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शनिवार, 24 दिसंबर 2022

सॉनेट, चित्रगुप्त, गंगोदक सवैया, गीत, बड़ा दिन, हिंदी भाषी, भजन, मुक्तिका, दोहा, जनक छंद,

सॉनेट

चित्रगुप्त मन में बसें, हों मस्तिष्क महेश।
शारद उमा रमा रहें, आस-श्वास- प्रश्वास।
नेह नर्मदा नयन में, जिह्वा पर विश्वास।।
रासबिहारी अधर पर, रहिए हृदय गणेश।।
पवन देव पग में भरें, शक्ति गगन लें नाप।
अग्नि देव रह उदर में, पचा सकें हर पाक।
वसुधा माँ आधार दे, वसन दिशाएँ पाक।।
हो आचार विमल सलिल, हरे पाप अरु ताप।।
रवि-शशि पक्के मीत हों, सखी चाँदनी-धूप।
ऋतुएँ हों भौजाई सी, नेह लुटाएँ खूब।
करतल हों करताल से, शुभ को सकें सराह।
तारक ग्रह उपग्रह विहँस मार्ग दिखाएँ अनूप।।
बहिना सदा जुड़ी रहे, अलग न हो ज्यों दूब।।
अशुभ दाह दे मनोबल, करे सत्य की वाह।।
२४-१२-२०२१
*
***
गंगोदक सवैया
विधान - ८ रगण।
राम हैं श्याम में, श्याम हैं राम में, ध्याइए-पाइए, कीर्ति भी गाइए।
कौन लाया कभी साथ ले जा सका, जोड़ जो जो मरा, सोच ले आइए।
कल्पना कामना, भावना याचना, वासना हो छले, भूल मुस्काइए।
साधना वंदना प्रार्थना अर्चना नित्य आराधिए, मुक्त हो जाइए।
२४-१२-२०२०
***
गीत
*
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
तकिया ले तेरी बाँहों का,
सुधियों की नव फसलें बोएँ।
*
अपनेपन की गरम रजाई,
शीत-दूरियाँ दूर भगा दे.
मतभेदों की हर सलवट आ!
एक साथ मिल परे हटा दे।
बहुत बटोरीं खुशियाँ अब तक
आओ! लुटाएँ, खुशियाँ खोएँ।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
*
हँसने और हँसाने का दिन
बीत गया तो करें न शिकवा।
मिलने, ह्रदय मिलाने की
घड़ियों का स्वागत कर ले मितवा!
ख़ुशियों में खिलखिला सके तो
दुःख में मिलकर नयन भिगोएँ।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
.*
प्रतिबंधों का मठा बिलोकर
अनुबंधों का माखन पा लें।
संबंधों की मिसरी के सँग
राधा-कान्हा बनकर खा लें।
अधरों-गालों पर चिपका जो
तृप्ति उसी में छिपी, न धो लें।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
*
२४-१२-२०१७
***
गीत:
'बड़ा दिन'
*
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....

***

कविता
हिंदी भाषी
*
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
हिंदी जिनको
रास न आती
दीगर भाषा बोल न पाते।
*
हिंदी बोल, समझ, लिख, पढ़ते
सीढ़ी-दर सीढ़ी है चढ़ते
हिंदी माटी,हिंदी पानी
श्रम करके मूरत हैं गढ़ते
मैया के माथे
पर बिंदी
मदर, मम्मी की क्यों चिपकाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
जो बोलें वह सुनें - समझते
जो समझें वह लिखकर पढ़ते
शब्द-शब्द में अर्थ समाहित
शुद्ध-सही उच्चारण करते
माँ को ठुकरा
मौसी को क्यों
उसकी जगह आप बिठलाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
मनुज-काठ में पंचस्थल हैं
जो ध्वनि के निर्गमस्थल हैं
तदनुसार ही वर्ण विभाजित
शब्द नर्मदा नद कलकल है
दोष हमारा
यदि उच्चारण
सीख शुद्ध हम नहीं सिखाते
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
अंग्रेजी के मोह में फँसे
भ्रम-दलदल में पैर हैं धँसे
भरम पाले यह जगभाषा है
जाग पायें तो मोह मत ग्रसे
निज भाषा का
ध्वज मिल जग में
हम सब काश कभी फहराते
***
कविता -
*
करें पत्ते परिंदों से गुफ्तगू
व्यर्थ रहते हैं भटकते आप क्यूँ?
दरख्तों से बँध रहें तो हर्ज़ क्या
भटकने का आपको है मर्ज़ मया?
परिंदे बोले न बंधन चाहिए
नशेमन के संग आँगन चाहिए
फुदक दाना चुन सकें हम खुद जहाँ
उड़ानों पर भी न बंदिश हो वहाँ
बिना गलती क्यों गिरें हम डाल से?
करें कोशिश जूझ लें हर हाल से
चुगा दें चुग्गा उन्हें असमर्थ जो
तौल कर पर नाप लें हम गगन को
मौन पत्ता छोड़ शाखा गिर गया
परिंदा झटपट गगन में उड़ गया
२४-१२-२०१५
***
भजन
भोले घर बाजे बधाई
स्व. शांति देवी वर्मा
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौर मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
***
गीत
चलो हम सूरज उगायें
आचार्य संजीव 'सलिल'
चलो! हम सूरज उगायें...
सघन तम से क्यों डरें हम?
भीत होकर क्यों मरें हम?
मरुस्थल भी जी उठेंगे-
हरितिमा मिल हम उगायें....
विमल जल की सुनें कल-कल।
भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
सत्य-शिव-सुंदर रचें हम-
सभी सब के काम आयें...
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
किसी के मन भाएंगे क्या?
सोच यह जीवन जियें हम।
हाथ-हाथों से मिलायें...
आत्म में विश्वात्म देखें।
हर जगह परमात्म लेखें।
छिपा है कंकर में शंकर।
देख हम मस्तक नवायें...
तिमिर में दीपक बनेंगे।
शून्य में भी सुनेंगे।
नाद अनहद गूँजता जो
सुन 'सलिल' सबको सुनायें...
***
मुक्तिका
तुम
*
सारी रात जगाते हो तुम
नज़र न फिर भी आते हो तुम.
थक कर आँखें बंद करुँ तो-
सपनों में मिल जाते हो तुम.
पहले मुझ से आँख चुराते,
फिर क्यों आँख मिलाते हो तुम?
रूठ मौन हो कभी छिप रहे,
कभी गीत नव गाते हो तुम
नित नटवर नटनागर नटखट
नचते नाच नचाते हो तुम
'सलिल' बाँह में कभी लजाते,
कभी दूर हो जाते हो तुम.

***

 दोहा सलिला:

चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।
विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।
कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।
वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, उससे सृष्टि निहाल।
'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।
***
मुक्तक
दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया।
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया।
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया।
दिल लिया दिल बिन दिए ही, दिल दिया बिन दिल लिए।
देखकर यह खेल रोते दिल बिचारे लब सिए।
फिजा जहरीली कलंकित चाँद पर लानत 'सलिल'-
तुम्हें क्या मालूम तुमने तोड़ कितने दिल दिए।
***
***
नवगीत:
खोल दो खिड़की
हवा ताजा मिलेगी
.
ओम की छवि
व्योम में हैं देखना
आसमां पर
मेघ-लिपि है लेखना
रश्मियाँ रवि की
तनिक दें ऊष्णता
कलरवी चिड़ियाँ
नहीं तुम छेंकना
बंद खिड़की हुई तो
साँसें डँसेंगी
कब तलक अमरस रहित
माज़ा मिलेगी
.
घर नहीं संसद कि
मनमानी करो
अन्नदाता पर
मेहरबानी करो
बनाकर कानून
खुद ही तोड़ दो
आप लांछित फिर
भी निगरानी करो
छंद खिड़की हुई तो
आसें मिलेंगी
क्या कभी जनता
बनी राजा मिलेगी?
.
***
मुक्तिका:
अवगुन चित न धरो
सुन भक्तों की प्रार्थना, प्रभुजी हैं लाचार
भक्तों के बस में रहें, करें गैर-उद्धार
कोई न चुने चुनाव में, करें नहीं तकरार
संसद टीवी से हुए, बाहर बहसें हार
मना जन्म उत्सव रहे, भक्त चढ़ा-खा भोग
टुकुर-टुकुर ताकें प्रभो,हो बेबस-लाचार
सब मतलब से पूजते, सब चाहें वरदान
कोई न कन्यादान ले, दुनिया है मक्कार
ब्याह गयी पर माँगती, है फिर-फिर वर दान
प्रभु की मति चकरा रही, बोले:' है धिक्कार'
वर माँगे वर-दान- दें कैसे? हरि हैरान
भला बनाया था हुआ, है विचित्र संसार
अवगुन चित धरकर कहे, 'अवगुन चित न धरो
प्रभु के विस्मय का रहा, कोई न पारावार
२४-१२-२०१४
***
जनक छंदी सलिला :
*
शुभ क्रिसमस शुभ साल हो,
मानव इंसां बन सके.
सकल धरा खुश हाल हो..
*
दसों दिशा में हर्ष हो,
प्रभु से इतनी प्रार्थना-
सबका नव उत्कर्ष हो..
*
द्वार ह्रदय के खोल दें,
बोल क्षमा के बोल दें.
मधुर प्रेम-रस घोल दें..
*
तन से पहले मन मिले,
भुला सभी शिकवे-गिले.
जीवन में मधुवन खिले..
*
कौन किसी का हैं यहाँ?
सब मतलब के मीत हैं.
नाम इसी का है जहाँ..
*
लोकतंत्र नीलाम कर,
देश बेचकर खा गये.
थू नेता के नाम पर..
*
सबका सबसे हो भला,
सभी सदा निर्भय रहें.
हर मन हो शतदल खिला..
*
सत-शिव सुन्दर है जगत,
सत-चित -आनंद ईश्वर.
हर आत्मा में है प्रगट..
*
सबको सबसे प्यार हो,
अहित किसी का मत करें.
स्नेह भरा संसार हो..
*
वही सिंधु है, बिंदु भी,
वह असीम-निस्सीम भी.
वही सूर्य है, इंदु भी..
*
जन प्रतिनिधि का आचरण,
जन की चिंता का विषय.
लोकतंत्र का है मरण..
*
शासन दुश्शासन हुआ,
जनमत अनदेखा करे.
कब सुधरेगा यह मुआ?
*
सांसद रिश्वत ले रहे,
क़ैद कैमरे में हुए.
ईमां बेचे दे रहे..
*
सबल निबल को काटता,
कुर्बानी कहता उसे.
शीश न निज क्यों काटता?
*
जीना भी मुश्किल किया,
गगन चूमते भाव ने.
काँप रहा है हर जिया..
*
आत्म दीप जलता रहे,
तमस सभी हरता रहे.
स्वप्न मधुर पलता रहे..
*
उगते सूरज को नमन,
चतुर सदा करते रहे.
दुनिया का यह ही चलन..
*
हित-साधन में हैं मगन,
राष्ट्र-हितों को बेचकर.
अद्भुत नेता की लगन..
*
सांसद लेते घूस हैं,
लोकतन्त्र के खेत की.
फसल खा रहे मूस हैं..
*
मतदाता सूची बदल,
अपराधी है कलेक्टर.
छोडो मत दण्डित करो..
*
बाँधी पट्टी आँख में,
न्यायालय अंधा हुआ.
न्याय न कर, ले बद्दुआ..
*
पहने काला कोट जो,
करा रहे अन्याय नित.
बेच-खरीदें न्याय को..
*
हरी घास पर बैठकर,
थकन हो गयी दूर सब.
रूप धूप का देखकर..
*
गाल गुलाबी लाल लख़,
रवि ऊषा को छेड़ता.
भू-माँ-गृह वह जा छिपी..
*
ऊषा-संध्या-निशा को
चन्द्र परेशां कर रहा.
सूर्य न रोके डर रहा..
*
चाँद-चाँदनी की लगन,
देख मुदित हैं माँ धरा.
तारे बाराती बने..
*
वर से वधु रूठी बहुत,
चाँद मुझे क्यों कह दिया?
गाल लाल हैं क्रोध से..
*
लहरा बल खा नाचती,
नागिन सी चोटी तेरी.
सँभल, न डस ले यह तुझे..
*
मन मीरा, तन राधिका,
प्राण स्वयं श्री कृष्ण हैं.
भवसागर है वाटिका..
***

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

हिंदी, नवगीत, षट्पदी, हाइकु, दोहा, क्षणिका

षट्पदी
*
बाँचे कोई तो कभी, अपना लिखा कवित्त।
खुद को कविवर समझकर, खुश हो जाता चित्त।।

खुश हो जाता चित्त, मित्त तालियाँ बजाते।
सुना-दिखाकर कलाकार, रोटियाँ कमाते।।

रुष्ट 'सलिल' कविराय, थमाकर नोटिस नाचे।
करे कमाई वकील, पिटीशन लिखकर बाँचे।।
***
क्षणिका
मैं बोला- आदाब!
वे समझीं- आ दाब।
खाना हुआ खराब
भागा तुरत जनाब
***
नवगीत:
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
नवगीत:
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
नवगीत:
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोरे करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
२३-१२-२०१६
***
नवगीत:
नए साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
.
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पायेगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटायी
तो क्या
घटनाक्रम होगा?
.
काशी, मथुरा, अवध
विवाद मिटेंगे क्या?
नक्सलवादी
तज विद्रोह
हटेंगे क्या?
पूर्वांचल में
अमन-चैन का
क्या होगा?
.
धर्म भाव
कर्तव्य कभी
बन पायेगा?
मानवता की
मानव जय
गुंजायेगा?
मंगल छू
भू के मंगल
का क्या होगा?
***
हाइकु सलिला:
.
मन मोहतीं
धूप-छाँव दोनों ही
सच सोहतीं
.
गाँव न गोरी
अब है सियासत
धनी न धोरी
.
तितली उड़ी
पकड़ने की चाह
फुर्र हो गयी
.
ओस कणिका
मुदित मुकुलित
पुष्प कलिका
.
कुछ तो करें
महज आलोचना
पथ न वरें
***
दोहा सलिला:
.
प्रेम चंद संग चाँदनी, सहज योग हो मीत
पानी शर्बत या दवा, पियो विहँस शुभ रीत
.
रख खातों में ब्लैक धन, लाख मचाओ शोर
जनगण सच पहचानता, नेता-अफसर चोर
.
नया साल आ रहा है, खूब मनाओ हर्ष
कमी न कोशिश में रहे, तभी मिले उत्कर्ष
.
चन्दन वंदन कर मने, नया साल त्यौहार
केक तजें, गुलगुले खा, पंचामृत पी यार
.
रहें राम-शंकर जहाँ, वहाँ कुशल भी साथ
माता का आशीष पा, हँसो उठकर माथ
***
षट्पदी :
.
है समाज परिवार में, मान हो रहे अंध
जुट समाजवादी गये, प्रबल स्वार्थ की गंध
प्रबल स्वार्थ की गंध, समूचा कुनबा नेता
घपलों-घोटालों में माहिर, छद्म प्रणेता
कथनी-करनी से हुआ शर्मसार जन-राज है
फ़िक्र न इनको देश की, संग न कोई समाज है
*
क्यों किशोर शर्मा कहे, सही न जाए शीत
च्यवनप्राश खा चुनौती, जीत बने नव रीत
जीत बने नव रीत, जुटाकर कुनबा अपना
करना सभी अनीत, देख सत्ता का सपना
कहे सलिल कविराय, नाचते हैं बंदर ज्यों
नचते नेता पिटे, मदारी स्वार्थ बना क्यों?
*
हुई अपर्णा नीम जब, तब पाती नव पात
कली पुष्प फिर निंबोली, पा पुजती ज्यों मात
पा पुजती ज्यों मात, खरे व्यवहार सिखाती
हैं अनेक में एक, एक में कई दिखाती
माता भगिनी सखी संगिनी सुता नित नई
साली सलहज समधन जीवन में सलाद हुई
***
नवगीत:
संजीव
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
नवगीत:
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीयर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोर करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
***
आलेख
हिंदी : चुनौतियाँ और संभावनाएँ
- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
रचनाकार परिचय:-
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त
कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपने निर्माण के नूपुर, नींव के
पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८
आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य,
२०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश
गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय
सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। आप मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के कार्यपालन यंत्री / संभागीय
परियोजना यंत्री पदों पर कुशलतापूर्वक कार्य कर चुके हैं.
रचनाकार परिचय: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को हिंदी तथा साहित्य के प्रति लगाव पारिवारिक विरासत में प्राप्त हुआ है. अपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी. ई., एम. आई., एम. ए. (अर्थ शास्त्र, दर्शन शास्त्र), एल-एल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डिप्लोमा कप्यूटर एप्लीकेशन में डिप्लोमा किया है. आपकी प्रकाशित कृतियाँ अ. कलम का देव (भक्ति गीत संग्रह), लोकतंत्र का मकबरा तथा मेरे (अछांदस कविताएँ) तथा भूकम्प के साथ जीना सीखें (तकनीकी लोकोपयोगी) हैं. आपने ९ पत्रिकाओं तथा १६
भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में शिशु को पूर्व प्राथमिक से ही अंग्रेजी के शिशु गीत रटाये जाते हैं. वह बिना अर्थ जाने अतिथियों को सुना दे तो माँ-बाप का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है. हिन्दी की कविता केवल २ दिन १५ अगस्त और २६ जनवरी पर पढ़ी जाती है, बाद में हिन्दी बोलना कोई नहीं चाहता. अंग्रेजी भाषी विद्यालयों में तो हिन्दी बोलने पर 'मैं गधा हूँ' की तख्ती लगाना पड़ती है. इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिन्दी यत्किंचित पढ़ता है... फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिन्दी छुटा ही देता है.
इस मानसिकता की आधार भूमि पर जब साहित्य रचना की ओर मुड़ता है तो हिन्दी भाषा, व्याकरण और पिंगल का अधकचरा ज्ञान और हिन्दी को हेय मानने की प्रवृत्ति उसे उर्दू की ओर उन्मुख कर देती है जबकि उर्दू स्वयं हिन्दी की अरबी-फारसी शब्द बाहुल्यता की विशेषता समेटे शैली मात्र है.
गत कुछ दिनों से एक और चिंतनीय प्रवृत्ति उभरी है. राजनैतिक नेताओं ने मतों को हड़पने के लिये आंचलिक बोलियों (जो हिन्दी की शैली विशेष हैं) को प्रान्तों की राजभाषा घोषित कर उन्हें हिन्दी का प्रतिस्पर्धी बनाने का कुप्रयास किया है. अंतरजाल (नेट) पर भी ऐसी कई साइटें हैं जहाँ इन बोलियों के पक्षधर जाने-अनजाने हिन्दी विरोध तक पहुँच जाते हैं जबकि वे जानते हैं कि क्षेत्र विशेष के बाहर बोलिओं की स्वीकृति नहीं हो सकती.
मैंने इस के विरुद्ध रचनात्मक प्रयास किया और खड़ी हिन्दी के साथ उर्दू, बृज, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, मारवाड़ी, छत्तीसगढ़ी, बुन्देली आदि भाषारूपों में रचनाएँ इन साइटों को भेजीं, कुछ ई कविता के मंच पर भी प्रस्तुत कीं. दुःख हुआ कि एक बोली के पक्षधर ने किसी अन्य बोली की रचना में कोई रूचि नहीं दिखाई. इस स्थिति का लाभ अंग्रेजी के पक्षधर ले रहे हैं.
उर्दू के प्रति आकर्षण सहज स्वाभाविक है... वह अंग्रेजों के पहले मुग़ल काल में शासन-प्रशासन की भाषा रही है. हमारे घरों के पुराने कागजात उर्दू लिपि में हैं जिन्हें हमारे पूर्वजों ने लिखा है. उर्दू की उस्ताद-शागिर्द परंपरा इस शैली को लगातार आगे बढ़ाती और नये रचनाकारों को शिल्प की बारीकियाँ सिखाती हैं. हिन्दी में जानकार नयी कलमों को अतिउत्साहित, हतोत्साहित या उपेक्षित करने में गौरव मानते हैं. अंतरजाल आने के बाद स्थिति में बदलाव आ रहा है... किन्तु अभी भी रचना की कमी बताने पर हिन्दी का कवि उसे अपनी शैली कहकर शिल्प, व्याकरण या पिंगल के नियम मानने को तैयार नहीं होता. शुद्ध शब्द अपनाने के स्थान पर उसे क्लिष्ट कहकर बचता है. उर्दू में पाद टिप्पणी में अधिक कठिन शब्द का अर्थ देने की रीति हिन्दी में अपनाना एक समाधान हो सकता है.
हर भारतीय यह जानता है कि पूरे भारत में बोली-समझी जानेवाली भाषा हिन्दी और केवल हिन्दी ही हो सकती है तथा विश्व स्तर पर भारत की भाषाओँ में से केवल हिन्दी ही विश्व भाषा कहलाने की अधिकारी है किन्तु सच को जानकर भी न मानने की प्रवृत्ति हिन्दी के लिये घातक हो रही है.
हम रचना के कथ्य के अनुकूल शब्दों का चयन कर अपनी बात कहें... जहाँ लगता हो कि किसी शब्द विशेष का अर्थ सामान्य पाठक को समझने में कठिनाई होगी वहाँ अर्थ कोष्ठक या पाद टिप्पणी में दे दें. किसी पाठक को कोई शब्द कठिन या नया लगे तो वह शब्द कोष में अर्थ देख ले या रचनाकार से पूछ ले.
हिन्दी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओँ के साहित्य को आत्मसात कर हिन्दी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषय-वस्तु को हिन्दी में अभिव्यक्त करने की है. हिन्दी के शब्द कोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है. इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओँ, विदेशी भाषाओँ, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना जरूरी है.
एक सावधानी रखनी होगी. अंग्रेजी के नये शब्द कोष में हिन्दी के हजारों शब्द समाहित किये गये हैं किन्तु कई जगह उनके अर्थ/भावार्थ गलत हैं... हिन्दी में अन्यत्र से शब्द ग्रहण करते समय शब्द का लिंग, वचन, क्रियारूप, अर्थ, भावार्थ तथा प्रयोग शब्दकोष में हो तो उपयोगिता में वृद्धि होगी. यह महान कार्य सैंकड़ों हिन्दीप्रेमियों को मिलकर करना होगा. विविध विषयों के निष्णात जन अपने विषयों के शब्द-अर्थ दें जिन्हें हिन्दी शब्द कोष में जोड़ा जाये.
रचनाकारों को हिन्दी का प्रामाणिक शब्द कोष, व्याकरण तथा पिंगल की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब जैसे समय मिले पढ़ने की आदत डालनी होगी. हिन्दी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी या ने किसी भाषा/बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं अपितु भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है चूँकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती.
२३-१२-२०१४
***

गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

हाइकु गीत, सॉनेट, नारी, मुक्तक, गीत, मुक्तिका, मातृ वंदना, रेफ,

हाइकु गीत  

जोड़-घटाना
प्रेम-नफरत को,
जीवन जीना.....
गुणा करना  / परिश्रम का मीत / मत थकना। 
भाग करना / थकावट का, जीत / मत रुकना।।
याद रखना 
वस्त्र फ़टे या दिल 
तुरंत सीना..... 
 
प्रेम परिधि / संदेह के चाप से  / कट न सके। 
नेह निधि  / आय घट-बढ़ से / घट न सके।।  
नहीं फलता 
गैर का प्राप्य यदि 
तुमने छीना..... 
जीवन रेखा / सरल हो या वक्र / टूट न सके। 
भाग्य का लेखा / हाथ में लिया हाथ / छूट न सके।।  
लाज का पर्दा  
लोहे से मजबूत 
किंतु है झीना..... 

संजीव 
२२-१२-२०२२, २०.३३ 
जबलपुर 
***
सॉनेट
नारी
*
शारद-रमा-उमा की जय-जय, करती दुनिया सारी।
भ्रांति मिटाने साथ हाथ-पग बढ़ें तभी हो क्रांति।
एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी।।
सफल साधना तभी रहे जब जीवन में सुख-शांति।।
जाया-माया, भोगी-भोग्या, चित-पट अनगिन रंग।
आशा पुष्पा दे बगिया को, सुषमा-किरण अनंत।
पूनम तब जब रहे ज्योत्सना, रजनीपति के संग।।
उषा-दुपहरी-संध्या सहचर दिनपति विभा दिगंत।।
शिक्षा-दीक्षा, रीति-नीति बिन सार्थक हुई न श्वासा।
क्षुधा-पिपासा-तृष्णा बिना हो, जग-जीवन बेरंग।
कीर्ति-प्रतिष्ठा, सज्जा-लज्जा से जीवन मधुमासा।।
राधा धारा भक्ति-मुक्ति की, शुभ्रा-श्वेता संग।।
अमला विमला धवला सरला, सुख प्रदायिनी नारी।
मैया भगिनि भामिनि भाभी पुत्री सखी दुलारी।।
२२-१२-२०२१
***
मुक्तक:
*
दे रहे सब कौन सुनता है सदा?
कौन किसका कहें होता है सदा?
लकीरों को पढ़ो या कोशिश करो-
वही होता जो है किस्मत में बदा।
*
ठोकर खाएँ नहीं हम हार मानते।
कारण बिना नहीं किसी से रार ठानते।।
कुटिया का छप्पर भी प्यारा लगता-
संगमर्मरी ताजमहल हम न जानते।।
*
तम तो पहले भी होता था, ​अब भी होता है।
यह मनु पहले भी रोता था, अब रोता है।।
पहले थे परिवार, मित्र, संबंधी उसके साथ-
आज न साया संग इसलिए धीरज खोता है।।
*
२२.१२.२०१८
***
मुक्तक
*
जब बुढ़ापा हो जगाता रात भर
याद के मत साथ जोड़ो मन इसे.
प्रेरणा, जब थी जवानी ली नहीं-
मूढ़ मन भरमा रहा अब तू किसे?
२२-१२-२०१६
***
सामयिक गीत :
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
तुम ही नहीं सयाने जग में
तुम से कई समय के मग में
धूल धूसरित पड़े हुए हैं
शमशानों में गड़े हुए हैं
अवसर पाया काम करो कुछ
मिलकर जग में नाम करो कुछ
रिश्वत-सुविधा-अहंकार ही
झिला रहे हो, झेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
दलबंदी का दलदल घातक
राजनीति है गर्हित पातक
अपना पानी खून बताएँ
खून और का व्यर्थ बहाएँ
सच को झूठ, झूठ को सच कह
मैली चादर रखते हो तह
देशहितों की अनदेखी कर
अपनी नाक नकेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
२१-१२-२०१५
***
मुक्तिका:
नए साल का अभिनंदन
अर्पित है अक्षत-चंदन
तम हरने दीपक जलता
कब कहता है लगी अगन
कोशिश हार न मानेगी
मरु को कर दे नंदन वन
लक्ष्य वही वर पाता है
जो प्रयास में रहे मगन
बाधाओं को विजय करे
दृढ़ हो जिसका अंतर्मन
गिर मत रुक, उठ आगे बढ़
मत चुकने दे 'सलिल' लगन
बंदूकों से 'सलिल' न डर
जीता भय पर सदा अमन
***
धूप -छाँव: बात निकलेगी तो फिर
गुजरे वक़्त में कई वाकये मिलते हैं जब किसी साहित्यकार की रचना को दूसरे ने पूरा किया या एक की रचना पर दूसरे ने प्रति-रचना की. अब ऐसा काम नहीं दिखता। संयोगवश स्व. डी. पी. खरे द्वारा गीता के भावानुवाद को पूर्ण करने का दायित्व उनकी सुपुत्री श्रीमती आभा खरे द्वारा सौपा गया. किसी अन्य की भाव भूमि पर पहुँचकर उसी शैली और छंद में बात को आगे बढ़ाना बहुत कठिन मशक है. धूप-छाँव में हेमा अंजुली जी के कुछ पंक्तियों से जुड़कर कुछ कहने की कोशिश है. आगे अन्य कवियों से जुड़ने का प्रयास करूंगा ताकि सौंपे हुए कार्य के साथ न्याय करने की पात्रता पा सकूँ. पाठक गण निस्संकोच बताएं कि पूर्व पंक्तियों और भाव की तारतम्यता बनी रह सकी है या नहीं? हेमा जी को उनकी पंक्तियों के लिये धन्यवाद।
हेमा अंजुली
इतनी शिद्दत से तो उसने नफ़रत भी नहीं की ....
जितनी शिद्दत से हमने मुहब्बत की थी.
.
सलिल:
अंजुली में न नफरत टिकी रह सकी
हेम पिघला फिसल बूँद पल में गई
साथ साये सरीखी मोहब्बत रही-
सुख में संग, छोड़ दुख में 'सलिल' छल गई
*
हेमा अंजुली
तुम्हारी वो एक टुकड़ा छाया मुझे अच्छी लगती है
जो जीवन की चिलचिलाती धूप में
सावन के बादल की तरह
मुझे अपनी छाँव में पनाह देती है
.
सलिल
और तुम्हारी याद
बरसात की बदरी की तरह
मुझे भिगाकर अपने आप में सिमटना
सम्हलना सिखा आगे बढ़ा देती है.
*
हेमा अंजुली
कभी घटाओं से बरसूँगी ,
कभी शहनाइयों में गाऊँगी,
तुम लाख भुलाने कि कोशिश कर लो,
मगर मैं फिर भी याद आऊँगी ...
.
सलिल
लाख बचाना चाहो
दामन न बचा पाओगे
राह पर जब भी गिरोगे
तुम्हें उठायेंगे
*
हेमा अंजुली
छाने नही दूँगी मैं अँधेरो का वजूद
अभी मेरे दिल के चिराग़ बाकी हैं
.
सलिल
जाओ चाहे जहाँ मुझको करीब पाओगे
रूह में खनक के देखो कि आग बाकी है
*
हेमा अंजुली
सूरत दिखाने के लिए तो
बहुत से आईने थे दुनिया में
काश! कि कोई ऐसा आईना होता
जो सीरत भी दिखाता
.
सलिल
सीरत 'सलिल' की देख टूट जाए न दर्पण
बस इसलिए ही आइना सूरत रहा है देख
***
मुक्तक
मन-वीणा जब करे ओम झंकार
गीत हुलास कर खटकाते हैं द्वार
करे संगणक स्वागत टंकण यंत्र-
सरस्वती मैया की जय-जयकार
***
मातृ वंदना -
*
ममतामयी माँ नंदिनी-करुणामयी माँ इरावती।
सन्तान तेरी मिल उतारें, भाव-भक्ति से आरती...
लीला तुम्हारी हम न जानें, भ्रमित होकर हैं दुखी।
सत्पथ दिखाओ माँ, बने सन्तान सब तेरी सुखी॥
निर्मल ह्रदय के भाव हों, किंचित न कहीं अभाव हों-
सात्विक रहे आचार, माता सदय रहो निहारती..
कुछ काम जग के आ सकें, महिमा तुम्हारी गा सकें।
सत्कर्म कर आशीष मैया!, पुत्र तेरे पा सकें॥
निष्काम औ' निष्पक्ष रह, सब मोक्ष पायें अंत में-
निश्छल रहें मन-प्राण, वाणी नित तम्हें गुहारती...
चित्रेश प्रभु केकृपा मैया!, आप ही दिलवाइये।
जैसे भी हैं, हैं पुत्र माता!, मत हमें ठुकराइए॥
कंकर से शंकर बन सकें, सत-शिव औ' सुंदर वर सकें-
साधना कर सफल, क्यों मुझ 'सलिल' को बिसारती...
२१-१२-२०१४
***
विचार-विमर्श नारी प्रताड़ना का दंड? संजीव 'सलिल'
*
दिल्ली ही नहीं अन्यत्र भी भारत हो या अन्य विकसित, विकासशील या पिछड़े देश, भाषा-भूषा, धर्म, मजहब, आर्थिक स्तर, शैक्षणिक स्तर, वैज्ञानिक उन्नति या अवनति सभी जगह नारी उत्पीडन एक सा है. कहीं चर्चा में आता है, कहीं नहीं किन्तु इस समस्या से मुक्त कोई देश या समाज नहीं है.
फतवा हो या धर्मादेश अथवा कानून नारी से अपेक्षाएं और उस पर प्रतिबन्ध नर की तुलना में अधिक है. एक दृष्टिकोण 'जवान हो या बुढ़िया या नन्हीं सी गुडिया, कुछ भी हो औरत ज़हर की है पुड़िया' कहकर भड़ास निकलता है तो दूसरा नारी संबंधों को लेकर गाली देता है.
यही समाज नारी को देवी कहकर पूजता है यही उसे भोगना अपना अधिकार मानता है.
'नारी ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया' यदि मात्र यही सच है तो 'एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी' कहनेवाला पुरुष आजीवन माँ, बहन, भाभी, बीबी या कन्या के स्नेहानुशासन में इतना क्यों बंध जाता है 'जोरू का गुलाम कहलाने लगता है.
स्त्री-पीड़ित पुरुषों की व्यथा-कथा भी विचारणीय है.
घर में स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखनेवाला युअव अकेली स्त्री को देखते ही भोगने के लिए लालायित क्यों हो जाता है?
ऐसे घटनाओं के अपराधी को दंड क्या और कैसे दिया जाए. इन बिन्दुओं पर विचार-विमर्श आवश्यक प्रतीत होता है. आपका स्वागत है.
२२-१२-२०१२
***
विमर्श : रेफ युक्त शब्द
राकेश खंडेलवाल
रेफ़ वाले शब्दों के उपयोग में अक्सर गलती हो जाती हैं। हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है। '
१. कर्म, धर्म, सूर्य, कार्य
२. प्रवाह, भ्रष्ट, ब्रज, स्रष्टा
३. राष्ट्र, ड्रा
जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है, जिसके ऊपर यह लगता है। रेफ़ के उपयोग में ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वर के ऊपर नहीं लगाया जाता। यदि अर्ध 'र' के बाद का वर्ण आधा हो, तब यह बाद वाले पूर्ण वर्ण के ऊपर लगेगा, क्योंकि आधा वर्ण में स्वर नहीं होता। उदाहरण के लिए कार्ड्‍‍स लिखना गलत है। कार्ड्‍स में ड्‍ स्वर विहीन है, जिस कारण यह रेफ़ का भार वहन करने में असमर्थ है। इ और ई जैसे स्वरों में रेफ़ लगाने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए स्पष्ट है कि किसी भी स्वर के ऊपर रेफ़ नहीं लगता।
ब्रज या क्रम लिखने या बोलने में ऐसा लगता है कि यह 'र' की अर्ध ध्वनि है, जबकि यह पूर्ण ध्वनि है। इस तरह के शब्दों में 'र' का उच्चारण उस वर्ण के बाद होता है, जिसमें यह लगा होता है ,
जब भी 'र' के साथ नीचे से गोल भाग वाले वर्ण मिलते हैं, तब इसके /\ रूप क उपयोग होता है, जैसे-ड्रेस, ट्रेड, लेकिन द और ह व्यंजन के साथ 'र' के / रूप का उपयोग होता है, जैसे- द्रवित, द्रष्टा, ह्रास।
संस्कृत में रेफ़ युक्त व्यंजनों में विकल्प के रूप में द्वित्व क उपयोग करने की परंपरा है। जैसे- कर्म्म, धर्म्म, अर्द्ध। हिंदी में रेफ़ वाले व्यंजन को द्वित्व (संयुक्त) करने का प्रचलन नहीं है। इसलिए रेफ़ वाले शब्द गोवर्धन, स्पर्धा, संवर्धन शुद्ध हैं।
''जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है। '' के संबंध में नम्र निवेदन है कि रेफ कभी भी 'शब्द' पर नहीं लगाया जाता. शब्द के जिस 'अक्षर' या वर्ण पर रेफ लगाया जाता है, उसके पूर्व बोला या उच्चारित किया जाता है।
- संजीव सलिल:
''हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है.'' के संदंर्भ में निवेदन है कि हिन्दी में 'र' का संयुक्त रूप से प्रयोग चार तरीकों से होता है। उक्त अतिरिक्त ४. कृष्ण, गृह, घृणा, तृप्त, दृष्टि, धृष्ट, नृप, पृष्ठ, मृदु, वृहद्, सृष्टि, हृदय आदि। यहाँ उच्चारण में छोटी 'इ' की ध्वनि समाविष्ट होती है जबकि शेष में 'अ' की।
यथा: कृष्ण = krishn, क्रम = kram, गृह = ग्रिह grih, ग्रह = grah, श्रृंगार = shringar, श्रम = shram आदि।
राकेश खंडेलवाल :
एक प्रयोग और: अब सन्दर्भ आप ही तलाशें:
दोहा:-
सोऽहं का आधार है, ओंकार का प्राण।
रेफ़ बिन्दु वाको कहत, सब में व्यापक जान।१।
बिन्दु मातु श्री जानकी, रेफ़ पिता रघुनाथ।
बीज इसी को कहत हैं, जपते भोलानाथ।२।
हरि ओ३म तत सत् तत्व मसि, जानि लेय जपि नाम।
ध्यान प्रकाश समाधि धुनि, दर्शन हों बसु जाम।३।
बांके कह बांका वही, नाम में टांकै चित्त।
हर दम सन्मुख हरि लखै, या सम और न बित्त।४।
रेफ का अर्थ:
-- वि० [सं०√रिफ्+घञवार+इफन्] १. शब्द के बीच में पड़नेवाले र का वह रूप जो ठीक बाद वाले स्वरांत व्यंजन के ऊपर लगाया जाता है। जैसे—कर्म, धर्म, विकर्ण। २. र अक्षर। रकार। ३. राग। ४. रव। शब्द। वि० १. अधम। नीच। २. कुत्सित। निन्दनीय। -भारतीय साहित्य संग्रह.
-- पुं० [ब० स०] १. भागवत के अनुसार शाकद्वीप के राजा प्रियव्रत् के पुत्र मेधातिथि के सात पुत्रों में से एक। २. उक्त के नाम पर प्रसिद्ध एक वर्ष अर्थात् भूखंड।
रेफ लगाने की विधि : डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक', शब्दों का दंगल में
हिन्दी में रेफ अक्षर के नीचे “र” लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है?
यदि ‘र’ का उच्चारण अक्षर के बाद हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के नीचे लगेगी जिस के बाद ‘र’ का उच्चारण हो रहा है। यथा - प्रकाश, संप्रदाय, नम्रता, अभ्रक, चंद्र।
हिन्दी में रेफ या अक्षर के ऊपर "र्" लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र्’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ? “र्" का उच्चारण जिस अक्षर के पूर्व हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के ऊपर लगेगी जिस के पूर्व ‘र्’ का उच्चारण हो रहा है । उदाहरण के लिए - आशीर्वाद, पूर्व, पूर्ण, वर्ग, कार्यालय आदि ।
रेफ लगाने के लिए जहाँ पूर्ण "र" का उच्चारण हो रहा है वहाँ उस अक्षर के नीचे रेफ लगाना है जिसके पश्चात "र" का उच्चारण हो रहा है। जैसे - प्रकाश, संप्रदाय , नम्रता, अभ्रक, आदि में "र" का पूर्ण उच्चारण हो रहा है ।
*
६३ ॥ श्री अष्टा वक्र जी ॥
दोहा:-
रेफ रेफ तू रेफ है रेफ रेफ तू रेफ ।
रेफ रेफ सब रेफ है रेफ रेफ सब रेफ ॥१॥
*
१५२ ॥ श्री पुष्कर जी ॥
दोहा:-
रेफ बीज है चन्द्र का रेफ सूर्य का बीज ।
रेफ अग्नि का बीज है सब का रेफैं बीज ॥१॥
रेफ गुरु से मिलत है जो गुरु होवै शूर ।
तो तनकौ मुश्किल नहीं राम कृपा भरपूर ॥२॥
*
चलते-चलते : अंग्रेजी में रेफ का प्रयोग सन्दर्भ reference और खेल निर्णायक refree के लिये होता है.
***

बुधवार, 21 दिसंबर 2022

लेख, सत्यार्थ प्रकाश, कृष्ण, दयानंद सरस्वती, आर्य समाज

लेख 
सत्यार्थ प्रकाश में श्री कृष्ण
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

सत्यार्थ प्रकाश प्रसिद्ध समाज सुधारक,वेदों के प्रकांड पंडित, आर्य समाज के प्रणेता स्वामी दयानंद सरस्वती जी का अमर ग्रंथ है। स्वामी जी के अनुसार पूरे महाभारत में श्री कृष्ण के चरित्र में कोई दोष नहीं मिलता, वे आप्त (श्रेष्ठ) पुरुष हैं। स्वामी दयानंद श्री कृष्ण जी को महान् विद्वान् सदाचारी, कुशल राजनीतिज्ञ एवं सर्वथा निष्कलंक निरूपित करते हैं। वे विविध पुराणों में कृष्ण जी द्वारा राधा तथा अन्य गोपिकाओं द्वारा रास लीला को कल्पित, मिथ्या तथा श्री कृष्ण की भगवत्ता को आक्षेपित करने का कुत्सित प्रयास कहते हैं जिसे कालांतर में लिखकर जोड़ दिया गया ताकि सनातनधर्मी कृष्ण भक्त हिन्दुओं को अपमानित कर अन्य धर्म की ओर उन्मुख करना सहज हो जाए। स्वामी जी के अनुसार महाभारत में श्रीकृष्ण की भूमिका महामानव की थी, इसलिए उन्हें भगवान कहा गया।

धर्म परायण 

स्वामी दयानन्द जी कृष्ण को धर्म और न्याय का  पक्षधर बताते हुए कहते हैं कि पाण्डव धर्म परायण थे इसलिए श्री कृष्ण ने पांडवों का साथ दिया और उन्हें विजय श्री प्राप्त करवाई। कौरव सभा में स्वयं श्रीकृष्ण ने इस संकल्प की घोषणा की-

यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः ।।   - महाभारत, उद्योग पर्व ९५/४८ 

जहाँ सभासदों के देखते-देखते अधर्म के द्वारा धर्म का और असत्य द्वारा सत्य का हनन होता है, वहाँ  वे सभासद नष्ट हुए जाने जाते हैं।

दृढ़प्रतिज्ञ 

श्रीकृष्ण दृढ़प्रतिज्ञ थे। उन्होंने दुर्योधन की राज सभा में जाने से पहले द्रौपदी के सम्मुख जो प्रतिज्ञा की थी उसका भली-भाँति निर्वहन किया। जब द्रौपदी ने रोते हुए, बायें हाथ में अपने केशों को लेकर अपने अपमान का बदला लेने का उलाहना दिया, तब श्रीकृष्ण बोले-

चलेद्धि हिमवाञ्छैलो मेदिनी शतधा भवेत् ।
द्यौः पतेच्च सनक्षत्रा न मे मोघं वचो भवेत् ।।   - महाभारत, उद्योग पर्व ८२/४८ 

चाहे हिमालय पर्वत अपने स्थान से टल जाए, पृथ्वी के सैकड़ों टुकड़े हो जाएँ और नक्षत्रोंसहित आकाश टूट पड़े, परंतु मेरा संकल्प असत्य नहीं हो सकता। इससे पूर्व श्री कृष्ण ने यह प्रतिज्ञा की थी-

धार्तराष्ट्राः कालपक्वा न चेच्छृण्वन्ति मे वचः ।
शेष्यन्ते निहिता भूमौ श्वश्रृगालादनीकृताः ।।    - महाभारत, उद्योग पर्व ८२/४७ 

यदि काल के गाल में जानेवाले धृतराष्ट्र-पुत्र मेरी बात नहीं सुनेंगे तो वे सब मारे जाकर पृथ्वी पर सदा की नींद सो जाएँगे और कुत्तों तथा स्यारों का भोजन बनेंगे।

सहिष्णुता तथा स्पष्टवादिता 

श्री कृष्ण में सहनशीलता का अद्भुत गुण भी था। राजसूय यज्ञ में श्री कृष्ण को अग्रपूजन  हेतु मनोनीत किये जाने से आक्रोशित शिशुपाल द्वारा दुर्वाकगन कहे जाने पर श्रीकृष्ण ने साफ़-साफ़ कहा कि मैं तुम्हारी सौ गालियाँ सहन कर लूँगा परंतु   इससे जब तुम इससे आगे बढ़ोगे तो तुम्हारा सिर धड़ से पृथक कर दूँगा। शिशुपाल के नने चेतावनी की अनदेखी कर कृष्ण को दुर्वचन कहना जारी रखा तो श्री कृष्ण ने तत्क्षण सुदर्शन चक्र का वार कर शिशुपाल के मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। 
 
एवमुक्त्वा यदुश्रेष्ठश्चेदिराजस्य तत्क्षणात् ।
व्यापहरच्छिरः क्रुद्धश्चक्रेणामित्रकर्षणः ।।   - महाभारत, सभा पर्व ४५/२५ 

अर्थ:-ऐसा कहकर कुपित हुए शत्रुनाशक यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण ने चक्र से उसी क्षण चेदिराज शिशुपाल का सिर उड़ा दिया।

कर्तव्य परायणता तथा निर्लोभता  

श्री कृष्ण में प्राण-प्राण से अपने कर्तव्य के निर्वहन की भावना थी किंतु वे कर्तव्य निष्पादन कर स्वार्थ सिद्धि की कामना  मुक्त थे। उन्होंने कंस के अधर्माचरण के कारण तथा उसके द्वारा  ललकारेजाने पर  मल्ल युद्ध कर उसका  वध किया पर उसका राज्य अपने हाथ में नहीं लिया अपितु कंस के वयोवृद्ध पिता उग्रसेन (जिनसे राज्य छीनकर कंस ने कारागृह  रखा था) को राजसत्ता सौंप दी। 

उग्रसेनः कृतो राजा भोजराज्यस्य वर्द्धनः ।   - महाभारत, उद्योग पर्व  १२८/३९

इसी तरह जरासन्ध के वध के पश्चात्  श्रीकृष्ण ने उसके बेटे सहदेव का राज्याभिषेक किया।

ईश्वरोपासक 

जगत्पालक विष्णु का अवतार कहे गए श्रीकृष्ण स्वयं ईश्वरोपासक थे। वे  नित्य-प्रति सन्ध्या, हवन और गायत्री जाप करते थे। 

अवतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि ।
रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह ।।  - महाभारत, उद्योग पर्व ८४/२१ 

जब सूर्यास्त होने लगा तब श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही रथ से उतरकर रथ खोलने का आदेश दिया और पवित्र होकर सन्ध्योपासना करने लगे।

सर्वमान्य तथा लोकप्रिय 

श्रीकृष्ण महाभारत काल में महामान्यों के मध्य सर्वमान्य तथा जन सामान्य के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय महापुरुष थे।राजसूय यज्ञ के अवसर पर भीष्म पितामह ने प्रधान अर्घ्य देते हुए उनके विषय में यह कहा था -

वेदवेदांगविज्ञानं बलं चाभ्यधिकं तथा ।
नृणांलोकेहि कोsन्योsस्ति विशिष्टः केशवादृते ।।
दानं दाक्ष्यं श्रुतं शौर्यं ह्रीः कीर्तिर्बुद्धिरुत्तमा ।
सन्नतिः श्रीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिश्च नियताच्युते ।।   - महाभारत, सभा पर्व ३८/१९/२० 

आप वेद-वेदांग के ज्ञाता तो हैं ही, बल में भी सबसे अधिक हैं। श्रीकृष्ण के सिवा इस युग के संसार में मनुष्यों में दूसरा कौन है? दान, दक्षता, शास्त्र-ज्ञान, शौर्य, आत्मलज्जा, कीर्ति, उत्तम बुद्धि, विनय, श्री, धृति, तुष्टि और पुष्टि, ये सभी गुण श्रीकृष्ण में विद्यमान हैं।

व्यसन विरोधी 

श्री कृष्ण किसी भी प्रकार के व्यसन के घोर विरोशी थे। अग्रज बलराम में मद्यपान तथा पांडव प्रमुख युधिष्ठिर में द्यूत क्रीड़ा (पाँसे खेलना) की कुप्रवृत्ति होने के श्रीकृष्ण  इनसे हमेश दूर ही रहे। काम्यक वन में युधिष्ठिर से मिले तो उन्होने कहा-

आगच्छेयमहं द्यूतमनाहूतोsपि कौरवैः ।
वारयेयमहं द्यूतं दोषान् प्रदर्शयन् ।।   -- महाभारत, वन पर्व १३/१-२ 

हे राजन् ! यदि मैं पहले द्वारका में या उसके निकट होता तो आप इस भारी संकट में न पड़ते। मैं कौरवों के बिना बुलाए ही उस द्यूत-सभा में जाता और जुए के अनेक दोष दिखाकर उसे रोकने की पूरी चेष्टा करता।

एक पत्नि व्रत 

स्वामी दयानंद सरस्वती के मत में श्रीकृष्ण एक पत्नी व्रती थे। इसका प्रमाण देते हुए स्वामी जी लिखते हैं, महाभारत युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व अश्वत्थामा श्रीकृष्ण से सुदर्शनचक्र प्राप्त करने की इच्छा से उनके पास गए, तब श्रीकृष्ण ने कहा –

ब्रह्मचर्यं महद् घोरं तीर्त्त्वा द्वादशवार्षिकम् ।
हिमवत्पार्श्वमास्थाय यो मया तपसार्जितः ।।
समानव्रतचारिण्यां रुक्मिण्यां योsन्वजायत ।
सनत्कुमारस्तेजस्वी प्रद्युम्नो नाम में सुतः ।।   - महाभारत, सौप्तिक पर्व १२/३०, ३१ 

मैंने १२ वर्ष तक रुक्मिणी के साथ हिमालय में ठहरकर घोर ब्रह्मचर्य का पालन कर सनत्कुमार के समान तेजस्वी प्रद्युम्न नाम के पुत्र को प्राप्त किया था। विवाह के पश्चात् १२ वर्ष तक पूर्ण ब्रह्मचर्य को धारण करना श्रीकृष्ण के आत्म संयम का महान उदाहरण है। स्वामी जी पूछते हैं कि ऐसा संयमी और जितेन्द्रिय पुरुष पराई स्त्रियों के साथ रास लीला कैसे कर सकता है?

स्वामी दयानंद सरस्वती जी तथा आर्य समाज धर्मावलंबी विष्णु पुराण अंश 5 अध्याय 13 श्लोक 59-60,  भागवत पुराण स्कन्द 10 अध्याय 33 श्लोक 17, भागवत पुराण स्कन्द 10 अध्याय 29 श्लोक 45-46 आदि में श्री कृष्ण द्वारा कालिंदी के तट पर गोपिकाओं के साथ रमण के अति श्रृंगारिक रास वर्णन को प्रक्षिप्त, कपोल कल्पित तथा सनातन धर्म व श्रीकृष्ण को लोक निंदा का भागी बनाने का कुप्रयास मानते हैं। 

राधा जी - काल्पनिक चरित्र?   

वर्तमान में लोक में राधा-कृष्ण की प्रतिष्ठा युगल के रूप है किन्तु श्री कृष्ण के बाद उन पर रचित प्रथम महत्वपूर्ण ग्रंथ हरिवंश पुराण तथा महाभारत में राधा का नाम ही नहीं मिलता। राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय 3 श्लोक 59-62 तथा अध्याय १५ में लोक विपरीत आचरण करते हुए मिलता है। वे अपने पति तथा परिवार जनों द्वारा निषेध किये जाने पर भी श्रीकृष्ण में आसक्त वर्णित हैं। वे रुष्ट होकर कृष्ण को लंपट आदि कहकर शाप देती बताई गई  हैं। स्वामी दयानंद राधा के चरित्र को कालांतर में जोड़ा गया काल्पनिक चरित्र कहते हैं। राधा-कृष्ण का संबंध विविध ग्रंथों व प्रसंगों में अलग-अलग बताया गया है। राधा कृष्ण के बामांग से पैदा होने के कारण कृष्ण की पुत्री थी अथवा कृष्णांश रायण की  विवाहिता के नाते कृष्ण की पुत्रवधु थी अथवा कृष्ण की माता यशोदा के भाई रायण की पत्नी होने के नाते कृष्ण की मामी थी? आर्य समाज धर्मावलंबी इस कारण राधा के चरित्र को काल्पनिक कहते हैं। कृष्ण द्वारा कुब्जा के साथ रमण को भी स्वामी जी प्रक्षिप्त अंश मानते हैं। 

कृष्ण - गोपिका संबंध 

पद्मपुराण उत्तर खंड अध्याय 245 के अनुसार  त्रेता में विष्णु के अवतार रामचंद्र जी के दंडक अरण्य में जब पहुँचने पर सुंदर स्वरूप को देखकर वहाँ के निवासी ऋषि-मुनि उनसे भोग करने की इच्छा करने लगे। उन ऋषिओं ने द्वापर के अंत में गोपियों के रूप में जन्म लिया और विष्णु के अवतार कृष्ण के भोग किया। इससे उन्हें मोक्ष मिला। तर्क को सत्य और धर्म का आधार माननेवाले स्वामी दयानंद जी और आर्य मतावलंबी उक्त वर्णन को स्वीकार नहीं करते। 

मत-मतांतर 

आनंदमठ एवं वंदे मातरम के रचियता बंकिमचंद्र चटर्जी (जिन्होंने 36 वर्ष तक महाभारत पर अनुसंधान कर श्री कृष्ण जी महाराज पर उत्तम ग्रंथ लिखा के अनुसार श्री कृष्ण जी की केवल एक ही पत्नी रुक्मणी थी। रुक्मणी से विवाह के पश्चात श्री कृष्ण रुक्मणी के साथ बदरिकाश्रम चले गए , जहाँ 12 वर्ष तक तप एवं ब्रहमचर्य का पालन करने के पश्चात उनका एक पुत्र प्रद्युम्न हुआ। 

प्रसिद्ध उपन्यासकार व राजनेता स्व. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कृष्ण कथा पर ८ उपन्यासों (मोहक बाँसुरी, सम्राट का प्रकोप, पांच पांडव, भीम, सत्यभामा, महामुनि व्यास, युधिष्ठिर तथा कुरुक्षेत्र) के आरंभ में स्वीकारा है की राधा कल्पित हैं किंतु लोक मान्यता का मान रखते हुए वे राधा के चरित्र को यथास्थान प्रस्तुत कर रहे हैं। 
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पुराणों के कृष्ण लेखक : डा0 श्रीराम आर्य
(खण्डन-मण्डनात्मक साहित्य के प्रणेता)
अमर स्वामी प्रकाशन विभाग १०५८, विवेकानन्द नगर, गाज़ियाबाद्ु-२०१००१ (उत्तर प्रदेश)
तृतीय संस्करण नवम्बर-२००२ ई०) सै | (पूल्य- पाँच रूपये 30॥॥60 0५ (ध56घाशहश () *
| हे . ॥ओइसू। - .*.
आद्य निवेदन
इस पुस्तक को लिखने में हमारी. कोई दिलचस्पी नहीं थी । पर जब मि० माधवाचार्य जी की पस्तक हमारे सामने आई और जनता में पौराणिक पंडिंत ने हमारे सीधे-सांधे सत्य छिज्ञापन पर झूठ का परदा डालकर हमको व ऋषि दयान॑न्द को गालियां दी हैं और जनता को भ्रम में डाला है, हंमें इच्छा न होते हुए भी पुराणों के आधार पर उसके पाखण्ड वा भण्डाफोड़ करना पड़ा है महानात्मा श्रीकृष्ण जी भसहाराजं सर्वथा निष्क॑लक थे उनकी एक पत्नी रुक्मिणी थी व एक उसका उन्होंने प्रचार किया , तो यह देखकर कि किस प्रकार इस. « पुत्र प्रयुम्न था। हम आर्य सुमाजी लोग उनको अपना व भारतीय “शपष्ट्र का महान आदर्श पूर्वज मानते हैं। उसका जन्म यादव कुल पे हुआ या। बाल्यावस्था में गौ चराने का कार्य उन्होंने किया था। ' छ्दाठतऊ एदातउत्दा आज भी ग्रामों में लड़के लड़किया “गवाले व ग्वालिन' साथ-साथ गौ चराने का काम करते हैं प्राण बनाने वाले रसिक धर्तों * ने कृष्ण को श्वृंगार रस का देवता “नायक” व उन ग्वालिन छोकरियों कथांयें घढ़कर लिख मारी हैं। कृष्ण का गोपियों से व्यभिचार “" 'रासलीला, कुब्जां समागम, एक फर्जी प्रेमिका:राघा से गंदा प्रेम इसी : प्रकार की-झूठी कहानियां हैं हमारा विश्वास है कि राधा नाम की: : कोई औरत कृष्ण के समय में नही हुई थी। कामुफ हंदय लोगों ने : बहुत समय बाद एक सुंदर नर्तकी राधा की कल्पना की और कृष्ण _ + देवी भारदत उत ल्वन्ध ५ अध्याय १९ में पुराणकारों को '(ूर्त' १८वाएठव5फ्रटठ्त्तंडट्दगत 6 ' को श्रृंगार रस की नायिका “गोपियां' बना कर पराणों में|गंदी मिथ्या . _.्ण्म्मम (2) के साथ उसके प्रेम की कथा बना ली गई इसलिए बाद के बने पुराणों में राधा का वर्णन मिलता है जो भागवत में नहीं है। “न नौ मन तेल होय न राधा नाचे” यह प्रसिद्ध लोकोक्ति इस बात का समर्थन करती है कि शायद कभी कोई राधा नाम की प्रसिद्ध नर्तकी “डांसर” रही होगी । उसके नाच में इतनी भीड़ इकट्ठी होती होगी कि मशालों . में एक रात में मजलिस में रोशनी करने हेतु ९ मन तेल जल ज़ाता' _ होगा। जैसा कि आजकल कई सिनेमा नर्तकी मशहूर हो रही हैं राधा का नाम महात्मा कृष्ण के साथ जोड़ना उनको व्यभिचारी बताना है। यह पौराणिकों की घोर अज्ञानता है इस पुस्तक को पढ़कर पाठक यह देखेंगे कि पुराणों में निष्कंलक कृष्ण को कैसे-२ झूठे लांछन लगाए हैं। वे कंलक॑ जब तक पुराणों का बहिष्कार नहीं किया जावेगा तब तक नहीं मिट सकते हैं अत: हमारा निवेदन है कि हमारी हिन्दु , जाति पुराणों का पढ़ना सुनना त्यागकर बैदिक साहित्य पढ़ना सीखें और अपने पूर्वजों के निष्कंलक चरित्रों एवं उनकी मान मर्यादा की रक्षा करने में अपना गौरव समझें । पौराणिक पंडितों से हमें कहना है कि वे समय के परिवर्तन को देखें और अपने विचारों में परिवर्तन करें। इन पुराणों के कारण आर्य धर्म की श्रड़ी बरबादी हुई है इनका पाखंड अब ज्यादा दिन चलना नहीं है। इस पुस्तक को पढ़कर यह : देखें कि भागवतादि पुराण कितने भ्रष्ट ग्रन्थ हैं | अत: उनका किसी भी रुप में प्रचार न॑ करने का व्रत धारण करें। ' कासगंज # । निवेदक- . : त्ा० १-१-५६... डा७ श्रीराम आर्य” : पालन ी]हीी 3-3: शक एफ(2७'छग(प"५७७७७७७७७७७७७७७७७७४७७७ »++त+त+ #व्व्त्ज्ट्क्ा्त्काल | '5० हा आह्लोब्म) ८ 5 कक कक _महांमूर्ख पौराणिक पंड़ित की गाली सभ्यता के चन्द नमूने- हि! हम हर || “निष्कलंक कृष्ण” पुस्तक में . * पृष्ठ २- कासगंजी दयानन्दी ने, पृष्ठ:४- निर्लज्ज दयानन्दी तो ४ रांड़ निपूत्ती' कहे बिना शांत होने वाले जन्तु नहीं हैं। पृष्ठ ४- वेद शास्त्रानभिज्ञ मूलचंद को सूझ्ष सकता है पृष्ठ ४- फूटी आंखों देखने का अवसर मिला होता तो...त्ो जन्मजात अंधता कथमपि दूर हो पाती। पृष्ठ ७- नियोग से पैदा हुए दुष्ट हृदय दयानन्दियों के .. .कुत्सित मस्तक में नहीं समां सकते। पृष्ठ ८- दयानन्दियों को ' ५ निराकारबाबा भी उनकी कन्या पाठशालाओं में उनसे नित्य संभोग... . “करता होगा-। ऐ नियोगियों ! यदि अपने किए अनर्थ के परिणाम - . पर कुछ भी लज़्जा हो तो वैतरणी में डूब मरो | पुष्ठे १२- अरे... * संस्कृतानिभिज्ञमूढ़ों ! कुछ शर्म हो तो कर्मनाशा में डूब मरो। ' “ चष्ठ १४- कासगंजी अन्धे महाशय्र को। पृष्ठ २१- दयानन्दु ने “... मनघढ़ंत झूठ कथाम्रें सत्यार्थ प्रकाश के १रवें समुल्लासं में लिखकर. . . - सदा के लिए अपनी मंहा मूर्खता का अमर रिकार्ड संग्रेंह कर दिया... < ओट - इसे प्रकार की असंभ्यता पूर्ण भाषा में पुस्तक लिखकर मूर्ख -... - शिरोमणि माधवांचार्य ने हमको व आर्य समाज के प्र्वतक को अपशब्दों.... में-संबोधित किया: है | ही हक * :- जअत:विवश: होकर हमें; भी प्रत्युत्तर में इस पुस्तक में. कटु भाषा का... ... विपक्षी के. लिंए प्रयोग करना पड़ा है ! पाठक वृन्द क्षमा करें !! :. के 30860 0५ (धा56घदाा&श पर की हि) 2० #%. : कृष्ण के उज्जवल चरित्र पर पुराणों के गन्दे आंक्षेप ... प्राय: कुछ साल हुए हमने “वर्तमान कीर्तन प्रणाली दूषित है: तथा : . “महानात्मा श्रीकृष्ण जी के नाम के साथ राधा का नाम जोड़ना गलत है”, इन विषयों घर एक विज्ञापन प्रकाशित किया था । इतने लम्बें समय तक सोच विज्लार एवं तैयारी करने कें बाद दिल्ली के प्रसिद्ध गाली गलौज “शास्त्री पौराणिक माधवाचार्य ने “निष्कलंक कृष्ण” नाम से उसका . उत्तराभास प्रकाशित किया है । जवाब तो उससे बन नहीं पड़ा है, कोरी « » गालियों की भरमार उसके लेख में की गई है । साथ ही जनता को भ्रम . - | "में डालने के लिए अपने मिथ्या पाडित्य के आधारं पर विषय को टालने , की कोशिश की गई है। हम माधवाचार्य की गालियों का उत्तर उसी रुप में देना उचित नहीं समझते हैं । “पर शठे शाठयम्‌....” के आधार . - पर उनका गर्व मर्दन अवश्य करेंगे पाठंक इसके लिए हमें क्षमा करें। * . हमआर्यसमाजी श्रीकृष्ण महाराज को महान्‌ विद्वान सदाचारी, कुशल राजनीतिज्ञ' एवं सर्वथा निष्कलंक मानतें.हैं। ऐसा महापुरुष कभी व्यभिचारी, परस्त्रीगामी अथवा कुकर्मी नहीं हो सकता है पर सनातन धर्म के पराणों में श्रीकृष्ण जी महाराज के पवित्र जीवन पर अंसख्य गंदे एवं मिथ्या लांछन लगाए गए हैं। भागवत ब्रहमवैवर्त आदि पुराण ऐसे ही गंदे लांछनों से युक्त मिथ्या कहानियों से भरे पड़े हैं, जिन्हें देखकर ' प्रत्येक भारतीय सभ्यताभिमानी का सर लज्जा से झुक जाता है और विधर्मी हिन्दु जाति को संसार में बदनाम करते है । हमने लिखा था कि ऐसे गलत पुराणदिकों को धर्म; ग्रन्थ नहीं मानना चआहिए और उनका प्रकाशन बंद“कर देना चाहिए पर हमारा विचार हमारे विपक्षियों'को पंसंद नहीं आया और उन्होंने हमें गालियों से उत्तर दिया है जो कि. चौराणिक असभ्यता का अभिन्‍न अंग है । जिन्होंने माधवाचार्य कीं पुस्तक (080780 0५ (56260 ता + का के ु को देखा है वे हमारें उत्तर को पढ़कर देखेंगे कि किस कदर यह पण्डित “उत्तर देने में चारों खाने चित्त गिरा है। हा कृष्ण पर व्यभिचार का दोष हमने लिखा था कि गोपाल सहंस्रनाम ग्रन्थ में श्रीकृष्णजी को चोर... ! और व्यभिचारियों का शिरोमणिं लिखा है। यथा-“गोपाल.ककामिनीं : .. जारश्चोर जार शिखामणि है” “श्लोक १३७” इस पर विपक्षी ने लिखा है कि जार शब्द का अर्थ हमने गलत किया है वास्तव में यहां जार _ शब्द का अर्थ “्यभिचारी' ही है पाठक सनातनी पंडितों का- अर्थ जो बंबई भूषण प्रेस मथुरा ने उक्त ग्रन्थ की टीका में छापा है देखें (“गोपाल . . कामनी जार: ) गोपियों में प्रेम रखने से | (योर जार शिखामणि ) चोर , और व्यभिचारियों में शिरोमणि: होने से।” अर्थात्‌ कृष्ण,चोर और व्यभिचारियों के शिरोमणि थे । यद्द अर्थ हमारा या किसी आर्य समाजी * का किया हुआ नहीं है, सनातत्ती पण्डितों का है। वास्तव में यही अर्थ ठीक है। माधवाचार्य अप॑ना सारा पाखण्ड फैला कर भी.इस अर्थ को मिथ्या नहीं कर संकतां: है'। बकंवास भले ही करता रहे | गोपाल किस. प्रकार कामिनी जार थे यह भी पुराणों में निम्न प्रकार स्पष्ट किया है। पुराण में गोपियों से क्रृष्ण का रमण करना. ता वीर्य माणा:, पतिभि: पितृभिश्रतृमिस्तवा | कृष्ण गोपांगना रात्रो रमयंति रतिप्रिया:. ।।५९॥। सौअपिकैशोर कबयो . .. मानयन्मधुसूनन 3. -. रेमेतामि यमेयात्मा क्षेपासु .क्षापिता हित: -।॥६०।। रा (विष्णु पुराण अंश ५ अध्याय १३) हा पू* 30॥॥60 0५ (ध562ााशहश (6) अर्थ- वे गोपियां अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं. रुकती थीं रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थीं ।। ५९ । ॥ कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे। ।६० । । कृण गोपियों के साथ किस प्रकार रमण किया करते : थे, इसके लिए स्पष्ट प्रमाण देखिए, जो पुराण रचने वाले धूर्तो ने कृष्ण को कलकित करने को लिखे हैं। - एवं परिष्वंग करामिमर्श स्निग्धेक्षणद्याम विलास हासे: ॥। रेमे रेमशो ब्रज सुन्दरीभि यथार्भक: प्रतिबिम्ब विभ्रम: ।।१७।। अर्थ - कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास 'मजाक' करते थे। जिस प्रकार बालक तन्‍्मय होकर अपनी परछाई से खेलता है वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुन्दरियों के साथ रमण, काम कीड़ा विषय भोग” किया। आगे देखिये - कृष्ण विक्रीडित॑ वीक्ष्य मुर्ुर्ह:खेचर स्त्रिय | कामार्दिता: शशांकश्च सगणां विस्मितोअभवत्‌ | ।१९।। कृत्वा तावन्तमात्मानं य्ञावतीर्गोपयोषित: । रेमे स भगवांस्ताभिरात्मारामोअपि लीलया ॥॥२०।॥ तासांमति विहारेण श्राँतानां वदेनानिस:। प्रामजत करुण: .. प्रेग़्णाशंतमेनारंव._ पाणिना ।।२१। ४ (भागवत, स्कन्द १० अध्याय ३'औ अर्थ- कृष्ण के रास की काम कीड़ा देखकर देवताओं की पत्नियां # कार्मार्दित हो गई । कामदेव की उम्र इच्छायें पैदा हो जाने से उनके शरीर कामरस से अर्दित अर्थात गील़े हो गए । चन्द्रमा, तारों व ग्रहों के साथं: : चकित्तःरह गया। कृष्ण ने जितनी ग़ोपियां थी उतने ही रुप रखकर उनके 36॥॥60 0५ (धा562ााशश कु 22: े सांथ रमण किया । जब रंति रमण करने से वे सब बहुत थक गई (और - उन्हें पसीने आ गए) तो कृष्ण जी ने अपने कोमल हाथों से उन प्रेमिकाओं . (गोपियों) के मुंह पोंछे । आगे देखिये - . ह . नद्या: -पुलिनमाविश्य गोपी . मिर्हिम ' डालुकम्‌ | ' रेमे. तत्तरलानन्द .. क़ुमुदामोह”॑ वायुना: .।॥॥४५॥। बाहु प्रसार परिरम्भकलारकोऊु, नीवीस्तनालभ ननर्मनखाम्रपातै: 3 * धवेल्यावलोक हसितै्रज सुन्दरीणां, मत्तम्भयन्‌ रतिपति रमयांश्वकार । ।४६।। (भागवत्त स्कन्द १० अध्याय २९) अर्थ--कष्ण ने जम॒ना के कपूर के समान चमकीले बालू के तट पर. : गोपियों के साथ प्रवेश कियां | वह स्थात जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी _ की सुगंध से सुवासित था। वहां कृष्ण ने मोषियों (ग्वालिनों) के साथ रमण (भोग किया) बाहें फैलाना आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना, उनकी चोटी पकड़ना, जांगों प्छ” गथ फेरना, लंहगे का नाड़ा खींचना, स्तन (पकड़ना) मजाक करना नाखून सेरे. #अंगों को नौच-२ _ कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना आर मुस्कराना तथा इन क्ियायों के द्वारा नवयोवना गोपियों+में कामदेव को खूब जाग्रत करके उनके साथ कृष्ण ने रात में: रमण (विषय भोग) किया। हि . . इसमें कार्मदेव'को जागुत करके रर क्करना स्पष्ट बताता है कि रास की आड़ में विषय-शोग किया जाता था। । & नृत्यन्ती_ गायती . काचित, : कूजन्नूपुर मेखला । पार्श्वस्थाच्युंत हस्ताब्ज॑ श्रांतांधात्‌ु स्तनयो ... शिवम्‌ .।। ... (भागवत स्कच्छ १० अध्याय ३३ श्लोक १४) अर्थ - कोई गोपी अपने नूपुर और व. . भी के घुंघरओं को झनकारती हुई नाँच और गा रही: थी। बहुत थक गईं, तब उसने अपने ही बगंलं में खड़े श्यामसुन्दर कृष्ण के शीतल करकमलों के अपने स्तनों पर रख . 36॥॥60 0५ (धा562ाशाशहश । ह (8) लिया। (अर्थात छातियां मसकवा कर थकावट मिटा डाली) । यह सब क्‍यों होता था? इसलिए कि “तमेव परमात्मन जार बुद्धियापि संगता” (भागवत स्कंध १० अध्याय २९ श्लोक ११ ) अर्थात्‌ - यह बात नहीं कि, रती युद्ध विशारद कृष्ण का ही गोपियों में ऐसा भाव रहता हो वरन्‌ गोपियों का भी कृष्ण में व्यभिचार भाव रहता था। उसके लिए जरा और स्पष्ट प्रमाण देखिए-. | - वर्तमान पौराणिक सनातन धर्म में राम व कृष्ण, विष्णु के अंवतार माने गऐ है | विष्णु का अवतार ही इस पृथ्वी पर व्यभिचार करने के लिए होता है कृष्ण के रुप में विष्णु केवल अपनी व्यभिचार भावना को पूरी . करने को आया था। यह बात निम्न प्रमाण से स्पष्ट है। देखिये - विष्णु के अवतारों का रहस्य भ्रातृणां दैत्य मुख्यानों हतानां दारुणे युधि स्त्रियों हत्वा तु पताले चिक्रीड़ च मुमोदच ।। त्रेतायुगे रामरूपि विष्णु सम्प्रापे जानकी | नो तुृप्त: स्त्री विलसानां वित्तस्थ चसुतस्यच।। . रैव: संप्रेषणाश्चापि प्रोषितस्य स्त्रियामपि । तस्मात्‌ कलियुगे भूमौ ग्रहीत्वा जन्म केशव ।। _ . वासुदेवस्य देवकयों मथुरायां महाबल: । बालस्तु गोप कन्याभिवने क्रीड़ा चकार सः:।। दश लक्षाणि पुत्राणां, गौपालानां ससर्ज ह | ततस्तु योवना काँतो रुक्िमिणी प्रददर्श ह ॥। विवाहयित्वा पुत्रांश अ प्रद्युम्ना दद्याश्च निर्यमे । तबापि नरक दैत्यं प्राग्ज्योतिषमतिं बलातू ।। 36॥॥860 0५ (ध562ााशश (9) हत्वा स्त्रीणाँ सहस्राणि षोडशैव जहार सः । तप्सां ' रति फंल भुकत्वा पुत्राणां नवतिं तथा ।। सहस्त्राणि ससर्जासु मत्स्पे चादै महाद्भुतम्‌ । स्त्रीणां तथापि नो तुृप्तो दिव्यानां तुरेतेर्यदा ।। त्थ: राधा स्त्रियं काचिन्न धैर्या दधर्पयत्‌। तथापि परनारीणां लम्पटो नित्यमेवहि।। (शिवपुराण धर्म संहिता अध्याय १०) अर्थ- भगवान विष्णु राक्षसों को मारकर उनकी स्त्रियों को पाताल में ले गया तथा उनके साथ कीड़ा करता व मजे मारता रहा | त्रेता युग में राम ने जन्म लेकर जानकी से विवाह किया । किन्तु स्त्रियों के विलास से तृप्त नहीं हुआ और वन में जाने के कारंण गर्भाधान भी यथेष्ट नहीं कर सका। इसलिए कलियुग के आरम्भ में कृष्ण अवतार धारण किया और बालकपन यों गोपियों (ग्वालिनों ) से कीड़ा (भोग) करके दस लाख लड़के पैदा कर डाले । तब भी स्त्री भोगों से तृप्ति नहीं हुई तो युवा अवस्था में रुक्मिणी से शादी करके प्रद्युम्त आदि संतानें पैदा की | तब भी तृप्त न हुए तो प्राग्ज्योतिष के राजा नरक को मारकर सोलह हजार औरत लाए और उनसे भोग करके ९० हजार लड़के पैदा कर डाले | फिर भी तृप्ति न हुई तो राधा नाम की औरत को पकड़ लांए। इतना स्त्री भोगों को भोगने पर भी भगवान नित्य ही नारियों के लम्पट हैं। इस प्रमाण से स्पष्ट है कि पुराणों के अनुसार विष्णु के अवतार कृष्ण केवल बहुत औरतों से व्यभिचार करने के लिए ही हुआ था। गोपियों से रातों में कीड़ा करना, उनकी छातियां मरोड़ना, उनके लँहगों के नाड़े खोलना, उनमें कामदेव को जाग्रत करके उनके साथ भोग करना और दन लाख लड़के उन ग्वालिनों से वन में पैदा कर देना, १६००० औरत बदमाशी के लिए पकड़ लाना और विषय भोग द्वारा ९० हजार लड़के (0) उनसे पैदा कर डालना क्‍या प्रयोजन रखता है ? कीड़ा, विहार लम्पट रति फल आदि शद्दों का अर्थ यहाँ स्पष्ट रुप से केवल विषय भोग करना ही है, कृष्ण का विशेषण “जार शिखामणि' अर्थात व्यभिचारियों के शिरोमणि पुराणों के रहते सौ फीसदी सत्य है माधवाचार्य तो बेचारा है किस गिनती में, भारत के सारे पौराणिक पण्डित मिलकर भी इसका और कुछ अर्थ नहीं कर सकते हैं। यह हमारा दावा है। भगवतगीता अध्याय १८ में श्रीकृष्ण को योगेश्वर बताती है तो सनातनी धर्मग्रन्थ पुराण में उनकों भोगेश्वर सिद्ध करने की कोशिश करते है, धिक्कार है हजार बार ऐसे गन्दे सनातन धर्म को ! पाठकों ने ऊपर देस्ना है कि सनातन धर्म में अवतार विष्णु के होते हैं और वह भी व्यभिचार की भावना से होते हैं | मानव कल्याण की भावना उनकी नहीं होती है। यह बात शिव पुराण के प्रमाण से स्पष्ट हो चुकी है। यह विष्णु कहाँ रहता है यह भी आपको बताते हैं। विष्णु के निवास स्थान का पता इस पृथ्वी के सोलह करोड़ योजन ऊपर आकाण में विष्णुलोक है जिसमें विष्णु और उसकी पत्नी लक्ष्मी निवास करते हैं । (संक्षिप्त स्कन्ध पुराण पृष्ठ ५७९ गीता प्रेस) इससे पता चला कि यह देवता भी हमारे लिए सर्वदा विदेशी है, जो यहाँ से १६ करोड़ योजन अर्थात्‌ यहां से ६४ करोड़ कोस यानी प्राय: १ अरब २८ करोड़ मील ऊपर कहीं आकाश में निवास करता है। खेद है कि भारत के हिन्दुओं के दिमाग भी विदेशियों की गुलामी में फंसे हैं इन्हें सर्व व्यापक परमात्मा पर कभी विश्वास नहीं रहा । हमारा देश तो विदेशी गुलामी से आजाद हो गया, यदि यहाँ के लोगों के दिमाग भी परदेशी देवताओं की गुलामी से मुक्त हो जावे तथा विष्णु व शिव 36॥॥60 0५ (ध56घाशहश (।]) मंदिर जो विदेशियों की बौद्धिक गुलामी के देश भ अपमानजनक चिन्ह हैं मिट जावें तो देश वास्तव में स्वतंत्र हो जावे। श्री कृष्ण जी के बारे में पुराणों के गोलोक की एक घटना लिखी है और बताया है कि उनके अवतार लेने का कारण भी लोक कल्याण नहीं था । एक दिन गोलोक में राधिका जी ने उन्हें किसी औरत से कुकर्म करते पकड़ लिया, तो उन्होंने शाप दे डाला वे बोली। राधा का कृष्ण को शाप है कृष्ण ब्ृजकांत ! गच्छ मत्पुरतो हरे । कथं दुनोषिमां लोलं रति चौर अति लम्पट ॥॥५८।। मयाज्ञातोअसि भद्र ते गच्छ - २ममाथगात्‌ ।।६०।। शाश्वते मनुष्याणां च व्यंवहारस्य लम्पट । 'लभतां मानुपी यौनि गौलोकाद्‌ ब्रज भारतम्‌ ६१ ।। हे सुशीले, हे शशिकले, हे पद्मावति माधवी । निवार्य ताच्चधूर्तो य किमस्यात्र प्रयोजनम्‌ | ।६२।। (ब्रहमवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खण्ड अ० ३) अर्थात- हे कृष्ण ब्रज के प्यारे, टू मेरे सांमने से चला जा तू मुझे वयों दुःख देता है - हे चंचल, हे अति ₹.म्पट कामचोर मैंने तुझे जान लिया है। तू मेरे घर से चला जा। तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट है, तुझे मनुष्यों की योनि मिले तू गौलोक से भारत में चला जा । हे सुशीले, हे शशिकले हे पद्मावति, हे माधवों ! यह कृष्ण धूर्त है इसे निकाल कर बाहर करो, इसका यहां बगेई काम नहीं । इस ,कार कृष्ण की गीलोक वाली पत्ली राधा ने कृष्ण को व्यभिचार में पकड़कर शाप देकर औरतों से धक्के लगवा कर वहां से निकाल वहार 508/60 ४! '/ ("56वखााशश किया और व्यभिचार कामना पूरी करने का शाप देकर भारत में जन्म दिलाया | यहां आकर भी इन पौराणिक हजरत ने वही कुकर्म किये जिसके लिए यह यहां आये थे। सनातनियों ! देखों अपने भगवान के चरित्र !! क्या अब भी राधे कृष्ण रटने से तुम्हारी मुक्ति होगी? अक्ल से सोचो | ऐसा चरित्रहीन व्यक्तित जिस भक्त के घर जावेगा वहां पहिले व्यभिचार का सामान ही ढूँढिगा। इस १११ नंबर के तिलकधारी पाखंडी पंडित ने 'रमण' शब्द के अर्थ पर भारी चिल्ल पुकार मचाई है। इसलिए आगे के प्रमाणों का अर्थ ध्यानपूर्वक पाठक देखें कि रमण शब्द का अर्थ विषय भोग है या कुछ और ? कलियुगी पंडितों का रमण करना, नारद कहते हैं कि - पण्डितांस्तु कलत्रेण रमते महिपाइव | पुत्रस्योत्पादने दक्षा अदक्षा मुक्ति साधने. ।। (महात्म प्रकरणं भागवत अध्याय १ श्लोक ७५) अर्थ- कलियुग के पौराणिक पंडित औरतों ते भैसे के समान रमण करते हैं। वे केवल लड़के पैदा करने में ही कुशल होते हैं। धर्म कर्म व मोक्ष साधनों के बारे में खाक भी नहीं जानते । भैंसां भैस के साथ जिस प्रकार भैंस के गुप्तांग को सूँघ-सूँघ कर अन्धाधुन्ध (भोग) करता है ठीक वैसे ही माधवाचार्य आदि सनातनी पोप पंडित स्त्रियों से केवल रमण करने में कुशल होते हैं यह शब्द हमारे या किसी अन्य आर्य समाजी के कहे हुए नहीं हैं | सनातनी पंडितों पर नारद बाबा का फतवा अवश्य सत्य होगा। यहाँ पर रमण अर्थ केवल विषय भोग करना है, यह स्पष्ट है। फिर रमण चाहे भैंस की तरह किया जावे या महादेव और सती की तरह अथवा कृष्ण और कुब्जा की तरह। 30॥॥860 0५ (ध562ााशश । । (3) शिव और सती का रमण रेम ने शेके तमसोढ़ु सती श्रान्ताभवत्तदा । उबाच दीनयावाचा देव देव जगत्गुरुम्‌ ॥। भगवन्नहि शंक््नोमि तब भारं सुदुःसहम्‌ । क्षमस्वामां महादेव: कुपां कुरु जगत्पते ।॥। निशम्प वचन तस्था भंगवान्‌ वृषभध्वजे: । निर्भर रमणं चक्रे गाढ़ निदय मानस: .।। कुत्वा सम्पूर्ण रमणं सती च त्यक्त मैथुना । उत्थानाय मनश्चक्र उभयौस्तेज: उत्तमम्‌ ।। पपात धैरणी पृष्ठे ते व्याप्त अखिलं जगत्‌ । पातालेभृतलेस्वर्ग . च शिवलिंगास्तदा भवन्‌ ।॥। (शब्द कल्पद्रुम कोष लिगं' शब्द की व्याख्या ) अर्थ- शादी के बाद एक दिन शिवजी नववधू सती से 'रमण' करने “लगे तो सती: थक्र गई और महादेव जी के बोझ को न सह सकी, और बड़ी दीन वाणी में बोली, हे जगद्गुरु ! आपके दुःसह भार को मैं नही सह सकती हूं । मुझे बस आप क्षमा करो । हे जगत्‌पते। मेरे ऊपर दया करो । तब महादेव जी ने यह सुनकर बड़ी निर्दयता से खूब मैथुन (रमण ). किया (संपूर्ण मैथुन. कर चुकने पर थकी हुई सती ने उठने की इच्छा की । तब दोनों का उत्तम वीर्य पथ्वी पर गिर पड़ा । वीर्य से सारा जगत व्याप्त हो गया। उस वीर्य से पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल तीनों लोकों मे योनियों समेत शिवलिंग पैदा हो गए। महादेव जी ने किस प्रकार रमण किया, रमण शब्द का अर्थ पुराणों में जहां कृष्ण के राधा व गोपियों के साथ आया है वहाँ विषय भोग ही )908॥| ६ 6 । है| 0५ (धा565ााशश (]4) है अर्थ होगा | जहां योगी अथवा भक्त व ईश्वर के संबंध के अर्थ में आता है, वहां भक्त या योगी का ईश्वर के ध्यान में तन्‍्म (मग्न) होने के अर्थ में आता है पर जिसके हिए की भी फूट चुकी हों ऐसे १११ नंबरी पाखंडी की समझ में कैसे आवे, जिसकी खोपड़ी में मिथ्यार्थ भरा हुआ है वह सत्यार्थ को कैसे समझ सकता है ? जो केवल भैंस की तरह दिन रात स्त्रियों से रमण करना ही जानता हो ऐसा ढोंगी पण्डित हमसे *रमंण' का अर्थ पूछे तो यह संसार का आठवाँ आश्चर्य होगा। ॥ पुराणों के अनुसार कामशास्त्र विशेषज्ञ' कृष्ण गोपियों के साथ किस प्रकार से रमण करते थे, इसको खुलासा करने के लिए भागवतकार ने लिखा है रिमे रेमेशो ब्रज सुन्दरीभि:' अर्थात कृष्ण ज़न प्रेयसी ब्रज सुन्दरियों के साथ विषय भोग (रमण) किया करते थे । गीता के कृष्ण जी ने जीवन में कभी व्यभिचार नहीं किया। पर पाखंडी पोष पंडितों को इसी में बड़ा मजा आता है कि निष्कलक कृष्ण को व्यभिचारी बताया जादे और उस आड़ में स्वयं खूब कुकर्म किए जावें। कुब्जा के साथ कृष्ण का रमण करा. विद्रॉचलेभे सा कुब्जा निद्रेशोपि ययौ मुदा | , वोधया मास तां कृष्णो न दासीश्चापि निद्रिता: ।[: त्यज निद्रां महा भागे श्षृंगारं देहि सुन्दरि । इत्युकत्वा . श्री निवाश्च कृत्वा त्तामेव वक्षसि ॥। नग्नां चकार श्रृंगार चुंबनं चापि-कामुकीम्‌ ।... सा सस्मिता .च श्रीकृष्णं नव संगंम लज्जिता ।।” चुबुम्ब॒गंड़े कीड़े तां चकार कमलां यथा। . सुरते विरतिनस्ति दंपति रति पन्डितौ।। 36॥॥860 0५ (ध562ााशहश (5) नाना प्रकार सुरते वभूवतत्र नारद | स्तन श्रोणि युग्म तस्या विक्षतस्व चकारह: ।। भगवान्नखैस्तीछणे: दशनैरधरं_ बरम्‌ । निशावसान समये वीर्याध न॑ चकार सः।। सुख संभोग -“भोगेन मूर्छामाप च सुन्दरी। भगवानापितत्रैव क्षणं स्थित्वा स्वमन्दिरम्‌ ।। जगाम यत्र ननन्‍्दश्य सानन्दौ ननन्‍द नदन:। (ब्रहमवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड ७२). * अर्थ- वह कुब्जा सो गई और निद्रा के स्वामी कृष्ण भी यहाँ प्रसन्‍नता जे गए। श्रीकृष्ण ने कुब्जा को जगा लिया। सोई हुई दासियों को नहीं जगाया। कृष्ण बोले हे महा भाग्यशाली ! अपने थरृंगार को दानकर। यह कहकर कृष्ण ने कुब्जा को गोद में लेकर चुंबन किया.और उस कामुकी को नंगा करके भोग करना आरम्भ कर दिया | वहूँ समागम से लज्जित हुई मुस्करा कर कृष्ण को नंगा करके चुम्बन करने लगी तब कृष्ण ने उसके कपोल चूमकर लक्ष्मी की भाँति गोद में ले लिया । क्योंकि दोनों का जोड़ा काम भोग करने में चतुर था इसलिए काम भोग का अन्त ही न क्षाता था | हे नारद ! वहां नाना प्रकार से कामभोग किया गया । भगवार ््ष्ण ने उसके स्तनों को नाखूनों से जख्मी कर दिया और दाँतों से उणके होठों को काट खाया। उस रात कृष्ण ने आखिर शुक्राधान क्र दिया | सुख संभोग से वह सुन्दरी-मूर्छित हो गई। भगवान कृष्ण भी वहां थोड़ी देर ठहरकर अपने मकान को चले गये, जहाँ नन्‍्द सानन्द ठहरे हुएथये। पाठक देखें सनातनी कृष्ण अवतार का चरित्र। पुराणों के कृष्ण के * व्यभिचारी शिरोमणि होने में अब भी क्‍या कोई स्देह है। पाखंडी 'शिरोमंणि गाली गलौज शास्त्री माधवाचार्य अब बतावें कि कुब्जा का ठोड़ी पकड़कर उसका: कुबड़ापन मिटाया जा रहा है, या स्तन दाब दाब 36॥॥60 0५ (ध562ाशहश (6) कर व उसे नंगा करके व्यभिचार किया जा रहा है ? अरे निर्लज्ज पोपो? यदि जरा भी शर्मोहया बाकी हो तो डूब मरो चुल्लू भर पानी मे । तुमने महानात्मा कृष्ण को बड़ा कलकिंत किया है। कृष्ण के तीस करोड़ स्त्रियां थीं यह ““त्रिशत्कोटि च गोपिनां गृहीत्वा भर्तराज्ञया/' ब्रहमवैवर्त पुराण उत्तरार्ध अध्याय ११५ श्लोक ८७ में साफ लिखा है । यदि उल्लू को दिन में भी न दीखे तो सूर्य का क्या दोष है? मालूम होता है कि हजरत माधवाचार्य ने ब्रहमवैवर्त पुराण की शक्ल भी नहीं देखी है यदि पढा होता तो यह प्रमाण उसे प्रमाणरुप में मिल जाता। बेचारा वैसे ही १११ नं० का तिलक लगाकर ढ़ोंग बनाकर पाखन्डाचार्य बन बैठा है । कुब्जा की कथा को देखकर हमने माधवाचार्य * के उस झूठ का पर्दाफाश किया है जो उसने लिखा था कि कुब्जा का कोई दुराचार का संबंध नहीं था । कृष्ण ने डाक्टरी करके ठोडी पकड़कर झटका मारकर कुब्जा का कुबडापन दूर किया था| अब राधा कौन थी? इस प्रश्न पर हम उसके पाखंड का निराकरण करते हैं | हमने विज्ञापन में ब्रहमवैवर्त पुराण से यह सिद्ध किया था क्रि राधा कृष्ण के बामांग से पैदा होने से कृष्ण की पुत्री थी, रायण से विवाह होने से वह कृष्ण की पुत्र वधू थी। क्योंकि रायण गौलोक में कृष्ण के अंश से पैदा होने से उनका उस रिश्ते में पुत्र था। रायण कृष्ण की माता यशोदा का भाई होने से कृष्ण का मामा लगता था। अत: इस रिश्ते से राधा कृष्ण की मामी हुई । इस हमारे लेख पर माधताचार्य का दिमाग चक्कर खाने लगा। उन्मत्त की तरह आप प्रलाप करते हुए सफाई देने बैठे, और अपनी पुस्तक में पृष्ठ १९ पर हमारे प्रमाणों को स्वीकार करते हुए आपने लिखा कि असली राधा गायब हो गई और छाया रूप राघा को छोड़ गई । उसकी रायण से शादी हुई । इस पागलपन की बात को कोई उस जैसा बुद्धिहीन ही मान सकता है, जो राधा गायब हो गई उसकी व छाया रूप राधा 36॥॥860 0५ (धा56घाशाशहश . (7) की आत्मा एक थी या प्रथक-पृथक थी यदि एक थी तो आत्मा के दो टुकड़े होता गीता व कोई शास्त्र नहीं मानता है। यदि परथक-२ थी तो यह कहना मूर्खता की बात है कि नई राधा पुरानी राधा की छाया थी पता नहीं सनातनी पण्डितों ने अपनी अकल दहाँ बेच खाई है, जो ऐसी चन्डूखाने की बेतुकी असंभव यातों पर विश्वास करते हैं कि कलावती , के गर्भाशय में से हवा निकल पड़ी और बजाय पंचतत्वों के केवल वायु से राधा नाम की औरत बन गई । इसलिए हम दहहते हैं कि पुराण बनाने व उन पर ईमान लाने वाले दोनों अज्ञानी हैं और ५० के नशे में रहते हैं। माधवाचार्य पृष्ठ १८ पर लिखता है कि राधा का कृष्ण से विवाह हुआ था और पृष्ठ २२ पर लिखता है दिः रध्षा से कृष्ण का कभी विवाह या गौना नहीं हुआ । वह आजन्म ब्रहमचारिणी रही थी। दोनों में कौन सी बात ठीक है यह वही ज/ने। आगे लिखता है कि राघा प्रकृति को कहते हैं । पाठक राधा से कृष्ण के व्यभिचार की कथा नीचे पढ़े और देखें कि राधा प्रकृति है या एक व्यभिचारिणी औरत है ? राधा से कृष्ण का रमण एकदा कुष्ण सहितो नन्‍दी वृन्दावन ययौ । एतस्मिन्नंतरे राधाजगाम कृष्ण सन्निधिम्‌ ॥। तमुवाच हरिस्तत्र स्मेरानन सरोरुहाम्‌। आगच्छशयने साध्वि कुरुवक्ष: स्थलेहिमाम्‌ ।। तिष्ठत्यहं शयानस्त्व॑ कथाभिर्यत्क्षण गत्तम्‌ । वक्षस्थले च शि्रिरि देहिते चरणाम्बुजम्‌ ।। प्रणम्य श्रीहरिं भक्तवा जगाम शयनं हरे । कृष्ण चविंत ताम्बूलं राधिकायै मुदाददों ।। 36॥॥860 0५ (ध562ााशहश (8). राधा चर्वित्‌ ताम्बूल॑ ययाच्रे मधुसूदन: । करेधृत्वा च मां कृष्णस्थापयामास वक्षसि ।। चकार शिशथिल वस्त्र चुम्बनं च चतुबिंधम्‌। वभूव रति युद्धेन विच्छन्ना ्षुद्रंटिका। चुम्बनेनौष्ट रागश्च॑ ह्याश्लेषण च पत्रकम्‌। पुलकांकिंत सर्वागी वभूव नव संगमात्‌। मुर्छामवाप साराधावुबधे न दिवानिशम ।। प्रत्योेनिव. प्रत्यंगमगेतांग. समाश्लिषत । श्रृंगारष्टविध॑ कृष्णश्चकार काम शास्त्रवित्‌। पुनसतां च समाश्लिप्यसस्मितांवकलोचनाम्‌ ।। क्षतिविक्षत सर्वागी नख्र दन्तैश्यकार ह । वशूवशब्दस्तत्रैव.. श्रृंगार समरोदब: ॥।। निर्जन कौतुकात्‌ कृष्ण: कामशास्त्र विशारद:। निबते काम. युद्धे च सस्मिता वक़लोचना । नित्य नक्ते रति तत्र चकार हरिणा सह ।॥। (ब्रहमवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अ० १५) अर्थ- एक दिन कृष्ण, नंद के साथ वृन्दावन गए। इतने में राधाजी कृष्ण के पास आ गई। उस कमल मुख वाली से कृष्णजी कहने लगे हे प्यारी पलंग पर आजा मुझे बगल में ले ले । वह बोली मैं बैठी हूं आप लेटे हैं इस प्रकार व्यर्थ समय जा रहा है। मेरी बगल और शिर में चरण अर्पण करो । राधा कृष्ण को प्रणाम करके कृष्ण के पलंग पर गिरकर कृष्ण ने अपना चबाया हुआ पान राधा को दिया और राधा से चबाया हुआ पान कृष्ण ने मांगा । कृष्ण ने हाथ पकड़कर राधा को बगल में ले लिया। . उसके कपड़े ढीले कर दिए और चार प्रकार से चुंबन क्रिया । रति युद्ध ४. में एक घंटा हो गया । चूमने से राधा के होठों का रंग और लिपटने से 308॥॥860 0५ (धा56घााशहश (9) करधनी नष्ट हो गई । नव सभागम से राधा रोमाचिंत हो गयी। वह राधा मूर्छित हो गई और दिन रात होश में नहीं आई। दोनों के अंग से अंग और प्रत्यंग से प्रत्यंग लिपट गये । काम शास्त्र के जानने वाले विशेषज्ञ कृष्ण ने आठ प्रकार से यूं भोग किया। फिर राधा से लिपट कर उस टेढ़ी नजर वाली मुस्कराती हुई को नाखूनों और दांतों से जख्मी कर दिया | काम भोग युद्ध से बड़ा शब्द हुआ। कामयुद्ध की समाप्ति पर वह तिरछी नजर वाली राधा मुस्कराने लगी । वह राधा रात को हमेशा कृष्ण के साथ भोग किया करती थी। यह पुराणों का गंदा कोकशास्त्र। राधा कृष्ण के बांए अंग से पैदा हुई थी। राधा के साथ कृष्ण का व्यभिचार का संबंध था, यह बात ब्रहसवैवर्त पुराण सानते बालों को बराबर मानती पड़ेगी । राधा एक औरत थी, कृष्ण उसे व्यभिचार के लिए पकड़कर लाए थे । यह बात शिव पुराण के पीछे दिऐ गये प्रमाण से सिद्ध है । कृष्ण का गोपियों से व्यभिचार का . संबंध था, यह बात विष्णु पुराण-भागवत व शिवपुराण से स्पष्ट हो चुकी है। पौराणिक पंथी पंडित भूमंडल भर में एक भी ऐसा नहीं है जो ऊपर के प्रमाणों का खंडन कर सकें | रमण शब्द का अर्थ जहां हमने (स्त्री प्रंसग) व्यभिचार सिद्ध किया है यह अकाट्य है हम अब एक प्रमाण और ऐसा देते हैं जिससे गोपियों के साथ कृष्ण का व्यभिचार के संबंध का कारण प्रकट हो जावेगा । पौराणिक पंडित अपने पुराणों छी गंदी बातों के नमूने देखें और लज्जित हों। पौराणिक कृष्ण की प्रेमिकायें गोपियां कौन थीं ? पुरामहर्षय:. सर्वे ठंडकारण्य वासिन: । 36॥॥60 0५ (ध56घाशाशहश (20) दृष्टवा राम॑ं हर्रि तत्र भोकतु मिच्छेत्सु विग्रहम्‌ |।१६४।। ते सर्वे स्त्रीत्वमापनना: समुद्भूतास्तु गोकुले। हरिं सम्प्राप्प कामे न ततो मुकत्वा भवार्ण वात | ।१६५ || (पद्मपुराण उत्तर खण्ड अध्याय २४५ कलकत्ता ) अर्थ- रामचन्द्र जी दण्डकारण्य वन में जब एहुंचे तो उनके सुन्दर स्वरूप को देखकर वहां के निवासी सारे ऋषि मुनि उनसे भोग करने की इच्छा करने लगे । उन सारे ऋषियों ने द्वापर के अन्त में गोकुल की गोपियों के रुप में जन्म लिया और रामचन्द्र जी कृष्ण बने तब उन गोपियों के साथ कृष्ण ने भोग किया । इससे उन गोपियों की मोक्ष हो गई । वरना अन्य प्रकार से उनकी संसार रुपी भवसागर से मुक्ति भी न होती। सनातनी लोग इसलिए कृष्ण को गोपीबल्लभ भी कहते हैं कि उन्होंने विषय भोग करके गोपियों (गवालिनों ) को इस भव सागर से पार कर दिया। यह है “गोपीबल्लभ राधेश्याम'' नाम से कीर्तन करने का रहस्य यदि आजकल कहीं यह पौराणिक कृष्ण आ जावें तो विचारे इन कीर्तन पंथियों का भी किसी ऐसे ही मिलते जुलते नुस्खे से उद्धार हो जाए। दिन रात ये बिचारे “राधेकृष्ण” रटने वाले कभी मुक्ति न पा सकेंगे। मुक्ति के नुस्खे भी पुराणों के बड़े मार्के के नुस्खे होते हैं और यह अवतार का ही काम होता है कि उन नुस्खों का प्रयोग करके अपने भक्तों का कल्याग क्रिया करें। इसलिए हमारा यह लिखना है कि “राधा रति सुख्रो पेतो” राधा दगम फल प्रद:' व राधालिंगन संमोहे” (गोपाल सहस्त्रनाम ) इसका अर्थ है कि कृष्ण राधा का आलिंगन करते थे उसे काम फल विषयानन्द या रति सुख प्रदान करते थे सर्वथा सत्य है। रति शब्द का अर्थ इस प्रसंग में विषय भोग करना ही है दूसरा नहीं, झूँठे अभद्रभाष्यों की शरण लेने से सत्य को दक्राया नहीं जा सकता है। क्योंकि पुराणों के अनुसार कृष्ण 36॥॥860 0५ (धा562ाशाशश (2) का राधा से नाजायज त्ताल्लुक था पुराणों की यदि पिछली कथायें सत्य हैं| तो कृष्ण के बारे में पुराण का यह लिखना भी सर्वथा सत्य मानना पड़ेगा कि- साक्षाज्जारश्च॒गोपीनां दुष्ट परं॑ लम्पट: ।॥६१।। आगत्य मथुरा कुब्जां जघान मैथुनेव च।॥६२।। (ब्रहमवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खन्‍ड उत्तरार्ध अध्याय ११५) अर्थात्‌- कृष्ण गोपियों का जार (व्यभिचारी ) दुष्ट, बड़ा लम्पट था। मथुरा में आकर उसने मैथुन कर करके कुब्ज' को मार डाला। कीड़ा, रति, रमण, लम्पट व जार शद्दों का अर्थ “व्यभिचार” ही इन स्थानों पर होगा, यह हमारे ऊपर के लेरा को देखकर सत्य सिद्ध हो जाता है। चाहे शूकर अवतार के यह चेले सनातनी पंडित कितना ही जोर क्‍यों न लगादें, पर इस सत्य को काट नहीं सकते कि पुराणों ने कृष्ण महाराज को धूर्त व्यभिचारी शिरोमणि माना है, जबकि गीता के श्रीकृष्ण महाविद्वान महानात्मा व आदर्श +रित्रवान थे। पुशणों की राधा, कृष्ण की गन्दे अर्थों में प्रेमिका थी । यदि कसी के बाप दादे दुश्चरित्र भी हों तो भी लायक औलाद उनके चरित्र के धब्यों को छििपाती है। पर पौराणिक सनातन धर्म भें निष्कंलक कृष्ण महाराज के साथ कंलकित राधा का नाम जोड़कर यह संकीर्तनी कपूती औलाद ढोल मजीरे पीट पीट कर चिल्लाती है कि हमारे पुरखे (अवतार ) दुराचारी थे उतकी एक रखेल (आशना) राधा थी, वे गोपियां (पशु चराने वाली ग्वालिन छोकरियों ) से व्यभिचार किया करते थे । जब ये घर वाले ही अपने पूर्वजों को बदनाम करते हैं तो विधर्मी ईसाई मुसलमानादि उनको क्‍यों कर बदनाम नहीं करेंगे पुराणों में सारी की सारी ऐसी ही बेहूदी बातें भरी पड़ी हैं। रा६ ग़ कृष्ण की बेटी है । पुत्रवधु है और मामी है । और उसी राधा से कृष्ण 36॥॥60 0५ (ध562ााशश का व्यभिचोर चलता है | भगवान राम से ऋषि लोग भोग करने की इच्छा . करते हैं। गोकुल में ऋषि लोग गोपियाँ बनती हैं रामचन्द्रजी क॒ष्ण बनकर उनसे भोग करते हैं और भोग करने से वे गोपियाँ मकत हो जाती हैं। इसलिए कृण्ण को गोपीबल्लभ कहा गया है। कैसी धर्तता की बातें बदमाशों ने घढ़-घढ़ कर लिखी हैं, जिन्हें पढ़कर भी शर्म आती है। पौराणिक पंडित मंडल तथा उनका गरु पाखंडी शिरोमणि माधवाचार्य इन बातें को सही मानता है। और हमारे आक्षेपों के शब्दाडाम्बर में उड़ाने की कोशिश करता है। यह पराण प्राय: दो हजरर दर्ष येः इ६ े र अंग्रेजों के आने तक बने हैं | ऐसा पराणों में वर्णित इतिहास एवम उनकी भाषा शैली से स्पष्ट है। इनमें भारी कमीवेशिया (मिलावट) भी की गई हैं। भागवत महात्म्य प्रकरण में अध्याय £ श्लोक ३६ में लिखा है- ४ ४ “आश्चमा: यवनैरुद्वस्तीर्थानि.सरिस्तथा । देवता यतनान्यत्र दुष्टर्नप्टानि भूरिण:” अर्थात्‌-नारदजी कहते हैं कि कलियुग में यवनों ने भारत की नदियों तीर्थों व आश्रमों पर कब्जा कर लिया है व देव मंदिरों को नष्ट ' कर डाला है । इस श्लोक में आया यदन शब्द जो निश्चय पूर्वक मुसलमानी राज्यकाल का द्योतक है । क्योंकि महाभारत के बाद ऐसी कोई यवन जाति मुसलमान के अलावा नहीं हुई जिसने समस्त भारत के मंदिरों तीर्थों व आश्रमों पर अधिकार करके उन्हें नष्ट भ्रष्ट किया हो। यह केवल मुसलमानों ने किया था। अत: इस श्लोक से स्पष्ट है कि ये प्राण भारत में मुसलमान राज्य कायम होने के बाद बने हैं। इसी प्रकार पुराणों में तम्बाकू पीने. का निपेद्य है। धम्रपानरत विप्र दान दधाति यो नरः। दातारी नरक याँति ब्रहमणो ग्राम शूकर:।। अर्थात-तम्बाकू पीने वाले ब्राह्मण को दान देने वाला व्यक्ति नरक )30॥॥860 0५ (ध562ााशहश (23) में जाता है और बह ब्राहमण मर कर गाँव का सूअर बनता है । जहाँगीर चादफाह ने 'तजोक' ग्रन्थ में लिखा है कि भारत में तम्बाकू आलू व »(०। «५ भमरीकन पादरी अकब्रर के राज्य में भारत लाया था। तभी से इसका यहाँ प्रचार व पैदावार प्रारम्भ हुई | इससे पूर्व ये चीजें भारत में नहीं होती थीं। अत: त्तम्बाकू, का-निपेद्य होने से स्पष्ट है कि ये पुराण अकबर के बाद बना है। ये इतिहास के तथ्य हैं, #त: कोई भी इन्हें काट नहीं सकता है। बकवास भले ही करता रहे । पुराणों में अग्रेजी रविवारे च सन्‍्हे च फाल्गुने चैत्र फरवरी। . चष्टिश्चसिक्सटी ज्ञेया तदुदाहपण मीद्रशम्‌ ।॥३७।। ु - (भविष्य पुराण प्रतिसर्ग खण्ड १ अ० ५) अर्थात - रविवार को सन्डे, फाल्गुत को फरवरी तथा षष्ठ को सिक्सटी अँग्रेजी में कहते हैं-इससे स्पप्ट है कि यह प्राण भँग्रेजो के बाद घना है। भागवत में स्कन्‍्द १२ अध्याय ३३ श्लोक ९ में लिखा.है। “अष्टादश श्री भागवत मिष्यते अर्थात- भागवत में कुल १८००० श्लोक हैं । पर 'गिनने पर भागवत में केवल १४१८० श्लोक मिलते हैं | स्पष्ट है कि भागवत में से प्राय ४०००० इलोक निकाल डाले गए हैं.। अत: वर्तमान भागवत कटा छंटा होने से अधूरा एवं अप्रमांणिक ग़न्थ है | पुराणों के बारे में यह कहना कि व्यास ऋषि ने पराणों को बनाया था, एक पागलपन की बात है । क्योंकि स्वयं पुराण में लिखा है क्रि “पराण धूर्तो ने बनाये हैं” देखिये - धूर्त: .पुराण. चतुरै: हरि शकराणाम्‌। सेवा पराश्च विहितास्तवनिर्मितानाम | ।१२। ! (दिवी भागवत स्कन्द ५ अध्याय १९) 36॥॥860 0५ (ध562ााशश न 2 .. अर्थात-पुराण बनाने वाले अनेक चतुर धूर्त लोगों ने शिव और विष्णु . की पूजा की श्रेष्ठता अपने पेट भरने के लिए लिखःमारी है| इससे सिद्ध . है कि पुराण बनाने वाले अनेक धूर्त लोग रहे हैं। किसी भी एक व्यक्ति ने पुराण नहीं बनाए हैं। हक पुराण की गय - महाभारत. के बाद रामचन्र हुए थे ... भागवत्‌ पुराण में अवतारों की द्वो लिस्टें (सूची) दी है जिनमें यह . ज़ताया है कि कौन-कौन अवतार किस-किस के बाद कम वार हुए हैं। - दोनों ही सूची एक दूसरे के सर्वथा विरुद्ध हैं। पहली फहरिस्त भागवत स्कन्दः१ अध्याय ३ में श्लोक ६ से २५ तक है, जिसमें एक कल्कि अवंत्तार - सहित कुलें २२ अवतार होना माना है, इसमें एक विशेष बात यह मार्के की रही है कि रामचन्द्र को १८ वाँ अवतार माना है, और व्यास ऋषि को १७वें नंबर पर माना है अर्थात रामचन्द्रजी महाभारत के व्यास ऋषि ' के भी ब्राद हुए थे। यह भागवतकार की चन्डूखाने की गप्प रही है। सनातनियों के कल्पित २४ अवतार भागदत नहीं मानता है। ः दूसरी फहरिस्त (सूची) भागवत्त स्कन्ध २ अध्याय ७ में दी है । उसमें. कुल अवतार २१ माने हैं । इसमें नया पशु अवतार हयग्रीव नाम का घुसेड दिया है और नारद व मोहनी नाम के पहली फहरिस्त के दो अवतारों के नाम नाकाबिल गलत मानकर निकाल डाले गए है। इससे सिद्ध है . 'कि अफीम की पिनक में भागवत्तक़ार ग्रन्थ बनाने बैठा था | उसे यह भी पता न रहा कि पीछे क्या लिख मारा है और आगे क़्या लिखना है सारे , पुराण एक दूसरे के विरोधी हैं और गलत हैं । वास्तव ४६-२8 ग्रन्थ अति भ्रष्ट ग्रन्थ है। इन वेद विरुद्ध ग्रन्थों को मानने के कारण हिन्दु जाति _ का बड़ा पतन हुआ है। औरों की बात छोड़ भी दी जावे कलियुगी * 30॥॥60 0५ (ध56घााशश «. (25) | माधवाचार्य आदि सनातनी पण्डितों को साक्षात्‌ राक्षसों का अवतार बताया है। प्रमाण देवी भागवत ग्रन्थ स्कन्द ६ में पाठकों के मिलेगा। ..._ लोकमान्य तिंलक ने गीता रहस्य पृष्ठ ५०१ पर प्राचीन विष्णु पुराण का निम्न श्लोक लिखा है जिसे अब लोगों ने उसमें से निकाल डाला है। े ्््ि कृष्ण-२ रठने वाले पापी हैं। अपहायं॑ निज्ञ॒ कर्म कृष्णेति यो बादिन:। । ते हरेदेषिण पापा: धर्मार्थ जन्म यद्‌ धरे।। : अर्थात्‌- जो लोग वेदोक्त धर्म को त््यांग कर केवल हरे कृष्ण जपते : रहते हैं वे कृष्ण के दुश्मन हैं, प्रापी हैं। क्योंकि कृष्ण का जन्म ही वेद . धर्म प्रचार के लिए हुआ था॥ ह इस प्रमाण से वर्तमात्र कीर्तन प्रणाली गलत सिद्ध हो जांती है। जिसका पुराणों ने प्रचार करके हिन्दु जाति में घोर पांखड़ फैला रखा , है। बहुत से अज्ञानी तो कृष्ण को भी छोड़कर राधें राधे रटते हैं । मानों ' राधा सुन्दरी से उनका कोई निकट का रिश्ता हो। धर्म के नाम पर इस कौम को इन पापों ने किस कदर मूर्ख बनाया है यह अक्लमंद लोग देखें । पुराणों ने एक ईश्वर के स्थान पर हजारों देवी देवताओं की पूजा हिन्दु कौम में जारी करा 'दी। परमात्मा के स्थान पर महादेव कां लिंग्र : * « (मूत्रेन्द्रिय) जनता से पुजवा डाला | विदेशी देवत्ता विष्णु, शिव वःगणेश - का (जो कि सर्वथा कल्पित हैं) हिन्दुओं को गुलाम बना डाला पुराणों के अनुसार यंह देवता पृथ्वी पर व्यभिचार करने या व्यभिचार में लगे . शापों का दन्‍्ड भुगतने को ही आते हैं | इनके गन्दे चरित्रों का पुराणों में सविस्तार वर्णन है । अत: हमारा कहना है कि ४श्वर की पर्चा उपासना (080780 0५ (ध562॥शाशशा हज. 5: . बुध . स्तुति छोड़कर जो लोग हरे कृष्ण या राधे कृष्ण.जपते हैं या कृष्ण के . *.« नामकेसाथपुराणों की मान्यतानुसार दुराचारिणी राधा का नाम जोड़ते ' । है वह पापी हैं कृष्ण को बदनाम करते हैं । नाम जपने के इच्छुकों को : . शुद्ध मन से ओश्म व गायत्री का मानसिक जप करना चाहिए समस्त - , | वेदणवंशास्त्रों में केबल 'ओइम' जपने का ही विधान है । प्रणव का सार्थक ... स्मरणशांत चित्त होकर करने का योग दर्शन ने आदेश दिया है । कल्पित अवतार व॑ विष्णु तथा शिव आदि के मंदिरों पर सर पटकने वाले अपना - मनुष्य जन्म व्यर्थ खोते हैं। मर्यादा परुषोत्तम- आदर्श चरित्र योगेश्वर . श्रीकृष्ण महाराज हमारी आर्य जाति के निष्क॑ लक ईश्वर भक्त महान्‌ पूर्वज , थे । उनका नाम जपने के बजाय उनके कार्यो एवं उनके जीवनादर्शों को : अपने जीवन में उतारना प्रत्येक व्यक्ति समाज व देश के लिए उपयोगी: - _ होगा । सरकार- २ रठने वाले को पागल समझा जावेगा, राज्यभक्त नहीं | राज्य भक्त बनने के लिए 'सरकार' शब्द न रटकर राज्य के नियमों व आदेशों को माननां आवरईयक होगा । उंनका पालन करने वाला वास्तव में राज्य भक्त कहा जावेगा । यही बात महापुरुषों के बारे में है । उनका आदर्श अपने जीवन में उतारना ही उनका भक्त होना है न कि कोर नाम रटना या रामायण का धूँआधार अखंड पाठ करते रहना, चाहे जीवन में एक भी आदर्श.का पालन न किया जाता हो। न्‍ नारद ने भागवत में साफ-साफ ऐलान कर दिया है कि ये माधवाचार्य , जैसे कलियुगी स॒नःतनी उपदेशक पंडित धर्म-कर्म के बारे में खाक भी «». : नहीं जानते हैं। अतः इनकी बात धर्म विषय में बिल्कुल नहीं मानी जानी चाहिए। यह लोग जनता में झू ठे पान्डित्य का कोरा ढ़ोंग बनाए बैठे है। . सीता, राम, कृष्ण; रावण, कौरद, पॉडव, लंका, अयोध्या आदि : ऐतिहासिक व्यक्ति व स्थान हुए हैं । यदि-कोई इनकों (रामायण व महाभारत को ) ऐतिहासिक न माने त्तो उसकी बात माननीय नहीं होगी:। (६ 2४! 36॥॥60 0५ (ा562ााशहश 'छकफ 7" 4 इसी प्रकार राधा रावण आदि का जन्म व शादी की बातें पुराणों में लिखी : हैं। कोई माधवाचार्य जैसा दीवानां हमारे आक्रमण से घबराकर इनकी ' आध्यात्मिक व्याख्या करने बैठे तो यह घोर प्रागलपन होगा। यह बांत दूसरी है कि हमारे दृष्टिकोण से संपूर्ण पुराण व उनकी कथायें ही झूँठी हैं। पाला ने राधा नर्तकी की झूँठी कल्पना की उसे कृष्ण की प्रेमिका ._ बनाया और पुराण बनाने वालों ने कृष्ण महाराज़ के परम पवित्र निष्कलक . जीवन पर गन्दा कलंक लगाया है इसी प्रकार सारे ऋषि मुनियों के आदर्श चरित्रों को पुराणों ने कलंकित किया है। इसलिए एक संस्कृत ग्रन्थकार ने लिखा है, देखिये - . पौराणिका नाम व्यभिचार दोषो न शकनीय कृतिभि: क़॒दाचित्‌ । पुराणकर्ता व्यभिचार जात: तस्यापि पुत्रो-व्यभिचार जात: ।। । (सुभापषित रत्न भाण्डागार ) अर्थात्‌-पौराणिकों में व्यभिचार का दोष वहुत होता है । इसमें कतई ' शंका न करनी चाहिए। पुराण बनाने वाला व्यभिचार से पैदा हुआ था उसकी औलाद भी व्यभिचार से हुई थी। च्ः . अत: वे सनातनी पंडित महान दोषी हैं जो इन व के दूषित * साहित्यको पढ़कर जनता को सुनाते हैं । गीता प्रेस जैलो पराण प्रकाशक व्यापारी संस्थायें भी धर्म भक्त हिन्दु कौम में पुराणों का घासलेटी साहित्य _« छाप-२ करबेचने से दनता को पथभ्रष्ट करने के दोष से मुक्त मही किया * जा सकता है पुराणों दर गंदी कथाओं की आध्यात्मिक व्याख्यायें ढूँढना | विष्ठा के ऊपर सौने के वर्क लगाने के सभानः है जिसंकी बदबू दबाने से नहीं दब सकती है जब आर्य समाजीं खंडन,मंडन का तर्कपर्ण द्विधारा . चलने लगा तो अब घबड़ाकर पोष लोग पुराणों के व्यभिचार की कथाओं को छिपाने के लिए उल्टे सीधे आध्यात्मिक अर्थ ढूँढने बैठे हैं । परंतु ये उसमें भी फेल हुए हैं। ' 36॥॥860 0५ (ध562ााशहश : (28) क्या वेद में राधा का वर्णन है ? 'बिल्ली को ख़्वाब में छिछड़े ही नजर आते हैं। इस लोकोक्ति के अनुसार- १- पौराणिक पंड़ितों को वेद में राधा कृष्ण, राम, रावण का वर्णन दीख पड़ता है। २- मुसलमान को वेद में 'शतंमदीन:' पद में मक्का मदीना दीखता है।' . ३- ईसाई को वेद में ईशा वास्यमिदं' में ईशा मसीह नजर आते हैं। ४- कबीर पन्‍थी को वेद में 'कविर्मनीषी” पद में कबीरदास जी दीखते हैं। ५- एक लाला जी को वेद में “श्रीश्चते लक्ष्मीश्चते में अपनी पत्नी लुक्ष्मीदेवी' का वर्णन मिलता है। _- ६- पादरी साहब को रामायण में गिरजा पूजन देखकर सीता जी गिरजे में मसीह को पूंजती नजर आती हैं। « * ७-५एक मुल्ला को वेद में “इमाम्‌ तमिद्र” प्रद में दिल्‍ली की मस्जिद का इमाम मिल जाता है। . ८- ेरिछोड़ि होव किरानी' रामायण में 'किरानी' ईसाईयत्‌ का सबूत : . प्रत्यक्ष दीखसता है। .. ९-'मांसाहारी को वेद में “मुरगायमद्ययूय॑' में मुर्गा और शराब नजर .. आता है। १०- जैनी को वेद में स्वस्तिनस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमि:” पद में तीर्थंकर नेमिनाथ दीखते हैं। - ११- रावण वंशी पंडितों को 'पाहिूर्तेररावण:' में धूर्त रावण लजर आंता 36॥॥860 0५ (धा562ााशश (29) है। , नापवी १३- तो पाखंडी शिरोमणि माधवाचार्य को वेद के “इन्द्र वयुमनीराध॑ हवामहे” इस मंत्र भाग में कृष्ण घुसेड़कर राधा के स्वप्न में गायका सुरैया सुन्दरी नजर आती है। केश हे हिन्दुओं के घर में ही जब वेदों के दुश्मन पौराणिक पंडित मौजूद होवें ओर वे जान बूझकर धूर्तता करें तो वेदों के अपौरूषेयत्व की रक्षा क्या मुसलमान करने आवेंगे? सनातनी जनता के लिए कलंक की बात है कि ऐसे नास्तिक पण्डितों की वह कद्र करती है। जिनकी शक्ल देखना भी उसे पाप समझना चाहिए। वेंदों के हजारों मंत्रों में लाखों शब्दों का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ व्याकरण की रीति से निरुक्तादि की शैली से किया जाता है । वेद ईश्वरीय ज्ञान के भंडार हैं तथा आदि सृष्टि'में मनुष्यों को मिलने से उनमें व्यक्ति इतिहास या किसी. भी स्थान का वर्णन नहीं है। पर दीवाने लोगों को यदि किसी भी नाम का शब्द वेद के किसी पद से मिलता जुलता. भी दीखने लगता है, तो वह बकने लगता है फि वेद में अमुक व्यक्ति का वर्णन आया है | ईसाई, इमाम, कबीर, राधा, लक्ष्मी, रावण, राम, मंदीना आदि नाम वेदों में इसी प्रकार अंधे लोग ढूँढा करते हैं। वेदों में राधा-कृष्ण का विपक्षी प्रमाण “इन्द्र बयुमनिराधं हवामहे” (अथर्व वेद १९-१५-२) इसमें अनुराधम्‌ पद में इस अंधे को राधा दीख पड़ी हैं । सत्यार्थ यह है देखिये - (वयम्‌ ) हम लोग (आराधम्‌ ) आराधना करने योग्य या सिद्ध कराने - हारे (इन्द्रम्‌) ऐश्दर्यशाली परमेश्वर की (हवामहे ) स्तुति करते हैं । वेद 308॥॥60 0५ 'एथ्ा।56द्वाह पु ््ः़ * * (30) '.. मंत्रों में राधा या कृष्ण की गंध भी नहीं है पर फिर भी इन सनातनी पाखंडी पण्डितों को वेद में राधा कृष्ण नजर आ रहे हैं। . | +.. इस प्रकार हमने दिखाया कि श्रीकृष्ण जी महाराज़ को पुराणों ने. कल्पित कथाओं द्वारा हर प्रकार सें बदनाम करने का प्रयास किया है। . राधा से नाजायज संबंध कुब्जा से व्यभिचार गोपियों से विषय भोग एवं . काम कीड़ा करना आदि झूठी लज्जा ज़नंक बातें हैं। कीर्तन प्रणाली जिसका कि सनातनियों में काफी प्रचार हो रहा है। महान कृष्ण को « बदनाम करने की दृष्टि से अत्यधिक मूर्खता: पूर्ण चीज है। ह ... हमारे पिछले लेख से स्पष्टःहो चुका है कि राधा रमणं श्री गोविन्द . जै जै का अर्थ राधा से व्यभिचार करने बाले कु्ष्ण की'जै होगा। _ राधे कृष्ण का अर्थ होगा राधा कृष्ण के नाजायज ताल्‍लुक का ढोल पीटना। माधवाचार्य ने राम का अर्थ विषयानन्दी' किया है। तो हरे राम हरे कृष्णा का अर्थ होगा हे विषयानन्दी कृष्णो। गोपी बल्‍लभ _ : राधेश्याम का अर्थ होगा हे गोपियों (ग्वालिनों ) से विषय भोग, व्यभिचार _ . करने वाले व राधा के नाजायज प्रेमी कृष्ण | इसे प्रकार वर्तमान संपूर्ण कीर्तन का अर्थ होगा-शोपियों से व राधा से व्यभिचार करने वाले . विषयानन्दी कृष्ण की जै हो यह कीर्तन हुआ, या अपने पुरखा श्री कृष्ण . जी'को पानी थी पीकर ढोल मजीरे बजाकर मजमा लगा कर गालियाँ देना हुआ ?:इन सनासेनियों की कैसी अक्ल मारी गई है कि वह पुराणों की शराब के नशे में निष्कलक पवित्रात्मा कृष्ण को दिन रात चीख- कर गालियाँ दिया करते हैं। व्यभिचार को ये अज्ञानी ब्रहम॒चर्य मानते ,हैं | पुराणों की व्यभिचारिणी राधा को ये आजंन्म ब्रहमचारी बनाते हैं कृष्ण को ये आजन्म ब्रहमचारी बताते हैं, कृष्ण के कुब्जा से खुले व्यभिचार को यह उसकी डाक्टरी करके कमर सीधी करने का इलाज मानते हैं. “गोपियों से हरांमखोरी (विषयभोग ) करने को पवित्र प्रेम का प्रतीक मानते 36॥॥860 0५ (ध562ााशश (3॥).. है] || ञ हि हैं जमुना में-स्नान करती हुई गोपियों के वस्त्र चुराने वे उनके गुए्तांगों के नग्न दर्शन करने, उनसे छल वे.मजाक करने को यह उनको पवित्र उपदेश देना बताते हैं। संसार के सारे दुराचारों की जड़, इस सनातन . धर्म में मिट्टी का तेल डालकर आग लगा देनीं चाहिए । घासलेटी पुराणों को किसी नंदीं या पोखर में जल प्रवाह कर देना चाहिए रांम कृष्ण जैसे ल्‍ आर्य जाति के हमारे महापुरूषों को कंलकित करने वालें, उनको गालियाँ हू देने वाले इन कीर्तन पंथियों को तर्क-शास्त्र का संबल लेकर ठीक करना. चाहिए और जोर देकर उनको मजबूर करना चाहिए कि कृष्ण को बदनाम करने से बाज आंयें। उनकी इन हरकतों से हिन्दु जाति का घोर अपमांन : : : हुआ है। ऐसे पाखंडी सनातनी पोष पंडितों की. शक्ल देखना भी पाप समझना चाहिए जो पुराणों का व कीर्तन का प्रचार करके भोली भाली हिन्द जाति में अधर्म का प्रचार करते हैं यह हमारा सभी समझदार पोठकों से निवेदन है, क्योंकि जब तक इन धर्म के ठेकेदार उपदेशकों की अक्ल ' दरुस्‍्त नहीं की जावेगी यह जनता को गलते.मार्ग पर डालने से बाज नहीं आवेंगे इसलिए आर्य समाजियों व प्रत्येक समझदार पौराणिक . बंधुओं की जनता में से इन धार्मिक दोषों के निवारण का प्रयत्न करते .. (रहनाचाहिए। ६... . 5 ५ ।इतिशंम्‌।। ... के 5 नोट +े ५ श्री आचार्य डा० श्रीराम आर्य जी का समस्त खंडंर्न-मंडन विषयक साहित्य अब अमर स्वामी प्रकाशन: विभाग”, १०५८, :/विवेकामन्द नगर, गाजियाबाद, से. प्रकाशित किया जावेगा-। पाठकवृन्द .. . अब यहां-पर संपर्क करे। उठक्षा80 69 (वाह : “प्रकाशक ..