सलिल सृजन अगस्त १७
पूर्णिका . भोग लगा भगवान को पाते भक्त प्रसाद छप्पन व्यंजन में मिले अमृत जैसा स्वाद . भक्ति-भाव से कीजिए भजन भुलाकर स्वार्थ परेशान मत कीजिए, प्रभु को कर फरियाद . काम करें निष्काम हर, प्रभु अर्पण कर आप जो करते निस्वार्थ श्रम, वे होते आबाद . राधा धारा प्रेम की, मीरा भक्ति प्रवाह पार्थ समर्पण, द्रौपदी रिश्तों की मर्याद . जीवन के कुरुक्षेत्र में, धैर्य रखें बन पार्थ सुख-दुख दोनों प्रभु-कृपा, मान करें प्रभु-याद १७.८.२०२५ ०००
कुंडलिया छंद :
रावण लीला देख
*
लीला कहीं न राम की, रावण लीला देख.
नेता गण हैं कुकर्मी, यह सच करना लेख..
यह सच करना लेख कटेगा इनका पत्ता.
सरक रही है इनके हाथों से अब सत्ता..
कहे 'सलिल' कविराय कफन में ठोंको कीला.
कभी न कोई फिर कर पाये रावण लीला..
*
खरी-खरी बातें करें, करें खरे व्यवहार.
जो कपटी कोंगरेस है,उसको दीजे हार..
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कुचले जो जनता को वह सरकार है मरी.
'सलिल' नहीं लाचार बात करता है खरी.
*
फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
१७-८-२०२१ 
***
दोहा सलिला 
श्री-प्रकाश पाकर बने, तमस चन्द्र सा दिव्य.
नहीं खासियत तिमिर की, श्री-प्रकाश ही भव्य ..
*
आशा-आकांक्षा लिये, सबकी जीवन-डोर.
'सलिल' न अब तक पा सका, कहाँ ओर या छोर.
*
मुक्तक :
अधरों पर सोहे मुस्कान
नित गाओ कोयल सम गान
हर बाधा पर विजयी हो -
शीश उठा रह सीना तान
*
मन की पीड़ा को शब्दों ने जब-जब भी गाया है
नूर खुदाई उनमें बरबस उतर-उतर आया है
करा कीर्तन सलिल रूप का, लीन हुआ सुध खोकर
संगत-रंगत में सपना साकार हुआ पाया है
*
कुसुम वीर हो, भ्रमर बहादुर, कली पराक्रमशाली 
सोशल डिस्टेंसिंग पौधों में रखता है हर माली
गमछे-चुनरी से मुँह ढँककर, होंगी अजय बहारें-
हाथ थाम दिनकर का ऊषा, तम हर दे खुशहाली
१७-८-२०२० 
***
नवप्रयोग
षडपदिक सवैया
*
पौ फटी नीलांबरी नभ, मेघ मल्लों को बुलाता, दामिनी की छवि दिखा, दंगल कराता।
होश खोते जोश से भर, टूट पड़ते, दाँव चलते, पटक उठते मल्ल कोई जय न पाता।
स्वेद धारा प्रवह धरती को भिगोती, ऊगते अंकुर नए शत, नर सृजन दुंदुभि बजाता।
दामिनी जल पतित होती, मेघ रो आँसू बहाता, कुछ न पाता।
पवन सनन सनन बहता, सत्य कहता मत लड़ो, मिलकर रचे कुछ नित नया जो कीर्ति पाता।
गरजकर आतंक की जो राह चलता, कुछ न पाता, सब गँवाता, हार कहता बहुत निष्ठुर है विधाता।
*
संजीव
१७-८-२०१९, मथुरा
बी ३-५२ संपर्क क्रांति एक्सप्रेस
***
छंद सलिला: पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख...  
छंद सलिला सतत प्रवाहित, मीत अवगाहन करें 
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें 
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार 
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार 
*
पाठ १०१ 
सरसी छंद 
*
लक्षण:
१. ४ पंक्ति.
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा. 
३. १६-११ मात्राओं पर यति. 
४. पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा.
५. दो-दो पंक्ति में सम तुकांत. 
लक्षण छंद:
सरसी सोलह-ग्यारह रखिए मात्रा, गुरु-लघु अंत. 
नित्य करें अभ्यास सधे तब, कहते कविजन-संत.
कथ्य भाव रस अलंकार छवि, बिंब-प्रतीक मनोहर. 
काव्य-कामिनी जन-मन मोहे, रचना बने धरोहर. 
*
उदाहरण:
पशु-पक्षी,कृमि-कीट करें सुन, निज भाषा में बात.
हैं गुलाम मानव-मन जो पर-भाषा बोलें तात. 
माँ से ज्यादा चाची-मामी,'सलिल' न करतीं प्यार.
माँ-चरणों में स्वर्ग, करो सेवा तो हो उद्धार.
***
हिंदी आटा माढ़िये, देशज मोयन डाल 
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल 
१७-८-२०१७  
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लघुकथा-
टूटती शाखें 
*
नुक्कड़ पर खड़े बरगद की तरह बब्बा भी साल-दर-साल होते बदलावों को देखकर मौन रह जाते थे। परिवार में खटकते चार बर्तन अब पहले की तरह एक नहीं रह पा रहे थे। कटोरियों को थाली से आज़ादी चाहिए थी तो लोटे को बाल्टी की बन्दिशें अस्वीकार्य थीं। फिर भी बरसों से होली-दिवाली मिल-जुलकर मनाई जा रही थी।
राजनीति के राजमार्ग के रास्ते गाँव में घुसपैठ कर चुके शहर ने टाट पट्टियों पर बैठकर पढ़ते बच्चे-बच्चियों को ऐसा लुभाया कि सुनहरे कल के सपनों को साकार करने के लिए अपनों को छोड़कर, शहर पहुँच कर छात्रावासों के पिंजरों में कैद हो गए। 
कुछ साल बाद कुछ सफलता के मद में और शेष असफलता की शर्म से गाँव से मुँह छिपाकर जीने लगे। कभी कोई आता-जाता गाँववाला किसी से टकरा जाता तो 'राम राम दुआ सलाम' करते हुए समाचार देता तो समाचार न मिलने को कुशल मानने के आदी हो चुके बब्बा घबरा जाते। ये समाचार नए फूल खिलने के कम ही होते थे जबकि चाहे जब खबरें बनती रहती थीं गुल खिलानेवाली हरकतें और टूटती शाखें। 
***
मुक्तक 
अधरों पर सोहे मुस्कान 
नित गाओ कोयल सम गान 
हर बाधा पर विजयी हो -
शीश उठा रह सीना तान
१७-८-२०१६ 
***
राखी गीत 
*
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा
बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब 
बाँध रक्षा सूत्र तू ही 
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे 
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही 
समय तुझको बन्दगी दे 
स्वप्न हर साकार करने 
कोशिशों के बीज बो जा 
नयी फसलें उगाना है 
बंधनों से मुक्त हो जा 
पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना 
सहायक हो बँधा लांबा 
घरों में रिश्ते जिलाना 
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित 
उसे जो सब योग्य दिखता 
अवनि की हर विपद हर ले 
शक्ति-वंदन विश्व करता 
कसर कोई हो न बाकी 
दाग-धब्बे दिखे धो जा 
शिथिल कर दे नेह-नाते 
बंधनों से मुक्त हो जा
१५ अगस्त २०१६
***
गीता गायन 
अध्याय १ 
पूर्वाभास
कड़ी ३. 
*
अभ्यास सद्गुणों का नित कर 
जीवन मणि-मुक्ता  सम शुचि हो 
विश्वासमयी साधना सतत 
कर तप: क्षेत्र जगती-तल हो 
*
हर मन सौंदर्य-उपासक है
हैं सत्य-प्रेम के सब भिक्षुक 
सबमें शिवत्व जगता रहता 
सब स्वर्ग-सुखों के हैं इच्छुक 
*
वे माता वहाँ धन्य होतीं 
होती पृथ्वी वह पुण्यमयी  
होता पवित्र परिवार व्ही 
होती कृतार्थ है वही मही 
*
 गोदी में किलक-किलक 
चेतना विहँसती है रहती 
 खो स्वयं परम परमात्मा में 
आनंद जलधि में जो बहती 
*
हो भले भिन्न व्याख्या इसकी 
 हर युग के नयन उसी पर थे 
जो शक्ति सृष्टि के पूर्व व्याप्त 
उससे मिलने सब आतुर थे 
*
हम नेत्र-रोग से पीड़ित हो 
कब तप:क्षेत्र यह देख सके?
जब तक जीवित वे दोष सभी  
तब तक कैसा कब लेख सके?
*
संसार नया तब लगता है 
संपूर्ण प्रकृति बनती नवीन 
हम आप बदलते जाते हैं 
हो जाते उसमें आप लीन 
*
परमात्मा की इच्छानुसार 
जीवन-नौका जब चलती है 
तब नये कलेवर के मानव 
में, केवल शुचिता पलती है 
*
फिर शोक-मुक्त जग होता है 
मिलता है उसको नया रूप 
बनकर पृथ्वी तब तप:क्षेत्र 
परिवर्तित करती निज स्वरूप 
*
जीवन प्रफुल्ल बन जाता है 
भौतिक समृद्धि जुड़ जाती है 
आत्मिक उत्थान लक्ष्य लेकर 
जब धर्म-शक्ति मुड़ जाती है  
*
है युद्ध मात्र प्रतिशोध बुद्धि 
जिसमें हर क्षण बढ़ता 
दो तत्वों  के संघर्षण में 
अविचल विकास क्रम वह गढ़ता 
*
कुत्सित कर्मों  का जनक यहाँ
अविवेक भयानकतम दुर्मुख 
जिससे करना संघर्ष, व्यक्ति का
बन जाता है कर्म प्रमुख 
*
 कर्मों का गुप्त चित्र अंकित 
हो पल-पल मिटता कभी नहीं 
कर्मों का फल दें चित्रगुप्त 
सब ज्ञात कभी कुछ छिपे नहीं  
*
यह तप:क्षेत्र है कुरुक्षेत्र
जिसमें अनुशासन व्याप्त सकल 
जिसका निर्णायक परमात्मा 
जिसमें है दण्ड-विधान प्रबल 
* 
बन विष्णु सृष्टि का करता है 
निर्माण अनवरत वह पल-पल
शंकर स्वरूप में वह सत्ता
संहार-वृष्टि करता छल-छल   
*
'मैं हूँ, मेरा है, हमीं रहें, 
ये अहंकार के पुत्र व्यक्त 
कल्मष जिसका आधार बना 
है लोभ-स्वार्थ भी पूर्व अव्यक्त 
*
 कुत्सित तत्वों से रिक्त-मुक्त 
जस को करना ही अनुशासन 
संपूर्ण विश्व निर्मल करने 
जुट जाएँ प्रगति के सब साधन 
*
कौरव-पांडव दो मूर्तिमंत 
हैं रूप विरोधी गतियों के 
ले प्रथम रसातल जाती है 
दूसरी स्वर्ग को सदियों से 
*
आत्मिक विकास में साधक जो 
पांडव सत्ता वह ऊर्ध्वमुखी  
 माया में लिपट विकट उलझी 
कौरव सत्ता है अधोमुखी 
*
जो दनुज भरोसा वे करते 
रथ, अश्वों, शासन, बल, धन का 
पर मानव को विश्वास अटल 
परमेश्वर के अनुशासन का 
*
संघर्ष करें अभिलाषा यह 
मानव को करती है प्रेरित 
दुर्बुद्धि प्रबल लालसा बने 
हो स्वार्थवृत्ति हावी उन्मत 
*
 हम नहीं जानते 'हम क्या हैं?
क्या हैं अपने ये स्वजन-मित्र? 
क्या रूप वास्तविक है जग का
क्या मर्म लिये ये प्रकृति-चित्र?
*
अपनी आँखों में मोह लिये 
हम आजीवन चलते रहते 
भौतिक सुख की मृगतृष्णा में 
 पल-पल खुद को छलते रहते 
*
जग उठते हममें लोभ-मोह 
हबर जाता मन में स्वार्थ हीन  
संघर्ष भाव अपने मन का 
दुविधा-विषाद बन करे दीन 
*
भौतिक सुख की दुर्दशा देख 
होता विस्मृत उदात्त जीवन 
हो ध्वस्त न जाए वह क्षण में 
हम त्वरित त्यागते संघर्षण 
*
अर्जुन का विषाद 
सुन शंख, तुमुल ध्वनि, चीत्कार 
मनमें विषाद भर जाता है 
हो जाते खड़े रोंगटे तब  
मन विभ्रम में चकराता है 
*
हो जाता शिथिल समूचा तन 
फिर रोम-रोम जलने लगता 
बल-अस्त्र पराये गैर बनकर डँसते 
मन युद्ध-भूमि तजने लगता  
*
जिनका कल्याण साधना ही
अब तक है रहा ध्येय मेरा
संहार उन्हीं का कैसे-कब
दे सके श्रेय मुझको मेरा?
*
यह परंपरागत नैतिकता
यह समाजगत रीति-नीति 
ये स्वजन, मित्र, परिजन सारे 
मिट जाएँगे  प्रतीक 
*
हैं शत्रु हमारे मानव ही 
जो पिता-पितामह के स्वरूप 
उनका अपना है ध्येय अलग 
उनकी आशा के विविध रूप 
*
उनके पापों के प्रतिफल में 
हम पाप स्वयं यदि करते हैं 
तो स्वयं लोभ से हो अंधे 
हम मात्र स्वार्थ ही वरते हैं 
*
हम नहीं चाहते मिट जाएँ 
जग के संकल्प और अनुभव 
संतुलन बिगड़ जाने से ही 
मिटते कुलधर्म और वैभव 
*
फिर करुणा, दया, पुण्य जग में  
हो जाएँगे जब अर्थहीन 
जिनका अनुगमन विजय करती 
होकर प्रशस्ति में धर्मलीन 
*
मैं नहीं चाहता युद्ध करूँ 
हो भले राज्य सब लोकों का
अपशकुन अनेक हुए देखो 
है खान युद्ध दुःख-शोकों का 
*
चिंतना हमारी ऐसी ही 
ले डूब शोक में जाती है 
किस हेतु मिला है जन्म हमें 
किस ओर हमें ले जाती है?
*
जीवन पाया है लघु हमने 
लघुतम सुख-दुःख का समय रहा   
है माँग धरा की अति विस्तृत   
सुरसा आकांक्षा रही महा 
*
कितना भी श्रम हम करें यहाँ
अभिलाषाएँ अनेक लेकर 
शत रूप हमें धरना होंगे 
 नैया विवेचना की खेकर 
*
सीधा-सदा है सरल मार्ग 
सामान्य बुद्धि यह कहती है 
कर लें व्यवहार नियंत्रित हम 
सर्वत्र शांति ही फलती है 
*
ज्यों-ज्यों धोया कल्मष हमने 
त्यों-त्यों विकीर्ण वह हुआ यहाँ
हम एक पाप धोने आते 
कर पाप अनेकों चले यहाँ 
*
प्राकृतिक कार्य-कारण का जग 
इससे अनभिज्ञ यहाँ जो भी 
मानव-मन उसको भँवर जाल 
कब समझ सका उसको वह भी 
*
है जनक समस्याओं का वह 
उससे ही जटिलतायें प्रसूत 
जानना उसे है अति दुष्कर 
जो जान सका वह है सपूत
*
अधिकांश हमारा विश्लेषण 
होता है अतिशय तर्कहीन 
अधिकांश हमारी आशाएँ 
हैं स्वार्थपूर्ण पर धर्महीन 
*
 जो मुक्ति नहीं दे सकती हैं
 जीवन की किन्हीं दशाओं में 
जब तक जकड़े हम रहे फँसे 
है सुख मरीचिका जीवन में 
*
लगता जैसे है नहीं कोई 
मेरा अपना इस दुनिया में 
न पिता-पुत्र मेरे अपने 
न भाई-बहिन हैं दुनिया में 
*
उत्पीड़न की कैसी झाँकी 
घन अंधकार उसका नायक
चिंता-संदेह व्याप्त सबमें 
एकाकीपन जिसका गायक 
*
जब भी होता संघर्ष यहाँ 
हम पहुँच किनारे रुक जाते 
साहस का संबल छोड़, थकित 
भ्रम-संशय में हम फँस जाते 
१७-८-२०१५ 
***
 
 
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