दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
मंगलवार, 10 जनवरी 2023
कृष्ण और बसंत - सुनीता सिंह
सोमवार, 9 जनवरी 2023
उषादेवी मित्रा
लेख:
स्वजनों द्वारा उपेक्षित कालजयी कहानीकार उषादेवी मित्रा
गीतिका श्री
*
द्विवेदीयुगीन कहानीकार उषादेवी मित्रा का जन्म सन् १८९७ में जबलपुर में हुआ था। वे रवींद्र नाथ टैगोर की पोती और प्रसिद्ध बांगला लेखक सत्येंद्र नाथ दत्त की भांजी थीं। उनके पिता हरिश्चंद्र दत्त प्रसिद्ध वकील तथा माता सरोजिनी दत्त गृहणी थीं। लगभग १४ वर्ष की किशोरावस्था में आपका विवाह क्षितिज चंद्र मित्रा से हुआ। क्षितिज चंद्र जी ने विदेश से इलक्ट्रोनिक इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा प्राप्त की। दुर्भाग्यवश कुछ वर्षों के अंतराल में अल्पायु पुत्र, बहिन, भाई तथा पति की मृत्यु ने ऊषा जी के जीवन को शोकाकुल कर दिया। उन्होंने अत्यंत धैर्य के साथ विधि के विधान का सामना कर पति के निधन के समय गर्भ में पल रही पुत्री को १९१९ में जन्म दिया। कलकत्ता और शांति निकेतन में कुछ वर्ष बिताकर उन्होंने संस्कृत सीखी। एक के बाद एक दुखद घटनाओं को सहते सहते वे रुग्ण रहने लगीं पर साहस के साथ पुत्री बुलबुल को डॉक्टरी की उच्च शिक्षा दिलाई।
बांगला भाषा-भाषी होते हुए भी आपने हिंदी-लेखन को अपना साहित्य-कर्म का क्षेत्र चुना। लेखन आपके लिए वैयक्तिक दुखों पर जिजीविषा की जय जयकार करने का माध्यम बन गया। आपने जिंदगी के मायने लेखन में ही खोजे। आपकी प्रमुख कृतियाँ ‘वचन का मोल’, ‘प्रिया', ‘नष्ट नीड़', ‘जीवन की मुस्कान", और 'सोहनी' नामक उपन्यासों के अतिरिक्त 'आँधी के छंद', 'महावर’, 'नीम चमेली’, 'मेघ मल्लार’, ‘रागिनी’, 'सांध्य पूर्वी' और ‘रात की रानी' आदि हैं। अपनी रचनाओं में उन्होंने साहसपूर्वक धार्मिक रूढ़ियों का विरोध और नारी शोषण का चित्रण और विरोध किया। वे सम सामायिक राजनीति और स्वतंत्रता आंदोलनों से भी प्रभावित रहीं। उन्ही रचनाओं में अशिक्षित, शिक्षित, विवाहिता विधवा, शोषित तथा संघर्षशील स्त्रियों का जीवंत चित्रण है। 'प्रथम छाया' तथा 'वह कौन था' कहानियों में संगीत की पृष्ठभूमि उनके अपनी अभिरुचि से जुड़ी है। 'देवदासी' में धार्मिक कुरीति पर प्रहार है। 'खिन्न पिपासा', 'चातक', 'मन का यौवन' तथा 'समझौता' जैसी कहानियों में नारी अस्मिता का संघर्ष दृष्टव्य है। उपन्यास 'जीवन की मुस्कान' में वैश्या समस्या को उठाया गया है। उपन्यास 'पिया' में स्त्री-पुरुष समानता को समाज हेतु आवश्यक बताया गया है।
उषादेवी मित्रा हिंदी कथा साहित्य के आरंभिक दौर की एक महत्वपूर्ण लेखिका हैं, मात्र इसलिए नहीं कि उन्होंने अपने समकालीनों से परिमाण मे अधिक लिखा है बल्कि इसलिये कि वह् कहानी लेखन की युगीन मुख्यधारा से अलग और आज के विमर्श में रेखांकित किये जाने हेतु आवश्यक हैं। उनकी कहानियाँ भावुकता के द्वन्द्व से विलग नहीं है, न तो कथ्य के स्तर पर और न ही भाषा के स्तर पर पर फिर भी वे इस दृष्टि से अलग हैं कि उनमें स्त्री की नई सोच की आहट स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती है।
चार पृष्ठों की एक छोटी-सी कहानी 'भूल' में 'हरप्रसाद पांडेय की मँझली पुत्रवधू सुप्रभा जैसी सहनशील कर्मिष्ठ नारी' के वैधव्य की करुण कथा है जो एकादशी के व्रत में मारे ज्वर के गला तर करने के लिये महरी के हाथ का पानी पीकर अपना धरम बिगाड़ लेती है। महरी से पूछे जाने पर कि 'तूने जान-बूझकर क्यों बहू का धरम बिगाड़ा?, उसका उत्तर है-'वह मर जो रही थी। पानी-पानी करके तो उसकी दम निकली जा रही थी। तुम्हारे धरम से मेरा धरम लाख गुना अच्छा।' अब प्रायश्चित की बारी है। सुप्रभा का प्रश्न है- 'क्यों, मेरा अपराध क्या है? मैं प्रायश्चित न करूँगी।' सुप्रभा स्वयं को अपराधी नहीं मानती। इसके बाद वह 'वह पूजा-पाठ छोड़ देती है, श्रंगार करती है, एक कहो तो हजार सुनाती है। जो एक दिन बिल्ली जैसी दबी रहती थी, वह शेर हो जाती है। कहानी के आखिरी हिस्से में सुप्रभा और दिवाली छुट्टी में अपने पति किशोर के साथ आई उसकी देवरानी दयारानी का संवाद है जिसमें एक प्रश्न उभरता है- 'क्या भूल को भूल कभी जीत सकती है? कहानी यहीं खत्म होती है, इस युगीन प्रश्न के साथ जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है। इसे उहापोह या दुचित्तापन का प्रश्न भी कह सकते हैं। यह संयोग नहीं है कि हिंदी कहानी में यह प्रश्न बार-बार दोहराया जाता रहा है। नई कहानी और उसके बाद की कहानी में भी यह प्रश्न अनुपस्थित नहीं है।इस लिहाज से उषा देवी मित्रा की यह छोटी-सी कहानी को वास्तव में एक बड़ी और विशिष्ट कहानी है जो लिखे जाने के सौ वर्षों बाद भी प्रासंगिक है।
उषा जी की कहानी कला की उनके समकालिक महिला कहानीकारों से तुलना की जाए तो सबकी अलग-अलग विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं। शिवरानी देवी और सुभद्रा कुमारी चौहान में दृष्टिगत उदारता और वैचारिक अस्मिता के साथ निर्भीकता और दृढ़ता उनके लेखकीय व्यक्तित्व में जुझारूपन का आयाम ही नहीं जोड़ती, बल्कि उन्हें समकालीन रचनाकारों से भिन्न और विशेष भी बनाती है। ऊषादेवी मित्रा में 'टुकड़ा-टुकड़ा' ये सभी विशेषताएँ हैं, लेकिन एकान्विति न होने के कारण स्त्री मुद्दों पर क्षणिक प्रतिक्रिया व्यक्त करने के अतिरिक्त वे कोई ठोस वैचारिक आधार नहीं देतीं। ऊषादेवी मित्रा द्विविधाग्रस्त प्रतीत होती हैं। गाँधीवादी विचारधारा को व्यावहारिक रूप देने की बाध्यता में स्त्रीत्व की पारंपरिक छवि की प्रतिष्ठा या स्त्री के साथ होने वाले न्याय को उद्घाटित करने की लेखकीय प्रतिबद्धता दोनों ध्रुवों को, वे साथ-साथ लेकर चलना चाहती हैं। कहीं-कहीं बेहद प्रखरता एवं दृढ़ता के साथ परंपरा का विरोध करते हुए स्त्री को नए आलोक में देखने का आग्रह करती हैं और सदियों से चली आ रही व्यवस्थाओं/रूढ़ियों को अमान्य भी कर देती हैं, किंतु ऄपनी विद्रोही मुद्रा की पैनी धार बनाए नहीं रख पातीं। बीच राह में भरभरा कर सती की प्रतिष्ठा करते हुए ऄपनी ही वैचारिकता का विलोम रचने लगती हैं। ऊषादेवी मित्रा भावना की तरलता और बौद्धिकता की तीक्ष्णता को अंत तक सम्मिलित नहीं रखतीं, तेल और पानी की तरह दोनों का ऄलग-ऄलग स्वतन्त्र वजूद बनाए रखती हैं। उनकी रचनात्मकता या तोबौद्धिक कसरत बन कर रह जाती है या भावुकता का सैलाब। इसका कारण संभवत:, तात्कालिक बंग समाज में विधवा स्त्री की सामाजिक शोचनीय स्थिति है, जिसमें वे न केवल स्वयं साहसपूर्वज जी रही थीं अपितु अपनी एक मात्र संतान, पुत्री बुलबुल का भविष्य भी गढ़ रही थीं।
अपनी कृति 'सांध्य पूर्वी' पर आपको अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 'सेकसरिया पुरस्कार' प्रदान किया गया था। मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के जबलपुर अधिवेशन में आपकी साहित्य-सेवाओं के लिए मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारा आपका अभिनंदन किया गया था। आप नागपुर रेडियो की परामर्शदात्री समिति की सदस्या होने के साथ-साथ नगर की अनेक सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़ी थीं। ''ऊषा देवी मित्रा के कथा साहित्य में नर जीवन के बदलते स्वरूप'' पर संत थॉमस कॉलेज पाला की छात्रा प्रीति आर. ने वर्ष २०१४ में शोध कार्य किया है किन्तु उनके गृह नगर रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय ने उनके साहित्य की पूरी तरह उपेक्षा की।
ऊषा देवी मित्रा का निधन ७० वर्ष की आयु में ९ सितम्बर सन् १९६६ को हुआ। विडंबना है कि मृत्यु से पूर्व अपनी सुपुत्री डॉ• बुलबुल चौधरी से अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त करते हुए आपने कहा था, “मेरी सारी पुस्तकें मेरी चिता पर मेरे साथ जला दी जाएँ। मेरी शवयात्रा में शास्त्रीय संगीत निनादित हो।” जिस लेखिका ने ५० वर्ष वैधव्य में गुजारकर निरंतर साहित्य-सृजन करके हिंदी की सेवा की, जिसकी लेखन-कला की सराहना प्रेमचंद ने की तथा जिससे मिलने के लिए प्रेमचंद खुद जबलपुर आए, वह अपनी चिता के साथ अपनी रचनाओं को जलाने की इच्छा व्यक्त करे, इसकी पृष्ठभूमि में स्वजनों और परिजनों से मिला घनीभूत अवसाद और उपेक्षा ही था।
*
संपर्क - द्वारा श्री प्रभात श्रीवास्तव, महाजनी वार्ड, नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश।
नाचा, नाथ संप्रदाय, साबर मंत्र, नवगीत, तसलीस, सूरज
रविवार, 8 जनवरी 2023
सॉनेट, भारत, गीत, यमक अलंकार
तिल का ताड़
*
तिल का ताड़ बना रहे, भाँति-भाँति से लोग।
अघटित की संभावना, क्षुद्र चुनावी लाभ।
बौना खुद ओढ़कर, कहा न हो अजिताभ।।
नफरत फैला समझते, साध रहे हो योग।।
लोकतंत्र में लोक से, दूरी, भय, संदेह।
जन नेता जन से रखें, दूरी मन भय पाल।
गन के साये सिसकता, है गणतंत्र न ढाल।।
प्रजातंत्र की प्रजा को, करते महध अगेह।।
निकल मनोबल अहं का, बाना लेता धार।
निज कमियों का कर रहा, ढोलक पीट प्रचार।
जन को लांछित कर रहे, है न कहीं आधार।
भय का भूत डरा रहा, दिखे सामने हार।।
सत्ता हित बनिए नहीं, आप शेर से स्यार।।
जन मत हेतु न कीजिए, नौटंकी बेकार।।
८-१-२०२२
*
भारत की माटी
*
जड़ को पोषण देकर
नित चैतन्य बनाती।
रचे बीज से सृष्टि
नए अंकुर उपजाति।
पाल-पोसकर, सीखा-पढ़ाती।
पुरुषार्थी को उठा धरा से
पीठ ठोंक, हौसला बढ़ाती।
नील गगन तक हँस पहुँचाती।
किन्तु स्वयं कुछ पाने-लेने
या बटोरने की इच्छा से
मुक्त वीतरागी-त्यागी है।
*
सुख-दुःख,
धूप-छाँव हँस सहती।
पीड़ा मन की
कभी न कहती।
सत्कर्मों पर हर्षित होती।
दुष्कर्मों पर धीरज खोती।
सबकी खातिर
अपनी ही छाती पर
हल बक्खर चलवाती,
फसलें बोती।
*
कभी कोइ अपनी जड़ या पग
जमा न पाए।
आसमान से गर गिर जाए।
तो उसको
दामन में अपने लपक छिपाती,
पीठ ठोंक हौसला बढ़ाती।
निज संतति की अक्षमता पर
ग़मगीं होती, राह दिखाती।
मरा-मरा से राम सिखाती।
इंसानों क्या भगवानो की भी
मैया है भारत की माटी।
***
गीत
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता सो बीता
अब न हास-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
सेह-स्वेद-श्रम हो आराध्य अब
पूँजी होगी महज माध्य अब
श्रम पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम
मिल काटेंगे तम की कारा
उजियारे के हों पाव बारा
गिर उठ बढ़कर मैदां मारा
दस दिश में गूँजे जयकारा।
कठिनाई में संकल्पों का
कोशिश कर नव हास , लिखें हम
आज नया इतिहास लिखें हम।
८-१-२०२२
***
मनरंजन
मुहावरों ,लोकोक्तियों, गीतों में धन
*
०१. टके के तीन
०२. कौड़ी के मोल
०३. दौलत के दीवाने
०४. लछमी सी बहू
०५. गृहलक्ष्मी
०६. नौ नगद न तरह उधार
०७. कौड़ी-कौड़ी को मोहताज
०८. बाप भला न भैया, सबसे भला रुपैया
०९. घर में नईंयाँ दाने, अम्मा चली भुनाने
१०. पुरुष पुरातन की वधु, क्यों न चंचला होय?
११. एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की
गीत
०१. आमदनी अठन्नी अउ; खर्चा रुपैया
तो भैया ना पूछो, ना पूछो हाल, नतीजा ठनठन गोपाल
०२. पांच रुपैया, बारा आना, मारेगा भैया ना ना ना ना -चलती का नाम गाड़ी
८-१-२०२१
***
:अलंकार चर्चा ०९ :
यमक अलंकार
भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण-आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या व् अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग पद, सार्थक-सार्थक यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद, सार्थक-सार्थक यमक
अधरान = अधरों पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
जबलपुर, १८-९-२०१५
***
एक दोहा
लज्जा या निर्लज्जता, है मानव का बोध
समय तटस्थ सदा रहे, जैसे बाल अबोध
***
शुक्रवार, 6 जनवरी 2023
मुक्तक, लघुकथा, नवगीत, पाखी, मुक्तिका, तमन्ना
बुधवार, 4 जनवरी 2023
दोहा, प्रेम
प्रभु-प्रसाद है प्रेम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
प्रेम जगत व्यवहार है, प्रभु-प्रसाद है प्रेम।
प्रेम आत्म उद्धार है, बिना प्रेम नहिं क्षेम।।
*
मिले प्रेम को प्रेम जब, स्वर्ग बने संसार।
मिले प्रेम को प्रेम नहिं, तो संसार असार।।
*
किया न जाता; आप ही, हो जाता है प्रेम।
स्वार्थ न हो किंचित अगर, तभी प्रेम हो क्षेम।।
*
उमा अपर्णा हो गई, शिव के प्रेमाधीन।
शिवा जगत जननी हुई, जग-पितु हुए अधीन।।
*
पुष्प वाटिका साक्ष्य है, प्रेम न तनिक मलीन।
मर्यादाएँ मानकर, प्रेमी रहे अदीन।।
*
प्रेम यशोदा ने किया, पाली पर-संतान।
नर क्या आभारी हुए, उनके खुद भगवान।।
*
श्री राधा के प्रेम की, कोई नहीं मिसाल।
ईश बनाकर गोप को, खुद ही हुईं निहाल।।
*
द्रुपदसुता का प्रेम था, सचमुच ही अनमोल।
चीर बढ़ाया कृष्ण ने, सखी-साख अनमोल।।
*
भिन्न प्रेम रुक्मिणी का, बंधु-शत्रु को न्योत।
खुद को अपहृत कराया, जली प्रेम की ज्योत।।
*
गुणिजन शिशु को पढ़ाते, नित्य प्रेम का पाठ।
सब से मिलता प्रेम नित, होते उसके ठाठ।।
*
बालक चाहे टालना नित्य, नए कुछ काम।
'सीखो बच्चे प्रेम से', कहते हो यश-नाम।।
*
हो किशोर जब प्रेम से, लेता कहीं निहार।
करते निगरानी स्वजन, मिले डाँट-फटकार।।
*
युवा प्रेम का पाठ पढ़, चाहे भरे उड़ान।
खाप कतरती पर- कहे: 'ले लो दोनों जान।।'
*
क्षेम, प्रेम में हो अगर, दोनों दिल में आग।
इकतरफा हो तो 'सलिल', है जहरीला नाग।।
*
हो वयस्क तो प्रेम के, आड़े आता काम।
जले न चूल्हा जेब में, अगर नहीं हों दाम।।
*
साँप और रस्सी लगे, जब तुलसी को एक।
प्रेम वासना बन कहे, पाठ पढ़ाओ नेक।।
*
प्रौढ़ हुआ तो प्रेम की, खुसरो फूले श्वास।
कविता पड़ती सुनाना, तब बुझ पाती प्यास।।
*
लोक-नीति विपरीत जो, प्रेम करे वह नष्ट।
पृथ्वी-संयोगिता ने, भोगे अनगिन कष्ट।।
*
प्रेम-पींग केशव भरे, 'सलिल' न दम दे साथ।
'बाबा' सुन कर माथ पर, पटक रहा कवि हाथ।।
*
वृद्ध प्रेम कर राम से, वही बनाएँ काम।
रति न काम के प्रति रहे, प्रेम करे निष्काम।।
तन न मिले ,मन से मिले, थे शीरीं-फरहाद।
लैला-मजनूं को रखा, सदा समय ने याद।।
दूर सोहनी से रहा, मन में बस महिवाल।
ढोल-मारू प्रेम की, अब भी बने मिसाल।।
*
प्रेम भगत सिंह ने किया, आजादी के साथ।
चूम लिया फंदा मगर नहीं झुकाया माथ।।
*
कृष्ण-प्रेम में लीन थी, मीरा सका न मार।
पिया हलाहल हो गई, अमर विनत संसार।।
*
प्रेम सत्य से कर पिए, गरल संत सुकरात।
देहपात के बाद भी, अमर जगत-विख्यात।।
*
खोटा कहें न प्रेम के, सिक्के को कर भूल।
हैं वियोग-संयोग दो, पहलू काँटे-फूल।।
*
'लव जिहाद'; 'लिव इन' नहीं, प्रेम- वासना-भोग।
हेय-त्याज्य-निंदाजनक, हैं सामाजिक रोग।।
*
प्रेम खरा तब ही 'सलिल', जब करता है त्याग।
एक समान उसे लगे, दोनों राग-विराग।।
*
प्रेम-वासना बीच है, अंतर बहुत महीन।
पहचानो तो सुख मिले, भूलो तो हो दीन।।
*
मिल न मिलन के फर्क से, प्रेम रहे अनजान।
आत्म-प्रेम खुशबू सदृश, 'सलिल' रहे रस-खान।।
***
संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
सॉनेट, हयात, नूपुर, दीवार
हयात
●
है हयात यह धूप सुनहरी
चीर कोहरा हम तक आई
झलक दिखाए ठिठक रुपहली
ठिठुर रहे हर मन को भाई
गौरैया बिन आँगन सूना
चपल गिलहरी भी गायब है
बिन खटपट सूनापन दूना
छिपा रजाई में रब-नब है
कायनात की ट्रेन खड़ी है
शीत हवाओं के सिगनल पर
सीटी मारे घड़ी, अड़ी है
कहे उठो पहुँचो मंज़िल पर
दुबकी मौत शीत से डरकर
चहक हयात रही घर-बाहर
संजीव
४-१-२०२३, ८•२२
●●●
सॉनेट
नूपुर
●
नूपुर की खनखन हयात है
पायल सिसक रही नूपुर बिन
नथ-बेंदी बिसरी बरात है
कंगन-चूड़ी करे न खनखन
हाई हील में जीन्स मटकती
पिज्जा थामे है हाथों में
भूल नमस्ते, हैलो करती
घुली गैरियत है बातों में
पीढ़ी नई उड़ रही ऊँचा
पर जमीन पर पकड़ खो रही
तनिक न भाता मंज़र नीचा
आँखें मूँदे ख्वाब बो रही
मान रही नूपुर को बंधन
अब न सुहाता माथे चंदन
संजीव
४-१-२०२३, ८•५७
●●●
सॉनेट
दीवार
*
क्या कहती? दीवार मनुज सुन।
पीड़ा मन की मन में तहना।
धूप-छाँव चुप हँसकर सहना।।
हो मजबूत सहारा दे तन।।
थक-रुक-चुक टिक गहे सहारा।
समय साइकिल को दुलराती।
सुना किसी को नहीं बताती।।
टिके साइकिल कह आभार।।
झाँक झरोखा दुनिया दिखती।
मेहनत अपनी किस्मत लिखती।
धूप-छाँव मिल सुख-दुख तहती।
दुनिया लीपे-पोते-रँगती।।
पर दीवार न तनिक बदलती।।
न ही किसी पर रीझ फिसलती।।
संवस
४-१-२०२२
*
श्री आदित्य नारायण पंचांग
सिगिरिया (श्रीलंका), राम, रावण
मंगलवार, 3 जनवरी 2023
नवगीत, दोहा मुक्तक, सॉनेट, ठंड, सरगम
ठंड का नवाचार
●
ठंड बढ़ गई ओढ़ रजाई
कॉफी प्याला थाम हाथ में
गर्म पकौड़े खा ले भाई
गप्प मार मिल-बैठ साथ में
जला कांगड़ी सिगड़ी गुरसी
कर पंचायत हाथ ताप ले
हीटर सीटर निपट अकेला
मोबाइल संग मातम पुरसी
गरमागरम बहस टी वी की
सारमेय वक्ता भौंकेंगे
एंकर की हरकत जोकर सी
बिना बात टोकें-रेंकेंगे
आलू भटा प्याज के भजिए
खाएँ गपागप प्रभु तब भजिए
संजीव
३-१-२०२३,६•५८
जबलपुर
●●●
सॉनेट
सरगम
*
सरगम में हैं शारदा, तारें हमको मात।
सरगम से सर गम सभी, करिए रहें प्रसन्न।
ज्ञान-ध्यान में लीन हों, ईश-कृपा आसन्न।।
चित्र गुप्त दिखता नहीं, नाद सृष्टि का तात।।
कलकल-कलरव सुन मिटे, मन का सभी तनाव।
कुहुक-कुहुक कोयल करे, भ्रमर करें गुंजार।
सरगम बिन सूना लगे, सब जीवन संसार।।
सात सिंधु स्वर सात 'सा', छोड़े अमित प्रभाव।।
'रे' मत सो अब जाग जा, करनी कर हँस नेक।
'गा' वह जो मन को छुए, खुशी दे सके नेंक।
'मा' मृदु ममता-मोह मय, मायाजाल न
फेक।।
'पा' पाता-खोता विहँस, जाग्रत रखे विवेक।।
धारण करता 'धा' धरा, शेष न छोड़े टेक।।
लीक नीक 'नी' बनाता, 'सा' कहता प्रभु एक।।
संवस
३-१-२०२२
९४२५१८३२४४
***
कला संगम:
मुक्तक
नृत्य-गायन वन्दना है, प्रार्थना है, अर्चना है
मत इसे तुम बेचना परमात्म की यह साधना है
मर्त्य को क्यों करो अर्पित, ईश को अर्पित रहे यह
राग है, वैराग है, अनुराग कि शुभ कामना है
***
आस का विश्वास का हम मिल नया सूरज उगाएँ
दूरियों को दूर कर दें, हाथ हाथों से मिलाएँ
ताल के संग झूम लें हम, नाद प्राणों में बसाएँ-
पूर्ण हों हम द्वैत को कर दूर, हिल-मिल नाच-गाएँ
***
नाद-ताल में, ताल नाद में, रास लास में, लास रास में
भाव-भूमि पर, भूमि भाव पर, हास पीर में, पीर हास में
बिंदु सिंधु मिल रेखा वर्तुल, प्रीत-रीत मिल, मीत! गीत बन
खिल महकेंगे, महक खिलेंगे, नव प्रभात में, नव उजास में
***
चंचल कान्हा, चपल राधिका, नाद-ताल सम, नाच नचे
गंग-जमुन सम लहर-लहर रसलीन, न सुध-बुध द्वैत तजे
ब्रम्ह-जीव सम, हाँ-ना, ना हाँ, देखें सुर-नर वेणु बजे
नूपुर पग, पग-नूपुर, छूम छन, वर अद्वैत न तनिक लजे
***
३-१-२०१७
[श्री वीरेंद्र सिद्धराज के नृत्य पर प्रतिक्रिया]
***
एक दोहा
कथनी-करनी का नहीं, मिटा सके गर भेद
निश्चय मानें अंत में, करना होगा खेद
३-१-२०१८
नवगीत-
*
सुनों मुझे भी
कहते-कहते थका
न लेकिन सुनते हो.
सिर पर धूप
आँख में सपने
ताने-बाने बुनते हो.
*
मोह रही मन बंजारों का
खुशबू सीली गलियों की
बचे रहेंगे शब्द अगरचे
साँझी साँझ न कलियों की
झील अनबुझी
प्यास लिये तुम
तट बैठे सिर धुनते हो
*
थोड़ा लिखा समझना ज्यादा
अनुभव की सीढ़ी चढ़ना
क्यों कागज की नाव खे रहे?
चुप न रहो, सच ही कहना
खेतों ने खत लिखा
चार दिन फागुन के
क्यों तनते हो?
*
कुछ भी सहज नहीं होता है
ठहरा हुआ समय कहता
मिला चाँदनी को समेटते हुए
त्रिवर्णी शशि दहता
चंदन वन सँवरें
तम भाने लगा
विषमता सनते हो
*
खींच लिये हाशिये समय के
एक गिलास दुपहरी ले
सुना प्रखर संवाद न चेता
जन-मन सो, कनबहरी दे
निषिद्धों की गली
का नागरिक हुए
क्यों घुनते हो?
*
व्योम के उस पार जाके
छुआ मैंने आग को जब
हँस पड़े पलाश सारे
बिखर पगडंडी-सड़क पर
मूँदकर आँखें
समीक्षा-सूत्र
मिथ्या गुनते हो
***
३.१.२०१६
टीप - वर्ष २०१५ में प्रकाशित नवगीत संग्रहों के शीर्षकों को समेटती रचना।
सोमवार, 2 जनवरी 2023
सॉनेट, पद, राम सेंगर, दोहा, शिव, नवगीत, जनवरी
जन्म दिवस शुभकामना
नवगीतों के आप महीश।।
लिखे सत्य ही कलम हमेशा
हम कंकर हैं आप गिरीश।।
प्रकाशित कृतियाँ:
१. शेष रहने के लिए, नवगीत, १९८६, पराग प्रकाशन दिल्ली।
२. जिरह फिर कभी होगी, २००१, अभिरुचि प्रकाशन दिल्ली।
३. एक गैल अपनी भी, २००९, अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद।
४. ऊँट चल रहा है, २००९, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
५. रेत की व्यथा कथा, २०१३, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
नवगीत शतक २ तथा नवगीत अर्धशती के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर।
संपर्क: जाग्रति कॉलोनी, विनोबा वार्ड, पोस्ट जुहला, बरही रोड, कटनी ४८३५०१। चलभाष ९८९३२४९३५६।
*
शुभांजलि
*
'शेष रहने के लिए',
लिखते नहीं तुम।
रहे लिखना शेष यदि
थकते नहीं तुम।
नहीं कहते गीत 'जिरह
फिर कभी होगी'
मान्यता की चाह कर
बिकते नहीं तुम।
'एक गैल अपनी भी'
हो न जहाँ पर क्रंदन
नवगीतों के राम
तुम्हारा वंदन
*
'ऊँट चल रहा है'
नवगीत का निरंतर।
है 'रेत की व्यथा-कथा'
समय की धरोहर।
कथ्य-कथन-कहन की
अभिनव बहा त्रिवेणी
नवगीत नर्मदा का
सुनवा रहे सहज-स्वर।
सज रहे शब्द-पिंगल
मिल माथ सलिल-चंदन
***
२.१.२०१९
ॐ
जनवरी
कब क्या?
*
१. ईसाई नव वर्ष।
३. सावित्री बाई फुले जयंती।
४. लुई ब्रेक जयंती।
५. परमहंस योगानंद जयंती।
१०. विश्व हिंदी दिवस।
१२. विवेकानंद / महेश योगी जयन्ती, युवा दिवस।
१३. गुरु गोबिंद सिंह जयंती।
१४. मकर संक्रांति, बीहू, पोंगल, ओणम।
१५. थल सेना दिवस, कुंभ शाही स्नान।
१९. ओशो महोत्सव।
२०. शाकंभरी पूर्णिमा।
२३. नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती।
२६. गणतंत्र दिवस।
२७. स्वामी रामानंदाचार्य जयंती।
२८. लाला लजपत राय जयंती।
३०. म. गाँधी शहीद दिवस, कुष्ठ निवारण दिवस।
३१. मैहर बाबा दिवस।
***
साहित्यकार / कलाकार:
सर्व श्री / सुश्री / श्रीमती
१. अर्चना निगम ९४२५८७६२३१
त्रिभवन कौल स्व.
राकेश भ्रमर ९४२५३२३१९५
विनोद शलभ ९२२९४३९९००
सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' ९८९३२६६०१४
डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल ९८६९०७८४८५
२. राम सेंगर ९८९३२४९३५६
राजकुमार महोबिआ ७९७४८५१८४४
राजेंद्र साहू ९८२६५०६०२५
४. शिब्बू दादा ८९८९००१३५५
८. पुष्पलता ब्योहार ०७६१ २४४८१५२
१२. आदर्श मुनि त्रिवेदी ९४२५३६२९८५
संतोष सरगम ८८१५०१५१३१
१५. अशोक झरिया ९४२५४४६०३०
१६. हिमकर श्याम ८६०३१७१७१०
२३. अशोक मिजाज ९९२६३४६७८५
२६. उमा सोनी 'कोशिश' ९८२६१९१८७१
***
***
एक दोहा
शुभ रजनी शशि से कहा,
सिंह हुआ नाराज.
किसकी शामत आ गई,
करता मेरा काज.
***
शिव वंदना : एक दोहा अनुप्रास का
*
शिशु शशि शीश शशीश पर, शुभ शशिवदनी-साथ
शोभित शशि सी शशिमुखी, मोहित शिव शशिनाथ
*
शशीश अर्थात चन्द्रमा के स्वामी शिव जी के मस्तक पर बाल चन्द्र शोभायमान है, चन्द्रवदनी चन्द्रमुखी पावती जी उनके साथ हैं जिन्हें निहारकर शिव जी मुग्ध हो रहे हैं.
*
***
नवगीत
घोंसला
*
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
आँधियाँ आयें न डरना
भीत हो,जीकर न मरना
काँपती हों डालियाँ तो
नीड तजकर नहीं उड़ना
मंज़िलें तो
फासलों को नापते
पग को मिली हैं
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
संकटों से जूझना है
हर पहेली बूझना है
कोशिशें करते रहे जो
उन्हें राहें सूझना है
ऊगती उषा
तभी जब साँझ
खुद हंसकर ढली है
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
१२-१-२०१६
***
नवगीत:
संजीव
*
खुशियों की मछली को
चिंता का बगुला
खा जाता है
.
श्वासों की नदिया में
आसों की लहरें
कूद रहीं हिरणी सी
पलभर ना ठहरें
आँख मूँद मगन
उपवासी साधक
ठग जाता है
.
पथरीले घाटों के
थाने हैं बहरे
देख अदेखा करते
आँसू-नद गहरे
एक टाँग टाँग खड़ा
शैतां, साधू बन
डट खाता है
.
श्वेत वसन नेता से
लेकिन मन काला
अंधे न्यायलय ने
सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता
अपराधी झूठा
बच जाता है
***
नवगीत
.
हाथों में मोबाइल थामे
गीध दृष्टि पगडंडी भूली
भटक न जाए
.
राजमार्ग पर जाम लगा है
कूचे-गली हुए हैं सूने
ओवन-पिज्जा का युग निर्दय
भटा कौन चूल्हे में भूने?
महानगर में सतनारायण
कौन कराये कथा तुम्हारी?
गोबर बिन गणेश का पूजन
कैसे होगा बिपिनबिहारी?
कलावती की कथा सुन रहे
लीला की लीला मन झूली
मटक न आए
.
रावण रखकर रूप राम का
करे सिया से नैन मटक्का
मक्का जाने खों जुम्मन नें
बेंच दई बीजन कीं मक्का
हक्का-बक्का खाला बेबस
बिटिया बारगर्ल बन सिसके
एड्स बाँट दूँ हर गाहक को
भट्टी अंतर्मन में दहके
ज्वार-बाजरे की मजबूरी
भाटा-ज्वार दे गए सूली
गटक न पाए
.
***
नवगीत:
.
अपनी-अपनी
मर्यादा कर तार-तार
होते प्रसन्न हम
राम बचाये
.
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय कुछ तो कहते हैं
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा रजिया-रधिया झाड़ू थामे
सड़क किनारे बैठे लोटे
बतलाते
कितने विपन्न हम?
राम बचाये
.
अमराई पर चौपालों ने फेंका क्यों तेज़ाब पूछिए?
पनघट ने खलिहानों को क्यों नाहक भेजा जेल बूझिए?
सास-बहू, भौजाई-ननदी, क्यों माँ-बेटी सखी न होतीं?
बेटी-बेटे में अंतर कर
मन से रहते
सदा खिन्न हम
राम बचाये
.
दुश्मन पर कम, करें विपक्षी पर क्यों ज्यादा प्रहार हम?
नगद-बचत की भूल सादगी चमक-दमक वरते उधार हम
मेले नौटंकी कठपुतली कजरी आल्हा फागें बिसरे
माल जा रहे माल लुटाने,
क्यों न भीड़ से
हुए भिन्न हम?
राम बचाये
.
(३०.१२.२०१४, कटनी, ८.००, दयोदय एक्सप्रेस, बी २ /१७, जयपुर-जबलपुर)
राधोपनिषद
*
ॐ ऊर्ध्वरेता महर्षियों,
सनक आदि ने ब्रह्मा जी से
स्तुति कर पूछा- 'हे भगवन!
सर्व प्रमुख हैं कौन देवता?
शक्ति कौन सी उनमें कहिए?'
ब्रह्मा बोले - ' पुत्रों सुन लो,
किंतु किसी से कभी न कहना
है रहस्य अत्यंत गुप्त यह,
मात्र ब्रह्मज्ञानी गुरुभक्तों को
तुम यह बतला सकते हो,
कहा अन्य से, पाप लगेगा।
परमदेव श्रीकृष्ण मात्र हैं।
छह ऐश्वर्यों से भूषित वे,
गोप-गोपियों से सेवित हैं।
आराधित वृंदा देवी से,
वृंदावन के स्वामी हैं वे।
एकमात्र वे ही सर्वेश्वर,
रूप उन्हीं का नारायण हैं
जो स्वामी ब्रह्माण्डों के हैं।
कृष्ण पुरातन प्रकृति से भी
और नित्य हरि भी वे ही हैं।
आह्लादिनी संधिनी इच्छा
ज्ञान क्रियादि शक्तियाँ उनकी।
आह्लादिनी प्रमुख हैं सबसे
अन्तरंगभूता श्री राधा।
इनकी आराधना कृष्ण जी,
करते सदा इसलिए 'राधा'।
राधा गांधर्वा कहलातीं,
बृज की जो रमणियाँ सारी,
द्वारकावासी कृष्ण महिषियाँ
और रमा भी अंश इन्हीं की।
रस सागर श्रीकृष्ण-राधिका
एक, हुए दो क्रीड़ा करने।
सर्वेश्वरी, सनातन विद्या,
हैं हरि की श्री राधा रानी।
देवी अधिष्ठात्री वे ही हैं
एकमात्र कृष्ण-प्राणों की।
करें वेद स्तुति एकांत में
महिमा कह न सकूँ जीवन में,
जिस पर हों कृपालु श्रीराधा
परम धाम वह पा जाता है।
जो न जानता श्री राधा को
और कृष्ण जी को आराधे
महामूर्ख है, महामूढ़ है।
नाम राधिका जी के गातीं
श्रुतियाँ सभी निरंतर पल-पल।
राधा रम्य रमा रासेश्वरी
कृष्ण-मंत्र अधिदेव ईश्वरी
सर्वाद्या राधिका रुक्मिणी
गोपी वृंदावनविहारिणी
सर्ववन्द्या वृंदाराध्या हे!
अशेष गोपीमण्डल पूज्या
सत्या सत्यपरा सत्यभाभा
मूलप्रकृति श्रीकृष्णवल्लभा
गांधर्वा वृषभानुसुता हे!
आरभ्या राधिका परमेश्वरी
पूर्णचंद्रनिभानना पूर्णा
परात्परा हे भुक्तिमुक्तिदा!
भवव्याधिविनाशिनी जय-जय।
नाम-पाठ कर जीव मुक्त हों
श्री ब्रह्मा भगवान ने कहा।
संधिनी शक्ति-धाम विवरण सुन-
हो परिणित भूषण शैया अरु
आसन भृत्य आदि बन जाती।
मृत्यु लोक अवतार के समय
मातु-पितादि रूप बन जाती,
कारण बनती अवतारों का।
ज्ञान शक्ति क्षेत्रज्ञ शक्ति है,
इच्छा-माया शक्ति भी यही।
सत्य रजस तम जड़ बहिरंगी
ईश दृष्टि पड़ने पर करती
रचना अगणित ब्रह्माण्डों की।
माया और अविद्यारूपी
बने जीव बंधन भी यह ही।
क्रिया शक्ति यह ही कहलाती
कहते लीला शक्ति इसी को।
पढ़ें अव्रती अगर उपनिषद
यह तो व्रती आप हो जाते।
अग्नि-पवन सुत, सर्व पूत हो
राधाकृष्ण निकट हो जाते।
और जहाँ तक दृष्टि डालते
वे सबको पवित्र कर देते।
ॐ तत्सत
ऋग्वेदीय राधोपनिषद समाप्त।।
२-१-२०२३
***
राधिका छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महारौद्र , प्रति चरण मात्रा २२ मात्रा, यति १३ - ९ ।
लक्षण छंद:
सँग गोपों राधिका के / नंदसुत - ग्वाला
नाग राजा महारौद्र / कालिया काला
तेरह प्रहार नौ फणों / पर विष न बाकी
गंधर्व किन्नर सुर नरों / में कृष्ण आला
*
राधिका बाईस कला / लख कृष्ण मोहें
तेरह - नौ यति क़ृष्ण-पग / बृज गली सोहें
भक्त जाते रीझ, भय / से असुर जाते काँप
भाव-भूखे कृष्ण कण / कण जाते व्याप
राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी ने साकेत में राधिका छंद का प्रयोग किया है।
हा आर्य! भरत का भाग्य, रजोमय ही है,
उर रहते उर्मि उसे तुम्हीं ने दी है.
उस जड़ जननी का विकृत वचन तो पाला
तुमने इस जन की ओर न देखा-भाला।
***
ॐ
प्रात नमन
*
मन में लिये उमंग पधारें राधे माधव
रचना सुमन विहँस स्वीकारें राधे माधव
राह दिखाएँ मातु शारदा सीख सकें कुछ
सीखें जिससे नहीं बिसारें राधे माधव
हों बसंत मंजरी सदृश पाठक रचनाएँ
दिन-दिन लेखन अधिक सुधारें राधे-माधव
तम घिर जाए तो न तनिक भी हैरां हों हम
दीपक बन दुनिया उजियारें राधे-माधव
जीतेंगे कोविंद न कोविद जीत सकेगा
जीवन की जय-जय उच्चारें राधे-माधव
***
मलय समीरण अमल विमल राधे माधव
पंछी कलरव करते; कोयल कूक रही
गौरैया फिर फुदक रही राधे माधव
बैठ मुँडेरे कागा टेर रहा पाहुन
बनकर तुम ही आ जाओ राधे माधव
सुना बजाते बाँसुरिया; सुन पायें हम
सँग-सँग रास रचा जाओ राधे माधव
मन मंदिर में मौन न मूरत बन रहना
माखन मिसरी लुटा जाओ राधे माधव
*
२१-४-२०२०
राधा धारा प्रेम की....
*
राधा धारा प्रेम की, श्याम स्नेह-सौगात.
बरसाने में बरसती, बिन बरसे बरसात..
राधा धारा भक्ति की, कृष्ण कर्म-पर्याय.
प्रेम-समर्पण रुक्मिणी, कृष्णा चाहे न्याय.
माखनचोर चुरा रहा, चित बनकर चितचोर.
जो बोया सो काटता, विषधर करिया नाग.
ग्वाल-बाल गोपाल के असहनीय आघात..
आँख चुरा मुँह फेरकर, गया दिखाकर पीठ.
नहीं बेवफा वफ़ा ने, बदल दिये हालात.
तंदुल ले त्रैलोक्य दे, कभी बढ़ाए चीर.
गीता के उपदेश में, भरे हुए ज़ज्बात..
रास रचाए वेणुधर, ले गोवर्धन हाथ,
देवराज निज सिर धुनें, पा जनगण से मात..
पट्टी बाँधी आँख पर, सच से ऑंखें फेर.
नटवर नन्दकिशोर बिन, कैसे उगे प्रभात?
सत्य नीति पथ पर चले, राग-द्वेष से दूर.
विदुर समुज्ज्वल दिवस की, कभी न होती रात..
नेह नर्मदा 'सलिल' की, लहर रचाए रास.
राधा-मीरा कूल दो, कृष्ण-कमल जलजात..
कुञ्ज गली में फिर रहा, कर मन-मंदिर वास.
हुआ साँवरा बावरा, 'सलिल' सृष्टि-विख्यात..
***
रविवार, 1 जनवरी 2023
नव वर्ष, गीत, नवगीत, बाल गीत, चित्र गुप्त, दोहा, सॉनेट, जाड़ा, अंक माहात्म्य
उजास दे
*
नवल वर्ष के
प्रथम सूर्य की
प्रथम रश्मि
पल पल उजास दे।
•
गूँजे गौरैया का कलरव
सलिल-धार की घटे न कलकल
पवन सुनाए सन सन सन सन
हो न किसी कोने में किलकिल
नियति अधर को
मधुर हास दे।
•
सोते-जगते देखें सपने
मानें-तोड़ें जग के नपने
कोशिश कर कर थक जाएँ तो
लगें राम की माला जपने
पीर दर्द सह
झट हुलास दे।
•
लड़-मिलकर सँग रहना आए
कोई छिटककर दूर न जाए
गले मिल सकें, हाथ मिलाएँ
नयन नयन को नयन बसाए
अधर अधर को
नवल हास दे।
१-२-२०२३,१५•२३
•••
सॉनेट
बेधड़क
●
बेधड़क बात अपनी कही
कोई माने न माने सचाई
हो न जाती सुता सम पराई
संग श्वासा सी पल पल रही
पीर किसने किसी की गही?
मौज मस्ती में जग साथ था
कष्ट में झट तजा हाथ था
वेदना सब अकेले तही
रेणु सब अश्रुओं से बही
नेह की नर्मदा ना मिली
शेष है हर शिला अनधुली
माँग पूरी करी ना भरी
तुम उड़ाते भले हो हँसी
दिल में गहरे सचाई धँसी
संजीव
१-१-२०२३,४•३८
जबलपुर
●●●
सॉनेट
पग-धूल
●
ईश्वर! तारो दे पग-धूल
अंश तुम्हारा आया दर पर
जागो जागो जागो हरि हर
क्षमा करो मेरी सब भूल
पग मग पर चल पाते शूल
सुनकर भी अनसुना रुदन-स्वर
क्यों करते हो करुणा सागर
देख न देखी आँसू-झूल
क्या कर सकता भेंट अकिंचन?
अँजुरी में कुछ श्रद्धा-फूल
स्वीकारो यह ब्याज समूल
तरुण पथिक, हो मधुर कृपालु
आस टूटती दिखे न कूल
आकुल किंकर दो पग-धूल
संजीव
१-१-२०२३, ४•२०
जबलपुर
●●●
गीत
बिदा दो
●
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
भूमिका जो मिली थी मैंने निभाई
करी तुमने अदेखी, नजरें चुराई
गिर रही है यवनिका अंतिम नमन लो
नहीं अपनी, श्वास भी होती पराई
छाँव थोड़ी धूप हमने साथ झेली
हर्ष गम से रह न पाया दूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
जब मिले थे किए थे संकल्प
लक्ष्य पाएँ तज सभी विकल्प
चल गिरे उठ बढ़े मिल साथ
साध्य ऊँचा भले साधन स्वल्प
धूल से ले फूल का नव नूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
तीन सौं पैंसठ दिवस थे साथ
हाथ में ले हाथ, उन्नत माथ
प्रयासों ने हुलासों के गीत
गाए, शासन दास जनगण नाथ
लोक से हो तंत्र अब मत दूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
जा रहा बाईस का यह साल
आ रहा तेईस करे कमाल
जमीं पर पग जमा छू आकाश
हिंद-हिंदी करे खूब धमाल
बजाओ मिल नव प्रगति का तूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
*
अभियान आगे बढ़ाएँ हम-आप
छुएँ मंज़िल नित्य, हर पथ माप
सत्य-शिव-सुंदर बने पाथेय
नव सृजन का हो निरंतर जाप
शत्रु-बाधा को करो झट चूर
बिदा दो, जाना मुझे है दूर
चिर विरह नव मिलन का संतूर
संजीव
३१-१२-२०२२
१६•३६, जबलपुर
●●●
कविता
*
महाकाल ने महाग्रंथ का पृष्ठ पूर्ण कर,
अंक माहात्म्य (०-९)
*
शून्य जन्म दे सृष्टि को, सकल सृष्टि है शून्य।
जुड़-घट अंतर शून्य हो, गुणा-भाग फल शून्य।।
*
एक ईश रवि शशि गगन, भू मैं तू सिर एक।
गुणा-भाग धड़-नासिका, है अनेक में एक।।
*
दो जड़-चेतन नार-नर, कृष्ण-शुक्ल दो पक्ष।
आँख कान कर पैर दो, अधर-गाल समकक्ष।।
*
तीन देव व्रत राम त्रय, लोक काल ऋण तीन।
अग्नि दोष-गुण ताप ऋतु, धारा मामा तीन।।
*
चार धाम युग वेद रिपु, पीठ दिशाएँ चार।
वर्ण आयु पुरुषार्थ चौ, चौका चौक अचार।।
*
पाँच देव नद अंग तिथि, तत्व अमिय शर पाँच।
शील सुगंधक इन्द्रियाँ, कन्या नाड़ी साँच।।
*
छह दर्शन वेदांग ऋतु, शास्त्र पर्व रस कर्म।
षडाननी षड राग है, षड अरि-यंत्र न धर्म।।
*
सात चक्र ऋषि द्वीप स्वर, सागर पर्वत रंग।
लोक धातु उपधातु दिन, अश्व अग्नि शुभ अंग।।
*
अष्ट लक्ष्मी सिद्धि वसु, योग कंठ के दोष।
योग-राग के अंग अठ, आत्मोन्नति जयघोष।
*
नौ दुर्गा ग्रह भक्ति निधि, हवन कुंड नौ तंत्र।
साड़ी मोहे नौगजी, हार नौलखा मंत्र।।
***
सॉनेट
जाड़ा आया है
*
ठिठुर रहे हैं मूल्य पुराने, जाड़ा आया है।
हाथ तापने आदर्शों को सुलगाया हमने।
स्वार्थ साधने सुविधाओं से फुसलाया हमने।।
जनमत क्रयकर अपना जयकारा लगवाया है।।
अंधभक्ति की ओढ़ रजाई, करते खाट खड़ी।
सरहद पर संकट के बादल, संसद एक नहीं।
जंगल पर्वत नदी मिटाते, आफत है तगड़ी।।
उलटी-सीधी चालें चलते, नीयत नेक नहीं।।
नफरत के सौदागर निश-दिन, जन को बाँट रहे।
मुर्दे गड़े उखाड़ रहे, कर ऐक्य भावना नष्ट।
मिलकर चोर सिपाही को ही, नाहक डाँट रहे।।
सत्ता पाकर ऐंठ रहे, जनगण को बेहद कष्ट।।
गलत आँकड़े, झूठे वादे, दावे मनमाने।
महारोग में रैली-भाषण, करते दीवाने।।
१-१-२०२२
***
नये साल की दोहा सलिला:
*
उगते सूरज को सभी, करते सदा प्रणाम.
जाते को सब भूलते, जैसे सच बेदाम..
*
हम न काल के दास हैं, महाकाल के भक्त.
कभी समय पर क्यों चलें?, पानी अपना रक्त..
*
बिन नागा सूरज उगे, सुबह- ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
*
अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत.
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
*
संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
*
ढाई आखर पढ़ सुमिर, तज अद्वैत वर द्वैत.
मैं-तुम मिट, हम ही बचे, जब-जब खेले बैत..
*
जीते बाजी हारकर, कैसा हुआ कमाल.
'सलिल'-साधना सफल हो, सबकी अबकी साल..
*
भुला उसे जो है नहीं, जो है उसकी याद.
जीते की जय बोलकर, हो जा रे नाबाद..
*
नये साल खुशहाल रह, बिना प्याज-पेट्रोल..
मुट्ठी में समान ला, रुपये पसेरी तौल..
*
जो था भ्रष्टाचार वह, अब है शिष्टाचार.
नये साल के मूल्य नव, कर दें भव से पार..
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भाई-भतीजावाद या, चचा-भतीजावाद.
राजनीति ने ही करी, दोनों की ईजाद..
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प्याज कटे औ' आँख में, आँसू आयें सहर्ष.
प्रभु ऐसा भी दिन दिखा, 'सलिल' सुखद हो वर्ष..
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जनसँख्या मंहगाई औ', भाव लगाये होड़.
कब कैसे आगे बढ़े, कौन शेष को छोड़..
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ओलम्पिक में हो अगर, लेन-देन का खेल.
जीतें सारे पदक हम, सबको लगा नकेल..
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पंडित-मुल्ला छोड़ते, मंदिर-मस्जिद-माँग.
कलमाडी बनवाएगा, मुर्गा देता बांग..
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आम आदमी का कभी, हो किंचित उत्कर्ष.
तभी सार्थक हो सके, पिछला-अगला वर्ष..
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गये साल पर साल पर, हाल रहे बेहाल.
कैसे जश्न मनायेगी. कुटिया कौन मजाल??
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धनी अधिक धन पा रहा, निर्धन दिन-दिन दीन.
यह अपने में लीन है, वह अपने में लीन..
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१-१-२०२१
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।। ॐ ।।
गीत
चित्र गुप्त है नए काल का हे माधव!
गुप्त चित्र है कर्म जाल का हे माधव!
स्नेह साधना हम कर पाएँ श्री राधे!
जीवन की जय जय गुंजायें श्री राधे!
मानव चाहे बनना भाग्य विधाता पर
स्वार्थ साधकर कहे बना जगत्राता पर
सुख-सपनों की खेती हित दुख बोता है
लेख भाल का कब पढ़ पाया हे माधव!
नेह नर्मदा निर्मल कर दो श्री राधे!
रासलीन तन्मय हों वर दो श्री राधे!
रस-लय-भाव तार दे भव से सदय रहो
शारद-रमा-उमा सुत हम हों श्री राधे!
खुद ही वादों को जुमला बता देता
सत्ता हित जिस-तिस को अपने सँग लेता
स्वार्थ साधकर कैद करे संबंधों को
न्यायोचित ठहरा छल करता हे माधव!
बंधन में निर्बंध रहें हम श्री राधे!
स्वार्थरहित संबंध वरें हम श्री राधे!
आए हैं तो जाने की तैयारी कर
खाली हाथों तारकर तरें श्री राधे!
बिसरा देता फल बिन कर्म न होता है
व्यर्थ प्रसाद चढ़ा; संशय मन बोता है
बोये शूल न फूल कभी भी उग सकते
जीने हित पल पल मरता मनु हे माधव!
निजहित तज हम सबहित साधें श्री राधे!
पर्यावरण शुद्धि आराधें श्री राधे!
प्रकृति पुत्र हों, संचय-भोग न ध्येय बने
सौ को दें फिर लें कुछ काँधे श्री राधे!
माधव तन में राधा मन हो श्री राधे!
राधा तन में माधव मन हो हे माधव!
बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में हे माधव!
हो सहिष्णु सद्भाव पथ वरें श्री राधे!
१-१-२०२०
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बाल गीत :
ज़िंदगी के मानी
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खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
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बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
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आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है....
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
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नव वर्ष पर नवगीत:
नया पृष्ठ
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा...
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ?
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
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नये साल का गीत
कुछ ऐसा हो साल नया
*
कुछ ऐसा हो साल नया,
जैसा अब तक नहीं हुआ.
अमराई में मैना संग
झूमे-गाये फाग सुआ...
*
बम्बुलिया की छेड़े तान.
रात-रातभर जाग किसान.
कोई खेत न उजड़ा हो-
सूना मिले न कोई मचान.
प्यासा खुसरो रहे नहीं
गैल-गैल में मिले कुआ...
*
पनघट पर पैंजनी बजे,
बीर दिखे, भौजाई लजे.
चौपालों पर झाँझ बजा-
दास कबीरा राम भजे.
तजें सियासत राम-रहीम
देख न देखें कोई खुआ...
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स्वर्ग करे भू का गुणगान.
मनुज देव से अधिक महान.
रसनिधि पा रसलीन 'सलिल'
हो अपना यह हिंदुस्तान.
हर दिल हो रसखान रहे
हरेक हाथ में मालपुआ...
१-१-२०११
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