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शनिवार, 23 अगस्त 2025

सिंहली साहित्य में रामकथा

 
भारत और श्री लंका रामकथा का संदर्भ 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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            सिंहली साहित्य के प्रारंभिक लेखन में रामायण के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण मिलते हैं। १४ वीं शताब्दी के बाद सिंहली साहित्य में रामायण के सकारात्मक संदर्भ मिलने लगे। कालांतर में सिंहली साहित्य और श्रीलंकाई तमिलों में रावण को श्री राम के आराध्य जगत्पिता शिव के एक अनन्य भक्त के रूप में स्वीकारा गया है। किंवदंतियों के अनुसार भगवान शिव के निर्देश पर ऋषि अगस्त्य ने तिरु कोणेश्वरम मंदिर में रावण व उसकी  माता केकसी से शिव पूजा कराई थी। रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्तोत्र और रावण पर शिव-कृपा की अनेक लोक कथाएँ आज तक न केवल प्रचलित अपितु लोक में स्वीकार्य भी हैं। शिव की अर्धांगिनी पार्वती या उमा के रावण से अप्रसन्न होने के बाद भी रावण पर शिव-कृपा बनी रही।  यह स्वाभाविक है कि किसी देश में उसके शासक के अंत का कारण बनी शक्तियों (राम और वानर आदि) और उनके द्वारा सत्ता पर आसीन किए गए व्यक्ति (विभीषण) के प्रति लोगों में आक्रोश और रोष हो। समय व्यतीत होने और सत्तासीन नए नृप के जन हितैषी कार्यों के प्रभाव में उसके समर्थक बढ़ाते हैं और उसे लोक मान्यता और प्रसिद्धि मिलती है।

मत-मतांतर

            १९२१ में इंडोनेशिया के एक शोधकर्ता के अनुसार लंका सुमात्रा द्वीप के नजदीक था, इसलिए इसका आज का श्रीलंका होना संभव नहीं है। १९०४ में अयप्प्पा शास्त्री राशि वडेकर के अनुसार रामायण काल की लंका अक्षांस रेखा पर स्थित थी जो जलमग्न हो गई। उनके अनुसार मालद्वीप होना चाहिए।

            प्रसिद्ध इतिहासकार हीरालाल शुक्ल के अनुसार रामायण में वर्णित लंका की भौगोलिक स्थितियों के वर्णन अनुसार इसकी स्थिति गोदावरी डेल्टा में होना चाहिए जहाँ यह नदी विभिन्न भागों में बँटकर समुद्र से मिल जाती है। आंध्र प्रदेश का दौलेश्वरम ऐसी ही जगह है और वहाँ ‘हीरालाल लंका’ नाम का द्वीप भी है। इसलिए उनके अनुसार इसे ही रामायण काल की लंका होना चाहिए। हीरालाल के अनुसार श्रीलंका, सिंहल द्वीप या रावण की लंका से भिन्न द्वीप है। एतिहासिक उल्लेखों के अनुसार सिंहल द्वीप को बंग देश के राजकुमार विजय ने जीता था, जबकि रामायण की लंका में रावण ने इसे कुबेर से जीता। हीरालाल के अनुसार पुराणों में सीलोन और लंका का अलग-अलग उल्लेख होने के कारण यह संभव नहीं है कि लंका और आज का श्रीलंका एक ही हो। वाल्मीकि रामायण वर्णित भौगोलिक स्थितियों के अनुसार लंका त्रिकूट यानि डेल्टा में स्थित था। रामेश्वरम के दक्षिण में यह गोदावरी की डेल्टा ही है। इसलिए लंका यहीं होनी चाहिए। हीरालाल और पुराणों पर शोध करने वाले अन्य इतिहासविदों के अनुसार ‘श्रीलंका’ के ही ‘लंका’ होने के विषय में यह धारणा तुलसीदास की रामचरित मानस से आई। पुरातत्व वेता हँसमुख धीर सांकलिया जबलपुर, मध्य प्रदेश के निकट इंद्राना को लंका बताते रहे थे किंतु अंतिम दिनों में उन्होंने स्वयं इस धारणा का खंडन कर दिया था।
 
सिंहल में रावण 

            सिंहली बौद्ध चेतना में मान्यता है कि रावण प्रागैतिहासिक काल में, छठी शताब्दी ईसा पूर्व में राजकुमार विजया के आगमन और द्वीप पर बौद्ध धर्म के आगमन से पहले था। वह सिंहली बौद्ध राजा नहीं था। प्राचीन हिंदू महाकाव्य रामायण के अनुसार रावण लंका पर शासन करनेवाला एक राक्षस-राजा था। अन्य ग्रंथ उसे हिंदू देवता शिव का एक समर्पित अनुयायी बताते हैं। रावण बलाया जैसे आधुनिक अंधराष्ट्रवादी समूहों ने रावण और उसके इर्द-गिर्द की पौराणिक कथाओं का उपयोग एक अति-राष्ट्रवादी एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए किया। इसका उद्देश्य २०२२ में सत्ता के नाटकीय पतन तक श्रीलंका के सिंहली बौद्ध ताकतवर पक्ष को सहारा देना रहा। लेखक मिरांडो ओबेयेसेकेरे ने हाल में सिंहली-भाषा में प्रकाशित लोकप्रिय पुस्तकों की एक श्रृंखला में रावण को सिंहली बौद्ध राष्ट्रवादी विमर्श में एक केंद्रीय व्यक्ति के रूप में स्थापित किया है।

            रावण में इस पुनरुत्थानशील रुचि के साथ-साथ, रामायण की विभिन्न कथाओं से जुड़े स्थानों, विशेष रूप से श्रीलंका के मध्य उच्चभूमि क्षेत्रों: नुवारा एलिया, हॉर्टन प्लेन्स, एला आदि में रावण-केंद्रित पर्यटन का उदय हुआ है। भारतीय मुख्य भूमि के दक्षिणी सिरे और श्रीलंका के उत्तरी सिरे के बीच मार्ग बनाने वाली द्वीप श्रृंखला को राम सेतु माना जाता है, वह पुल जिसे राम ने युद्ध में रावण को हराने के बाद सीता को बचाने के लिए लंका पहुँचने के लिए बनाया था। हकगाला उद्यान में सीता को उनके अपहरण के बाद रखा गया था, और जहाँ राम द्वारा भेजे गए हनुमान ने पहली बार उनसे मुलाकात की थी। वेलिमाडा के निकट स्थित दिवुरुपोला मंदिर में सीता ने रावण द्वारा हरण किए जाने के बाद अपनी पवित्रता सिद्ध की थी। तत्पश्चात राम ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। एक सिद्धांत यह भी है कि नुवारा एलिया की धरती काली है क्योंकि उसमें रावण द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों के अवशेष हैं।

                श्रीलंका को वाल्मीकि के महाकाव्य रामायण में वर्णित पौराणिक 'लंकापुर' के कब और कैसे माना जाने लगा? इस प्रश्न पर विमर्श, मतभेद और विवाद निरंतर होता रहा है।  मध्यकाल के अंत से लेकर आज तक सिंहली और तमिल साहित्य में राम विरोधी लंकेश रावण के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों चित्रणों की पड़ताल होती रही है। वर्तमान श्रीलंका में रामायण के ऐतिहासिकीकरण, राजनीतिकरण के समानांतर रावण को सिंहली-बौद्ध सांस्कृतिक नायक के रूप में स्थापित करने और विभीषण को सिंहली बौद्ध देवताओं में 'संरक्षक देवता' के रूप में सम्मिलित कर लिया गया है। इस क्षेत्र में रामायण महाकाव्य की कथा प्राचीन ज्ञान के विश्वकोश के रूप में प्रसिद्ध है। रामायण के माध्यम से दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई लोग अपने अतीत को समझते और व्यक्त करते हैं। हिंदू पुनरावृत्तिवादियों के अलावा जैन, सिख, मुगल, थाई एवं लाओ बौद्ध, विभिन्न आदिवासी समूहों  सभी के पास रामायण में वर्णित कहानी के अपने संस्करण हैं जो अक्सर 'मानक' (यानी वाल्मीकि के) की पुनरावृत्ति से महत्वपूर्ण विचलन के साथ, और अक्सर न्याय, वीरता और धार्मिक समुदाय के अपने आदर्शों को दर्शाते हैं। 

                आज तक, इस प्रश्न पर विचार करने वाले विद्वानों ने श्रीलंका में रामायण की अनुपस्थिति पर ध्यान केंद्रित कर द्वीप के पाली इतिहास से इस महाकाव्य को बाहर रखे जाने के पीछे कई तर्क प्रस्तुत किए हैं। विहारों की वास्तुकला और अनुष्ठान जीवन में, साथ ही श्रीलंका के कुछ सबसे महत्वपूर्ण हिंदू मंदिरों की स्थापना से जुड़े मिथकों में रामायण के श्रीलंका में साहित्यकारों के बीच विशेष रूप से सिंहली बौद्ध लोककथाओं, साहित्य और मंदिर आदि में रामायण, जानकी हरण की एक बड़ी छाप दिखाई नहीं देती है। यह बदलाव समझा जा सकता है। चौदहवीं शताब्दी में श्रीलंका में दक्षिण भारतीय प्रभाव में वृद्धि हुई।  द्वीप की समग्र जनसांख्यिकी के स्तर पर, जहाँ चौदहवीं शताब्दी के बाद से श्रीलंका के दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम ने दक्षिणी उपमहाद्वीप से बड़ी संख्या में प्रवासियों को अपने में समाहित किया । सिंहली बौद्ध वास्तुकला, मंदिर और कृषि अनुष्ठानों के साथ ही सिंहली भाषा में दक्षिण भारतीय संस्कृति के पहलुओं के समावेश को अपनाया गया है। दक्षिण एशिया के इस विशेष खंड में योगदान का उद्देश्य श्रीलंका में रामायण के साहित्यिक और सामाजिक इतिहास को बेहतर ढंग से समझने की दिशा में प्रारंभिक प्रयास करना है। योगदानकर्ता सबसे बुनियादी ऐतिहासिक प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करते हैं। श्रीलंका का संबंध रावण के पौराणिक निवास लंकापुर (एक ऐसी समानता जो महाकाव्य के प्रारंभिक संस्कृत संस्करणों में कहीं नहीं मिलती) से कब और कैसे जुड़ा?, मध्ययुगीन सिंहल, बौद्ध और हिन्दू मंदिरों में विभीषण की संरक्षक के रूप में प्रमुखताऔर प्रासंगिकता, सिंहल इतिहास, काव्य और कृतियों में द्वीप के प्राचीन शासक के रूप में रावण का महत्व विचारणीय हैं।

            'मानक रामायण' को अपनाकर या फिर कथा को विशिष्ट स्थानीय शैली में पुनर्परिभाषित कर, विभिन्न संदर्भों में, यह महाकाव्य ऐतिहासिक रूप से श्रीलंका के तमिल शैव और सिंहली बौद्ध, दोनों ही धार्मिक और राजनीतिक अभिजात वर्ग के हितों की पूर्ति करता रहा है। यह कथा आम जन को को उन तरीकों की ओर निर्देशित करते हैं जिनसे रामायण के ये विभिन्न प्रक्षेप पथ भारतीय उपमहाद्वीप और उसके बाहर द्वीप के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक संबंधों को प्रतिबिंबित करती है।

            जस्टिन हेनरी का शोधपत्र 'श्रीलंका में रामायण के प्रसारण में अन्वेषण' श्रीलंका में रामायण की उपस्थिति और अनुपस्थिति पर विविध दृष्टिकोणों का सारांश और उत्तर मध्यकालीन सिंहल साहित्य में महाकाव्य के नाटकीय पात्रों (राम, रावण और विभीषण) की व्याख्या करता है। वह बौद्ध ऐतिहासिक साहित्य और लोककथाओं में महाकाव्य के प्रसार का एक मार्ग तमिल हिंदू साम्राज्य जाफना के माध्यम से खोजते हैं। उनके अनुसार श्रीलंकाई तमिलों ने खुले तौर पर इस द्वीप की पहचान रामायण की लंका के साथ स्वीकार की हालाँकि उन्होंने अपने चोल पूर्वजों के नकारात्मक और राक्षसी अर्थों को उलट दिया। उत्तरी श्रीलंका के तमिल हिंदू राजा स्वयं 'सेतु के संरक्षक' बन गए। हेनरी ने निष्कर्ष निकाला कि इन लंकाई तमिल ग्रंथों) ने कंद्यान काल की सिंहली कविता में रावण की सिंहली बौद्ध साहित्यिक छवियों को आकार देने में प्रत्यक्ष भूमिका निभाई।

            श्री पद्मा ने 'बॉर्डर्स क्रॉस्ड: विभीषण इन द रामायण एंड बियॉन्ड' में लिखा कि जहाँ रामायण ने दक्षिण एशिया के अधिकांश हिस्सों में विभिन्न स्थानों पर अपनी अनूठी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ प्राप्त कीं, वहीं पूर्व-आधुनिक श्रीलंकाई साहित्य ने महाकाव्य से प्राप्त चुनिंदा घटनाओं के चित्रण और कुछ रामायण पात्रों (विशेषत: विभीषण) का स्वदेशीकरण किया। तेरहवीं शताब्दी के राजनीतिक और जनसांख्यिकीय परिवर्तनों ने महाकाव्य के दक्षिण भारतीय मूल के देवताओं को बौद्ध परिवेश में ला दिया। पंद्रहवीं शताब्दी के राम के पंथ को विष्णु के पंथ के साथ मिला दिया गया। विभीषण जिन्हें उनके मृत भाई रावण से लंका का राज्य विरासत में मिला और जिनकी रावण की मृत्यु में भूमिका विवादास्पद है को सिंहल शासकों द्वारा एक संरक्षक देवता के रूप में पूजा जाकर उनसे द्वीप और बौद्ध धर्म को सुरक्षा प्रदान करने की अपेक्षा की गई। विभीषण पंथ की उत्पत्ति और रावण पंथ के समकालीन उद्भव के बाद बौद्ध देवताओं के पंथ में उनका परिवर्तन हाल के सिंहल बौद्ध राष्ट्रवाद का एक हिस्सा है।

            'लंका की नैतिक सीमाओं का मानचित्रण: रावण राजवंशीय में सामाजिक-राजनीतिक अंतर का निरूपण ' लेख में जोनाथन यंग और फिलिप फ्रेडरिक ने सोलहवीं शताब्दी के एक ग्रंथ 'श्रीलंकाद्वीपये कदैम' (रावण  राजवंशीय) का अध्ययन कर सिंहल पाठ्य परंपरा में रावण-आख्यान को पुण्य स्थलाकृति के विमर्श में समाहित किया है। तदनुसार ग्रंथ का परिदृश्य, गमपोला और कोट्टे राज्यों के सत्ता में आने की पृष्ठभूमि में दंबदेनिया साम्राज्य के नैतिक पतन की कहानी के बाद राजत्व पर तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दियों के मध्य  द्वीप के दक्षिण-पश्चिम में अंतर-क्षेत्रीय परिसंचरण के बदलते स्वरूपों के कारण आई सामाजिक गतिशीलता से उत्पन्न स्थानीय राजनीतिक चिंताओं को व्यक्त करता है। यह  'दूसरों' को एक अविभेदित खतरे के रूप में नहीं, बल्कि एक स्थानिक नैतिक व्यवस्था से निकटता और दूरी के संदर्भ में प्रस्तुत करता है। यह परिदृश्य स्वत्व के वांछनीय रूपों को ऐसे साधनों के रूप में प्रस्तुत करता है जिनके द्वारा दक्षिण भारत से संबंधित उभरते सामाजिक समूहों (ब्राह्मण, व्यापारी, घुमंतू सैनिक आदि) एक उभरते हुए लंकाई राज्य समाज में समाहित किए गए। इसका उद्देश्य दक्षिण एशियाई लोगों को पूर्व ऐतिहासिक परिवेशों में जातीय और धार्मिक पहचान की कठोर धारणाओं की प्रयोज्यता के साथ ऐसी पहचानों के प्रबंधन में राजाओं और राज्यों की कथित भूमिका पर चल रही कठिन बहसों पर पुनर्विचार कर पूरे द्वीप में बिखरे हुए स्थानीयकृत रामायणकालीन पौराणिक स्थलों और लोककथा परंपराओं का आकलन करना है। तमिल हिंदू मौखिक और पाठ्य परंपराओं में, मुन्नेश्वरम और कोनेश्वरम के प्रमुख मंदिरों (द्वीप के पूर्वी तट पर विभिन्न अन्य भक्ति स्थलों के साथ) की स्थापना राम और रावण दोनों से जुड़ी हुई है। रावण को श्री पद और एडम्स पीकके क्षेत्र में केंद्रीय उच्चभूमि से जोड़ने वाली अलग परंपराके समानांतर रावण का महल हंबनटोटा के पास सुदूर दक्षिण में भी बताया जाता है। मेरा मत है कि रावण के एक से अधिक महल विविध स्थानों पर हो सकते हैं। 

            श्रीलंका में रामायण संस्कृति के पूर्व-आधुनिक पहलुओं और इक्कीसवीं सदी में  'रावण पुनरुत्थान' में सिंहल बौद्धों ने रावण को एक दूर का पूर्वज और द्वीप की राजशाही का संस्थापक स्वीकार किया है। छठी शताब्दी ईस्वी में द्वीप पर राजनीतिक और धार्मिक जीवन का एक पाली बौद्ध वृत्तांत सम्मत यह धारणा महावंश के आधिपत्य वाले आर्य वंश के आख्यान के सम्मुख एक चुनौती है। दिलीप विथाराना का शोधपत्र, 'रावण का श्रीलंका: सिंहल राष्ट्र को पुनर्परिभाषित करना?' आर्य वंश के सिद्धांत को छोड़कर, यक्क-रावण वंश के साथ सिंहल राष्ट्र को फिर से परिभाषित करता है। राम-रावण संघर्ष की व्याख्या अक्सर आर्य-द्रविड़ या उत्तर- दक्षिण संघर्ष के रूप में की जाती रही है। इसीलिए 'मानक रामायण' को पूरे दक्षिण एशिया में समान उत्साह के साथ स्वीकार नहीं किया गया। बीसवीं सदी के आरंभ में दक्षिण भारतीय द्रविड़ आंदोलन के कुछ लोगों ने रामायण को पूरी तरह से नकार दिया जबकि अन्य ने रावण को एक महान ऐतिहासिक व्यक्ति, एक सदाचारी शासक और शिव के अनन्य भक्त का दर्जा देने का प्रयास किया।  'श्रीलंका में रावण' शोधपत्र में पथमनेसन संमुगेश्वरन, कृष्णथा फेड्रिक्स और जस्टिन डब्ल्यू. हेनरी इक्कीसवीं सदी में सिंहल-बौद्धों द्वारा सांस्कृतिक नायक के रूप में रावण के उदय को इंगित करता है। तदनुसार रावण ने बौद्ध मंदिरों में अनुष्ठानिक संदर्भों में अर्ध-दिव्य दर्जा प्राप्त किया है। इक्कीसवीं सदी के तमिल राष्ट्रवादी लेखन से उत्पन्न 'सिंहल रावण' सिंहल-तमिल वंश के एक संभावित साझा प्रतीक के रूप में महत्वपूर्ण है।

            श्रीलंका में रामायण की विरासत पर विचार करते हुए जॉन होल्ट मध्यकालीन श्रीलंका में विष्णु और उनके राम अवतार के 'बौद्ध रूप' का प्रतिनिधित्व करते  'उपुलवन पंथ' की पड़ताल करता है। सुशांत गुणतिलके और मालिनी डायस 'सिंहल रावण' पर प्रतिक्रिया देते हुए ,श्रीलंका सरकार द्वारा 'रामायण ट्रेल' पुरातात्विक साक्ष्यों के चिंताजनक गलत प्रस्तुतीकरण और मिथ्याकरण के प्रति चिंतित हैं। श्रीलंका में उभर रहा "रावण पंथ" रामायण को एक राष्ट्रव्यापी कथा के रूप में अपनाने और उसे श्रीलंका के बौद्धिक और राजनीतिक अभिजात वर्ग के हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करने का प्रयास कर रहा है। भारत के साथ अपनी ऐतिहासिक और पौराणिक संबंधों से खुद को अलग कर श्री लंका में राष्ट्रवाद को मजबूत करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है। 

            वर्तमान संदर्भ में जब श्री राम मंदिर के नव निर्माण के माध्यम से श्री राम को भारत की राष्ट्रीय एकता के पर्याय के रूप में जन-मानस द्वारा स्वीकार किया जा रहा है, तब श्री लंका में राम कथा के प्रतिनायक रावण को लंकाई एकता के प्रतीक के रूप में स्वीकार जाना महत्वपूर्ण है। जाने-अनजाने राम-रावण कथा और रामायण भारत और श्री लंका को एक सूत्र में इस प्रकार बाँध सकती है कि इन दोनों देशों के बीच में दरार डालने की कोशिश कर रहे देश और शक्तियों को पराभूत करने के लिए रामायण का संदर्भ अति उपयोगी और आवश्यक है। 
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विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ भारत 
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