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शुक्रवार, 26 जून 2015

लेख: 
हिंदी साहित्य और अंक विज्ञान : प्रसाद और निराला के संदर्भ में 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
अक्षर और अंक:

सनातन सांस्कृतिक दृष्टि संपन्न देश भारत में गतागत के अध्ययन-अनुमान की सुपुष्ट परंपरा रही है. गत के अध्ययन से आज को बेहतर बनाने के सूत्र प्राप्त करना और आगत के समृद्ध-सुख बनाने का यत्न करना भारतीयों को अभीष्ट रहा है. इसलिए साहित्य को 'सबका हित  समाहित करने वाले सर्वहितकारी लेखन' के रूप में परिभाषित किया गया है. ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा गया है. ज्योतिष के अनुसार अंक विज्ञान सर्वाधिक विश्वसनीय और विवादरहित परिणामदाता है. सामान्यत: अंक विज्ञान का उपयोग व्यक्ति के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं सम्बन्धी फलादेश प्राप्ति तक सीमित रखा गया है. ज्ञान-विज्ञान की कोई भी शाखा जीवन और जगत के किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं हो सकती. अक्षर और अंक में एक समानता यह है कि  दोनों अनंतिम हैं जिनका क्षय नहीं होता. अक्षर और अंक दोनों ब्रम्ह के पर्याय हैं.  हम आलेख में हम अंक विज्ञान की आधारभूत मान्यताओं का उल्लेखकर हिंदी साहित्य के दो शिखर हस्ताक्षरों प्रसाद तथा निराला से उनके अंर्तसंबंध को जानने का प्रयास करेंगे.  

भारतीय दर्शन में शब्दाक्षर चिंतन: 
' न क्षरति इति अक्षर' अर्थात अक्षर का क्षय या नाश नहीं होता.' स्थूल रूप में अक्षर और अंक न होते  तो मनुष्य आदिम पशु  रूप से उन्नति ही नहीं कर पाता. अंकों और अक्षरों का अन्तर्सम्बन्ध निर्विवाद है. अक्षर शब्दकोशीय आधार पर  विशेषण रूप में अविनाशी और नित्य तथा संज्ञा रूप में वर्ण, हर्फ़, आत्मा, ब्रम्ह, आकाश, तपस्या एवं मोक्ष अर्थों का वाहक है.   

बौद्ध दर्शन का अपोहवाद , न्याय दर्शन  जातिमान सिद्धांत, वैशेषिक दर्शन में शब्द को आकाश का गुण मानना,  जैन दर्शनानुसार शब्द का की रचना ध्वनि-अणुओं से होना, शैव मत के प्रत्यभिज्ञा सिद्धांतानुसार सकल अभिव्यक्ति का शब्दमय होना आदि से आभासित होता है कि शब्द तथा अंक अंतर्संबन्धित हैं. जगत की ३ अवस्थाओं निष्फल, निष्फल सकल और सकल में परा वाक्शक्ति ही अभिव्यक्त होती है. वैयाकरणों ने शब्द तत्व स्फोटवाद के रूप में अक्षर के बाह्य रूप के साथ उसके सूक्षमतिसूक्ष्म रूप का  निरूपण भी किया है. भारतीय दर्शन शब्द-ब्रम्ह को ४ रूपों परावाक, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी में विभक्त कर जगत औ ब्रम्हांड से संयुक्त मानता है. वाणी की ३ अवस्थाएं नित्य अतीन्द्रिय, अखंड और अविकारी हैं,  वाग्देवी के ४ अधिष्ठान ध्वनि, वर्ण, पद तथा वाक्य मान्य हैं. 

चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्रम्हणाये मनीषिण: 
गुहा त्रीणिनिहि तानेङ्गयन्ति  तुरीयं वचोमनुष्य वदंति 

महाभारतकार ने  नाद में जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विलय माना है. पतंजलि के महाभाष्य, कुमारिल भट्ट के तत्ववर्तिका, कौण्डभट्ट के भूषणसार आदि ग्रन्थ शब्द के अवदान पर ही केंद्रित हैं. आचार्य स्वतंत्रानंदनाथ कृत श्री मातृकाचक्र विवेक  के अनुसार शब्द ब्रम्ह का व्यक्त रूप मातृका है तथा जगत व्यवहार के  -कलाप इसी आश्रय पर पल्ल्वित, पुष्पित व फलीभूत है. मातृकाशक्ति मंत्र रूप में विस्तीर्ण होकर सकल सांसारिक क्रिया व्यापार को वाक्-विग्रह में समेट लेती है. स्वर शास्त्र जैसा ग्रन्थ मोक्ष-प्राप्ति का साधन स्वर को भी मानता है.  'स्वर-शास्त्र'  शिव-शिवा संवाद के रूप में शिव स्वरोदय,  ज्ञान स्वरोदय,   पवन स्वरोदय तथा तत्व स्वरोदय द्वारा साधना पथ का निर्देश करता है. 

वेदानुसार 'वाग्वै सृष्टि:' अर्थात वाणी शब्द-सृष्टि है. यह वाणी ही अनहद नाद के रूप में सकल सृष्टि का मूल और परमात्मा के प्रगटीकरण और संपर्क का माध्यम है. योगी इसका निरंतर जप करते हैं और उनके कानों में भौंरे की गुंजार की तरह यह ध्वनि निरंतर गूंजती कही.  ॐ इसी ध्वनि का लिप्यन्तरण है. परब्रम्ह का चित्र गुप्त है, आकार से बनता है अर्थात परब्रम्ह निराकार है.  ध्वनि और लिपि के अन्तर्सम्बन्ध का एक आयाम अंक है. दंडी के अनुसार:

इदमंध: तम: कृत्स्नं जायते भुवनत्रयं 
यदि शब्दाहय ज्योतिरा संसारान न दीप्यते 

सघन तम में लीन रहते लोक तीनों 
शब्द-ज्योति न दीप्त करती यदि उन्हें 

अर्थात तीनों लोक सघन  डूबे रहते यदि शब्द-ज्योति उसे प्रकाशित नहीं करती. 

वाक्य पदीयंकार भर्तृहरि के मत में सकल मानवीय कार्य-व्यापार शब्द  द्वारा पूर्ण होते हैं:

अनादि निधनं ब्रम्ह शब्दतत्वं यदक्षरं 
निवर्तते अर्थभावें प्रक्रिया जगतो यत:

ज्यों अनादि परब्रम्ह का विलय सृष्टि-आरम्भ 
त्यों अक्षर शब्दार्थ से जगत-क्रिया प्रारंभ

सारत: सकल भारतीय दर्शन परम्परा वाङ्ग्मयी (शब्दमयी) है.

पाश्चात्य दर्शन में शब्दाक्षर बोध:

पाश्चात्य चिंतन शब्द के स्वरूप का निर्धारण दर्शन, मनोविज्ञान और भाषा विज्ञानं के अंतर्गत करता है. प्लेटो 'ओन सोफिस्टिकल रिफ्यूटेशन' में शब्द को वस्तु या विचार की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र मानते हैं उससे तत्व का यथार्थ बोध संभव नहीं मानते। प्लेटो वस्तुओं को अनंत और  शब्द को अनेकार्थी मानता है. अरस्तु ने 'ओन इंटरप्रिटेशन्स' में प्रतीक सिद्धांत के अनुसार वस्तु की सत्ता तथा शब्द को वस्तु का अर्थ मानता है. स्टोइक दार्शनिक शब्द की आतंरिक अर्थवत्ता को मानते हैं. ब्रोडेस्को  'हिस्ट्री ऑफ़ फॉर्मल लॉजिक' में शब्द के वाच्यार्थ को अर्थ निरूपण में महत्वपूर्ण मानता है. सेक्सटस इंपीरिकस  सामान्य और विशिष्ट दो अर्थ स्वीकारता है. 

मानवतावादी दार्शनिक मनोविज्ञान में शब्द और अर्थ को मनोगत स्वतंत्र सत्ता स्वीकारते हैं. 'थ्योरी ऑफ़ लॉजिक एंड पोएटिक्स इन रिनान्सां' में मेलांक्थन तथा 'लेबियाथन; में टॉमस होब्ब्स शब्द और अर्थ  प्रक्रियाओं का सूक्षम विश्लेषण करते हैं. लॉक के अनुसार शब्द मानस प्रत्यय के बोधक हैं. बर्कले 'प्रिंसिपल ऑफ़ ह्यूमन नॉलेज' में भावबोधक शब्दों को संवेदनवाहक मानते हैं. 'एस्से ओन द इंटेक्युअस पॉवर्स ऑफ़ द मैन एंड कंसेप्ट्स' में टॉमस रीड शब्दार्थों को जीवनानुभवों से संयुक्त मानते हैं. लाइब्नित्ज़ के अनुसार  बोधकता  स्थिरीकरण या निर्धारण संभव नहीं है चूंकि ज्ञान-विस्तार के साथ अर्थ की परिधि व्यापक हो जाती है. 'लॉजिक; शीर्षक ग्रंथ में जॉन स्टुअर्ट मिल प्रयोगात्मक अनुसन्धान विधि  माध्यम से शब्द के २ वर्ग स्वीकारकर बोध प्रकिया की विवेचना करते हैं. 'क्रिटिक ऑफ़ प्योर रीजनिंग' में कान्ट मानस प्रत्यय पर विचार कर लौकिक वस्तुओं और गणित में प्रयुक्त भाषा-रूपों में भेद को स्पष्ट करता है. ब्लूम-फील्ड, गिल्बर्ट रीले, लेडी बेलबे, ओग्डेन फ्रेग, चार्ल्स डब्ल्यू. मोरिस, बर्ट्रेंड रसेल, भुअन, न्यूरथ कॉर्नप ने भी शब्द  तथा भाषा के स्वरूप पर चिंतन किया है.  

अक्षर और अंक : 

पाश्चात्य चिंतन परम तत्व को नहीं मानता पर शब्द और अर्थ पर दर्शन, भाषा और मनोविज्ञान के अंतर्गत मीमांसा करता है जबकि भारतीय चिंतन धारा शब्द-सत्ता को निरपेक्ष  ब्रम्ह रूप में स्वीकारता है. भारतीय दर्शन में शब्द अनंतता का वाहक है जबकि पश्चिम का चिंतन उसे व्यापक मानते हुई भी भौतिक-जड़ जगत तक सीमित रखता है. दोनों ही रूपों में अंक अक्षर और शब्द  अछोटर आयामों को समझने में सहायक होते हैं. पूर्व और पश्चिम दोनों जगत अक्षर और अंक के अन्तर्सम्बन्ध का अध्ययन करते हैं.  

भाषा और अक्षर अभिव्यक्ति का माध्यम हैं. अंक इस अभिव्यक्ति को प्रामाणिकता देते हैं. मात्रा और परिमाण की अभिव्यक्ति करना अंकों के अभाव में संभव नहीं है. अतः, भाषा की ही तरह अंक भी अभिव्यक्ति के माध्यम हैं. किसी भी सभ्यता और भाषा का अस्तित्व अंकों के बिना संभव नहीं हो सकता. इसलिए विश्व की हर भाषा में अंकों का अस्तित्व है. अंक न हों तो गणना ही संभव नहीं होगी. गणना के अभाव में ज्ञान-विज्ञान की प्रगति संभव न होगी. ज्ञान का वाहक साहित्य विज्ञान से गले मिलकर तभी बढ़ सका जब उसने अंकों को अपने में समाहित कर लिया.  
अंक और अक्षर की अभिन्नता से सुपरिचित भारतीय ऋषियों ने अक्षर को ब्रम्ह और अंक को उसके मूर्त रूप में स्वीकार कर एकाकार किया तंत्र और मन्त्र में. दैवीय पूजन अनुष्ठान में मंत्रों में अक्षर संख्या, जप और पुरश्चरण के भिन्न विधान अकारण नहीं हैं. एकाक्षरी, द्वाक्षरी, त्र्यक्षरी, षटाक्षरी,तथा नवार्णि आदि मंत्र विशिष्ट शब्द संख्या  कारण ही विशिष्ट प्रभाव के वाहक और आपदा निवारण में समर्थ होते हैं. सूर्य के लिये ७,०००,  मंगल हेतु १०,००० चन्द्र के लिये ११०००, गुरु हेतु १९,००० जप संख्या  के पीछे स्पष्ट तर्क तथा आधार है. शास्त्रीय विधानानुसार मंत्र के शब्दों को  में परिवर्तित कर उसकी माप निर्धारित की जा सकती है. यह माप गृह की दूरी, परिपथ की लम्बाई और व्यास से सम्बद्ध होती है. जप-माला के १०८ दाने होना सूर्य की गति से सम्बद्ध है. दैवी शक्तियों के नामों को बीज (सूक्ष्म) रूप देने पर बना संख्यागत रूप ही तंत्र में यंत्र बनता है जिसके उच्चारण से उपजा स्पंदन विज्ञान सम्मत  फ्रीक्वेंसी से एककारित होता है. 

प्रत्येक अक्षर का उच्चारण ध्वनि विशेष को जन्म देता है, ध्वनि कंपन विशिष्ट संख्या में   आवृत्ति विशिष्ट तरंग मंडल का निर्माण करता है. यह तंग मंडल वातावरण में व्याप्त होकर अपन प्रभाव छोड़ते हैं जो कभी नष्ट नहीं होता  विशिष्ट पद्धति से अवशोषित न किया जाए.  पर आधुनिक ध्वनि वैज्ञानिक श्रीकृष्ण द्वारा कही गयी गीता के  संकेतों को संचित कर सुन पाने के प्रति आशान्वित हैं. 

अंक ज्योतिष और साहित्य : अन्तर्सम्बन्ध 

अंक ज्योतष में ३ आधार मूलांक, भाग्यांक और नामांक के आधार पर गणना कर परिणाम प्राप्ति होती है. प्राप्त परिणामों से व्यक्ति के जीवन सम्बन्धी फलादेश तथा भविष्य का अनुमान किया जाता है. मनुष्य के आत्मज को उसका उत्तराधिकारी कहा गया है. आत्मज को सामान्य अर्थ में पुत्र कहा गया है. पिता और पुत्र का सम्बन्ध इतना प्रगाढ़ होता है की दोनों एक-दूसरे को आजीवन प्रभावित करते हैं और एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं. विज्ञानं गुणसूत्रों (क्रोमोसोम्स) के आधार पर माता के ५ पीढ़ियों और पिता की ७ पीढ़ियों से आनुवंशिक गुण-दोष आने को प्रमाणित कर चुके हैं. बरतीय वैवाहिक परंपरा में मिताक्षर प्रणाली के अनुसार मातृकुल में ५ पीढ़ी तक और पितृकुल में ७ पीढ़ी तक विवाह सम्बन्ध वर्जित करने के पीछे यही कारण है. आत्मज औरस (देहज) पुत्र मात्र नहीं होता। मानस पुत्र (शिष्य) को भी पुत्र कहा गया है. इसीलिये गुरुपुत्र और गुरुपुत्री को भ्राता-भगिनी मानकर उनसे विवाह का निषेध है. 

साहित्यकार की मानस संतति उसकी कृतियाँ होती हैं जिनमें वह अपना मन-प्राण उड़ेलता है. यह कैसे संभव है कि साहित्यकार के जीवन में उसका सुख-दुःख और जीवनोपरांत उसका यश-कीर्ति कृतियों से प्रभावित न हो. अनेक साहित्यकारों की कृतियाँ ही उनके आजीविका अर्जन का माध्यम और जीविकोपार्जन का माध्यम होती हैं. पूत कपूत हो सकता है, कृतघ्न हो सकता है पर कृति कृतघ्न नहीं हो सकती. स्पष्ट है  कि यह संबंध अन्योन्याश्रित अर्थात परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर है. साहित्यकार की साँसें और कृतियाँ अविच्छिन्न हैं तो अंक ज्योतिष किसी एक का फलादेश करे और दूसरे का न करे यह कैसे संभव है. स्पष्ट है कि अंक ज्योतिष साहित्यकार की ही तरह उसकी कृतियों के संबंध में भी अध्ययन कर फलादेश अथवा संकेत कर सकता है. 

मूलांक:

All I have seen teaches me to trust the creator for all I have not seen.   -Emerson 

मैंने जो देखा, उसने सिखलाया है 
निर्माता पर करो भरोसा, जो अदृश्य है 

जिस प्रकार गर्भाधान के पूर्व पुत्र वीर्य के रूप में पिता में समाहित रहता है उसी प्रकार हर रचना अस्तित्व में आने के पूर्व रचनाकार के मानस में ही रहती है. अत:, रचनाकार के जीवन को प्रभावित करनेवाले शुभाशुभ अंकों की छाया उस कृति में न होना संभव नहीं है. जिस तरह व्यक्ति के फलादेश हेतु उसकी जन्मतिथि से मूलांक ज्ञात किया जाता है वैसे ही कृति के प्रकाशन की दिनाँक अथवा दिनाँक  ज्ञात न हो तो प्रकाशन वर्ष को आधार मानकर उसका मूलांक ज्ञात करना चाहिए. यह मूलांक जातक की जन्म दिनाँक  होती है. जन्म दिनाँक में एक से अधिक अंक होने पर  उनका योग कर एक अंक या मूलांक की गणना की जाती  है. सामान्यतः प्रचलित रोमन कैलेण्डर में किसी माह में ३१ से अधिक  दिनाँक  नहीं होती अत:, उनके मूलांक निम्न हैं: 

तिथियाँ : ०१ - ०२ - ०३- ४ - ०५ - ०६ - ०७ - ०८ - ०९ - १० - ११ - १२ - १३- १४ - १५ - १६ - १७ - १८ - १९ - २० - २१ - २२ - २३- २४ - २५ - २६ - २७ - २८ -  २९ - ३० - ३१   

मूलांक : ०१ - ०२ - ०३- ४ - ०५ - ०६ - ०७ - ०८ - ०९ - ०१ - ०२ - ०३ - ०४- ०४ -०६ - ०७ - ०८ -०९ - ०१ - ०१ - ०२ - ०३  - ०४ - ०५- ०६ - ०७ - ०८ - ०९ - ०१ - ०२ - ०३ - ०४

अंक ज्योतिष के अनुसार मूलांक सम्बन्धी संक्षिप्त जानकारी निम्न है:

मूलांक १

सहिष्णुता, सहनशीलता, गंभीरता, सतत संघर्ष, उत्थान-पतन, नेतृत्व-प्रिय, विस्तृत परिचय क्षेत्र, नवीनता प्रेमी, स्वस्थ्य, सबल, निर्णयक्षम, स्वतंत्र चेता, परिवर्तन प्रेमी, सुरुचिपूर्ण, सौंदर्य प्रेमी. 

मूलांक २: 

कल्पनाशील, भावुक, सहृदय, सरलचित्त, कोमल, अस्थिर, नवीनता प्रेमी, बुद्धिजीवी, शरीर की तुलना में मस्तिष्क अधिक सबल, परिष्कृत रूचि, सौंदर्य प्रेमी, सम्मोहक व्यक्तित्व, आत्मविश्वास न्यून, निर्णय लेने में कमजोर, शंकालु, परहितसाधक, ललितकलाप्रेमी.  

मूलांक ३:

साहसी, शक्तिवान, दृढ़, संघर्षशील, व्यवस्थित, विचारशील, न्यून धन, स्वार्थवृत्ति, धन संचय नहीं, काम पड़ने पर विरोधी से भी मेल काम निकलते ही अलगाव, महत्वाकांक्षी, रक्त संबंध से लाभ नहीं, स्वेच्छाचारी, बुद्धिमान, उदार हृदय. 

मूलांक ४:

सतत क्रियाशील, शिखर या गर्त में, पग-पग पर बाधाएँ, लगातार उतार-चढ़ाव, तुनकमिजाज, क्रोधी, रहस्यप्रिय, अनेक शत्रु, शत्रुजयी. 

मूलांक ५:   

विचार प्रधान, अनम्य, सम्मोहक,  यात्राप्रिय, अति व्यस्त, प्रखर बुद्धि, उर्वर मस्तिष्क, द्रुत निर्णयी, परिस्थिति अनुसार ढलने में कुशल, दृढ़ संकल्पी, एकाधिक आय साधन, व्यवसायप्रिय. 

मूलांक ६:

दीर्घायु, स्वस्थ्य, सबल, हँसमुख, अम्मोहक, रतिप्रिय, मिलनसार, सौंदर्यप्रिय, सुरुचिपूर्ण, आनंदप्रेमी, मुक्तहस्त व्यय, धनाभाव, नीतिज्ञ, मिठभाषी, सौम्य, अन्य की प्रगति सह्य नहीं,  सफल.

मूलांक ७: 

सहिष्णु, सहयोगी, भावुक, मौलिक, सुधार प्रेमी, स्वतंत्र विचार, अन्याय विरोधी, विस्तृत परिचय क्षेत्र, नम्र, दृढ़, प्रतिष्ठित, सामाजिक कार्योंमें रूचि, प्रतिभावान, साहसी, प्रसिद्ध.

मूलांक ८:

सहयोगी, अति प्रेमी, फूहड़पन-अश्लीलता असह्य, सत्यप्रेमी, सबल, सजग, परिस्थिति अनुसार ढलने में समर्थ, सदय, शांतिप्रेमी, परसेवी, सफल.

मूलांक ९: 

दुस्साहसी,  दृढ़, वीर, चुनौतीप्रेमी, ऊपर से कठोर अंदर से नरम, शीघ्र क्रोध, झुंझलाना, 

भाग्यांक: 

Some are born great , some achieve greatness and some have greatness thrust upon them.   -Shakespeare

जन्मना महान कुछ, कुछ बने प्रयास से 
कुछ पर थोप दी गयी, महानता- विधान है. 

भाग्यांक का मूल आधार जन्म तिथि (जन्मदिनांक-माह-वर्ष) है. भाग्यांक  हेतु जन्म  की दिनांक, माह तथा वर्ष का योगफल कर एकल अंक ज्ञात कर लिया जाता है.  

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अंक ज्योतिष के अनुसार भाग्यांक सम्बन्धी संक्षिप्त जानकारी निम्न है:

भाग्यांक १

भाग्यवान, सबल, आकर्षण, सम्मोहक, नेतृत्वक्षम, धनार्जन तथा व्यय में कुशल, सुमित्र, अतिव्यस्त, एकांत अप्रिय, सफल व्यापारी, कुशल प्रशासक. सहायक भाग्यांक ३,५, ७. 

भाग्यांक २: 

सुवक्ता, भावुक, हठी, तर्कप्रेमी, कम उत्तरदायी, निश्चिन्त, लापरवाह, रसिक, विनोदी, कार्य कुशल, व्यक्तिगत जीवन में स्वच्छंद सार्वजनिक जीवन में कर्तव्यपरायण, एकाधिक आय स्रोत, धन संचय में निपुण. सहायक भाग्यांक ४, ८.  

भाग्यांक ३:

महत्वाकांक्षी, अधिक श्रम-संघर्ष - न्यून उपलब्धि, अशांत, कर्मशील, मंद प्रगति, संचय धीरे व्यय एकाएक, सामान्यत: स्वस्थ, उदर पीड़ा, तुनकमिजाज, धनप्रेमी, कर्तव्य प्रेमी. सहायक भाग्यांक १, ७, ९. 

भाग्यांक ४:

शांत, सहिष्णु, सौम्य, धैर्यवान, गंभीर, शोधप्रिय, मौलिकता प्रेमी, व्यवस्थित, योजना प्रिय, पूर्वानुमान में सक्षम, भाग्यवान, एकांतप्रिय, मित्र कम, सादगी प्रिय. सहायक भाग्यांक २, ८. 

भाग्यांक ५:   

सजग, चैतन्य, परिवर्तनप्रिय, अस्थिर, क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा, विशालताप्रेमी, कार्यारंभ कर पूर्ण नहीं कर पते, सच्चे मित्र, प्रदर्शनप्रिय, अपव्ययी. सहायक भाग्यांक १, ३, ७. 

भाग्यांक ६:

विचार प्रधान, बुद्धिमान, भावुक, व्यवहार कुशल, सफल साझेदार, अपव्ययी, अपनी बात थोपने के इच्छुक, मित्रों से सहयोग और धोखा. सहायक भाग्यांक ३, ९. 

भाग्यांक ७: 

साहसी, आशावान, सफल, हस्तक्षेप अस्वीकार्य, योजनाशील, दृढ़ इच्छाशक्ति, स्वस्थ्य, उदर व्याधि, मित्रप्रेमी, समृद्ध. सहायक भाग्यांक १, ३, ५. 

भाग्यांक ८:

आराम प्रेमी, बात पचा नहीं पाते, मस्त, फ्क्क्ड़,दानी, आज में जीता हैं, कल की फ़िक्र नहीं, अपव्ययी, स्वस्थ्य, आकर्षक, लापरवाह. सहायक भाग्यांक २, ४, ६. 

भाग्यांक ९: 

साहसी, दृढ़ इच्छाशक्ति, तुनकमिजाज, तार्किक, संघर्षशील, मित्रता करने में कुशल, स्वस्थ्य, क्रोधी, रक्तचाप. सहायक भाग्यांक ३, ६. 

नामांक:

A good name is rather to be chosen than great riches. 

समृद्धि मत सुनाम चुनो,  हो कुनाम कभी नहीं 
उसका  नाम सदा जपो, जो अनाम सब कहीं 

आधुनिक अंक ज्योतिष पश्चिमई देशों में विकसित ही तथा भारत में संस्कृत का प्रचार न रहने से पुरातन ग्रन्थ प्रचलन में न होने के कारण नामाक्षर की गणना अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार की जाती है. पूर्ण नाम, घरेलू  नाम, उपनाम, लघुनाम तथा प्रचलित नाम में से उसे गणना में लेना चाहिए जो सर्वाधिक कहा-सुना जाता हो. सेफेरियल ने अंग्रेजी वर्णमाला के क्रमानुसार विविध अक्षरों के अंक तथा लक्षण निम्नानुसार बताये हैं: 

A :  १  श्रेष्ठ, सद्गुणी, रचनात्मक विचार प्रधान, भावनाओं पर नियंत्रण, सौन्दर्यप्रेमी, सुधारप्रिय. 

B : २  अंतर्मुखी, स्वलीन, शंकालु, चौकन्ने, आत्महीनता.

C : ३  मूडी, क्रियाशील, संकल्पी, दूरदर्शी, अग्रसोची. 

D : ४  आत्मविश्वासी, स्वनियंत्रण, गतिशील, धैर्यवान, मितभाषी, कुशल प्रशासक-नेता, स्वभिमानी. 

E : ५  बहिर्मुखी, मुखर, स्पष्टवक्ता, योजनशील, सक्रीय, नवीनता प्रिय.

F : ६  ग्रहप्रेमी, नैतिक, प्रेमी, सच्चा, मधुर, स्वकर्तव्यलीन.

G : ७  सच्चरित्र, सादगी पसंद, शिष्ट, आकर्षक, आत्मनियंत्रण, योजनाबद्ध, सफल.  

H : ८  स्वहितकेंद्रित, अति चतुर, प्रदर्शनप्रिय, महत्वाकांक्षी, अल्पश्रमी, सफल.  

I : ९  ज्ञानी, समर्पित, समझदार.  

J : १  उन्मुक्त विचार, स्वतंत्रता प्रिय, उदार, विशालमना, स्पष्टवादी, मौलिक.

K : २  संघर्षशील, उत्थान-पतन, निराशावादी, सशङ्कित, धर्मभीरु. 

L : ३  भावुक, सहिष्णु, दार्शनिक, सुलझे, श्रेष्ठ, योजनाशील, गंभीर, अपने में मस्त, श्रेष्ठताप्रेमी.  

M : ४  बहिर्मुखी, सदाचारी, सुसंस्कृत, सदा, स्पष्टवक्ता, उत्थान-पतन बार-बार, प्रदर्शनप्रिय, रहस्यपूर्ण.  

N : ५  संघर्ष-बाधा, दृढ़, प्रभावशाली, मित्र बनाने में कुशल, उत्तरदायी, सद्गृहस्थ, सहयोगी, श्रेष्ठ.   

O : ६  आत्मकेंद्रित, साहसी, उतार-चढ़ावजयी, अनेक मित्र-शत्रु, धोखा मिलता है, उदार, स्वच्छताप्रेमी,  महत्वकांक्षी. 
   
P : ७  रहस्यपूर्ण, आत्मसंयमी, शांत, गूढ़.  

Q : ८  सिद्धांतप्रेमी, व्यवस्थित, जिम्मेदार.  

R : ९  श्रेष्ठ, मधुर, प्रभावी, व्यवहार कुशल, गुणग्राहक, परोपकारी, प्रतिष्ठित, सुखी.  

S : १  बहिर्मुखी, हँसमुख, मित्र बनाने में कुशल, योग्यं समझदार, कलाप्रेमी, निष्ठावान, कमजोर निर्णयक्षमता.  

T : २  संतोषी, न्यायी, विवेकशील, निर्णयक्षमता, आत्मविश्वासी, दृढ़, लोकप्रिय, आस्तिक, सुख बाँट दुःख अकेले झेलते हैं.  

U : ३  नवीनताप्रेमी, सुलझे-परिपक्व विचार, स्पष्टवादी, वर्तमानजीवी. 

V : ४  चर्चित, सम्मानप्रेमी, कद्रदान, श्रेष्ठ, तर्ककुशल.  

W : ५  परिश्रमी, साहसी, स्फूर्तिवान, रोमांचप्रिय.   

X : ६  लापरवाह, प्रदर्शनप्रिय, शेखी बघारना, असफल.  

Y : ७  मस्तमौला, आत्मकेंद्रित. 

Z : ८  तुनकमिजाज, हठी, क्रोधी, अविवेकी, वीर, कूटनीति में निपुण, हानिकर्ता.     

भाषा और साहित्य सत्य का अध्ययन, अनुशीलन और प्रतिपादन अक्षर और अंक के माध्यम से  करते हैं. अक्षर और अंक के अंतर्संबंध  अध्ययन सत्य के लगभग अचर्चित पक्ष को जानने का प्रयास है. अंक का आशय 'चिन्ह' है. प्रकृति के स्वयंप्रभ विस्तार को किसी चन्ह के माध्यम से व्यक्त करना ही अंक है. शब्दकोष में अंक के विविध अर्थ अक्षर, लिखावट, निशान, भाल, डिठौना,  दाग,धब्बा,  ,शरीर, संख्या आदि हैं. पुरातन काल में अंक शब्द बहुअर्थी था. कालांतर में आधुनिक हिंदी के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ अर्थ संकुचन होकर यह गणित की संख्या तक सीमित रह गया है. इस रूढ़ अर्थ में भी अंक शब्द नियत निश्चित प्रक्रिया को संकेतित करता है. 'संख्या' शब्द 'ख्या' धातु में 'सम' उपसर्ग लगाने से बनता है जिसका अर्थ है- ' किसी मापक को अतिव्याप्ति तथा अव्याप्ति के दोषों से रहितकर नियत निश्चित संकेत से व्यक्त करना. अंकों की श्रृंखला सृष्टि के विकास क्रम, मानव की विकास यात्रा तथा अक्षर व् अंकों के साहचर्य से साहित्य सृजन की कथा है. ग्रह-नक्षत्र (खगोल विज्ञान)  ही अंक विज्ञान का आधार हैं.  ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियाँ सृष्टि विकास-क्रम मन की विकास कथा और ज्ञान-प्राप्ति की जिजीविषा की साक्षी मात्र नहीं प्रेरक भी हैं. 

शिशु की तरह हर साहित्यिक कृति भी आरम्भ से प्रगटीकरण तक किसी अंक से सम्बद्ध होती है. जन्मांक, मूलांक तथा नामांक कृति और कृतिकार के जीवन  महत्वपूर्ण होते हैं. तत्संबध में समय-समेत पर मनीषियों ने अध्ययन भी  'शारदा तिलक' ग्रन्थ में प्रकृति के विकास क्रम का इश्लेषण अंकों के माध्यम से किया गया है. आदि शंकराचार्य रचित 'सौंदर्य लहरी'  शताक्षरी महामंत्र अंकों पर अधिष्ठित हैं. 'सांख्य दर्शन' सृष्टि निर्माण में अंकों के महत्व  जयघोष करता है. अष्टांग योग के अनुसार षट्चक्र भेदन परम तत्व की प्राप्ति का मार्ग है. दर्शन की अद्वैत, द्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि भाष्य परम्पराएँ  संख्याओं और अंकों के  विकास क्रम की मीमांसाएँ हैं. 

पाश्चात्य दार्शनिक और गणितज्ञ पाइथोगॉरस विश्व निर्माण का आधार अंकों की शक्ति के आधार पर मानता था. नास्त्रेदेमस, कीरो  तथा एबी गोचन  ने अंकों  का उपयोग भविष्य-कथन हेतु किया. कैग्लीओस्ट्रो  सांकेतिक  लिपि हेतु संख्याओं का प्रयोग किया. केल्पर  ने अंकों को सृष्टि का मूल मानकर मानव-जीवन क प्रभावित करनेवाले ग्रहों से उनका तादात्म्य स्थापित किया. इकहार्ट, शाउजेन जैकब, बोहम, हेडेन, आदि अंक वैज्ञानिकों ने संख्याओं का प्रतीकात्मक प्रयोग कर शास्त्रीय गणनाओं और रहस्यवादी दर्शन में प्रयोग किया. सेफेरियल ने अंकों के इकाईमान आध्यात्मिक मान, ज्यामितीय वैज्ञानिकता आदि का सूक्ष्म विश्लेषण कर हर अंक की क्रियाशीलता तथा सकारात्मक-नकारात्मक प्रभाव का आकलन किया. पाश्चात्य सांख्यविदों  ने अंकों को राशियों और नक्षत्रों से सम्बद्ध कर सूक्ष्म विवेचना की है. सेफेरियल ने अपनी कृति 'नंबर्स ऑफ़ कबेला' में अंग्रेजी वर्णमाला की ध्वनियों की आकृति, रंग, भाव सम्बन्धी ग्रहों, राशियों  का वर्णन किया है.
अंक                 वर्ण                 ग्रह                 राशि                 रंग                 भाव     
  
१, ४                   C                  सूर्य                 सिंह               नारंगी             शक्ति, नाश         

२, ७                  F                  चंद्र                  कर्क                  हरा               परिवर्तन, संवेदना 

३                       B                  गुरु               धनु, मीन          बैंगनी             आशा, आकांक्षा, विस्तार 

५                      E                   बुध           मिथुन, कन्या       पीला              बुद्धि, अनुभूति, मस्तिष्क 

६                       A                 शुक्र               वृष, तुला           नीला               शांति, आध्यात्म, पवित्रता 

८                       D                 शनि             मकर, कुंभ         जामुनी            दर्शन, चिंतन 

९                       G                 मंगल           मेष, वृश्चिक          लाल              ऊर्जा, आवेग, उत्साह  

प्रत्येक अक्षर  ध्वनि विशेष होती है जिसका उच्चरण किये जाने पर वह विशिष्ट कंपन उत्पन्न करती है. इन कंपनों की संख्या निश्चित होती है. पृथ्वी के माध्यम से हम अपने अक्षरों तथा अंकों से सम्बन्ध रखनेवाले ग्रहों से प्रभावित होते हैं. यह प्रभाव प्रकाशीय कंपनों के माध्यम से होता है. योगिराज बर्फानी बाबा  'यंत्र विज्ञानं ८  इसमें अंक और अक्षरों की युगपत स्थिति रहती है. तांत्रिक क्रिया सम्पादित करने हेतु बनाये गए यंत्र  दिये गए अंक संपादित की जानेवाली क्रिया तथा अक्षर संभाव्य शक्ति जिससे यह जाना जाता है कि क्रिया कैसे संपन्न की जाएगी. तंत्र सिद्ध अक्षरो की शब्द-शक्ति  सहायता से  तन-मन को शुभाशुभ दे सकती है. योगी विकास क्रमानुसार शब्दांकों को ५ मूल तत्वों में विभाजित करते हैं. पाणिनि-व्याकरणानुसार ये शब्द-शक्ति सम्पन्न ध्वनियाँ हैं. सतत उच्चरित शब्द से कंपन तथा कंपन से अक्षर उत्पन्न होते हैं. जैसे भ्रमर अपने गुंजार से तितली के डिम्ब की आकृति बना लेता है, वैसे ही शब्द भी अपने कंपन से आकृति बनाते है. शब्दाक्षरों से बने नाम का स्वयंरूप निश्चित आकृति में होता है. कर्पूरस्तव  श्लोक ८ के अनुसार 
यथा ध्यानस्य  संसर्गत्कीटको भृमरायते 
तथा समाध्यियेन  ब्रम्हभूतो भवेन्नर:

बर्फानी बाबा द्वारा उल्लिखित यंत्र परिचय सारिणी  :  

अंक                   १               २              ३               ४               ५               ६               ७               ८               ९ 

ग्रह                  सूर्य           चन्द्र      मंगल          बुध             गुरु            शुक्र          शनि            राहु            केतु 

चिन्ह              केंद्र          तुलाका   त्रिकोण          वर्ग        पंचभूत      षट्भुज      तुलाका      अष्टभुज      त्रिशूल  

प्रभाव          एकता         नीति      चपलता       दृढ़ता      अनिश्चय    तारतम्य     रहस्य        उन्नति     प्रभाव    

अर्थ             सरल         दैविक       स्वतंत्र        नियम       उत्साह    ईमानदारी अध्ययन      महानता    पूर्णता     

अक्षर स्वरूप सारिणी:

अक्षर             अ            आ          इ               ई              उ             ऊ           ए             ऐ            ओ             औ             अं              

स्वरूप         वात            मंद       अग्नि      वन्हि        धरा          क्षमा       चर          शुचि        क्षौणि         वनं           रक्म 

अक्षर            क              ख          ग              घ             ड़             च            छ             ज            झ              त्र                ट 

स्वरूप         प्राण          तेज       ज्या           वा:           घौ:          वायु         प्रभा           कुं          कम           रम्भु:         नाद 

अक्षर            ठ               ड            ढ             ण            त              थ             द             ध            न               प               फ 

स्वरूप        दाव            गौत्रा:     पाथ:        व्योम       रय:          शिली        भूमि      तोयम्     शून्यं          जवी           द्युति 

अक्षर            ब              भ           म             य            र               ल             व           श             ष               स               ल 

स्वरूप        रसा           रसं         नम:                      व्याप्तं           दाह         स्थिरा     अम्बू      विपत         स्पर्श:          द्युति 

अक्षर           श               ह            त्र             ऋ           लृ             ल 

स्वरूप        हत           हंस:        जल         वारि        विभु          स्वर 

जयशंकर प्रसाद और अंक:
माघ शुक्ल १०, संवत्‌ १९४६ वि. में काशी के सरायगोवर्धन में जन्मे प्रसाद के पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में और पिता बाबू देवीप्रसाद कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे. इनका काशी में बहुत सम्मान था. काशी की जनता काशीनरेश के बाद 'हर हर महादेव' से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी. किशोरावस्था के पूर्व ही माता और बड़े भाई का देहावसान हो जाने के कारण १७ (८) वर्ष की उम्र में ही प्रसाद जी पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा. कच्ची गृहस्थी, घर में सहारे के रूप में केवल विधवा भाभी, कुटुबिंयों, परिवार से संबद्ध अन्य लोगों का संपत्ति हड़पने का षड्यंत्र, इन सबका सामना उन्होंने धीरता और गंभीरता के साथ किया. प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी मे क्वींस कालेज में हुई. बाद में घर पर इनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का अध्ययन इन्होंने किया. दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे विद्वान्‌ इनके संस्कृत के अध्यापक थे. इनके गुरुओं में 'रसमय सिद्ध' की भी चर्चा की जाती है.
घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने 'कलाधर' के नाम से व्रजभाषा में एक सवैया लिखकर 'रसमय सिद्ध' को दिखाया थाउन्होंने वेदइतिहासपुराण तथा साहित्य शास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था. वे बाग-बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी थे. वे नियमित व्यायाम करनेवाले, सात्विक खान-पान एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थेवे नागरी प्रचारिणी सभा के उपाध्यक्ष थे. 
सन्‌  १९१२ (१ + ९ + १ + २ = १३ = १ + ३ = ४) ई. में 'इंदु' में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई. प्रसाद की सर्वप्रथम छायावादी रचना 'खोलो द्वार' १९१४ (१ + ९ + १ + ४ = १५ = +१  ५ = ६) ई. में इंदु में प्रकाशित हुई. कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक ओर निबंध, साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में उन्होंने ऐतिहासिक महत्व की रचनाएँ कीं तथा खड़ी बोली की श्रीसंपदा को महान्‌ और मौलिक दान से समृद्ध किया. प्रसाद जी ने कुल  ७२ (७ + २ = ९) कहानियाँ लिखी हैं. उनकी कुछ श्रेष्ठ कहानियों के नाम हैं: आकाशदीप, गुंडा, पुरस्कार, सालवती, स्वर्ग के खंडहर में आँधी, इंद्रजाल, छोटा जादूगर, बिसाती, मधुआ, विरामचिह्न, समुद्रसंतरण; अपनी कहानियों में जिन अमर चरित्रों की उन्होंने सृष्टि की है, उनमें से कुछ हैं चंपा, मधुलिका, लैला, इरावती, सालवती और मधुआ का शराबी, गुंडा का नन्हकूसिंह और घीसू जो अपने अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैंप्रसाद ने तीन उपन्यास लिखे हैं. 'कंकाल', में नागरिक सभ्यता का अंतर यथार्थ उद्घाटित किया गया है। 'तितली' में ग्रामीण जीवन के सुधार के संकेत हैं. प्रथम यथार्थवादी उन्यास हैं ; दूसरे में आदर्शोन्मुख यथार्थ है. इन उपन्यासों के द्वारा प्रसाद जी हिंदी में यथार्थवादी उपन्यास लेखन के क्षेत्र मे अपनी गरिमा स्थापित करते हैं. इरावती ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया इनका अधूरा उपन्यास है जो रोमांस के कारण ऐतिहासिक रोमांस के उपन्यासों में विशेष आदर का पात्र है. इन्होंने अपने उपन्यासों में ग्राम, नगर, प्रकृति और जीवन का मार्मिक चित्रण किया है जो भावुकता और कवित्व से पूर्ण होते हुए भी प्रौढ़ लोगों की शैल्पिक जिज्ञासा का समाधान करता हैप्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक व दो भावात्मक, कुल १३ = (१ + = ४ ) नाटकों की सर्जना की. 'कामना' और 'एक घूँट' को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गई है. वे हिंदी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार हैं. उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर संस्थित हैकालक्रम से प्रकाशित उनकी कृतियाँ ये हैं :उर्वशी (चंपू) ; सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य (निबंध); शोकोच्छवास (कविता); प्रेमराज्य (क) ; सज्जन (एकांक), कल्याणी परिणय (एकाकीं); छाया (कहानीसंग्रह); कानन कुसुम (काव्य); करुणालय (गीतिकाव्य); प्रेमपथिक (काव्य); प्रायश्चित (एकांकी); महाराणा का महत्व (काव्य); राजश्री (नाटक) चित्राधार (इसमे उनकी 20 वर्ष तक की ही रचनाएँ हैं)। झरना (काव्य); विशाख (नाटक); अजातशत्रु (नाटक); कामना (नाटक), आँसू (काव्य), जनमेजय का नागयज्ञ (नाटक); प्रतिध्वनि (कहानी संग्रह); स्कंदगुप्त (नाटक); एक घूँट (एकांकी); अकाशदीप (कहानी संग्रह); ध्रुवस्वामिनी (नाटक); तितली (उपन्यास); लहर (काव्य संग्रह); इंद्रजाल (कहानीसंग्रह); कामायनी (महाकाव्य); इरावती (अधूरा उपन्यास)। प्रसाद संगीत (नाटकों में आए हुए गीत).

अंक ३ : 
छायावाद के प्रमुख स्तम्भ महाकवि जयशंकर प्रसाद नाटककार, कहानीकार, समीक्षक और व्यवसायी भी थे. उनके जीवन में किन अंकों की कितनी और कैसी भूमिका रही जानना रुचिकर होगा. प्रसाद की जन्म तिथि ३०-१-१८८९ है. तदनुसार मूलांक   ३० = ३ + ० =३ तथा भाग्यांक ३ + ० + १ + १ + ८ + ८ + ९ = ३० = ३ + ० = ३ है. मूलांक तथा भाग्यांक के सामान होना असाधारण संयोग है. प्रसाद जी की असाधारण उपलब्धियों का एक कारण यह भी है. अंक ३  का संबंध  ६, ९  तथा  १ से है. सेफेरियल  के मत में अंक ३ बौद्धिक क्षमता, धन, सफलता तथा विस्तार से संबंधित है. कीरो के अनुसार अंक ३ का स्वामी गुरु है तो जातक को गुरुत्व तथा शिखर स्थान प्रदान करता है. 

मूलांक ३: 

मूलांक ३ के  व्यक्ति  महत्वाकांक्षी, अनुशासित, नेतृत्व क्षमतायुक्त प्रखर, समर्पित तथा शिखर पर होते हैं. वे साहसी, शक्तिवान, दृढ़, संघर्षशील, व्यवस्थित, विचारशील, स्वार्थहीन, धन संचय न करनेवाले, काम पड़ने पर विरोधी से भी मेल काम निकलते ही अलगाव, महत्वाकांक्षी, रक्त संबंध से लाभ नहीं, स्वेच्छाचारी, बुद्धिमान, उदार हृदय होते हैं.९  प्रौढ़ावस्था में यश तथा सम्मानप्राप्ति होती है. ये लेखन, प्रकाशन, संपादन, अध्यापन, अनुसंधान, उद्योग-व्यापार आदि में सफल होते हैं. प्रसाद के जीवन में विचारों और भावनाओं का सुंदर समन्वय, सरस लेखन, सटीक संपादन, छायावादी आंदोलन का नेतृत्व और यश-कीर्ति सम्मान अंक ३ का लक्षण है. उन्हें अपने रक्त संबंधियों से कोई लाभ न मिलना, कठोर परिश्रम के बाद भी आर्थिक सम्पन्नता न होना भी अंक ३ का लक्षण है. १२ वर्ष की आयु में (१२ = १+ २ = ३ ) प्रसाद ने अपनी माँ के साथ ओंकारेश्वर, उज्जैन, जयपुर, पुष्कर, ब्रज, अयोध्या आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा की. इस समय देखे नैसर्गिक सुषमामय दृश्य इनके मानस पटल पर अंकित हुए तथा उनके साहित्य में अंकित हुए.१० 

  शुभ वर्ष:  ३, १२, २१, ३०, ३३, ३६, ४८, ५७, ६६, ७५.

प्रसाद परिवार काशी में सुंघनी साहू के नाम से ख्यात था. भोलानाथ तिवारी ११  के अनुसार ९ वर्ष की अल्पायु में ही प्रसाद ने लघु कौमुदी तथा अमरकोश को समग्र कंठस्थ कर लिया था. डॉ. प्रेमशंकर के अनुसार प्रसाद ने अपनी प्रथम रचना 'कलाधर' ९ वर्ष की आयु में १८९८ में लिखी थी. रामरतन भटनागर १२ के अनुसार १९०१ (आयु १२ वर्ष = ३) में पिता, १९०४ (आयु १५ वर्ष = ६ ) में माता और १९०६ (आयु १६ वर्ष = ७ ) में भाई के निधन पश्चात गृह कलह, चाचा और बड़े भाई में मुकदमेबाजी, पैतृक सम्पत्ति का बँटवारा तथा व्यापार में घाटा हुआ. १८ (१+८=९ ) वर्ष की आयु में प्रसाद ने व्यवसाय सम्हाला और  कठोर परिश्रम कर १९३१  (आयु ४२ वर्ष = ६) तक कर्ज चुकाया. प्रसाद के ३ विवाह हुए. प्रसाद की मृत्यु ४८ (४ + ८ = १२ = ३) वर्ष की आयु में हुई. उनकी महाप्रयाण तिथि १५ (६) है. यहाँ ३ तथा ३ के गुणकों का प्राधान्य सहज स्पष्ट है. 

भाग्यांक ३:

भाग्यांक ३ वाले जातक महत्वाकांक्षी, परिश्रमी, अधिक संघर्ष - न्यून उपलब्धि, शांत, कर्मशील, मंद प्रगति, संचय धीरे व्यय एकाएक, सामान्यत: स्वस्थ, उदर पीड़ा, तुनकमिजाज, धनप्रेमी, कर्तव्य प्रेमी होते हैं. इनके सहायक भाग्यांक १, ७, ९ होते हैं. प्रसाद के जीवन में ये सभी लक्षण दृष्टव्य हैं. सुख - दुःख के प्रति समभाव जो अंक  ३ का लक्षण है, प्रसाद के काव्य में सहज दृष्टव्य है:

१.   जीवन की वेदी पर 
      परिणय हो विरह-मिलन का  
      सुख-दुःख दोनों नाचें 
      है खेल आँख का, मन का 

२.   दुःख की पिछली रजनी बीच 
      विकसता सुख का नवल प्रभात 

३.  एक परदा यह झीना नील
      छिपाये है जिसमें सुख गान 
      जिसे तुम समझे हो अभिशाप
      जगत की ज्वालाओं का मूल 
      ईश का वह रहस्य वरदान 
      कभी मत जाओ इसको भूल 
      विषमता की पीड़ा से व्यस्त 
      हो रहा स्पंदित विश्व महान 
      यही सुख-दुःख विकास का साथ 
      यही भूमा का मधुमय दान 
      उमड़ता कारण जलधि समान     
      व्यथा से नीली लहरों बीच 
      बिखरते सुखमय क्षण द्युतिमान।

भाग्यांक ३ का जातक आर्थिक क्षेत्र में मंद किन्तु ठोस प्रगति करता है. इनके द्वारा िाक्टर धन एक झटके में समाप्त भी हो जाता है. प्रसाद के जीवन में इसे घटित होता देखा गया है. 

भाग्यांक ३ वाले व्यक्तियों की निरीक्षण - विश्लेषण क्षमता असाधारण होती है. ये संघर्षों पर जाई होकर अपना पथ आप ही प्रशस्त करते हैं. प्रसाद के जीवन में यह घटित हुआ. संकट से न घबराना, सामाजिक दायित्वों तथा कर्तव्यों का भली-भांति निर्वहन, सतत सक्रियता आदि लक्षण भी प्रसाद के जीवन में द्रष्टव्य हैं. मौलिकता, योजनाबद्धता, व्यवस्था, सादा आचार-आहार, उच्च विचार, लेखन-संपादन-अध्यापन, चित्त, एकांतप्रियता आदि लक्षण भी प्रसाद के सम्बन्ध में देखे जा सकते हैं. डॉ. प्रेमशंकर के अनुसार: 'प्रसाद जी  साधक का सा थ. किसी प्रकार की सभा आदि में जाना उन्हें प्रिय न था. वास्तव में वे संकोचशील व्यक्ति थे, प्रायः घर अथवा दुकान पर ही बैठकर अपने मित्रों के साथ बातचीत किया करते थे.१३ 

बुआजी (महीयसी महादेवी जी ) भी प्रसाद के  चर्चा करते हुए उन्हें एकांत प्रिय, संकोची तथा विनम्र बताती थीं. उनके अनुसार प्रसाद जी प्रायः अपने आप में सीमित रहते थे तथा अपनों के बीच में ही मुखर होते थे. प्रसाद जी अपनी रचनाओं को उन्हें ही सुनते थे जिन्हें वे सुपात्र समझते थे, उनकी प्रतिक्रिया भी लेते तथा परामर्श पर विचार करते किन्तु संशोधन या परिवर्तन केवल तभी करते जब वे स्वयं सहमत हो जाते. प्रसाद की यह मनोवृत्ति लहर में अभिव्यक्त हुई है: 

छोटे से जीवन की कैसी बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
क्या  नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा 
अभी समय भी नहीं थकी-सोई है मेरी मौन व्यथा 

नामांक: 

प्रसाद के जन्म तथा नामकरण के संबंध में डॉ. प्रेमशंकर१४ का मत है कि प्रसाद  माता-पिता ने पुत्र हेतु झारखण्ड के वैद्यनाथधाम से लेकर उज्जयिनी के महाकाल तक प्रार्थना की थी. प्रसाद को शैशव में इसी कारण 'झारखंडी' (अंकमान ४) कहा जाता था. प्रसाद की आरम्भिक कवितायें 'कलाधर' (अंकमान ४) नाम से हैं. जयशंकर प्रसाद का अंकमान ८ है.१४ पाश्चात्य वर्णमालानुसार अंकमान १ है जो सभी अंकों का मूल है. प्रसाद की जन्म तिथि ३०-१-१८८९ तथा प्रयाण तिथि १५-११-१९३७ है.  जन्म माह १ तथा जन्म वर्ष १८८९ (८) है जबकि निधन तिथि  (६ + २ + २० = २८ = १० = १) , निधन माह ११ (२) तथा निधन वर्ष १९३७ (२) है. 


J : १  उन्मुक्त विचार, स्वतंत्रता प्रिय, उदार, विशालमना, स्पष्टवादी, मौलिक.
S : १ बहिर्मुखी, हँसमुख, मित्र बनाने में कुशल, योग्यं समझदार, कलाप्रेमी, निष्ठावान, कमजोर निर्णयक्षमता.
P : ७  रहस्यपूर्ण, आत्मसंयमी, शांत, गूढ़.

Jharkhandi = १ + ८ + १ + ९ + २ + ८ + १ + ५ + ४ + ९ = ४८ = १२ = ३

Kaladhar = २ + १ + ३ + १ + ४ + ८ + १+ ९ = २९ = ११ = २  

Jayshankar = १ + १ + ७ + १ + ८ + १ + ५ + २ + १ + ९ = ३६ = ९

Jaishankar = १ + १ + ९ + १ + ८ + १ + ५ + २ + १ + ९ = ३८ = ११ = २

Prasaad  =  =  ७ + ९ + १ + १ + १ + १ + ४  = २४  = ६   

Jayshankar Prasaad = ९ + ६ = १५ = ६ 

Jai shankar Prasaad = २ + ६ = ८ 

अंग्रेजी  अंक गणनानुसार शब्द के हिज्जे (स्पेलिंग) बदलने पर अंक बदलना स्वाभाविक है.

प्रसाद जी की कृतियों को उनका आत्मज या मानसपुत्र मानते हुए  गणना देखें:

कृति का नाम                                  नामांक                    प्रकाशन वर्षांक                संयुकतांक
काव्य:
उर्वशी                                                   ८                                                 
Urvashi                                             ८                           १९०९ = १                                 ९    
वन मिलन                                          ३                                          
Vana milan                                         ८                          १९०९ = १                                 ९
प्रेम राज्य                                             १                                          
 Prem rajya                                         ८                          १९०९ = १                                 ९   
अयोध्या का उद्धार                                ७ 
Ayodhya ka uddhar                        ३                          १९१० = २                                  ५
शोकोच्छ्वास                                       १ 
shokochchhwas                               २                          १९१० = २                                  ४
वभ्रुवाहन                                              ९     
Vabhbhuvahan                                 १                          १९११ = ३                                   ४
कानन कुसुम                                        ३ 
Kanan kusum                                    ९                         १९१३ = ५                                  ५
प्रेम पथिक                                            ७ 
Prem pathik                                        ९                         १९१३ = ५                                  ५
करुणालय                                             ४ 
Karunaalaya                                       ८                        १९१३ = ५                                  ४  
महाराणा का महत्त्व                              ४    
maharana ka mahatva                        १                        १९१४ = ५                                  ६
झरना                                                    ८
Jharana                                               ८                        १९१८ = १                                   ९ 
आँसू                                                     ३  
Aansu                                                 २                      १९२५ = ८                                   १
लहर                                                      १ 
Lahar                                                    ५                     १९३३ = ७                                  ३
कामायनी                                               ६
Kamayany                                           २                     १९३५ = ९                                   २ 
नाटक:
स्कंदगुप्त                                                 
Skandgupta                                       ६                                          
चन्द्रगुप्त 
Chandragupta                                  ६ 
ध्रुवस्वामिनी 
Dhruv swamini                                ९ 
जनमेजय का नागयज्ञ 
Janmejay ka naag yajna                ४ 
राज्यश्री 
Rajyashri                                         ९  
कामना 
Kamna                                              ४ 
एक घूँट 
Ek ghoont                                        ५                                      
कहानी:
छाया                                                 
Chhaya                                              १                                   
प्रतिध्वनि                                          
Pratidhwani                                      ६                             
आकाशदीप 
Akashdeep                                    ८                                    
आँधी 
Andhi                                              ९ 
इंद्रजाल 
Indraj al                                         ६                                      
उपन्यास:
कंकाल 
Kankaal                                        ६
तितली 
Titlee                                              ८                                  
इरावती 
Irawatee                                            

उक्त अंकों के विश्लेषण से कृतियों के प्रकाशन वर्ष में  तथा अंक ४ की अनुपस्थिति दृष्टव्य है. नंबर्स ऑफ़ कबेला के अनुसार अंक ४ का भाव शक्ति-नाश है.  १ से ९  का विकास क्रम  कवि की काव्य यात्रा की पूर्णता इंगित करता है.  अन्य विधाओं की कृतियों के प्रकाशन वर्ष ज्ञात हों तो उन्हें भी विश्लेषित किया जा सकता है. 

प्रसाद जी के नामांक ६  की सर्वाधिक आवृत्ति कृतियों के नामांक में है.  यह विलक्षणता बताती है कि कवि                                     






संदर्भ: 

० १.  विज्ञान: प्रसाद और निराला का काव्य -डॉ. अर्चना मिश्रा, सरोज प्रकाशन सागर, २००५  
०२. संक्षिप्त हिंदी शब्द सागर -सं. रामचन्द्र वर्मा, नागरी प्रचारिणी  काशी, अष्टम संस्करण, पृष्ठ १६ 
०३. शब्दार्थ तत्व -  शोभाकांत मिश्र, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी पटना १९८६, पृष्ठ ३ 
०४. प्रकाशन श्री पीताम्बरा पीठ  परिषद दतिया, १९९८ 
०५. स्वरोदय के चार रत्न - रणधीर प्रकाशन हरिद्वार, २००१ 
०६. अंक दीपिका -डॉ. नारायणदत्त श्रीमाली, अनुपम पॉकेट बुक्स दिल्ली, १९७१ 
०७. अंक चमत्कार -कीरो, हिंदी रूपांतर डॉ. गौरीशंकर कपूर, रंजन पब्लिकेशन दिल्ली, १९८३ 
०८. कादंबिनी नवंबर १९९१, यंत्रों में छिपी है दिव्य शक्ति, योगिराज बर्फानी बाबा, १८० -१८१ 
०९. अंक ज्योतिर्विज्ञान -पं. राजेश दीक्षित, देहाती पुस्त भंडार दिल्ली
१०. प्रसाद की कविताएँ, सुधाकर पाण्डेय, हिंदी प्रचारक संस्थान वाराणसी, १९७४, पृष्ठ ४५
११. डॉ. भलिानाथ तिवारी, कवि प्रसाद, पृष्ठ १२
१२. प्रसाद साहित्य समीक्षा, -रामरतन भटनागर , १९५८, साहित्य प्रकाशन तेलीवाड़ा, दिल्ली
१३. प्रसाद का काव्य, डॉ. प्रेमशंकर, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहबाद, १९७०पृष्ठ १५
१४. उक्त १३, पृष्ठ २०
१५. उक्त १ पृष्ठ ३४
१६.       

  


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बुधवार, 24 जून 2015

chhand salila: pramanika aur panchchamar chhand -sanjiv

छंद सलिला:
प्रमाणिका और पञ्चचामर छंद
संजीव
*
प्रमाणिका
अन्य नाम: नगस्वरूपिणी
प्रमाणिका एक अष्टाक्षरी छंद है. अष्टाक्षरी छंदों के २५६ प्रकार हो सकते हैं। प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ल ग' है।
इसके दोगुने को पञ्चचामर कहते हैं।
ज़रा लगा प्रमाणिका।
लक्षण: जगण रगण + लघु ।s। s। s । s यति ४. ४
उदाहरण:
१.
ज़रा लगाय चित्तहीं। भजो जु नंद नंदहीं।
प्रमाणिका हिये गहौ। जु पार भौ लगा चहौ। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
सही-सही उषा रहे
सही-सही दिशा रहे
नयी-नयी हवा बहे
भली-भली कथा कहे -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
जगो उठो चलो बढ़ो
सभी यहीं मिलो खिलो
न गाँव को कभी तजो
न देव गैर का भजो - संजीव


पञ्चचामर
अन्य नाम: नराच, नागराज
पञ्चचामर एक सोलहाक्षरी छंद है. सोलहाक्षरी छंदों के ६५,५३६ प्रकार हो सकते हैं. प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ज र ज ग' है.
यह प्रमाणिका का दोगुना होता है: प्रमाणिका पदद्वयं वदंति पंचचामरं
लक्षण: जगण रगण जगण रगण जगण + गुरु ।s। ।s। ।s। ।s। ।s। s
उदाहरण:
१.
जु रोज रोज गोपतीय डार पंच चामरै।
जु रोज रोज गोप तीय कृष्ण संग धावतीं।
सु गीति नाथ पाँव सों लगाय चित्त गावतीं।।
कवौं खवाय दूध औ दही हरी रिझावतीं।
सुधन्य छाँड़ि लाज पंच चामरै डुलावतीं।। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
उठो सपूत देश की, धरा तुम्हें पुकारती
विषाद से घिरी पड़ी, फ़टी दशा निहारती
किसान हो कुदाल लो, जवान हो मशाल लो
समग्र बुद्धिजीवियों, स्वदेश को संभाल लो -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
तजो न लाज शर्म ही, न माँगना दहेज़ रे!
करो सुकर्म धर्म ही, भविष्य लो सहेज रे!
सुनो न बोल-बात ही, मिटे अँधेर रात भी.
करो न द्वेष घात ही, उगे नया प्रभात भी.

रावण कृत शिवतांडव स्तोत्र की रचना पञ्चचामर छंद में ही है.
जटाटवीगलज्जल:प्रवाहपावितस्थले। गलेSवलंब्यलंबितां भुजंगतुंगमालिकां।।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादमड्डमर्वयं। चकार चंडताण्डवं तनोतुन: शिव: शिवं।।

muktika: sanjiv

मुक्तिका :
संजीव 
*
बीज बना करते हैं जो वे फसल न होते 
अपने काटें बात अगर तो दखल न होते  
*
जो विराट कहते खुद को वामन हो जाते 
शक्ल दिखानेवाले रिश्ते असल न होते   
*
हर मुश्किल को हँस अपने सर पर लेते हैं 
मदद गैर की करनेवाले निबल न होते 
*
जवां हौसला रखनेवाले हार न मानें 
शेर वही होते हैं नज़्मों-ग़ज़ल न होते
*
रीत गढ़ा करते हैं जो वे नकल न होते 
शीश हथेली पर धरते जो नसल न होते
*

Muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
*
रौशनी कब चराग करते हैं?
वो न सीने में आग धरते हैं.
तेल-बाती सदा जला करती-
पूजकर पैर 'सलिल' तरते हैं.
*
मिले वरदान चाह की हमने
दान वर का नहीं किया तुमने
दान बिन मान कहाँ मिल सकता
उँगलियों पर लिया नचा हमने
*
माँग थी माँग आज भर देना
दान कन्या का झुका सर लेना
ले लिया कर में कर न छूटेगा
ज़िंदगी भर न चुके, कर देना
*


  

muktika: sanjiv

एक प्रयोग- 
मुक्तक मुक्तिका :
संजीव
*
न हास है, न रास है 
अनंत प्यास-त्रास है
जड़ें न हैं जमीन में 
गगन में न उजास है

लक्ष्य क्यों उदास है?
थका-चुका प्रयास है.
कशिश न कोशिशें रुकें  
हुलास ही हुलास है

न आम है, न ख़ास है
भविष्य तो कयास है 
मालियों से पूछिए 
सुवास तो सुवास है 

***

shubhkamna geet: sanjiv

शुभ कामना गीत:
अनुश्री-सुमित परिणय १२-६-२०१५ बिलासपुर 
संजीव 
*
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने हँस कहा: 
'मन तू मन से मिल गया 
है' मन ने फँस कहा
'हाथ थाम ले जरा
तू संग-संग चल,
मान भी ले बात  मेरी
तू न यूँ मचल.
बेरहम न बन कठोर-
दिल जरा पिघल,
आ गया बिहार से 
बिलासपुर सम्हल'
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने धँस कहा.
*
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने रुक कहा:
'क्या करूँ मैं साथ तेरे 
चार-कदम चल? 
कौन जनता न कहीं 
जाए तू बदल?
देख किसी और को 
न जाए झट फिसल? 
कैसे मान लूँ कि तेरी 
प्रीत है असल?
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने तन कहा.
*
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने मुड़ कहा:
'मैं न राम सिया को जो  
भेज दे जंगल
मैं न कृष्ण प्रेमिका को 
जो दे खुद बदल.
लालू-राबड़ी सी करें    
प्रीत हम अटल. 
मोटियार मैं तू
मोटियारी है नवल.'
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने तक कहा.
*
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने झुक कहा:  
चक्रवात जैसी अपनी 
प्रीत हो प्रबल।
लाख हों भूकम्प नहीं 
प्यार हो निबल 
सात जनम संग रहें
हो न हम निबल 
श्वास-श्वास प्रीत व्याप्त 
ज्यों भ्रमर-कमल 
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने मिल कहा.
*
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने फिर कहा:
नीर-क्षीर मिल गया 
न कोई दे दखल
अंतरों से अंतरों को 
पल में दें मसल
चित्र गुप्त ज़िंदगी के 
देख-जान लें 
रीत प्रीत की निभा 
सकें, सजल नयन 
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने हँस कहा.
*  
संगीत संध्या 
११.६.२०१५
होटल ईस्ट पार्क बिलासपुर

शनिवार, 20 जून 2015

muktika: sanjiv

अभिनव प्रयोग 
दोहा मुक्तिका:
संजीव 
*
इस दुनिया का सार है, माटी लकड़ी आग 
चाहे  तू कह ले इसे, खेती बाड़ी साग 
*
तन-बरतन कर साफ़- भर, जीवन में अनुराग
मन हरियाने के लिये, सूना झूम सुन फाग 
 *
सदा सुहागिन श्वास हो, गाये आस विहाग 
प्यास-रास सँग-सँग पले, हास न छूटे-जाग 
*
ज्यों की त्यों चादर रहे, अपनेपन से ताग  
ढाई आखर के लिये, थोड़ा है हर त्याग 
*
बीन परिश्रम की बजा, रीझे मंज़िल-नाग 
सच की राह न छोड़ना, लगे न कोई दाग 
*
हर अंकुर हो पल्ल्वित, तब ऊँची हो पाग 
कलियाँ मुस्काती रहें, रहे महकता बाग़ 
*
धूप-छाँव जैसे पलें, मन में राग-विराग 
मनुज करे जग को मलिन, स्वच्छ करे नित काग. 
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
बाँस के कल्ले उगे फिर 
स्वप्न नव पलता गया 
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
जुही-जुनहाई मिलीं
झट गले
महका बाग़ रे!
गुँथे चंपा-चमेली
छिप हाय
दहकी आग रे!
कबीरा हँसता ठठा
मत भाग
सच से जाग रे!
बीन भोगों की बजी
मत आज
उछले पाग रे!
जवाकुसुमी सदाव्रत
कर विहँस
जागे भाग रे!
हास के पल्ले तले हँस
दर्द सब मिटता गया
त्रास को चुप झेलता तन-
सुलगता-जलता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
प्रथाएँ बरगद हुईं
हर डाल
बैठे काग रे!
सियासत का नाग
काटे, नेह
उगले झाग रे!
घर-गृहस्थी लग रही
है व्यर्थ
का खटराग रे!
छिप न पाते
चदरिया में
लगे इतने दाग रे!
बिन परिश्रम कब जगे
हैं बोल
किसके भाग रे!
पीर के पल्ले तले पल
दर्द भी हँसता गया
जमीं में जड़ जमाकर
नभ छू 'सलिल' उठता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*

शुक्रवार, 19 जून 2015

muktika: salil

मुक्तिका:
संजीव 
*
मापनी: 
१२१२ / ११२२ / १२१२ / २२ 
ल ला ल ला ल ल ला ला, ल ला ल ला ला ला
महारौद्र जातीय सुखदा छंद 
*
मिलो गले हमसे तुम मिलो ग़ज़ल गाओ 
चलो चलें हम दोनों चलो चलें आओ 
यही कहीं लिखना है हमें कथा न्यारी 
कली खिली गुल महके सुगंध फैलाओ 
कहो-कहो कुछ दोहे चलो कहो दोहे 
यहीं कहीं बिन बोले हमें निकट पाओ 
छिपाछिपी कब तक हो?, लुकाछिपी छोड़ो 
सुनो बुला मुझ को लो, न हो तुम्हीं आओ 
भुला गिले-शिकवे दो, सुनो सपन देखो 
गले मिलो हँस के प्रिय, उन्हें 'सलिल' भाओ 
***  
क्या यह 'बहरे मुसम्मन मुरक़्क़ब मक्बूज़ मख्बून महज़ूफ़ो मक्तुअ' में है?

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
पगड़ी हो 
या हो दिल 
न किसी का उछालिये 
*
हँसकर गले लगाइये 
या हाथ मिलायें 
तीरे-नज़र से दिल, 
छुरे से पीठ बचायें 
हैं आम तो न ख़ास से 
तकरार कीजिए- 
जो कीजिए तो झूठ 
न इल्जाम लगायें 
इल्हाम हो न हो 
नहीं किरदार गिरायें  
कैसे भी हो 
हालात  
न जेबें खँगालिये   
पगड़ी हो 
या हो दिल 
न किसी का उछालिये 
*
दिल से भले भुलाइये  
नीचे न गिरायें  
यादें न सही जाएँ तो 
चुपके से सिरायें 
माने न मन तो फिर 
मना इसरार कीजिए- 
इकरार कीजिए 
अगर तो शीश चढ़ायें 
जो पाठ खुद पढ़ा नहीं 
न आप पढ़ायें   
बच्चे बिगड़ न जाएँ 
हो सच्चे   
सम्हालिए 
पगड़ी हो 
या हो दिल 
न किसी का उछालिये 
*

गुरुवार, 18 जून 2015

dohe: sanjiv

दोहा के रंग बाल के संग 
संजीव  
*
बाल-बाल जब भी बचें, कहें देव! आभार 
बाल न बांका हो कभी कृपा करें सरकार 
बाल खड़े हों जब कभी, प्रभु सुमिरें मनमीत 
साहस कर उठ हों खड़े, भय पर पायें जीत 
नहीं धूप में किये हैं, हमने बाल सफेद
जी चाहा जीभर लिखा, किया न किंचित खेद 
सुलझा काढ़ो ऊँछ लो, पटियां पारो खूब 
गूंथौ गजरा बाल में, प्रिय हेरे रस-डूब 
बाल न बढ़ते तनिक भी, बाल चिढ़ाते खूब 
तू न तरीका बताती, जाऊँ नदी में डूब 
*
बाल होलिका-ज्वाल में, बाल भूनते साथ 
दीप बाल, कर आरती, नवा रहे हैं माथ 
बाल मुँड़ाने से अगर, मिटता मोह-विकार 
हो जाती हर भेद तब, भवसागर के पार
बाल और कपि एक से, बाल-वृद्ध हैं एक 
वृद्ध और कपि एक क्यों, माने नहीं विवेक?
*
बाल बनाते जा रहे, काट-गिराकर बाल
सर्प यज्ञ पश्चात ज्यों, पड़े अनगिनत व्याल 
*
बाल बढ़ें लट-केश हों, मिल चोटी हों झूम
नागिन सम लहर रहे, बेला-वेणी चूम
*
अगर बाल हो तो 'सलिल', रहो नाक के बाल 
मूंछ-बाल बन तन रखो, हरदम उन्नत भाल 
*
भौंह-बाल तन चाप सम, नयन बाण दें मार
पल में बिंध दिल सूरमा, करे हार स्वीकार 
*
बाल पूंछ का हो रहा, नित्य दुखी हैरान 
धूल हटा, मक्खी भगा, थके-चुके हैरान 
*
बाल बराबर भी अगर, नैतिकता हो संग 
कर न सकेगा तब सबल, किसी निबल को तंग 
*
बाल भीगकर भीगते, कुंकुम कंचन देह 
कंगन-पायल मुग्ध लख, बिन मौसम का मेह 
*
गिरें खुद-ब-खुद तो नहीं, देते किंचित पीर 
नोचें-तोड़ें बाल तो, हों अधीर पा पीर 
*

lekh: jal sankat aur naharen -sanjiv

विशेष आलेख 
जल संकट और नहरें 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल''
*
अनिल, अनल, भू, नभ, सलिल, पंच तत्वमय देह 
रखें समन्वय-संतुलन, आत्म तत्व का गेह 

जल जीवन  का पर्याय है. जीवन हेतु अपरिहार्य शेष ४  तत्व मिलने पर भी  जीवन क्रम तभी आरम्भ होता है जब जल का संयोग होता है. शेष ४ तत्वों की तुलना में पृथ्वी पर जल की सीमित मात्रा उसे और अधिक महत्वपूर्ण बना देती है. सकल जल में से मानव जीवन हेतु आवश्यक पेय जल अथवा मीठे पानी की मात्रा न केवल कम है अपितु निरंतर कम होती जा रही है जबकि मानव की जनसँख्या निरंतर बढ़ती जा रही है. फलत:, अगला विश्व युद्ध जल भंडारों को लेकर होने की संभावना व्यक्त की जाने लगी है.पानी की घटती मात्रा और बढ़ती आवश्यकता से बढ़ रही विषमता के लिए लोक और तंत्र दोनों बराबरी से जिम्मेदार हैं. लोक इसलिए कि वह जल का अपव्यय तो करता है पर जल-संरक्षण का कोई उपाय नहीं करता, तंत्र इसलिए की वह साधन संपन्न होने पर भी जन सामान्य को न तो जल-संरक्षण के प्रति जागरूक करता हैं न ही जल-संरक्षण कार्यक्रम और योजनाओं को प्राथमिकता देता है. 

नहर: क्या और क्यों?
जल की उपलब्धता के २ प्रकार प्राकृतिक तथा कृत्रिम हैं. प्राकृतिक संसाधन नदी, झरने, झील, तालाब और समुद्र हैं, कृत्रिम साधन तालाब, कुएँ, बावड़ी, तथा जल-शोधन संयंत्र हैं. भारत जैसे विशाल तथा बहुसांस्कृतिक देश में ऋतु परिवर्तन के अनुसार पानी की आवश्यकता विविध आय वर्ग के लोगों में भिन्न-भिन्न होती है. जल का सर्वाधिक दोहन तथा बर्बादी संपन्न वर्ग करता है जबकि जल-संरक्षण में इसकी भूमिका शून्य है. जल संरक्षण के कृतिम या मानव निर्मित साधनों में नहर सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक है. नहर का आकार-प्रकार प्रकृति, पर्यावरण, आवश्यकता और संसाधन का तालमेल कर निर्धारित किया जाता है. नदी की तुलना में लघ्वाकारी होने पर भी नहर जन-जीवन को अधिक लाभ और काम हानि पहुँचाती है.  

नहर मानव निर्मित कृत्रिम जल-प्रवाह पथ है जिसका आकार, दिशा, ढाल, बहाव तथा पानी की मात्रा तथा समय मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्धारित-नियंत्रित कर सकता है. 

नदी का बहाव-पथ प्राकृतिक भौगोलिक परिस्थिति अनुसार ऊपर से नीचे की ओर होता है. नदी में आनेवाले जल की मात्रा जल संग्रहण क्षेत्र के आकार-प्रकार तथा वर्षा की तीव्रता एवं अवधि पर निर्भर होती है. इसीलिए वर्ष कम-अधिक होने पर नदी में बाढ़ कम या अधिक आती है. वर्षा न्यून हो तो नदी घाटी में जलाभाव से फसलें तथा जन-जीवन प्रभावित होता है. वर्षा अधिक हो तो जलप्लावन से जन-जीवन संकट में पड़ जाता है. नदी के प्रवाह-पथ परिवर्तन से सभ्यताओं के मिटने के अनेक उदहारण मानव को ज्ञात हैं तो सभ्यता का विकास नदी तटों पर होना भी सनातन सत्य है. 

नहर नदियों के समान उपयोगी होती है पर नदियों के समान विनाशकारी नहीं होती। इसलिए नहर का अधिकतम निर्माण कर पीने, सिंचाई तथा औद्योगिक उपयोग हेतु जल की अधिक उपलब्धता कर सकना संभव है. नहर से भूजल स्तर में वृद्धि, मरुस्थल के विस्तार पर रोक, अनुपजाऊ भूमि पर कृषि, वन संवर्धन, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार अवसर तथा वाणिज्य-उद्योग का विस्तार करना भी संभव है. नहरें देश से लुप्त होती वनस्पतियों और पशु-पक्षियों के साथ-साथ जनजातीय संस्कृति के संवर्धन में भी उपयोगी हो सकती है. नहर लोकजीवन, लोक संस्कृति की रक्षा कर ग्रामीण जीवन को सरल, सहज, समृद्ध कर नगरों में बढ़ते जनसँख्या दबाब को घटा सकती है. 

नहर वायुपथ, रेलगाड़ी और सड़क यातायात की तुलना में बहुत कम खर्चीला जल यातायात साधन उपलब्ध करा सकती है. नहर के किनारों पर नई तथा व्यवस्थित बस्तियां बनाई जा सकती हैं. नहरों के किनारों पर पौधरोपण कर वन तथा बागीचे लगाये जाएँ तो वर्षा  की नियमितता तथा वृद्धि संभव है. इस वनों तथा उद्यानों की उपज समीपस्थ गाँवों में उद्योग-व्यापार को बढ़ाकर आजीविका के असंख्य साधन उपलब्ध करा सकती है. नहरों के किनारों पर पवन चक्कियों तथा सौर ऊर्जा उत्पादन की व्यवस्था संभव है जिससे विद्युत-उत्पादन किया जा सकता है. 

नहर बनाकर प्राकृतिक नदियों को जोड़ा जा सके तो बाढ़-नियंत्रण, आवश्यकतानुसार जल वितरण तथा अल्पव्ययी व न्यूनतम जोखिमवाला आवागमन संभव है. नहर में मत्स्य पालन कर बड़े पैमाने पर खाद्य प्राप्त किया जा सकता है. नहर से कमल व् सिंघाड़े की तरह जलीय फसलें लेकर उनसे विविध रोजगार साधन बढ़ाये जा सकते हैं. नहरों में तैरते हुए होटल, उद्यान आदि का विकास हो तो पर्यटन का विकास हो सकता है. नहर के किनारों पर संरक्षित वन लगाकर  उन्हें दीवाल से घेरकर अभयारण्य बनाये जा सकते हैं.  

नहर निर्माण : उद्देश्य और उपादेयता  

नहर निर्माण की योजना बनाने के पूर्व आवश्यकता और उपदेयता का  आकलन जरूरी है. मरुथली क्षेत्र में नहर बनाने का उद्देश्य किसी नदी के जल से पेयजल तथा कृषि कार्य हेतु जल उपलब्ध करना हो सकता है. राजस्थान तथा गुजरात में इस तरह का कुछ कार्य हुआ है. बारहमासी नदियों से जल लेकर सूखती हुई नदियों में डाला जाए तो उन्हें नव जीवन मिलने के साथ-साथ समीपस्थ नगरों को पेय जल मिलता है, उजड़ रहे तीर्थ फिर से बसते हैं. नर्मदा नदी से साबरमती में जल छोड़कर गुजरात तथा क्षिप्रा नदी में जल छोड़कर मध्य प्रदेश में यह कार्य किया गया है. 

नहर निर्माण का प्रमुख उद्देश्य सिंचाई रहा है. देश के विविध प्रदेशों में वृहद, माध्यम तथा लघु सिंचाई योजनाओं के माध्यम से लाखों हेक्टेयर भूमि की सिंचाई कर खड़ी  वृद्धि की गयी  है. खेद है कि  इन नहरों का निर्माण करनेवाला विभाग राजस्व तो संकलित करता है पर नहरों की मरम्मत, देखरेख तथा विस्तार या अन्य गतिविधियों के लिये आर्थिक रूप से विपन्न रहा आता है. जल संसाधन विभाग में नहरों में जम रही तलछट को एकत्र कर खाद के रूप में विक्रय करने, नहरों में साल भर जल रखकर जलीय फसलों का उत्पादन करने, नहरों का जल यातायात हेतु उपयोग करने, नहरी जल को हर गाँव के पास जल शोधन संयंत्र में शुद्ध कर पेयजल उपलब्ध कराने, नहर के किनारों  पर मृदा का रासायनिक परीक्षण कर अधितम् लाभ देनेवाली फसल उगने और गाँवों के दूषित जल-मल को  शोधन संयंत्रों में शुद्ध कर पुन: नहर में मिलाने की कोई परिकल्पना या योजना ही नहीं है. 

नहरों का बहुउद्देश्यीय उपयोग करने के लिये आकार, ढाल, जल की मात्रा, जलक्षरणरोधी होने तथा उनके किनारों के अधिकतम उपयोग करने की व्यावहारिक योजनाएं बनाना होंगी. अभियंताओं और कृषिवैज्ञानिकों को नवीन अवधराओं के विकास तथा  नये प्रयोगों  स्वतंत्रता तथा क्रिवान्वयन हेतु वित्त व अधिकार देना होंगे. विभागों द्वारा संकलित राजस्व का कुछ अंश विभाग को देना होगा ताकि नहरों का संधारण और विकास नियमित रूप से हो सके. 

 स्थल चयन: 

नहर कहाँ बनाई जाए? यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है. अब तक जल परियोजनाओं के अंतर्गत बांधों से खेतों की सिंचाई करने के लिये नहरें बनायी जाती रही हैं. इन नहरों को बारहमासी जलप्रवाही बनाने के लिए उन्हें जलरोधी भी बनाना होग. इस हेतु आर्थिक साधनों की आवश्यकता होगी. पूर्वनिर्मित तथा प्रस्तावित नहरों के प्रवाह-पथ क्षेत्र का सर्वेक्षण कर भूस्तर के अनुसार खुदाई-भराई की  जानेवाली मृदा की मात्रा, समीपस्थ या प्रस्तावित बस्तियों की जनसँख्या के आधार पर वर्तमान तथा २० वर्ष बाद वांछित पेय जल तथा निष्क्रमित जल-मल की मात्रानुसार शोधन संयंत्रों की आवश्यकता, हो रही तथा संभावित कृषि हेतु वांछित जल की मात्रा व समय, नहरों में तथा उपलब्ध स्थल अनुसार मत्स्य पालन कुण्ड निर्माण की संभावना, संख्या तथा व्यय, नहर के किनारों पर लगाई जा सकनेवाली वनोपज तथा वनस्पतियाँ (बाँस आँवला, बेल, सीताफल, केला, संतरा, सागौन, साल ) का मृदा के आधार पर चयन, इन वनोपजों के विक्रय हेतु बाजार की उपलब्धता,  वनोपजों का उपयोग कर सकने वाले लघु-कुटीर उद्योगों का विकास व उत्पाद के विपणन की व्यवस्था, नहरों के किनारों पर विकसित वनों में अभयारण्य बनाकर प्राणियों को खला छोड़ने एवं पर्यटकों को सुरक्षित पिंजरों में घूमने की व्यवस्था,  मृदा के प्रकार, संभावित फसलों हेतु वांछित जल की मात्रा व समय, समीपस्थ तीर्थों तथा प्राकृतिक स्थलों का विकास कर पर्यटन को प्रोत्साहन, नहर के तटों पर वायु प्रवाह के अनुसार पवनचक्कियों  ऊर्जा केन्द्रों की स्थापना, विद्युत उत्पादन-विपणन, जनसंख्यानुसार नए ग्रामों की स्थापना-विकास नहर में जल ग्रहण तह नहर से जल निकास की मात्रा का आकलन तथा उपाय, अधिकतम-न्यूनतम वर्षाकाल में नहर में आनेवाली जल की मात्रा का आकलन व्यवस्था जल-परिवहन तथा यातायात हेति वांछित नावों, क्रूजरों की आवश्यकता और उन्हें किनारों पर लगाने के लिये घाट निर्माण आदि महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिनका पूर्वानुमान कर लक्ष्य निर्धारित किये जाने चाहिए. भौगोलिक स्थिति के अनुसार आवश्यकता होने पर सुरंग बनाने, बाँध बनाकर जलस्तर उठाने का भी ध्यान रखना होगा.  

बाधा और निदान:
बाँध आरम्भ होते समय अभियंताओं की बड़ी संख्या में भर्ती तथा परियोजना पूरी होने पर उन्हें अनावश्यक भार मानकर आर्थिक आवंटन न देने की प्रशासनिक नीति ने अभियंताओं के अमनोबल को तोडा है तथा उनकी कार्यक्षमता व् गुणवत्ता पर  पड़ा है. दूसरी और राजस्व वसूली का पूरा विभाग होते हुए भी अभियंताओं को तकनीकी काम से हटाकर राजस्व वसूली पर लगाना और वसूले राजस्व में से कोई राशि नहर या बांध के संरक्षण हेतु न देने की नीति ने बाँधों और नहरों के रख-रखाव पर विपरीत छोड़ा है. इस समस्या को सुलझाने के लिये एक नीति बनायी जा सकती है. योजना पूर्ण होने पर प्राप्त राजस्व के ४ हिस्से  कर एक हिस्सा भावी निर्माणों के लिये राशि जुटाने के लिये केंद्र सरकार को, एक हिस्सा योजनाओं पर लिया ऋण छकाने के लिये राज्य सरकार को, एक हिस्सा योजना के संधारण हेतु सम्बंधित विभाग / प्राधिकरण को, एक हिस्सा समीपस्थ क्षेत्र या गाँव का विकास करने हेतु स्थानीय निकाय को दिया जा सकता है. योजना के आरम्भ से लेकर पूर्ण होने और संधारण तक का कार्य एक ही निकाय का हो तो पूर्ण जानकारी, नियंत्रण तथा संधारण सहज होग. इससे जिम्मेदारी की भावना पनपेगी तथा उत्तरदायित्व का निर्धारण भी किया जा सकेगा. विविध विभागों को एक साथ जोड़ने पर अधिकारों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को लेकर अनावश्यक टकराव होता है. 

लाभ:   

यदि नहर निर्माण को प्राथमिकता के साथ पूरे देश में प्रारम्भ किया जाए तो अनेक लाभ होंगे. 
१. विविध विभागों में नियुक्त तथा सिंचाई योजनाएं पूर्ण हो चुकने पर निरुपयोगी कार्य कर वेतन पा रहे अभियन्ताओं की क्षमता तथा योग्यता का उपयोग हो सकेगा.
२. असिंचित-बंजर भूमि पर कृषि हो सकेगी, उत्पादन बढ़ेगा. 
३. व्यर्थ बहता वर्ष जल संचित-वितरित कर जल-प्लावन (बाढ़) को नियंत्रित किया जा सकेगा. 
४. गाँवों का द्रुत विकास होगा. शुद्ध पेय जल मिलाने तथा मल-जल शोधन व्यवस्था होने से स्वास्थ्य सुधरेगा. 
५. पवन तथा सौर ऊर्जा का उपयोग कर जीवनस्तर को उन्नत किया जा सकेगा. 
६. सस्ती और सर्वकालिक जल यातायात से को  व्यकिगत वाहन  ईंधन पर व्यय से राहत मिलेगी. 
७. देश के ऑइल पूल का घाटा कम होगा.
८. नये रोजगार अवसरों  होगा। इसका लाभ गाँव के सामान्य युवाओं को होगा.
९. कृषि, वनोपजों, वनस्पतियों, मत्स्य आदि का उत्पादन बढ़ेगा. 
१०. नये पर्यटन स्थलों का विकास होगा. 
११.कुटीर तथा लघु उद्योगों को नयी दिशाएँ मिलेंगी.
१२. पशु पालन सुविधाजनक होगा।
१३. सहकारिता आंदोलन सशक्त होगा.
१४. अभ्यारण्यों  तथा वानस्पतिक उद्यानों के निर्माण से लुप्त होती प्रजातियों का संरक्षण संभव होगा.
१५. समरसता तथा सद्भाव की वृद्धि होगी. 
१६. केंद्र-राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों की आय बढ़ेगी तथा व्यय घटेगा. 
१७. गाँवों में सुविधाएँ बढ़ने और यातायात सस्ता होने से शहरों पर जनसँख्या वृद्धि का दबाब घटेगा.   
१८. पर्यावरण प्रदूषण कम होगा.
१९. भूजल स्तर बढ़ेगा. 
२०. निरंतर बढ़ते तापमान पर अंकुश लगेगा.
२१. वनवासी अपने सांस्कृतिक वैभव और परम्पराओं के साथ सुदूर अंचलों में रहते हुए जीवनस्तर उठा सकेंगे. 

इन्फ्लुएंस ऑफ़ सिल्वीकल्चर प्रैक्टिसेस ऑन द हाइड्रोलॉजी ऑफ़ पाइन फ्लैटवुडस इन फ्लोरिडा के तत्वावधान में एच. रिकर्क द्वारा  संपन्न शोध के अनुसार ''वनस्पतियों का विदोहन किये जाने से वृक्षों के छत्र में  अन्तारोधन तथा भूमि में पानी का अंत:रिसाव घटता है. जलधारा में सीधे बहकर आनेवाले पानी से आकस्मिक बाढ में तेजी आती है.''

नहरों का विकास इस दुष्प्रभाव को रोककर बाढ़ की तीव्रता को कम कर सकता है. वर्तमान भूकम्पीय त्रसदियों के  जनसंख्या सघनता  कम म होना मानव जीवन की हानि को कम करेगा. बड़े बांधों और परमाणु विद्युत उत्पदान की जटिल, मँहगी तथा विवादास्पद  परियोजनाओं की  तुलना में सघन नहर प्रणाली विकसित करने में ही देश का कल्याण है.  क्या सरकारें, जन-प्रतिनिधि, पत्रकार और आम नागरिक इस ओर ध्यान देकर यह परिवर्तन ला सकेंगे? भावी सम्पन्नता का यह द्वार खोलने में जितनी देर होगी नुक्सान उतना ही अधिक होगा.    
​- समन्वयम् २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४ 

बुधवार, 17 जून 2015

dwipadi

द्विपदी 
संजीव
*
औरों की निगाहों से करूँ, खुद का आकलन

ऐसा न दिन दिखाना कभी, ईश्वर मुझे
.

navgeet: sanjiv

नवगीत
संजीव
*
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल 
लाते-दूर करें भूचाल 
.
जिसका जितना अधिक रसूख
उसकी उतनी ज्यादा भूख
छाँह नहीं, फल-फूल नहीं
दे जो- जाए भाड़ में रूख
गरजे मेघ, नाचता देख
जग को देता खुशी मयूख
उलझ न झुँझला
न हो निढाल
हल कर जितने उठे सवाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
.
पेट मिला है केवल एक
पर न भर सकें यत्न अनेक
लगन, परिश्रम, कोशिश कर
हार न माने कभी विवेक
समय-परीक्षक खरा-कड़ा
टेक न सर, कर पूरी टेक
कूद समुद में
खोज प्रवाल
मानवता को करो निहाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
.
मिट-मिटकर जो बनता है
कर्म कहानी जनता है
घूरे को सोना करता
उजड़-उजड़ कर बस्ता है
छलिया औरों को कम पर
खुद को ज्यादा छलता है
चुप रह, करो
न कोई बबाल
हो न तुम्हारा कहीं हवाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
*
१३-१-२०१५
४०१ जीत होटल बिलासपुर

navgeet: bela -sanjiv

नवगीत:
बेला
संजीव
*
मगन मन महका 
*
प्रणय के अंकुर उगे
फागुन लगे सावन.
पवन संग पल्लव उड़े
है कहाँ मनभावन?
खिलीं कलियाँ मुस्कुरा
भँवरे करें गायन-
सुमन सुरभित श्वेत
वेणी पहन मन चहका
मगन मन महका
*
अगिन सपने, निपट अपने
मोतिया गजरा.
चढ़ गया सिर, चीटियों से
लिपटकर निखरा
श्वेत-श्यामल गंग-जमुना
जल-लहर बिखरा.
लालिमामय उषा-संध्या
सँग 'सलिल' दहका.
मगन मन महका
*
१२.६.२०१५
४०१ जीत होटल बिलासपुर

navgeet: bela -sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
बेला 
आहत-घायल 
फिर भी खिलकर
महक रही है
मानो या मत मानो
गुपचुप
करती समर यही है
*
अँगना में बैठी बेला ले
सतुआ खायें उमंगें
गौरैया जैसे ही चहके
एसिड लायें लफंगे
घेरें बना समूह दुष्ट तो
सज्जन भय से सहमें
दहशतगर्दी
करे सियासत
हँसकर मटक रही है
बेला सहती शूल-चुभन
गृह-तरु पर
चहक रही है
बेला
आहत-घायल
फिर भी खिलकर
महक रही है
मानो या मत मानो
गुपचुप
करती समर यही है
*
कैसी बेला आयी?
परछाईं से भी भय लगता
दुर्योधन हटता है तो
दु:शासन पाता सत्ता
पांडव-कृष्ण प्रताड़ित तब भी
अब भी दहले रहते
ला, बे ला! धन
भूख तन्त्र की
निष्ठा गटक रही है
अलबेला
जन मत भरमाया
आस्था बहक रही है
बेला
आहत-घायल
फिर भी खिलकर
महक रही है
मानो या मत मानो
गुपचुप
करती समर यही है
*

navgeet: bela -sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
आइये!
बेला बनें हम
खुशबुएँ कुछ बाँट दें
*
अंकुरित हो जड़ जमायें
रीति-नीति करें ग्रहण.
पल्लवित हो प्रथाओं को
समझ करिए आचरण.
कली कोमल स्वप्न अनगिन
नियम-संयम-अनुकरण
पुष्प हो जग करें सुरभित
सत्य का कर अनुसरण.
देख खरपतवार
करे दें दूर,
कंटक छाँट दें.
खुशबुएँ कुछ बाँट दें.
*
अंधड़ों का भय नहीं कुछ
आजमाता-मोड़ता.
जो उगाता-सींचता है
वही आकर तोड़ता.
सुई चुभाता है ह्रदय में
गूँथ धागों में निठुर
हार-वेणी बना पहने
सुखा देता, छोड़ता.
कहो क्या हम
मना कर दें?
मन न करता डांट दें.
खुशबुएँ कुछ बाँट दें.
*
जिंदगी की क्यारियों में
हम खिलें बन मोगरा.
स्नेह-सुरभित करें जग को
वही आकर तोड़ता.
सुई चुभाता है ह्रदय में
गूँथ धागों में निठुर
हार-वेणी बना पहने
सुखा देता, छोड़ता.
कहो क्या हम
मना कर दें?
मन न करता डांट दें.
आइये!
बेला बनें हम
खुशबुएँ कुछ बाँट दें
*

   

navgeet: bela -sanjiv

नवगीत:
बेला महका 
संजीव 
*
जाने किस बेला में 
बेला बहका था?
ला, बे ला झट तोड़ 
मोह कह चहका था.
*
कमसिन कलियों की कुड़माई सुइयों से 
मैका छूटा, मिलीं सासरे गुइयों से 
खिल-खिल करतीं, लिपट-लिपट बन-सज वेणी 
बेला दे संरक्षण स्नेहिल भइयों से 
बेलावल का मन  
महुआ सा महका था 
जाने किस बेला में 
बेला बहका था?
*
जाने किस बेला से बेला टकरायी 
कौन बता पाये ऊँचाई-गहराई 
आब मोतिया जुही, चमेली, चंपा सी 
सुलभा संग सितांग करे हँस पहुनाई 
बेलन सँग बेलनी कि
मौसम दहका था.  
जाने किस बेला में 
बेला बहका था?
*
बेल न बेली, बेलन रखकर चल बाहर  
दूर बहुत हैं घर से सच बाबुल नाहर 
चंद्र-चंद्रिका सम सिंगार करें हम-तुम 
अलबेली ढाई आखर की है चादर   
अरुणिम गालों पर 
पलाश ही लहका था.  
जाने किस बेला में 
बेला बहका था?
*
टीप: बेला = मोगरा, मोतिया, सितांग, सुलभा, / = समय, अंतराल, / = बेलना क्रिया,/  = तट, तीर, किनारा, / = तरंग, लहर, / = कांसे का कटोरा जैसा  बर्तन, बेलावल = प्रिय, पति,

kruti charcha:

कृति चर्चा: 
हम जंगल के अमलतास : नवाशा प्रवाही नवगीत संकलन
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४ 
[कृति विवरण: हम जंगल के अमलतास, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, २००८, पृष्ठ १२०, १५० रु., आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेटयुक्त, प्रकाशक कादंबरी जबलपुर, संपर्क: २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५] 
*
विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं. इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल  में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता. ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं. संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:

                       नव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं 
                       जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं 
                                              की सरगम तैयार नये संगीत की 
                       कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं 
                       छोटी सी गागर में सागर भरते हैं 
                                              जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की 
                       जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं 
                       गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं 
                                              लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की 
                                              अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की 

सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं. इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है. प्रो. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं. उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं. अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है.' 

निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व. राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व. शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती. सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है. दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव  में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर' 

वृद्ध मेघ क्वांर के (मुखड़ा १२+११ x २, ३ अन्तरा १२+१२ x २ + १२+ ११), वक्त यह बहुरुपिया (मुखड़ा १४+१२ , १-३ अन्तरा १४+१२ x ३, २ अन्तरा १२+ १४ x २ अ= १४=१२), यातनाओं की सुई (मुखड़ा १९,२०,१९,१९, ३ अन्तरा १९ x ६), हम त्रिशंकु जैसे तारे हैं, नयन लाज के भी झुक जाते - पादाकुलक छंद(मुखड़ा १६x २, ३ अन्तरा १६x ६), स्वार्थी सब शिखरस्थ हुए- महाभागवत जाति (२६ मात्रीय), हवा हुई ज्वर ग्रस्त २५ या २६ मात्रा, मार्गदर्शन मनचलों का-यौगिक जाति (मुखड़ा १४ x ४, ३ अन्तरा २८ x २ ), आचरण आदर्श के बौने हुए- महापौराणिक जाति (मुखड़ा १९ x २, ३ अन्तरा १९ x ४), पसलियाँ बचीं (मुखड़ा १२+८,  १०=१०, ३ अन्तरा २०, २१ या २२ मात्रिक ४ पंक्तियाँ), खर्राटे भर रहे पहरुए (मुखड़ा १६ x २+१०, ३ अन्तरा १४ x ३ + १६+ १०),समय क्रूर डाकू ददुआ (मुखड़ा १६+१४ x २, ३ अन्तरा १६ x ४ + १४), दिल्ली तक जाएँगी लपटें (मुखड़ा २६x २, ३ अन्तरा २६x २ + २६), ओछे गणवेश (मुखड़ा २१ x २, ३ अन्तरा २० x २ + १२+१२ या ९), बूढ़ा हुआ बसंत (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा १६ x २ + २६), ब्याज रहे भरते (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा २६ x २ + २६) आदि से स्पष्ट है कि दुबे जी को छंदों पर अधिकार प्राप्त है. वे छंद के मानक रूप के अतिरिक्त कथ्य की माँग पर परिवर्तित रूप का प्रयोग भी करते हैं. वे लय को साधते हैं, यति-स्थान को नहीं. इससे उन्हें शब्द-चयन तथा शब्द-प्रयोग में सुविधा तथा स्वतंत्रता मिल जाती है जिससे भाव की समुचित अभिव्यक्ति संभव हो पाती है.
यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेव ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'...   किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है. अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'. युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं.

राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली'  प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है. अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:

कभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता 
कभी वसंत सुहाना 
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न 
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके 
हों हम मुक्त ऋणों से 

नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:

ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...

.....भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब
हार में भी जीत का निश्चय हुआ है. 
      


प्रो. विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.'

सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'

मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार  रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े.''

नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है. विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं.

'ध्वजा नवगीत की' शीर्षक नवगीत में २२-२२-२१ मात्रीय पंक्तियों के ६ अंतरे हैं. पहला समूह मुखड़े का कार्य कर रहा है, शेष समूह अंतरे के रूप में हैं. तृतीय पंक्ति में आनुप्रसिक तुकांतता का पालन किया गया है.

'हम जंगल के अमलतास' शीर्षक नवगीत पर कृति का नामकरण किया गया है. यह नवगीत महाभागवत जाति के गीतिका छंद में १४+१२ = २६ मात्रीय पंक्तियों में रचा गया है तथा पंक्त्यांत में  लघु-गुरु का भी पालन है. मुखड़े में २ तथा अंतरों में ३-३ पंक्तियाँ हैं.

'जहाँ लोकरस रहते शहदीले' शीर्षक रचना महाभागवत जातीय छंद में है.  मुखड़े तथा २ अंतरांत में गुरु-गुरु का पालन है, जबकि ३ रे अंतरे में एक गुरु है. यति में विविधता है: १६-१०, ११-१५, १४-१२.

'हार न मानी अच्छाई ने' शीर्षक गीत में प्रत्येक पंक्ति १६ मात्रीय है. मुखड़ा १६+१६=३२ मात्रिक है. अंतरे में ३२ मात्रिक २ (१६x४)  समतुकांती पंक्तियाँ है. सवैया के समान मात्राएँ होने पर भी पंक्त्यांत में भगण न होने से यह सवैया गीत नहीं है.

'ममता का छप्पर'  नवगीत महाभागवत जाति का है किन्तु यति में विविधता  १६+१०, ११+१५, १५+११ आदि के कारण यह मिश्रित संकर छंद में है.

'बेड़ियाँ न डालिये' के अंतरे में १२+११=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ, पहले-तीसरे अंतरे में १२+१२=२४ मात्रिक २-२ पंक्तियाँ तथा दूसरे अंतरे में १०+१३=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ है. तीनों अंतरों के अंत में मुखड़े के सामान १२+१२ मात्रिक पंक्ति है. गीत में मात्रिक तथा यति की विविधता के बावजूद प्रवाह भंग नहीं है.

'नंगपन ऊँचे महल का शील है' शीर्षक गीत महापौराणिक जातीय छंद में है. अधिकांश पंक्तियों में ग्रंथि छंद के पिन्गलीय विधान (पंक्त्यांत लघु-गुरु) का पालन है किन्तु कहीं-कहीं अंत के गुरु को २ लघु में बदल लिया गया है तथापि लय भंग न हो इसका ध्यान रखा गया है.


इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है. दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं. उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है.' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है.
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