कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 10 जनवरी 2023

कृष्ण और बसंत - सुनीता सिंह

लेख-

"मैं, मेरे कृष्ण और बसंत"
- सुनीता सिंह
*
पुष्प की तरह खिले मन, झूम जब आये बसंत।
कृष्ण की तरह सुहाने, हो चलें सब दिग-दिगंत।
सुप्त चेतना जग उठे, सुन मधुर मुरली की धुन,
रंग भरी ऋतु में हृदय, गीत जीवन के ले चुन।। 

 
           कृष्ण अर्थात जीवंतता। कृष्ण अर्थात त्यागपूर्ण किंतु रंग-हर्ष-उल्लास-मधुर स्वर-गीत-संगीत और झंकार से भरा जीवन। कृष्ण अर्थात कठोर शिलाखण्ड पर अति सुकोमल रंगीन पंखुड़ियों वाले पुष्प की कोपलें फूटना जो कर्कश मौसम की मार सहकर भी हॅंसता-खिलखिलाता हुआ सिर उठाए झूमता है। कृष्ण अर्थात रंगों भरा उत्सवी माहौल, जो धैर्यपूर्वक पतझड़ के बीतने की प्रतीक्षा पूरी होने पर उल्लास के गीत गाता है, जो धरित्री को पीली सरसों के पुष्प से टॅंकी धानी चूनर ओढ़े देखकर खुशी से झूम उठता है।

           उत्सवधर्मिता का नाम ही कृष्ण है। संघर्षों की आँच में तपकर कुंदन बनने की कला ही कृष्ण है, अधर्म में भी धर्म पर टिके रहने का नाम कृष्ण है, बाँसुरी जैसे किसी वाद्ययंत्र और कंठ से निकले मधुर स्वर व संगीत की मधुरिम धुन का गहन अंतर को विभोर कर जाना कृष्ण है। कहाँ नहीं है कृष्ण? बाह्य जगत के घट-घट में, मन-अतल की मूक या वाचाल स्वर लहरियों में, प्रयास में, संघर्ष में, विचार में, वाणी में, क्षमा जैसे सद्गुणों में, हर जगह तो व्याप्त हैं कृष्ण। उनकी बाँसुरी की धुन पर ग्वाल-बाल, गोप-गोपी, गौ वृंद, लता, पुष्प, उपवन, नाग कौन नहीं झूम उठता? जिस प्रकार पतझड़ को विदा कर बसंत प्रकृति में नव जीवन का संचार करता है, उसी प्रकार मन दुख, निराशा, उदासी, पीड़ा वेदना, अवसाद इत्यादि को त्यागकर रंग—बिरंगे, उल्लास से भरे परिवेश, मिठास भरी रस वर्षा में, प्रकृति के चहुँ दिश गुंजित कर्ण प्रिय मधुरिम संगीत में जीवन का स्वागत-सत्कार करना चाहता है। जिस प्रकार कृष्ण कालिया नाग का मर्दन कर यमुना को विष से मुक्त करते हैं,उसी प्रकार मन प्रदूषण के विष को पर्यावरण से मिटाकर निर्मल कर देना चाहता है।

           आशय यह कि मन बसंत हो जाना चाहता है, दूसरे शब्दों में, कृष्ण हो जाना चाहता है। कृष्ण भी तो यही कहते है कि 'ऋतुओं में मैं बसंत हूँ। अर्थात वे उत्सव और उल्लास में सर्वत्र उपस्थित हैं। "तस्य ते वसंत: शिर:" तैत्तिरीय ब्राह्मण की यह उक्ति कहती है कि वर्ष का सिर या शीर्ष ही बसंत ऋतु है। अर्थात वसंत ऋतुओं का सिरमौर है। आयुर्वेद और ज्योतिष शास्त्र चैत्र व वैशाख को वसंत ऋतु मानते हैं। “सर्वप्रिये चारूतरं वसंते” अर्थात बसंत ऋतु में सब कुछ आकर्षक, सुंदर और मनोहर ही लगता है। कालिदास द्वारा वसंत ऋतु के वर्णन में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ऋतुसंहार में कही गई यह उक्ति भी सटीक है।

           बसंत पर नीचे लिखे कुछ दोहे बसंत की प्रकृति और महत्ता का बखान कर जाते हैंl

मन पुलकित अति कर रही, शीतल मंद बयार।
ऋतु बसंत ले आ गई, खुशियों का त्यौहार।।

मन-मरुथल घन-शीत में, अभिलाषा निष्प्राण।
दे बसंत जीवन चले, मिटा चले सब त्राण।।

मंद-मंद बहती हवा, प्रकृति निदर्शित प्यार।
विविध पुष्प गुलमोहरें, अमलतास, कचनार।।

कोयल कू-कू कूकती, पंछी कलरव तान।
वीणा मधु स्वर गा रही, धुन बसंत का गान।।

ठिठुरी धरती शीत से, साधे नीरस मौन।
बसंत सरगम छेड़ता, नहीं मानता कौन?

स्वर अंकित हर फूल पर, गाए गीत बसंत।
मौसम में भर रंग दे, बनकर हृद का कंत।।

सूर्य-किरण नव धारती, नारंगी परिधान।
तरुणाई मन को मिली, पतझड़ को अवसान।।

रंग-बिरंगे पुष्प से, करे प्रकृति श्रृंगार।
पीली सरसों में छुपी, मधु बासंतिक धार।।

           मैं जब अपने मन को विस्तार देती हूँ तो वह स्वयमेव बासंतिक हो उठता है, कृष्ण सरीखा जीवन, धर्म और कर्म से भरपूर हो उठता है। मेरे अस्तित्व का कोना-कोना जितना स्वयं को जीव-जगत के प्रेम में राग से भरपूर पाता है उतना ही, उसी समय पर ही, असीम वैराग्य का भी अनुभव कर लेता है। कमल की भाँति-जल में रहकर बिना भीगे हुए, खिलते हुए, अनासक्त और आसक्त, एक साथ बिल्कुल कृष्ण की तरह। वह कभी हॅंसी-ठिठोली कर लेता है, कभी मौन धारण कर होनी को शिरोधार्य करता है, कभी धर्मपथ पर अकेला ही जूझते हुए चल देता है। कर्तव्यपालन से पीछे नहीं हट पाता मन, चाहे डगर कितनी ही कठिन हो। कृष्ण की तरह लोच को महसूस कर पाता है अर्थात हठधर्मिता से दूर, संयमित राह या यथासंभव उस संघर्ष को टालने का प्रयास करता है जिसमें निर्दोषों की क्षति संभावित हो। उसे भी अपने कृष्ण की तरह लोचवान हो वह पथ या मध्यम मार्ग स्वीकार है जिससे सभी का भला हो, भले स्वयं के स्तर पर त्याग ही क्यों ना करना पड़े। लोक प्रशासन में लोकहित सर्वोपरि है।

           बसंत भी तो लोकहित का उदाहरण है। कृष्ण बसंत के रूप में प्रकट होकर संदेश देते हैं कि जियो और भरपूर जियो, रंगों को अपनाओ, उदासी त्यागकर उत्‍सव मनाओ, स्वयं पुष्‍प की तरह खिलो और बिना प्रतिस्‍पर्धा सभी को उनके मूल रूप-रंग में खिलने दो।

           सकारात्‍मकता संक्रामक होती है, तेजी से संचरण कर माहौल को खुशनुमा बना देती है। डाक्‍टर का मुस्‍कुराता चेहरा, शांतिमय मीठे बोल रोगी की आधी रूग्णता बिना निदान-औषधि-उआपचार के हर लेते हैं। उत्साह से भरा सकारात्‍मक व्‍यक्‍ति नीरस परिवेश को भी उल्लास से भर देता है, ठीक वैसे ही जैसे एक दिया भी आस-पास के घोर अँधेरे को दूर कर देता है। पतझड़ अंधेरा है तो बसंत दीपक है, दीपक जला और अँधेरा दूर हुआ, बसंत आया और पतझड़ गया। वृक्ष और पौधे नई कोपलों को उगाने के लिए रुग्‍ण, सूखे, पीले पत्तों-पुष्पों को गिरा देते हैं, वे जाने वाले का शोक नहीं, आने वाले का स्वागत करते हैं।

           कृष्ण से भी तो जीवन भर कुछ न कुछ छूटता रहा किंतु जीवंतता नहीं छूटी, वैराग्‍य रहा पर राग नहीं छूटा, अतीत की स्मृतियाँ साथ रहीं किन्तु नये का स्वागत-अभिनंदन विस्मृत नहीं हुआ। निश्‍छल प्रेम ने पाँवों में मोह की बेड़ियाँ न पड़ने दीं, जिससे कर्तव्य-पथ पर चलना सम्‍भव हुआ। जो छूटा, उसके लिए किसी को दोष नहीं दिया, दण्‍ड देने से पूर्व खल-वृत्ति वाले को सँभलने और सुधरने का अवसर भी दिया। सर्वशक्‍तिमान, सुदर्शन चक्रधारी होते हुए भी बल का अभिमान पूर्ण प्रदर्शन न कर शक्ति का प्रयोग अंतिम विकल्प के रुप में किया। शिशुपाल की सौ गालियाँ भी कृष्ण की शांत-वृत्ति को विचलित कर क्रोधित नहीं सकीं और वचनानुसार सौ गालियाँ पूर्ण होने पर ही दण्ड दिया। न्याय की अन्याय पर, धर्म की अधर्म पर, सत्य की असत्य पर और नीति की अनीति पर अन्ततः विजय दिखाई। बसंत भी यही बताता है। पतझड़ बीत जाता है और ऋतु बासंतिक हो जाती है। मायूसी, रूखापन, उदासी, पीले सूखे पत्तों की तरह झरते हैं और उनके स्थान पर रंग-बिरंगे पुष्प, नये पत्ते, गुलाबी कोंपल सरीखी खुशियाँ, उत्साह, उत्सव, उल्लास और खुशनुमा भावों संग जीवतंता सजीव हो उठते हैं। अर्थात घोर अंधेरी रात को बीतना होता ही है और तरो-ताज़ा कर देने वाली सुहानी भोर आनी ही है।

           रात्रि में, पतझड़ में, बस थोड़े से विश्राम, थोड़ी यति, थोड़ा विराम का समय होता है, यह संक्रमण काल होता है जो भोर, बसंत और जीवतंता के मधुरतम स्वरूप, उच्चतम चेतना का एहसास कराने के लिए आवश्यक भी है। इसलिए उनमें भी कारण है,लय है, संगीत है, रंगों के स्याह शेड्स हैं। वहाँ भी ईश्वर की, सर्वोच्च सत्ता की, कृष्ण की, उनके श्यामल रंग की उपस्थिति है किन्तु उसे जानने, महसूस करने के लिए थोड़ी गहराई में उतरना होता है।पहले कृष्ण के वांसतिक स्वरूप, जीवंत भावों का गहन अहसास करना होता है। दोनों रूप एक दूसरे को पूर्णता प्रदान करते हैं।

           वैराग्य का उच्चतम स्तर राग के उच्चतम स्तर को जाने बिना महसूस नहीं हो सकता। इसलिए मन को पहले वसंत होना होगा, तभी वह पतझड़ व रात्रि में कृष्ण के स्याह रंग को देख सकेगा, तभी वह उसे सम्मानजनक विदाई दे सकेगा। तभी वह रागी भाव के साथ बीतरागी भी हो सकेगा। मन यदि विशुद्ध आत्मिक स्वरूप से साम्यता स्थापित कर ले तो वह वसंत हो जाएगा अर्थात स्वयं कृष्ण हो जाएगा। मेरी चाहना यही है कि मैं आपने मन को कृष्ण बना पाऊँ और फिर मन को बसंत बना सकूँ अर्थात उसे जीवन से भरपूर, हर्षो-उल्लास से भरपूर कर सकूँ, जिसमें सभी की उत्सवधर्मिता के लिए स्थान हो, सहअस्तित्व की भावना हो, मधुरता हो, खुशनुमा रंग हो, आशावादिता हो, जीवतंता हो। मैं, मेरे कृष्ण और बसंत एक सार हो जीवन को सार्थक बना लोक को अपना योगदान दे सकें, यही प्रार्थना है उस सर्वशक्तिमान से।

मेरे बासंतिक कृष्ण और संतुलन आधारित जीवन दर्शन

           जिस प्रकार बसंत और पतझड़ अपने आप में संपूर्ण जीवन दर्शन हैं उसी प्रकार मेरे कृष्ण भी स्वयं में संपूर्ण जीवन दर्शन हैंl बसंत संतुलन,सौहार्द्र, सहअस्तित्व, प्रेम, आशावाद, उत्सवधर्मिता, मधुर अहसास, कर्म और ईश्वरीय दर्शन का संदेश लेकर आता हैl कृष्ण भी यही करते हैं, वे स्याह पक्ष पर उजले पक्ष को वरीयता देते हैं और संतुलन बनाकर चलना सिखाते हैं। उनकी विशेषता है कि वे सबको अपनाते है किसी को छोड़ते नहीं। जीवन का चाहे कोई भी रंग हो, कृष्ण उससे परहेज नहीं करते, उसमें रम जाते हैं। उनकी बाँसुरी सभी के मन में रच-बस जाती है। उसका माधुर्य सभी पर प्रभाव छोड़ता है। माधुर्य तो सभी द्वारा वांछित रस है और यही मानव-जीवन की पराकाष्ठा भी है। कृष्ण माधुर्य के चरम पर स्थित है, बल्कि माधुर्य का अवतार ही हैं।

           कृष्ण मात्र मधुरता के ही प्रतीक नहीं है, वे सबसे बड़े निष्काम कर्मयोगी भी हैं। वे नटनागर हैं और पार्थसारथी भी। वे महानतम राजनीतिज्ञ हैं तो भाव-जगत के सबसे बड़े मर्मज्ञ भी। वे भगवद्गीता के उद्गाता भी हैं और संतुलन के साधक भी। वे योगेश्वर भी है और भोगेश्वर भी। वे सर्वशक्तिमान भी हैं और रणछोड़दास भी। वे रिश्तों को पूरा सम्मान देते हैं किन्तु धर्म स्थापना हेतु सच्चे कर्मयोगी की भाँति कर्मपथ पर सर्वस्व त्यागकर आगे बढ़ने से भी नहीं हिचकते। वे जितने कोमल हैं, उतने ही दृढ़ व स्थिर भी। वे साकार भी हैं और निराकार भी। वे सगुण हैं और निर्गुण भी। उनमें प्रेम, मधुरता, त्याग, द्वंद सभी समाहित हो जाते हैं।

           कृष्ण प्रेम के प्रतीक है और प्रेम का माधुर्य हर विष को नष्ट करने की क्षमता रखता है। उसी प्रेम के सार तत्व में भारत की गंगा-जमुनी तहजीब का संदेश समाहित है क्योंकि प्रेम के भाव को अपने शब्दों में मौलाना जफ़र अली खान (1873-1956) निम्न शेर में व्यक्त करते हैः-

''अगर किशन की तालीम आम हो जाए,
तो काम फित्त नागरों के तमाम हो जाएँ।''

           पाकिस्तान के राष्ट्र-गीत ‘कौमी तराना’ के रचनाकार मशहूर शायर हफीज़ जालंधरी (1900-1982) भी कृष्ण भक्त थे। उन्होने ‘कृश्न कन्हैया’ शीर्षक से एक नज़्म लिखी जिसमें गोपियों के साथ नृत्य कर रहे कृष्ण की रास लीला के दृश्य को तुर्फ नज़ारा अर्थात विरल दृश्य बताते हुए बाँसुरी की धुन के बारे में कहा किः-

‘‘बंसी में जो लय है,
नशा है न मय है,
कुछ और ही शय है।’’

           कृष्ण के माधुर्य स्वरूप अर्थात जन्म, बालपन, रासलीला आदि के साथ उनके कर्मयोगी, योद्धा, पार्थ सारथी, उपदेशक-स्वरूप का भी उर्दू शायरी में व्यापक वर्णन है। अपनी रचना ‘दिल की गीता’ में ख्वाजा दिल मोहम्मद कहते हैं:-

‘‘जो अर्जुन का देखा ये रंज़ोमलाल,
ग़म-ए-सोज़ दिल में तबीयत निढाल।
नज़र दुख से बेचैन, आँखों में नम,
भगवान बोले ज़राहे करम।’’

           कृष्ण का उल्लेख कैफी आज़मी भी अपनी नज़्म ‘फर्ज’ में करते हैं:-

‘‘और फिर कृष्ण ने अर्जुन से कहा,
न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु,
एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में
आत्मा मरती नहीं, जिस्म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की, जा छुपती है उस सीने में
जिस्म लेते हैं जनम, जिस्म फ़ना होते हैं
और जो इक रोज़ फ़ना होगा, वह पैदा होगा
इक कड़ी टूटती है, दूसरी बन जाती है
ख़त्म यह सिलसिला-ए-ज़ीस्त भला क्या होगा
रिश्ते सौ, जज़्बे भी सौ, चेहरे भी सौ होते हैं।
फ़र्ज़ सौ चेहरों में शक्ल अपनी ही पहचानता है,
वही महबूब वही दोस्त वही एक अज़ीज़
दिल जिसे इश्क और इदराक अमल मानता है।
ज़िंदगी सिर्फ अमल, सिर्फ़ अमल, सिर्फ़ अमल
और यह बेदर्द अमल, सुलह भी है, जंग भी है।
अम्न की मोहनी तस्वीर में हैं जितने रंग
उन्हीं रंगों में छुपा खून का इक रंग भी है।
जंग रहमत है कि लानत, यह सवाल अब न उठा
जंग जब आ ही गई सर पे तो रहमत होगी
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का जलाल
इसी दोज़ख़ के किसी कोने में जन्नत होगी
ज़ख्म खा, ज़ख्म लगा, ज़ख्म हैं किस गिनती में
फर्ज़ जख्मों को भी चुन लेता है फूलों की तरह
न कोई रंज, न राहत, न सिले की परवा
पाक हर गर्द से रख दिल को रसूलों की तरह
ख़ौफ़ के रूप कई होते हैं अंदाज़ कई
प्यार समझा है जिसे ख़ौफ़ है वह प्यार नहीं
अँगुलियाँ और गड़ा और पकड़ और पकड़
आज महबूब का बाजू है, यह तलवार नहीं
साथियों! दोस्तों! हम आज के अर्जुन ही तो हैं।

           कैफ़ी आज़मी की यह कविता महाभारत में कृष्ण व अर्जुन के मध्य हुए संवाद पर आधारित है। इस नज्म़ में गीता के संदेश हैं। यह कविता सन् 1965 भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय लिखी गई थी जिसमें कर्मयोगी की भाँति फल ईश्वर पर छोड़ते हुए अपना फर्ज़ निभाने की बात कही गई है। यह कविता युद्ध के समय सैनिकों का हौसला भी बढ़ाती है।

           बसंत में सभी रंग, पत्र, पुष्प बिना प्रतिस्पर्द्धा अपने मूल स्वरूप में अंकुरण और विकास करते हैं, जिस प्रकार वे सह अस्तित्व और निश्छल प्रेम की मधुरता का अहसास कराते हैं उसी प्रकार कृष्ण भी धार्मिक सीमाओं से परे सह अस्तित्व और प्रेम की मधुर सार्वभौमिकता का अहसास कराते हैं। महाभारत में भी कृष्ण ने युद्ध को टालने के लिए अंत तक प्रयास किया। साम्राज्य के आधे बटँवारे की माँग त्यागकर केवल पाँच गाँव पाण्डवों के लिए जीवन-यापन हेतु माँगे किंतु हर रास्ता बंद होने पर धर्म की स्थापना के लिए युद्ध होने देने में संकोच नहीं किया।

           मशहूर शायर गौहर कानपुरी ने कृष्ण को सदियों से उर्दू शायरों के लिए महत्वपूर्ण हस्ती माना है। वे यह भी कहते है कि उर्दू कृष्ण-काव्य उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं उर्दू भाषा अर्थात बारहवीं सदी से जबसे उर्दू भाषा अस्तित्व में आई। कृष्ण का प्रेम स्वरूप होना इसकी बड़ी वजह है।

           प्रेम ईश्वरीय अस्ति का बोध कराता है। शुद्ध, सात्विक, पराकाष्ठा तक पहुँचा प्रेम, मोक्ष दिला सकता है, जगत का कल्याण कर सकता है, दुष्प्रवृत्तियों व खल-वृत्तियों के असुरों का समूल नाश कर सकता है, फिर वह प्रेम चाहे संसार के रचयिता (इश्क-ए-हक़ीक़ी) से हो अथवा उसकी रचना (इश्क-मज़ाजी) से। सूफी भक्ति-साहित्य में इश्क-ए-हक़ीक़ी के सूफ़ी दर्शन पर आधारित प्रेमाख्या धारा चली जिसने आसानी से जनमानस को प्रभावित किया।

           जीवन संतुलन के सिद्धांत पर चलता है और अतिवादिता से बचता है। संतुलन तो तभी सधता है जब लेने के साथ देना भी हो। अवधी कवि वंशीधर शुक्ल का यह गीत- ‘कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा, ये ज़िंदगी है कौम की, तू कौम पे लुटाए जा’ इसी भाव को वर्णित करता है। यह गीत नेताजी के आजाद हिंद फौज का तेज कदम-ताल का गीत था जो देश के प्रति योगदान देने को प्रेरित करता था। यही भाव सृष्टि और प्रकृति को भी लौटाने का होना चाहिए जिनके कारण यह जीवन संभव होता है। संतुलन का अभिप्राय सर्वांगीण विकास है। इसका आशय कठिनाइयों व प्रतिकूलताओं का शान्तशांत चित्त से सरलतापूर्वक सामना कर आसानी से उनसे बाहर आना है, चाहे वे व्यक्तिगत जीवन में हों या लोक-जीवन में। संतुलन व्यक्तिगत जीवन का कल्याण तो करता ही है, लोक का भी मंगल करता है। 'श्रीमद्भागवतगीता' का कथन है - ''मंगलाय च लोकानामं क्षेमाय च भवाय च।''

अर्थात श्रीकृष्ण का अवतार लोक के मंगल, क्षेम तथा अभ्युदय के लिए ही हुआ है। 'अहम् ब्रह्मास्मि' का सूत्र-वाक्य या महावाक्य संसार की सबसे पुरातन और सर्वोत्कृष्ट मानी जानेवाली वैदिक संस्कृति की देन है। यह संस्कृति मानती है कि ईश्वर ने यह सृष्टि बनायी है और वह स्वयं चराचर में व्याप्त है। श्रीमदभगवद गीता में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि 'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो' अर्थात मैं सभी प्राणियों के हृदय में बसता हूँ। 'अहम् ब्रह्मास्मि' मुनष्य को यह अहसास दिलाता है कि बड़े-बड़े सागर, पर्वत, ग्रह, समूचे ब्रह्माण्ड की रचना करने वाले अखण्ड शक्तिपुंज का ही मैं एक अंश हूँ और मुझे भी उसका तेज अपने भीतर जागृतकर सद्गुण धारण करने का प्रयास करना चाहिए। यही भाव आत्मसम्मान, अस्तिबोध व नैतिक उन्नति का कारण बन जाता है। मन में उपजनेवाले विचार भी विभिन्न पक्ष व रंग लिए होते हैं। उनमें भी कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष होता है। वे भी चटख और फीके रंगों के विभिन्न शेड्स में डूबते उतराते हैं। वहाँ भी अनावृष्टि और अतिवृष्टि होती है। संपूर्ण जीवन ही निश्चितता और अनिश्चितता के बीच झूलता रहता है। शरीर, मन व आत्मा मिलकर जीवन की दिशा-दशा तय करते हैं। चुनना-छोड़ना, पसंद-नापसंद, श्रेय-प्रेय का मंथन, आदि कितने ही तत्व जीवन-यात्रा में अपना प्रभाव छोड़ते है। इन तत्वों का संसार विशाल और आकर्षण-युक्त किन्तुकिंतु अनिश्चित परिणामों से भरा होता है। चाणक्य-नीति के अनुसार -

"यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यंति अध्रुवाणि नष्टमेव।।"

अर्थात जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर भागता है, उसका निश्चित भी नष्ट हो जाता है, अनिश्चित हो नष्ट होता ही है।

           वर्तमान समय में छोटी-छोटी बात का बतगंड़ बन जाता है, सहनशीलता कम होती जा रही हैं, अपशब्द और बिगड़े बोल सहन कर पाना आसान नहीं होता। यहीं से मानसिक तनाव, कलह, झगड़े, पारिवारिक टूटन, सामाजिक विघटन और परस्पर वैमनस्य प्रारम्भ होता है जो यदि सँभाला न जाये, तो विकराल रूप धर लेता है तथा किसी न किसी अपराध के रूप में सामने आ जाता है। श्री कृष्ण का जीवन यहाँ भी संदेशप्रद है। उन्हें जीवनपर्यंत कितने ही बुरे-भले शब्द कहे गए जैसे छलिया, माखनचोर, निर्मोही, रणछोड़दास किंतु उन्होनें सभी को सहर्ष बिना किसी दुर्भाव के मुस्कुराते हुए स्वीकार किया। गांधारी के भयानक श्राप को भी बिना किसी प्रतिक्रिया के शिरोधार्य कर लिया। सर्वशक्तिमान होते हुए भी उन्होंने शिशुपाल के सौ अपराधों को क्षमा किया और उसके अपशब्दों को शांत भाव से सहन किया और उसके पश्चात सौ अपराध क्षमा करने का वचन पूर्ण होने के बाद ही कर्मयोगी की भाँति अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग कर उसे दण्ड दिया।

           सुदामा प्रसंग में मित्रता हर हाल में निभाने का संदेश है। राजसी वैभव कृष्ण के मन में अहंकार नहीं भर सका और दीन-हीन सुदामा से उनके मिलने का तरीका अत्यंत भाव-विभोर करनेवाला है। दूसरी ओर सुदामा में भक्ति का पूर्ण समर्पित स्वरूप देखने को मिलता है। उन्होंने अपनी अत्यंत दीन-हीन अवस्था में भी कृष्ण से कुछ नहीं चाहा बल्कि जो मिला, उसी में संतुष्ट रहे। उनके मन में अपने बालसखा के वैभव को देखकर न कुछ माँगने का भाव आया, न तुलना कर असंतोष की प्रवृत्ति जन्मी, न कभी उनसे लाभ उठाने का लोभ आया।

           आज समाज विघटन और विद्रूपताओं का सामना कर रहा है। व्यक्तियों के सामाजिक संबंध विकृत और अस्थिर होने लगे हैं। व्यक्तिगत विघटन अनेक मनोविकारों की ओर ले जा रहे हैं। समाज में पवित्र और आदर्श विचारों का ह्रास हो रहा है। दिखावा, औपचारिकता व कृत्रिमता अपना दबदबा बढ़ाते जा रहे हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों पर कर्तव्य से अधिक बल दिये जाने के कारण संकीर्णता, स्वार्थपरता, अस्थिरता, अविश्वास और अंधविश्वास का बोलबाला होता जा रहा हैं। इनसे समाज में अपराध भी बढ़े हैं। आतंकवाद, बाल-अपराध, नशाखोरी, उग्रवाद आदि अप्रत्याशित और सर्वथा अनुचित घटनाओं को घटित करते हैं।

           आज दूसरों की उन्नति व वैभव पीड़ा के साथ ईर्ष्या-द्वेष को तो जन्म देते ही हैं, प्रतिस्पर्द्धा की बढ़ती प्रवृत्ति अनैतिक और भ्रष्ट तरीकों को अपनाने से भी परहेज नहीं करने देती। गला-काट प्रतियोगिता में दूसरों को येन-केन-प्रकारेण पछाड़ने और यथासंभव नीचा दिखाने की प्रवृत्ति अपना कर स्वयं के मिथ्या दंभ को पोषित करने का चलन भी विघटनों के अनेक कारणों में से एक है। कृष्ण-सुदामा मित्रता का संदेश आर्थिक असमानता जनित अनेक मनोविकारों को दूर करने में मार्गदर्शन कर सकता है। सभी प्रकार के विघटनों और विद्रूपताओं को समूल नष्ट करने के लिए कृष्ण को वैचारिक व कर्म के स्तर पर अपनाना आवश्यक है। इसके लिए कृष्ण और बसंत के जीवन दर्शन का प्रसार मन के उजले पक्ष को सशक्त करेगा। जड़ों तक इस जीवन दर्शन को ले जाना होगा। बाल मस्तिष्क में स्कूली शिक्षा से ही उसे अवचेतन में उतारने पर कार्य करना होगा ताकि मानवीय व्यवहार बासंतिक हो बेहतर समाज का निर्माण कर सके।

           कृष्ण जन-जीवन में बहुत गहरे रचे-बसे हैं। कृष्ण नाम में इतनी मधुरता है कि सभी राग, धुन, ताल, लय, भाव, स्वर आदि एक नाम में सर्वाधिक मधुरता के साथ स्पंदित व झंकृत हो उठते हैं। कला-जगत, संगीत-जगत, नृत्य-जगत के साथ प्रेम-जगत का विशाल भाव-संसार कृष्ण-स्मरण के बिना अधूरा है। भरतनाट्यम और ओडिसी जैसे नृत्य तो कृष्ण से जुड़े पदों की भाव-भीनी प्रस्तुति के लिए प्रसिद्ध हैं। स्थापत्य-कला, चित्र-कला, शिल्प-कला सभी कृष्ण-चरित की लीला उकेरते रहते हैं।

           महाभारत में श्रीकृष्ण का जीवन-चरित और भगवद्गीता में दिया उनका उपदेश आज भी जीवन की अनेकों समस्याओं का हल बता देता है। श्रीकृष्ण के जीवन की हरेक घटना हमारे लिए कुछ न कुछ संदेश देती है। जैसे कालिया नाग प्रसंग की बात करें तो उसमें कुछ भी संदेश है। शिव और काली तो तांडव के लिए जाने जाते हैं किंतु कृष्ण ने एक ही बार तांडव किया, वह भी कालिया नाग के फन पर जो आज भी अत्यंत प्रसिद्ध है और साहित्य में भी इस पर काफी कुछ लिखा और गाया गया है। जैसे 'ताडंव गतिमुंडन पर नाचत बनवारी।' कालिया नाग को पर्यावरण-प्रदूषण का द्योतक मान सकते हैं।

           काशी के लक्खा मेले में तुलसीदास घाट पर आयोजित की जाने वाली नागनथैया लीला, जो गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा आरंभ की गई थी, उसी परिदृश्य को दोहराते हुए संदेश देती है। श्रीकृष्ण कालिया नाग रूपी प्रदूषण, जो अपने फुँककारों से यमुना के प्रवाह और गोकुल-वृंदावन की आबो-हवा में विष घोलता है, का दर्प भंग कर देते हैं। इसीलिए वे पर्यावरण-पुरुष का प्रतीक भी बन जाते हैं। काशी में अस्सी घाट से निषादराज घाट तक इस लीला के दर्शन हेतु गंगा की गोद में नौकाओं और बजरों पर भीड़ उमड़ पड़ती है। श्रीकृष्ण कालिया मर्दन से पर्यावरण सुरक्षा का संदेश देते हैं। वे कालिया नाग की रानियों के अनुरोध पर इसी शर्त पर उसे छोड़ते हैं कि तत्काल वह यमुना छोड़कर चला जाए। आज भी आवश्यकता इस बात की है कि हम सभी नदियों व हवाओं का प्रदूषण दूर करने की दिशा में कार्य करें।

           कृष्ण धरती पर अवतरित अकेले ऐसे देवता हैं जिन्होनें प्रेम करना भी सिखाया, संतुलन साधकर जीने की कला भी बताई और धर्म की स्थापना हेतु जीवन के द्वंद व महाभारत में लड़ना-भि़ड़ना और युद्ध करना भी सिखाया। कृष्ण का व्यक्तित्व जीवन के व्यावहारिक पहलुओं को छूता है। कृष्ण मानव जीवन के रूप में स्वयं को मिले समस्त कष्टों, दुखों, पीड़ाओं व लांछनाओं के हलाहल को शिव की भाँति पीकर बिना शिकायत या उफ्फ़ किये मुस्कुराते हुए कर्तव्य-पथ पर बढ़ते चले जाते हैं। श्रीकृष्ण एक ऐसी भीषण प्रचण्ड अग्नि की तरह हैं जिसमें कर्म-अकर्म, राग-द्वेष, सब आकर भस्म हो जाते हैं और परम-पावन मोक्ष निकल कर बाहर आता हैं।

           युद्धभूमि में शर-शैया पर लेटे भीष्म पितामह से संवाद में एक प्रश्न के उत्तर में श्री कृष्ण कहते हैं- ''सब कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़कर बैठना मूर्खता होती है पितामह! ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करते, सब मनुष्य को ही करना पड़ता है। आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न, तो बताइयेए न पितामह, मैने स्वयं इस युद्ध में कुछ किया क्या? सब पांडवों को ही करना पड़ा न? यही प्रकृति का विधान है। युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से। यही परम सत्य है।''

           बसंत प्रकृति की महत्ता और सुंदरता का निदर्शन करता हैl मन के भाव के अनुरूप ही घटनाक्रम की अनुभूति होती है। कृष्ण कहते हैं कि कार्य, करण और कारण तीनों ही प्रकृति में उत्पन्न होते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्रकृति का तात्पर्य है कृति से पहले अर्थात सृजन से पहले ही जिसकी शाश्वत उपस्थिति हो वही प्रकृति है। गायत्री महाविद्या के महामनीषी युग ऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित कृष्ण की 'प्रकृति' को व्याख्यित करते हुए लिखते हैं- ''प्रकृति को न 'नेचर से परिभाषित करना उचित है न 'क्रिएशन' से। 'प्रकृति' वस्तुत: गूढ़ शब्द है। इसका अर्थ तो योगीराज श्रीकृष्ण की जीवन दृष्टि से ही समझा जा सकता है। आज जो कुछ भी हमें दिखाई पड़ रहा है और जो नहीं भी दिखाई पड़ रहा, वह सब कुछ 'प्रकृति' है। प्रकृति इस समूचे विश्व ब्रह्माण्ड का वह मूल स्त्रोत है जिसमें से सब निकलता है और जिसमें सब विलुप्त भी हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सभी रूप व आकार के उद्गम व विसर्जन का नाम है प्रकृति।''

           ऐसे विराट व्यक्तित्व के जीवन-चरित से साम्यता रखता बसंत और भी अनूठा बन जाता है।
***
संक्षिप्त परिचय - सुनीता सिंह

सुनीता सिंह वर्तमान में उत्तर प्रदेश के निर्वाचन विभाग में सहायक मुख्य निर्वाचन अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। इनका जन्म गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ है। इनके पिता का नाम स्व. जनार्दन सिंह तथा माता का नाम श्रीमती छवि सिंह है। पति श्री दिनेश कुमार सिंह तथा दो पुत्र आर्युष और आर्यन हैं। इन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र विषय में परास्नातक करने के बाद दो वर्ष तक कराधान से संबंधित विषय पर शोध कार्य और उस दौरान बजट पर राष्ट्रीय सेमिनार में प्रतिभाग कर लेख/पत्र प्रस्तुत किया है। शासकीय कार्यों के बाद अतिरिक्त समय में इन्हें हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविताएं, लघु कथाएं, गीत, नवगीत, दोहा, गजल, नज्म और ऐतिहासिक फिक्शन आदि लिखने में रुचि है।इनकी अब तक 21 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और 22वीं प्रकाशनाधीन है। इन्हें साहित्य के क्षेत्र में अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं जिनमें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा वर्ष-2018 का सूर पुरस्कार, उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान की ओर से दीर्घकालीन साहित्यिक सेवा (हिन्दी पद्य) हेतु वर्ष 2018-2019 का सुमित्रानंदन पंत पुरस्कार,अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा 2020 में "साहित्य परिक्रमा सम्मान", एशियन लिटरेरी सोसाइटी द्वारा तीसरा सागर मेमोरियल बाल साहित्य,इण्डियन वुमन अचीवर्स अवार्ड- 2020, (लिटरेचर कैटिगरी),तीसरा वर्डस्मिथ साहित्य पुरस्कार- 2020, इण्डियन वुमन राइजिंग स्टार अवार्ड, 2021,गीत संग्रह "ओस की बूँदें" बेस्ट पोएट्री बुक,WEAA वुमन एक्सीलेंस अचीवर अवार्ड, 2020",FSIA द रियल सुपर वुमन अवार्ड, 2020", विश्व हिन्दी लेखिका मंच द्वारा “कल्पना चावला मेमोरियल अवार्ड, 2020", आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था द्वारा"तेजस्विनी वुमन ऑफ़ इंडिया" अवार्ड, 2021,भारत अवार्ड फॉर शार्ट स्टोरी- इंटरनेशनल, 2021, हेतु आयोजित प्रतियोगिता में अन्तर्राष्ट्रीय ज्यूरी द्वारा दसवें स्थान पर चयनित, गुफ्तगू साहित्यिक संस्था प्रयागराज द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान 2022 से सम्मानितआदि प्रमुख हैं। इनकी अंग्रेजी कविता की पुस्तक 'Milestone' इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड,एशिया बुक ऑफ रिकॉर्ड और वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज हो चुकी है।

सोमवार, 9 जनवरी 2023

उषादेवी मित्रा

लेख: 

स्वजनों द्वारा उपेक्षित कालजयी कहानीकार उषादेवी मित्रा 

गीतिका श्री 

*

द्विवेदीयुगीन कहानीकार उषादेवी मित्रा का जन्म सन्‌ १८९७ में जबलपुर में हुआ था। वे रवींद्र नाथ टैगोर की पोती और प्रसिद्ध बांगला लेखक सत्येंद्र नाथ दत्त की भांजी थीं। उनके पिता हरिश्चंद्र दत्त प्रसिद्ध वकील तथा माता सरोजिनी दत्त गृहणी थीं। लगभग १४ वर्ष की किशोरावस्था में आपका विवाह क्षितिज चंद्र मित्रा से हुआ। क्षितिज चंद्र जी ने विदेश से इलक्ट्रोनिक इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा प्राप्त की। दुर्भाग्यवश कुछ वर्षों के अंतराल में अल्पायु पुत्र, बहिन, भाई तथा  पति की मृत्यु ने ऊषा जी के जीवन को शोकाकुल कर दिया। उन्होंने अत्यंत धैर्य के साथ विधि के विधान का सामना कर पति के निधन के समय गर्भ में पल रही पुत्री को १९१९ में जन्म दिया। कलकत्ता और शांति निकेतन में कुछ वर्ष बिताकर उन्होंने संस्कृत सीखी। एक के बाद एक दुखद घटनाओं को सहते सहते वे रुग्ण रहने लगीं पर साहस के साथ पुत्री बुलबुल को डॉक्टरी की उच्च शिक्षा दिलाई।    

बांगला भाषा-भाषी होते हुए भी आपने हिंदी-लेखन को अपना साहित्य-कर्म का क्षेत्र चुना। लेखन आपके लिए वैयक्तिक दुखों पर जिजीविषा की जय जयकार करने का माध्यम बन गया। आपने जिंदगी के मायने लेखन में ही खोजे। आपकी प्रमुख कृतियाँ ‘वचन का मोल’, ‘प्रिया', ‘नष्ट नीड़', ‘जीवन की मुस्कान", और 'सोहनी' नामक उपन्यासों के अतिरिक्त 'आँधी के छंद', 'महावर’, 'नीम चमेली’, 'मेघ मल्लार’, ‘रागिनी’, 'सांध्य पूर्वी' और ‘रात की रानी' आदि हैं।  अपनी रचनाओं में उन्होंने साहसपूर्वक धार्मिक रूढ़ियों का विरोध और नारी शोषण का चित्रण और विरोध किया। वे सम सामायिक राजनीति और स्वतंत्रता आंदोलनों से भी प्रभावित रहीं। उन्ही रचनाओं में अशिक्षित, शिक्षित, विवाहिता विधवा, शोषित तथा संघर्षशील स्त्रियों का जीवंत चित्रण है। 'प्रथम छाया' तथा 'वह कौन था' कहानियों में संगीत की पृष्ठभूमि उनके अपनी अभिरुचि से जुड़ी है। 'देवदासी' में धार्मिक कुरीति पर प्रहार है। 'खिन्न पिपासा', 'चातक', 'मन का यौवन' तथा 'समझौता' जैसी कहानियों में नारी अस्मिता का संघर्ष दृष्टव्य है। उपन्यास 'जीवन की मुस्कान' में वैश्या समस्या को उठाया गया है। उपन्यास 'पिया' में स्त्री-पुरुष समानता को समाज हेतु आवश्यक बताया गया है। 

उषादेवी मित्रा हिंदी कथा साहित्य के आरंभिक दौर की एक महत्वपूर्ण लेखिका हैं, मात्र इसलिए नहीं कि उन्होंने अपने समकालीनों से परिमाण मे अधिक लिखा है बल्कि इसलिये कि वह् कहानी लेखन की युगीन मुख्यधारा से अलग और आज के विमर्श में रेखांकित किये जाने हेतु आवश्यक हैं। उनकी कहानियाँ भावुकता के द्वन्द्व से विलग नहीं है, न तो कथ्य के स्तर पर और न ही भाषा के स्तर पर पर फिर भी वे इस दृष्टि से अलग हैं कि उनमें स्त्री की नई सोच की आहट स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती है।

चार पृष्ठों की एक छोटी-सी कहानी 'भूल' में 'हरप्रसाद पांडेय की मँझली पुत्रवधू सुप्रभा जैसी सहनशील कर्मिष्ठ नारी' के वैधव्य की करुण कथा है जो एकादशी के व्रत में मारे ज्वर के गला तर करने के लिये महरी के हाथ का पानी पीकर अपना धरम बिगाड़ लेती है। महरी से पूछे जाने पर कि 'तूने जान-बूझकर क्यों बहू का धरम बिगाड़ा?, उसका उत्तर है-'वह मर जो रही थी। पानी-पानी करके तो उसकी दम निकली जा रही थी। तुम्हारे धरम से मेरा धरम लाख गुना अच्छा।' अब प्रायश्चित की बारी है। सुप्रभा का प्रश्न है- 'क्यों, मेरा अपराध क्या है? मैं प्रायश्चित न करूँगी।' सुप्रभा स्वयं को अपराधी नहीं मानती। इसके बाद वह 'वह पूजा-पाठ छोड़ देती है, श्रंगार करती है, एक कहो तो हजार सुनाती है। जो एक दिन बिल्ली जैसी दबी रहती थी, वह शेर हो जाती है। कहानी के आखिरी हिस्से में सुप्रभा और दिवाली छुट्टी में अपने पति किशोर के साथ आई उसकी देवरानी दयारानी का संवाद है जिसमें एक प्रश्न उभरता है- 'क्या भूल को भूल कभी जीत सकती है? कहानी यहीं खत्म होती है, इस युगीन प्रश्न के साथ जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है। इसे उहापोह या दुचित्तापन का प्रश्न भी कह सकते हैं। यह संयोग नहीं है कि हिंदी कहानी में यह प्रश्न बार-बार दोहराया जाता रहा है। नई कहानी और उसके बाद की कहानी में भी यह प्रश्न अनुपस्थित नहीं है।इस लिहाज से उषा देवी मित्रा की यह छोटी-सी कहानी को वास्तव में एक  बड़ी और विशिष्ट कहानी है जो लिखे जाने के सौ वर्षों बाद भी प्रासंगिक है। 

उषा जी की कहानी कला की उनके समकालिक महिला कहानीकारों से तुलना की जाए तो सबकी अलग-अलग विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं।  शिवरानी देवी और सुभद्रा कुमारी चौहान में दृष्टिगत उदारता और वैचारिक अस्मिता के साथ निर्भीकता और दृढ़ता उनके लेखकीय व्यक्तित्व में जुझारूपन का आयाम ही नहीं जोड़ती, बल्कि उन्हें समकालीन रचनाकारों से भिन्न और विशेष भी बनाती है। ऊषादेवी मित्रा में 'टुकड़ा-टुकड़ा' ये सभी विशेषताएँ हैं, लेकिन एकान्विति न होने के कारण स्त्री मुद्दों पर क्षणिक प्रतिक्रिया व्यक्त करने के अतिरिक्त वे कोई ठोस वैचारिक आधार नहीं देतीं। ऊषादेवी मित्रा द्विविधाग्रस्त प्रतीत होती हैं। गाँधीवादी विचारधारा को व्यावहारिक रूप देने की बाध्यता में स्त्रीत्व की पारंपरिक छवि की प्रतिष्ठा या स्त्री के साथ होने वाले न्याय को उद्घाटित करने की लेखकीय प्रतिबद्धता दोनों ध्रुवों को, वे साथ-साथ लेकर चलना चाहती हैं। कहीं-कहीं बेहद प्रखरता एवं दृढ़ता के साथ परंपरा का विरोध करते हुए स्त्री को नए आलोक में देखने का आग्रह करती हैं और सदियों से चली आ रही व्यवस्थाओं/रूढ़ियों को अमान्य भी कर देती हैं, किंतु ऄपनी विद्रोही मुद्रा की पैनी धार बनाए नहीं रख पातीं। बीच राह में भरभरा कर सती की प्रतिष्ठा करते हुए ऄपनी ही वैचारिकता का विलोम रचने लगती हैं। ऊषादेवी मित्रा भावना की तरलता और बौद्धिकता की तीक्ष्णता को अंत तक सम्मिलित नहीं रखतीं, तेल और पानी की तरह दोनों का ऄलग-ऄलग स्वतन्त्र वजूद बनाए रखती हैं। उनकी रचनात्मकता या तोबौद्धिक कसरत बन कर रह जाती है या भावुकता का सैलाब। इसका कारण संभवत:, तात्कालिक बंग समाज में विधवा स्त्री की सामाजिक शोचनीय स्थिति है, जिसमें वे न केवल स्वयं साहसपूर्वज जी रही थीं अपितु अपनी एक मात्र संतान, पुत्री बुलबुल का भविष्य भी गढ़ रही थीं।   

अपनी कृति 'सांध्य पूर्वी' पर आपको अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 'सेकसरिया पुरस्कार' प्रदान किया गया था। मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के जबलपुर अधिवेशन में आपकी साहित्य-सेवाओं के लिए मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारा आपका अभिनंदन किया गया था। आप नागपुर रेडियो की परामर्शदात्री समिति की सदस्या होने के साथ-साथ नगर की अनेक सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़ी थीं। ''ऊषा देवी मित्रा के कथा साहित्य में नर जीवन के बदलते स्वरूप'' पर संत थॉमस कॉलेज पाला की छात्रा प्रीति आर. ने वर्ष २०१४ में शोध कार्य किया है किन्तु उनके गृह नगर रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय ने उनके साहित्य की पूरी तरह उपेक्षा की।   

ऊषा देवी मित्रा का निधन ७० वर्ष की आयु में ९ सितम्बर सन्‌ १९६६ को हुआ।  विडंबना है कि मृत्यु से पूर्व अपनी सुपुत्री डॉ• बुलबुल चौधरी से अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त करते हुए आपने कहा था, “मेरी सारी पुस्तकें मेरी चिता पर मेरे साथ जला दी जाएँ। मेरी शवयात्रा में शास्त्रीय संगीत निनादित हो।” जिस लेखिका ने ५० वर्ष वैधव्य में गुजारकर निरंतर साहित्य-सृजन करके हिंदी की सेवा की, जिसकी लेखन-कला की सराहना प्रेमचंद ने की तथा जिससे मिलने के लिए प्रेमचंद खुद जबलपुर आए, वह अपनी चिता के साथ अपनी रचनाओं को जलाने की इच्छा व्यक्त करे, इसकी पृष्ठभूमि में स्वजनों और परिजनों से मिला घनीभूत अवसाद और उपेक्षा ही था।

*

संपर्क - द्वारा श्री प्रभात श्रीवास्तव, महाजनी वार्ड, नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश।  

नाचा, नाथ संप्रदाय, साबर मंत्र, नवगीत, तसलीस, सूरज

छत्तीसगढ़ी रास राउत नाचा 
*

छत्तीसगढ़ की लोकनृत्य की परंपरा में राउत नाचा ( अहीर नृत्य, मड़ई) का  महत्वपूर्ण स्थान है। राउत नाचा नंद ग्राम के गोप-गोपिकाओं के साथ कृष्ण द्वारा गौ चरवाहे के रूप में गोवर्धन व कालिंदी के तट पर किए गए नृत्य नाट्य का ही रूपांतरित रूप है जो  पार (दोहे) बोलकर कृष्ण भक्ति को अभिव्यक्त करने हेतु तन्मयता के साथ नृत्य प्रस्तुत कर भावातिरेक प्रसन्नता प्रदर्शित करते हैं। उनके विशेष परिधान में धोती के साथ सलूखा, जैकेटनुमा रंग-बिरंगा चमकदार आस्किट, पगड़ी या मुराठा बाँधकरकर गुलाबी, बैगनी, हरे, नीले रंग की कलगी व मयूरपंख खोंसे (लगाए) रहते हैं। साथ में बाँसुरी, सिंग बाजा, डाफ, टिमकी, गुरदुम, मोहरी, झुनझुना जैसे वाद्य यंत्र पंचम स्वर तक पहुँच कर नए दोहा पारने के अंतराल तक रुके रहते हैं और दोहा पारते ही वाद्य के साथ रंग-बिरंगे लउठी और फरी (लोहे का कछुआ आकृति का ढ़ाल जिसके ऊपरी सिरे पर अंकुश होता है जो ढाल के साथ-साथ नजदीकी लड़ाई या आक्रमण या सुरक्षा के समय अस्र के रूप में उपयोग किया जाता  है) के साथ योद्धा  की मुद्रा में शौर्य नृत्य करते हैं। 

राउत प्रकृति से शांत व गौसेवक के रूप में धार्मिक-सहिष्णु होते हैं। पहले अलग-अलग गोलों में नाचते हुए पुरानी रंजिश को लेकर पहले मातर, मड़ई आपस में खूब झगड़ा करते थे।  आजकल मंचीय व्यवस्था होने से वे कम झगड़ते हैं। हाथ में लाठी व ढाल के अस्त्र उन्हें योद्धा का रूप देता है और वे दोहा और वाद्य यंत्रों के थाप पर आक्रमण और बचाव करने के नाना रूपों में शौर्य नृत्य करते हैं। पहले दैहान में खोड़हर गाड़कर मातर पूजन करते हुये लोग खोड़हर के चारों ओर घूमते हुये गोल या दल बना कर राउत नृत्य करते थे। तात्कालीन मंत्री स्व. बी. आर. यादव जी के प्रयास से १९७७ से बिलासपुर में राउत नृत्य का नया रूप सामने आय।  जब विविध गाँवों से आए  राउत नाचा दल गोल बिलासपुर में रउताई नृत्य करते हुए शनीचरी का चक्कर लगाते थे। उनमें व्यक्तिगत व सामूहिक दुश्मनी लड़ाई में बदल जाती थी। इस दुश्मनी को समाप्त करने सभी गोल के लोगों के पढ़े-लिखे प्रमुखों के मध्य एक बैठक कर इस नृत्य को एक सांस्कृतिक मंच का रूप दिया गया। मंच के लिए सार्वजनिक संस्कृति समिति गठितकर शहर कोतवाली के पास राउत नृत्य का आयोजन किया जाने लगा। स्थान कम पड़ने पर राउत नृत्य मंच का स्थान बदल कर लालबहादुर शास्त्री विद्यालय के मैदान में पहले लकड़ी का मंच और बाद में  ईंट-सीमेंट का पक्का मंच बनाकर राउत नाचा आयोजित किया जाने लगा। एक समय इन गोलों की संख्या सौ से ऊपर तक पहुँच गई थी किंतु ग्रामीण नवयुवकों के शहर की ओर पलायन के कारण अब राउत नाचा का अभ्यास करने वाले लोग कम संख्या में मिलते हैं। आजकल लगभग पचास नृत्य गोल (दल) रह गए हैं। इन गोलों की वृद्धि एवं संरक्षण हेतु प्रयास किए जाना आवश्यक है। 

छेरता पूष पुन्नी के दिन सुबह घर-घर जाकर छेर-छेरता (शाकंभरी माँ और वामन देव के रूप में) दान याचना कर, दानदाता गृहस्थ किसान को अन्न धन से भंडार भरने व क्लेश से बचे रहने का आशीर्वाद देते हैं। इन आयोजनों में बतौर सुरक्षा पुलिस साथ रहती है जो भीड़ नियंत्रण व लोगों के अनधिकृत प्रवेश पर रोक लगाती है। इससे बाहर से आनेवाले यादव समाज का एक वर्ग नाराज रहता है। ७२ वर्षीय डा. मंतराम यादव ने राउत नाचा को १९९२-९३ से सांस्कृतिक मंच अहीर नृत्य कला परिषद का गठन, साहित्य सृजन हेतु रउताही स्मारिका प्रकाशन तथा साहित्यकार सम्मान का कर नाराज व असंतुष्ट वर्ग को विश्वास में लेकर देवरहट में अहीर नृत्य मंच आरंभ किया। उनके दादा जी के पास लगभग चार सौ गायें थीं तब छुरिया कलामी, लोरमी के जंगलों में दैहान-गोठान में गाय रखते थे। सभी गायें देशी थीं तथा एक गाय एक से डेढ़ लीटर दूध देती थी। औषधीय घास पत्ते, जड़ी बूटी चरने के कारण उनका दूध पौष्टिक व रोह दूर करनेवाला होता था। उउनके पूर्वज नाथ पंथी थे।  जंगली हिंसक पशुओं से बचने के लिए नाथपंथी मंत्र (साबर मंत्र) जो वशीकरण मंत्र होता था से अपनी रक्षा कर लेते थे। दादा जी वैदकी जानते थे और सामान्य रोगों जैसे लाल आँखी हो जाना आदि को फूँककर तथा एक थपरा (तमाचा) मारकर शर्तिया ठीक कर दिया करते थे। दादा जी पशुओं का भी इलाज करते थे। पशुधन की महामारी से रक्षा करने के लिए सावन के सोमवार व गुरुवार को गाँव  बाँधते थे। बैगा के साथ लोहार सभी घर के दरवाजे पर लोहे की कील ठोंकते थे, राउत लोग नीम पत्ता की डंडी बाँधकर अभिमंत्रित दही-मही छींटते थे। कोठा में ठुँआ (अर्जुन के बारह नाम लिखकर) टाँगने का टोटका करते थे। ठुँआ में आग को मंत्र से बाँधकर उस पर नंगे पैर चलते हैं। जैसे ज्वाला देवी की आग से पानी उबलता है पर पानी गर्म नहीं लगता उसी तंत्र का प्रकारांतर है ठुँआ।  उनके पिता जी बारह भाई-बहन में सबसे छोटे थे तथा उनके पास दंवरी करने के लिए पर्याप्त बैल  थे। आज भी बिलासपुर स्थित  उनके घर में सात गोधन हैं। आजकल बच्चों में गौ सेवा में रुझान कम हो होते जाना चिंता का विषय है। गौ सेवा आर्यधर्म होने के कारण सभी हिंदुओं व विशेष कर नाथ परंपरा का पवित्र कर्म है। 

आजकल लोग गायों को हरी घास, पैरा, कुट्टी नहीं खिलाकर जूठन या रोटी सब्जी, दाल, फास्टफुड, बिस्किट, ब्रेड आदि कुछ भी खिलाकर गौ सेवा का भाव प्रदर्शित करते हैं। धनपुत्रों द्वारा गौ शालाओं के लिए होटलों से सौ रोटी बनवाकर  गौ सेवा का पुण्य कमाने का अहं दिखाने  के स्थान पर हरी घास प्रदाय की व्यवस्था की जाए तो शुद्ध आयुर्वेदिक दुग्ध व पवित्र गोबर की प्राप्ति हो तथा घसियारों (घास की खेती वकरने वालों) को रोजगार मिले। अन्न आदि भोजन का गौ  स्वास्थ्य पर  प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। देशी भारतीय गाय व संकर नस्ल की विदेशी गायों के दुग्ध व गोबर की गुणवत्ता में अंतर साफ दिखता है जिसे आम उपभोक्ता नजरंदाज करते दिख रहे है। गोबर में मैत्रेय जैविक संरचना व परि शोधन गुण होता है तथा पवित्रता भावित गुण से युक्त होता है जबकि गौमल अपशिष्ट का दुर्गंधयुक्त हानिकारक विसर्जन होता है। जंगल में चरनेवाली देशी गाय और डेरियों से प्रदाय किए जानेवाले दूध का पान करें तो पहले से स्वाद, गाढ़ापन व तृप्ति का अनुभव होगा जबकि दूसरे में महक तथा पतलापन अनुभव होगा। 

नाथ पंथ: 

सनातनधर्म के बौद्ध, जैन, सिख, आदि पंथों  प्राचीन नाथ पंथ है जिनमें प्रमुख नौ नाथ व चौरासी उपनाथों की परंपरा है। नाथ पंथ की शक्ति स्रोत शिव (केदारनाथ, अमरनाथ, भोलेनाथ, भैरवनाथ,गोरखनाथ आदि) हैं। कलियुग में नाथ पंथ के प्रसिद्ध गुरु गोरखनाथ  (गोरक्षनाथ) हुए हैं। लोकश्रुति के अनुसार गुरु गोरखनाथ का जन्म बारह वर्ष की अवस्थावाले बालक के रूप में गौ गोबर से हुआ, वे योनिज (स्त्री से उत्पन्न) नहीं थे। उन्होंने गौरक्षा के लिए जन जागरण अभियान चलाया तथा इस कार्य को साहित्य संहिताबद्ध कर अनेक ग्रंथ भी लिखे जिनमें  अमवस्क, अवधूत गीता, गौरक्षक कौमुदी, गौरक्ष चिकित्सा, गौरक्ष पद्धति, गौरक्ष शतक आदि प्रमुख हैं। गुरु गोरख नाथ हठयोग सिद्ध योगी थे तथा गुरु मत्स्येंद्र नाथ के मानस पुत्र व शिव भगवान के अवतार थे। काया कल्प संपूर्णता उपरांत उन्होने समाधि ले ली। गोरखपुर में गुरु गोरखनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है जिसके परंपरागत महंत योगी आदित्यनाथ आजकल उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री  हैं। 

साबर:

साबर मंत्र सरल होते हैं जो नवनाथ द्वारा मानव कल्याण के लिए बनाए गए थे। आम लोगों के जीवन की दैविक, दैविक, भौतिक ताप या समस्याओं का शमन करनेवाले इन मंत्रों की संख्या लगभग सौ करोड़ हैं। इन्हें एकांत में शुद्ध मन से शुद्ध वातावरण में सिद्ध अर्थात प्रत्येक मंत्र के लिए निर्धारित संख्या में उच्चरित कर याद कर मंत्रमुग्ध या सिद्ध किया जाता है। इन मंत्रों का प्रयोग मानव कल्याण के उद्देश्य से ही करने के गुरु निर्देश हैं, इन मंत्रों का अनुचित प्रयोग से संबंधित व्यक्ति के लिए क्षतिकारक व विपरीत प्रभाव डालने वाला होता है। इस मंत्र की सिद्धि के लिए तर्पण, न्यास, अनुष्ठान, हवन जैसे कर्मकांड की आवश्यकता नहीं पड़ती है। किसी भी जाति, वर्ण, आयु, लिंग का व्यक्ति इसकी साधना कर सकता है। इन मंत्रों का उपयोग धन, शिक्षा, प्रगति, सफलता, व्यापार व जोखिम से बचने के लिए किया जाता है। इन मंत्रों को सिद्ध योगी धमकी देकर एवं अन्य श्रद्धा भाव से प्रयोग कर सकते हैं।  गुरु गोरखनाथ जी की ज्ञानगोदरी प्राप्त करने के लिए पवित्र संकल्प के साथ गौ सेवा व नाथ सेवा करनी पड़ती है।

सर्वप्रभावी मंत्र:
"ओम गुरुजी को आदेश, गुरुजी को प्रणाम, धरती माता, धरती पिता, धरनी धरे न धीर बाजे, श्रींगी बाजे, तुरतुरी आया, गोरखनाथ मीन का पूत  मुंज का छड़ा लोहे का कड़ा, हमारी पीठ पीछे यति हनुमंत खड़ा,शब्द सांवा पिंड काचास्फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा। "

भैरव मंत्र:
ॐ आदि भैरव जुगाद भैरव, भैरव है सब थाई। भैरो ब्रह्मा,भैरो ही भोला साइन।।

बाधा हरण मंत्र:
"काला कलवा चौसठ वीर वेगी आज माई, के वीर अजर तोड़ो बजर तोड़ो किले का, बंधन तोड़ो नजर तोड़ मूठ तोड़ो,जहाँ से आई वहीं को मोड़ो।  जल खोलो जलवाई। खोलो बंद पड़े तुपक का खोलो, घर दुकान का बंधन खोलो,  बँधे खेत खलिहान खोलो, बँधा हुआ मकान खोलो, बँधी नाव पतवार खोलो। इनका काम किया न करे तो तुझको माता का दूध पिया हराम है। 
माता पार्वती की दुहाई। शब्द सांचा फुरो मंत्र वाचा।"

गुरु गोरखनाथ मंत्र:
ॐ सोऽहं तत्पुरुषाय विद्यहे शिव गोरक्षाय धीमहि तन्नो गोरक्ष प्रचोदयात्  ॐ।

विद्या प्राप्ति मंत्र:
ॐ नमो श्रीं श्रीं शश वाग्दाद वाग्वादिनी भगवती सरस्वती नमः स्वाहा। विद्या देहि मम ऋण सरस्वती स्वाहा।।

लक्ष्मी प्राप्ति मंत्र: 
ॐ ॐ ऋं ऋं श्रीं श्रीं ॐ क्रीं कृं स्थिरं स्थिरं ॐ।

उल्लेखनीय है कि राउत नाचा करनेवाले  कृष्णभक्तों और नाथ संप्रदाय के शिवभक्तों के मध्य शृद्ध-विश्वास का ताना-बाना सदियों से सामाजिक स्तर पर बना। पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली से शिक्षित पीढ़ी मंत्र-तंत्र को त्याज्य व् अन्धविश्वास कहती है जबकि पुरानी पीढ़ी इनकी सत्यता प्रमाणित करती है। वस्तुत: किसी भी पारंपरिक विद्या  परीक्षण किए बिना उसे ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए। राउतों द्वारा गौ के आहार पर दूध की गुणवत्ता व प्रभाव तथा शाबर मंत्रों के प्रभावों पर विज्ञान सम्मत शोध कार्य होना चाहिए। मन्त्रों का ध्वनि विज्ञान सिद्धांतों पर परिक्षण हो, उनके सामाजिक तथा वैयक्तिक प्रभाव का आकलन हो। राउत नाचा और  गौपालन तथा गौ संरक्षण विद्या आधुनिक डेयरी प्रणाली के दुग्ध उत्पाद  गुणवत्ता और प्रभाव पर परीक्षण जाएँ तो  विज्ञान सम्मत निष्पक्ष निष्कर्ष पर  सकेगा।    
***
नवगीत:
निर्माणों के गीत गुँजाएँ ...
*
चलो सड़क एक नयी बनाएँ,
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
मतभेदों के गड्ढें पाटें,
सद्भावों की मुरम उठाएँ.
बाधाओं के टीले खोदें,
कोशिश-मिट्टी-सतह बिछाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
निष्ठा की गेंती-कुदाल लें,
लगन-फावड़ा-तसला लाएँ.
बढ़ें हाथ से हाथ मिलाकर-
कदम-कदम पथ सुदृढ़ बनाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
आस-इमल्शन को सींचें,
विश्वास गिट्टियाँ दबा-बिछाएँ.
गिट्टी-चूरा-रेत छिद्र में-
भर धुम्मस से खूब कुटाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
है अतीत का लोड बहुत सा,
सतहें समकर नींव बनाएँ.
पेवर माल बिछाये एक सा-
पंजा बारंबार चलाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
मतभेदों की सतह खुरदुरी,
मन-भेदों का रूप न पाएँ.
वाइब्रेशन-कोम्पैक्शन कर-
रोलर से मजबूत बनाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
राष्ट्र-प्रेम का डामल डालें-
प्रगति-पंथ पर रथ दौड़ाएँ.
जनगण देखे स्वप्न सुनहरे,
कर साकार, बमुलियाँ गाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ..
*
श्रम-सीकर का अमिय पान कर,
पग को मंजिल तक ले जाएँ.
बनें नींव के पत्थर हँसकर-
काँधे पर ध्वज-कलश उठाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
टिप्पणी:
१. इमल्शन = सड़क निर्माण के पूर्व मिट्टी-गिट्टी की पकड़ बनाने के लिए छिड़का जानेवाला डामल-पानी का तरल मिश्रण, पेवर = डामल-गिट्टी का मिश्रण समान समतल बिछानेवाला यंत्र, पंजा = लोहे के मोटे तारों का पंजा आकार, गिट्टियों को खींचकर गड्ढों में भरने के लिये उपयोगी, वाइब्रेटरी रोलर से उत्पन्न कंपन तथा स्टेटिक रोलर से बना दबाव गिट्टी-डामल के मिश्रण को एकसार कर पर्त को ठोस बनाते हैं, बमुलिया = नर्मदा अंचल का लोकगीत।
२. इस नवगीत की नवता सड़क-निर्माण की प्रक्रिया वर्णित होने में है।
***
तसलीस (उर्दू त्रिपदी)
सूरज
*
बिना नागा निकलता है सूरज,
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज..
*
सुबह खिड़की से झाँकता सूरज,
कह रहा जग को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं खुद को आंकता सूरज..
*
उजाला सबको दे रहा सूरज,
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज..
*
आँख रजनी से चुराता सूरज,
बाँह में एक, चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लड़ाता सूरज..
*
जाल किरणों का बिछाता सूरज,
कोई चाचा न भतीजा कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज..
*
भोर पूरब में सुहाता सूरज,
दोपहर-देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज..
*
काम निष्काम ही करता सूरज,
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
खुद पे खुद ही नहीं मरता सूरज..
*
अपने पैरों पे ही बढ़ता सूरज,
डूबने हेतु क्यों चढ़ता सूरज?
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज..
*
लाख़ रोको नहीं रुकता सूरज,
मुश्किलों में नहीं झुकता सूरज.
मेहनती है नहीं चुकता सूरज..
९-१-२०११
***

रविवार, 8 जनवरी 2023

सॉनेट, भारत, गीत, यमक अलंकार

सॉनेट
तिल का ताड़
*
तिल का ताड़ बना रहे, भाँति-भाँति से लोग।
अघटित की संभावना, क्षुद्र चुनावी लाभ।
बौना खुद ओढ़कर, कहा न हो अजिताभ।।
नफरत फैला समझते, साध रहे हो योग।।
लोकतंत्र में लोक से, दूरी, भय, संदेह।
जन नेता जन से रखें, दूरी मन भय पाल।
गन के साये सिसकता, है गणतंत्र न ढाल।।
प्रजातंत्र की प्रजा को, करते महध अगेह।।
निकल मनोबल अहं का, बाना लेता धार।
निज कमियों का कर रहा, ढोलक पीट प्रचार।
जन को लांछित कर रहे, है न कहीं आधार।
भय का भूत डरा रहा, दिखे सामने हार।।
सत्ता हित बनिए नहीं, आप शेर से स्यार।।
जन मत हेतु न कीजिए, नौटंकी बेकार।।
८-१-२०२२
*
भारत की माटी
*
जड़ को पोषण देकर
नित चैतन्य बनाती।
रचे बीज से सृष्टि
नए अंकुर उपजाति।
पाल-पोसकर, सीखा-पढ़ाती।
पुरुषार्थी को उठा धरा से
पीठ ठोंक, हौसला बढ़ाती।
नील गगन तक हँस पहुँचाती।
किन्तु स्वयं कुछ पाने-लेने
या बटोरने की इच्छा से
मुक्त वीतरागी-त्यागी है।
*
सुख-दुःख,
धूप-छाँव हँस सहती।
पीड़ा मन की
कभी न कहती।
सत्कर्मों पर हर्षित होती।
दुष्कर्मों पर धीरज खोती।
सबकी खातिर
अपनी ही छाती पर
हल बक्खर चलवाती,
फसलें बोती।
*
कभी कोइ अपनी जड़ या पग
जमा न पाए।
आसमान से गर गिर जाए।
तो उसको
दामन में अपने लपक छिपाती,
पीठ ठोंक हौसला बढ़ाती।
निज संतति की अक्षमता पर
ग़मगीं होती, राह दिखाती।
मरा-मरा से राम सिखाती।
इंसानों क्या भगवानो की भी
मैया है भारत की माटी।
***
गीत
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता सो बीता
अब न हास-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
सेह-स्वेद-श्रम हो आराध्य अब
पूँजी होगी महज माध्य अब
श्रम पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम
मिल काटेंगे तम की कारा
उजियारे के हों पाव बारा
गिर उठ बढ़कर मैदां मारा
दस दिश में गूँजे जयकारा।
कठिनाई में संकल्पों का
कोशिश कर नव हास , लिखें हम
आज नया इतिहास लिखें हम।
८-१-२०२२
***
मनरंजन
मुहावरों ,लोकोक्तियों, गीतों में धन
*
०१. टके के तीन
०२. कौड़ी के मोल
०३. दौलत के दीवाने
०४. लछमी सी बहू
०५. गृहलक्ष्मी
०६. नौ नगद न तरह उधार
०७. कौड़ी-कौड़ी को मोहताज
०८. बाप भला न भैया, सबसे भला रुपैया
०९. घर में नईंयाँ दाने, अम्मा चली भुनाने
१०. पुरुष पुरातन की वधु, क्यों न चंचला होय?
११. एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की
गीत
०१. आमदनी अठन्नी अउ; खर्चा रुपैया
तो भैया ना पूछो, ना पूछो हाल, नतीजा ठनठन गोपाल
०२. पांच रुपैया, बारा आना, मारेगा भैया ना ना ना ना -चलती का नाम गाड़ी
८-१-२०२१

***
:अलंकार चर्चा ०९ :
यमक अलंकार
भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण-आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या व् अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग पद, सार्थक-सार्थक यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद, सार्थक-सार्थक यमक
अधरान = अधरों पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
जबलपुर, १८-९-२०१५
***
एक दोहा
लज्जा या निर्लज्जता, है मानव का बोध

समय तटस्थ सदा रहे, जैसे बाल अबोध
***

शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

मुक्तक, लघुकथा, नवगीत, पाखी, मुक्तिका, तमन्ना

नव प्रयोग
(छंद- सॉनेट सोरठा)
नमन शारदे मातु, मति दे आत्मा जगा दे।
खुद की कर पहचान, काम सभी निष्काम कर।
कोई रहे न गैर, जीवन सकल ललाम कर।।
सविता ऊषा प्रात, नव उजास मन समा दे।।

सोते बीता जन्म, माँ झकझोर जगा हमें।
अनुशासन का पाठ, भूल गए कर याद लें।
मातृभूमि पर प्राण, कर कुर्बां मुस्का सकें।।
करें प्रकृति से प्रेम, पौधारोपण कर हँसें।।

नाद अनाहद भूल, भवसागर में सिसकते।
निष्फल रहे प्रयास, बाधित हो पग भटकते।
माता! थामो बाँह, छंद सिखा दो अटकते।।

मैया! सुत नादान, बुद्धि-ज्ञान दे तार दे।
जग मतलब का मीत, जननी अविकल प्यार दे।
कर माया से मुक्त, जीवन जरा निखार दे।।
संजीव
६-१-२०२३, १०•२५
●●●
मुक्तक 
तमन्ना है तमन्ना को सकें, सुन-समझ मिलकर संग।
सुनें अशआर नज़्में चंद, बिखरे ग़ज़ल के भी रंग।।
सलिल संजीव हो पाकर सखावत, हुनर कुछ सीखे।
समझदारों की संगत के, तनिक लायक बने-दीखे।।
६-१-२०२३
***
मुक्तक
विधान : ३०वर्ण, भ य र त म न स न भ य।
*
अंबर निराला, नीलिमा में लालिमा घोले, मगन मन लीन चुप है, कुछ न बोले।
उषा भास्कर उजाला, कालिमा पी मस्त हो डोले, मनुज जग गीत नव गा, उठ अबोले।।
करे स्वागत उसी का, भाग्य जो नैना न हो मूँदे, डगर पर हो विचरता, हर सवेरे।
बहाए हँस पसीना, कामना ले काम ना छोड़े, फिसल कर हो सँभलता, सफल हो ले।
६-१-२०२१
***
२०१८ की लघुकथाएँ: २
समानाधिकार
*
"माय लार्ड! मेरे मुवक्किल पर विवाहेतर अवैध संबंध बनाने के आरोप में कड़ी से कड़ी सजा की माँग की जा रही है। उसे धर्म, नैतिकता, समाज और कानून के लिए खतरा बताया जा रहा है। मेरा निवेदन है कि अवैध संबंध एक अकेला व्यक्ति कैसे बना सकता है? संबंध बनने के लिए दो व्यक्ति चाहिए, दोनों की सहभागिता, सहमति और सहयोग जरूरी है। यदि एक की सहमति के बिना दूसरे द्वारा जबरदस्ती कर सम्बन्ध बनाया गया होता तो प्रकरण बलात्कार का होता किंतु इस प्रकरण में दोनों अलग-अलग परिवारों में अपने-अपने जीवन साथियों और बच्चों के साथ रहते हुए भी बार-बार मिलते औए दैहिक सम्बन्ध बनाते रहे - ऐसा अभियोजन पक्ष का आरोप है।
भारत का संविधान भाषा, भूषा, क्षेत्र, धर्म, जाति, व्यवसाय या लिंग किसी भी अधर पर भेद-भाव का निषेध कर समानता का अधिकार देता है। यदि पारस्परिक सहमति से विवाहेतर दैहिक संबंध बनाना अपराध है तो दोनों बराबर के अपराधी हैं, दोनों को एक सामान सजा मिलनी चाहिए अथवा दोनों को दोष मुक्त किया जाना चाहिए।अभियोजन पक्ष ने मेरे मुवक्किल के साथ विवाहेतर संबंध बनानेवाली के विरुद्ध प्रकरण दर्ज नहीं किया है, इसलिए मेरे मुवक्किल को भी सजा नहीं दी जा सकती।
वकील की दलील पर न्यायाधीश ने कहा- "वकील साहब आपने पढ़ा ही है कि भारत का संविधान एक हाथ से जो देता है उसे दूसरे हाथ से छीन लेता है। मेरे सामने जिसे अपराधी के रूप में पेश किया गया है मुझे उसका निर्णय करना है। जो अपराधी के रूप में प्रस्तुत ही नहीं किया गया है, उसका विचारण मुझे नहीं करना है। आप अपने मुवक्किल के बचाव में तर्क दे पर संभ्रांत महिला और उसके परिवार की बदनामी न हो इसलिए उसका उल्लेख न करें।"
अपराधी को सजा सुना दी गयी और सिर धुनता रह गया समानाधिकार।
**** salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८ ****
नवगीत:
.
उठो पाखी!
पढ़ो साखी
.
हवाओं में शराफत है
फ़िज़ाओं में बगावत है
दिशाओं की इनायत है
अदाओं में शराफत है
अशुभ रोको
आओ खाखी
.
अलावों में लगावट है
गलावों में थकावट है
भुलावों में बनावट है
छलावों में कसावट है
वरो शुभ नित
बाँध राखी
.
खत्म करना अदावत है
बदल देना रवायत है
ज़िंदगी गर नफासत है
दीन-दुनिया सलामत है
शहद चाहे?
पाल माखी
***
नवगीत:
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
मुक्तिका:
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता
रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता
निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?
बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता
चंदा कहलाती कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?
नागिन क्वांरी रह जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता
'सलिल' न होता तो सच मानो
बाट घाट घर बाग़ न होता
६-१-२०२५
***

बुधवार, 4 जनवरी 2023

दोहा, प्रेम

दोहा सलिला
प्रभु-प्रसाद है प्रेम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
प्रेम जगत व्यवहार है, प्रभु-प्रसाद है प्रेम।
प्रेम आत्म उद्धार है, बिना प्रेम नहिं क्षेम।।
*
मिले प्रेम को प्रेम जब, स्वर्ग बने संसार।
मिले प्रेम को प्रेम नहिं, तो संसार असार।।
*
किया न जाता; आप ही, हो जाता है प्रेम।
स्वार्थ न हो किंचित अगर, तभी प्रेम हो क्षेम।।
*
उमा अपर्णा हो गई, शिव के प्रेमाधीन।
शिवा जगत जननी हुई, जग-पितु हुए अधीन।।
*
पुष्प वाटिका साक्ष्य है, प्रेम न तनिक मलीन।
मर्यादाएँ मानकर, प्रेमी रहे अदीन।।
*
प्रेम यशोदा ने किया, पाली पर-संतान।
नर क्या आभारी हुए, उनके खुद भगवान।।
*
श्री राधा के प्रेम की, कोई नहीं मिसाल।
ईश बनाकर गोप को, खुद ही हुईं निहाल।।
*
द्रुपदसुता का प्रेम था, सचमुच ही अनमोल।
चीर बढ़ाया कृष्ण ने, सखी-साख अनमोल।।
*
भिन्न प्रेम रुक्मिणी का, बंधु-शत्रु को न्योत।
खुद को अपहृत कराया, जली प्रेम की ज्योत।।
*
गुणिजन शिशु को पढ़ाते, नित्य प्रेम का पाठ।
सब से मिलता प्रेम नित, होते उसके ठाठ।।
*

बालक चाहे टालना नित्य, नए कुछ काम।
'सीखो बच्चे प्रेम से', कहते हो यश-नाम।।
*

हो किशोर जब प्रेम से, लेता कहीं निहार।
करते निगरानी स्वजन, मिले डाँट-फटकार।।
*

युवा प्रेम का पाठ पढ़, चाहे भरे उड़ान।
खाप कतरती पर- कहे: 'ले लो दोनों जान।।'
*

क्षेम, प्रेम में हो अगर, दोनों दिल में आग।
इकतरफा हो तो 'सलिल', है जहरीला नाग।।
*

हो वयस्क तो प्रेम के, आड़े आता काम।
जले न चूल्हा जेब में, अगर नहीं हों दाम।।
*

साँप और रस्सी लगे, जब तुलसी को एक।
प्रेम वासना बन कहे, पाठ पढ़ाओ नेक।।
*

प्रौढ़ हुआ तो प्रेम की, खुसरो फूले श्वास।
कविता पड़ती सुनाना, तब बुझ पाती प्यास।।
*
लोक-नीति विपरीत जो, प्रेम करे वह नष्ट।
पृथ्वी-संयोगिता ने, भोगे अनगिन कष्ट।।
*

प्रेम-पींग केशव भरे, 'सलिल' न दम दे साथ।
'बाबा' सुन कर माथ पर, पटक रहा कवि हाथ।।
*

वृद्ध प्रेम कर राम से, वही बनाएँ काम।
रति न काम के प्रति रहे, प्रेम करे निष्काम।।
*
तन न मिले ,मन से मिले, थे शीरीं-फरहाद।
लैला-मजनूं को रखा, सदा समय ने याद।।
*
दूर सोहनी से रहा, मन में बस महिवाल।
ढोल-मारू प्रेम की, अब भी बने मिसाल।।
*
प्रेम भगत सिंह ने किया, आजादी के साथ।
चूम लिया फंदा मगर नहीं झुकाया माथ।।
*
कृष्ण-प्रेम में लीन थी, मीरा सका न मार।
पिया हलाहल हो गई, अमर विनत संसार।।
*
प्रेम सत्य से कर पिए, गरल संत सुकरात।
देहपात के बाद भी, अमर जगत-विख्यात।।
*
खोटा कहें न प्रेम के, सिक्के को कर भूल।
हैं वियोग-संयोग दो, पहलू काँटे-फूल।।
*
'लव जिहाद'; 'लिव इन' नहीं, प्रेम- वासना-भोग।
हेय-त्याज्य-निंदाजनक, हैं सामाजिक रोग।।
*
प्रेम खरा तब ही 'सलिल', जब करता है त्याग।
एक समान उसे लगे, दोनों राग-विराग।।
*
प्रेम-वासना बीच है, अंतर बहुत महीन।
पहचानो तो सुख मिले, भूलो तो हो दीन।।
*
मिल न मिलन के फर्क से, प्रेम रहे अनजान।
आत्म-प्रेम खुशबू सदृश, 'सलिल' रहे रस-खान।।
***
संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
 

सॉनेट, हयात, नूपुर, दीवार


सॉनेट
हयात

है हयात यह धूप सुनहरी
चीर कोहरा हम तक आई
झलक दिखाए ठिठक रुपहली
ठिठुर रहे हर मन को भाई

गौरैया बिन आँगन सूना
चपल गिलहरी भी गायब है
बिन खटपट सूनापन दूना
छिपा रजाई में रब-नब है

कायनात की ट्रेन खड़ी है
शीत हवाओं के सिगनल पर
सीटी मारे घड़ी, अड़ी है
कहे उठो पहुँचो मंज़िल पर

दुबकी मौत शीत से डरकर
चहक हयात रही घर-बाहर
संजीव
४-१-२०२३, ८•२२
●●●
सॉनेट
नूपुर

नूपुर की खनखन हयात है
पायल सिसक रही नूपुर बिन
नथ-बेंदी बिसरी बरात है
कंगन-चूड़ी करे न खनखन

हाई हील में जीन्स मटकती
पिज्जा थामे है हाथों में
भूल नमस्ते, हैलो करती
घुली गैरियत है बातों में

पीढ़ी नई उड़ रही ऊँचा
पर जमीन पर पकड़ खो रही
तनिक न भाता मंज़र नीचा
आँखें मूँदे ख्वाब बो रही

मान रही नूपुर को बंधन
अब न सुहाता माथे चंदन
संजीव
४-१-२०२३, ८•५७
●●●
सॉनेट
दीवार
*
क्या कहती? दीवार मनुज सुन।
पीड़ा मन की मन में तहना।
धूप-छाँव चुप हँसकर सहना।।
हो मजबूत सहारा दे तन।।
थक-रुक-चुक टिक गहे सहारा।
समय साइकिल को दुलराती।
सुना किसी को नहीं बताती।।
टिके साइकिल कह आभार।।
झाँक झरोखा दुनिया दिखती।
मेहनत अपनी किस्मत लिखती।
धूप-छाँव मिल सुख-दुख तहती।
दुनिया लीपे-पोते-रँगती।।
पर दीवार न तनिक बदलती।।
न ही किसी पर रीझ फिसलती।।
संवस
४-१-२०२२
*

श्री आदित्य नारायण पंचांग


सिगिरिया (श्रीलंका), राम, रावण

विश्व का सर्वाधिक आश्चर्यजनक पुरातात्विक स्थल सिगिरिया (श्रीलंका)  


आप दुनिया के सबसे महान पुरातात्विक स्थलों में से एक को देख रहे हैं जिसे सिगिरिया कहा जाता है जिसे रावण के महलों में से एक माना जाता है। श्रीलंका में स्थित यह अद्भुत स्थल दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है, इसीलिए इसे दुनिया का 8वां अजूबा भी कहा जाता है। अब आप सोच रहे होंगे कि इस साइट में ऐसा क्या खास है। यह वास्तव में एक विशाल अखंड चट्टान है, लगभग 660 फीट लंबा, और आप देख सकते हैं कि इसका एक सपाट शीर्ष है, जैसे किसी ने इसे एक विशाल चाकू से काटा। शीर्ष पर अविश्वसनीय खंडहर हैं जो बेहद रहस्यमय हैं।


जैसा कि आप देख सकते हैं कि यहां और वहां बहुत सी अजीबोगरीब ईंट संरचनाएं हैं और यह न केवल आगंतुकों के लिए भ्रमित करने वाली है, बल्कि पुरातत्वविद भी पूरी तरह से यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इन संरचनाओं का उपयोग किस लिए किया गया था। वे पुष्टि करते हैं कि आप जो कुछ भी देखते हैं वह कम से कम 1500 वर्ष पुराना है। लेकिन रहस्य यह नहीं है कि ये संरचनाएं क्या हैं, यह है कि इन संरचनाओं का निर्माण कैसे हुआ। प्राचीन बिल्डरों ने इन सभी ईंटों को चट्टान के शीर्ष पर ले जाने का प्रबंधन कैसे किया? बताया जाता है कि यहां कम से कम 30 लाख ईंटें मिलती हैं, लेकिन इन ईंटों को चट्टान के ऊपर बनाना असंभव होगा, यहां पर्याप्त मिट्टी उपलब्ध नहीं है। उन्हें इन ईंटों को जमीन से ले जाना होगा।

अब, वास्तव में विचित्र बात यह है कि जमीनी स्तर से कोई प्राचीन सीढ़ियां नहीं हैं जो चट्टान की चोटी तक जाती हैं। देखिए, ये सभी धातु सीढ़ियां पिछली शताब्दी में बनाई गई थीं। इन नई सीढ़ियों के बिना इस चट्टान पर चढ़ना काफी मुश्किल होगा। यह पूरी चट्टान अब विभिन्न प्रकार की सीढ़ियों से स्थापित है, यह एक अलग स्तर पर सर्पिल सीढ़ियाँ हैं। प्राचीन बिल्डरों ने बहुत सीमित सीढ़ियाँ बनाईं, लेकिन ये सीढ़ियाँ निश्चित रूप से ऊपर तक नहीं पहुँचीं। यही कारण है कि 200 साल पहले तक सिगिरिया के बारे में यहां तक ​​कि स्थानीय लोगों को भी नहीं पता था क्योंकि ऊपर तक सीढ़ियां नहीं थीं। 1980 के दशक के दौरान श्रीलंकाई सरकार ने धातु के खंभों का उपयोग करके सीढ़ियों का निर्माण किया ताकि इसे एक पर्यटक स्थल के रूप में इस्तेमाल किया जा सके और मुर्गी ने इसे एक विरासत स्थल घोषित किया।

और यही कारण है कि जोनाथन फोर्ब्स के नाम से एक अंग्रेज ने 1831 में सिगिरिया के खंडहरों की "खोज" की। तो प्रारंभिक मानव सिगिरिया के शीर्ष पर कैसे पहुंचे? आइए मान लें कि इन बहुत खड़ी, जंगली इलाकों के माध्यम से चढ़ाई करना संभव है। लेकिन जमीनी स्तर से 30 लाख ईंटें लाने के लिए आपको उचित सीढ़ियों की जरूरत जरूर पड़ेगी। इसके बिना उन्हें शीर्ष पर पहुंचाना असंभव होगा। भले ही हम यह दावा करें कि ईंटों को चट्टान के ऊपर ही किसी चमत्कारी तरीके से बनाया गया था, यहां के निर्माण कार्य में सैकड़ों श्रमिकों की आवश्यकता होती। उन्हें अपना भोजन कैसे मिला? और टूल्स के बारे में क्या? उन्होंने अपने विशाल आदिम औजारों को कैसे ढोया? वे कहाँ आराम और सोते थे?

यहाँ केवल ईंटें ही नहीं हैं, आप संगमरमर के विशाल ब्लॉक भी पा सकते हैं। दूधिया सफेद संगमरमर के पत्थर इस क्षेत्र के मूल निवासी नहीं हैं। ये ब्लॉक वास्तव में बहुत भारी होते हैं, एक कदम बनाने वाले हर पत्थर का वजन लगभग 20-30 किलोग्राम होता है। और हम यहां हजारों संगमरमर के ब्लॉक पा सकते हैं। विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि संगमरमर प्राकृतिक रूप से आस-पास कहीं नहीं पाया जाता है, तो उन्हें 660 फीट की ऊंचाई तक कैसे ले जाया गया, खासकर बिना सीढ़ियों के? इसमें पानी की एक बड़ी टंकी भी है। यदि आप इसके चारों ओर ईंटों और संगमरमर के ब्लॉकों को नजरअंदाज करते हैं, तो आप समझते हैं कि यह ग्रेनाइट से बना दुनिया का सबसे बड़ा मोनोलिथिक टैंक है। यह पत्थर के ब्लॉकों को जोड़कर नहीं बनाया गया है, इसे ग्रेनाइट को हटाकर, सॉलिड रॉक से टन और टन ग्रेनाइट को निकालकर बनाया गया है।

यह पूरा टैंक 90 फीट लंबा और 68 फीट चौड़ा और करीब 7 फीट गहरा है। इसका मतलब है कि कम से कम 3,500 टन ग्रेनाइट को हटा दिया गया है। तो आप वास्तव में वापस बैठने के लिए एक मिनट ले सकते हैं और सोच सकते हैं कि मुख्यधारा के पुरातत्वविद सही हैं या नहीं। यदि मनुष्य ग्रेनाइट पर छेनी, हथौड़े और कुल्हाड़ी जैसे आदिम औजारों का उपयोग कर रहे होते, जो कि दुनिया की सबसे कठोर चट्टानों में से एक है, तो 3,500 टन को हटाने में वर्षों लग जाते। और इतने सालों में ये मजदूर अपना पेट कैसे पालते थे, जब उनके पास जमीनी स्तर तक जाने के लिए सीढ़ियां भी नहीं हैं? मुख्यधारा की इतिहास की किताबों में कुछ मौलिक रूप से गलत है जो प्राचीन लोगों को छेनी और हथौड़े से चट्टानों को काटने की बात करती है। लेकिन यह सिर्फ एक सिद्धांत नहीं है, हमारे आंखों के सामने वास्तविक सबूत हैं। क्या यह अद्भुत नहीं है?

मंगलवार, 3 जनवरी 2023

नवगीत, दोहा मुक्तक, सॉनेट, ठंड, सरगम

सॉनेट
ठंड का नवाचार

ठंड बढ़ गई ओढ़ रजाई
कॉफी प्याला थाम हाथ में
गर्म पकौड़े खा ले भाई
गप्प मार मिल-बैठ साथ में

जला कांगड़ी सिगड़ी गुरसी
कर पंचायत हाथ ताप ले
हीटर सीटर निपट अकेला
मोबाइल संग मातम पुरसी

गरमागरम बहस टी वी की
सारमेय वक्ता भौंकेंगे
एंकर की हरकत जोकर सी
बिना बात टोकें-रेंकेंगे

आलू भटा प्याज के भजिए
खाएँ गपागप प्रभु तब भजिए
संजीव
३-१-२०२३,६•५८
जबलपुर
●●●
सॉनेट
सरगम
*
सरगम में हैं शारदा, तारें हमको मात।
सरगम से सर गम सभी, करिए रहें प्रसन्न।
ज्ञान-ध्यान में लीन हों, ईश-कृपा आसन्न।।
चित्र गुप्त दिखता नहीं, नाद सृष्टि का तात।।
कलकल-कलरव सुन मिटे, मन का सभी तनाव।
कुहुक-कुहुक कोयल करे, भ्रमर करें गुंजार।
सरगम बिन सूना लगे, सब जीवन संसार।।
सात सिंधु स्वर सात 'सा', छोड़े अमित प्रभाव।।
'रे' मत सो अब जाग जा, करनी कर हँस नेक।
'गा' वह जो मन को छुए, खुशी दे सके नेंक।
'मा' मृदु ममता-मोह मय, मायाजाल न
फेक।।
'पा' पाता-खोता विहँस, जाग्रत रखे विवेक।।
धारण करता 'धा' धरा, शेष न छोड़े टेक।।
लीक नीक 'नी' बनाता, 'सा' कहता प्रभु एक।।
संवस
३-१-२०२२
९४२५१८३२४४
***
कला संगम:
मुक्तक
नृत्य-गायन वन्दना है, प्रार्थना है, अर्चना है
मत इसे तुम बेचना परमात्म की यह साधना है
मर्त्य को क्यों करो अर्पित, ईश को अर्पित रहे यह
राग है, वैराग है, अनुराग कि शुभ कामना है
***
आस का विश्वास का हम मिल नया सूरज उगाएँ
दूरियों को दूर कर दें, हाथ हाथों से मिलाएँ
ताल के संग झूम लें हम, नाद प्राणों में बसाएँ-
पूर्ण हों हम द्वैत को कर दूर, हिल-मिल नाच-गाएँ
***
नाद-ताल में, ताल नाद में, रास लास में, लास रास में
भाव-भूमि पर, भूमि भाव पर, हास पीर में, पीर हास में
बिंदु सिंधु मिल रेखा वर्तुल, प्रीत-रीत मिल, मीत! गीत बन
खिल महकेंगे, महक खिलेंगे, नव प्रभात में, नव उजास में
***
चंचल कान्हा, चपल राधिका, नाद-ताल सम, नाच नचे
गंग-जमुन सम लहर-लहर रसलीन, न सुध-बुध द्वैत तजे
ब्रम्ह-जीव सम, हाँ-ना, ना हाँ, देखें सुर-नर वेणु बजे
नूपुर पग, पग-नूपुर, छूम छन, वर अद्वैत न तनिक लजे
***
३-१-२०१७
[श्री वीरेंद्र सिद्धराज के नृत्य पर प्रतिक्रिया]
***
एक दोहा
कथनी-करनी का नहीं, मिटा सके गर भेद
निश्चय मानें अंत में, करना होगा खेद
३-१-२०१८
नवगीत-
*
सुनों मुझे भी
कहते-कहते थका
न लेकिन सुनते हो.
सिर पर धूप
आँख में सपने
ताने-बाने बुनते हो.
*
मोह रही मन बंजारों का
खुशबू सीली गलियों की
बचे रहेंगे शब्द अगरचे
साँझी साँझ न कलियों की
झील अनबुझी
प्यास लिये तुम
तट बैठे सिर धुनते हो
*
थोड़ा लिखा समझना ज्यादा
अनुभव की सीढ़ी चढ़ना
क्यों कागज की नाव खे रहे?
चुप न रहो, सच ही कहना
खेतों ने खत लिखा
चार दिन फागुन के
क्यों तनते हो?
*
कुछ भी सहज नहीं होता है
ठहरा हुआ समय कहता
मिला चाँदनी को समेटते हुए
त्रिवर्णी शशि दहता
चंदन वन सँवरें
तम भाने लगा
विषमता सनते हो
*
खींच लिये हाशिये समय के
एक गिलास दुपहरी ले
सुना प्रखर संवाद न चेता
जन-मन सो, कनबहरी दे
निषिद्धों की गली
का नागरिक हुए
क्यों घुनते हो?
*
व्योम के उस पार जाके
छुआ मैंने आग को जब
हँस पड़े पलाश सारे
बिखर पगडंडी-सड़क पर
मूँदकर आँखें
समीक्षा-सूत्र
मिथ्या गुनते हो
***
३.१.२०१६
टीप - वर्ष २०१५ में प्रकाशित नवगीत संग्रहों के शीर्षकों को समेटती रचना।

सोमवार, 2 जनवरी 2023

सॉनेट, पद, राम सेंगर, दोहा, शिव, नवगीत, जनवरी

सॉनेट 
बसाहट
बसने की आहट आई है
दो हजार तेइस पहले दिन
हँसी-खुशी सबको भाई है
कलकल कलरव ताक धरना धिन

बसकर उजड़े नीड़ न कोई
जाग सके हर एक आत्मा
रौंदी जाए फसल न बोई
फूल-फल सके हे परमात्मा!

पर्वत नदियाँ राहें मंज़िल 
सभी जगह हो तेरी आहट
हे शंकर! आ कंकर में बस 
बस्ती बस्ती बसे बसाहट

हँसे पार्वती विघ्नेश्वर रच
नव खुशियाँ सुन सकें बुलाहट
संजीव
२-१-२०२३, ८•०६
जबलपुर 
●●●
पद
प्रभु पीड़ित की पीर हरो
दुखहर्ता है नाम तुम्हारो, सकल शोक का शमन करो
शांत रहे मन खुद से खुद ही, कह पाए कुछ धैर्य धरो
तन कर पाए जो करना वह, साहस दे कह नहीं डरो
राह दिखाओ परमपिता हे!, मुझमें अपनी शक्ति भरो
करने योग्य कर सकूँ अविचल, प्रभु! मम सिर पर हाथ धरो
२-१-२०२३
•••
***
जन्म दिवस शुभकामना 
राम सेंगर

शतवर्षी हों, दें आशीष।
नवगीतों के आप महीश।।
लिखे सत्य ही कलम हमेशा
हम कंकर हैं आप गिरीश।।

जन्म २-१-१९४५, नगला आल, सिकन्दराऊ, हाथरस उत्तर प्रदेश।
प्रकाशित कृतियाँ:
१. शेष रहने के लिए, नवगीत, १९८६, पराग प्रकाशन दिल्ली।
२. जिरह फिर कभी होगी, २००१, अभिरुचि प्रकाशन दिल्ली।
३. एक गैल अपनी भी, २००९, अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद।
४. ऊँट चल रहा है, २००९, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
५. रेत की व्यथा कथा, २०१३, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
नवगीत शतक २ तथा नवगीत अर्धशती के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर।
संपर्क: जाग्रति कॉलोनी, विनोबा वार्ड, पोस्ट जुहला, बरही रोड, कटनी ४८३५०१। चलभाष ९८९३२४९३५६।
*
शुभांजलि
*
'शेष रहने के लिए',
लिखते नहीं तुम।
रहे लिखना शेष यदि
थकते नहीं तुम।
नहीं कहते गीत 'जिरह
फिर कभी होगी'
मान्यता की चाह कर
बिकते नहीं तुम।
'एक गैल अपनी भी'
हो न जहाँ पर क्रंदन
नवगीतों के राम
तुम्हारा वंदन
*
'ऊँट चल रहा है'
नवगीत का निरंतर।
है 'रेत की व्यथा-कथा'
समय की धरोहर।
कथ्य-कथन-कहन की
अभिनव बहा त्रिवेणी
नवगीत नर्मदा का
सुनवा रहे सहज-स्वर।
सज रहे शब्द-पिंगल
मिल माथ सलिल-चंदन
***
२.१.२०१९

जनवरी
कब क्या?
*
१. ईसाई नव वर्ष।
३. सावित्री बाई फुले जयंती।
४. लुई ब्रेक जयंती।
५. परमहंस योगानंद जयंती।
१०. विश्व हिंदी दिवस।
१२. विवेकानंद / महेश योगी जयन्ती, युवा दिवस।
१३. गुरु गोबिंद सिंह जयंती।
१४. मकर संक्रांति, बीहू, पोंगल, ओणम।
१५. थल सेना दिवस, कुंभ शाही स्नान।
१९. ओशो महोत्सव।
२०. शाकंभरी पूर्णिमा।
२३. नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती।
२६. गणतंत्र दिवस।
२७. स्वामी रामानंदाचार्य जयंती।
२८. लाला लजपत राय जयंती।
३०. म. गाँधी शहीद दिवस, कुष्ठ निवारण दिवस।
३१. मैहर बाबा दिवस।
***
साहित्यकार / कलाकार:
सर्व श्री / सुश्री / श्रीमती
१. अर्चना निगम ९४२५८७६२३१
त्रिभवन कौल स्व.
राकेश भ्रमर ९४२५३२३१९५
विनोद शलभ ९२२९४३९९००
सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' ९८९३२६६०१४
डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल ९८६९०७८४८५
२. राम सेंगर ९८९३२४९३५६
राजकुमार महोबिआ ७९७४८५१८४४
राजेंद्र साहू ९८२६५०६०२५
४. शिब्बू दादा ८९८९००१३५५
८. पुष्पलता ब्योहार ०७६१ २४४८१५२
१२. आदर्श मुनि त्रिवेदी ९४२५३६२९८५
संतोष सरगम ८८१५०१५१३१
१५. अशोक झरिया ९४२५४४६०३०
१६. हिमकर श्याम ८६०३१७१७१०
२३. अशोक मिजाज ९९२६३४६७८५
२६. उमा सोनी 'कोशिश' ९८२६१९१८७१
***


***
एक दोहा
शुभ रजनी शशि से कहा,
सिंह हुआ नाराज.
किसकी शामत आ गई,
करता मेरा काज.
***
शिव वंदना : एक दोहा अनुप्रास का
*
शिशु शशि शीश शशीश पर, शुभ शशिवदनी-साथ
शोभित शशि सी शशिमुखी, मोहित शिव शशिनाथ
*
शशीश अर्थात चन्द्रमा के स्वामी शिव जी के मस्तक पर बाल चन्द्र शोभायमान है, चन्द्रवदनी चन्द्रमुखी पावती जी उनके साथ हैं जिन्हें निहारकर शिव जी मुग्ध हो रहे हैं.
*
***
नवगीत
घोंसला
*
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
आँधियाँ आयें न डरना
भीत हो,जीकर न मरना
काँपती हों डालियाँ तो
नीड तजकर नहीं उड़ना
मंज़िलें तो
फासलों को नापते
पग को मिली हैं
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
संकटों से जूझना है
हर पहेली बूझना है
कोशिशें करते रहे जो
उन्हें राहें सूझना है
ऊगती उषा
तभी जब साँझ
खुद हंसकर ढली है
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
१२-१-२०१६
***
नवगीत:
संजीव
*
खुशियों की मछली को
चिंता का बगुला
खा जाता है
.
श्वासों की नदिया में
आसों की लहरें
कूद रहीं हिरणी सी
पलभर ना ठहरें
आँख मूँद मगन
उपवासी साधक
ठग जाता है
.
पथरीले घाटों के
थाने हैं बहरे
देख अदेखा करते
आँसू-नद गहरे
एक टाँग टाँग खड़ा
शैतां, साधू बन
डट खाता है
.
श्वेत वसन नेता से
लेकिन मन काला
अंधे न्यायलय ने
सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता
अपराधी झूठा
बच जाता है
***
नवगीत
.
हाथों में मोबाइल थामे
गीध दृष्टि पगडंडी भूली
भटक न जाए
.
राजमार्ग पर जाम लगा है
कूचे-गली हुए हैं सूने
ओवन-पिज्जा का युग निर्दय
भटा कौन चूल्हे में भूने?
महानगर में सतनारायण
कौन कराये कथा तुम्हारी?
गोबर बिन गणेश का पूजन
कैसे होगा बिपिनबिहारी?
कलावती की कथा सुन रहे
लीला की लीला मन झूली
मटक न आए
.
रावण रखकर रूप राम का
करे सिया से नैन मटक्का
मक्का जाने खों जुम्मन नें
बेंच दई बीजन कीं मक्का
हक्का-बक्का खाला बेबस
बिटिया बारगर्ल बन सिसके
एड्स बाँट दूँ हर गाहक को
भट्टी अंतर्मन में दहके
ज्वार-बाजरे की मजबूरी
भाटा-ज्वार दे गए सूली
गटक न पाए
.
***
नवगीत:
.
अपनी-अपनी
मर्यादा कर तार-तार
होते प्रसन्न हम
राम बचाये
.
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय कुछ तो कहते हैं
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा रजिया-रधिया झाड़ू थामे
सड़क किनारे बैठे लोटे
बतलाते
कितने विपन्न हम?
राम बचाये
.
अमराई पर चौपालों ने फेंका क्यों तेज़ाब पूछिए?
पनघट ने खलिहानों को क्यों नाहक भेजा जेल बूझिए?
सास-बहू, भौजाई-ननदी, क्यों माँ-बेटी सखी न होतीं?
बेटी-बेटे में अंतर कर
मन से रहते
सदा खिन्न हम
राम बचाये
.
दुश्मन पर कम, करें विपक्षी पर क्यों ज्यादा प्रहार हम?
नगद-बचत की भूल सादगी चमक-दमक वरते उधार हम
मेले नौटंकी कठपुतली कजरी आल्हा फागें बिसरे
माल जा रहे माल लुटाने,
क्यों न भीड़ से
हुए भिन्न हम?
राम बचाये
.
(३०.१२.२०१४, कटनी, ८.००, दयोदय एक्सप्रेस, बी २ /१७, जयपुर-जबलपुर)

राधोपनिषद

राधोपनिषद
*
ॐ ऊर्ध्वरेता महर्षियों,
सनक आदि ने ब्रह्मा जी से
स्तुति कर पूछा- 'हे भगवन!
सर्व प्रमुख हैं कौन देवता?
शक्ति कौन सी उनमें कहिए?'

ब्रह्मा बोले - ' पुत्रों सुन लो,
किंतु किसी से कभी न कहना
है रहस्य अत्यंत गुप्त यह,
मात्र ब्रह्मज्ञानी गुरुभक्तों को
तुम यह बतला सकते हो,
कहा अन्य से, पाप लगेगा।

परमदेव श्रीकृष्ण मात्र हैं।
छह ऐश्वर्यों से भूषित वे,
गोप-गोपियों से सेवित हैं।
आराधित वृंदा देवी से,
वृंदावन के स्वामी हैं वे।

एकमात्र वे ही सर्वेश्वर,
रूप उन्हीं का नारायण हैं
जो स्वामी ब्रह्माण्डों के हैं।
कृष्ण पुरातन प्रकृति से भी
और नित्य हरि भी वे ही हैं।

आह्लादिनी संधिनी इच्छा
ज्ञान क्रियादि शक्तियाँ उनकी।
आह्लादिनी प्रमुख हैं सबसे
अन्तरंगभूता श्री राधा।
इनकी आराधना कृष्ण जी,
करते सदा इसलिए 'राधा'।

राधा गांधर्वा कहलातीं,
बृज की जो रमणियाँ सारी,
द्वारकावासी कृष्ण महिषियाँ
और रमा भी अंश इन्हीं की।
रस सागर श्रीकृष्ण-राधिका
एक, हुए दो क्रीड़ा करने।

सर्वेश्वरी, सनातन विद्या,
हैं हरि की श्री राधा रानी।
देवी अधिष्ठात्री वे ही हैं
एकमात्र कृष्ण-प्राणों की।

करें वेद स्तुति एकांत में
महिमा कह न सकूँ जीवन में,
जिस पर हों कृपालु श्रीराधा
परम धाम वह पा जाता है।

जो न जानता श्री राधा को
और कृष्ण जी को आराधे
महामूर्ख है, महामूढ़ है।
नाम राधिका जी के गातीं
श्रुतियाँ सभी निरंतर पल-पल।

राधा रम्य रमा रासेश्वरी
कृष्ण-मंत्र अधिदेव ईश्वरी
सर्वाद्या राधिका रुक्मिणी
गोपी वृंदावनविहारिणी
सर्ववन्द्या वृंदाराध्या हे!
अशेष गोपीमण्डल पूज्या
सत्या सत्यपरा सत्यभाभा
मूलप्रकृति श्रीकृष्णवल्लभा
गांधर्वा वृषभानुसुता हे!
आरभ्या राधिका परमेश्वरी
पूर्णचंद्रनिभानना पूर्णा
परात्परा हे भुक्तिमुक्तिदा!
भवव्याधिविनाशिनी जय-जय।

नाम-पाठ कर जीव मुक्त हों
श्री ब्रह्मा भगवान ने कहा।
संधिनी शक्ति-धाम विवरण सुन-
हो परिणित भूषण शैया अरु
आसन भृत्य आदि बन जाती।
मृत्यु लोक अवतार के समय
मातु-पितादि रूप बन जाती,
कारण बनती अवतारों का।

ज्ञान शक्ति क्षेत्रज्ञ शक्ति है,
इच्छा-माया शक्ति भी यही।
सत्य रजस तम जड़ बहिरंगी
ईश दृष्टि पड़ने पर करती
रचना अगणित ब्रह्माण्डों की।

माया और अविद्यारूपी
बने जीव बंधन भी यह ही।
क्रिया शक्ति यह ही कहलाती
कहते लीला शक्ति इसी को।
पढ़ें अव्रती अगर उपनिषद
यह तो व्रती आप हो जाते।

अग्नि-पवन सुत, सर्व पूत हो
राधाकृष्ण निकट हो जाते।
और जहाँ तक दृष्टि डालते
वे सबको पवित्र कर देते।

ॐ तत्सत

ऋग्वेदीय राधोपनिषद समाप्त।।
२-१-२०२३
***
राधिका छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महारौद्र , प्रति चरण मात्रा २२ मात्रा, यति १३ - ९ ।
लक्षण छंद:
सँग गोपों राधिका के / नंदसुत - ग्वाला
नाग राजा महारौद्र / कालिया काला
तेरह प्रहार नौ फणों / पर विष न बाकी
गंधर्व किन्नर सुर नरों / में कृष्ण आला
*
राधिका बाईस कला / लख कृष्ण मोहें
तेरह - नौ यति क़ृष्ण-पग / बृज गली सोहें
भक्त जाते रीझ, भय / से असुर जाते काँप
भाव-भूखे कृष्ण कण / कण जाते व्याप
राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी ने साकेत में राधिका छंद का प्रयोग किया है।
हा आर्य! भरत का भाग्य, रजोमय ही है,
उर रहते उर्मि उसे तुम्हीं ने दी है.
उस जड़ जननी का विकृत वचन तो पाला
तुमने इस जन की ओर न देखा-भाला।
***



प्रात नमन
*
मन में लिये उमंग पधारें राधे माधव
रचना सुमन विहँस स्वीकारें राधे माधव
राह दिखाएँ मातु शारदा सीख सकें कुछ
सीखें जिससे नहीं बिसारें राधे माधव
हों बसंत मंजरी सदृश पाठक रचनाएँ
दिन-दिन लेखन अधिक सुधारें राधे-माधव
तम घिर जाए तो न तनिक भी हैरां हों हम
दीपक बन दुनिया उजियारें राधे-माधव
जीतेंगे कोविंद न कोविद जीत सकेगा
जीवन की जय-जय उच्चारें राधे-माधव
***
प्राची ऊषा सूर्य मुदित राधे माधव
मलय समीरण अमल विमल राधे माधव
पंछी कलरव करते; कोयल कूक रही
गौरैया फिर फुदक रही राधे माधव
बैठ मुँडेरे कागा टेर रहा पाहुन
बनकर तुम ही आ जाओ राधे माधव
सुना बजाते बाँसुरिया; सुन पायें हम
सँग-सँग रास रचा जाओ राधे माधव
मन मंदिर में मौन न मूरत बन रहना
माखन मिसरी लुटा जाओ राधे माधव
*
२१-४-२०२०


राधा धारा प्रेम की....

*
राधा धारा प्रेम की, श्याम स्नेह-सौगात.
बरसाने में बरसती, बिन बरसे बरसात..

राधा धारा भक्ति की, कृष्ण कर्म-पर्याय.
प्रेम-समर्पण रुक्मिणी, कृष्णा चाहे न्याय.

माखनचोर चुरा रहा, चित बनकर चितचोर.
सुनते गोपी-गोपिका नित नेहिल नगमात..

जो बोया सो काटता, विषधर करिया नाग.
ग्वाल-बाल गोपाल के असहनीय आघात..

आँख चुरा मुँह फेरकर, गया दिखाकर पीठ.
नहीं बेवफा वफ़ा ने, बदल दिये हालात.

तंदुल ले त्रैलोक्य दे, कभी बढ़ाए चीर.
गीता के उपदेश में, भरे हुए ज़ज्बात..

रास रचाए वेणुधर, ले गोवर्धन हाथ,
देवराज निज सिर धुनें, पा जनगण से मात..

पट्टी बाँधी आँख पर, सच से ऑंखें फेर.
नटवर नन्दकिशोर बिन, कैसे उगे प्रभात?

सत्य नीति पथ पर चले, राग-द्वेष से दूर.
विदुर समुज्ज्वल दिवस की, कभी न होती रात..

नेह नर्मदा 'सलिल' की, लहर रचाए रास.
राधा-मीरा कूल दो, कृष्ण-कमल जलजात..

कुञ्ज गली में फिर रहा, कर मन-मंदिर वास.
हुआ साँवरा बावरा, 'सलिल' सृष्टि-विख्यात..

***









रविवार, 1 जनवरी 2023

नव वर्ष, गीत, नवगीत, बाल गीत, चित्र गुप्त, दोहा, सॉनेट, जाड़ा, अंक माहात्म्य

गीत
उजास दे
*
नवल वर्ष के
प्रथम सूर्य की
प्रथम रश्मि
पल पल उजास दे।

गूँजे गौरैया का कलरव
सलिल-धार की घटे न कलकल
पवन सुनाए सन सन सन सन
हो न किसी कोने में किलकिल
नियति अधर को
मधुर हास दे।

सोते-जगते देखें सपने
मानें-तोड़ें जग के नपने
कोशिश कर कर थक जाएँ तो
लगें राम की माला जपने
पीर दर्द सह
झट हुलास दे।

लड़-मिलकर सँग रहना आए
कोई छिटककर दूर न जाए
गले मिल सकें, हाथ मिलाएँ
नयन नयन को नयन बसाए
अधर अधर को
नवल हास दे। 
१-२-२०२३,१५•२३
•••
सॉनेट
बेधड़क

बेधड़क बात अपनी कही
कोई माने न माने सचाई
हो न जाती सुता सम पराई
संग श्वासा सी पल पल रही

पीर किसने किसी की गही?
मौज मस्ती में जग साथ था
कष्ट में झट तजा हाथ था
वेदना सब अकेले तही

रेणु सब अश्रुओं से बही
नेह की नर्मदा ना मिली
शेष है हर शिला अनधुली

माँग पूरी करी ना भरी
तुम उड़ाते भले हो हँसी
दिल में गहरे सचाई धँसी

संजीव
१-१-२०२३,४•३८
जबलपुर
●●●
सॉनेट
पग-धूल

ईश्वर! तारो दे पग-धूल
अंश तुम्हारा आया दर पर
जागो जागो जागो हरि हर
क्षमा करो मेरी सब भूल

पग मग पर चल पाते शूल
सुनकर भी अनसुना रुदन-स्वर
क्यों करते हो करुणा सागर
देख न देखी आँसू-झूल

क्या कर सकता भेंट अकिंचन?
अँजुरी में कुछ श्रद्धा-फूल
स्वीकारो यह ब्याज समूल

तरुण पथिक, हो मधुर कृपालु
आस टूटती दिखे न कूल
आकुल किंकर दो पग-धूल

संजीव
१-१-२०२३, ४•२०
जबलपुर
●●●
गीत
बिदा दो

बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
भूमिका जो मिली थी मैंने निभाई
करी तुमने अदेखी, नजरें चुराई
गिर रही है यवनिका अंतिम नमन लो
नहीं अपनी, श्वास भी होती पराई
छाँव थोड़ी धूप हमने साथ झेली
हर्ष गम से रह न पाया दूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
जब मिले थे किए थे संकल्प
लक्ष्य पाएँ तज सभी विकल्प
चल गिरे उठ बढ़े मिल साथ
साध्य ऊँचा भले साधन स्वल्प
धूल से ले फूल का नव नूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
तीन सौं पैंसठ दिवस थे साथ
हाथ में ले हाथ, उन्नत माथ
प्रयासों ने हुलासों के गीत
गाए, शासन दास जनगण नाथ
लोक से हो तंत्र अब मत दूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
जा रहा बाईस का यह साल
आ रहा तेईस करे कमाल
जमीं पर पग जमा छू आकाश
हिंद-हिंदी करे खूब धमाल
बजाओ मिल नव प्रगति का तूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
अभियान आगे बढ़ाएँ हम-आप
छुएँ मंज़िल नित्य, हर पथ माप
सत्य-शिव-सुंदर बने पाथेय
नव सृजन का हो निरंतर जाप
शत्रु-बाधा को करो झट चूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर

संजीव
३१-१२-२०२२
१६•३६, जबलपुर
●●●
कविता
*
महाकाल ने महाग्रंथ का पृष्ठ पूर्ण कर,
नए पृष्ठ पर लिखना फिर आरंभ किया है। 
रामभक्त ने राम-चरित की चर्चा करके 
आत्मसात सत-शिव करना प्रारंभ किया है। 
चरण रामकिंकर के गहकर 
बहे भक्ति मंदाकिनी कलकल। 
हो आराम हराम हमें अब 
छू ले लक्ष्य, नया झट मधुकर। 
कृष्ण-कांत की वेणु मधुर सुन
 नर सुरेश हों, सुर भू उतरें। 
इला वरद, संजीव जीव हो। 
शंभुनाथ योगेंद्र जगद्गुरु 
चंद्रभूषण अमरेंद्र सत्य निधि। 
अंजुरी मुकुल सरोज लिए हो 
करे नमन कैलाश शिखर को। 
सरला तरला, अमला विमला 
नेह नर्मदा-पवन प्रवाहित। 
अग्नि अनिल वसुधा सलिलांबर 
राम नाम की छाया पाएँ। 
नए साल में, नए हाल में, 
बढ़े राष्ट्र-अस्मिता विश्व में। 
रानी हो सब जग की हिंदी 
हिंद रश्मि की विभा निरुपमा। 
श्वास बसंती हो संगीता, 
आकांक्षा हर दिव्य पुनीता। 
निशि आलोक अरुण हँस झूमे 
श्रीधर दे संतोष-मंजरी। 
श्यामल शोभित हरि सहाय हो, 
जय प्रकाश की हो जीवन में। 
मानवता की जय जय गाएँ। 
राम नाम हर पल गुंजाएँ।। 
३१-१२-२०२२ 
●●●
अंक माहात्म्य (०-९)
*
शून्य जन्म दे सृष्टि को, सकल सृष्टि है शून्य।
जुड़-घट अंतर शून्य हो, गुणा-भाग फल शून्य।।
*
एक ईश रवि शशि गगन, भू मैं तू सिर एक।
गुणा-भाग धड़-नासिका, है अनेक में एक।।
*
दो जड़-चेतन नार-नर, कृष्ण-शुक्ल दो पक्ष।
आँख कान कर पैर दो, अधर-गाल समकक्ष।।
*
तीन देव व्रत राम त्रय, लोक काल ऋण तीन।
अग्नि दोष-गुण ताप ऋतु, धारा मामा तीन।।
*
चार धाम युग वेद रिपु, पीठ दिशाएँ चार।
वर्ण आयु पुरुषार्थ चौ, चौका चौक अचार।।
*
पाँच देव नद अंग तिथि, तत्व अमिय शर पाँच।
शील सुगंधक इन्द्रियाँ, कन्या नाड़ी साँच।।
*
छह दर्शन वेदांग ऋतु, शास्त्र पर्व रस कर्म।
षडाननी षड राग है, षड अरि-यंत्र न धर्म।।
*
सात चक्र ऋषि द्वीप स्वर, सागर पर्वत रंग।
लोक धातु उपधातु दिन, अश्व अग्नि शुभ अंग।।
*
अष्ट लक्ष्मी सिद्धि वसु, योग कंठ के दोष।
योग-राग के अंग अठ, आत्मोन्नति जयघोष।
*
नौ दुर्गा ग्रह भक्ति निधि, हवन कुंड नौ तंत्र।
साड़ी मोहे नौगजी, हार नौलखा मंत्र।।
***
सॉनेट
जाड़ा आया है
*
ठिठुर रहे हैं मूल्य पुराने, जाड़ा आया है।
हाथ तापने आदर्शों को सुलगाया हमने।
स्वार्थ साधने सुविधाओं से फुसलाया हमने।।
जनमत क्रयकर अपना जयकारा लगवाया है।।
अंधभक्ति की ओढ़ रजाई, करते खाट खड़ी।
सरहद पर संकट के बादल, संसद एक नहीं।
जंगल पर्वत नदी मिटाते, आफत है तगड़ी।।
उलटी-सीधी चालें चलते, नीयत नेक नहीं।।
नफरत के सौदागर निश-दिन, जन को बाँट रहे।
मुर्दे गड़े उखाड़ रहे, कर ऐक्य भावना नष्ट।
मिलकर चोर सिपाही को ही, नाहक डाँट रहे।।
सत्ता पाकर ऐंठ रहे, जनगण को बेहद कष्ट।।
गलत आँकड़े, झूठे वादे, दावे मनमाने।
महारोग में रैली-भाषण, करते दीवाने।।
१-१-२०२२
***
नये साल की दोहा सलिला:
*
उगते सूरज को सभी, करते सदा प्रणाम.
जाते को सब भूलते, जैसे सच बेदाम..
*
हम न काल के दास हैं, महाकाल के भक्त.
कभी समय पर क्यों चलें?, पानी अपना रक्त..
*
बिन नागा सूरज उगे, सुबह- ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
*
अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत.
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
*
संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
*
ढाई आखर पढ़ सुमिर, तज अद्वैत वर द्वैत.
मैं-तुम मिट, हम ही बचे, जब-जब खेले बैत..
*
जीते बाजी हारकर, कैसा हुआ कमाल.
'सलिल'-साधना सफल हो, सबकी अबकी साल..
*
भुला उसे जो है नहीं, जो है उसकी याद.
जीते की जय बोलकर, हो जा रे नाबाद..
*
नये साल खुशहाल रह, बिना प्याज-पेट्रोल..
मुट्ठी में समान ला, रुपये पसेरी तौल..
*
जो था भ्रष्टाचार वह, अब है शिष्टाचार.
नये साल के मूल्य नव, कर दें भव से पार..
*
भाई-भतीजावाद या, चचा-भतीजावाद.
राजनीति ने ही करी, दोनों की ईजाद..
*
प्याज कटे औ' आँख में, आँसू आयें सहर्ष.
प्रभु ऐसा भी दिन दिखा, 'सलिल' सुखद हो वर्ष..
*
जनसँख्या मंहगाई औ', भाव लगाये होड़.
कब कैसे आगे बढ़े, कौन शेष को छोड़..
*
ओलम्पिक में हो अगर, लेन-देन का खेल.
जीतें सारे पदक हम, सबको लगा नकेल..
*
पंडित-मुल्ला छोड़ते, मंदिर-मस्जिद-माँग.
कलमाडी बनवाएगा, मुर्गा देता बांग..
*
आम आदमी का कभी, हो किंचित उत्कर्ष.
तभी सार्थक हो सके, पिछला-अगला वर्ष..
*
गये साल पर साल पर, हाल रहे बेहाल.
कैसे जश्न मनायेगी. कुटिया कौन मजाल??
*
धनी अधिक धन पा रहा, निर्धन दिन-दिन दीन.
यह अपने में लीन है, वह अपने में लीन..
**************
१-१-२०२१
***
।। ॐ ।।
गीत
चित्र गुप्त है नए काल का हे माधव!
गुप्त चित्र है कर्म जाल का हे माधव!
स्नेह साधना हम कर पाएँ श्री राधे!
जीवन की जय जय गुंजायें श्री राधे!
मानव चाहे बनना भाग्य विधाता पर
स्वार्थ साधकर कहे बना जगत्राता पर
सुख-सपनों की खेती हित दुख बोता है
लेख भाल का कब पढ़ पाया हे माधव!
नेह नर्मदा निर्मल कर दो श्री राधे!
रासलीन तन्मय हों वर दो श्री राधे!
रस-लय-भाव तार दे भव से सदय रहो
शारद-रमा-उमा सुत हम हों श्री राधे!
खुद ही वादों को जुमला बता देता
सत्ता हित जिस-तिस को अपने सँग लेता
स्वार्थ साधकर कैद करे संबंधों को
न्यायोचित ठहरा छल करता हे माधव!
बंधन में निर्बंध रहें हम श्री राधे!
स्वार्थरहित संबंध वरें हम श्री राधे!
आए हैं तो जाने की तैयारी कर
खाली हाथों तारकर तरें श्री राधे!
बिसरा देता फल बिन कर्म न होता है
व्यर्थ प्रसाद चढ़ा; संशय मन बोता है
बोये शूल न फूल कभी भी उग सकते
जीने हित पल पल मरता मनु हे माधव!
निजहित तज हम सबहित साधें श्री राधे!
पर्यावरण शुद्धि आराधें श्री राधे!
प्रकृति पुत्र हों, संचय-भोग न ध्येय बने
सौ को दें फिर लें कुछ काँधे श्री राधे!
माधव तन में राधा मन हो श्री राधे!
राधा तन में माधव मन हो हे माधव!
बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में हे माधव!
हो सहिष्णु सद्भाव पथ वरें श्री राधे!
१-१-२०२०
***
बाल गीत :
ज़िंदगी के मानी
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है....
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
नव वर्ष पर नवगीत:
नया पृष्ठ
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा...
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ?
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
***
नये साल का गीत
कुछ ऐसा हो साल नया
*
कुछ ऐसा हो साल नया,
जैसा अब तक नहीं हुआ.
अमराई में मैना संग
झूमे-गाये फाग सुआ...
*
बम्बुलिया की छेड़े तान.
रात-रातभर जाग किसान.
कोई खेत न उजड़ा हो-
सूना मिले न कोई मचान.
प्यासा खुसरो रहे नहीं
गैल-गैल में मिले कुआ...
*
पनघट पर पैंजनी बजे,
बीर दिखे, भौजाई लजे.
चौपालों पर झाँझ बजा-
दास कबीरा राम भजे.
तजें सियासत राम-रहीम
देख न देखें कोई खुआ...
*
स्वर्ग करे भू का गुणगान.
मनुज देव से अधिक महान.
रसनिधि पा रसलीन 'सलिल'
हो अपना यह हिंदुस्तान.
हर दिल हो रसखान रहे
हरेक हाथ में मालपुआ...
१-१-२०११
***