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गुरुवार, 21 अगस्त 2025

अगस्त २१, सॉनेट, पूर्णिका, आँख, दोहा, मुक्तिका, बेटी, हाइकु, बाल गीत, शांता,

सलिल सृजन अगस्त २१
*
पूर्णिका
शुभ दिन हो, खुशियाँ मिलें श्वास-श्वास बन आस
अधरों पर सज्जित रहें बनकर मधुरिम हास
.
तृप्ति अतृप्त रहे कहे- कभी न मानो हार
श्रम सीकर में स्नान कर करते रहो प्रयास
.
सृजन वाटिका में बनो तितली पा मकरंद
पान करो जितना बढ़े उतनी ज्यादा प्यास
.
गुल न बनो गुलदान का पल में जाता सूख
'सलिल' जमा जड़ जमीं में हरियाओ बन घास
.
नाद कृष्ण स्वर राधिका, रस गोपी लय ग्वाल
शब्द ब्रह्म साक्षात कर नित्य रचाओ रास
२१.८.२०२५
०.०
सॉनेट
आँख
आंँख दिखाकर आँख को करे आँख बेहोश
आँख झुकाकर दे रहीं स्वीकृति आँखें मौन
आँख उठाकर पूछती आँख 'आप हैँ कौन?'
आँख मिलाकर कर सकें आँखों को मदहोश।
आँख नटेर-निकाल कर आँख दिखाए जोश
आँख शक्ति है भक्ति भी, आँख पुष्प जासौन
आँख बहाए अश्रु हँस, हो खारा बिन नौन
आँख किताबी अजाने बने भाव-रस कोश।

आँख उठे मिल लड़ झुके, समझो देगी साथ
आँख चुराए आँख, दे झोंक धूल, बच मीत
आँख आँख पर आँख रख, करे सुरक्षा जाग।
आंँख न भय से भागती, जिए उठाकर माथ
आँख प्राण दे निभाती अगर पालती प्रीत
आँख स्नेह सलिला विमल, आँख 'सलिल' अनुराग। 
२१.८.२०२५
०००
दोहा सलिला
मन-मंजूषा जब खिली, यादें बन गुलकंद
मतवाली हो महककर, लुटा रही मकरंद
*
सुमन सुमन उपहार पा, प्रभु को नमन हजार
सुरभि बिखेरें हम 'सलिल ', दस दिश रहे बहार
*
जिससे मिलकर हर्ष हो, उससे मिलना नित्य
सुख न मिले तो सुमिरिए, प्रभु को वही अनित्य
*
मुक्तक:
मिलीं मंगल कामनाएँ, मन सुवासित हो रहा है।
शब्द, चित्रों में समाहित, शुभ सुवाचित हो रहा है।।
गले मिल, ले बाँह में भर, नयन ने नयना मिलाए-
अधर भी पीछे कहाँ, पल-पल सुहासित हो रहा है।।
***
चिंतन :
पादुका को शीश पर धर, चले त्रेता में भरत थे.
पादुका बिन जानकी को, त्यागने राघव त्वरित थे.
आज ने पाई विरासत, कर रहा निर्वाह बेबस-
सार्थक हों यदि किताबें, समादृत होंगी तभी बस .
सिर्फ लिखने के लिए, मत लिखें थोडा मर्म भी हो.
व्यर्थ कागज़ हो न जाया, सोच सार्थक कर्म भी हो.
***
जिसने सपने में देखा, उसने ही पाया
जिसने पाया, स्वप्न मानकर तुरत भुलाया
भुला रहा जो याद उसी को फिर-फिर आया
आया बाँहों-चाहों में जो वह मन-भाया
***
मुक्तिका:
जागे बहुत, चलो अब सोएँ
किसका कितना रोना रोएँ?
नेता-अफसर माखन खाएँ
आम आदमी दही बिलोएँ
पाये-जोड़े की तज चिंता
जो पाया, दे कर खुद खोएँ
शासन चाहे बने भिखारी
हम-तुम केवल साँसें ढोएँ
रहे विपक्ष न शेष देश में
फूल रौंदकर काँटे बोएँ
सत्ता करे देश को गंदा
जनगण केवल मैला धोएँ
***
षट्पदी-
कर-भार
चाहा रहें स्वतंत्र पर, अधिकाधिक परतंत्र
बना रहा शासन हमें, छीन मुक्ति का यंत्र
रक्तबीज बन चूसते, कर जनता का खून
गला घोंटते निरन्तर, नए-नए कानून
राहत का वादा करें, लाद-लाद कर-भार
हे भगवान्! बचाइए, कम हो अत्याचार
***
कठिन-सरल
'क ख ग' भी लगा था, प्रथम कठिन लो मान.
बार-बार अभ्यास से, कठिन हुआ आसान
कठिन-सरल कुछ भी नहीं, कम-ज्यादा अभ्यास
मानव मन को कराता, है मिथ्या आभास.
भाषा मन की बात को, करती है प्रत्यक्ष
अक्षर जुड़कर शब्द हों, पाठक बनते दक्ष
***
चतुष्पदी
फूल चित्र दे फूल मन, बना रहा है fool.
स्नेह-सुरभि बिन धूल है, या हर नाता शूल
स्नेह सुवासित सुमन से, सुमन कहे चिर सत्य
जिया-जिया में पिया है, पिया जिया ने सत्य
***
मुक्तिका
बेटी
*
बेटी दे आशीष, आयु बढ़ती है
विधि निज लेखा मिटा, नया गढ़ती है
*
सचमुच है सौभाग्य बेटियाँ पाना-
आस पुस्तकें, श्वास मौन पढ़ती है.
*
कभी नहीं वह रुकती,थकती, चुकती
चुक जाते सोपान अथक चढ़ती है
*
पथ भटके तो नाक कुलों की कटती
काली लहू खलों का पी कढ़ती है
*
असफलता का फ्रेम बनाकर गुपचुप
चित्र सफलता का सुन्दर मढ़ती है
21-8-2017
***
हाइकु
*
जो जमाये हो
धरती पर पैर
उसी की खैर।
*
भू पर पैर
हाथ में आसमान
कोई न गैर।
*
गह ले थाह
तब नदी में कूद
जी भर तैर
*
सब अपने
हैं प्रभु की सृष्टि में
पाल न बैर
*
भुला चिंता
नित्य सबेरे-शाम
कर ले सैर
***
बाल गीत
खेलें खेल
*
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
मैं दौडूँगा इंजिन बनकर
रहें बीच में डब्बे बच्चे
गार्ड रहेगा सबसे पीछे
आपस में रखना है मेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
सीटी बजी भागना हमको
आपस में बतियाना मत
कोई उतर नहीं पायेगा
जब तक खड़ी न होगी रेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
यह बंगाली गीत सुनाये
उसे माहिया गाना है
तिरक्कुरल, आल्हा, कजरी सुन
कोई करे न ठेलमठेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
खेल कबड्डी, हॉकी, कैरम
मुक्केबाजी, तैराकी
जायेंगे हम भी ओलंपिक
पदक जितने,क्यों हों फेल?
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
योगासन, व्यायाम करेंगे
अनुशासित करना व्यवहार
पौधे लगा, स्वच्छता रख हम
दूध पियें,खाएंगे भेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
***
मुक्तिका
*
रखें पुराना भी सहेजकर, आवश्यक नूतन वर लें
अब तक रहते आये भू पर, अब मंगल को घर कर लें
*
किया अमंगल कण-कण का लेकिन फिर भी मन भरा नहीं
पंचामृत तज, देसी पौआ पियें कण्ठ तर कर, तर लें
*
कण्ठ हलाहल धारण कर ले भले, भला हो सब जग का
अश्रु पोंछकर क्रंदन के, कलरव-कलकल से निज स्वर लें
*
कल से कल को मिले विरासत कल की, कोशिश यही करें
दास न कल का हो यह मानव, 'सलिल' लक्ष्य अपने सर लें
*
सर करना है समर न अवसर बार-बार सम्मुख होगा
क्यों न पुराने और नए में सही समन्वय हम कर लें
***
*राम की बहन शांता*
अंगदेश के राजा रोमपाद और उनकी रानी वर्षिणी थे वर्षिणी कौशल्या की बहन थी। उनके कोई संतान नहीं थी। राजा दशरथ ने अपनी पुत्री शांता को उन्हेंदे दिया. शांता अंगदेश की राजकुमारी बन गईं। शांता वेद, कला तथा शिल्प में पारंगत थीं और वे अत्यधिक सुंदर भी थीं। उनका विवाह ऋषि श्रुंग से हुआ . इन्हीं ऋषि श्रुंग ( जो कि दशरथ के दामाद थे) ने पुत्रेष्ठी यज्ञ करवाया जिससे राम और उनके भाइयों का जन्म हुआ . राम अपनी बहन शांता से कभी नहीं मिले. आधुनिक काल के काव्य को छोड़कर सभी प्राचीन रामायण ने इन सन्दर्भों पर मौन हैं . कहा जाता है कि सेंगर राजपूत इन्ही शांता देवी और ऋषि श्रुंग के वंशज हैं....
***
*भाषाविद तुलसी *.
तुलसीदास जी ने अपने सम्पूर्ण काव्य में 90 हज़ार ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो संस्कृत मूल के हैं और बोली के रूप में तैयार किये गए हैं . दूसरी तरफ 40 हज़ार ऐसे शब्द हैं जो देशज प्रकृति के हैं . एक शोधार्थी ने यह रोचक आंकडा प्रस्तुत किया है. मैंने कहीं यह भी पढ़ा है कि आंग्ल भाषा में सबसे अधिक शब्दों का प्रयोग करने वाले शेक्सपियर भी तुलसी के निकट हैं . यूं देखा जाए तो आचार्य भवभूति शब्द संयोजना में सबसे आगे हैं और उनके बाद आचार्य केशवदास ...
21-8-2016
***
मुक्तक:
संजीव
*
अहमियत न बात को जहाँ मिले
भेंट गले दिल-कली नहीं खिले
'सलिल' वहां व्यर्थ नहीं जाइए
बंद हों जहाँ ह्रदय-नज़र किले
*
'चाँद सा' जब कहा, वो खफा हो गये
चाँदनी थे, तपिश दुपहरी हो गये
नेह निर्झर नहीं, हैं चट्टानें वहाँ
'मैं न वैसी' कहा औ' जुदा हो गये
*
मुक्तिका:
*
नज़र मुझसे मिलाती हो, अदा उसको दिखाती हो
निकट मुझको बुलाती हो, गले उसको लगाती हो
यहाँ आँखें चुराती हो, वहाँ आँखें मिलाती हो
लुटातीं जान उस पर, मुझको दीवाना बनाती हो
हसीं सपने दिखाती हो, तुरत हँसकर भुलाती हो
पसीने में नहाता मैं, इतर में तुम नहाती हो
जबाँ मुझसे मुखातिब पर निग़ाहों में बसा है वो
मेरी निंदिया चुराती, ख़्वाब में उसको बसाती हो
अदा दिलकश दिखा कर लूट लेती हो मुझे जानम
सदा अपना बतातीं पर नहीं अपना बनाती हो
न इज़हारे मुहब्बत याद रहता है कभी तुमको
कभी तारे दिखाती हो, कभी ठेंगा दिखाती हो
वज़न बढ़ना मुनासिब नहीं कह दुबला दिया मुझको
न बाकी जेब में कौड़ी, कमाई सब उड़ाती हो
कलेजे से लगाकर पोट, लेतीं वोट फिर गायब
मेरी जाने तमन्ना नज़र तुम सालों न आती हो
सियासत लोग कहते हैं सगी होती नहीं संभलो
बदल बैनर, लगा नारे मुझे मुझसे चुराती हो
सखावत कर, अदावत कर क़यामत कर रही बरपा
किसी भी पार्टी में हो नहीं वादा निभाती हो
२१-८-२०१४
*

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