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गुरुवार, 12 मई 2011

गीत: बन जा मोर चकोर... ---संजीव 'सलिल'

गीत:                                                                            
बन जा मोर चकोर...
संजीव 'सलिल'
*
ठुमक-ठुमक कर नाच ठिठक मत मन मयूर इस भोर.
कोई न उपमा इस सुषमा की इसका ओर न छोर...

हुई शुरू या ख़तम समय की कौन कहे ईकाई?
बिसरा दे सारे सवाल कुछ खुशी मना ले भाई.
थामे रह कसकर, उमंग का छूट न जाये डोर...
                                                                                                      
श्वास निरुपमा, आस निरुपमा, प्यास निरुपमा जान.
हास निरुपमा गह पाये तो जीवन हो रसखान.. 
रसनिधि पा रसलीन आज हो, खुशियाँ विहँस अँजोर...
                                                                                                
भाव गगन, लय धरा, कथ्य की पवन बहे सुखदायी.
अलंकार हरियाली, बिम्बित गीति-रंगोली भायी..
'सलिल' स्वाति नक्षत्र यही पल बन जा मोर चकोर...

******************************

10 टिप्‍पणियां:

sharda monga, OBO ने कहा…

सलिल जी की रचनाएँ तो सदा से अति उत्तम होती हैं.

Tilak Raj Kapoor ने कहा…

Tilak Raj Kapoor

हमेशा की तरह लाजवाब।

Ambarish Srivastava ने कहा…

Ambarish Srivastava

वन्दे मातरम आदरणीय आचार्य जी !
//ठुमक-ठुमक कर नाच ठिठक मत मन मयूर इस भोर.
कोई न उपमा इस सुषमा की इसका ओर न छोर...
*
हुई शुरू या ख़तम समय की कौन कहे ईकाई?
बिसरा दे सारे सवाल कुछ खुशी मना ले भाई.
थामे रह कसकर, उमंग का छूट न जाये डोर...
*
श्वास निरुपमा, आस निरुपमा, प्यास निरुपमा जान.
हास निरुपमा गह पाये तो जीवन हो रसखान..
रसनिधि पा रसलीन आज हो, खुशियाँ विहँस अँजोर...
*
भाव गगन, लय धरा, कथ्य की पवन बहे सुखदायी.
अलंकार हरियाली, बिम्बित गीति-रंगोली भायी..
'सलिल' स्वाति नक्षत्र यही पल बन जा मोर चकोर...//

आदरणीय आचार्य जी का चित्र पर आधारित यह गीत प्रत्येक दृष्टि से श्रेष्ठ तो है ही साथ-साथ सुन्दर सन्देश से युक्त भी है ..........यथा समय के साथ चलते हुए उमंग की डोर थामे हुए खुशियों के पल समेट लेना ही सदैव श्रेयस्कर होता है .......कृपया मेरा प्रणाम स्वीकार करें ! .........हृदय से बधाई आपको ............:))

PREETAM TIWARY(PREET) ने कहा…

PREETAM TIWARY(PREET)
बहुत ही बढ़िया रचना है ये आचार्य जी की.....बहुत ही बढ़िया लिखा है उन्होंने..

Ganesh Jee "Bagi" ने कहा…

Ganesh Jee "Bagi"

श्वास निरुपमा, आस निरुपमा, प्यास निरुपमा जान.
हास निरुपमा गह पाये तो जीवन हो रसखान..



खुबसूरत पक्तियां , सदैव की तरह सुंदर मनोहारी रचना , बहुत बहुत बधाई आचार्य जी .

Yograj Prabhakar ने कहा…

Yograj Prabhakar
अति सुन्दर !

Saurabh Pandey ने कहा…

Saurabh Pandey

जीवन को रसखान करती भावनाओं को मेरा नमन.. मेरा नमन.

सही है, जब भाव भरे गगन और लयपगी धरा में सहज कथ्य की निर्मल बयार बह चली हो तो स्वर-अलंकरण मानो जीवन ही हो जाता है...

झूम रहे मन को न संभालो..

निथरे चित की समझी कहियो..

सखियो.. हे, सखियो..!

धरा भयी है चुहल कन्हैया.. श्यामल-श्यामल रहियो.. हे सखियो.. हे सखियो..

मोर चहक सिंगार बने खुद गद्-गद् गुद्-गुद् बहियो.. हे सखियो.. अहे सखियो..



सलिलजी, अनायास संसृत होते चले गये शब्दों को विराम न दे पाया.. जी, आपका कौशल सर चढ़ आया, भइयाजी..

बधाई स्वीकार कर अनुगृहित करेंगे, पूर्ण विश्वास है.

Rana Pratap Singh ने कहा…

Rana Pratap Singh
आचार्य जी बेहतरीन गीत|

ये अंतरा बहुत पसंद आया|

श्वास निरुपमा, आस निरुपमा, प्यास निरुपमा जान.
हास निरुपमा गह पाये तो जीवन हो रसखान..
रसनिधि पा रसलीन आज हो, खुशियाँ विहँस अँजोर.

vandana gupta ने कहा…

vandana gupta
बहुत ही सुन्दर्।

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ने कहा…

धर्मेन्द्र कुमार सिंह
आचार्य जी ने हर बार और हर स्थान की तरह इस बार और यहाँ भी लाजवाब रचना प्रस्तुत की है। बधाई