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रविवार, 23 जून 2024

संक्रांति : (द्वि भाषिक लघुकथा संकलन) - संजीव सलिल अनुवाद पारमिता षडंगी




: संक्रांति :

(द्वि भाषिक लघुकथा संकलन)




मूल हिंदी

आचार्य संजीव वर्मा संकलन


 अनुवाद

पारमिता षडंगी

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अनुक्रम

०​१. कैक्टस के फूल
०२. नेता और नागरिक
०३. चैन की साँस
०४. बदलाव
०५. भयानक सपना
०६. मन का दर्पण
०७. स्वतंत्रता
०८. दिया
०९. करनी-भरनी
१०. तिरंगा
११. ठेंगा
१२. मेवा
१३. पागल
१४. दोस्ती का संसार
१५. टकराव की जड़
१६. गाँठ
१७. अविश्वासी मन
१८. असंवेदनशीलता
१९. आजादी को खतरा
२०. हृदय का रक्त
२१. कल का छोकरा
२२. सम्मान की दृष्टि
२३. गाइड
२४. स्वार्थ या प्रायश्चित
२५. शुद्ध आचरण
२६. हँसते आँसू
२७. आवेश
२८. भय भरी रात
२९. मान-मनुहार
३०. नया साल
३१. प्रयास
३२. पहाड़ के नीचे
३३. घर
३४. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
३५. कानून के रखवाले
३६. मौन
३७. जमीन
३८. योग्यता
३९. निरुत्तर
४०. शिक्षा-विधान
४१. जीत का इशारा
४२. स्वप्न
४३. सहारा
४४. चेतना
४५. अनजानी राह
४६. रफ्तार
४७. सफेद झूठ
४८. जन सेवा
४९. कारावास
५०. आत्म विश्वास
५१. संक्रांति
*



०१. कैक्टस के फूल
*
        विश्वविद्यालय में देश विरोधी नारे, सेना और संविधान की निंदा, आरक्षण की माँग को लेकर राष्ट्रीय संपत्ति की भारी क्षति, नदी का पानी पड़ोसी राज्य को न देने को लेकर आगजनी आदि समाचारों को पढ़कर व्यथित मंत्री पुत्र ने पिता से पूछा कि वे इस देश की चुनी हुई सरकार के मुखिया होने के नाते देश रूपी बगिया के माली हैं। जैसे कोई माली फसल की रक्षा के लिये खेत के बीच में उग आये खरपतवार को नष्ट कर देता है वैसे ही वे इन राष्ट्र विरोधी तत्वों को नष्ट क्यों नहीं कर देते?

            मंत्री उसे साथ में लेकर बगिया में आये और बोले- 'उस ओर देखो, हमने बगिया फूलों के लिए बनायी है लेकिन होशियार माली ने काँटे होने बाद भी जिन्हें नष्ट नहीं किया वे भी बगिया की शोभा बढ़ा रहे हैं। बेटे ने उस ओर देखा सर उठाकर खिलखिला रहे थे कैक्टस के फूल।

***

०२. नेता और नागरिक
*

            - तुम कौन?

            _ मैं भाजपाई / कॉंग्रेसी / बसपाई / सपाई / साम्यवादी... तुम?

            = मैं? भारतीय।

            यह नेता, वह नागरिक।

***

०३. चैन की साँस
*
            - हे भगवान! पानी बरसा दे, खेती सूख रही है।

            = हे भगवान! पानी क्यों बरसा दिया? काम रुक गया।

            - हे भगवान! रेलगाड़ी जल्दी भेज दे समय पर कार्यालय पहुँच जाऊँ।

            = हे भगवान! रेलगाड़ी देर से आए, स्टेशन तो पहुँच जाऊँ।

            - हे भगवान पास कर दे, लड्डू चढ़ाऊँगा।

            = हे भगवान रिश्वतखोरों का नाश कर दे।

            _ हे इंसान! मेरा पिंड छोड़ कभी तो मैं भी ले सकूँ चैन की साँस।
            
***

​०४. ​बदलाव
*

            जन-प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचरण, लगातार बढ़ते कर और मँहगाई और दिन-ब-दिन घटती क्रय-क्षमता से संवेदनहीन प्रशासन ने जीवन दूभर कर दिया तो जनता जनार्दन ने अपने वज्रास्त्र का प्रयोग कर सत्ताधारी दल को चारों खाने चित्त कर विपक्ष को सत्तासीन कर दिया।

            अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में निरंतर पेट्रोल-डीजल की कीमतों में गिरावट के बावजूद ईंधन के दाम न घटने, संसद सत्रों के बीच में अधिनियमों के द्वारा परोक्ष कर वृद्धि और बजट में आम कर्मचारी को मजबूर कर सरकार द्वारा काटे और कम ब्याज पर लंबे समय तक उपयोग किये गये भविष्य निधि कोष पर करारोपण से ठगा अनुभव कर रहे मतदाता को समझ ही नहीं आया कि क्या हुआ है बदलाव।

​३-३-२०१६ ​

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०५. भयानक सपना
*

            "दूर रहो, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। मुझे नहीं बनाना तुम्हारी राज भाषा या राष्ट्र भाषा, तुम सब दोहरे चेहरेरेवाले हो। मुझसे प्रेम जताते हो और बच्चों को विदेशी भाषा में पढ़ाते हो। अपने राजनैतिक हित साधने के लिये मेरे ही विविध रूपों का प्रयोग करनेवालों को भड़काकर आपस में लड़वाते हो। मुझे लोकभाषा और लोकवाणी ही रहने दो। साल के हर दिन हर समय बार-बार मेरा उपयोग करने के स्थान पर एक दिन मेरे नाम पर घड़ियाली आँसू बहाकर मेरा अपमान करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती? नहीं सुधरोगे तो मैं भी सरस्वती नदी की तरह तुम सबको छोड़कर विलुप्त हो जाऊंगी।

                'नहीं, ऐसा मत करना, माफ़ कर दो मैं जोर से चिल्लाया और आँख खुल गई।'

            "क्या हुआ? सोते हुए माफी क्यों माँगना पड़े यदि सोने के पहले ही माँग लो" पत्नी ने चुहल कर पानी देते हुए कहा "पूत भले ही कपूत हो माता नहीं होती कुमाता। भूल जाओ वह भयानक सपना।"

​३-३-२०१६ ​
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०६. मन का दर्पण
*


            ​गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराने के बाद देशभक्ति पर धुआँधार भाषण देने के बाद करतल ध्वनि सुनकर वे आत्ममुग्ध थे। मुझे भी यह सोचकर अच्छा लगा कि वैलेंटाइन डे का अन्धानुकरण करती पीढ़ी कभी देश और मनुष्य के विषय में भी चिंता और चिंतन करती है।

            कुछ दिनों बाद उनके नेतृत्व में छात्र आन्दोलन हुआ। उनके आव्हान पर जुटी भीड़ ने कई सरकारी और निजी वाहन जलाए, पथराव कर जन सामान्य और कर्तव्य निर्वहन कर रहे पुलिस जवानों को घायल किया, हाथ ठेले पलटाकर गरीबों की आजीविका छीनी, एम्बुलेंस को भी नहीं जाने दिया जिससे मरीजों की जान पर बन आई।

            पत्रकारों ने उनसे प्रश्न किये तो वे जिम्मेवारी स्वीकार करने के स्थान पर पुलिस प्रशासन की नाकामी बताते हुए, पल्ला झाड़ते नज़र आये। देश भक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर से जनगण समझ रहा था कि कितना मलिन है उनके मन का दर्पण।

३-३-२०१६ ​

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०७. स्वतंत्रता
*

            आजादी के पहले हम-तुम एक साथ रह पाते थे। तब मेरे लिये तुम लाठी-गोली भी हँसकर खा लेते थे। तुम्हारे साथ खेत, खलिहान, जंगल, पहाड़, महल, झोपड़ी हर जगह मैं सुख से रह पाता था। बच्चे-बूढ़े, महिला-पुरुष सभी के हाथों में जाकर मेरा सर गर्व से ऊँचा हो जाता था। मुझे देखते ही गोरे शासकों का खून जलने लगता था।

            देश आज़ाद होने के पहले जो अफसर मेरे साये से भी डरकर मुझसे नफरत करते थे उन्हीं ने आजादी के मुझे नियम-कायदों में कैद कर अपना गुलाम बना लिया। तुम आज़ाद हो गये, मैं गुलाम हो गया।

            आजादी के पहले मुझे गरीब लेकिन ईमानदार लोगों का साथ मिलता था। आजादी के बाद भ्रष्ट नेता और अफसर मुझे अपने वाहनों पर फहराते हुए शान दिखते हैं तो मैं शर्म से गड़ जाता हूँ।

            अब तुम मुझे जब चाहो तब अपने घर, खेत, वाहन पर फहरा नहीं पाते, गलती से उल्टा लगा लो तो तुम्हें सजा हो जाती है। मजबूरी में तुम्हें अपने वस्त्रों और सामानों पर विदेशों के झंडे लगाये देखता हूँ तो मेरा मन रोता है। स्वतंत्र नागरिक को अपना झंडा फहराने में भी डरना पड़े, ऐसी कैसी स्वतंत्रता?

​२७-१-२०१६ ​
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०८. दिया
*

                मातृभक्त बेटे ने मन-पसंद लड़की से विवाह कर लिया। कोई चारा न रहने पर माँ ने पुत्र की खुशियों खातिर स्वीकार कर लिया पर बहू को स्नेह न दे सकीं। छोटे बेटे के लिये खुद लड़की चुनी, उमंगपूर्वक विवाह किया, अपने सब जेवर और नगदी भी धीरे-धीरे उसे देती रहीं। बेटी बदी बहू से सम्मान का व्यवहार करने के लिये कहती तो भी वे अनसुना करती रहीं कि खुद घुस आई है, मैं तो लाई नहीं अब भुगते।


               समय के साथ नाती-पोते हुए किन्तु वे नहीं बदलीं। छोटी बहू को जब यह आभास हुआ कि उनका खज़ाना खाली हो गया है तो उसका विनम्र स्वभाव उद्दंडता में बदलने लगा। उनका शिथिल होता शरीर बीमारियों से घिरने लगा। छोटा बेटा किसी बहाने उन्हें बड़े भाई के पास छोड़ गया।


                बड़े बेटे-बहू ने अंत तक जी-जान से सेवा की। जिसे जीवन भर सर-आँखों पर रखा वह समय पर काम न आई, जिसको जीवन भर ठेंगे पर मारा वह सजल नेत्रों से जला रही है उनके नाम का दिया।
​३-३-२०१६ ​

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०९. करनी-भरनी
*

            अभियांत्रिकी महाविद्यालय में परीक्षा का पर्यवेक्षण करते हुए शौचालयों में पुस्तकों के पृष्ठ देखकर मन विचलित होने लगा। अपने विद्यार्थी काल में पुस्तकों पर आवरण चढ़ाना, मँहगी पुस्तकों की प्रति तैयार कर पढ़ना, पुस्तकों में पहचान पर्ची रखना ताकि पन्ने न मोड़ना पड़े, वरिष्ठ छात्रों से आधी कीमत पर पुस्तकें खरीदना, पढ़ाई कर लेने पर अगले साल कनिष्ठ छात्रों को आधी कीमत पर बेच अगले साल की पुस्तकें खरीदना, पुस्तकालय में बैठकर नोट्स बनाना, आजीवन पुस्तकों में सरस्वती का वास मानकर खोलने के पूर्व नमन करना, धोखे से पैर लग जाए तो खुद से अपराध हुआ मानकर क्षमा-प्रार्थना करना आदि याद हो आया।

            नई खरीदी पुस्तकों के पन्ने बेरहमी से फाड़ना, उन्हें शौच पात्रों में फेंक देना, पैरों तले रौंदना क्या यही आधुनिकता और प्रगतिशीलता है? रंगे हाथों पकड़े जाने वालों की जुबां पर गिड़गड़ाने के शब्द पर आँखों में कहीं पछतावे की झलक नहीं देखकर स्तब्ध हूँ।

            प्राध्यापकों और प्राचार्य से चर्चा में उन्हें इसकी अनदेखी करते देखकर कुछ कहते नहीं बनता। उनके अनुसार वे रोकें या पकड़ें तो उन्हें जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों या गुंडों से धमकी भरे संदेशों और विद्यार्थियों के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। तब कोई साथ नहीं देता। किसी तरह परीक्षा समाप्त हो तो जान बचे। उपाधि पा भी लें तो क्या, न ज्ञान होगा न आजीविका मिलेगी, जैसा कर रहे हैं वैसा ही भरेंगे।

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१०. तिरंगा
*

            माँ! इसे फेंकने को क्यों कह रही हो? बताओ न इसे कहाँ रखूँ? शिक्षक कह रहे थे इसे सबसे ऊपर रखना होता है। तुम न तो पूजा में रखने दे रही हो, न बैठक में, न खाने की मेज पर, न ड्रेसिंग टेबल पर फिर कहाँ रखूँ?

            बच्चा बार-बार पूछकर झुंझला रहा था.… इतने में कर्कश आवाज़ आयी 'कह तो दिया फेंक दे, सुनाता है कि लगाऊँ दो तमाचे?'

            अवाक् बच्चा सुबकते हुए बोला 'तुम बड़े लोग गंदे हो। सही बात बताते नहीं और डाँटते हो, तुमसे बात नहीं करूंगा'। सुबकते-सुबकते कब आँख लगी पता ही नहीं चला उसके सीने से अब भी लगा था तिरंगा।

​२६-१-२०१६ ​

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११. ठेंगा
*​
            शत-प्रतिशत साक्षरता के नीति बनकर शासन ने करोड़ों रुपयों के दूरदर्शन, संगणक, लेखा सामग्री, चटाई, पुस्तकें , श्याम पट आदि खरीदे। हर स्थान से अधिकारी कर्मचारी सामग्री लेने भोपाल पहुँचे जिन्हें आवागमन हेतु यात्रा भत्ते का भुगतान किया गया। नेताओं ने जगह-जगह अध्ययन केन्द्रों का उद्घाटन किया, संवाददताओं ने दूरदर्शन और अख़बारों पर सरकार और अधिकारियों की प्रशंसा के पुल बाँध दिये। कलेक्टर ने सभी विभागों के शासकीय अधिकारियों / कर्मचारियों को अध्ययन केन्द्रों की गतिविधियों का निरीक्षण कर प्रतिवेदन देने के आदेश दिये।

            हर गाँव में एक-एक बेरोजगार शिक्षित ग्रामीण को अध्ययन केंद्र का प्रभारी बनाकर नाममात्र मानदेय देने का प्रलोभन दिया गया। नेताओं ने अपने चमचों को नियुक्ति दिला कर अहसान से लाद दिया। खेतिहर तथा अन्य श्रमिकों के रात में आकर अध्ययन करना था। सवेरे जल्दी उठकर खा-पकाकर दिन भर काम कर लौटने पर फिर राँध-खा कर आनेवालों में पढ़ने की दम ही न बाकी रहती। दो-चार दिन में शौकिया आनेवाले भी बंद हो गये। प्रभारियों को दम दी गयी कि ८०% हाजिरी और परिणाम न होने पर मानदेय न मिलेगा। मानदेय की लालच में गलत प्रवेश और झूठी हाजिरी दिखा कर खाना पूरी की गयी। अब बारी आयी परीक्षा की।

            कलेक्टर ने शिक्षाधिकारी से आदेश प्रसारित कराया कि कार्यक्रम का लक्ष्य साक्षरता है, विद्वता नहीं। इसे सफल बनाने के लिये अक्षर पहचानने पर अंक दें, शब्द के सही-गलत होने को महत्व न दें। प्रभारियों ने अपने संबंधियों और मित्रों के उनके भाई-बहिनों सहित परीक्षा में बैठाया की परिणाम न बिगड़े। कमल को कमाल, कलाम और कलम लिखने पर भी पूरे अंक देकर अधिक से अधिक परिणाम घोषित किये गये। अख़बारों ने कार्यक्रम की सफलता की खबरों से कालम रंग दिये। भरी-भरकम रिपोर्ट राजधानी गयी, कलेक्टर मुख्य मंत्री स्वर्ण पदक पाकर प्रौढ़ शिक्षा की आगामी योजनाओं हेतु शासकीय व्यय पर विदेश चले गये। आज भी प्रभारी अपने मानदेय के लिये लगा रहे कलेक्टर कार्यालय के चक्कर, श्रमिक आज भी लगा रहे हैं अँगूठा और लालफीताशाही ठठाते हुए जन गण को दिखा रही है ठेंगा।

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१२. मेवा
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            अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पैट्रोल-डीजल की कीमतें घटीं। मंत्रिमंडल की बैठक में वर्तमान और परिवर्तित दर से खपत का वर्ष भर में आनेवाले अंतर का आंकड़ा प्रस्तुत किया गया। बड़ी राशि को देखकर चिंतन हुआ कि जनता को इतनी राहत देने से कोई लाभ नहीं है। पैट्रोल के दाम घटे तो अन्य वस्तुओं के दाम कम करने की माँग कर विपक्षी दल अपनी लोकप्रियता बढ़ा लेंगे।

            अत:, इस राशि का ९०% भाग नये कराधान कर सरकार के खजाने में डालकर विधायकों का वेतन-भत्ता आदि दोगुना कर दिया जाए। जनता तो नाम मात्र की राहत पाकर भी खुश हो ही जाएगी। विरोधी दल भी विधान सभा में भत्ते बढ़ाने का विरोध नहीं कर सकेगा।

            ऐसा ही किया गया और नेतागण दत्तचित्त होकर जनसेवा के नाम पर कहा रहे हैं मेवा।

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१३. पागल
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            सड़क किनारे घूमता पागल प्राय: उसके घर के समीप आ जाता, सड़क के उस पार से बच्चे को खेलते देखता और चला जाता। उसने एक-दो बार झिड़का भी पर वह न तो कुछ बोला, न आना छोड़ा।

            आज वह कार्यालय से लौटा तो सड़क पर भीड़ एकत्र थी, पूछने पर किसी ने बताया वह पागल किसी वाहन के सामने कूद पड़ा और घायल हो गया। उसका मन हुआ कि देख ले अधिक चोट तो नहीं लगी किन्तु रुकने पर किसी संभावित झंझट की कल्पना कर बचे रहने के विचार से वह सीधे अपने घर पहुँचा तो देखा पत्नि बच्चे की मलहम पट्टी कर रही थी। पत्नी ने बताया कि सड़क पार करता बच्चा कार की चपेट में आने को था किंतु वह पागल बीच में कूद पड़ा, बच्चे को दूर ढकेल कर खुद घायल हो गया। अवाक् रह गया वह। अब समझदारों की तुलना में बहुत अच्छी लग रही था पागल।

१-२-२०१६

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१४. दोस्ती का संसार
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             अलगू और जुम्मन को दो राजनैतिक दलों ने टिकिट देकर चुनाव क्या लड़ाया उनका भाईचारा ही समाप्त हो गया। दोनों ने एक-दूसरे के आचार-विचार की ऐसी बखिया उधेड़ी कि तीसरा जीत गया पर दोनों के मन में एक-दूसरे के लिये कटुता का बीज बो गया। फलत:, मिलना-जुलना तो बंद हो ही गया, दुश्मनी भी पल गई।

            एक रात अँधेरे में लौटते हुए अलगू का बच्चा दुर्घटनाग्रस्त हो गया, कुछ देर बाद जुम्मन वहाँ से गुजरा, भीड़ देखकर कारण पूछा, पता लगा अलगू बच्चे को लेकर अस्पताल गया है। सोचा चुपचाप सरक जाए पर मन न माना, बरबस वह भी अस्पताल पहुँच गया। कान में आवाज़ सुनायी दी बच्चा रोते-रोते भी पिता से अलगु चाचा को बुलाने की ज़िद कर रहा था। डॉक्टर निश्चेतक (अनिस्थीसिया) देकर बच्चे को शल्य क्रिया कक्ष में ले गया। कुछ देर बाद चढ़ाने के लिए खून की जरूरत हुई, घर के किसी व्यक्ति का खून बच्चे के खून से न मिला। जुम्मन को याद आया कि उसका खून उसी रक्त समूह का था, उसने बिना देर अपना खून दे दिया।

            अलगू खून की जाँच कराने के लिए और लोगों को लेकर लौटा तो निगाह जुम्मन के जूतों पर पड़ी। उसे सच समझने में देर न लगी, झपट कर कमरे में घुसा और खून देकर उठ रहे जुम्मन को बाँहों में भरकर सिसक पड़ा, आँखों से भी आँसू बह निकले और फिर आबाद हो गया दोस्ती का संसार।

१-२-२०१६

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१५. टकराव की जड़
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            - तुम्हारे सबसे अधिक अंक आए हैं, तुम कक्ष में सबसे पीछे क्यों बैठी हो?, आओ! सबसे आगे बैठो।

            = जो पढ़ने में कमजोर है या जिसका मन नहीं लगता पीछे बैठाया जाए तो वह पढ़ाई में कम ध्यान देगा, अधिक कमजोर हो जाएगा। कमजोर और अच्छे विद्यार्थी घुल-मिलकर बैठें तो कमजोर विद्यार्थी सुधार कर अच्छा परिणाम ला सकेगा।

            - तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?

            = इसलिए कि हमारा संविधान सबके साथ समता और समानता व्यवहार करने की प्रेरणा किन्तु हम जाति, धर्म, धन, ताकत, संख्या, शिक्षा, पद, रंग, रूप, बुद्धि किसी न किसी आधार पर विभाजन करते हैं। जो पीछे कर दिया जाता है उसके मन में द्वेष पैदा होता है जो सामाजिक टकराव को जन्म देता है। भेदभाव ही है सारी टकराव की जड़।

१-२-२०१६

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१६. गाँठ
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            - तुम झाड़ू लेकर क्यों आई हो? विद्यालय गन्दा है तो रहेने दो, तुम क्या कर लोगी? इतना बड़ा भवन अकेले तो साफ़ नहीं कर सकतीं न? प्राचार्य की जिम्मेदारी है वह किसी से भी साफ कराए या न साफ कराए। कचरा भी तुम अकेले ने तो नहीं फैलाया है।


            = कचरा तो प्राचार्य अकेले ने भी नहीं फैलाया है, न ही किसी एक शिक्षक या विद्यार्थी ने। कचरा सबने थोड़ा-थोड़ा फैलाया है, सब थोड़ा-थोड़ा साफ़ करें तो साफ़ हो जायेगा। मैं पूरा भवन साफ़ नहीं कर सकती पर अपनी कक्षा का एक कोना तो साफ़ कर ही सकती हूँ। झाड़ू इसलिए लाई हूँ कि हम जहां पढ़ाएँगे उस कमरे को पहले साफ़ करेंगे तो देखकर दूसरे भी अपना-अपना कमरा साफ़ करेंगे, धीरे-धीरे पूरा विद्यालय साफ़ रहेगा तो हमें अच्छा लगेगा। डोर में लागि हुई गाँठ न तो अपने आप लगती है, न अपने आप खुलती है लेकिन एक सिरा पकड़ कर लगातार कोशिश करें तो धीरे-धीरे सुलझ ही जाती है हर गाँठ।

१-२-२०१६

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१७. अविश्वासी मन
*

            कल ही वेतन लाकर रखा था, कहाँ गया? अलमारी में बार-बार खोजा पर कहीं नहीं मिला। कौन ले गया? पति और बच्चों से पूछ चुकी उन्होंने लिया नहीं। जरूर बुढ़िया ने ही लिया होगा। कल पंडित से जाप कराने की बात कर रही थी। निष्कर्ष पर पहुँचते ही रात मुश्किल से कटी, सवेरा होता ही उसने आसमान सर पर उठा लिया घर में चोरों के साथ कैसे रहा जा सकता है?, बड़े चोरी करेंगे तो बच्चों पर क्या असर पड़ेगा? सास कसम खाती रही, पति और बच्चे कहते रहे कि ऐसा नहीं हो सकता पर वह नहीं मानी। जब तक पति के साथ सास को देवर के घर रवाना न कर दिया चैन की साँस न ली। इतना ही नहीं देवरानी को भी नमक-मिर्च लगाकर घटना बता दी जिससे बुढ़िया को वहाँ भी अपमान झेलना पड़े। अफ़सोस यह कि खाना-तलाशी लेने के बाद भी बुढ़िया के पास कुछ न मिला, घर से खाली हाथ ही गई।

            कुछ देर बाद वाशिंग मशीन में धोने के लिए मैले कपड़े उठाए तो उनके बीच से धम से गिरा एक लिफाफा, देखते ही बच्चे ने लपक कर उठाया और देखा तो उसमें वेतन की पूरी राशि थी। उसे काटो तो खून नहीं, पता नहीं कब पति भी आ गए थे और एकटक घूरे जा रहे थे उसके हाथ में पकड़े नोट और लिफ़ाफ़े को। वह कुछ कहती इसके पहले ही बच्चे ने पंडित जी के आने की सूचना दी। पंडित ने उसे प्रसाद दिया तथा माँ को पूछा। माँ घर पर न होने की जानकारी पाकर उसे कुछ रुपये देते हुए बताया कि बहू की कुंडली के अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिये जाप आवश्यक बताने पर माँ ने अपना सोने का कड़ा बेचने के लिये दे दिया था और बचे हुए रुपये वह लौटा रहा है।

वह गड़ी जा रही थी जमीन में, उसे काट रहा था उसका ही अविश्वासी मन।

१-२-२०१६

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१८. असंवेदनशीलता
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            चाहे न चाहे अखबारों और दूरदर्शन पर दिख ही जाते हैं बयान ''निकम्मी सरकार को तुरंत त्यागपत्र दे देना चाहिए, महिलाओं को पर्दे में रहना चाहिए, पश्चिमी संस्कृति के कारण हो रही हैं शील भंग की घटनाएँ, पुलिस व्यवस्था अक्षम है, लड़कों से जवानी के जोश में हो जाती हैं गलतियाँ, अपराधी अवयस्क है इसलिए उसे कठोर दंड नहीं दिया जा सकता, अपराधी को मृत्युदंड दिया जाना मानवाधिकार का उल्लंघन है, कानून बदला जाना चाहिए, लिव इन गुनाह है आदि आदि। एक भी बयान यह नहीं कहता कि हर निरपराध नागरिक को मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने का समान अवसर मिलना चाहिए। किसी भी नागरिक को अपनी मान्यताएँ दूसरों पर थोपने का अधिकार नहीं है। नपुंसक शब्दवीर मौका मिलने ही सामाजिक दुराचरण करने से नहीं चूकते और सत्ताधारी जन अपने समर्थकों का अंध समर्थन करते हैं। इसी वजह से समाज में लगातार बढ़ रही है असंवेदनशीलता।

१-२-२०१६

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१९. आजादी को खतरा
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            दूरदर्शन पर राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर हो रही थी बहस। विविध राजनैतिक दलों के प्रवक्ता अपने-अपने दृष्टिकोण से सरकार को कटघरे में खड़ा करने में जुटे थे यह भुलाकर कि उनके सत्तासीन रहते समय परिस्थितियाँ नियंत्रण से अधिक बाहर थीं।

            पकड़े गए आतंकवादी को न्यायालय द्वारा मौत की सजा सुनाए जाने पर मानवाधिकार की दुहाई, किसी अंचल में एक हत्या होने पर प्रधानमंत्री से त्यागपत्र की माँग, किसी संस्था में नियुक्त कुलपति का विद्यार्थियों द्वारा अकारण विरोध, आतंवादियों की धमकी के बावजूद सुरक्षा से जुडी गोपनीय जानकारी सबसे पहले बताने के लिये न्यूज़ चैनलों में होड़, देश के एक अंचल के लोगों को दूसरे अंचल में रोजगार मिलने का विरोध और संसद में किसी भी कीमत पर कार्यवाही न होने देने की ज़िद। क्या अब भी नहीं दिख रहा किनसे है देश की आजादी को खतरा?

१-२-२०१६

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२०. ह्रदय का रक्त
*

            अब दवा से अधिक दुआ का सहारा है, डॉक्टर से यह सुनते ही उनका ह्रदय चीत्कार कर उठा। किस-किस देवता की मन्नत नहीं मानी किन्तु होनी तो होकर ही रही। उनकी गोद सूनी कर चला ही गया वह।

            उसके महाप्रस्थान के पहले मन कड़ा कर उन्होंने देहदान के प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। छोटे से बच्चे का ह्रदय, किडनी, नेत्र, लीवर आदि अंग अलग-अलग रोगियों के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिये गये। उन्होंने एक ही शर्त रखी कि जहाँ तक हो सके ये अंग ऐसे रोगियों को लगाए जाएँ जो आर्थिक रूप से विपन्न हों।

            अंग प्रत्यारोपण के बाद उनके सामने जब वे रोगी आये तो उनका मन भर आया, ऐसा लगा की एक बच्चा खोकर उन्होंने पाँच बच्चे पा लिये हैं जिनकी रगों में प्रवाहित हो रहा है उनके अपने बच्चे के ह्रदय का रक्त।

१-२-२०१६

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२१. कल का छोकरा
*

            अखबार खोलते ही चौंक पड़ीं वे, वही लग रहा है? ध्यान से देखा हाँ, वही तो है। गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति द्वारा वीरता पुरस्कार प्राप्त बच्चों में उसका चित्र? विवरण पढ़ा तो उनकी आँखें भर आयीं, याद आया पूरा वाकया।

            उस दिन सवेरे धूप में बैठी थी कि वह आ गया, कुछ दूर ठिठका खड़ा अपनी बात कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। 'कुछ कहना है? बोलो' उनके पूछने पर उसने जेब से कागज़ निकाल कर उनकी ओर बढ़ा दिया, देखा तो प्रथम श्रेणी अंकों की अंकसूची थी। पूछा 'तुम्हारी है?' उसने स्वीकृति में गर्दन हिला दी।

            'क्या चाहते हो?' पूछा तो बोला 'सहायता'। उसने एक पल सोचा रुपये माँग रहा है, क्या पता झूठा न हो?, अंकसूची इसकी है भी या नहीं?' न जाने कैसे उसे शंका का आभास हो गया, बोला 'मुझे रुपये नहीं चाहिए, पिता की खेती की जमीन सड़क चौड़ी करने में सरकार ने ले ली, शहर आकर रिक्शा चलाते हैं. माँ कई दिनों से बीमार है, नाले के पास झोपड़ी में रहते हैं, सरकारी पाठशाला में पढ़ता है, पिता पढ़ाई का सामान नहीं दिला पा रहे। कोई उसे कॉपी, पेन-पेन्सिल आदि दिला दे तो दूसरे बच्चों की किताब से वह पढ़ाई कर लेगा। उसकी आँखों की कातरता ने उन्हें मजबूर कर दिया, अगले दिन बुलाकर लिखाई-पढ़ाई की सामग्री खरीद दी।

            आज समाचार था कि बरसात में नाले में बाढ़ आने पर झोपड़पट्टी के कुछ बच्चे बहने लगे, सभी बड़े काम पर गये थे, चिल्ल्पों मच गयी। एक बच्चे ने हिम्मत कर बाँस आर-पार डाल कर, नाले में उतर कर उसके सहारे बच्चों को बचा लिया। इस प्रयास में २ बार खुद बहते-बहते बचा पर हिम्मत नहीं हांरी। मन प्रसन्न हो गया, पति को अखबार देते हुए वाकया बताकर कहा- इतना बहादुर तो नहीं लगता था वह कल का छोकरा।

१-२-२०१६

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२२. सम्मान की दृष्टि
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            कचरा बीनने वाले बच्चों से दूर रहा करो। वे गंदे होते हैं, पढ़ते-लिखते नहीं, चोरी भी करते हैं। उनसे बीमारी भी लग सकती है- माँ बच्चे को समझा रही थी।

            तभी दरवाज़ा खटका, खोलने पर एक कचरा बीननेवाला बच्चा खड़ा था। क्या है? हिकारत से माँ ने पूछा।

            माँ जी! आपके दरवाज़े के बाहर पड़े कचरे में से यह सोने की अँगूठी मिली है, आपकी तो नहीं? पूछते हुए बच्चे ने हथेली फैला दी. चमचमाती अँगूठी देखते ही माँ के मुँह से निकला अरे!यह तो मेरी ही है। तो ले लीजिए कहकर बच्चा अंगूठी देकर चला गया।

            रात पिता घर आये तो बच्चे ने घटना की चर्चा कर बताया की यह बच्चा समीप की सरकारी पाठशाला में पढ़ता है, कक्षा में पहला आता है, उसके पिता की सडक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी है, माँ बर्तन माँजती है। अगले दिन पिता बच्चे के साथ पाठशाला गए, प्रधानाध्यापक को घटना की जानकारी देकर बच्चे को बुलाया, उसकी पढ़ाई का पूरा खर्च खुद उठाने की जिम्मेदारी ली। कल तक उपेक्षा से देखे जा रहे बच्चे को अब मिल रही थी सम्मान की दृष्टि।

१-२-२०१६

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२३. गाइड
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            गाइड शिक्षिका से सूचना पाते ही वह हर्ष से उछल पड़ी, सूचना थी ही ऐसी। उसे गाइड आंदोलन में राज्यपाल पदक से सम्मानित किया गया था।

            कुछ वर्ष बाद किंचित उत्सुकता के साथ वह प्रतीक्षा कर रही थी आगंतुकों की। समय पर अतिथि पधारे, स्वल्पाहार के शिष्टाचार के साथ चर्चा आरंभ हुई: 'बिटिया! आप नौकरी करेंगी?'

            'मैंने जितना अध्ययन किया है, देश ने उसकी सुविधा जुटाई, मेरे ज्ञान और योग्यता का उपयोग देश और समाज के हित में होना चाहिए' उसने कहा।

            लेकिन घर और परिवार भी तो.…

            'आप ठीक कहते हैं, परिवार मेरी पहली प्राथमिकता है किन्तु उसके साथ-साथ मैं कुछ अन्य कर सकी तो घर और अगली पीढ़ी के विकास में सहायक होना चाहूँगी।'

            तुम मांसाहारी हो या शाकाहारी?

            'मैं शाकाहारी हूँ, मेरे साथ बैठा व्यक्ति शालीनतापूर्वक जो चाहे खाए मुझे आपत्ति नहीं किंतु मैं क्या खाती पहनती हूँ यह मेरी पसंद होगी। मैं किसी तरह की जोर-जबरदस्ती को सही नहीं मानती।'

            ऐसा तो सभी लड़कियाँ कहती हैं पर बाद में नये माहौल के अनुसार बदल जाती हैं। मेरी बड़ी बहू भी शाकाहारी थी पर बेटे ने उसके मना करने पर भी मुँह से लगा-खिला कर उसे माँसाहारी बना दिया। आगन्तुका अब उसके पिताश्री की ओर उन्मुख हुईं और पूछा: आपके यहाँ क्या रस्मो-रिवाज़ होते हैं?

            अन्य स्वजातीय परिवारों की तरह हमारे यहाँ भी सभी रस्में की जाती हैं. आपको स्वागत में कोई कमी नहीं मिलेगी, निश्चिन्त रहिए। पिताजी ने उत्तर दिया।

            मेरे बड़े बेटे की शादी में यह-यह हुआ था। बेंगलुरु से गोरखपुर एक व्यक्ति का जाने-आने का वायुयान किराया ही हजारों रुपए.है। विवाह के सिलसिले में बार-बार आना-जाना, हमारे धनी-मानी संबंधी-मित्र आदि का आतिथ्य, बड़े बेटे को कार और मकान दहेज में मिला … ईश्वर ने हमें सब कुछ दिया है। आप समझदार है, आप अपनी बेटी को जो चाहें दें, हमें आपत्ति नहीं है।

            बहुत देर से बेचैन हो रही उससे अब चुप नहीं रहा गया और वह बोल पड़ी: 'आई.आई.टी. जैसे संस्थान में पढ़ने और ३० लाख रुपये सालाना कमाने के बाद भी जिसे दूसरों के आगे हाथ पसारने में शर्म नहीं आती, जो अपने माँ-बाप को अपना सौदा करते देख चुप रहता है, मुझे ऐसे भिखारी को अपना जीवनसाथी नहीं बनाना है। मैं ठुकराती हूँ आपका प्रस्ताव। आप और आपके परिवार जन उम्र में मुझसे बहुत बड़े हैं पर आपकी सोच बहुत छोटी है। आपको कमाऊ पूत तो बना दिया गया है पर आप अच्छे आदमी नहीं बन सके। आपमें मुझ जैसी बहू पाने की योग्यता नहीं है। आपकी बातचीत मैंने रिकॉर्ड कर ली है कहिए तो थाने में रिपोर्ट कर आप सबको बंद करा दूँ। आप ने सुना नहीं, पिता जी ने बताया था कि मुझे कोई गलत बात सहन नहीं होती, मैं हूँ गाइड।'

२३-१०-२०१५

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२४. स्वार्थ या प्रायश्चित्य
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            खाप पंचायत ने स्वगोत्री विवाह करने पर उनके ग्राम-प्रवेश पर रोक लगा दी। दोनों के परिवारजन तथाकथित मान-मर्यादा के नाम पर उन्हें क्षति पहुँचाने को उद्यत हुए तो उन्हें इस अपराध से दूर रखने का विचार कर दोनों ने गाँव छोड़ दिया।

            शहर में विषम परिस्थितियों से जूझते हुए एक-दूसरे का संबल बनकर उन्होंने राष्ट्रीय दलों में चयनित होकर प्रसिद्धि प्राप्त की। संयोगवश उस खेल की अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा उनके अपने जिले में आयोजित थी। न चाहते हुए भी उन्हें राष्ट्रीय दलों में होने के कारण जाना ही पड़ा। स्टेशन पर दल के उतरते ही उनकी दृष्टि उस बैनर पर पड़ी जिए पर उनके बड़े-बड़े चित्रों के साथ स्वागत और गाँव को उन पर गर्व होने का नारा अंकित था। पुष्पहार से उनका स्वागत कर सेल्फी लेने की होड़ में सम्मिलित थे वे सब जो कभी उनकी जान के दुश्मन बने थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि यह स्वागत व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए था या समाज का प्रायश्चित्य।

१०-३-२०१६

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२५. शुद्ध आचरण
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            'चल परे हट, बाद में आना।' पंडित जी ने सेठानी को आते देख रिक्शेवाले को दूर हटाया और पूजा कराने लगे। भगवान् को फल-फूल चढ़ाते समय सेठानी के गले से स्वर्ण-जंजीर टूट कर फूलों के बीच गिर गई, आँखें मुँदी होने के कारण उन्हें पता न चला किन्तु पंडित और रिक्शेवाले दोनों की दृष्टि पड़ गई। पूजा कर सेठानी लौटने लगीं तो रिक्शेवाले ने पंडित जी को आवाज़ लगाकर फूलों के बीच गिरी जंजीर उठाकर देने को कहा।

            खिसियाए पंडित से जंजीर वापिस लेते हुए सेठानी ने मोटी दक्षिणा देकर प्रणाम किया और रिक्शेवाले से घर तक पहुँचाने के लिये २५ रुपये की जगह १५ रुपये देने के लिये झिकझिक करने लगीं।

            मंदिर में विराजे भगवान को पुजारी द्वारा की जा रही सेवा और सेठानी द्वारा की जा रही भक्ति के स्थान पर प्रसन्नता दे रहा था रिक्शेवाले का शुद्ध आचरण।

१०-३-२०१६

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२६ . हँसते आँसू
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            टप टप टप

            चेहरे पर गिरती अश्रु-बूँदों से उसकी नीद खुल गयी, सास को चुपाते हुए कारण पूछा तो उसने कहा- 'बहुरिया! मोय लला से माफी दिला दे रे! मैंने बापे नाहक सक करो। परोस का चुन्ना कहत हतो कि लला की आँखें कौनौ से लर गईं, तुम नें मानीं मने मोरे मन में संका को बीज पर गओ। सिव जी के दरसन खों गई रई तो पंडत जी कैत रए बिस्वास ही फल देत है, संका के दुसमन हैं संकर जी। मोरी सगरी पूजा अकारत भई।'

            ''नई मइया! ऐसो नें कर, असगुन होत है. तैं अपने पूत खों समझत है। मन में फिकर हती सो संका बन खें सामने आ गई। भली भई, मो खों असीस दे सुहाग सलामत रहे।''

            एक दूसरे की बाँहों में लिपटी सास-बहू में माँ-बेटी को पाकर धन्य हो रहे थे हँसतेआँसू।

९-३-२०१६

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२७. आवेश
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            'मेरी बात नहीं मान सकती हो तो चली जाओ' जैसे ही पति ने कहा वह फुँफकारती नागिन की तरह उठ खड़ी हुई और बोली ''हाँ, हाँ चली जाऊँगी। जिस घर में घर की लक्ष्मी को पैर की जूती समझा जाता हो वहाँ मैं पल भर भी नहीं रहूँगी। क्या समझते हो मुझे, अपनी नौकरानी?'' और उसने दरवाजे की और कदम बढ़ा दिये किंतु ठिठककर बाहर निकल नहीं सकी।

            पति ने हाथ थामते हुए दरवाज़ा बंद किया और कहा 'ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं, कहने की बात तो दूर। हमेशा समझाता हूँ, माँ ने सारी उम्र जिन बातों पर विश्वास किया है आखिरी समय में उसे कैसे छोड़ सकती है? बहस कर उसका मन दुखाने की जगह, जितना सहजता से हो सके उसके अनुसार कर दो, बाकी छोड़ दो। लो पहले पानी पियो, फिर जो जी चाहे करना।

            पानी पीते-पीते, पानी-पानी हो गई थी वह, दिन भर बाद लौटे पति से चाय-पानी पूछने की जगह माँ की शिकायत करते हुए उलझ पड़ी। माँ के कहने से शिव पूजन करने के बाद फलाहार ग्रहण कर लेती तो क्या हो जाता?

            'चलो, दोनों जनी आ जाओ फलाहार करने' पति का स्वर सुन चैतन्य हुई वह, झेंपती हुई माँ के कमरे में जाते-जाते सोचा- 'अब से माँ की बात ही मान लूँगी, अब कभी मुझ पर हावी नहीं हो सकेगा मन का आवेश।

७-३-२०१६

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२८. भय भरी रात
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            बच्चे को ज्वर होने का समाचार मिलते ही उसका मन बोझिल हो गया। बात पूरी न हो सकी और संपर्क टूट गया। फिर पढ़ाने में मन नहीं लगा। कक्षा का समय समाप्त होते ही पहली बस पकड़ कर चल पड़ी।

            गाँव की सड़क, खटारा बस में खड़े-खड़े उसके पैर दुःख रहे थे किन्तु आँखों में घूम रहा था बच्चे का चेहरा। जिला मुख्यालय पहुँचते तक आँधी-पानी ने घेर लिया और और आगे नाले में बाढ़ आ जाने का समाचार मिला। गनीमत यह कि कुछ देर बाद रेल मिल सकती थी। भीगती-भागती वह रिक्शे से रेलवे स्टशन पहुँची। आधी रात के बाद अपने शहर पहुँची, सुनसान स्टेशन... जिस और नज़र जाती भय की अनुभूति होती।

            अपना शहर पराया लगाने लगा, एक ओर से लड़खड़ाते हुए दो आदमियों को आते देख उसकी जान निकलने लगी। चलभाष पर पति से संपर्क न हो सका। खुद को कोस रही थी वह। कुछ गड़बड़ हुई तो क्या करेगी?, कैसे घर पहुँचेगी? क्या कहेगी सबसे कि बिना सूचना दिए क्यों चल पड़ी अकेली? कोई लेने आए भी तो कैसे? चलभाष नहीं लगा तो भी वह जान-बूझकर ऊँची आवाज़ में बोलती रही ताकि आनेवाले समझें कि किसी से बात हो रही है।

            बातचीत पूरी न हो पाई तो पति ने अनुमान किया कि उसे बच्चे के ज्वर की खबर मिलते ही कहीं वह आने का प्रयास न कर रही हो। वे बच्चे को सूल कर सबके मना करने पर भी, बरसते पानी की परवाह किये बिना दौड़ते-भागते पहले बस स्टेशन गए। बस न आने की खबर मिलते ही भागे-भागे स्टेशन भी पहुँच ही गए। पति के आते ही लिपट गई वह, जैसे किसी मुसीबत से मुक्ति मिली। घर पहुँच बच्चे को दुलारते हुए वह भुला चुकी थी भय भरी रात।

७-३-२०१६

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२९. मान-मनुहार
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            बारात आगमन में विलम्ब चर्चा का विषय बन रहा था। अचानक पता चला कि अत्यधिक सुरापान किए, नशे में धुत्त बाराती घरातियों से उलझ पड़े हैं। घरातियों के सब्र का बाँध टूट गया जब दुल्हे ने भी अपशब्दों की बौछार करते हुए बुजुर्गों का अपमान कर मोटी रकम लिये बिना दरवाज़े पर आने से मना कर दिया।

         मन में उफनता आक्रोश नियंत्रित कर उसने चलभाष उठाया, जिलाधिकारी को स्थिति की जानकारी दे तत्काल हस्तक्षेप का अनुरोध किया और इसके पहले कि कोई कुछ समझे वह तेज चाल से पहुँच गयी दरवाजे पर। अपने पिताजी को सम्हालते हुए उसने कठोर स्वर में अपना निर्णय सुनाया कि वह ऐसे संस्कारहीन खदान में और ऐसे गैर जिम्मेदार व्यक्ति से विवाह नहीं करेगी, बाराती वापिस जा सकते हैं।

            बारातियों ने पाँसा पलटते देखा तो उनके पैरों तले से जमीन खिसकने लगी, खाली हाथ बारात लौटने पर बहुत बदनामी होगी। समाज के लोगों ने बीच-बचाव करते हुए बात सम्हालने की कोशिश की पर वह टस से मस न हुई। आखिरकार वर स्वयं उसे मनाने आया किंतु उसने मुँह फेर लिया। आत्म सम्मान के आगे बेअसर हो चुकी थी मान-मनुहार।

७-३-२०१६

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३०. नया साल
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            वह चंद कदमों के फासले पर एक बूढ़े और एक नवजात को सिसकते-कराहते देखकर चौंका। फिर सजग हो धीरज बँधाकर कारण पूछा तो दोनों एक ही तकलीफ के मारे मिले। उनकी व्यथा-कथा ने उसे झकझोर दिया।

            वे दोनों समय के वंशज थे, एक जा रहा था, दूसरा आ रहा था, दोनों को पहले से सत्य पता था, दोनों अपनी-अपनी भूमिकाओं के लिये तैयार थे। फिर उनके दर्द और रुदन का कारण क्या हो सकता था? बहुत सोचने पर भी समझ न आया तो उन्हीं से पूछ लिया।

            हमारे दर्द का कारण हो तुम, तुम मानव जो खुद को दाना समझने वाले नादान हो। कुदरत के कानून के मुताबिक दिन-रात, मौसम, ऋतुएँ आते-जाते रहते हैं। आदमियों को छोड़कर कोई दूसरी नस्ल कुदरत के काम में दखल नहीं देती। सब अपना-अपना काम करते हैं। तुम लोग बदलावों को अपने स्वार्थों के कारण पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, हवा-पानी सबको मिटाते हो।

            कुदरत के लिये सुबह दोपहर शाम रात और पैदा होने-मरने का क्रम जिंदगी की एक सामान्य प्रक्रिया है। तुमने किसी आदमी से जोड़कर समय को साल में गिनना आरंभ कर दिया, इतना ही नहीं अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग आदमियों के नाम पर कई साल बना लिए।

            अब साल बदलने की आड़ में हर कुछ दिनों में नये साल के नाम पर झाड़ों को काट कर कागज़ बनाकर उन पर एक दूसरे को बधाई देते हो, फिर शराब पीकर नाचते और आपस में लड़ते-झगड़ते हो। कितना शोर मचाते हो?, कितनी खाद्य सामग्री फेंकते हो?, कितना धुआँ फैलाते हो? पशु-पक्षियों का जीना मुश्किल कर देते हो। तुम्हारी वज़ह से दोनों जाते-आते साल भी चैन से नहीं रह सकते। सुधर जाओ वरना भविष्य में कभी नहीं देख पालोगे कोई नया साल। समय के धैर्य की परीक्षा मत लो, काल को महाकाल बनने के लिये मजबूर मत करो।

इतना कहकर वे दोनों तो ओझल हो गये लेकिन मेरी आँख खुल गयी, उसके बाद सो नहीं सका क्योंकि पड़ोसी जोर-शोर से मना रहे थे नया साल।

१-१-२०१६

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३१. प्रयास
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            - मैंने सबसे अच्छी कलम लगाकर समय पर खाद-पानी दिया, देख-भाल भी की किन्तु कुछ फल बड़े, कुछ मँझोले, कुछ छोटे क्यों हुए? तुमसे तो सर्वश्रेष्ठ की अपेक्षा थी उसने वृक्ष से कहा।

            = भिन्नता ही प्रकृति का नियम और ज़िन्दगी का उत्स है। थाली में सिर्फ उत्तम मिष्ठान ही परोसा जाए तो पेट भर खा सकोगे क्या? नमकीन, खट्टा, तीखा और कड़वा भी भोजन के स्वाद को ही बढ़ाते हैं, सबका स्वाद लेना सीखो। तुम्हारे हाथ-पैर की सब अंगुलियाँ समान हैं क्या? शरीर का दायें और बायें भाग भी शत-प्रतिशत एक से नहीं होते। अनेकता में एकता और भिन्नता में अभिन्नता ही जीवन का उत्स है।

            - अगर अच्छे-बुरे को अलग-अलग नहीं करेंगे तो सुधार कैसे होगा?

            = सुधार के जितने अधिक प्रयास करोगे उसकी विपरीत क्रिया भी उतनी ही अधिक होगी, उसे सहन और वहन करने की तैयारी रखना। दिया जलाओगे तो ऊपर उजाला और नीचे अँधेरा एक साथ ही जन्म लेगा।

            - तब क्या उन्नति प्रयास ही नहीं करना चाहिए?

            = ऐसा मैंने कब कहा? दिया जलाना बंद कर दोगे तो सब ओर अँधेरा अपने आप हो जायेगा। अँधेरा करना नहीं पड़ता, हो जाता है। उजाला होता नहीं, करना पड़ता है। कुछ नहीं करोगे तो फल छोटे अपने आप हो जायेंगे, कुछ करोगे तो बड़े, मँझोले, छोटे सभी आकार के फल मिलेंगे। उनके लिये वृक्ष, प्रयास या विधाता को दोष मत दो। सफल और विफल दोनों में फल तो होता ही है, उसे सहजता से स्वीकार कर बेहतर के लिए करते रहो प्रयास।

४-३-२०१६

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३२. पहाड़ के नीचे
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            त्रिवेदी जी ब्राम्हण सभा के मंच से दहेज़ के विरुद्ध धुआंधार भाषण देकर नीचे उतरे। पड़ोसी अपने मित्र के कान में फुसफुसाया 'बुढ़ऊ ने अपने बेटों की शादी में तो जमकर माल खेंचा लिया, लड़की वालों को नीलाम होने की हालत में ला दिया, अब भी मायके से माल मँगाने के लिए बहू को तंग करता है और मञ्च पर दहेज़ के विरोध में भाषण दे रहा है, कपटी कहीं का'।

            'काहे नहीं देगा अब की साल मोंडी जो ब्याहबे खों है' -दूसरे ने कहा।

            तीसरा बोला 'अब आओ है ऊँट पहाड़ के नीचे'।

२८-२-२०१६

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३३. घर
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            दंगे, दुराचार, आगजनी, गुंडागर्दी के बाद सस्ती लोकप्रियता और खबरों में छाने के इरादे से बगुले जैसे सफेद वस्त्र पहने नेताजी जन संपर्क के लिये निकले। पीछे-पीछे चमचों का झुण्ड, बिके हुए कैमरे और मरी हुई आत्मा वाली खाकी वर्दी।

            बर्बाद हो चुके एक परिवार की झोपड़ी के सामने पहुँचते ही छोटी सी बच्ची ने नेताजी के मुँह पर दरवाजा बंद करते हुए कहा- 'आरक्षण और अनुदान की भीख देनेवालों के लिये यहाँ आना मना है। यह संसद नहीं, यह है भारत के नागरिक का घर।

२९-२-२०१६

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३४. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
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            जातीय आरक्षण आन्दोलन में आगजनी, गुंडागर्दी, दुराचार, वहशत की सीमा को पार करने के बाद नेताओं और पुलिस द्वारा घटनाओं को झुठलाना, उसी जाति के अधिकारियों का जाँच दल बनाना, खेतों में बिखरे अंतर्वस्त्रों को देखकर भी नकारना, बार-बार अनुरोध किये जाने पर भी पीड़ितों का सामने न आना, राजनैतिक दलों का बर्बाद हो चुके लोगों के प्रति कोई सहानुभूति तक न रखना क्या संकेत करता है?

            यही कि हमने उगाई है अविश्वास की फसल। चौपाल पर हो रही चर्चा सरपंच को देखते ही थम गयी, वक्ता गण देने लगे आरक्षण के पक्ष में तर्क, दबंग सरपंच के हाथ में बंदूक को देख चिथड़ों में खुद को ढाँकने का असफल प्रयास करती सिसकती रह गयी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ।

२९-२-२०१६

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३५. कानून के रखवाले
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            हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े गीले हो गए, बोलती बंद हो गई। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम अपने देश में ऐसा नहीं होने दे सकते। वक्ता अपने कृत्य का बखान करते हुए खुद को महिमामंडित कर रहे थे।

            उनकी बात पूर्ण होते ही एक श्रोता ने पूछा आप तो संविधान और कानून के जानकार होने का दावा करते हैं। क्या बता सकेंगे कि संविधान का कौन सा अनुच्छेद या किस कानून की कौन सी कंडिका या धारा किसी नागरिक को अपनी विचारधारा से असहमत अन्य नागरिक को प्रतिबंधित या दंडित करने का अधिकार देती है?

            क्या आपसे भिन्न विचारधारा के नागरिकों को भी यह अधिकार है कि वे आपको घेरकर आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करें?

            यह भी बताएँ कि अगर नागरिकों को एक-दूसरे को दंड देने का अधिकार है तो पुलिस और न्यायालय किसलिए हैं? क्या इससे कानून-व्यवस्था नष्ट नहीं हो जाएगी?

            वकील होने के नाते आप खुद को कानून का रखवाला कहते हैं क्या कानून को हाथ में लेने के लिये आपको सामान्य नागरिक की तुलना में अधिक कड़ी सजा नहीं मिलना चाहिए?

            प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर थे कानून के रखवाले।

२८-२-२०१६

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३६. मौन
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            कुछ युवा साथियों के बहकावे में आकार चंद लोगों के बीच एक झंडा दिखाने और कुछ नारों को लगाने का प्रतिफल, पुलिस की लाठी, कैद और गद्दार का कलंक किन्तु उसी घटना को हजारों बार,लाखों दर्शकों और पाठकों तक पहुँचाने का प्रतिफल देशभक्त होने का तमगा? यह विसंगति क्यों?

            'यदि ऐसी दुर्घटना प्रचार न किया जाए तो वह चंद क्षणों में चंद लोगों के बीच अपनी मौत आप न मर जाए? हम देश विरोधियों पर कठोर कार्यवाही न कर उन्हें प्रचारित-प्रसारित कर उनके प्रति आकर्षण बढ़ाने में मदद क्यों करते हैं? गद्दार कौन है नासमझी या बहकावे में एक बार गलती करने वाले या उस गलती का करोड़ गुना प्रसार कर उसकी वृद्धि में सहायक होने वाले?' पूछ रहा थे लोक किंतु तंत्र ने साध लिया था मौन।

१४-२-२०१६

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३७. जमीन
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            जब आपको माफी ही माँगनी थी तो आपने आतंकवादी के नाम के साथ 'जी' क्यों जोड़ा? बेटे ने पूछा ।

            इतना समझ पाते तो तुम भी नेता न बन जाते। 'जी' जोड़ने से आतंकवादियों, अल्पसंख्यकों और उनके विदेशी आकाओं तक सन्देश पहुँच गया की हम उन्हें सम्मान देते हैं और माफी माँगकर आपत्ति उठानेवालों को जवाब तो दिया ही उनके नेताओं के नाम लेकर उन्हें आतंवादियों से समक्ष भी खड़ा कर दिया।

            लेकिन इससे तो संतोष भड़केगा, आन्दोलन होंगे, जुलूस निकलेंगे, अशांति फैलेगी, तोड़-फोड़ से देश का नुकसान होगा।

            हाँ, यह सब अपने आप होगा, न हुआ तो हम कराएँगे और उसके लिये विपक्ष को दोषी और समाज को असहिष्णु बताकर अपने अगले चुनाव के लिये तैयार करेंगे जमीन।

१५-२-२०१६

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३८. योग्यता
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            गत कुछ वर्षों से वे लगातार मुझसे लघुकथा मंच का सभापति करते आ रहे थे। हर वर्ष आयोजनों में बुलाते, लघुकथा ले जाकर पत्रिका में प्रकाशित करते। संस्थाओं की राजनीति से उकता चुका वह विनम्रता से हाथ जोड़ लेता। इस वर्ष विचार आया कि समर्पित लोग हैं, जुड़ जाना चाहिए। उसने संरक्षकता निधि दे दी।

            कुछ दिन बाद एक मित्र ने पूछा इस वर्ष आप लघु कथा के आयोजन में नहीं पधारे? वे चुप्पी लगा गए, कैसे कहते कि जब से संरक्षता निधि दी है शायद तबही से उनमें नहीं बची है रचना लेने, आयोजन में आमंत्रित या संपर्क किए जाने की योग्यता।

२१-२-२०१६

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३९. निरुत्तर
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मेरा जूता है जापानी, और पतलून इंग्लिस्तानी
सर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी

पीढ़ियाँ गुजर गयीं जापान, इंग्लैंड और रूस की प्रशंसा करते इस गीत को गाते और सुनते। आज भी हमारे उपयोग की वस्तुओं पर जापान, ब्रिटेन, इंग्लैण्ड, अमेरिका, चीन आदि देशों के ध्वज बने रहते हैं उनके प्रयोग पर किसी प्रकार की आपत्ति किसी को नहीं होती। ये देश हमसे पूरी तरह भिन्न हैं, इंग्लैण्ड ने तो हमको गुलाम भी बना लिया था। लेकिन अपने आसपास के ऐसे देश जो कल तक हमारा ही हिस्सा थे, उनका झंडा फहराने या उनकी जय बोलने पर आपत्ति क्यों उठाई जाती है? पूछा एक शिष्य ने, गुरु जी थे निरुत्तर।

१३-२-२०१६

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४०. शिक्षा-विधान
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            नवोढ़ा पुत्रवधू के हर काम में दोष निकलकर उन्हें संतोष होता, सोचतीं यह किसी तरह मायके चली जाए तो पुत्र पर फिर एकाधिकार हो जाए, बेटी भी उनका साथ देती कि बहू उसके को माता-पिता ने सही शिक्षा नहीं दी लेकिन न जाने किस मिट्टी की बनी थी पुत्रवधु कि हर बात मुस्कुरा कर टाल देती।

            अगले साल बेटी का विवाह बहुत अरमानों से किया उन्होंने। सालों से बचाई और जोड़ी रकम तो खर्च की ही, बहु के मायके से आया कीमती सामान भी बेटी को दे दिया। बहु तब भी कुछ न बोली।

            कुछ दिनों बाद बेटी को अकेला देहरी पर खड़ा देखकर उनका माथा ठनका, पूछा तो पता चला कि वह अपनी सास से परेशान होकर लौट आई है फिर कभी न जाने के लिये। इससे पहले कि वे बेटी से कुछ कहें बहू अपनी ननद को घर के अन्दर ले गई और वे सोचती रह गयीं कि यह विधि का विधान है या माता-पिता द्वारा दिया गया शिक्षा-विधान?

९-१-२०१६

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४१. जीत का इशारा
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            पिता को अचानक लकवा क्या लगा घर की गाड़ी के चके ही थम गये। कुछ दिन की चिकित्सा पर्याप्त न हुई। आय का साधन बंद और खर्च लगातार बढ़ता हुआ रोजमर्रा के खर्च, दवाई-इलाज और पढ़ाई।

            उसने माँ के चहरे की खोती हुई चमक और पिता की बेबसी का अनुमान कर अगले सवेरे ऑटो रिक्शा उठाया और चल पड़ी स्टेशन की ओर। कुछ देर बाद माँ जागी, बेटी को घर पर न देख अनुमान किया मंदिर गई होगी। पति के उठते ही उनकी परिचर्या के बाद भी बेटी न लौटी तो माँ को चिंता हुई, बाहर निकली तो देखा ऑटो रिक्शा भी नहीं है।

            बीमार पति से क्या कहती?, नन्हें बेटे को जगाकर पड़ोसी को बुलाने चल दी कि उसे बेटी को खोजने भेजे। तभी एकदम निकट हॉर्न की आवाज़ सुनकर चौंकी। पलट कर देख तो उन्हीं का ऑटो था। ऑटो लेकर भागने वाले को पकड़ने के लिए लपकीं तो ठिठक कर रह गयीं, चालक के स्थान पर बैठी बेटी दो अँगुलियाँ उठाकर कर रही थी जीत का इशारा।

१०-१-२०१६

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४२. स्वप्न
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                - आप एक कार से उतर कर दूसरी में क्यों बैठ रहे है? जहाँ जाना है इसी से चले जाइये न।

              = नहीं भाई! अभी तक सरकारी दौरा कर रहा था इसलिए सरकारी वाहन का उपयोग किया, अब निजी काम से जाना है इसलिए सरकारी वाहन और चालक छोड़कर अपने निजी वाहन में बैठा हूँ और इसे खुद चलाकर जा रहा हूँ। अगर मैं जन प्रतिनिधि होते हुए सरकारी सुविधा का दुरुपयोग करूँगा तो दूसरों को कैसे रोकूँगा?

            सोच रहा हूँ काश कभी साकार हो सके यह स्वप्न?


१२-१-२०१६

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४३. सहारा
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            'तो तुम नहीं चलोगे? मैं अकेली ही जाऊँ?' पूछती हुई वह रुँआसी हो आयी किंतु उसे न उठता देख विवश होकर अकेली ही घर से बाहर आई और चल पड़ी अनजानी राह पर। रिक्शा, रेलगाड़ी, विमान और टैक्सी, होटल, कार्यालय, साक्षात्कार, चयन, दायित्व को समझना-निभाना, मकान की तलाश, सामान खरीदना-जमाना एक के बाद एक कदम-दर-कदम बढ़ती वह आज विश्राम के कुछ पल पा सकी थी।

            उसकी याद सम्बल की तरह साथ होते हुए भी उसके संग न होने का अभाव खल रहा था। साथ न आया तो खोज-खबर ही ले लेता, मन हुआ बात करे पर स्वाभिमान आड़े आ गया, उसे जरूरत नहीं तो मैं क्यों पहल करूँ?

            दिन निकलते गये और बेचैनी बढ़ती गई। अंतत:, मन ने मजबूर किया तो चलभाष पर संपर्क साधा, दूसरी ओर से उसकी नहीं, उसकी माँ की आवाज़ सुन अपनी सफलता की जानकारी देते हुए उसके असहयोग का उलाहना दिया तो रो पड़ी अब तक क्षति से सब कुछ सुनती माँ। वह समझ गई कि कुछ अनहोनी हो गई है। बार बार पूछने पर माँ बोली- ''बिटिया! वह तो मौत से जूझ रहा है, कैंसर का ऑपरेशन हुआ है, तुझे नहीं बताया कि फिर तू जा नहीं पाती। तुझे इतनी रुखाई से भेजा ताकि तू छोड़ सके उसके सहारे की आदत। मुझे भी तेरे जाने के बाद बताया।

            स्तब्ध रह गई वह, काटो तो खून नहीं। माँ से क्या कहती?

            माँ को सांत्वना दे तुरंत बाद माँ के बताए चिकित्सालय से संपर्क कर देयक का भुगतान किया, अपने नियोक्ता से अवकाश लिया, आने-जाने का आरक्षण कराया और माँ को लेकर पहुँच गई चिकित्सालय। वह इसे देख चौंका तो बोली- चौंको मत, न परेशान हो, मैं तुम्हें साथ ले जाने आई हूँ और माँ भी साथ चल रही हैं। अब तैयार हो जाओ, मुझे नहीं तुम्हें चाहिए है सहारा।

१०-१-२०१६

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४४. चेतना
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            बरसों बाद बेटी गृह नगर लौटी। उच्च पदस्थ बेटी की उपलब्धि पर आयोजित अभिनन्दन भोज में आमंत्रित होकर माँ भी पहुँची। बेटी ने शैशव में दिवंगत हो चुके पिता के निधनोपरांत माँ द्वारा लालन-पालन किये जाने पर आभार व्यक्त करते हुए अपनी श्रेष्ठ शिक्षा, आत्म विश्वास और उच्च पद पाने का श्रेय माँ को दिया तो पत्रकारों के प्रश्न और छायाकारों के कैमरे माँ पर केंद्रित हो गए।

            सामान्य घरेलू जीवन की अभ्यस्त माँ असहज अनुभव कर शीघ्र ही हट गईं। घर आते ही माँ ने बेटी से उसकी सफलता के इतने बड़े आयोजन में उसके जीवन साथी और संतान की अनुपस्थिति के बारे पूछा। बेटी ने झिझकते हुए अपने लिव इन रिलेशन, वैचारिक टकराव और जीवनसाथी तथा संतान से अलगाव की जानकारी दी। माँ को लगा कि गुम हुई जा रही है उसकी चेतना।

१२-१-२०१६

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४५. अनजानी राह
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            कोशिश रंग ला पाती इसके पहले ही तूफ़ान ने कदमों को रोक दिया, धूल ने आँखों के लिये खुली रहना नामुमकिन कर दिया, पत्थरों ने पैरों से टकराकर उन्हें लहुलुहान कर दिया, वाह करनेवाला जमाना आह भरकर मौन हो रहा।

            इसके पहले कि कोशिश हार मानती, कहीं से आवाज़ आई 'चली आओ'।

            कौन हो सकता है इस बवंडर के बीच आवाज़ देनेवाला? कान अधिकाधिक सुनने के लिये सक्रिय हुए, पैर सम्हाले, हाथों ने सहारा तलाशा, सर उठा और चुनौती को स्वीकार कर सम्हल-सम्हल कर बढ़ चला उस ओर जहाँ बाँह पसारे पथ हेर रही थी अनजानी राह।

१४-१-२०१६

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४६. रफ्तार
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            प्रतियोगिता परीक्षा में प्रथम आते ही उसके सपनों को रफ्तार मिल गयी। समाचार पत्रों में सचित्र समाचार छपा, गाँव भी पहुँचा। ठाकुर ने देखा तो कलेजे पर साँप लोट गया। कर्जदार की बेटी हाकिम होकर गाँव में आ गई तो नाक न कट जायेगी? जैसे भी हो रोकना होगा।

            जश्न मनाने के बहाने उसके पिता को जमकर पिलाई और उसके फेरे अपने निकम्मे शराबी बेटे से कराने का वचन ले लिया। वह न मानी तो पंचायत बुला ली गई जिसमें ठाकुर के चमचे ही पञ्च थे जिन्होंने धार्मिक पाखंड की बेड़ी उसके पैर में बाँधने वरना उसके पिता और परिवार को जात बाहर करने का हुक्म दे दिया।

            उसके अपनों और सपनों पर बिजली गिर पड़ी। उसने हार न मानी और रातों-रात दद्दा को भेज महापंचायत करा दी जिसने पंचायत का फैसला उलट दिया। ठाकुर के खिलाफ दबे मामले उठने लगे तो वह मन मसोस कर बैठ रहा।

            उसने धार्मिक पाखंड, सामाजिक दबंगई और आर्थिक शोषण के त्रिकोण से जूझकर फिर दे दी अपने सपनों को रफ्तार।

१४-१-२०१६

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४७. सफ़ेद झूठ
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            गाँधी जयंती की सुबह दूरदर्शन पर बज रहा था गीत 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल', अचानक बेटे ने उठकर टी.वी. बंद कर दिया।

            कारण पूछने पर बोला- '१८५७ से लेकर १९४६ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अज्ञातवास में जाने तक क्रांतिकारियों ने आत्म-बलिदान की अनवरत श्रंखला की अनदेखी कर ब्रिटेन संसद सदस्यों से में प्रश्न उठवानेवालों को शत-प्रतिशत श्रेय दिया जाना सत्य से परे है।

            सत्यवादिता के दावेदार के जन्म दिन पर कैसे सहन किया जा सकता है सफ़ेद झूठ?

२३-१-२०१६

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४८. जनसेवा
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            अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पैट्रोल-डीजल की कीमतें घटीं। मंत्रिमंडल की बैठक में वर्तमान और परिवर्तित दर से खपत का वर्ष भर में आनेवाले अंतर का आंकड़ा प्रस्तुत किया गया। बड़ी राशि को देखकर चिंतन हुआ कि जनता को इतनी राहत देने से कोई लाभ नहीं है। पैट्रोल के दाम घटे तो अन्य वस्तुओं के दाम काम करने की माँग कर विपक्षी दल अपनी लोकप्रियता बढ़ा लेंगे।

            अत:, इस राशि का ९०% भाग नये कराधान कर सरकार के खजाने में डालकर विधायकों का वेतन-भत्ता आदि दो गुना कर दिया जाए, जनता तो नाम मात्र की राहत पाकर भी खुश हो जाएगी। विरोधी दल भी विधान सभा में भत्ते बढ़ाने का विरोध नहीं कर सकेगा। ऐसा ही किया गया और नेतागण दत्तचित्त होकर कर रहे हैं जनसेवा।

३०-१-२०१६

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४९. कारावास
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            कत्ल के अपराध में आजीवन कारावास पाये अपराधी ने न्यायाधीश के सामने ही अपने पिता पर घातक हमला कर दिया। न्यायाधीश ने कारण पूछा तो उसने बताया कि उसके अपराधी बनने के मूल में पिता का अंधा प्यार ही था। बचपन में मामा की शादी में उसने पिता के एक साथी की पिस्तौल से गोलियाँ चला दी थीं। पिता ने उस पर मुकदमा न चलने दिया और अपनी राजनैतिक पहुँच के बल पर पुलिस और अदालत से उसके स्थान पर एक नौकर को सजा करा दी।

            पहली गलती पर सजा मिल गयी होती तो वह बात-बात पर पिस्तौल का उपयोग करना नहीं सीखता और आज आजीवन कारावास नहीं पाता। पिता उसका अपराधी है जिसे दुनिया की कोई अदालत या कानून दोषी नहीं मानेगा इसलिए वह अपने अपराधी को दंडित कर संतुष्ट है, अदालत उसे एक जन्म के स्थान पर चाहे तो दे दे दो जन्म का कारावास।


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५०. आत्म विश्वास
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            चाची! जमाना खराब है, सुना है बहू अकेली बाहर गाँव जा रही है। कैसे और कहाँ रहेगी? समय खराब है।

            भतीज बहू की बात सुनकर चाची ने कहा 'तुम चिंता मत करो, बहू के साथ पढ़ा एक दोस्त वहीं परिवार सहित रहता है। उसके घर कुछ दिन रहेगी, फिर मकान खोजकर यहाँ से सामान बुला लेगी। बीच-बीच में आती-जाती रहेगी। बेटे का किलहे का जोड़ न काटा होता तो होता तो वह साथ ही जाता। उसके पैर का प्लास्टर एक माह बाद खुलेगा, फिर २ माह बाद चलने लायक होगा।'

            'ज़माने का क्या है? भला करता नहीं, बुरा कहने से चूकता नहीं। समय नहीं मनुष्य भले-बुरे होते हैं। अपन भले तो जग भला.… बहू पढ़ी-लिखी समझदार है। हम सबको एक-दूसरे का भरोसा है, फिर फ़िक्र क्यों?

            माँ की बात सुनकर स्थानांतरण आदेश पाकर परेशान होती श्रीमती जी के अधरों पर पहली बार मुस्कान झलकी।अभी तक मैं उन्हें हिम्मत बँधा रहा था कि किसी न किसी प्रकार साथ जाऊँगा। अब वे बोल रही थीं कि आपके जाने की जरूरत नहीं, आप सब यहाँ रहेंगे तो बच्चों को स्कूल नहीं छोड़ना होगा। वहाँ अच्छे स्कूल नहीं हैं। मैं अपनी सब व्यवस्था खुद कर लूँगी। आप अपना और बच्चों का ध्यान रखना, समय पर दवाई लेना। माँ ने साथ चलने को कहा तो बोलीं आप यहाँ रहेंगी तो मुझे इन सबकी चिंता न होगी। मैं आपकी बहू हूँ, सब सम्हाल लूँगी।

            मैं अवाक् हो देख रहा था बुलंद होता हुआ आत्म विश्वास।

२४-१-२०१६

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५१. संक्रांति


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- छुटका अपनी एक सहकर्मी को आपसे मिलवाना चाहता है, शायद दोनों....


= ठीक है, शाम को बुला लो, मिलूँगा-बात करूँगा, जम गया तो उसके माता-पिता से बात की जाएगी। बड़की को कहकर तमिल ब्राम्हण, छुटकी से बातकर सरदार जी और बड़के को बताकर असमिया को भी बुला ही लो।


- आपको कैसे?... किसी ने कुछ.....?


= नहीं भई, किसी ने कुछ नहीं कहा, उनके कहने के पहले ही मैं समझ न लूँ तो उन्हें कहना ही पड़ेगा। ऐसी नौबत क्यों आने दूँ? हम दोनों इस घर-बगिया में सूरज-धूप की तरह हैं। बगिया में किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ेगी, इसमें सूरज और धूप दखल नहीं देते, सहायता मात्र करते हैं।


- किस पेड़ पर कौन सी बेल चढ़ाना है यह तो माली ही तय करता है फिर हम कैसे यह न सोचें?


= ठीक कह रही हो, किस पेड़ों पर किन लताओं को चढ़ाना है, यह सोचना माली का काम है। इसीलिये तो वह माली ऊपर बैठे-बैठे उन्हें मिलाता रहता है। हमें क्या अधिकार कि उसके काम में दखल दें?


- इस तरह तो सब अपनी मर्जी के मालिक हो जायेंगे, घर ही बिखर जाएगा।


= ऐसे कैसे बिखर जाएगा? हम संक्रांति के साथ-साथ पोंगल, लोहड़ी और बीहू भी मना लिया करेंगे, तब तो सब एक साथ रह सकेंगे। सब अँगुलियाँ मिलकर मुट्ठी बनेंगीं तभी तो मनेगी संक्रांति।





१५-१-२०१६

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