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बुधवार, 18 मई 2011

दोहा सलिला : रूपमती तुम... --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला :
                                                                                                                                      
रूपमती तुम...

संजीव 'सलिल'
*
रूपमती तुम, रूप के, कवि पारखी अनूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ रूप का कूप..
*
जुही चमेली चाँदनी, चम्पा चर्चित देह.
चंद्रमुखी, चंचल, चपल, चतुरा मुखर विदेह..
*
नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
तन श्यामल नीलाभ, मुख पौ फटता अरुणाभ..
*
वाक् सारिका सी मधुर, भौंह नयन धनु बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..
*
सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण-कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..
*
देह-गंध मादक-मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..
*
दस्तक कर्ण-कपाट पर, देते रसमय बोल.
पहुँच माधुरी हृदय तक, कहे नयन-पट खोल..
*
दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..
*
वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा, कर रसपान.
बीत न जाए उमरिया, रीते ना रस-खान..
*
रस-निधि पा रस-लीन हो, रस पी हो लव-लीन.
सरस सृष्टि, नीरस बरस, तरस न हो रस-हीन..
*
दरस-परस बिन कब हुआ, कहो सृष्टि-विस्तार?
दृष्टि वृष्टि कर स्नेह की, करे सुधा-संचार..
*
कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
करें दीद दीदार कह, तुम सा कौन उदार?.
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मधुशाला से गाल हैं, मधुबाला सी चाल.
छलक रहे मधु-कलश लख, होते रसिक निहाल..
*
कदली-दल सम पग युगल, भुज द्वय कमल-मृणाल.
बंधन में बँधकर हुआ, तन-मन-प्राण निहाल..
*
करधन, पायल, चूड़ियाँ, खनक खोलतीं राज.
बोल अबोले बोलकर, साधें काज-अकाज..
*
बिंदी चमके भाल पर, जैसे नभ पर सूर्य.
गुँजा रही विरुदावली, 'सलिल' नासिका तूर्य..
*
झूल-झूल कुंडल करें, रूप-राशि का गान.
नथनी कहे अरूप है, कोई न सके बखान..
*
नग-शोभित मुद्रिका दस, दो-दो नगाधिराज.
व्याल-जाल कुंतल हुए, क्या जाने किस व्याज?.
*
दीवाने-दिल चाक कर, हुई हथेली लाल.
कुचल चले अरमान पग, हुआ आलता काल..
*
रूप-रंग, मति-वाक् में, निपुणा राय प्रवीण.
अविरल रस सलिला 'सलिल', कीर्ति न किंचित क्षीण,,
*
रूपमती का रूप-मति, मणि-कांचन संयोग.
भूप दास बनते विहँस, योगी बिसरे योग..
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रूप अकेला भोग बन, कर विलास हो लाज.
तेज महालय ताज हो, जब संग हो मुमताज़..
*
मीरा सी दीवानगी, जब बनती श्रृंगार.
रूप पूज्य होता तभी, नत हों जग-सरकार..
*
रूप शौर्य का साथ पा, बनता है श्रद्धेय.
करे नमन झुक दृष्टि हर, ज्ञेय बने अज्ञेय..
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ममता के संग रूप का, जब होता संयोग.
नटवर खेलें गोद में, सहा न जाए वियोग..
*
होता रूप अरूप जब, आत्म बने विश्वात्म.
शब्दाक्षर कर वन्दना, देख सकें परमात्म..
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8 टिप्‍पणियां:

- madanmohanarvind@gmail.com ने कहा…

देह-गंध मादक-मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..

वाह सलिल जी, वाह.
सादर
मदन मोहन 'अरविन्द'

- dkspoet@yahoo.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
बहुत ही सुंदर दोहे हैं। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

kusum sinha ekavita ने कहा…

kusum sinha ekavita

priy sanjiv ji
aapke jitna sundar dohe likhna kam hi logo ke vash me hai

kusum

- santosh.bhauwala@gmail.com ने कहा…

आदरणीय सलिल जी ,

बेहद खूबसूरत दोहे है!!
आपको और आपकी लेखनी को नमन !
सदर
संतोष भाऊवाला

sn Sharma ✆ ekavita ने कहा…

sn Sharma ✆ ekavita १८ मई
आ० आचार्य जी,
धन्य हैं आप !
श्रृंगार रस के इतने सुन्दर रसाप्लावित दोहों की रचना में आप रसखान से भी बाज़ी मार ले गये हैं| आपकी प्रतिभा को नमन !
कमल

Amitabh Tripathi ✆ ekavita ने कहा…

Amitabh Tripathi ✆ ekavita १८ मई

आदरणीय सलिल जी
इस मधुघट को आप थोड़ा थोड़ा करके छलकाते तो हम भी चुस्कियों में इसका मज़ा लेते| इतना ज्यादा आपने एक साथ ढाल दिया कि बहुत सारा तो बह गया|
कुछ दोहे तो बहुत अच्छे लगे|
कतिपय दोहों में प्रवाह भंग जो निश्चित ही आप जैसे सिद्धहस्त एवं निष्णात रचनाकार की दृष्टि से अछूता नहीं होगा| आशा है आप उसे अवश्य सही कर लेंगे|
हाँ, हम जैसे कमज़र्फ मैकशों के हिसाब से आगे से पैमाना थोड़ा छोटा रहे तो अच्छा है| पीने का मज़ा भी जाय और बहकने का खतरा भी न रहे|
पहले दोहे में 'गर' के स्थान पर 'यदि' कर दें तो और अच्छा लगेगा| साम्य की दृष्टि से|
सुन्दर दोहों के लिए पुनः साधुवाद!
सादर
अमित

Dr.M.C. Gupta ✆ ekavita ने कहा…

Dr.M.C. Gupta ✆ ekavita १९ मई

संदर्भ--इस मधुघट को आप थोड़ा थोड़ा करके छलकाते तो हम भी चुस्कियों में इसका मज़ा लेते|

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३३१३.
ओ मयवालो जाम पिलाना अच्छा है पर कभी-कभी

बातों-बातों में खो जाना अच्छा है पर कभी-कभी


--ख़लिश

shriprakash shukla ✆ ekavita ने कहा…

shriprakash shukla ✆ ekavita

१९ मई

आदरणीय आचार्य जी ,
श्रंगार रस से ओत प्रोत दोहे बहुत आनंद दायक हैं लेकिन जैसा कि आदरणीय अमित जी ने कहा डोज़ थोड़ी अधिक होगई i आपकी रचनाओं को पढने में एकाग्रचित्त रहना होता है जो कि इस बढ़ती उम्र में ज्यादह देर तक मुश्किल है i बधाई हो
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल