एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर
अधनंगा था, बच्चे नंगे,
खेल रहे थे मिटिया पर।
मैंने पूछा कैसे जीते
वो बोला सुख हैं सारे
बस कपड़े की इक जोड़ी है
एक समय की रोटी है
मेरे जीवन में मुझको तो
अन्न मिला है मुठिया भर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।
दो मुर्गी थी चार बकरियां
इक थाली इक लोटा था
कच्चा चूल्हा धूआँ भरता
खिड़की ना वातायन था
एक ओढ़नी पहने धरणी
बरखा टपके कुटिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।
लाखों की कोठी थी मेरी
तन पर सुंदर साड़ी थी
काजू, मेवा सब ही सस्ते
भूख कभी ना लगती थी
दुख कितना मेरे जीवन में
खोज रही थी मथिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 20 जुलाई 2009
नवगीत - एक गाँव में देखा मैंने
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5 टिप्पणियां:
उत्तम गीत अजित जी, नेक किया है काम.
अनछूते हैं बहुत से जीवन के आयाम..
संवेदनमय दृष्टि को खलती पर की पीर.
आँसू पोंछे गैर के, और बँधाए धीर..
nice one
ग्रामीण पृष्ठ भूमि से जुडा सरस गीत. मन को भाया.
achchha geet. aur likhiye.
जमीन से जुड़े टटके प्रतीक मन भाये.
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