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1 टिप्पणी:
अनन्या says
१ अगस्त २०११ ७:३५ पूर्वाह्न
संजीव सलिक जी का साहित्य शिल्पी पर फिर से स्वागत। कहने की आवश्यकता नहीं कि मै इस स्तंभ पर नीयमित रूप से उपस्थित रहूंगी। छंद तथा कविता के तत्वों से परिचित कराने के लिये आपका आभार।
बेनामी says
१ अगस्त २०११ ८:२२ पूर्वाह्न
Thanks
-Alok Kataria
nitesh says
१ अगस्त २०११ ८:३३ पूर्वाह्न
गुरुजी हम भी कक्षा में हैं। यह पाठ को कंठस्थ कर लिया है।
१ अगस्त २०११ ७:३५ पूर्वाह्न
संजीव सलिक जी का साहित्य शिल्पी पर फिर से स्वागत। कहने की आवश्यकता नहीं कि मै इस स्तंभ पर नीयमित रूप से उपस्थित रहूंगी। छंद तथा कविता के तत्वों से परिचित कराने के लिये आपका आभार।
बेनामी says
१ अगस्त २०११ ८:२२ पूर्वाह्न
Thanks
-Alok Kataria
nitesh says
१ अगस्त २०११ ८:३३ पूर्वाह्न
गुरुजी हम भी कक्षा में हैं। यह पाठ को कंठस्थ कर लिया है।
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