मुक्तिका :
संजीव 'सलिल'
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.
माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..
तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?
पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..
बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
संजीव 'सलिल'
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.
माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..
तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?
पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..
बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
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2 टिप्पणियां:
आ० आचार्य जी,
सुन्दर प्रस्तिती के लिये साधुवाद ! बड़ी सटीक अभिव्यक्ति-
" बर्तन बनने खातिर / माटी को पड़ता तपना "
सादर,
कमल
आदरणीय आचार्य जी,
इस सुन्दर सटीक सार्थक रचना के लिए बधाई I
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
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