मुक्तिका:
सागर ऊँचा...
संजीव 'सलिल'
*
सागर ऊँचा, पर्वत गहरा.
अंधा न्याय, प्रशासन बहरा..
खुली छूट आतंकवाद को.
संत-आश्रमों पर है पहरा..
पौरुष निस्संतान मर रहा.
वंश बढ़ाता फिरता महरा..
भ्रष्ट सियासत देश बेचती.
देश-प्रेम का झंडा लहरा..
शक्ति पूजते जला शक्ति को.
मौज-मजा श्यामल घन घहरा..
राजमार्ग ने वन-गिरि निगले..
सारा देश हुआ है सहरा..
कब होगा जनतंत्र देश में?
जनमत का ध्वज देखें फहरा..
हिंसा व्यापी दिग-दिगंत तक.
स्नेह-सलिल है ठहरा-ठहरा..
जनप्रतिनिधि ने जनसेवा का
'सलिल' न अब तक पढ़ा ककहरा..
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सागर ऊँचा...
संजीव 'सलिल'
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सागर ऊँचा, पर्वत गहरा.
अंधा न्याय, प्रशासन बहरा..
खुली छूट आतंकवाद को.
संत-आश्रमों पर है पहरा..
पौरुष निस्संतान मर रहा.
वंश बढ़ाता फिरता महरा..
भ्रष्ट सियासत देश बेचती.
देश-प्रेम का झंडा लहरा..
शक्ति पूजते जला शक्ति को.
मौज-मजा श्यामल घन घहरा..
राजमार्ग ने वन-गिरि निगले..
सारा देश हुआ है सहरा..
कब होगा जनतंत्र देश में?
जनमत का ध्वज देखें फहरा..
हिंसा व्यापी दिग-दिगंत तक.
स्नेह-सलिल है ठहरा-ठहरा..
जनप्रतिनिधि ने जनसेवा का
'सलिल' न अब तक पढ़ा ककहरा..
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