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गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

bundeli laghukatha- rashi singh

बुंदेली लघुकथा के द्वार पर
राशि सिंह, मुरादाबाद
एम. ए. अंगरेजी साहित्य, बी.एड., एलएल. बी.
१. सूर्यास्त
*
''अब काहे बैठे हो जा तरे से मुँह लटकाये,जाओ! हाथ-पाँव धोय लेओ और गैयन के हरियायी मिलाय आओ।'' ताशला ने अपने पति चरन सिंह को समझाते हुए कहा ।
''अरे का करैं कछऊ समझ में नाय आ रई। एक तो जो अंबर पर बादर तनो पडो है और मेरे मन में बिजरी चमक रही है, राम जाने का हौयगो?''चरन सिंह ने बेचैनी से टूटी हुई खाट से उठते हुए कहा ।
''अरे तुम चिंता नाय करो -ऊपर बारो इतनो निर्दयी नाय जो हमारी फ़सल को नुकसान पहुँचायगो।''-ताशला ने भरोसे सें कहा ।
''देख ताशला! इते फ़सल को कोई भरौसो नाय है और उते सीमा पर हमारो लाल तैनात है गयो। मन भौत घबराय रहो है
मोय दोनों लाल मुश्किल में आंय ।''-चरनसिंह अपने कुर्ते की जेब को बेबजह टटोलते भए बोलो।
''दोनों लाल? हमाओ तो!''
''हओ, हमाओ एकई लाल आय पर मैं तो जा फ़सल को भी अपनो लाल मानत हौ। का करौं ?''चरन सिंह ने मेहरारू की बात काटत भए कहो।
'तबई आसमान में बिजुरी कौंधी और तेज बारिस के साथ ओले पड़ने लगे। ''ताऊ! प्रकाश की चिठिया डाकिया दे गओ है !'' कैत भए एक पडोसी बारिश में भीगत-भगत चरनसिंह की झुपड़िया में दाखिल भओ।
''पिता जी! दुश्मन ने हमारे कैम्प पे हमला कर दओ है। हम दो-दो हाथ कर रए मनो कछू अनहोनी होय तो अपनो और अम्मा को ध्यान रखिओ।'' पढ़तई चरनसिंह का सिर घूम गओ। ऐसो लगो मनो जिनगी को सूरज अस्त होबे बारो है।
तालशा ने देखतई चरण सिंह के हात सें गिरी चिठिया उठा खें बाँची और कई 'मन काए गिरात हो, बा देखो इतनी बारिस होय खें बाद भी बा चिरइया घोंसला नई छोर रई। जा लेओ सूरज देवता सोई बिदा माँगबे काजे झाँकन लगे मनो बे बे कल्ल सकारे फिर आजैहें। जॉन कहें बाद सूर्योदय नई हो, कबऊँ देखो आय ऐसो सूर्यास्त?' कैत भई त्रिशाला दिया-बत्ती करन लगी।
७-११-२०१७
***
२. गिरगिटान
*
''अब बात नें बनेगी जी!लल्ला को दूसरो ब्याओ करन पडैगो ।'' ठकुराइन ने ठाकुर साहब के हुक्के में तम्बाखू की पुडिया खोलत भए कहो ।
''पर भओ का है? कैसी बौरा रही है? काए अनाप-शनाप बक रही है?'' ठाकुर साहब ने गुर्राते भए टोंको।
''अब हमकौ दादी बननो है बस्स, हम कच्छू ने मानें।''ठकुराइन ने पल्ला संभालते भए तिरछी नज़ए सेन ठाकुर कौन देखत भए बात पूरी की।
''जा बहुरिया नें बन सकत माँ, जाय तो निकार देओ घर से ।''ठकुराईन ने ठाकुर साहब के नजीक आते भए मन की बात काई।
''अरे! काहे सिर पर चढ़ी आत हो?''ठाकुर साहब ने झल्लाते हुए कहा। ''आज लल्ला को भी भ्रम मिट जायगो। गओ है डाक्डरानी के धौरे बहुरिया को इलाज करबाबे।'' कहत भए दोनों जोर से हँस परे।
''अरे बहू! लल्ला को का है गयो? किते आय? संगै नई आओ?''ठकुराइन ने मुतके सवाल एकई सात पूछ लए।
''माँ जी! वो , वो !''
''अरे का बो-बो लगा रई है? जल्दी बता, का है गओ?'' ठकुराइन ने परेशान होत भए पूछी।
''बे दवाई लेबे गये हैं''
''अरे दवाई से कछू न होयगो, सब बेकार है, तेरे न होयगी औलाद।'ठकुराइन मूं बनात भी बड़बड़ाई।
''माँ जी! बे अपनी दवाई लेने गये हैं, हम.. हमें... तो बिल्कुल ठीक बताओ है डाक्टरनी बाई ने।''बहू ने सकपकाते हुए कहा और जान बचात भई अपने कमरा में घुस गई ।
''अब कौन खों ब्याओ करेगी?'' ठाकुर साहब ने व्यंग से कहा।
''अरे नाय! हम नांय मान सकत के हमाए लल्ला में कौनऊ कमी आय? मनो कछू होय भी तो मेहरारू को धरम है मरद को साथ निभाए।' रंग बदलने लगे थे दोनों और खिड़की सेन झाँक री हटी गिरगिटान।
६-११-२०१७
***
३. फ़ैसला
*
पंचायत जुटई हती के पुरानी फटी धोती में खुद को छिपाबे की कोसिस करती एक औरत डरते भए हाजर भई। ओई की आड़ में एक सोला-सत्रा साल की मोंड़ी पुरानी सी चुन्नी सेन सर ढँके हती। भीड़ ने दोऊ जनी को रास्ता दओ, फुसफुसाहट बड़ गयी ।
''सरपंच साब जा डायन आय। अपने खसम कहें खा गई। एई के मारेगाँव में बीमाबीमारी फ़ैल रई । जाए गाँव सें निकार देओ एक बोला। जाए जिन्दा जला दो ।' दूसरा चिल्लाया ।
''कलई मोर बच्चा मर गओ, जाई डायन खा गयी ओको।''इस बार एक महिला चिल्लाई।
''दोऊ माँ-बिटिया खें कुये में धक्का दओ जाए सरकार।''इस बार फिर भीड़ में से आवाज आई ।
दोई माँ-बेटी थर-थर काँप रईं हतीं। बे एक दूसरे सें लिपट के हिम्मत रखबे की कोसिस कर रई हतीं।
''जाई औरत डायन आय?'',सरपंच जी ने ओई औरत की तरफ उंगरिया उठा खें पूछो।
''हओ सरकार'' सबनें तुरतई कई।
''तुम ओरें कैत तो आज सेन से एक महीने काजे हम ईखों गाँव निकार दैहें मनो बाके बाद गाँव में कौनउ मौत भई तो ओई घर के लोग जिम्मेदार हुईहें और उनको सोई जाई सजा दई जईहे।''सरपंच जी ने फ़ैसला सुनाओ तो भीड़ को साँप सूँघ गओ ।
''काए, अब काए नई बोल रए कछू? जे माँ-बिटिया गरीब-बेसहारा आंय सो तुम औरन मदद करे की जगा डायन कै रए, गाँव सें निकार खें इनको खेत कब्जान चात हों।'' सरपंच जी लाल भभूका हते।
''जे बीमारी और मौतें गंदगी की बजह से हर साल होत आंय। मनो तुम औरें साफ़-सफाई नई रखत। काल्ह डाक्टरनी बाई और नर्स आहें। उन सें पूछ-गूछ खें बाल-बच्चन की साफ़-सफाई के बारे में औरतन खें सीख मिल जैहे तो जे मौतें कम हो जैहें।''
जा बात ध्यान सें सुन लेओ, जे महतारी-बिटिया कहूँ ने जैहें, इनें कौनऊ कास्ट नें होय। जे दुआ दैहें तो तुमाए बाल-बच्चा सलामत रैहें'',दूसरे पंच ने कहा। सबई गाँव वारे सिर झुकात भए अपनी गलती मान खें साफ़-सफ़ाई रखने को संकल्प करके चल दए। दोऊ माँ-बिटिया की जान में जान आई। सबने कई दूध का दूध पानी का पानी घाईं फैसला हो तो ऐसो।
५-१०-२०१७
***

४. बिखरे तिनके
*
'' भानू की माँ! आज कछू नाश्ता-वाश्ता मिलेहे की नई ?'' ओमवीर ने अपनी घरवाली शीला आवाज दई।
''अब्बई ला रई, हाला काय कर रए? तनक सबर करो'' शीला ने उत्तर दओ।
''लेओ, अपनी पसन्द के पराँठे आलू के!''
''तुम काए बना रईं नाश्ता? दोऊ बहुएं किते गईं?'' ओमवीर ने जाननो चाहो।
''काय मोरे हाथ के बनाए माँ कछू खराबी है का?'' शीला ने गुस्से सें पूछी।
''नई नई, बहोत दिना बाद बना रई हो ना ऐइसे !'' ओमवीर ने सकपकाते भए सफाई दई।
''दोऊ जनीन आज सें अलग-अलग रसोई बनान चात!'' शीला की आँखों में आँसू आ गए।
''काय, का भओ?''
''दोऊ भैयन में मुतके दिना सें बातचीत बंद हती। अब बहुएं सोई... मनो कौनौ फरक नईया, बच्चे खुस तो अपन सोई खुस'' शीला ठंडी सांस ले के बोलीं।
''ठीक कैत हो, लगत है घरौंदा बिखर रओ, जब छोटे हते तो दोऊ एक-दूसरे के साथ खाबे ,खेलबे, सोबे काजे लड़त हते। मजाल हती के कोई अलग कर दे और आज एक दूसरे से बात तो दूर, मूँ भी देखना भीगवारा नई!''
आलू का पराँठा प्लेट में धरो-धरो ठंडा राओ हतो, ओमवीर और शीला के अरमानों की तरह।
५-१२-२०१७
***
५. सौगात
*
''का बात है भौजी! आज तो मुखडे को नूर कुछ औरई कह रओ आय, बताओ नें --का भइया आ रए?''  घूँघट की ओट में लजाती-शरमाती बिजुरी खें ननदिया चंदा ने छेडते भए पूछी तो लजाई बिजुरी ''धत्त'' कहत भई कोठरी में घुस गई। उसका मर्द दूर सहर में टेक्सी चलात हतो। आज बिजुरी भौत कुस हती। खुश होबे का कारन भी हतो। ब्याहबे के तुरतई बाद मर्द नौकरी के काजे सहर चलो गओ हतो। हमेसा चुप्प रहबेबारी बिजुरी और उसकी पायल दोनों आज घर माँ मधुर संगीत उत्पन्न कर रई हतीं।
बिजुरी का पति आओ और दस दिना रहखें सहर वापस चलो गओ।  बिजुरी भौत रोई मनो पति के दिलासे से कि बो जल्दी फिर से आ जैहे खुस हो गई।
''का बात है बहुरिया! कमजोर होत जाय रही है , कौनउ बीमारी है का?''बिजुरी के ससुर ने एक दिन उसकी सास से पूँछा ।
''हाँ, इस दफ़ा तो लल्ला भी कमजोर लग रओ हतो,जाने का बात है?'' सास ने फिकर सें कहा। कछू दिना बाद  बिजुरी का पति फिर घर आओ। अबकी पिता ने कई ''चलो लल्ला! डाँकटर के धौरे चलो, सूख कै पिंजर हो रए और बहुरिया को सोई चली चले। थोड़ी नं-नुकुर केन बाद दोऊ जने सहर जाके इलाज काजे तैयार हो गए।
अस्पताल में जाँचें भईं और जब डाक्टर ने सच बताओ तो बिजुरी की तो मानो दुनिया उजड़ गई। दोनों एच.आई.बी. पोजिटिब हते।
अस्पताल के लोग हिकारत की नजर से देखत हते, मनो हालात से अन्जान बिजुरी घूँघट की ओट सें अपने मनबसिया को हेर खें खुस होत ती। उसे का मालूम मनबसिया कैसी सौगात दे गओ हतो। 
***
हिंदी लघु कथा
शीर्षक----'पेड़ से कटकर '
एक विशाल बरगद का पेड़ बडी शालीनता के साथ विशाल शाखाओं  का बोझ लादकर खडा था  । धूप ,,,बरसात और ठंड हर मुश्किल का सामना बडी समझदारी और सहनशीलता से करता था ।
एक दिन  डालियाँ हवा के झौंकों के साथ मस्ती में डूबकर लहरा रहीं थीं। तभी एक डाली को शरारत सूझी और उसने दूसरी डाली से कहा --
''देखो बहिन इस बरगद की शोभा हमसे है --लेकिन लोग गुणगान इसका करते हैं  एक दिन इससे अलग होकर दिखायंगे कि इसका महत्त्व ज्यादा है या हमारा हमसे ही तो है इसका असित्तव बना फिरता है हमारा परिवार -----मुझे तो बहुत ही क्रोध और अब तो ईर्ष्या भी होने लगी है इससे --हमारी सुंदरता को कोई नहीं बखानता ---!''
''हाँ --हमसे ही तो इसकी सुंदरता है ---!''दूसरी ने गर्व से मुँह बनाते हुए कहा ।
तभी एक लकड़हारा आया और पेड़ पर चढ गया लकडी काटने के लिये --और एक -एक कर कई डालियाँ काटकर उसने नीचे फेंक दीं ---।कटी हुई डालियाँ रूँदन करने लगी तो वे दोनों डालियाँ जो अभी तक परिवार रूपी पेड़ की बुराई कर रहीं थीं ,सिंहर उठी डालिओं की दुर्दशा पर ।
लकड़हारे ने सारी डालिओं को खींच कर एक स्थान पर एकत्रित किया और अपमी कुल्हाडी से उनको अनेक टुकडो मे विभाजित कर दिया --।तोड़ कर रख दिया ।
सभी टहनिया चीत्कार करती रहीं ,परंतु अब पेड़ से कटकर उनका कोई भी अस्तितव नहीं रह गया ।मात्र कूडे का ढेर बनकर रह गयीं जलने के लिये ।पेड अब भी खडा था इस विश्वास के साथ कि टहनियाँ फिर उगेन्गी और परिवार फिर हरा -भरा हो जायेगा परिवार से टूटकर --कटकर किसी कोई मोल नहीं --!
8/12/17
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दोहा

शिव नरेश देवेश भी,
हैं उमेश दनुजेश.
सत-सुन्दर पर्याय हो,
घर-घर पुजे हमेश.

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

यू ट्यूब पर

navgeet ke dwaar par arun khare

नवगीत के द्वार पर

अरुण अर्णव खरे
आत्मज- स्व० गया प्रसाद खरे
शिक्षा - बी०ई० (मेकेनिकल)
प्रकाशित : काव्यसंग्रह - मेरा चांद और गुनगुनी धूप गीतिका संग्रह -रात अभी स्याह नहीं. खेलों पर छ: पुस्तकें,
आठ साझा संकलनों में सहभागिता.
सम्मान: गुफ़्तगू सम्मान इलाहाबाद.
सम्प्रति:  सेवा निवृत मुख्य अभियंता लो०स्वा०यांत्रिकी विभाग मध्यप्रदेश.
सम्पर्क: डी- १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद रोड, भोपाल (म०प्र०) ४६२०२६
चलभाष: ०९८९३००७७४४, ईमेल: arunarnaw@gmail.com
संयोजक गया प्रसाद स्मृति कला, साहित्य व खेल संवर्द्धन मंच भोपाल, अट्टहास पत्रिका लखनऊ के मध्य प्रदेश पर केन्द्रित अंक का संपादन.
*
नवगीत -१
मेरे गीत अधबुने सही
किन्तु अनमने नहीं तुम्हारे जैसे ।

रंग चोखा करने निकले तुम
न हींग हाथ
न फिटकरी पास ।
कुछ दिन भरमा लिया तुमने
दिखा दिवास्वप्न
यायावरी आस ।
मेरे पाँव रुके-रुके सही
चले ठगने नहीं तुम्हारे जैसे ।

जीवन पहले से बँटा हुआ था
शतरंज सरीखा
चौंसठ खानों में ।
तुमने और बाँट दिया उसको
रेतीली फिसलन भरी
ढलानों में ।
मेरे सपने अपूर्ण सही
पर झुनझुने नहीं तुम्हारे जैसे ।
***
नवगीत - २
साँझ- सकारे उमड़े बादल ।
गरज-गरज कर लौट गए फिर
लगते उखड़े-उखडे बादल ।

सोचा था तुम आओगे तो
देह-देह का ज्वर उतरेगा ।
बूँदों के घुँघरू बाँधे कोई
अंश तुम्हारा पाँव धरेगा ।
कितना छलना सीख गए हो
लेकर दो-दो मुखड़े बादल ।

बनी नदी जो रेख रेत की
पता नहीं कब चल पायेगी ।
गोने की बाट जोहती जो
पता नहीं कब मुसकायेगी ।
अग्नि-वर्षा सी कर जाते हो
होकर सौ-सौ टुकड़े बादल ।

साँस-सॉंस तक क़र्ज़दार है
मौसम के साहूकारों की ।
ख़ून-पसीने का मोल नहीं
मनमर्ज़ी है सरकारों की ।
आश्वासन जैसे कोरे हो
दिखते चिकने-चुपड़े बादल ।
***
नवगीत - ३
कारे-कारे मेघा घुमड़-घिर आए ।
गाँव, अँगना लेकर पानी फिर आए ।

बो गया था देह-देह में,
दिनकर काँटे बबूल के ।
गली-कूचे गढ़ रही थी,

हवा वातचक्र धूल के ।
गमले में सो रही नागफनी में भी,
निकल दसकंधर से ज्यादा सिर आए ।

ज्वर में तपती धरती की,
पीड़ा तनिक सी कम हुई ।
वर्षा की शीतल फुहार,
हर घाव पर मरहम हुई ।
मन को शांती मिली विल्कुल वैसे ही,
वर्षों बाद ज्यों कोई मंदिर आए ।
***
नवगीत - ४
शर-शैय्या पर मिलता है अनुपम आनन्द |
पीड़ा से रिसते हैं जब-जब केसरिया छन्द |
पलकों पर पसरा है
वियोगी अहसास |
अधरों पर रूखापन है
सांसों में संत्रास |
आँखों में चुभते हैं चम्पई मकरन्द |
पीड़ा से रिसते हैं ***
बाहों मे सिमटा है
छुई-मुई सुधियों का तन |
रुई की फाहों से स्पर्श
लुभाते हैं मन |

अधरों से दूर हुए प्रणय-गीत बन्ध |
पीड़ा से रिसते हैं
***
नवगीत - ५
गुलमोहर की पाँखों पर
चुपके से उतर आई भोर |

इतराए अमलतास, चम्पा गंध बिखेरे |
रह-रह अमरबेल को मस्त पवन आ घेरे |
सूरजमुखी विहँस रहे
थामे किरणों की अविरल डोर |

कलियों के फेर में हैं मधु के रसिक भँवरे |
विचलित कब हुए वे देख काँटों के पहरे |
है बसंत जब तलक चलेंगे
अनगिन मधुपान के दौर |

चूमा जिसे तितलियों ने वह कली जवान हुई |
रूप का लावण्य देकर प्रकृति मेहरबान हुई |
झलकने लगा है आँखों में
छुपकर बैठा मन का चोर |

ठहरी-ठहरी नदी विहँसते हुए चलने लगी |
जल्द प्रिए से मिलूँगी, आकांक्षा पलने लगी |
सबको दिल की बात सुना दी
जो गया सागर की ओर |
... अरुण अर्णव खरे,  डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद रोड, भोपाल (म.प्र.) ४६२०२६
e mail : arunarnaw@gmail.com, चलभाष : ९८९३००७७४४   

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

navgeet

नवगीत
दिन दहाड़े
.
दिन दहाड़े लुट रही
इज्जत सड़क की
.
जन्म से चाहा
दिखाकर राह सबको
लक्ष्य तक पहुँचाए
पर पहुँचा न पाई.
देख कमसिन छवि
भटकते ट्रक न चूके
छेड़ने से, हॉर्न
सीटी भी बजाई.
पा अकेला ट्रालियों ने
रौंद डाला-
बमुश्किल रह सकी
हैं श्वासें धड़कती.
सेल्फ़ी लेती रही
आसें गुजरती.
.
जो समझ के धनी
फेंकें रोज कचरा
नासमझ आकर उठा
कुछ अश्रु पोंछें.
सियासतदां-संत
फ़ुसला, बाँह में भर
करें मुँह काला
ठठाकर रौंद भूले.
काश! कुछ भुजबल
सड़क को मिल सके तो
कर नपुंसक दे उन्हें
इच्छा मचलती.
बने काली हो रही
इच्छा सड़क की.
.
भाग्य चमके
भूलते पगडंडियाँ जो
राजपथ पा गली
कुलियों को न हेरें.
जनपथों को मसल-
छल, सपने दिखाते
लूट-भोगें सुख, न
लेकिन हैं अघाते.
भाग्य पलटे, धूल
तख्तो-ताज लोटे
माँ बनी उनकी
चुपाती, खुद सिसकती.
अनाथों की नाथ है
छवि हर सड़क की.
***
संजीव, ९४२५१८३२४४ 
salil.sanjiv @gmail.com
#हिन्दी_ब्लॉगर, www.divyanarmada.in 

सोमवार, 4 दिसंबर 2017

muktak chhand harigitikaa

मुक्तक
.
संवेदना की सघनता
वरदान है, अभिशाप भी.
अनुभूति की अभिव्यक्ति है
चीत्कार भी, आलाप भी.
निष्काम हो या कामकारित
कर्म केवल कर्म है-
पुण्य होता आज जो, होता
वही कल पाप है.
छंद- हरिगीतिका
...

bundeli laghu katha

बुंदेली लघु कथा 
प्रभुदयाल श्रीवास्तव, छिंदवाड़ा  
*
आपने आश्रम में बाबाजू अधलेटी अवस्था में विश्राम कर रये ते|भक्तन की भीड़ लगी ती और बाबाजू की जै जैकार हो रै ती| एक लुगाई बाबाजू के पांवं पे माथो धरकें गिड़गिड़ा रई ती|

"किरपा करो बाबा मोरे मोड़ा खों ठीक कर दो बाबा,ऊकी अकल ठीक कर देओ,ऊखों ग्यान दे दो,ऊखों खूब प्रसिद्धि दे दिओ और ऊखों ऐसो आसीर्बाद दे दिओ के सबके सामने मूड़ उठा जी सके||"

"किंतु बिन्ना तोरे मोड़ा खों का दुख है,कछु तकलीफ हे का?" बाबाजू ने पूंछी

"महराज ऊ सच्ची बोलत‌ है|दिनभर सांची बोलत रेत,भुन्सारे सें रात सोउत लो सांची बोलत|झूंठी बोलई नईं पाउत| कित्तौ समझाउत सिखाउत असरई नईं परत|"

"और का दिक्कत है बेटी|"

"महराज ऊ ईमानदार सोई है,ने कौनौउं सें पैसा एँठ सके ने मुफत को माल का सके|'

"आगे बोलो बिटिया|"

जब देखो गरीबों भुखमरों की सेवा में लगो रेत|अपने हिस्सा की रोटी लो गरीबन खों दे आउत| कौनौउं दोरे सें खाली हाथ नईं जा पाउत|

केन लगत है 'अतिथि देव भव' पता नईं कौन सी भाषा बोलन लगो है|पैसा बारन सें तो भौतई घिन‌यात|"

" ईमें का बुराई है बाई,गरीबों की मदद तो अच्छी बात आये|'

" महराज मैं चाहुत हों के बो अमीरों में रेकें पैसा कमाबे के हुनर सीखे| महराज बो गौतम बुद्ध और महाबीर स्वामी की सोई बात करत‌ रेत|कबऊं कबौउं गांधीजी के बारे में सोई बतकाव करत|"

"बेन तुम का चाउतीं हो?"

"मैं का बताऊं महराज,मोरी तो इच्छा है के बो खूब पैसा कमाबे,चोरी करबो सीखे और मौका परे तो बेंक लूटकें पच्चीस पचास लाख रुपैया बटोर ले आये|"

और तोरी का इच्छा है बेन अपने मौड़ा के लाने?'

मोरी इच्छा है महराज के बो अबू सलीम बन जाये, तेलगी के रस्ता पे चले, नटवर लाल जैसे आदमियन से दोस्ती करे तो महराज ऊके उद्धार हो जेहे|"

"काये तुम इन लफेंदन में परीं हो,लरकाखों काये बिगाड़ो चाहतीं हो?"

"महराज जो बिगाड़ नोईं सुधार आये ,सुधरहे नेँ तो समाज में केसें जगा बना पेहे| बिना पईसन कौ, को पूंछत,चार छै लठेत संगे रेहें तो गांव भर सलाम करहे| नेता सोई आगे पाछॆं फिरहें के भैया चुनाव में उनकी तरपे रईओ| मैं सोई बहादुर मौड़ा की मतारी बनो चाहत|

महराज जब बौ बेंक लूट कें ले आहे और जेल जेहे तो महराज मोरी छाती जुड़ा जेहे और जेल सें छूटबे पे ऊके संगी साथी जब ऊके गरे में हार डारकें ऊकी जय जयकार करहें तो मोरी छाती तो गजभर फूल जेहे |महराज जॊ गरीबों को हक ने मार सके ,लूटपाट ने कर सके छेड़छाड़ ने कर सके ऐसो मोड़ा मोये नईं चानें|'

"ठीक के रईं बिन्ना,हमाई आसीस तुमाये संगे है, जैसो चाहतीं हो तुमाओ मोड़ा ऊंसई बन जेहे|मौड़ाखों चुनाव लड़वाओ,पंची सरपंची सें सुरु करो|भगवान सूदे रये तो सब ठीक हो जेहे|"
***
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bundeli laghu katha

बुन्देली लघुकथाएँ

प्रदीप शशांक 
१. लालच 
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'काय ,सुनो तो जरा, हमका ऊ कलेंडर मा देखेके बतावा कुम्भ ,सोमवती अमावस्या ,कारतक पूरनिमा कौनो तारीख मा पड़ रई आय?'
गोपाल ने अपनी बीवी की ओर अचरज से देखत भये पूछी -- 'तुमको का करने है ई सब जानके ?' 
कछु नई हम सोचत हते कि कौनो ऐसे परब के नजदीक मा सासु मां को तीरथ के लाने भिजवाई दें , मांजी को तीरथ भी हो जायगो और भीड़-भाड़ की भगदड़ मा दब-दबाकर बुढ़िया मर जावे तो सरकार से हम औरन को मुआवजा में एक लाख रुपइया भी मिल जेहे और बुढ़िया से मुक्ति ।
गोपाल हतप्रभ हो अपनी बीवी की आँखन में लालच की चमक देखत रह गओ । 
*** 
2--- जागरूकता 
----------------
आदिवासी जिला के सरकारी अस्पताल में दो दना से औरतों को नसबन्दी शिविर चल रहो थो । ऊ शिविर में नसबन्दी करावे के काजे औरतन की बहुत भीड़ हती ।उ न में परिवार नियोजन के लाने बढ़ती जागरूकता से डागदर भी मन ही मन बहुत खुश हो रओ थो
उत्सुकतावश डाक्टर ने मजदूर औरत से नसबन्दी करावे को कारन पूछो तो बा बोली:अरे डागदर साब! कछु मत पूछो ,हम मजदूरी करवे जात है तो ठेकेदार परेशान करत है और फिर नों महीना तक ओको पाप हम औरन को भोगवे पड़त है । ई बीच मा मजदूरी भी नाही मिलत हती, सो हमें और हमरे बच्चों को भूखे मरवे की नोबत आ जात थी । ऐई से ई सब झंझट से मुक्ति पावे हम ओरें नसबन्दी करवा रए हैं । 
डॉक्टर उन की जागरूकता का रहस्य जानकर अवाक रह गए । 
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३. ठगी 
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" काय कलुआ के बापू, इत्ती देर किते लगाये दई? वा नेता लोगन की रैली तो तिनै बजे बिला गई हती ना? सौ रुपैया तो मिलइ गए हुइहें? " 
रमुआ कुछ देर उदास बैठा रहा फिर उसने बीवी से कहा -- " का बताएं इहां से तो बे लोग लारी में भरकर लेई गए थे और कई भी हती थी कि रैली खतम होत ही सौ-सौ रुपइया सबई को दे देहें ,मगर उन औरों ने हम सबई को ठग लऔ । मंत्री जी की रैली खतम होवे के बाद सबई को धता बता दओ । हम ओरें शहर से गांव तक निगत-निगत आ रए हैं । बा लारी में भी हम औरों को नई बैठाओ । बहुतै थक गए हैं । आज की मजूरी भी गई और कछु हाथे न लगो ,अब तो तुम बस एकइ लोटा भर पानी पिलाए देओ,ओई से पेट भर लेत हैं।" 
रमुआ की बीवी ऐसे ठगों को बेसाख्ता गाली बकती हुई अंदर पानी लेने चली गई ।
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४. आस का दीपक 
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" आए गए कलुआ के बापू! आज तो अपन का काम होइ गओ हुईए''  कहत भई बाहर निकरी  तो आदमी के मूँ पे छाई मुर्दनी देखतई  खुशी से खिला उसका चेहरा पीलो पड़ गओ । 
रघुवा ने उदास नजरों से अपनी बीवी को देखा और बोला- " इत्ते दिना से जबरनई तहसीलदार साहब के दफ्तर के चक्करवा लगाए रहे, आज तो ऊ ससुरवा ने हमका दुत्कार दियो और कहि कि तुमको मुआवजा की राशि मिल गई है ,ये देखो तुम्हारा अंगूठा लगा है इस कागज़ पर और लिखो है कि रघुवा ने २५०० रुपैया पा लए । " 
जिस दिन से बाबू ने आकर रघुवा से कागद में अंगूठा लगवाओ हतो और कही हती कि सरकार की तरफ से फसल को भये नुकसान को मुआवजा मिल हे , तभई से ओकी बीवी और बच्चे के मन में दिवाली मनावे हते एक आस का दीपक टिमटिमाने लगा था , लेकिन बाबुओं के खेल के कारण उन आंखों में जो आस का दीपक टिमटिमा रहा था वह जैसे दिए में तेल सूख जाने के कारण एकाएक ही बुझ गया । 

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hindi gazal / muktika 2

हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
पाठ २ 
हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका कहें क्योंकि हर द्विपदी (दो पंक्तियाँ या शे'र) शेष से मुक्त अपने आप में पूर्ण होती हैं। मुक्तिका में पदांत तथा तुकांत गज़ल की ही तरह होता है किन्तु पदभार (पंक्ति का वजन) हिंदी मात्रा गणना के अनुसार होता है। इसे हिंदी के छंदों को आधार बनाकर रचा जाता है।  उर्दू ग़ज़ल बहर के आधार पर रची जाती है तथा वजन तकती'अ के मुताबिक देखा जाता है. जरूरत हो तो लघु को गुरु और गुरु को लघु पढ़ा जा सकता है, मुक्तिका में यह छूट नहीं होती। 
लयखंड / गण / रुक्न -
अक्षर (हर्फ़) मिलकर शब्द बनाते हैं। शब्दों का समूह वाक्य है जिसका प्रयोग गद्य लिखने में किया जाता है। पद्य लेखन में लय का महत्त्व सर्वविदित है। लयखंड अक्षरों का ऐसा समूह होता है जिसकी आवृत्ति अथवा जिनके सम्मिश्रण से गायी जा सकने वाली काव्य पंक्तियाँ बन सकें। ध्वनि, अक्षर व मात्रा के दो रूप लघु (ह्रस्व, छोटी) व् दीर्घ (बड़ी) हैं जिनका भार (वज़न) क्रमश: १ तथा २ गिना जाता है। 
गण: 
हिंदी पिंगल में लय-खंड ८ हैं जिन्हें गण कहा जाता है। इन्हें एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' से याद रखा जा सकता है। प्रथम आठ अक्षर गण  का नाम बताते हैं जिसके साथ अगले दो अक्षर मिलकर उस गण का भार सूचित करते हैं-
यगण    यमाता     १२२   ५ मात्री    दुलारा, पिला दे, उठा ला  
मगण    मातारा     २२२   ६ मात्री    मायावी, दे ताली, राजा जी   
तगण    ताराज      २२१   ५ मात्री    वातास, दो बोल, आओ न 
रगण     राजभा      २१२   ५ मात्री    रंजना, भोर में, हे उषा 
जगण    जभान      १२१    ४ मात्री    बयार, उठा न, न मार 
भगण    भानस      २११    ४ मात्री    देवर, बोल न, जा मत 
नगण    नसल        १११    ३ मात्री    कथन, कह न, न रुक 
सगण    सलगा       ११२   ४ मात्री    करनी, वर दे, न कहो 
रुक्न (बहुवचन अरकान): 
(अ) उर्दू छंदशास्त्र के ७ बुनियादी इरकान निम्न हैं-
फ़ऊलुं  १२२                ५ हर्फ़ी      सवाली, कहो तो, सही है    (यगण)     
फ़ाइलुं  २१२                ५ हर्फ़ी      वायदा, मात दी, है यही     (रगण)     
मुस्तफ़इलुं २१११२        ७ हर्फ़ी      नायबगिरी, ये वतन है      (भगण लघु गुरु, गुरु लघु सगण, गुरु नगण गुरु)
मफ़ाईलुं १२२२            ७ हर्फ़ी      करामाती, कहाँ जाएँ         (यगण गुरु, लघु मगण) 
फ़ाइलातुं  २१२२           ७ हर्फ़ी      तीनतारा, चाँद आया        (रगण गुरु, गुरु यगण)
मुतफ़ाइलुं                   ७ हर्फ़ी      फ़रमाइशी, अपना जहां     (सगण नगण) 
मफ़ऊलात                   ७ हर्फ़ी      खुदमुख्तार,                    (सगण गुरु लघु, लघु लघु तगण)
ज़िहाफ़ (इरकान में बदलाव) 
फ़ाइलातुन के अंत में 'न' को हटा दें तो शेष फ़ाइलातु (फ़ाइलात) तथा 'तुन' को हटा दें तो फ़ाइला (फाईलुं) शेष रहेगा। 
मफ़ाईलुं से 'न' गिराकर मफ़ाईल, मफ़ऊलात 'त' हटाकर मफ़ऊला (मफ़ऊलुं), मफ़ऊलुं से मफ़ऊलु (मफ़ऊल), फ़ऊलुं से फ़ऊल (जगण) बनाया जाता है। फऊलुं से फ़ गिराने पर ऊलुं बचता है जिसे फेइलुं लिखा जाता है।  इरकान में बदलाव करने को ज़िहाफ़ कहा जाता है। ज़िहाफ़ों (ज़िहाफ़ात) से उर्दू शायरी की खूबसूरती बढ़ती है। ज़िहाफ़ के ३ तरीके है- 
१. इज़ाफ़ा - अक्षर बढ़ाना। 
२. सुकूत - एक या अधिक अक्षर गिराना (घटाना)। जैसे मफ़ाईलुं से 'ईलुं'  गिरा दें तो 'मफ़ा' बचा जिसे 'फइल' (नगण) लिखते तथा 'फ़ेल' पढ़ते हैं।     
३. तहरीक - साकित अक्षर को मुतहर्रिक (चलता हुआ) करना।      
ज़िहाफ़ के २ और प्रकार  'ख़ास' और 'आम' ज़िहाफ़ भी हैं।   
(आ) मुज़ाहिफ़ (ज़िहाफ़ से प्रभावित या परिवर्तित) इरकान- 
दो हर्फ़ी      -  फई  (फ़ा)
तीन हर्फ़ी   -  फ़ेल (फ़इल), फ़ाइ 
चार हर्फ़ी    -  फ़ऊल, फ़ेइलुं 
पाँच हर्फ़ी   -   मफ़ऊल, फेइलात  
छ: हर्फ़ी     -  मफ़ाईल, फ़ाइलात, मफ़ाइलुं, मफ़ऊलुं, फेइलातुं, मुफ़्तइलुं
सात हर्फ़ी   -  मफ़ाइलतुं, मफ़ाईलां
आठ हर्फ़ी   -  मुस्तफइलान, फ़ाइलातान, मफ़ाईलान 
रेखांकित अक्षर (हर्फ) में मात्रा बहुत संक्षिप्त है जिसकी गणना नहीं की जाती। उर्दू छंद शास्त्र में गुरु को दो लघु और दो लघु को गुरु करने से एक रुकन के कई मात्रिक समायोजन बनते हैं। ध्यान रहे कि लघु-गुरु का क्रम न बदले। 
फाइलातुन = २१२११ है गनीमत, १११२११ रहम तो कर, २१११११ बोल कुछ मत, २१२२ आदमी को, १११११११ कल तलक हम, २१११२ भूल गलती, १११२२ सनम आजा आदि।  
कुछ अरूजियों ने आठ और नौ हर्फ़ी इरकान बनाने की कोशिश की है। नए-नए इरकान लगातार बनाये जा रहे हैं। 
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bundeli laghu katha

बुन्देली लघु कथाएँ
सुरेन्द्र सिंह पवार
१. जबाबी पोस्टकार्ड
सागर वारे भैय्या, व्हीकल फेक्ट्री, जबलपुर मा काम करत हते। बे हर महीना मनीआर्डर से रुपैए भेजत हते, संगे एक ठइयां जबाबी पोस्ट कार्ड सोई पठात हते, जौन में रुपैया कौन-कौन मद में कित्तो-कित्तो खरच करने है सोई लिख देत हते। खरच सेन बचे रुपैया गाँव में रहबे बारे छोटे भैया चन्द्र भान को देब खातिर लिखो रहत तो। भौजी खों करिया अक्छर भैंसिया बरोबर हतो सो वे कौनऊ सें चिठिया बचबाबे खें बाद जबाब लिखाउत हतीं ‘सुन करिया! (भौजी गोरी-चिट्टी थीं और भैया काले-कलूटे) तुमने भेजे दो सौ रुपैया। सो आधेलग गए पप्पू (उनका पुत्र) की दवा-दारु में। सुनो, बो ने खात है, ने पियत है। कनकने वैद कैत हते  “सूखो रोग आय—होत-होत ठीक हुइये। ” अब बाकी बचे रुपइयों में नोन-तेल-लकडियें और दूधवारे की उधारी, हाथ में आहें बीस रुपइया, सो का ओढहें, का बिछाहें. रोज की साग-सब्जी और ऊपर के खर्चा , नास हो जाए जे चंद्रभान की, अब ओए रुपइया कहाँ से देहें?—चलो, एक काम करत हें। बाहर दरवाजे पे खुटिया ठुकी है, ओये हिलावें से रुपइया झरहें- सो बेई चंद्रभान खों दे देहें.’
भौजी चिट्ठी के अंत में कुछ भावुक हो जातीं और यह लिखना ण भूलतीं -‘जब टेम मिले सो आ जइयो, पप्पू बेजा याद करत है. और सुनो, “ लौटत बेर कटंगी कें रसगुल्ला सोई लेत अइयो अपने घाईं करिया-करिया’ 
***
२. माँ
हमाए घर के नजीके वृध्दाश्रम आय. उते की रहबेबारी एक डुकरो दाई मेहरारू कने आत-जात हती। बे  गहूं बीनने, पापड़-बड़ी सुखाने जैसे छोटे-छोटे कामों में श्रीमती की मदद करत हतीं। एक दिना संझा बेर आईं और कैन लगीं “राम- राम भैय्या, बिटिया! हलकान ने हुइयो. हम चाय ने पीहें। ”
‘राम- राम अम्मा, काय! चाय काय ने पीहो?’हमने पूछी। 
डुकरो नें कई“आज हरछठ उपासे हैं, एक बेर महुआ डरी चाय पी लई है, अब ने पी हैं।”
मोसें रुको नई गाओ, तुरतई बोल परो ‘अम्मा! बेटा-बहू ताका खों नई पूछत आंय, बीमारी सोई नें देखी, परदेस में पटक गओ  और तुमबाके काजे हरछठ का उपवास करहो, कौन माटी की बनी हो?’
डुकरो खों ऐसी उम्मीद ना हती, सो पल भर चुप रै गईं, फिर धीरे सें बोलीं 'बाकी करनी बाके साथ मनो हम तो माँ आंय। 
***
३. इंसानियत
गरमी के दिन हते, भरी दुपरिया सड़क किनाए हाथ-ठेले पे ताजे फल दिखाने सो खरीदाबे खातिर लोग जुटन लगे। ओई टैम एक नओ दम्पति पौंचे। जननी केन माथे पर छलकता पसीना बता रओ हतो के बे पैर-पैदल चले आत आंय। जनानी नें आतई ठांडे होबे खातिर ठेले का सहारा लओ और ओ पे बंधे मैले-कुचैले छाजन में सर छिपाबे की कोसिस कारन लगी। बाकी कातर निगाहें कबऊ फलवाले पे टिकतीं कबऊ घरवाले पे। फलवाले ने बाकी परेसानी देखी तो ठंडा हो गाओ और अपनो स्टूल बाको बैठबे खातिर देन लगो, मनो लडखडान लगो तो ठेले का सहारा ले के सम्हर गओ। सब औरन ने देखो ओको एक पैरई ना हतो। 
अपनी मुस्किल भूल खें औरन की मदद करबे के लाने तैयार ठेलेबारे की इंसानियत देख सब प्रसंसा करन लगे। 
***
४. नर्मदा मैया की जय
बरगी बाँध और नहरें तैया भईं।नहरों से पहली-पहली बार सिंचाई का पानी छोड़ने हतो। नाहर के सिंचाई क्षेत्र में ज्वार, बाजार, मका की फसलें हतीं। छोटे किसानण खों खेतों में रबी फसल की लगाबे लाने हौसला दओ जा रओ हतो। जमुनियाखड़े के परधान कोंडीलाल राय से बात भई तो वे तो एकदम उबल पड़े, बोले,-“साब!आप भरम में भूले हो, तुम्हाही जे नहरें-वहरें कछु ने चल पें हें, समझ लो, मैया कुंवारी हें, उनखों अबे तक कोऊ नहीं रोक पाओ, ने सोनभदर, ने सहसबाहू, जो तुमाओ बाँध कैसे बच हे? भगवानई जानें। ”
-दद्दू! आप ठीक कैत हो, मनो  नर्मदा मैया ने किरपा की और नहरों के रास्ते खेतान माँ पौंच गईं तो का करहो?'
_“देखहें!” बिनने टालबे काजे कै दई। नियत दिना जब जमुनिया की नहरों में जल बहन लगो तो बाजे–गाजे के साथ “नर्मदा मैया की जय” बोलत भए गाँववारन के संगे सबसें आगू खड़े हते परधान कोंडी लाल राय। 
***
सुरेन्द्र सिंह पंवार/ 201, शास्त्रीनगर, गढ़ा,जबलपुरम(म.प्र.)/9300104296/email- pawarss2506@gmail.com

geet

गीत:
चलो चलें
संजीव 'सलिल'
*
चलो चलें अब और कहीं 
हम चलो चलें.....
*
शहरी कोलाहल में दम घुटता हरदम.
जंगल कांक्रीट का लहराता परचम..
अगल-बगलवाले भी यहाँ अजनबी हैं-
घुटती रहती साँस न आता दम में दम..
ढाई इंच मुस्कान तजें,
क्यों और छलें?....
*
राहें, बाँहें, चाहें दूर न रह पायें.
मिटा दूरियाँ अधर-अधर से मिल गायें..
गाल गुलाबी, नयन शराबी मन मोहें-
मन कान्हा, तन गोपी रास रचा पायें..
आँखों में सतरंगी सपने,
पल न ढलें.....
*
चल मेले में चाट खाएँ, चटखारे लें,
पेंग भरें झूला चढ़ आसमान छू लें..
पनघट की पगडंडी पर खलिहान चले-
अमराई में शुक-मैना सब जग भूलें..
मिलन न आये रास जिन्हें
वे 'सलिल' जलें.....
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muktak

एक मुक्तक: 
दे रहे हो तो सारे गम दे दो 
चाह इतनी है आँखें नम दे दो 
होंठ हँसते रहें हमेशा ही 
लो उजाले, दो मुझे तम दे दो
*

saptpadee

एक सप्तपदी :
(मौसाजी स्व. प्रमोद सक्सेना तथा मौसीजी श्रीमती कमलेश सक्सेना.मैनपुरी के प्रति)
शीश धर पैर में मैं नमन कर सकूँ
पीर मुझको मिले, शूल मुझको मिलें
धूल चरणों की मैं माथ पर धर सकूँ
ऐसी किस्मत नहीं, भाग्य ऐसा नहीं
रह सकूँ साथ में आपके मैं सदा-
दूर हूँ पर न दिल से कभी दूर हूँ
प्रार्थना देव से पीर कुछ हर सकूँ
***

swagat geet

स्वागत गीत:
नवगीत महोत्सव २०१४
*
शुभ नवगीत महोत्सव, आओ!
शब्दब्रम्ह-हरि आराधन हो
सत-शिव-सुंदर का वाचन हो
कालिंदी-गोमती मिलाओ
नेह नर्मदा नवल बहाओ
'मावस को पूर्णिमा बनाओ
शब्दचित्र-अंकन-गायन हो
सत-चित-आनंद पारायण हो
निर्मल व्योम ओम मुस्काओ
पंकज रमण विवेक जगाओ
संजीवित अवनीश सजाओ
रस, लय, भाव, कथ्य शुचि स्वागत
पवन रवीन्द्र आस्तिक आगत
श्रुति सौरभ पंकज बिखराओ
हो श्रीकांत निनाद गुँजाओ
रोहित ब्रज- ब्रजेश दिखलाओ
भाषा में कुछ टटकापन हो
रंगों में कुछ चटकापन हो
सीमा अमित सुवर्णा शोभित
सिंह धनंजय वीनस रोहित
हो प्रवीण मन-राम रमाओ
लख नऊ दृष्टि हुई पौबारा
लखनऊ में गूँजे जयकारा
वाग्नेर-संध्या हर्षाओ
हँस वृजेन्द्र सौम्या नभ-छाओ
रसादित्य जगदीश बसाओ
नऊ = नौ = नव
१०-११-२०१४
- १२६/७ आयकर कॉलोनी
विनायकपुर, कानपुर
समयाभाव के कारण पढ़ा नहीं गया
***

एक रचना

एक रचना 
*
आकर भी तुम आ न सके हो 
पाकर भी हम पा न सके हैं 
जाकर भी तुम जा न सके हो 
करें न शिकवा, हो न शिकायत
*
यही समय की बलिहारी है
घटनाओं की अय्यारी है
हिल-मिलकर हिल-मिल न सके तो
किसे दोष दे, करें बगावत
*
अपने-सपने आते-जाते
नपने खपने साथ निभाते
तपने की बारी आई तो
साये भी कर रहे अदावत
*
जो जैसा है स्वीकारो मन
गीत-छंद नव आकारो मन
लेना-देना रहे बराबर
इतनी ही है मात्र सलाहत
*
हर पल, हर विचार का स्वागत
भुज भेंटो जो दर पर आगत
जो न मिला उसका रोना क्यों?
कुछ पाया है यही गनीमत
***

आव्हान

आव्हान.
.
जीवन-पुस्तक बाँचकर,
चल कविता के गाँव.
गौरैया स्वागत करे,
बरगद देगा छाँव.
.
कोयल दे माधुर्य-लय,
देगी पीर जमीन.
काग घटाता मलिनता,
श्रमिक-कृषक क्यों दीन?
.

सोच बदल दे हवा, दे
अरुणचूर सी बाँग.
बीना बात मत तोड़ना,
रे! कूकुर ली टाँग.
.
सभ्य जानवर को करें,
मनुज जंगली तंग.
खून निबल का चूसते,
सबल महा मति मंद.
.
देख-परख कवि सत्य कह,
बन कबीर-रैदास.
मिटा न पाए, न्यून कर
पीडित का संत्रास.
.
श्वान भौंकता, जगाता,
बिना स्वार्थ लख चोर.
तू तो कवि है, मौन क्यों?
लिख-गा उषा अँजोर.
...
संजीव

रविवार, 3 दिसंबर 2017

navgeet

navgeet

नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये

बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?

सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
***

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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

navgeet

नवगीत
पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी

आदमी ने जब से
मन पर रख लिए पत्थर
देवता को दे दिया है
पत्थरों का घर
रिक्त मन मंदिर हुआ
याद आ रही नानी
.
नाक हो जब बहुत ऊँची
बैठती मक्खी
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति
अहं ने ठानी
.
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख
खुद से यार
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी
.
चीर हरकर माँ धरा का
नष्टकर पोखर
पी रहे जल बोतलों का
हाय! हम जोकर
बावली है बावली
पानी लिए धानी

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