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सोमवार, 11 दिसंबर 2017

दोहा दुनिया

कंकर-कंकर में बसे,
शिव का कहीं नहीं अंत.
गुरुओं के गुरु सदाशिव,
भजें सुरासुर संत.
.
शंका के अरि शिव मिलें,
उसे जिसे विश्वास.
श्रद्धा रखा तो शिवा भी,
करतीं कृपा सहास.
.
बिंदु सिंधु का मूल है,
शिव-दर्शन सिद्धांत.
शिव से उपजे लीन हो,
शिव में सृष्टि सुकांत.
.
शिव भूखे हैं भाव के,
शिव को नहीं अभाव.
धन बल यश का हो नहीं,
शिव पर तनिक प्रभाव.
.
शिव को शव से भय नहीं.
मलते भस्म भभूत.
भक्त नहीं भयभीत हों
डरें आप यमदूत.
.

लघुकथा


लघुकथा -
समरसता
*
भृत्यों, सफाईकर्मियों और चौकीदारों द्वारा वेतन वृद्धि की माँग मंत्रिमंडल ने आर्थिक संसाधनों के अभाव में ठुकरा दी।
कुछ दिनों बाद जनप्रतिनिधियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की कार्य कुशलता की प्रशंसा कर अपने वेतन भत्ते कई गुना अधिक बढ़ा लिये।
अगली बैठक में अभियंताओं और प्राध्यापकों पर हो रहे व्यय को अनावश्यक मानते हुए सेवा निवृत्ति से रिक्त पदों पर नियुक्तियाँ न कर दैनिक वेतन के आधार पर कार्य कराने का निर्णय सर्व सम्मति से लिया गया और स्थापित हो गयी समरसता।
७-१२-२०१५
***

mukatak

मुक्तक 
चोट खाते हैं जवांदिल, बचाते हैं और को
खुद न बदलें, बदलते हैं वे तरीके-तौर को 
मर्द को कब दर्द होता, सर्द मौसम दिल गरम 
आजमाते हैं हमेशा हालतों को, दौर को 
९.१२.२०१६
***

शब्दों का जादू हिंदी में अमित सृजन कर देखो ना
छन्दों की महिमा अनंत है इसको भी तुम लेखो ना 
पढ़ो सीख लिख आत्मानंदित होकर सबको सुख बाँटो
मानव जीवन कि सार्थकता यही 'सलिल' अवरेखो ना
१०.१२.२०१६ 
***

navgeet

नवगीत:
जिजीविषा अंकुर की
पत्थर का भी दिल
दहला देती है
*
धरती धरती धीरज
बनी अहल्या गुमसुम
बंजर-पड़ती लोग कहें
ताने दे-देकर
सिसकी सुनता समय
मौन देता है अवसर
हरियाती है कोख
धरा हो जाती सक्षम
तब तक जलती धूप
झेलकर घाव आप
सहला लेती है
*
जग करता उपहास
मारती ताने दुनिया
पल्लव ध्यान न देते
कोशिश शाखा बढ़ती
द्वैत भुला अद्वैत राह पर
चिड़िया चढ़ती
रचती अपनी सृष्टि आप
बन अद्भुत गुनिया
हार न माने कभी
ज़िंदगी खुद को खुद
बहला लेती है
*
छाती फाड़ पत्थरों की
बहता है पानी
विद्रोहों का बीज
उठाता शीश, न झुकता
तंत्र शिला सा निठुर
लगे जब निष्ठुर चुकता
याद दिलाना तभी
जरूरी उसको नानी
जन-पीड़ा बन रोष
दिशाओं को भी तब
दहला देती है
११-१२-२०१४ 
***
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navgeet

नवगीत -
ठेंगे पर कानून 
*
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून 
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
जनगण - मन ने जिन्हें चुना
उनको न करें स्वीकार
कैसी सहनशीलता इनकी?
जनता दे दुत्कार
न्यायालय पर अविश्वास कर
बढ़ा रहे तकरार
चाह यही है सजा रहे
कैसे भी हो दरबार
जिसने चुना, न चिंता उसकी
जो भूखा दो जून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
सरहद पर ही नहीं
सडक पर भी फैला आतंक
ले चरखे की आड़
सँपोले मार रहे हैं डंक
जूते उठवाते औरों से
फिर भी हैं निश्शंक
भरें तिजोरी निज,जमाई की
करें देश को रंक
स्वार्थों की भट्टी में पल - पल
रहे लोक को भून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
परदेशी से करें प्रार्थना
आ, बदलो सरकार
नेताजी को बिना मौत ही
दें कागज़ पर मार
संविधान को मान द्रौपदी
चाहें चीर उतार
दु:शासन - दुर्योधन की फिर
हो अंधी सरकार
मृग मरीचिका में जीते
जैसे इन बिन सब सून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
११-१२-२०१५ 

***
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रविवार, 10 दिसंबर 2017

दोहा दुनिया- शिव वंदन

दोहा दुनिया-
उदय भानु का जब हुआ,
तभी ही हुआ प्रभात.
नेह नर्मदा सलिल में,
क्रीड़ित हँस नवजात.
.
बुद्धि पुनीता विनीता,
शिविर की जय-जय बोल.
सत्-सुंदर की कामना,
मन में रहे टटोल.
.
शिव को गुप्तेश्वर कहो,
या नन्दीश्वर आप.
भव-मुक्तेश्वर भी वही,
क्षमा ने करते पाप.
.
चित्र गुप्त शिव का रहा,
कंकर-कंकर व्याप.
शिवा प्राण बन बस रहें
हरने बाधा-ताप.
.
शिव को पल-पल नमन कर,
तभी मिटेगा गर्व.
मति हो जब मिथलेश सी,
स्वजन लगेंगे सर्व.
.
शिवता जिसमें गुरु वही,
शेष करें पाखंड.
शिवा नहीं करतीं क्षमा,
देतीं निश्चय दंड.
.
शिव भज आँखें मून्द कर,
गणपति का करें ध्यान.
ममता देंगी भवानी,
कार्तिकेय दें मान.
.
संजीव

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

kshanika

क्षणिका 
*
बहुत सुनी औरों की 
अब तो 
मनमानी कुछ की जाए.
दुनिया ने परखा अब तक
अब दुनिया भी परखी जाए
*

muktak

मुक्तक
चोट खाते हैं जवांदिल, बचाते हैं और को
खुद न बदलें, बदलते हैं वे तरीके-तौर को 
मर्द को कब दर्द होता, सर्द मौसम दिल गरम 
आजमाते हैं हमेशा हालतों को, दौर को 
***

chhand-bahar: 9

​कार्यशाला 
छंद बहर दोउ एक है - ९ 
रगण यगण गुरु = २१२ १२२ २ 
सात वार्णिक उष्णिक जातीय, बारह मात्रिक आदित्य जातीय छंद 
बहर- फाइलुं मुफाईलुं
*
मुक्तक
मेघ ने लुभाया है
मोर नाच-गाया है
जो सगा नहीं भाया
वह गया भुलाया है
*
मौन मौन होता है
शोर शोर बोटा है
साफ़-साफ़ बोले जो
जार-जार रोता है
*
राजनीति धंधा है
शीशहीन कंधा है
न्याय कौन कैसे दे?
क्यों प्रतीक अँधा है
*
सूर्य के उजाले हैं
सेठ के शिवाले हैं
काव्य के सभी प्रेमी
आदमी निराले हैं
*
आपने बिसरा है
या किया इशारा है?
होंठ तो नहीं बोला
नैन ने पुकारा है
*
कौन-कौन आएगा?
देश-राग गायेगा
शीश जो कटाएगा
कीर्ति खूब पायेगा
*
नवगीत
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
वायवी हुए रिश्ते
कागज़ी हुए नाते
गैर बैर पाले जो
वो रहे सदा भाते
संसदीय तूफां की
है नहीं रही रेखा?
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
लोकतंत्र पूछेगा
तंत्र क्यों दरिंदा है?
जिंदगी रही जीती
क्यों मरी न जिंदा है?
आनुशासिकी कीला
क्यों यहाँ नहीं मेखा?
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
क्यारियाँ कभी सींचें
बागबान ही भूले
फूल को किया रुस्वा
शूल को मिले झूले
मौसमी किए वादे
फायदा नहीं सदा पेखा
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
***
मेखा = ठोंका, पेखा = देखा

दोहा दुनिया- शिव वंदन

शिव बंधन से मुक्त कर,
देते हैं चिर शान्ति.
शिवा शरण गह तो मिटे,
पल भर में हर भ्रान्ति.
.

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

muktak salila

मुक्तक सलिला
*
मुक्तक 
माँ 
माँ की महिमा जग से न्यारी, ममता की फुलवारी 
संतति-रक्षा हेतु बने पल भर में ही दोधारी 
माता से नाता अक्षय जो पाले सुत बडभागी-
ईश्वर ने अवतारित हो माँ की आरती उतारी
नारी
नर से दो-दो मात्रा भारी, हुई हमेशा नारी
अबला कभी न इसे समझना, नारी नहीं बिचारी
माँ, बहिना, भाभी, सजनी, सासु, साली, सरहज भी
सखी न हो तो समझ जिंदगी तेरी सूखी क्यारी
*
पत्नि
पति की किस्मत लिखनेवाली पत्नि नहीं है हीन
भिक्षुक हो बारात लिए दर गए आप हो दीन
करी कृपा आ गयी अकेली हुई स्वामिनी आज
कद्र न की तो किस्मत लेगी तुझसे सब सुख छीन
*
दीप प्रज्वलन
शुभ कार्यों के पहले घर का अँगना लेना लीप
चौक पूर, हो विनत जलाना, नन्हा माटी-दीप
तम निशिचर का अंत करेगा अंतिम दम तक मौन
आत्म-दीप प्रज्वलित बन मोती, जीवन सीप
*
परोपकार
अपना हित साधन ही माना है सबने अधिकार
परहित हेतु बनें समिधा, कब हुआ हमें स्वीकार?
स्वार्थी क्यों सुर-असुर सरीखा मानव होता आज?
नर सभ्यता सिखाती मित्रों, करना पर उपकार
*
एकता
तिनका-तिनका जोड़ बनाते चिड़वा-चिड़िया नीड़
बिना एकता मानव होता बिन अनुशासन भीड़
रहे-एकता अनुशासन तो सेना सज जाती है-
देकर निज बलिदान हरे वह, जनगण कि नित पीड़
*
असली गहना
असली गहना सत्य न भूलो
धारण कर झट नभ को छू लो
सत्य न संग तो सुख न मिलेगा
भोग भोग कर व्यर्थ न फूलो
***

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navgeet- sadak par 2

नवगीत 
सड़क पर २ 
*
जमूरा-मदारी रुआँसे
सड़क पर
.
हताशा निराशा
दुराशा का डेरा
दुख-दर्द, पीड़ा
लगाती हैं फ़ेरा
मिलें ठोकरें जब भी
मंज़िल को टेरा
घायल मवाली करें-कर
सड़क पर
.
सपने हिचकते-
अटकते, भटकते
दुत्कारें कारें
खिलौने सिसकते
सोओ न, कुचलेंगी
बच्चे बिलखते
सियासी नज़ारे
सदा दें सड़क पर
.
कटे वृक्ष रोयें
कलपते परिंदे
किसमत न बाँचें
नजूमी, न बंदे
वसन साफ़ लेकिन
हृदय खूब गन्दे
नेताई वादे धुँआसे
सड़क पर
...
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navgeet- sadak par 1

नवगीत
सड़क पर १  
*
बसर ज़िन्दगी हो रही है
सड़क पर.
.
बजी ढोलकी
गूंज सोहर की सुन लो
टपरिया में सपने
महलों के बुन लो
दुत्कार सहता
बचपन बिचारा
सिसक, चुप रहे
खुद कन्हैया सड़क पर
.
लत्ता लपेटे
छिपा तन-बदन को
आसें न बुझती
समर्पित तपन को
फ़ान्से निबल को
सबल अट्टहासी
कुचली तितलिया मरी हैं
सड़क पर
.
मछली-मछेरा
मगर से घिरे हैं
जबां हौसले
चल, रपटकर गिरे हैं
भँवर लहरियों को
गुपचुप फ़न्साए
लव हो रहा है
ज़िहादी सड़क पर
.
कुचल गिट्टियों को
ठठाता है रोलर
दबा मिट्टियों में
विहँसता है रोकर
कालिख मनों में
डामल से ज्यादा
धुआँ उड़ उड़ाता
प्रदूषण सड़क पर
...
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laghukatha- swajantantra

लघुकथा:                                                         
स्वजन तंत्र 

संजीव 'सलिल'
*
राजनीति विज्ञान के शिक्षक ने जनतंत्र की परिभाषा तथा विशेषताएँ बताने के बाद भारत को विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र बताया तो एक छात्र से रहा नहीं गया. उसने अपनी असहमति दर्ज करते हुए कहा:

- ' गुरु जी! भारत में जनतंत्र नहीं स्वजन तंत्र है.' 

-' किताब में एसे किसी तंत्र का नाम नहीं है.' - गुरु जी बोले. ' कैसे होगा? यह हमारी अपनी खोज है और भारत में की गयी खोज को किताबों में इतनी जल्दी जगह मिल ही नहीं सकती. यह हमारे शिक्षा के पाठ्य क्रम में भी नहीं है लेकिन हमारी ज़िन्दगी के पाठ्य क्रम का पहला अध्याय यही है जिसे पढ़े बिना आगे का कोई पाठ नहीं पढ़ा जा सकता.' छात्र ने कहा. 

-' यह स्वजन तंत्र होता क्या है? यह तो बताओ.' -सहपाठियों ने पूछा. 

-' स्वजन तंत्र एसा तंत्र है जहाँ चंद चमचे इकट्ठे होकर कुर्सी पर लदे नेता के हर सही-ग़लत फैसले को ठीक बताने के साथ-साथ उसके वंशजों को कुर्सी का वारिस बताने और बनाने की होड़ में जी-जान लगा देते हैं. जहाँ नेता अपने चमचों को वफादारी का ईनाम और सुख-सुविधा देने के लिए विशेष प्राधिकरणों का गठन कर भारी धन राशि, कार्यालय, वाहन आदि उपलब्ध कराते हैं जिनका वेतन, भत्ता, स्थापना व्यय तथा भ्रष्टाचार का बोझ झेलने के लिए आम आदमी को कानून की आड़ में मजबूर कर दिया जाता है. इन प्राधिकरणों में मनोनीत किए गए चमचों को आम आदमी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं होता पर वे जन प्रतिनिधि कहलाते हैं. वे हर काम का ऊंचे से ऊंचा दाम वसूलना अपना हक मानते हैं और प्रशासनिक अधिकारी उन्हें यह सब कराने के उपाय बताते हैं.' 

-' लेकिन यह तो बहुत बड़ी परिभाषा है, याद कैसे रहेगी?' छात्र नेता के चमचे ने परेशानी बताई. 

-' चिंता मत कर. सिर्फ़ इतना याद रख जहाँ नेता अपने स्वजनों और स्वजन अपने नेता का हित साधन उचित-अनुचित का विचार किए बिना करते हैं और जनमत, जनहित, देशहित जैसी भ्रामक बातों की परवाह नहीं करते वही स्वजन तंत्र है लेकिन किताबों में इसे जनतंत्र लिखकर आम आदमी को ठगा जाता है ताकि वह बदलाव की मांग न करे.' 

-गुरु जी अवाक् होकर राजनीति के व्यावहारिक स्वरूप का ज्ञान पाकर धन्य हो रहे थे.
***

navageet

नवगीत-
वही है सड़क
.
जहाँ समतल रहे कम
और गड्ढे बहुत ज्यादा हों
वही है सड़क जन-जन की.
.
जहाँ गिट्टी उछलती हो,
जहाँ पर धूल उड़ती हो,
जहाँ हों भौंकते कुत्ते
जहाँ नित देह नुचती हो
वही है सड़क जन-गण की
.
जहाँ हम खुद करें दंगे,
रहें कपड़े पहन नंगे,
जहाँ जुमले उछलते हैं
जहाँ पंजे करें पंगे
वही है सड़क जन-पथ की
.
जहाँ आदम जनम लेता,
जहाँ वामन कदम रखता,
जहाँ सपना बजे दूल्हा
जहाँ चूल्हा बुझे जलता
वही है सड़क जन-मन की
.
जहाँ कलियाँ छली जाती,
जहाँ गलियाँ नहीं गाती,
जहाँ हो कत्ल पेड़ों का
जहाँ भू की फ़टी छाती
वही है सड़क जन-धन की
.
जहाँ मिल, ना मिले रोजी,
जहाँ मिलकर छिने रोटी,
जहाँ पग हो रहे घायल
जहाँ चूसी गई बोटी
वही है सड़क जन-जन की
...
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बुन्देली लघुकथा- डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव

बुंदेली लघुकथा के द्वार पर
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव
*
१. कुलच्छनी 
निकिता नें अपने पापा सें साफ़-साफ़ कै दई हती के ओको ब्याव बे जिते चाएं सो पक्को कर लैबें मनो दायजे में मोटर साइकिल नें दैबें भलेई बनत रिस्ता काएं नें टूट जाए। निकिता के लएं बाइक की आबाज और बाकी तेज रफ़्तार भोत दहसत पैदा कर देत हती। बाइक पे बैठबे के लयं तो बो कब्भू तैयार नें हो सकत ती। ओने अपने बचपना में सामने सें आते भए एक बाइसिकिल सबार को एंसो एक्सीडेंट देखो हतो कै अबै लौं सोचतइ सें थर्रा जात ती। नईं भूल पात कै कैसें बाइक कुलती मार केन आगी को गोला बन गयी हती, कैंसें ऊ लड़का के मूंड सें खून को फव्वारों छूटो हटो और कैंसें तो पिरान छोड़बे के पैले बो किलबिलानो हतो। ऐसो असर दिमाग पे हो गाओ हतो के बाइक की आवाज सेंई बा काँप जाए और आँख-कान मीच लेबे। डॉक्टरन नें 'साइक्लोफ़ोबिआ' बतला कें इलाज भी करो मनो ऊखो बाइक सेंई चिढ़ हो गई ती।
पापा नें भरोसो दओ के लड़काबारे मोटर साइकिल मान तो रए हते मनो इनकी सरत सुन केन राजी हो गय। बे तो एंसी बिटिया, ऐंसो घर देख केंइ मगन हो रए हैं। निकिता खों तसल्ली हो गई। बरात आई, खुसी-खुसी भाँवरें पर गईं। दूसरे दिना दूल्हा रोहित कुंअर कलेबा पै अड़ गओ कै बाइक मिलहै तबई कौर तोरहै। यार-दोस्त और हबा देंन लगे। निकिता के बाप-भाई नें भोत समझाओ मनो दूल्हा तो अंगद के पाँव घांईं टस्स सें मस्स नें होय, जब तक मोटर साइकिल नें आ गई, जिद्द करत रओ। इतईं सें निकिता के मन में अपने पति रोहित के लयं अनादर पैदा हो गओ। ओको पूरो उल्लास मिट गओ।
सादी की पैली रात नें रोहित ने निकिता की पूँछी, नें भबिस्य की बातें करीं बस अपनेई सेखी बघारत रओ के बाइक पे कैंसे-कैंसे करतब करत है और पुलिस सें उरझत है। निकिता पति के ओछेपन पे सर्मिन्दा और अपमानित महसूस करत रई, जैंसें बाको ब्याओ निकिता सें नईं मोटर साइकिल सें भओ होय। दोई दिना बाद रोहित अपने दोस्तों के बुलाबे पर नई बाइक लैकेन प्रदर्सन करबे चलो गओ, निकिता नें खुल केन बिरोध करो मनो कौनऊ  नें नईं सुनी। रोहित गओ और प्रदर्सन करत में ऐंसी चोट रीढ़ की हड्डी पी लगी के जीबन भरे के लाने ज़िंदा लहास बन कै रै गओ। निकिता अपनो फर्ज़ निभाबे के लंय सबा-सुस्रुसा में रहत है मनो सासू कैत आंय 'बहू कुलच्छन निकरी कहाई।'  
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२. कचोंट 
*

सत्तनारान तिबारीजी बराण्डा में बैठे मिसराजी के घर की तरपीं देख रअे ते और उनें कल्ल की खुसयाली सिनेमा की रील घाईं दिखा रईं तीं। मिसराजी के इंजीनियर लड़का रघबंस को ब्याओ आपीसर कालोनी के अवस्थी तैसीलदार की बिटिया के संगें तै हो गओ तो। कल्ल ओली-मुंदरी के लयं लड़का के ममआओरे-ददयाओरे सब कहुँ सें नाते-रिस्तेदारों को आबो-जाबो लगो रओ। बे ओंरें तिबारीजी खों भी आंगें करकें समद्याने लै गअे ते। लहंगा-फरिया में सजी मोड़ी पूजा पुतरिया सी लग रई ती। जी जुड़ा गओ। आज मिसराजी कें सूनर मची ती। खबास ने बंदनबार बाँदे हते, सो बेई उतरत दुफैरी की ब्यार में झरझरा रअे ते।
इत्ते में भरभरा कें एक मोटर-साइकल मिसराजी के घर के सामनें रुकी। मिसराजी अपनी दिल्लान में बाहर खों निकर कें आय, के, को आय ? तबई्र एक लड़किनी जीन्स-सर्ट-जूतों में उतरी और एक हांत में चाबी घुमात भई मिसराजी के पाँव-से परबे खों तनक-मनक झुकी और कहन लगी - ‘पापाजी, रघुवंश है ?’ मिसराजी तो ऐंसे हक्के-बक्के रै गअे के उनको बकइ नैं फूटो। मों बांयं, आँखें फाड़ें बिन्नो बाई खों देखत रै गये। इत्ते में रघबंस खुदई कमीज की बटनें लगात भीतर सें निकरे और बोले - ‘पापा, मैं पूजा के साथ जा रहा हूँ। हम बाहर ही खा लेंगे। लौटने में देर होगी।’ मिसराजी तो जैंसई पत्थर की मूरत से ठांड़े हते, ऊँसई ठांडे़ के ठांड़े रै गय। मोटरसाइकल हबा हो गई। तब लौं मिसराइन घुंघटा सम्हारत बाहरै आ गईं - काय, को हतो ? अब मिसराजी की सुर्त लौटी - अरे, कोउ नईं, तुम तो भीतरै चलो। कहकैं मिसराइन खों ढकेलत-से भीतरैं लोआ लै गअे। तिबारी जी चीन्ह गअे के जा तो बई कन्या हती, जीके सगुन-सात के लयं गअे हते। तिबारी जी जमाने को चलन देखकैं मनइं मन मुस्कान लगे। नांय-मांय देखो, कोउ नैं हतौ कै बतया लेते। आज की मरयादा तो देखो। कैंसी बेह्याई है ? फिर कुजाने का खेयाल आ गओ के तिलबिला-से गअे। उनकें सामनें सत्तर साल पैलें की बातें घूम गईं। आज भलेंईं तिबारीजी को भरौ-पूरौ परिबार हतो, बेटा-बेटी-नाती-पोता हते, उनईं की सूद पै चलबे बारीं गोरी-नारी तिबारन हतीं, मनां बा कचोंट आज लौं कसकत ती।
सत्तनारान तिबारी जी को पैलो ब्याओ हो गओ तो, जब बे हते पन्दरा साल के। दसमीं में पड़त ते। आजी की जिद्द हती, जीके मारें; मनों दद्दा ने कड़क कें कै दइ ती कै हमाये सत्तू पुरोहितयाई नैं करहैं। जब लौं बकालत की पड़ाई नैं कर लैंहैं, बहू कौ मों नैं देखहैं। आज ब्याओ भलेंईं कल्लो, मनों गौनौ हूहै, जब सही समौ आहै। सो, ब्याओ तो हो गओ। खूब ढपला बजे, खूब पंगतें भईं। मनों बहू की बिदा नैं कराई गई। सत्तू तिबारी मेटरिक करकें गंजबसौदा सें इन्दौर चले गअे और कमरा लें कें कालेज की पड़ाई में लग गअे। उनके संग के और भी हते दो चार गाँव-खेड़े के लड़का, जिनके ब्याओ हो गअे हते, कइअक तो बाप सुंदां बन गअे हते। सत्तू तो बहू की मायाजाल में नैं परे ते, मनो समजदार तो हो गय ते। कभउँ-कभउँ सोच जरूर लेबें कै कैंसो रूप-सरूप हुइये देबासबारी को, हमाय लयं का सोचत हुइये, अब तो चाय स्यानी हो गई हुइये।
खबर परी कै देबास बारी खूबइ बीमार है और इन्दौर की बड़ी अस्पताल में भरती है। अब जौन भी आय, चाय देबास सें, चाय गंजबसौदा सें, सत्तू केइ कमरा पै ठैरै। सत्तू सुनत रैबें के तबीअत दिन पै दिन गिरतइ जा रइ है, सेबा-सम्हार सब बिरथां जा रइ है। सत्तू फड़फड़ायं कै हमइ देख आबें, मनों कौनउ नें उनसें नईं कई, कै तुमइ चलो। दद्दा आय, कक्का आय, बड़े भैया आय मनों आहाँ। जे सकोच में रय आय और महिना-दो महिना में सुनी कै डाकटरों ने सबखां लौटार दओ। फिर महीना खाँड़ में देबास सें जा भी खबर आ गई कै दुलहन नईं रई। जे गतको-सो खाकैं रै गअे।
एइ बात की कचोंट आज तलक रै गई कै जीखौं अरधांगनी बनाओ, फेरे डारे, सात-पाँच बचन कहे-सुने, ऊ ब्याहता को हम मों तक नैं देख पाय। बा सुइ पति के दरसनों खों तरसत चली गई और हम पोंचे लौं नईं, नैं दो बोल बोल पाय। हम सांगरे मरयादइ पालत रै गअे। ईसें तो आजइ को जमानो अच्छो है। संग-साथ क बचन तो निभा रय। हमें तो बस, बारा-तेरा साल की बहू को हांत छूबो याद रै गओ जिन्दगी-भर के लयं, जब पानीग्रहन में देबास बारी को हाथ छुओ तो।,,,,,,और बोइ आज लौं कचोंट रओ। 

******



bundeli laghu kathaen- surendra singh pawar


बुन्देली लघु कथाएँ 
सुरेन्द्र सिंह पवार 


१. जबाबी पोस्टकार्ड
सागर वारे भैय्या, व्हीकल फेक्ट्री, जबलपुर मा काम करत हते। बे हर महीना मनीआर्डर से रुपैए भेजत हते, संगे एक ठइयां जबाबी पोस्ट कार्ड सोई पठात हते, जौन में रुपैया कौन-कौन मद में कित्तो-कित्तो खरच करने है सोई लिख देत हते। खरच सेन बचे रुपैया गाँव में रहबे बारे छोटे भैया चन्द्र भान को देब खातिर लिखो रहत तो। भौजी खों करिया अक्छर भैंसिया बरोबर हतो सो वे कौनऊ सें चिठिया बचबाबे खें बाद जबाब लिखाउत हतीं ‘सुन करिया! (भौजी गोरी-चिट्टी थीं और भैया काले-कलूटे) तुमने भेजे दो सौ रुपैया। सो आधेलग गए पप्पू (उनका पुत्र) की दवा-दारु में। सुनो, बो ने खात है, ने पियत है। कनकने वैद कैत हते “सूखो रोग आय—होत-होत ठीक हुइये। ” अब बाकी बचे रुपइयों में नोन-तेल-लकडियें और दूधवारे की उधारी, हाथ में आहें बीस रुपइया, सो का ओढहें, का बिछाहें. रोज की साग-सब्जी और ऊपर के खर्चा , नास हो जाए जे चंद्रभान की, अब ओए रुपइया कहाँ से देहें?—चलो, एक काम करत हें। बाहर दरवाजे पे खुटिया ठुकी है, ओये हिलावें से रुपइया झरहें- सो बेई चंद्रभान खों दे देहें.’
भौजी चिट्ठी के अंत में कुछ भावुक हो जातीं और यह लिखना ण भूलतीं -‘जब टेम मिले सो आ जइयो, पप्पू बेजा याद करत है. और सुनो, “ लौटत बेर कटंगी कें रसगुल्ला सोई लेत अइयो अपने घाईं करिया-करिया’ 
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२. माँ
हमाए घर के नजीके वृध्दाश्रम आय. उते की रहबेबारी एक डुकरो दाई मेहरारू कने आत-जात हती। बे गहूं बीनने, पापड़-बड़ी सुखाने जैसे छोटे-छोटे कामों में श्रीमती की मदद करत हतीं। एक दिना संझा बेर आईं और कैन लगीं “राम- राम भैय्या, बिटिया! हलकान ने हुइयो. हम चाय ने पीहें। ”
‘राम- राम अम्मा, काय! चाय काय ने पीहो?’हमने पूछी। 
डुकरो नें कई“आज हरछठ उपासे हैं, एक बेर महुआ डरी चाय पी लई है, अब ने पी हैं।”
मोसें रुको नई गाओ, तुरतई बोल परो ‘अम्मा! बेटा-बहू ताका खों नई पूछत आंय, बीमारी सोई नें देखी, परदेस में पटक गओ और तुमबाके काजे हरछठ का उपवास करहो, कौन माटी की बनी हो?’
डुकरो खों ऐसी उम्मीद ना हती, सो पल भर चुप रै गईं, फिर धीरे सें बोलीं 'बाकी करनी बाके साथ मनो हम तो माँ आंय। 
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३. इंसानियत 
गरमी के दिन हते, भरी दुपरिया सड़क किनाए हाथ-ठेले पे ताजे फल दिखाने सो खरीदाबे खातिर लोग जुटन लगे। ओई टैम एक नओ दम्पति पौंचे। जननी केन माथे पर छलकता पसीना बता रओ हतो के बे पैर-पैदल चले आत आंय। जनानी नें आतई ठांडे होबे खातिर ठेले का सहारा लओ और ओ पे बंधे मैले-कुचैले छाजन में सर छिपाबे की कोसिस कारन लगी। बाकी कातर निगाहें कबऊ फलवाले पे टिकतीं कबऊ घरवाले पे। फलवाले ने बाकी परेसानी देखी तो ठंडा हो गाओ और अपनो स्टूल बाको बैठबे खातिर देन लगो, मनो लडखडान लगो तो ठेले का सहारा ले के सम्हर गओ। सब औरन ने देखो ओको एक पैरई ना हतो। 
अपनी मुस्किल भूल खें औरन की मदद करबे के लाने तैयार ठेलेबारे की इंसानियत देख सब प्रसंसा करन लगे। 
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४. नर्मदा मैया की जय
बरगी बाँध और नहरें तैया भईं।नहरों से पहली-पहली बार सिंचाई का पानी छोड़ने हतो। नाहर के सिंचाई क्षेत्र में ज्वार, बाजार, मका की फसलें हतीं। छोटे किसानण खों खेतों में रबी फसल की लगाबे लाने हौसला दओ जा रओ हतो। जमुनियाखड़े के परधान कोंडीलाल राय से बात भई तो वे तो एकदम उबल पड़े, बोले,-“साब!आप भरम में भूले हो, तुम्हाही जे नहरें-वहरें कछु ने चल पें हें, समझ लो, मैया कुंवारी हें, उनखों अबे तक कोऊ नहीं रोक पाओ, ने सोनभदर, ने सहसबाहू, जो तुमाओ बाँध कैसे बच हे? भगवानई जानें। ”
-दद्दू! आप ठीक कैत हो, मनो नर्मदा मैया ने किरपा की और नहरों के रास्ते खेतान माँ पौंच गईं तो का करहो?'
_“देखहें!” बिनने टालबे काजे कै दई। नियत दिना जब जमुनिया की नहरों में जल बहन लगो तो बाजे–गाजे के साथ “नर्मदा मैया की जय” बोलत भए गाँववारन के संगे सबसें आगू खड़े हते परधान कोंडी लाल राय। 
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सुरेन्द्र सिंह पंवार/ 201, शास्त्रीनगर, गढ़ा,जबलपुरम(म.प्र.)/9300104296/email- pawarss2506@gmail.com

maya chhand

छंद सलिला :
माया छंद, 
संजीव
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छंद विधान: मात्रिक छंद, दो पद, चार चरण, सम पदांत, 
पहला-चौथा चरण : गुरु गुरु लघु-गुरु गुरु लघु-लघु गुरु लघु-गुरु गुरु, 
दूसरा तीसरा चरण : लघु गुरु लघु-गुरु गुरु लघु-लघु गुरु लघु-गुरु गुरु।
उदाहरण:
१. आपा न खोयें कठिनाइयों में, न हार जाएँ रुसवाइयों में
रुला न देना तनहाइयों में, बोला अबोला तुमने कहो क्यों?
२. नादानियों का करना न चर्चा, जमा न खोना कर व्यर्थ खर्चा
सही नहीं जो मत आजमाओ, पाखंडियों की करना न अर्चा
३. मौका मिला तो न उसे गँवाओ, मिले न मौक़ा हँस भूल जाओ
गिरो न हारो उठ जूझ जाओ, चौंके ज़माना बढ़ लक्ष्य पाओ
#हिंदी_ब्लॉगर
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navgeet- raajmarga

नवगीत
राजमार्ग
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राजमार्ग होने
जनपथ ही मुजरा करवाता
गलियों से.
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आंदोलित होती जो राहें
उसको बैरी सम खलती हैं.
सहयोगी होती जो बाँहें
कुचली जाकर कर मलती हैं.
देहरी-मोरी जय न बोलतीं 
दाल वक्ष पर ज्यों दलती हैं
कुंठित-मिथ्या
आश्वासन दे, करवा फ़िकवाता
कुलियों से.
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पर्व मनाता है नुचवाकर
जुही-चमेली को माली से.
परदेसी का मन बहलाता
नथ-बेंदा मँगवा गाँवों से.
एड़ी में जो फ़टी बिमाई
दिखे न, मेंहदी ला बागों से
तितली ला
नारी-विमर्श के जुमले कहलाता
मिसरी दे.
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बेच खेत-बाखर भूखे हो
मजबूरी में मजदूरी कर,
तन बेचो, मन कुचलो पल-पल
अंकशायिनी अंगूरी कर.
भूल किताबों में गुलाब रख
रात नशीली मगरूरी कर
नेता अफ़सर
सेठ त्रयी का मन बहला
नित निज ललियों से.
...
संजीव
८-१२-२०१७ 

दोहा दुनिया

दोहा दुनिया
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शिव न जोड़ते श्रेष्ठता,
शिव छोड़ते त्याज्य.
बिछा भूमि नभ ओढ़ते,
शिव जीते वैराग्य.
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शिव सत् के पर्याय हैं,
तभी सती के नाथ.
अंग रमाते असुंदर,
सुंदर धरते माथ.
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शिव न असल तजते कभी,
शिव न नकल के साथ.
शिव न भरोसे भाग्य के,
शिव सच्चे जग-नाथ.
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शिव नअशिव से दूर हैं,
शिव न अशिव में लीन.
दम्भ न दाता सा करें
कभी न होते दीन.
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शिव ही मंगलनाथ हैं
शिव ही जंगलनाथ.
जंगल में मंगल करें,
विष-अमृत ले साथ.
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शिव सुरारि-असुरारि भी,
शिव त्रिपुरारि अनंत.
शिव सचमुच कामरि हैं,
शिव रति-काम सुकंत.
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शिव माटी के पूत हैं,
शिव माटी के दूत.
माटी-सुता शिवा वरें,
शिव अपूत हो पूत.
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शिव असार में सार हैं,
शिव से है संसार.
सलिल शीश पर धारते,
सलिल शीश पर धार.
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शिव न साधना लीन हों,
शिव न साधना-मुक्त.
शिव न बाह्य अन्तर्मुखी,
शिव संयुक्त-विमुक्त.
...
संजीव
8.12.2017