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सोमवार, 23 मई 2011

मुक्तिका: सागर ऊँचा... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सागर ऊँचा...
संजीव 'सलिल'
*
सागर ऊँचा, पर्वत गहरा.
अंधा न्याय, प्रशासन बहरा..

खुली छूट आतंकवाद को.
संत-आश्रमों पर है पहरा..

पौरुष निस्संतान मर रहा.
वंश बढ़ाता फिरता महरा..

भ्रष्ट सियासत देश बेचती.
देश-प्रेम का झंडा लहरा..

शक्ति पूजते जला शक्ति को.
मौज-मजा श्यामल घन घहरा..

राजमार्ग ने वन-गिरि निगले..
सारा देश हुआ है सहरा..

कब होगा जनतंत्र देश में?
जनमत का ध्वज देखें फहरा..

हिंसा व्यापी दिग-दिगंत तक.
स्नेह-सलिल है ठहरा-ठहरा..

जनप्रतिनिधि ने जनसेवा का
'सलिल' न अब तक पढ़ा ककहरा..

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