पुरोवाक्
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गीत संग्रह
हरीतिमा चहुँ ओर
विषय सूची
1. वन्दना गीत
2. सब धर्मों का होता मान
3. सबका मन मोहे
4. बोलो कैसे खुशी मनाएं
5. दिल से होता वह धनवान
6. प्रेम हृदय में पलने दो
7. जन कल्पित होते प्रतिमान
8. हरीतिमा चहुँ ओर
9. हृदय उजाला लाये
10. कविवर तब रचना गढ़ते
11. बनता वही सुजान
12. स्वप्न किया साकार
13. जश्न मने हर गाँव में
14. उनका ही होता उत्थान
15. गंगा नहायेंगे
16. उनका स्वर सुनते पल-पल
17. करता क्यों अभिमान
18. अनुपम ये सौगात है
19. प्रथम नमन स्वीकार करो माँ
20. सद्कर्मों से
सुगम प्रभात
21. स्वर्ण मुखरता जब तपता
22. स्वप्निल दीप जलाए
23. रावण की यह भान था
24. शीघ्र सजा का बने विधान
25. बंधन ये अनमोल
26. जग में करूँ प्रसार
27. रखती हृदय सुवास
28. जीवन जीते बंजारे
29. पवन बसंती बहती
30. रावण ने संज्ञान लिया
31. रखना हमें जुनून
32. मिले रश्मि सौगात
33. सप्त सुरों में होती बात
34. कूकते निकले सवेरा
35. बढा जगत में अत्याचार
36. मधुर प्रेम की बहती गन्ध
37. जीवन की सच्चाई
38. मानवता की होती हार
39. मिलकर करे ठिठोली
40. छोड़े अब सब सभी विवाद
41. अपना धर्म निभाते
42. रीत रहे निश्ते-नाते
43. आस जगाता रहता दीप
44. शांत चित्त हो करते ध्यान
45. कर्म बन्ध ही जायेगा
46. जग ने छलते देखा है
47. कुदरत की सौगात
48. समझ न पाते कुछ राही
49. जीव जगत है आभारी
50. एक पंथ दो काज
51. सन्देशा कुछ दे जाते
52. जब तक लेती स्वास जिंदगी
53. उसकी ताकत जानले
54. झरे हृदय की चादर में
55. बनता वही विवेकानंद
56. मिलकर फसल उगातें
57. जाते वे ही मधुशाला
58. करे नित्य हम योग
59. अमृत उत्स्त्व सभी मनाएं
60. बना देश की शान तिरंगा
61. बाढ़ निगोड़ी आई
62. सुरक्षा देश की करते
63. सच्चे दिल इन्सान
64. नेह की दरिया दिली
65. जग को गीता
गयं कराया
66. धन वर्षा को
आतुर सारे
67. बसा रहा क्यो जंगल राज
68. वही ताप को
सहता देही
69. खुशी मिले व्यवहार में
70. अहो भाग्य लेकर आयी
71. श्रम करते भरपूर
72. कुदरत से नाता
भारी
73. धैर्य से डिगते नहीं
74. दिल मे ज्योति जलाना है ।
75. चरणों शीश झुकाता
76. कहे उन्हीं को जगत सुजान
77. हिंदी से भारत का मङ्गल
78. माने उसको जगत सुजान
79. कभी न भूले कृत्य
80. असुरों का संहार किया
81. हुई विकसित कहानी है
82. विजय पताका फहरें
गीत संग्रह
हरीतिमा चहुँ ओर
सरस्वती वंदना!
=============
हे ज्ञान दायिनी सरस्वती!, ज्ञान हृदय में भर दो माँ ।
हे धवल सुहासिनी शारदे!, मन उजियारा कर दो माँ ।।
हे स्वर निवासिनी वाणी माँ!, स्वर में आकर बस जाओ ।
हे मात मिनर्वा, वागीशा!, आकर मन को सरसाओ ।।
हे विश्वतारिणी जग माता!, मेरी विनती सुन लीजे ।
हे ज्ञानेश्वरी! कृपा कर के, अब कृपा दास पर कीजे ।।
विनती इतनी है माँ! तुमसे, कर मस्तक पर धर दो माँ ।
हे ज्ञानदायिनी सरस्वती!, ज्ञान हृदय में भर दो माँ
।।(१)
हे वर प्रदायिनी विद्या माँ!, मुझको मोहक वाणी दो
ज्ञानोदय माता हो जाये , चिंतन वीणापाणी दो ।।
हे पद्मासना भगवती माँ, है मेरा यही निवेदन ।
मैं अबोध अज्ञानी हूँ माँ, चैतन्य करो मम चेतन ।।
हे कमललोचने दृष्टि करो, व्यक्तित्व मनोहर दो माँ ।
हे ज्ञान दायिनी सरस्वती, ज्ञान हृदय में भर दो माँ
।।(२)
हे सलिला स्वच्छ हृदय कर दो, सबको शुभ सम्बोधन हो ।
उत्तम भावों का अर्चन हो, जन हित में उद्बोधन हो ।।
सन्देश भरे हों काव्य सभी, उर निर्मल भाव जगाना ।
पथ से यदि भटक रहे हों पग, तब मुझको राह दिखाना ।।
हे प्रबुद्ध शुद्ध भारती माँ , भक्ति भाव का वर दो माँ ।
हे ज्ञान दायिनी सरस्वती, ज्ञान हृदय में भर दो माँ
।।(३)
2. सब धर्मों का होता मान
राम-कृष्ण के
इसी देश में, सब धर्मों का होता मान ।
भारत माता मात
हमारी, सभी करें इसका सम्मान ।।
शिष्य सीखते
हैं गुरुवर से, रखकर दिल में आदर भाव ।
मान करें सब
योग्य जनों का, जिनके मन में नहीं दुराव ।।
मर्यादा रख
शीश झुकाते, रहे हृदय में जिनको भान ।
राम-कृष्ण के
इसी देश में, सब धर्मों का होता मान ।।
स्नेह-मिलन
सद्भाव हृदय में,मन की बगिया भरे हिलोर ।
जब मिलते दो
छोर नदी के, विश्वासों की बढ़ती डोर ।।
हाथ मदद के
बढ़ते जिनके, प्रभु उनको देते प्रतिदान ।
राम-कृष्ण के
इसी देश में, सब धर्मों का होता मान ।।
सर्व-धर्म
सद्भाव जहाँ हो, हृदय रहें सबका गुलजार ।
ईद-दिवाली सभी
मनाते, सबका ही करते सत्कार ।।
बिना स्वार्थ
के इमदादी की, मदद करे सच्चा इन्सान ।
राम-कृष्ण के
इसी देश में, सब धर्मों का होता मान ।।
3. सबका मन मोहे
धरा गगन के बीच
घटा भी, कभी डराती है ।
छटा बिखेरे
कभी चाँदनी, शान बढ़ाती है ।।
बरसाती मौसम
में पर्वत, आच्छादित सोहे ।
चहुँ ओर ही
बाग-बगीचे, सबका मन मोहे ।।
गूँजें जब भी
मेघ घनागन, वर्षा आती है ।
छटा बिखेरे
कभी चाँदनी, शान बढ़ाती है ।।
भ्रमर गूँजते
कली फूल पर, उपवन महकाएँ ।
चमक रही मोती
सी बून्दें, पेड़ों पर छाएँ ।।
वन उपवन में
कभी मोरनी, रास रचाती है ।
छटा बिखेरे
कभी चाँदनी, शान बढ़ाती है ।।
सुधर प्रदूषण
हवा सुवासित, सदा लुभाती है ।
मौसम से जीवन
की श्वासें, सुहास लाती है ।।
सीली मिट्टी
की खुशबू तब, मन हर्षाती है ।
छटा बिखेरे
कभी चाँदनी, शान बढ़ाती है ।
4. बोलो कैसे खुशी मनाएँ
लील रहा
कोरोना नित उठ, बोलो कैसे खुशी मनाएँ ।
हृदय बसी अपनो
की यादें, उत्कर्षो के स्वप्न सजाएँ ।।
क्रंदन की
आवाजें सुनते, छा जाती घनघोर घटाएँ ।
बादल गरजे
बिजुरी चमके, रात अँधेरी हमें डराएँ ।।
देर रात तक
जागा करते, आखिर किसने नींद चुराई।
दो गज की दूरी
से बोलो, कैसे खुश हो गले लगाएँ ।।
शीतल मस्त
हवाओं में अब, नही उमड़ती प्रेम कहानी ।
कलियों के
अधरों पर कैसे, भँवरों की होगी मनमानी ।।
साँसों की गति
तेज हुई हैं, अनहोनी से डरता प्राणी ।
संक्रामक हो
हँसे जवानी, छोड़ चले सारी चिंताएँ ।।
खुशियों का
मेला है जीवन, लेकिन दुख भी सहने होंगे ।
यक्ष प्रश्न
जीवन के जितने, चिंतन कर सुलझाने होंगे ।।
क्षण भंगुर ये
जीवन अपना, सम्बन्धों के बीच तना है ।
त्योहारों की
शाम सजाकर, हर्षित मन मे दीप जलाएँ ।।
5. दिल से होता वह धनवान
करे सहायता
सदा दीन की, दिल से होता वह धनवान ।
इमदादी की मदद
स्वार्थ बिन, करता वह सच्चा इन्सान ।।
सेवा करके उसे
गिनाते, होता उनमें खूब घमण्ड ।
प्रतिफल में
सेवा जो लेते, वही वसूले उनसे दण्ड ।।
लेन-देन का
सौदा करते, करते रहते वे अभिमान ।
इमदादी की मदद
स्वार्थ बिन, करता वह सच्चा इन्सान ।।
तरुवर खाता नहीं
स्वयं फल, सरवर करे न जल का पान ।
परहित में ही
मदद करे जो, नहीं चाहते वे प्रतिदान ।।
कौन मदद करता
है किसकी, इसका अब लेना संज्ञान।
इमदादी की मदद
स्वार्थ बिन, करता वह सच्चा इन्सान ।।
हावी होती गई
फर्ज पर, संस्कारों पर जमती धूल ।
डूब गए सब
सुविधाओं में, कर्त्तव्यों को बिल्कुल भूल।।
बने सहायक सभी
सबल के, निर्बल के केवल भगवान ।
इमदादी की मदद
स्वार्थ बिन, करता वह सच्चा इन्सान ।।
6. प्रेम हृदय में पलने दो
चाहे जितनी
दूर रहो पर, मुझे राधिका बनने दो ।
बनकर राधा
मुझे तुम्हारे, कृष्ण हृदय में बसने दो ।।
आस-पास रहकर
भी तुम क्यों, करते कोई बात नहीं ।
प्यार किया है
केवल तुमसे, क्या इतना भी ज्ञात नहीं ।।
मन प्रांगण
बेला महकाती, हृदय सँजोती जब यादें ।
अपने मन में
आशाओं के, दीप सदा ही जलने दो ।।
जिसकी कोई भोर
न होगी, ऐसी कोई रात नहीं ।
तुम्हीं बसे
हो मेरे दिल में, और दूसरी बात नहीं ।।
जीवन की गीता
को पढ़ते, हम कितने निष्काम हुए ।
आस-पास तुम
भले नहीं हो, प्रेम हृदय में पलने दो ।।
लिखा तुम्हीं
पर प्रेम गीत फिर, हर अक्षर से प्रेम किया ।
ढलके आँसू नयन
मेघ से, उन्हें अधर से चूम लिया ।।
इच्छाओं के इस
उपवन में, स्वप्न तुम्हारे नाम हुए ।
आस-पास हो इन
गीतों से, अनुभव मुझको करने दो ।।
7. जन-कल्पित होते प्रतिमान
श्रद्धा बिन
किसको मिलता है, यहाँ भक्ति का बोलो ज्ञान ।
भक्ति-भाव से
देखे उनको, कण-कण में दिखते भगवान।।
नत मस्तक हो
झुकते प्राणी, जिनके मन में नहीं गुमान ।
अंतस से आवाज
निकलती, करें उन्हीं का हम सम्मान ।।
आत्म-रूप में
बसा हृदय में, छुपा हुआ माया की ओट ।
संशय मन के
छोड़ सदा ही, बने रहें हम श्रद्धावान ।।
मन्दिर मस्जिद
गिरिजाघर में, ढूंढें जाकर प्रभु को रोज ।
मन मन्दिर में
ईश अंश की, करे न ध्यान मग्न हो खोज ।।
आत्म-तत्व को
शुध्द करें तो, बनते ईसा नानक बुद्ध ।
पञ्च-तत्व से
बने भवन में, मन मन्दिर हो आलीशान ।।
कहे विधाता एक
ईश है, सृजित उसी के रूप अनेक ।
भले पुकारो
भिन्न नाम से, ईश्वर तो है जग में एक ।।
सत्य एक है
नाम ईश का, मिथ्या बाकी जग-व्यवहार ।
जाति धर्म या
पंथ सभी तो, जन-कल्पित होते प्रतिमान ।।
8. हरीतिमा चहुँ ओर
लगे सुहानी
धरती प्यारी, हरीतिमा चहुँ ओर ।
हर्षित हो जब
हृदय हमारा, होते भाव विभोर ।।
मोती सी बूंदें वर्षा की, मन में भरे उमंग ।
बरसातों में
ही दिखते हैं, इंद्र-धनुष के रंग ।।
अंतर्मन की
ज्वाला करती, नेह बूंद ही शांत ।
हरे-भरे आँगन
में खुश हो, नाचे मन का मोर ।।
मधुर-मिलन की
आस जगाए, मन की मीठी प्यास।
मखमल सी
हरियाली मन में, खूब जगाए आस ।।
साजन को
आमंत्रण देते, सजनी मन के गीत ।
करे प्रतीक्षा
सजनी जब भी, भीगे दृग के कोर ।।
प्राण-पगे रस
रूप गन्ध ये, ले आती बरसात ।
आशा प्रतिपल
द्वार निहारे, ढले न जल्दी रात ।।
बारिश में
हरियाली जब हो, धरती गाए गान ।
मखमल जैसी धरा
देखकर, मन में उठे हिलोर ।
9. हृदय उजाला लाये
बात करो कितनी
भी मिथ्या, कभी नहीं टिक पाए ।
तथ्य सामने जब
भी आये, शर्म उन्हें तब आए ।।
भाव भंगिमा
हाव-भाव से, सत्य उजागर होता ।
छटे कुहासा जब
मिथ्या का, सारे दुखड़े रोता ।।
क्षणिक लाभ के
लिए आदमी, बात यथार्थ छुपाए।
तथ्य सामने जब
भी आये, शर्म उन्हें तब आए ।।
जीवन की आपा
धापी में, झूठ बोल क्यों अकड़े ।
छल प्रपंच के
झंझावाती, मानव मन को जकड़े ।।
लोभ मोह को
छोड़ सके तो, मन से तमस हटाए
तथ्य सामने जब
भी आये, शर्म उन्हें तब आए ।।
स्वार्थ लोभ
में झूठ बोलकर, व्यर्थ विवाद बढाते ।
बार बार के
श्वेत झूठ से, सदा सत्य झुठलाते ।।
किन्तु अंत
में सत्य जीतता, हृदय उजाला लाए ।
तथ्य सामने जब
भी आये, शर्म उन्हें तब आए ।।
10. कविवर तब रचना गढ़ते
अपने अंतस के
भावों से, करते हम सत्कार सभी ।
मात-शारदे
लिखवा देती, हृदय भरे उद्गार सभी ।।
दीन-दुखी को
जब भी देखे, तभी लेखनी व्यथा लिखे ।
आखर आखर भाव
पिरोते, कभी लेखनी कथा लिखे ।।
छंद शिल्प में
कविवर लिखते, अपने भाव-विचार सभी ।
मात-शारदे
लिखवा देती, हृदय भरे उद्गार सभी ।।
कलमकार की चले
लेखनी, कविवर तब रचना गढ़ते ।
लेखन के बल पर
ही सारे, बच्चे सब पुस्तक पढ़ते ।।
खत से ही अपने
भावों से, जता सके आभार सभी।।
मात-शारदे
लिखवा देती, हृदय भरे उद्गार सभी ।।
गीत लिखा जब
कवि ने लय में, गायक तब ही गा पाया ।
जिसके उर लय
ताल बसी हो,लय की समझे वह माया ।।
उसको क्या कोई
समझाए, छन्दों का संसार कभी ।
मात-शारदे
लिखवा देती, हृदय भरे उद्गार सभी ।।
11. स्वप्न किया साकार
देश समूचा सदा
मानता, जिनका ये आभार ।
हुआ न बल्लभ
भाई जैसा,लौह पुरुष सरदार ।।
भारत में थी कई
रियासत, राजा हुए अनेक ।
राज-पाट
त्यागें सब राजा, देश बने तब एक ।।
विलय कराने
सभी राज्य को,सबसे किया करार।
हुआ न बल्लभ
भाई जैसा, लौह पुरुष सरदार।।
प्रजातंत्र के
संवाहक ने, लिया हृदय संकल्प ।
करें समर्पण
राजा सारे, दूजा नही विकल्प ।।
पूर्ण समेकित
कर भारत को, दिया ठोस आधार ।
हुआ न बल्लभ
भाई जैसा, लौह पुरुष सरदार ।
राज्य समर्पण
कौन कराये, डाले कौन नकेल ।
लौह पुरुष ने
किया काम ये, कहते उन्हें पटेल ।।
प्रजातन्त्र
लाने भारत में, स्वप्न किया साकार ।
हुआ न बल्लभ
भाई जैसा, लौह पुरुष सरदार।।
12. बनता वही सुजान
छात्र प्रथम
मैं मेरी माँ का, दे मुझको संज्ञान ।
उठना चलना
बोल-चाल का, वही कराती भान ।।
सदा कराती माँ ही
शिशु को, सब रिश्तों का बोध ।
वही सिखाती
कैसे मुश्किल, पार करे अवरोध ।।
स्वयं शारदे
माता बनकर, दे प्रारम्भिक ज्ञान ।
तब जाकर शाला
जा पाता, बनने को गुणवान ।।
रामकृष्ण सा
गुरु जो पाता, बने विवेकानंद ।
सरस्वती
जिह्वा पर बैठे, पाता वह मकरंद ।।
कठिन परीक्षा
देता जो भी, भरता वही उड़ान ।
अखिल विश्व
में मिले उसे ही,प्यार भरा सम्मान।।
बुद्धि लगाकर
करे पढाई, पाये आशातीत ।
कृपा शारदे की
होती तब, मिलते भाव पुनीत ।।
हृदय निखारे
मात शारदे, बनता वही सुजान ।
जगमग रोशन करे
वही फिर,देकर विद्या दान ।।
13. जश्न मने हर गाँव में
नये वर्ष के
स्वागत में अब, जश्न मने हर गाँव में ।
चौपालों पर
चिंतन करते, तापें हाथ अलाव में ।।
विगत वर्ष में कदम
हटे क्यों,पथ पर बिछते शूल से ।
क्या खोया
क्या पाया हमने, सीखे अपनी भूल से ।।
रुके नहीं पथ
पर बढ़ने से, आकर किसी प्रभाव में ।
नये वर्ष के
स्वागत में अब, जश्न मने हर गाँव में ।।
प्रेम-भावना
बढ़े दिलों में, कदम बढ़ाएँ साथ में ।
बढ़े हौसला दीन-हीन
का, दीप जले हर पाथ में ।।
नहीं दिलों से
नफरत झलके, दीनों से बर्ताव में ।
नये वर्ष के
स्वागत में अब, जश्न मने हर गाँव में ।।
जोश दिलाएँ
नव-युवको को, गुरुवर भाव पुनीत से ।
मन से स्वच्छ बनाएँ
उनको, सत्य सनातन रीत से ।।
घर का गौरव
बढ़ा सकें सब, फँसे न किसी दुराव में ।
नये वर्ष के
स्वागत में अब, जश्न मने हर गाँव में ।।
14. उनका ही होता उत्थान
मात-पिता गुरु
ज्येष्ठ सभी का, करते जो आदर सम्मान ।
नहीं स्वप्न
तक में करते वे, कभी किसी का भी अपमान ।।
गुरु चरणों मे शीश नवाएँ, उनको मिलता
बौद्धिक ज्ञान ।
मात-पिता का
आदर करते, बनकर संस्कारी गुणवान ।।
भक्ति भावना
प्रबल उसी की, हृदय रहे परहित के भाव।
आशीषों से
झोली भरते, कहते हैं ये सभी सुजान ।।
हाथ थामकर मदद
करे जो, पग-पग पर मिलती मुस्कान ।
जिंदा-दिल
इंसान वही जो, सब प्राणी का करते मान ।।
कल जो बीती
रात दुखद थी, भूले हम सारे अवसाद ।
सफल बनायें
जीवन अपना, ज्ञानामृत का करके पान ।।
कभी-कभी होता
है रोदन, कभी ख़ुशी का होता गान ।
जहाँ कभी
निंदा सहते है, वही हमें मिलता संज्ञान ।।
दुख-सुख तो
जीवन के साथी, दुख में करना नहीं मलाल ।
खेल-भावना रखते
मन में, उनका ही होता उत्थान ।।
15. गंगा नहायेंगे
कृष्ण राधा
बोल प्यारे,
श्याम
आयेंगे ।
भक्ति की
गंगा बहाते,
पार
जायेंगे । ।
राधिका का
नाम लेते,
गीत गाये
जा ।
राम जी के
नाम से ही,
प्रीति
पाये जा ।
नाम सीता
राम बोले,
धाम
पायेंगे ।
भक्ति की
गंगा बहाते,
पार
जायेंगे ।।
छन्द राधा
में सजा ले,
गीत ये
न्यारा ।
गीत गाए
प्रेम से ये,
भाव हो
प्यारा ।।
प्रीत से
संसार सारा,
जीत
लायेंगे ।
भक्ति की
गंगा बहाते,
पार
जायेंगे ।।
बाँसुरी की
तान में है,
शक्ति राधा
की ।
तान से ही
जागती है,भावना साकी ।।
भावना से
जीत ले गंगा नहायेंगे ।
भक्ति की
गंगा बहाते,
पार
जायेंगे ।।
16. उनका स्वर सुनते पल-पल
कर्कश स्वर
जिनका भी सुनते,बन्द कान करते हर-पल।।
कोमल स्वर में
बातें करते, उनका स्वर सुनते हर-पल ।।
कर्कश स्वर को
जो भी सुनते, सुनकर होते सभी विकल ।
कोमल स्वर में
बातें करते, उनका स्वर सुनते पल-पल ।।
धक-धक की
आवाजें सुनते, शेर देख घबराने पर ।
राम नाम ही
मुख से निकले,तन घिग्घी बँध जाने पर ।।
राह गुजरते
अँधियारे में, अश्क निकलते हैं छलछल ।
हिचकी आने पर
अस्फुट से, कुछ स्वर भी साथ उभरते ।
मानों जैसे
अटक रहा हो, कुछ मध्य श्वास के चलते ।।
संकट में जो
भी भजते हैं, याद उन्हें आती रब की ।
खर्राटे जो भरते रहते, नींद उड़ा देते सबकी ।।
भाव सिसकते
किसी याद में, रहा अगर प्रेम हृदय-तल ।
हृदय वेदना को
स्वर देते, चाहे वे अपना मंगल ।।
सुर-शब्दों को
साध सके जो, बाथरूम तक में गाएँ ।
गुन-गुन करते
रहते उनके, शब्द व्योम में जा छाए ।।
जो आनन्दित हो
लहरों से, नदियों की सुनते कलकल ।
कर्कश स्वर
जिनका भी सुनते,बन्द कान करते हर-पल।।
कोमल स्वर में
बातें करते, उनका स्वर सुनते हर-पल ।।
17. क्यों करता अभिमान
व्यर्थ बात पर
जिद करने से, खुद का ही नुकसान ।
नम्र भाव से
कहता कड़वी, सच्चा दिल इंसान ।।
मस्तक झुकता
जब भी नीचा, गरिमा होती प्राप्त।
रहे सदा धनु
डोर ऐंठकर, होती लचक समाप्त ।।
स्वर्ण हिरण
पाने की हठ का, कब युग गाता गान ।
जैसे भी मानव
के होते, अपने निजी विचार ।
वही करें जो
उपजे मन में, भला बुरा व्यवहार।।
नश्वर जीवन
में मानव मन, क्यों करता अभिमान।।
संवेदना रहे
जीवन में, नहीं करें उपहास ।
संवेदना जहाँ
दम तोड़े, हम बँधवाएँ आस ।।
लक्ष्य साध कर
चढ़ता मानव,नित नूतन सोपान ।।
18. अनूपम ये सौगात है
शुभ बेला में
जन्मी बिटियाँ, अनुपम ये सौगात है ।
पूर्व जन्म के
सद्कर्मो से, खिलता नवल प्रभात है ।।
कुदरत ने ही
भरी कोख तब,पुष्प खिला था प्यार में ।
रही ईश से यही
कामना, बिटिया दे उपहार में ।।
पुरखों के ही
किसी पुण्य से, मिले सुगंधित प्रात है ।
निभा सके
दायित्व हमेशा, हार नही स्वीकार हो ।
वरद हस्त हो
माँ वाणी का, शब्द शब्द में सार हो ।।
भाव प्रणव
संरचना करता, होता वह विख्यात है ।
जन्म दिवस पर
देते तुमको, सब मिल यह आशीष जी,
स्वस्थ सुखी
जीवन में रहने, भला करें जगदीश जी |
सूर्य किरण की
सदा भोर में, बनती सुंदर बात है ।
शुभ सरिता सा
पावन मन हो, हृदय भाव सत्संग हो ।
आँगन में सौरभ
से खिलतें, प्रेम-प्रीति के रंग हो ।।
यश-वैभव की
रहे सम्पदा, कलरव करता गात है ।
19. रिश्ते सदा निभाए
प्रथम नमन स्वीकार करो माँ, जन्म दिवस फिर आया है ।
किसी जन्म के
पुण्य कार्य से, तन-मन तुमसे पाया है ।।
पाल-पोष कर
योग्य बनाया, अपने खून पसीने से ।
पढ़ा-लिखा
संस्कार सिखाये, मुझको खूब करीने से ।।
मिले आपके
संस्कारों से, अपना धर्म निभाया है ।
प्रथम नमन
स्वीकार करो माँ,जन्म दिवस फिर आया है।।
स्नेह और
सम्मान बाँटकर, रिश्तें सदा निभाये हैं ।
दुर्गम पथ पर
हिम्मत रखकर, अपने पाँव बढ़ाये हैं ।।
वर्ष छिहत्तर
हुए पूर्ण हैं, स्नेह सभी का पाया है ।
प्रथम नमन
स्वीकार करो माँ,जन्म दिवस फिर आया है।।
खोज रहा सब
में अपनापन, यौवन चिंतन में खोया ।
जो अपने दायित्व
निभाता, उसने ही बोझा ढोया ।।
माँ वाणी के
वरद हस्त से, मान कलम ने पाया है ।
प्रथम नमन
स्वीकार करो माँ,जन्म दिवस फिर आया है ।
20. सद्कर्मों से सुगम प्रभात
अजर अमर है किसका जीवन, भौतिक तन का होता अंत।
स्वार्थ मोह के फँसे जाल में, बढ़ता रहता लोभ अनंत ।।
दिवस बिताते भाग-दौड़ में, और गँवाते सोकर रात ।
दुर्लभ जीवन में होती है, सद्कर्मों से सुगम प्रभात ।।
सार्थक श्रम से कार्य पूर्ण हो, तभी हृदय में होता हर्ष ।
वर्ष विदा पर करे परीक्षण, कार्य किया क्या वर्ष पर्यन्त।
सुख-वैभव का नहीं अंत है, लक्ष्य प्राप्ति का हो संज्ञान ।
दायित्वों को पूर्ण करें हम, यौवन का जब हो अवसान ।।
नहीं समय को व्यर्थ गँवाते, उनको ही मिलता उत्कर्ष ।
दुख में बीते सदा बुढापा, नहीं दुखी पर होते संत ।।
लौट अतीत नहीं फिर आये, हो जाता जब कालातीत ।
समय चक्र की चाल समझते, करें वक्त पर काम पुनीत ।।
हो जाती खामोश जिंदगी, रखे हृदय अपना गुलजार ।
नेक काम कर जाते जो भी, नाम रहें उनका जीवन्त ।।
21. स्वर्ण निखरता जब तपता
हृदय भरे जब
शक्ति आसुरी, मानव तब दानव बनता ।
सुविधाएँ हो
चाहे कितनी, नहीं चैन से रह सकता ।।
लोभ-मोह के आकर्षण
में, ईर्ष्या भाव बढ़ा जग में ।
स्वार्थ-पूर्ति
में झगड़े मानव, लिए शत्रुता रग रग में ।।
सुर दुर्लभ सा
हृदय चाहने, मनुज सदा रहता तकता ।
सुविधाएँ हो चाहे कितनी, नहीं चैन से
रह सकता ।।
मानव मूल्यों
को खोकर ही,मनुज रूप राक्षस धारे ।
पल दो पल के
इस जीवन में, कर्म करें अच्छे सारे ।।
रहे गुनाहों
में शामिल वह, दुष्कर्मों से कब थकता ?
सुविधाएँ हो
चाहे कितनी, नहीं चैन से रह सकता ।।
राग, द्वेष, छल, दम्भ बैर ये, असुर रूप के
गुण सारे ।
मानव मन के
दुर्गुण इनको, कर दें हम दूर किनारे ।।
महक उठेगा
जीवन जैसे, स्वर्ण निखरता जब तपता ।
सुविधाएं हो
चाहे कितनी, नहीं चैन से रह सकता ।।
22. स्वप्निल
दीप जलाये
कुसुम-शृंगार
मधुर तान से, मन मन्दिर महकायें।
मधुमय जीवन की
आशा में, स्वप्निल दीप जलायें।।
खुशियों की
बौछार सदा हो, घरभर खुशियाँ छायें ।
सजग रहें कर्तव्य
राह पर, अपना धर्म निभायें ।।
रहे सदा ही
कदम अग्रसर, नहीं जरा सकुचाये ।
कठिनाई का
करें सामना, कभी न दिल घबराये।।
अधर-हास्यमय
बोल सभी से, खुशियों दे मुस्करायें।
मधुमय जीवन की
आशा में, स्वप्निल दीप जलायें ।।
निर्मित कर
सुंदर बगिया को, खुशबू से महकाना ।
पूर्ण करें सब
हृदय कामना, दिल में आस जगाना ।।
रखे हौसला और
धैर्य से, लक्ष्य तभी मिल पायें ।
कर्म साधना से
ही अपना, जीवन सफल बनायें ।।
सद्कर्मों पर
चलते रहकर, मन को स्वच्छ बनायें ।
मधुमय जीवन की
आशा में, स्वप्निल दीप जलायें।।
सूत्रधार है
घर की लक्ष्मी, घर का मान बढ़ायें ।
सहयोगी हो
हृदय भावना, दिल में आस जगायें ।।
मधुर सम्बन्ध
बना सभी से, जीवन सुखद बनाते ।
तभी सुवासित
खुशियां सारी,जीवन में पा पाते ।।
सुखमय जीवन
यापन करते, निज कर्त्तव्य निभायें ।
मधुमय जीवन की
आशा में, स्वप्निल दीप जलायें।।
23. रावण को यह भान था
माँ सीता ही
शक्ति स्वरूपा, रावण को यह भान था ।
नित्य वाटिका
जा अंतस से, करता वह सम्मान था ।।
मस्तक अर्पण
करके रावण, भक्त बना शिव शंकर का ।
वाद्य यंत्र
के अन्वेषक ने, स्तोत्र लिखा प्रलयंकर का ।।
पूजा जाता वह
भी घर-घर, किन्तु हृदय अभिमान था ।
माँ सीता ही
शक्ति स्वरूपा, रावण को यह भान था ।।
भौतिक युग में
फँसे काम में, भले राम हो वाणी में ।
लिप्त धर्म की
चादर ओढ़े, लोभ-मोह उर प्राणी में ।।
हनुमत जैसा
भक्त चाहिए, जिसमें नहीं गुमान था ।
माँ सीता ही
शक्ति स्वरूपा, रावण को यह भान था ।।
पूजन अर्चन हो
भावों से, भले इबादत हो क्षण भर ।
करे मनुजता का
प्रणयन ही, सद्भावों की चले डगर ।।
भक्ति भावना
मार्ग एक है, ध्रुव को होना ज्ञान था ।
माँ सीता ही
शक्ति स्वरूपा, रावण को यह भान था ।।
24. शीघ्र सजा का बने विधान
दण्ड संहिता
बनी देश में, फिर भी रहता लंबित न्याय ।
किन्तु
साक्ष्य बिन न्यायालय में,निर्णय शीघ्र कहाँ हो पाय ।।
दोषी हेतु दण्ड
विधान है, दोष किया कितना संगीन ।
दोष सिद्ध में
लगे समय भी, सजा सबूतों के आधीन।।
दोषी सारे
मुक्त घूमतें, छूट जमानत पर जब जाय ।
किन्तु
साक्ष्य बिन न्यायालय में,निर्णय शीघ्र कहाँ हो पाय ।।
दण्ड संहिता
बहुत पुरानी, उसमें है कितने ही छेद ।
स्पष्ट बचाने
अपराधी को, अधिवक्ता जाने सब भेद ।।
हत्या
कन्या-भ्रूण सभी ये, घोर पाप के हैं पर्याय ।
किन्तु
साक्ष्य बिन न्यायालय में,निर्णय शीघ्र कहाँ हो पाय ।।
त्वरित न्याय
यदि करना चाहे, शीघ्र सजा का बने विधान।
नैतिक शिक्षा
करे जरूरी, कहते आये सभी सुजान ।।
तभी घटे अपराध
यहाँ पर, शास्त्र हमारें यही सुझाय ।
बिना साक्ष्य
के न्यायालय में,निर्णय शीघ्र कहाँ हो पाय।।
25. बन्धन ये अनमोल
गूंज रहे हैं
फेरों के ये, सात वचन के बोल ।
नेह-बन्ध में
बाँध रहे हैं, बन्धन ये अनमोल ।।
वर्षगाँठ दिन
करे सदा ही, सात वचन फिर याद ।
नहीं कभी फिर
रहें आपसी,मन में तनिक विवाद ।।
जीव-जगत उन्नत
करने को, ये संस्कार अमोल ।
पचपन वर्षों
रहें बहुत ही, स्नेह भरें सद्बोल ।।
फँसा प्यार का
खेल तभी से, करते रहें किलोल ।
वैवाहिक जीवन
में आयी, सौलह की किरदार ।
किया अथक
सहयोग तभी ये , सँभला घर-परिवार ।।
आत्म-भाव के
इन रिश्तों में, अपना हृदय टटोल ।
शहनाई बजती
कानों में , बजे नागाड़े ढोल ।।
प्रेम-भाव को
जागृत करने, मन की गाँठें खोल ।।
शुभ दिन था जब
माँ-बापू को, खुशियाँ मिली अकूत ।
जन्म कोख से
जब वामा ने, दिया हमें था पूत ।।
नेह लिये
जन्मी फिर बिटिया, मिला भ्रात का नेह ।
रक्षा करना
सदा बहन की, रहे न इसमें झोल ।।
प्रेम-भाव से
चले जिंदगी, धन से इन्हें न तोल ।
भाई-बहन के
कभी नेह का, टूटे ना तटबन्ध ।
कच्चा धागा
याद दिलायें, बना रहें सम्बन्ध ।।
कभी न भूले हम
संकट में,अपने जो भी खास ।
एक सूत्र में
बाँधे इसका, करना नहीं मखोल ।।
अपनी ही ये
धरती 'लक्ष्मण', बिगड़े नही भूगोल ।
26. जग में करूँ प्रसार
मुक्त हृदय से
आज करूँ मैं, सबका ही सत्कार।
माँ वीणा
सद्ज्ञान मुझे दो, जग में करूँ प्रसार ।।
माँ-बापू के सद्कर्मों से, आया माँ की
गोद ।
मिला छत्र
छाया में उनसे, जीवन का आमोद।।
स्वर्गलोक से
मिलता मुझको,उनका आशीर्वाद।
वर्ष छिहत्तर
पार हुए ये, हरते सब अवसाद ।।
मात-पिता से
मिले मुझे हैं, जीवन में संस्कार ।
मिला सनातन
धर्म रूप में, मुझको भारत वर्ष ।
राम-कृष्ण का
देश हमारा,इसका मुझको हर्ष ।।
वन-उपवन में
रोप सकूँ मै, कुछ सुन्दर से वृक्ष।
जनमानस को
मिले सफलता,पूर्ण करें सब लक्ष्य।।
चुका सकूँ
क्या भारत माँ का, अंशमात्र भी भार ?
संस्कारी
परिवार जहाँ हो, खुशबू करें प्रदान।
मिला मुझे
सहयोग सभी का,प्रभु का यही विधान।।
गुरुवर को मैं
दे पाऊँ क्या, ऐसी कुछ सौगात ?
सूरज सम्मुख
कहाँ दीप की,होती है औकात ।
प्राण प्रिया
का सदा रहेगा, जीवन भर आभार।।
मुक्त हृदय से
आज करूँ मैं, सबका ही सत्कार ।
माँ वीणा
सद्ज्ञान मुझे दो, जग में करूँ प्रसार ।।
27. रखती हृदय सुवास
पनघट पर आती
सब सखियाँ,
मन में रख
विश्वास ।
बारी आने तक
बतियाती,
बैठ वृक्ष के पास ।।
पानी भरने
सारी सखियाँ,
चले कूप की ओर
।
मटकी भरकर धरे
माथ पर,
होती भाव
विभोर ।।
परिहास सूझता
जब कान्हा को,
देखे अवसर खास
।
छुप छुप
कान्हा निरखे उनको,
मौका करे तलाश
।
भाव समझकर
पनिहारिन के,
करते नहीं
निराश ।।
कान्हा की ये
प्यारी सखियाँ,
रखती हृदय
सुवास ।
कान्हा छुपकर
कंकर मारे,
करे चुहल
परिहास ।।
फूटें मटकी
भीगे चुनरी,
होती तभी उदास
।।
ताना देती
सासू माँ तब,
उगले खूब भड़ास
।
28. जीवन जीते बंजारे
निभा रहे हैं
परम्पराएँ
बंजारे सारे ।
चकला बेलन लिए घूमते
छकड़ा गाड़ी में
रहे वेश-भूषा
में औरत,
लहँगा साड़ी
में ।
डाले डेरा वही
रात को
गिनते हैं
तारे ।
रुके वहीं पर
सिगड़ी चूल्हा
सुलगाते देखे
बात करो तो
कहें भाग्य में
लिखे यही लेखे
।
आज यहाँ कल और
कहीं पर
यायावर प्यारे
।
भौतिक युग की
चकाचौंध से,
उनको क्या
लेना ।
परम्परागत
निष्ठा को फिर,
क्यों खोने
देना ।।
नहीं और की
जैसे उनको,
महँगाई मारे ।
मर्द-औरतें
स्वेद बहाते,
कभी नहीं थकते
।
गर्मी, सर्दी और शीत
को,
झेल-झेल पकते
।।
बिन तनाव के
अपना
जीवन जीते
बंजारे ।
29. पवन बसन्ती बहती
गुन गुन गाते गीत हृदय जब,
पवन बसंती बहती ।
मधुर प्रेम का कर आलिंगन,
हवा बीज बो जाती ।
साँसों की सरगम मन भावन,
गीत सुरीले गाती ।।
चन्दन सी महके जब सौंधी,
खुश्बू कुछ-कुछ कहती ।
तूफानी झोंका जब आता,
तन मन सिहरा जाता ।
अक्सर तभी हवा का झोंका,
आँखे नम कर जाता ।।
प्रेम भावना पवन वेग सी,
विचलित करती रहती ।
नित्य भोर में हमें लुभाते,
पक्षी उड़-उड़ आते ।
मधु मलयानिल से मदमाते,
वृक्ष लता मुस्काते ।।
कभी जलन दे तपिश हवाएँ,
धरा धैर्य रख सहती ।
30. रावण ने संज्ञान लिया
राम सनातन
सत्य चेतना,
महादेव से
ज्ञान लिया ।
राह मोक्ष की
प्रभु के हाथों,
रावण ने संज्ञान लिया
।।
नित्य वाटिका
में सीता के,
मकसद था दर्शन
करना ।
बिना लड़े कैसे
सम्भव था,
प्रभु के
हाथों से मरना ।।
परम उपासक
महादेव का,
जिसने सब कुछ
जान लिया ।
मर्यादा की
शिक्षा ही तो,
राम चरित मानस
देती,
राम राज्य की
करे कामना,
संज्ञान कहाँ
सत्ता लेती ।
विदुर सरीखे
मंत्री ने ही,
इन सबका
अभिज्ञान लिया ।
स्वार्थ लोभ औ
दुष्कर्मों का,
रावण अपने
अंतस में,
अग्नि हृदय
में द्वेष भरी है,
उसे सुखाए
अंतस में ।
पर्व दशहरे पर
क्या व्रत ले,
दम्भ जलाना
ठान लिया ?
31. रखना हमें जुनून
रक्त दान के
लाभ बहुत है, कहते सन्त सुजान ।
मानव हित में
आओ हम सब,करें रक्त का दान।।
जिस माता ने स्वयं रक्त
से, पाला शिशु नौ माह ।
रक्त दान कर
होंगे उऋण, यही सुगम है राह ।।
रक्त दान
अनमोल जगत में, इससे बड़ा न दान ।
मानव हित में
आओ हम सब,करें रक्त का दान ।।
वही दान सबसे
उत्तम है, बचा सके जो प्राण ।
मरता मानव
रक्त दान से, शायद पाये त्राण ।।
इसीलिए तो
रक्त दान को, माना गया महान ।
मानव हित में
आओ हम सब,करें रक्त का दान ।।
जितना दान करे
उतना ही, बनता फिर से खून ।
रुधिर दान
करने का मन में,, रखना हमें जुनून ।।
नियत समय में
रुधिर बदलता, कहता ये विज्ञान ।
मानव हित में
आओ हम सब,करें रक्त का दान ।।
अधिक समय तक
रुधिर न संचित, रहता अपनी देह ।
समझे जो
विज्ञान लहू का, व्यर्थ न रखता नेह ।।
हृदय-घात की
जोखम कम हो, इसका लो संज्ञान ।
मानव हित में
आओ हम सब, करें रक्त का दान ।।
32. मिले रश्मि सौगात
सकल सृष्टि
में रवि किरणों से, होती सुगम प्रभात ।
वही दूर
अँधियारा करता, मिले रश्मि सौगात ।।
करे दिवाकर सारे
जग में, जन-जन का उपकार ।
एकत्रित कर सौर
ताप को, पा सकते उपहार ।।
सूर्य ताप से
बनते बादल, होती तब बरसात ।
सकल सृष्टि
में रवि किरणों से, होती सुगम प्रभात ।।
कहे सृष्टि का
इसे नियन्ता, ऋतुओं के हो रूप ।
शीत-कँपाती
ठण्ड बढ़े तो, देता धूप अनूप ।।
प्रातः गुनगुन
धूप मिले तब, दिन की हो शुरुआत।
सकल सृष्टि
में रवि किरणों से, होती सुगम प्रभात ।।
सूर्य रश्मि
से वृक्ष छोड़ते, आक्सीजन भरपूर ।
पाला पड़ते
क्षति फ़सलों की, करे धूप से दूर ।।
करता यही प्रकाशित
चंदा, अमरित बरसे रात ।
सकल सृष्टि
में रवि किरणों से, होती सुगम प्रभात ।।
33. सप्त सुरों में होती बात
भाव उकेरे
कविवर अपने, लेकर बैठे कलम दवात ।
वेद व्यास
जैसे सन्तों से,जन जन को मिलती सौगात ।।
सबके उर में भाव समाते, कुछ उन पर करते
संवाद ।
भाषण के
माध्यम से नेता, करते रहते वाद विवाद ।।
अखबारों में
छपता भाषण,समझे तब जनता जज्बात ।
काव्य-विधा है
छन्द शास्त्र में, कविता का सुंदर परिधान ।
सरसी, आल्हा चौपाई
में, सब छन्दों का पृथक विधान ।।
जो भी सुर में
रचे प्रार्थना, याद वही रहती दिन-रात ।।
सभी रचयिता
छन्द शास्त्र के, छन्दों में देखे विज्ञान ।
भरे पुरोधा
भाव छन्द में, करें तीर सा तब संधान ।।
कृपा करे जब
मात शारदे, सप्त सुरों में होती बात ।
वन्दे मातरम
राष्ट्र-गीत में, काव्य जगत की है पहचान ।
जन-गण-मन गायन
भी करते, सारे लय में एक समान ।।
सच मानो तो
काव्य-छन्द से,जीव-जगत की सुगम प्रभात ।
34. कूकते निकले सवेरा
पेड़ की इन
डालियों से झूमते निकले सवेरा ।
पक्षियों के
घोसलें से कूकते निकले सवेरा ।।
पेड़ की डाली सदा ही सीख
देते आप झुकती ।
ओस की बूंदें
पड़ें जब पक्षियों की प्यास बुझती ।।
पत्तियों की
झुरमुटों को लूटते निकले सवेरा ।
पक्षियों के
घोसले से कूकते निकले सवेरा ।।
घोसलों से जब
निकल कर देखते संसार पक्षी ।
जिंदगी की हर
खुशी का तब करें इजहार पक्षी ।।
पक्षियों का
यूँ गगन में घूमते निकले सवेरा ।
पक्षियों के
घोसलें से कूकते निकले सवेरा ।।
जोड़ तिनके से
बनाते घोसला सब पेड़ पर ही ।
देखते जब फल
लदें दाना चुगे तब पेड़ पर ही ।।
उन विचरते
पक्षियों को घूरते निकले सवेरा ।
पक्षियों के
घोसलें से कूकते निकले सवेरा ।।
35. बढ़ा जगत में अत्याचार
हाल किया
बेहाल जगत का, बढ़ा जगत में अत्याचार ।
शब्दों के कुछ
तीर चुभाते, आदत से नेता लाचार ।।
दिखला सकते अगर जगत को, व्योम बाँटकर
दिखला दो।
सक्षम हो तो
जरा लट्ठ से, नीर बाँटकर दिखला दो ।।
टुकड़े टुकड़े
किये जगत के, नहीं उन्हें अफसोस जरा ।
लाशें बिछती
सभी जगह पर, कब्रिस्तान बना संसार ।
हाल किया
बेहाल जगत का, बढ़ा जगत में अत्याचार ।।
भड़काते कुछ
वाक युद्ध से, स्वार्थ साधते लोग यहाँ ।
फूट-डालते
उकसाकर के, बढा भयंकर रोग यहाँ ।।
द्रवित किया
है मानव मन को, बढ़ते नर-संहारों ने ।
भौतिक युग की
चकाचौंध में, मन में बढ़ता गया विकार ।
हाल किया
बेहाल जगत का, बढ़ा जगत में अत्याचार ।।
कलियुग अपने
चरम बिंदु पर, भरा हुआ है आडम्बर ।
घात लगाते बियाबान में, छुपे हज़ारों
हैं खंजर ।।
युद्धों से
इतिहास भरा है, सीख कहाँ लेता मानव ।
समझौते पर
टिकते रिश्तें, दिल से इस पर करें विचार ।
हाल किया
बेहाल जगत का, बढा जगत में अत्याचार ।।
36. मधुर प्रेम की गन्ध
पाणिग्रहण से
दो श्वासों में, मधुर प्रेम की बहती गन्ध ।
सौलह संस्कारो
में है ये, पावन वैवाहिक गठ-बन्ध ।।
प्रेम-मिलन हो नेह-हृदय
में, कृष्ण-राधिका जैसी प्रीत ।
नेह-भरे बन्धन
से दोनों, रूह मिला बनते मन मीत ।।
सच में ये
वैवाहिक बन्धन, प्रेम-प्रीति में भरते रंग ।
प्रणय सूत्र
से बन जाता है, कैसा ये अटूट सम्बन्ध ।।
जोड़ी बन ऊपर
से आती, सात जन्म का मिलता साथ ।
माँ-बापू ही
अनजाने को, पकड़ाते बिटिया का हाथ ।।
दो दिल मिलकर
प्रेम-भाव से, जीवन भर करते सत्संग ।
वैवाहिक
गठबन्धन जोड़ें, दो पृथक पृथक तटबन्ध ।।
बना रहे
सद्भाव हमेशा, भाव-आपसी हो निष्काम ।
सत्य सनातन
धर्म निभायें, प्रातः उठ ले हरि के नाम ।।
पति-पत्नी के
मिलन योग से, सृष्टि का होता उत्थान ।
विपदाओं के
विषम समय में, करे सदा जगदीश प्रबन्ध ।।
37. जीवन की सच्चाई
जीवन के अंतिम
चरणों में, देती किरण दिखाई ।
मिला सहारा
बढ़ने को ये, जीवन की सच्चाई ।।
पाप-पुण्य का कभी न सोचें, मन से कलुष हटाएँ।
सद्कर्मों से
मिले सफलता, पथ पर बढ़ते जाएँ ।।
गाँधी सा
किरदार निभाएँ, जिसने राह बताई ।
जीवन के अंतिम
चरणों में, देती किरण दिखाई ।।
कितनी भी हो
मुश्किल राहें, हो कितनाअँधियारा ।
बीच भँवर में
नाव फँसे तो, मिलता कहाँ किनारा ।।
साँझ ढले से
पहले खोलो, जीवन की अँगड़ाई ।
जीवन के अंतिम
चरणों मे, देती किरण दिखाई।।
जो भी पीता
गरल वही तो, शिव शंकर कहलाता ।
तीखे बाणों की
शैया को, भीष्म सदा सह पाता ।।
कर्मवीर जो
साहस करता, विजय उसी ने पाई ।
जीवन के अंतिम
चरणों में, देती किरण दिखाई ।।
38. मानवता की
होती हार
युद्धों से
लगता है जग में, भूल रहें सब शिष्टाचार ।
नर-नारी के
चीत्कारों से, मचा हुआ है हाहाकार ।।
हुए निरुत्तर
प्रश्न सभी के, जिनके कारण होता युद्ध ।
विश्वशांति के
लिए यहाँ अब, पुनः चाहिए जग को बुद्ध ।।
शेष न जब कोई
विकल्प हो, तभी उठाएँ लड़ने शस्त्र ।
रण में जाने
से पहले ही, परिणामों पर करें विचार ।।
पाँच गाँव ही
मांग कृष्ण ने, एक प्रयास किया था शुद्ध ।
सत्प्रयास हो
शांति भाव से, नहीं व्यर्थ ही होवे क्रुद्ध ।।
प्रतिशोधों
में जला देश को, रहें देखते सभी विनाश ।
मानवता का पाठ
पढ़ाकर, कृष्ण करों आकर उद्धार ।।
हिंसक मानव बन
निरीह का, खूब बहाते रहते खून ।
मार-काट का
खेल घिनोना, हिंसक का ये व्यर्थ जुनून ।।
युद्ध हारता
हो कोई भी, मानवता की होती हार ।
पाँव तले यूँ
रौंद-रौंद कर, मसल रहे मधुवन संसार ।।
39. मिल कर करें
ठिठोली
होली जैसे
पर्व खुशी के, हृदय प्रेम बरसाते ।
रंग-बिरंगे
सजे हाथ से, मिलकर रंग लगाते ।।
रंग अबीर गुलाल
लगाती, सब रसियों की टोली ।
चंग बजाते रंग
लगाते, खेले सब मिल होली ।।
बासन्ती मौसम
में ऐसा, आये पर्व सुहाना ।
हुरियारों का
झुण्ड घूमता, ढाप बजाते आते ।।
मना वर्ष में
एक बार सब, यूँ हुड़दंग मचाते ।
होली जैसे
पर्व खुशी के, हृदय प्रेम बरसाते ।।
मोहक ये
रसियों की टोली, लिए भाँग की गोली ।
मस्ती में सब
झूमें रसिया, मिलकर करें ठिठोली ।।
पीते और
पिलाते सबको, भांग घुटी ठण्डाई ।
रंगों की
बौछार बीच में, गीत व्यंग्य के गाते ।।
बसन्त ऋतु की
नव फसलों से,पावन यज्ञ कराते
होली जैसे पर्व खुशी के, हृदय प्रेम बरसाते ।।
देवर भाभी सखी
सहेली, खेले भर पिचकारी ।
खूब भिगोते
रहे चुनरिया, खेले सब नर-नारी ।।
मन भावन पकवान
बनाते, बाटें ख़ूब मिठाई ।
सतरंगी से लगे
मुखोटे, हम पहचान न पाते ।।
शमो धान्य
होलक की सबको,ठण्डाई पिलवाते ।
होली जैसे
पर्व खुशी के, हृदय प्रेम बरसाते ।
40. छोड़ें अब हम
सभी विषाद
पाप बढ़े हैं
इस दुनिया में, छल-कपटों से जग आबाद ।
निष्ठुर काया
कलुषित मन है,अपने मन में सब आजाद ।।
धर्म-कर्म का
बढ़ा दिखावा, छद्म-भेष में घूमें लोग ।
मुख में राम
बगल में छूरी, बढ़ा जगत में ऐसा रोग ।।
माला पहने
तिलक लगाये, बाँट रहें हैं सबको ज्ञान ।
कैसे अब
पहचाने कोई, किस शाला में करे प्रयोग ।।
जीवों का जो
भक्षण करते, वे कब छोडें अपना स्वाद ।
पाप बढ़े हैं
इस दुनिया में, छल-कपटों से जग आबाद ।।
मान रहे
सामाजिक प्राणी, भरा हुआ पर मन में खोट ।
नष्ट हुई सारी
मानवता, तीर चलाते छुपकर ओट ।।
बढ़ी लालसा
धन-वैभव की, हुई सभी सीमाएँ पार ।
मान-प्रतिष्ठा
उसकी जग में, भरी तिजोरी रखते नोट ।।
धन-अर्जन की
शिक्षा देते, इसको माने पौष्टिक खाद ।
पाप बढ़े हैं
इस दुनिया में, छल-कपटों से जग आबाद ।
झूठे वादे कर जनता से, करते रहते नित्य गुनाह ।
भृष्टाचारी और लुटेरे, घर में पाते रहें पनाह ।।
भरी जहन में
रिश्वतखोरी, करें सदा ही लूट-खसोट ।
निर्धन कन्या
रहे कुँवारी, बिन दहेज के नहीं विवाह ।।
गीता का उपदेश
समझकर, छोडें अब हम सभी विषाद ।
पाप बढ़े हैं
इस दुनिया में, छल-कपटों से जग आबाद ।।
41. अपना धर्म निभाते
सरस्वती के
वाहक जल में, हमको बहुत लुभाते ।
शान्त भाव के
हैं ये पक्षी, मोती चुग सो जाते ।।
नीर क्षीर का ऐसा
सुंदर, झिलमिल दृश्य सुहाता ।
हंस-हंसिनी
विचरण करते, धवल रंग से नाता ।।
प्रेम अलौकिक
ऐसा उनका, रिश्ता कभी न तोड़े ।
कभी न रखते
कलुष दिलों में, सबसे आदर पाते ।।
ममता के सागर
में पक्षी, प्रेम भाव बरसाते ।
शांत -भाव के
हैं ये पक्षी, बीज प्रेम के बोते ।
चित्र उकेरे
जो भी इनके, सुंदर भाव पिरोते ।।
सम्मोहित हो
कविवर लिखते,गीत गजल पैरोडी ।
कटु यथार्थ के
मृदु सपनों से, जीवन सफल बनाते ।
प्रणय पंथ के
सच्चे साथी, मिलजुल रह हर्षाते ।।
शुभ ऊषा का
पंथ निहारें, काली रात बितायें ।
भोली मूरत की
ये जोड़ी, सच्ची प्रीत निभायें ।।
हंस-वाहिनी
माँ कहलातीं, जग में उन्हें घुमातीं ।
धरती अम्बर
तीन लोक में,अपना धर्म निभाते ।।
दृश्य मनोरम
बनता इनसे, सबको खूब रिझाते ।
42. रीत रहे
रिश्ते-नाते
कभी-कभी तो
मौसम हमको, लगता बहुत सुहाना है ।
कब घिर जाये
काले बादल, बोलो किसने जाना है ।।
दिन भर करते कुछ
मजदूरी, बच्चें भूखे सो जाते ।
कहीं छाँव को
तरसे मानव, रीत रहे रिश्ते-नाते ।।
बादल छाये जब
युद्धों के, लुटता सभी खजाना है ।
कब घिर जाये
काले बादल, बोलो किसने जाना है ।।
युद्ध छेड़ते
सदा स्वार्थ में, सुलगाते हम चिंगारी ।
कई राष्ट्र
उकसाते रहते, फिर दिखलाते दातारी ।।
कभी-कभी लगता
है जैसे, आया विषम जमाना है ।
कब घिर जाये
काले बादल, बोलो किसने जाना है ।।
हे ! मनमोहन
साँवरिया जी, केवल आप सहारा है ।
नहीं जिंदगी
यहाँ सुरक्षित, सूरज तम से हारा है ।।
हे! मुरलीधर
धर्म धुरंधर, जग को तुम्हें बचाना है ।
कब घिर जाये
काले बादल, बोलो किसने जाना है ।।
43. आस जगाता रहता
दीप
हाथ जोड़
अभिवादन करना, है ये भारत में संस्कार ।
इस वैश्विक
संकट में भारत, मानो देव तुल्य अवतार ।।
सेवाभावी सभी
चिकित्सक, करते आज मदद दिन-रात।
नर्स चिकित्सक
और पुलिस भी, रहते सेवा में तैनात ।।
घुसते विषाणु
जिस मानव में, उसको पृथक रखे परिवार ।
तन-मन करती
पुष्ट साधना, करें योग का यहाँ प्रचार ।।
बढ़े होंसला
आम-जनो का, तभी जीवाणु जाए हार ।।
इस वैश्विक
संकट में भारत, मानो देव तुल्य अवतार ।
हार मानकर
हमें न रुकना, नही सदा रहता है मर्ज ।
जीवन को समझे
कस्तूरी, हमें निभाना होगा फर्ज ।।
हाथों को धोते
रहना ही, लगता इसका एक उपाय ।
दो गज की दूरी
रखकर ही, कभी काम से बाहर जाय।।
कड़ी टूटने पर
कोरोना, भाग सकेगा खाकर मार ।
इस वैश्विक
संकट में भारत, मानो देवतुल्य अवतार ।।
घने तिमिर में
भी जुगनू सा, आस जगाता रहता दीप ।
मङ्गल घट भर
देती लक्ष्मी, अगर रखे मन आँगन लीप ।।
स्वच्छ रखे हम
घर-आँगन को, स्वच्छ रहे हम इसमें सार।
गमछे से मुहँ
ढककर चलना, गाँव-गाँव में करें प्रचार ।।
संकट है ये
कितना गहरा, जग में लोग हुए बीमार ।
इस वैश्विक
संकट में भारत, मानो देवतुल्य अवतार ।।
44. शांत चित्त हो
करते ध्यान
आत्म नियंत्रण
रखते मन पर, कर सकते हैं वे उपवास ।
मोक्ष शास्त्र
में सूत्र बहुत से, महत्व लिखे उनमें है खास ।।
काम क्रोध मद मोह
स्वार्थ को, काबू करना क्या आसान ।
उपवासों के
माध्यम से कुछ, शांतचित्त हो करते ध्यान ।।
सभी
धर्म-ग्रंथों में व्रत पर, खूब जताया है विश्वास ।
अपने भीतर बसे
शत्रु को, चाहो यदि पहुँचाना ह्रास ।
आत्म नियंत्रण
रखते मन पर, कर सकते हैं वे उपवास ।।
योग शास्त्र
भी बतलाता है, व्रत का अपना एक विधान ।
निर्जल व्रत
भी एक तरीका, करते साधु संत सुजान ।।
रमज़ानों में
रोजा रखते, सुखद उन्हें होता अहसास ।
कृपा करेंगे
अल्ला उनपर, रोजा रख करते ये आस ।
आत्म नियंत्रण
रखते मन पर, कर सकते हैं वे उपवास ।।
शुद्धि करें
तन-मन की जो भी, व्रत को वे माने आधार।
खाद्य समस्या
भी हल होती, संकट से हो बेड़ा पार ।।
व्रत में है
संकल्प साधना, जीवन में भरता उद्भास ।
कई दिनों तक
करें मौन व्रत, भरा पड़ा इसका इतिहास ।
आत्म नियंत्रण
रखते मन पर, करते सकते हैं वे उपवास ।।
45. कर्म बन्ध ही
जायेगा
कुदरत में
अनमोल खजाना, मानव को भरमायेगा ।
दोनों हाथों लूटो कितना, कर्म बन्ध ही
जायेगा ।।
भौतिकता की
चकाचौंध में, परहित सोचा नहीं कभी ।
मन की तृष्णा
हावी हो जब, भूले तब आदर्श सभी ।।
सभी स्वार्थ
के साथी जग में, काम पड़े ओझल होंगे ।
ऐसे में फिर
किससे जग में, सच्ची आस लगायेगा ।।
राग-द्वेष
छल-छन्द छोड़ दे,अंत समय पछतायेगा ।
दोनों हाथों लूटो कितना, कर्म बन्ध ही
जायेगा ।।
सद्कर्मों को
भूले मानव, स्वार्थ दिलों में भरा हुआ ।
घना कुहासा
मिथ्या का है, रहता सहमा डरा हुआ ।।
माया का
भ्रमजाल सृष्टि में, जकड़ सदा उलझायेगा ।
मिट्टी में
मिलना है तन भी, लौट नहीं फिर आयेगा ।।
अरे मुसाफिर
जाग जरा अब,वक्त पकड़ क्या पायेगा ।
दोनों हाथों लूटो कितना, कर्म बन्ध ही
जायेगा ।।
जन्म लिया है
मानव बनकर, मानव सा व्यवहार करें ।
संध्या के आने
पर मानव, काया में सद्-भाव भरें ।।
चार दिनों में
शेष दिवस दो, दो दिन का ताना-बाना ।
बचे हुए अनमोल
क्षणों क्या, जीवन सफल बनायेगा ।
सत्कर्मों की
राह ईश ही, मुक्ति मार्ग बतलायेगा ।
दोनों हाथों लूटो कितना, कर्म बन्ध ही
जायेगा ।।
46. जग ने छलते देखा है
जीव जगत में लोगों
को ही, शासन करते देखा है।
भौतिक सुख के
लालच में पर, उन्हें भटकते देखा है ।।
श्रेष्ठ कर्म
करने पर प्राणी, मनुज रूप में आता है ।
स्वयं ईश भी
यहाँ धरा पर, जोड़े आकर नाता है ।।
राम कृष्ण या
महावीर भी, मनुज रूप में ही आये ।
रूप दानवी धर
रिश्तों पर, मानव आँच लगाता है ।।
मानव को मानव
के हाथों, जग ने छलते देखा हैं ।
भौतिक सुख के
लालच में ही, उन्हें भटकते देखा हैं ।
मर्यादा कायम
करने खुद, राम धरा पर आते है ।
गीता का
सन्देश कृष्ण दे, जग को पाठ पढ़ाते है ।।
पुष्प
सुगन्धित हर बगिया की, महकाते हर डाली को ।
मनुज स्वार्थ
में पाँव तले ही, सुमन रौंद कर जाते है ।।
यदा कदा ही
दुनिया का ये, चमन उजड़ते देखा है ।
भौतिक सुख के
लालच में ही, उन्हें भटकते देखा है ।।
नफरत करते
व्यक्ति यहाँ पर, आज बने सब व्यापारी ।
बने मनुज कुछ
नाग सरीखे, क्या उनकी ये लाचारी ?
मानव अब
गिरगिट से बढ़कर, रंग बदलते भावों के ।
मानवता के
दुश्मन मानव, बने यहाँ अत्याचारी ।।
जब आती है मौत
अंत में, सदा सहमते देखा है ।
भौतिक सुख के
लालच में ही, उन्हें भटकते देखा है ।।
47. कुदरत की
सौगात
नमन करें हम
जन्म-भूमि को,यही मनुज का धाम ।
हर-दिन हर-पल
शुभ ही होते, कभी न टालें काम ।।
नित्य भोर में
करें सदा ही, जीवन की शुरुआत ।
प्राची से प्रारंभ
जिंदगी, कुदरत की सौगात ।।
प्रातः उठकर
सर्व प्रथम तो, लेना प्रभु का नाम ।
हर-दिन हर-पल
शुभ ही होते, कभी न टालें काम ।।
जप-तप पूजा
गुरुवाणी से, मन में उपजे भाव ।
शांत भाव से
रहते उनको, होता नहीं तनाव ।।
नित्य कर्म का
अंग बनाकर, शुरू करे व्यायाम ।
हर-दिन हर-पल
शुभ ही होते, कभी न टालें काम ।।
यौवन में
मधुमास खिलाते, प्रेम-प्रीति के रंग ।
प्रौढ़ अवस्था
में अपनो से, करे खूब सत्संग ।।
शाम ढले फिर
भाग-दौड़ से, लेना जरा विराम ।
हर-दिन हर-पल
शुभ ही होते, कभी न टालें काम ।।
48. समझ न पाते
कुछ राही
ईश सभी को राह
दिखाते, समझ न पाते कुछ राही ।
स्वयं जाल में
फँसे मनुज ही, जब भी बरतें कोताही।।
हँसकर कण्टक
पथ पर चलते, जो भी रखकर आशाएँ ।
तप बल साहस
धीरज धरकर, पार करें सब बाधाएँ ।।
हर मुश्किल का
हल जो ढूंढे, मिलती उसे सफलता ही ।
ईश सभी को राह
दिखाते, समझ न पाते कुछ राही ।।
तूफानी झोकों
का डटकर, अगर सामना कर पाते ।
सहज पार अवरोध
करें वे, नदिया पार वही जाते ।।
फँसे घोर
विपदा में मानव, नहीं ईश ने ये चाही ।
ईश सभी को राह
दिखाते, समझ न पाते कुछ राही ।।
कर्म-पंथ पर
चले पथिक तो, जीवन व्यर्थ नहीं होता ।
शाश्वत मन में
सपनों का भी, कोई अर्थ नहीं होता ।।
सदा लक्ष्य पर
वही पहुँचते, जो न करे लापरवाही ।
ईश सभी को राह
दिखाते, समझ न पाते कुछ राही ।।
49. जीव-जगत है
आभारी
सूर्य देव से
सभी ग्रहों की, सृजित हुई रचना सारी ।
नीर तपे तब
बादल बनते, ये सागर की दातारी ।।
सागर तट पर आकर
बैठे, लड़का भी बैठा प्यारा ।
कुदरत की
सौगात देखकर, चमके आँखों का तारा ।।
पिता-पुत्र से
लगते दोनों, अँखियों से करते बातें ।
प्रेम भाव
दिखता है इनमें, सार्थक ये रिश्ते नाते ।।
नदी-नाव संजोग
यही है, कैसी ये दुनियादारी ।
सूर्य देव से
सभी ग्रहों की, सृजित हुई रचना सारी ।।
सूरज का मन
ताप दिखाता, जैसे खोता हो आपा ।
सागर की लहरों
को देखे, पर इनको किसने नापा ।।
घिर-घिर आते
हैं जब बादल, कभी अँधेरा हो जाता।
कभी देर तक
बैठे रखते, उमड़े लहरों से नाता ।।
जल-थल नभ में
जीव-चराचर, ईश्वर की दुनियादारी ।
सूर्य देव से
सभी ग्रहों की, सृजित हुई रचना सारी ।।
जीवन सार्थक
उसका होता,पकड़ें जो श्रम की राहें ।
मिलता है आशीष
उसे ही,श्रम अर्जित करना चाहें ।।
जीव जगत ये
सारा पलता, भू की सुंदर क्यारी में ।
कथा प्रगति की
लिखी यही है, जाने हम बातें सारी ।।
सूर्य चंद्रमा
और मेघ से, जीव-जगत हैं आभारी ।
सूर्य देव से
सभी ग्रहों की, सृजित हुई रचना सारी ।
50. एक पंथ दो काज
कार्य शीघ्र
निपटा पाने का, जिन्हें सीखना राज ।
बढ़ा दक्षता
करता मानव, एक पंथ दो काज ।।
बिना वक्त खोये जो
करते, अपने सारे काम ।
करे धैर्य रख
कार्य निरन्तर, पहुँच सके अंजाम ।।
सभी काम जो
करे स्वयं ही, उनको कैसी लाज ।
बढा दक्षता
करता मानव, एक पंथ दो काज ।।
खेल खेल में
राक्षस मारे, कृष्ण और बलराम ।
सेवा कर जो
मेवा पाते, जग में उनका नाम ।।
अन्न बचे तन
शुद्ध करे व्रत, भरे हृदय में साज।
बढा दक्षता
करता मानव, एक पंथ दो काज ।।
मुस्काते सब
काम साधते, उनका उजला पक्ष ।
रहें अधूरे
काम न उनके, हो जाता जो दक्ष ।।
दूर दृष्टि रख
करें कार्य को, नपा तुला अंदाज़ ।
बढा दक्षता
करता मानव, एक पंथ दो काज ।।
51. सन्देशा कुछ
दे जाते
कमल सदा कीचड़
में खिलते, ताल सरोवर इठलाते ।
सुमन शूल से
रहे सुरक्षित, तभी सुरों को ये भाते।।
नव पल्लव उगते
टहनी पर, फलते हैं फिर झर जाते ।
कुदरत का है
खेल अनोखा,जीव सुखद जीवन पाते ।।
हरित-सृष्टि
की प्राण-शक्ति से,जीवों के तन हर्षाते ।
सुमन शूल से
रहे सुरक्षित, तभी सुरों को ये भाते।।
पक्षी को
आश्रय देते है, भला कार्य ये डाली का ।
डाली के पत्ते
भी देखो, करें काम अब थाली का ।।
कभी न सूखे
ताल तलैया, यही भाव मन में लाते ।
सुमन शूल से रहें
सुरक्षित , तभी सुरों को ये भाते ।।
सागर तीरे
बैठे जब भी, हृदय कमल सा खिल जाता ।
देख मनोरम
दृश्य वहाँ के, गीत सुनहरे लिख पाता ।।
ताल-तलैया वृक्ष धरा सब, संदेशा कुछ दे जाते ।
सुमन शूल से
रहे सुरक्षित, तभी सुरों को ये भाते।।
52. जब तक लेती
श्वास जिंदगी
जीवात्मा कहते
प्राणी को, जब तक लेती श्वास जिंदगी ।
उसी देह को
कहे मृतात्मा, श्वास छोड़कर जले जिंदगी ।।
ईश अंश ही हृदय हमारे, जो हमको जीवित रखता है ।
पंच-तत्व के
बने भवन को, यही छोड़कर चल पड़ता है ।।
मिली हमें
उपहार तभी से, तिल-तिल ही यह गले जिंदगी ।
जीवात्मा कहते
प्राणी को, जब तक लेती श्वास जिंदगी ।
बीच भँवर में
फँसे हुए को, जो नदिया पार कराता है ।
जल-थल नभ उसकी
ही सत्ता, ईश्वर भी वही कहाता है ।।
कर्म-साधना रत
यदि रहते, उन्हें नहीं मन खले जिंदगी ।।
जीवात्मा कहते
प्राणी को, जब तक लेती श्वास जिंदगी ।।
छोड़ गमों को
जीवन में हम, प्रेम-भावना हृदय जोड़ लें ।
नीरस जीवन की
राहों को, भक्ति मार्ग पर जरा मोड़ लें ।।
रोम-रोम में
अंश उसी का, तब तक रहती भले जिंदगी ।
जीवात्मा कहते
प्राणी को, जब तक लेती श्वास जिंदगी ।
53. उसकी ताकत
जानले
लाठी में हो
बल कितना भी, कलम बड़ी तलवार से ।
विषधर की ताकत
से बचना, सर्पों की फुफ्कार से ।।
तन से निर्बल भी
बलशाली, रखे अगर जो हौसला ।
तिनका तिनका
लाकर पक्षी, खूब बनाते घोंसला ।।
आत्म-शक्ति के
बल पर मानव, लड़ सकता संसार से ।
विषधर की ताकत
से बचना, सर्पों की फुफ्कार से ।।
निर्जन वन में
धूणी रमाकर, करे तपस्या साधना ।
बढ़ा तपोबल
बुद्ध सरीखे, करते नित्य विपश्यना ।।
योग-क्रिया कर
बचता प्राणी, निर्बल तन की मार से ।
विषधर की ताकत
से बचना, सर्पों की फुफ्कार से ।।
भौतिक युग में
धन की ताकत, चाहे कितनी मान ले ।
चली कहाँ
कुदरत के आगे, उसकी ताकत जान ले ।।
प्रेम-प्यार
को ताकत समझे, बचता वह तकरार से ।
विषधर की ताकत
से बचना, सर्पों की फुफ्कार से ।।
54. झरे हृदय की
चादर में
मधुर मिलन को
आतुर नदियाँ, सदा समाती सागर में ।
बहे नेह की
बूंद आँख से, झरे हृदय की चादर में ।
हरियाली के
दृश्य मनोहर, खूब रिझाते पावस में ।
झूम-झूम कर
कजरी गाते, हास्य बिखेरें आपस में ।।
प्यार भरा हो
दिल में मानो, भरा समंदर गागर में ।।
मधुर मिलन को
आतुर नदियाँ, सदा समाती सागर में ।
प्राण पगे रस
रूप गन्ध में, मुस्काता मन यौवन में ।
भरे कुलाचे
घूम-घूम कर, मानव मन चन्दन वन में ।।
वही सुखद
उल्लास बरसता, रिसता प्रेम समादर में ।
मधुर मिलन को
आतुर नदियाँ, सदा समाती सागर में ।।
कली फूल पर
भँवरे डोले, बिछी सेज मृदु फूलों की ।
नेह निमंत्रण देता उपवन, बाट जोहते झूलों की ।।
राम-भरत सा
मधुर मिलन हो, प्रेम परस्पर दादर में ।
मधुर मिलन को
आतुर नदियाँ, सदा समाती सागर में ।।
55. बनता वही
विवेकानंद
शिक्षा पाकर
बाँटे जग को, बनता वही विवेकानन्द ।
अँधियारे में
दीप जलाये, वही तमस का काटे फंद ।।
लक्ष्य प्राप्ति को
शिक्षक ही तो,बतलाता है जग को राह।
प्यास देखता
जिनमें शिक्षक,करे उन्हीं की वह परवाह ।।
ध्यान-मग्न हो
करे ग्रहण जो, कौन करे उसको पाबंद ।
शिक्षा पाकर
बाँटे जग को, बनता वही विवेकानन्द ।।
नत-मस्तक हों
गुरु चरणों में,बने उन्ही का सदा भविष्य ।
स्वतः प्रेरणा पाकर
सीखें, एकलव्य के जैसे शिष्य ।।
मन केंद्रित
कर लक्ष्य साधते, वही प्राप्त करते मकरंद ।
शिक्षा पाकर
बाँटे जग को, बनता वही विवेकानन्द ।।
धरा सिखाती
धैर्य रखे हम, सूर्य-चन्द्र से सीखें कर्म ।
कर्म-साधना को
गीता में, कृष्ण बताते उत्तम धर्म ।।
मर्यादित लेखन
जो करता, वही श्रेष्ठ रचता है छन्द ।
शिक्षा पाकर
बाँटे जग को, बनता वही विवेकानन्द ।।
56. मिलकर फसल
उगाते
पति-पत्नी
जुटकर खेतों में, मिलकर फसल उगाते ।
मेघ बरसते तभी
खेत में, लिए फावड़ा आते ।।
सावन-भादौ में मेघों से, रिमझिम बरसे
पानी ।
छतरी लेकर आ
खेतों में, करते पूर्ण कहानी ।।
घटा-टोप छायें
बादल से, कृषक नहीं घबराते ।
मेघ बरसते तभी
खेत में, लिए फावड़ा आते ।।
देश किसानों
का ये भारत, ऐसे नहीं कहाता ।
पेट-पालते ये
जनता का, तभी अन्न के दाता ।।
खेत जोतने
खेतों में श्रम, करते नहीं अघाते ।
मेघ बरसते तभी
खेत में, लिए फावड़ा आते ।।
लहलहाती फसलों
को देखे, फूले नहीं समाते ।
तीज और
त्योहार मनाते, गीत खुशी के गाते ।।
नई फसल के आने
पर ही, वृक्ष तले हरियाते ।
मेघ बरसते तभी
खेत में, लिए फावड़ा आते ।।
57. जाते वे ही
मधुशाला
इज्जत की
खातिर ही मानव, करे रात में मुँह काला ।
रात अँधेरे
जाम गटकने, जाते वे ही मधुशाला ।।
छुपकर करते काम गलत
जो, कृत्य उजागर हो सारे ।
दीन-हीन तो
पकड़े जाते, सक्षम के वारे- न्यारे ।।
करे बुराई अगर
उजागर, उनके मुँह जड़ते ताला ।
इज्जत की
खातिर ही मानव, करे रात में मुँह काला ।।
मुख में राम
बगल में काँटे, वार करें छुपकर वे ही ।
गंगाजल बोतल
में भरकर, पीते जाम सदा देही ।।
बद अच्छा
बदनाम बुरा यह, बोलो किसने कह डाला ।
इज्जत की
खातिर ही मानव, करे रात में मुँह काला ।।
लोक-लाज से
डरते वे सब, अपने सत्य छुपाते हैं ।
नहीं बुराई
छोड़ सके जो, छद्म-वेष में आते हैं ।।
सत्य मार्ग पर
अडिग रहें वे, पीते हैं विष का प्याला ।
इज्जत की
खातिर ही मानव, करे रात में मुँह काला ।।
58. करें नित्य हम
योग
योग पुरातन आज
जगत में, बना देश की शान ।
सभी विश्व में
करें योग अब, रहें नहीं अनजान ।।
बने योग से हम बलशाली, स्वस्थ बनें
तन प्राण
नियमित योगासन
से हमको, मिले कष्ट से त्राण।।
योग साधना
अपनाकर के, नित्य करें हम योग,
योग क्रिया के
ऋषियों ने ही, निर्मित किये विधान ।
सभी विश्व में
करें योग अब, रहें नहीं अनजान ।।
नेति-क्रिया
से दूर करें हम, तन के सभी विकार ।
ध्यान-मग्न
आसन आराधन, करते शुद्ध विचार ।।
स्वस्थ रहे
अपना ये जीवन, रहे न तन में रोग,
यही योग
विद्या भारत की, माने विश्व सुजान ।।
सभी विश्व में
करें योग अब, रहें नहीं अनजान ।।
योग-साधना
विज्ञ मानते, एक सफल विज्ञान ।
ऋषियों ने ही
योग विधा का, दिया हमें है ज्ञान ।।
विश्व पटल पर
आज सभी ने, किया योग स्वीकार,
वैद्य
चिकित्सक सारे इससे, करते रोग निदान ।
सभी विश्व में
करें योग अब, रहें नहीं अनजान ।।
59. अमृत उत्सव
सभी मनाएँ
मन प्रसन्न है
तन उत्फुल्लित, अमृत उत्सव सभी मनाएँ
घर-घर फहरे राष्ट्र
तिरंगा, झण्डा ऊँचा सब फहराएँ ।।
मन की गलियों के
उजियारे, कुहुक रहे हैं प्यारे प्यारे
सावन के बदरा
से बगिया, सुंदरतम सा रूप निखारे ।।
यहाँ धरा को
सभी सँवारे, वृक्ष हरा तन-मन हर्षाएँ ।
मन प्रसन्न है
तन उत्फुल्लित, अमृत उत्सव सभी मनाएँ ।।
रहे अखंडित
भारत भू अब, हम सबकी ये जिम्मेदारी ।
शोणित से
सींचा है इसको, अब उत्सव की हो तैयारी ।।
राग द्वेष को
त्याग यहाँ पर, प्यार हृदय में हम बरसाएँ।
मन प्रसन्न है
तन उत्फुल्लित, अमृत उत्सव सभी मनाएँ ।।
सर्व-धर्म
सद्भाव यहाँ का, अखिल विश्व में सबसे न्यारा ।
सबसे सुंदर
सबसे प्यारा, ये है भारत देश हमारा ।।
आजादी-उत्सव
में सबके, खुशियों से मन भर जाएँ ।
मन प्रसन्न है
तन उत्फुल्लित, अमृत उत्सव सभी मनाएँ।।
60. बना देश की
शान तिरंगा
जन गण मन का
गान तिरंगा, हर सैनिक की जान तिरंगा ।
हम सबका
अभिमान तिरंगा । बना देश की शान तिरंगा ।।
घर-घर फहरे आज
तिरंगा, हमको ये प्राणों से प्यारा ।
जब तक सूरज
चाँद रहेंगे, झण्डा ऊँचा रहें हमारा ।।
सकल विश्व में
बना हुआ ये, भारत की पहचान तिरंगा ।
आजादी पाकर
भारत में, बना देश की शान तिरंगा ।।
आजादी का अमृत
उत्सव, हम सबको आज मनाना है ।
राष्ट तिरंगा
सजधज लहरे, घर घर में ही फहराना है ।।
लोकतंत्र के
जग में प्रहरी, भारत का प्रतिमान तिरंगा ।
प्रजातंत्र के
शासन का ये, बना देश की शान तिरंगा ।।
शौर्य चक्र
कहता है प्रतिपल, पार करे हम सारे दरिया ।
हरा रंग है
हरियाली का, बलिदानों का रंग केसरिया ।।
श्वेत रंग से
अमन चैन का, है प्रतीक गतिमान तिरंगा ।
प्रतिमान गढ़े
नित विकास के, बना देश की शान तिरंगा ।।
61. बाढ़ निगोड़ी आई
झरें नयन से
आँसू इतने, बाढ़ निगोड़ी आई ।
फूट-फूट कर
रोते बोले, खूब तबाही लाई ।।
हुई गर्जना इतनी भारी, सबका मन दहलाया ।
मेघदूत ने
बिजली चमका, हम सबको चेताया ।।
टूट गए तटबंध
बाँध के, आफत ऐसी आई ।
वृक्ष उखाड़े
सड़कें तोड़ी, घोर निराशा छाई ।।
झरें नयन से
आँसू इतने, बाढ़ निगोड़ी आई ।।
नील गगन में
छाये बादल, इधर-उधर सब पसरे ।
सतरंगी सपनो
के आँचल, एक-एक कर बिखरे ।।
ठप्प हुआ जब
काम सभी का,आँख अँधेरी आई।
पुलिया टूटी
तब सत्ता ने, सेना शीघ्र बुलाई ।।
झरें नयन से
आँसू इतने, बाढ़ निगोड़ी आई ।।
राह देखती
सजनी जागे, आँखें भी पथराई ।
मार्ग रोकती
वर्षा रानी, कैसी प्रीत निभाई ।।
सौत बनी ये
वर्षा रानी, क्यों तड़पाने आई ।
उमड़ेगा सैलाब
खुशी का,अगर चले पुरवाई ।
झरें नयन से
आँसू इतने, बाढ़ निगोड़ी आई ।।
62. हमेशा हौसला रखते
सहे जो शीत
गर्मी को, न वर्षा से कभी डरते ।
नमन हे वीर
योद्धाओं, सुरक्षा देश की करते ।।
निभाए फौज ये जिम्मा,
सुरक्षित है
तभी जनता ।
करें वे देश
की रक्षा,
नही जो मौत से
डरता ।।
निभाने फर्ज
अपना ये, हमेशा हौसला रखते ।
नमन हे वीर
योद्धाओं, सुरक्षा देश की करते ।।
उगाते खेत मे
फसलें,
कड़ी जो धूप
में रहते ।
वही तो
अन्नदाता है,
सभी की भूख वे
हरते ।।
भरण-पौषण सदा
करते, उन्हें रक्षक सभी कहते ।
नमन हे वीर
योद्धाओं, सुरक्षा देश की करते ।।
अहिंसा के
पुजारी हम,
नहीं करते कभी
आहत ।
दिया सन्देश
गीता का,
बना ये विश्व
गुरु भारत ।।
दगाबाजी पड़ोसी
की, कभी हम सह नहीं सकते ।
नमन है वीर
योद्धाओं ,सुरक्षा देश की करते ।।
63. सच्चे दिल
इन्सान
गाँव-गाँव में
देखा करते, झोपड-नुमा मकान ।
वही प्रेम से
रहें निवासित, सच्चे दिल इन्सान ।।
रहते थे गुरुकुल की
कुटिया, लेने बच्चे ज्ञान ।
जहाँ पढ़ाई कर
बनते थे, ज्ञानी गुणी महान ।।
गुरुओं के
आशीष कृपा से, बने खूब विद्वान ।
वही प्रेम से रहे
निवासित, सच्चे दिल इन्सान ।।
शहर-शहर में
गगन चूमते, देख रहे आवास ।
नही दिलों में
भाई-चारा, आपस का विश्वास ।।
बँटवारा चाहे
हो घर का, करें सभी सम्मान ।
वहीँ प्रेम से
रहें निवासित, सच्चे दिल इन्सान।।
ईश अंश का वास
हृदय में, उसका हो अहसास ।
पंच-तत्व से बने
हमारे, तन का करे विकास ।।
अपने अंदर के
मंदिर को, करना आलीशान ।
वहीँ प्रेम से
रहें निवासित, सच्चे दिल इन्सान ।।
64. नेह की दरिया
दिली थी
जुड़ गया
सम्बन्ध जिस पल, तब हृदय बगिया खिली थी ।
छू सका जिस
क्षण अधर को, जा नदी सागर मिली थी ।।
आँख ओझल ईश रखता, हो नहीं जब तक
सगाई ।
चूम तुमको लग
रहा था, थी नहीं मुझसे पराई ।।
अश्क गंगा जल
सरीखा, नेह की दरिया दिली थी ।
जुड़ गया
सम्बन्ध जिस पल, तब हृदय बगिया खिली थी ।
था अनोखा
प्यार दिल में, ईश को ही किन्तु इंगित ।
राग में
अनुराग तुमसे, छद्म दिल में था तरंगित ।।
सूर्य साक्षी
प्रेम शाश्वत, सात वचनों में सिली थी ।
जुड़ गया
सम्बन्ध जिस पल, तब हृदय बगिया खिली थी ।
सर्द आतप सा
लगा था, ऊष्णता वह देह की थी ।
होठ थे उसके
गुलाबी, छाप जिनमें नेह की थी ।।
प्रेम बंधन लग
रहा था, रश्मि से खिलती लिली थी ।।
जुड़ गया
सम्बन्ध जिस पल, तब हृदय बगिया खिली थी ।
65. जग को गीता ज्ञान कराया
मध्य रात्रि
श्री कृष्ण जन्म ने, चन्द्र वंश का मान बढ़ाया ।
लेकर प्रभु ने
जन्म-जेल में, जग को गीता ज्ञान कराया ।
आँख लगी सब
द्वारपाल की, खुले जेल के ताले सारे ।
कान्हा को
वसुदेव शीघ्र ले, नन्द गाँव की ओर पधारे ।।
करने यमुना
पार कृष्ण को, सजा टोकरी उन्हें सुलाया.
कृष्ण चरण
छूकर यमुना ने,मार्ग नदी का सुगम बनाया ।
लेकर बाला
नन्द गाँव से, गोद देवकी उसे बिठाया ।।
छूट कंस के कर
से माया, बोली जन्मा काल तुम्हारा ।
घड़ा पाप का
छलक रहा है, देगा तुझको कौन सहारा ।।
लेकर गोद
यशोदा माँ ने, कान्हा कहकर उसे पुकारा
मिट्टी खाई
मुँह खुलवाया, जिसमें था संसार समाया ।
माखन चोर कहे
सब सखियाँ,नटखट कान्हा उन्हें सुहाया ।।
मोहन की छवि
भायी सबको, गोप-गोपियाँ थी बलिहारी ।
बजा बाँसुरी
रास रचाते, छवि मोहन की लगती प्यारी ।।
मार पूतना और
कालिया, सबको भय से मुक्ति दिलायी.
हृदय बसाएं
गोप गोपियाँ, वृन्दावन में रास रचाएँ ।
बने धर्म
रक्षक द्वापर में, सद्कर्मों का भान कराया ।।
66. घन वर्षा को
आतुर सारे
जलबिन मछली
तड़प रही है, किसको अपनी व्यथा सुनाएं
घन वर्षा को
आतुर सारे, स्वर्ग लोक से तुम्हें बुलाएं |
विरह तुम्हारा सह न
सकें अब, कैसे हम मन को समझाएं
तुमसे ही जीवन
प्राणी का, तुम बिन स्वागत क्या कर पाएं ।
बिछे हृदय में
पलक-पाँवड़े, किस विध तुमको यहाँ रिझाएं
ताल तलैया जग
के सूखे, इंद्र-देव अब कृपा दिखाएं ।।
कमी रही क्या
स्वागत में जो, तुम इतने यूँ रूठ रहे हो ।
कहर ढाया
उतरा-खण्ड में, ऐसे निष्ठुर बन बैठे हो ?
जल बिन तड़पे
जग के प्राणी, कैसे उनको आज बचाएं।
बरसो धूम
धडाके से अब, स्वागत को सब आतुर पाएं |
मना मना कर थक
बैठे अब, हुई खता क्या सजा दिलाएं ।
बरसो तब सब
ठंडक पाएं, प्रचण्ड धूप से जल न जाएं ।।
स्वर्गलोक के
राजा तुम तो, तुमसे ही जग को आशाएं ।
बरसो अब तो
जल्दी आकर, पशु-पक्षी सब राहत पाएं ।।
67. बसा रहा क्यों
जंगल राज
छीन रहा क्यों
मानव कल को, बसा रहा क्यों जंगल राज
मानव हित में
लिखता यह मै,ग्रहण इसे अब करलो आज |
वृक्ष काटकर
शहर बसातें, पर्वत पर भी करे प्रहार
जलधारा फिर
कहाँ बहेगी,जल ही जीवन का आधार
कन्या को अब
मार कोख में, जीवन को क्यों करे उजाड़,
अपने मद में
भूल गया क्यों, अपने कल को रहा बिगाड़ |
ब्याह करेगा
किससे बेटा, बिना बहूँ कैसा परिवार,
अभी समय है
समझों इसको, तभी बचेगा ये घरबार |
वंश वृद्धि की
करें चाहना,फिर क्यों रखता गन्दी सोच
ह्त्या कर
कन्या भ्रूणों की, मार रहा क्यों बिटिया नोच |
कोसेगी फिर
अगली पीढ़ी, छोड़ अभी से अत्याचार,
नारी होती घर
की लक्ष्मी, जग जीवन की वह आधार |
पञ्च तत्व से
सबका तन है,जात-पात में क्यों विश्वास,
एक खून है एक
पसीना, ईश अंश का सब में वास |
कलियुग द्वापर
सतयुग त्रेता, चला सदा ही यह संसार,
अटल सत्य यह
सभी युगों का,नारी से जग का संचार |
68. वही ताप को सहता देही
भीतर मन में जो अफसाना, खुलकर उसे उजागर करना ।
क्षण भंगुर ये जीवन अपना,क्यों फिर बेबस होकर रहना।।
करता है संघर्ष निरंतर, वही ताप को सहता देही ।
नहीं भरोसा जिन्हें स्वयं पर, लाचारी में जीते वे ही ।।
बेबस होकर इस दुनिया में, जीने से अच्छा है मरना ।
क्षणभंगुर ये जीवन अपना,क्यों फिर बेबस होकर रहना।।
सच्चाई के पथ पर चलते, हिम्मत से वे आगे बढ़ते ।
जिनके मन में रहें हौसला, वहीं धैर्य रख सीढ़ी चढ़ते ।।
करना हो साकार स्वप्न तो, अंधियारे से हमको लड़ना ।
क्षण भंगुर ये जीवन अपना,क्यों फिर बेबस होकर रहना।।
यदि खुद को लाचार समझते, जो स्वतंत्रता के दीवाने ।
आजादी फिर कौन दिलाता, लड़ सकते क्या सीना ताने?
नही विवश होकर के बैठे, आज यही युवकों से कहना ।
क्षण भंगुर ये जीवन अपना,क्यों फिर बेबस होकर रहना।।
दुर्योधन
ने विवश किया तो, पाण्डव दल ने किया सामना।
स्वाभिमान
से जीवन जीते,
दूषित रखते
नहीं भावना ।।
नहीं
बिखरता उनका सपना, मार वक्त की रहते सहना ।
क्षण भंगुर
ये जीवन अपना,क्यों फिर बेबस होकर रहना।।
69. खुशी मिले
व्यवहार में
खुशियों का अहसास करे तो, खुशी मिले व्यवहार में ।
खुशी छुपी है अंतर्मन में, ढूंढ़ रहे बाजार में ।।
उद्विग्न हृदय को करदे शीतल, तृष्णा कब वहाँ ठहरे ।
करे कार्य उल्लास भरे मन, खुशियों पर कहाँ पहरे ।।
कहीं सुखों की सौगाते तो, छिपा हर्ष कहीं दुख में,
खुशियाँ होती कुछ को प्यारी, आगन्तुक सत्कार में ।
खुशियों का अहसास करे तो, खुशी मिले व्यवहार में ।
बिन आदर भावों के खुशियाँ, मिले न व्यंजन भोज में।
धन-वैभव सम्मान लुटाते, व्यर्थ खुशी की खोज में ।।
सपन सलौने भटक रहे मन, ढूंढें नकली प्यार ही,
रूप-रंग के आकर्षण में, फँसते व्यर्थ करार में ।।
खुशियों का अहसास करे तो, खुशी मिले व्यवहार में ।।
कभी धूप लगती है तीखी, कभी सुहाना मौसम हो ।
धूप-छाँव की यहाँ जिंदगी, सुखों-दुखो का संगम हो ।।
अमृत उत्सव आजादी का, मिला हमें अभिसार में ।
मानव मन में रहे तृप्ति तो, उमड़े खुशियाँ ज्वार में ।।
खुशियों का अहसास करे तो, खुशी मिले व्यवहार में ।।
70. अहो भाग्य लेकर आयी
वृन्दावन जिसने भी देखा, उस दिल में खुशियाँ छायी ।
चप्पा-चप्पा पावन धरती, कृष्ण भक्त के मन भायी ।।
सदा प्यार का मौसम रहता, वृन्दावन की गलियों में ।
नहीं इंच भर घटा प्यार है, बढा बहुत इन सदियों में ।।
गली-गली में दर्शन होते, घर सब मंदिर लगते हैं ।
प्रेम-प्यार के दीप वहाँ पर, गली-गली में जलते हैं ।।
भक्ति-भाव के खिले रंग में, सत्संगी टोली आयी ।
वृन्दावन जिसने भी देखा, उस दिल में खुशियाँ छायी ।।
जिसको जीना शांत-भाव से, वृन्दावन जा बस जाये ।
बना प्रेम का मंदिर ऐसा, सन्त-समागम मन भाये ।।
जितनी लीला करी कृष्ण ने, प्रेम-निकेतन दिखलाये ।
गाय चराते, लीला करते, मधुरम झाँकी दिख जाये ।।
चप्पा-चप्पा पावन धरती, भक्तों के मन को भायी ।
वृन्दावन जिसने भी देखा, उस दिल में खुशियाँ छायी ।।
कृष्ण-राधिका प्रेम अनूठा, लीला उनकी न्यारी है ।
सन्त कृपालू द्वारा निर्मित, झाँकी कितनी प्यारी है ।।
ब्रज प्रदेश की सभी भूमि में, लीलाएं देखी जाती हैं।
मथुरा गोवर्द्धन गोकुल भू, बरबस हमें बुलाती हैं ।।
गोप-गोपियाँ कृष्ण-भक्त की,अहो भाग्य लेकर आयी ।
वृन्दावन जिसने भी देखा, उस दिल में खुशियाँ छायी ।।
71. श्रम करते भरपूर
दिवस मनाते रोज यहाँ पर,श्रमिक दिवस भी मना लिया।
लिखी खूब रचनाएँ हमने, किस पर ये अहसान किया ।।
मजदूरों को नहीं आज भी, मिलता पूरा काम ।
पूरा करते काम श्रमिक पर, उचित न मिलता दाम ।।
ताज महल बनवाया जिसने, काटे उनके हाथ ।
नहीं अधिक वे फिर जी पाए, बच्चे हुए अनाथ ।।
कभी न्याय क्या मिला श्रमिक को, इस पर किसने ध्यान दिया ।
लिखी खूब रचनाएँ हमने, किस पर ये अहसान किया ।।
बजरी,पत्थर ईंट उठाकर, ख़ूब किया निर्माण ।
खड़े भवन सब गिना रहे हैं, श्रम के सभी प्रमाण।।
धनिक सभी महलो में रहते,श्रमिक नींव की ईंट।
फुटपाथों पर जीवन काटें, चुभे भले कंक्रीट ।।
व्यथा-वेदना में भी जिसने, श्रम बिन जीवन नहीं जिया ।
लिखी खूब रचनाएँ हमने, किस पर ये अहसान किया ।।
शस्य श्यामला धरा जहाँ पर, सो जाते मजदूर ।
गर्मी वर्षा शीत सभी में, श्रम करते भरपूर ।।
फिर भी भूखे सोते बच्चें, मुश्किल रोटी दाल ।
मजदूरों की रोटी छीने, ठेकेदार दलाल ।।
जीवन का हर जहर श्रमिक ने,हँसते-हँसते सदा पिया।
लिखी खूब रचनाएँ हमने, किस पर ये अहसान किया ।।
72. कुदरत से नाता भारी
सूर्य देव से सभी ग्रहों की, सृजित हुई रचना सारी ।
सागर-जल तप मेघ बनाये, ये सागर की दातारी ।।
सागर तट पर आकर बैठे, लड़का भी बैठा प्यारा ।
भरी दुपहरी सूर्य देखकर, चमके आँखों का तारा ।।
पिता-पुत्र से लगते दोनों, अँखियों से करते बातें ।
प्रेम भाव दिखता है इनमें, सार्थक ये रिश्ते नाते ।।
नदी-नाव संजोग यही है, कैसी ये दुनियादारी ।
सूर्य देव से सभी ग्रहों की, सृजित हुई रचना सारी ।।
सूरज का मन ताप दिखाता, जैसे खोता हो आपा ।
सागर की लहरों को देखे, पर इनको किसने नापा ।।
घिर घिर आते हैं जब बादल, कभी अँधेरा हो जाता।
कभी देर तक बैठे बैठे, उमड़े लहरों से नाता ।।
सागर की पूजा करके ही, हुए राम भी आभारी ।
सूर्य देव से सभी ग्रहों की, सृजित हुई रचना सारी ।।
जीवन सार्थक उसका होता,पकड़ें जो श्रम की राहें ।
मिलता है आशीष उसे ही,श्रम अर्जित करना चाहें ।।
जीव जगत ये सारा पलता, भू की इसी पनाहों में ।
कथा प्रगति की लिखी यही है, जाने हम बातें सारी ।।
सूर्य चंद्रमा और मेघ का, कुदरत से नाता भारी ।
सूर्य देव से सभी ग्रहों की, सृजित हुई रचना सारी ।
73. धैर्य से डिगते नहीं
बिन पहाड़ी नीर के झरने निकल सकते नहीं ।
जो डटे तूफान में भी, धैर्य से डिगते नहीं ।।
इस हिमालय गोद से गंगा निकलकर आ गई ।
पुष्प खिलने पर धरा ये आज सुशोभित हो गई ।।
वादियों में घूमते पक्षी, लुभाते हैं हमें,
पेयजल के बाँध भी तो नीर बिन भरते नहीं।
जो डटे तूफान में भी, धैर्य से डिगते नहीं ।।
प्रभु दिखाते राह लेकिन कुछ कभी सुनते नहीं ।
कुछ सजाकर आस दिल में ध्यान पर देते नहीं ।।
कर्म-पथ चलते पथिक ही जिंदगी जीते सदा,
जो नहीं संकेत समझे वे कभी बढ़ते नहीं ।
जो डटे तूफान में भी, धैर्य से डिगते नहीं ।।
ज्ञान गीता में दिखाया विश्व यदि संज्ञान ले ।
कष्ट पर चिंतन मनन से आदमी हल जान ले ।।
कर्म-पथ चलते पथिक ही जिंदगी जीते सदा,
स्वप्न शास्वत जिंदगी में हम कभी बुनते नहीं ।
जो डटे तूफान में भी, धैर्य से डिगते नहीं ।।
74. दिल में ज्योति जलाना है
मुश्किल होता अब तो देखो, बच्चों को समझाना है।
सुने धैर्य से उनकी बातें, क्या उनको बतलाना है ।।
शिक्षा की तकनीक समझ ले, तब आगे कुछ कर पाये ।
कर्णधार ये भारत माँ के, शिक्षा इनको दिलवाये ।।
विकसित होती आज पढ़ाई, नव प्रयोग होते दिन-दिन,
घिसी-पिटी बातें सब छोड़ो, बदला आज जमाना है ।
सुने धैर्य से उनकी बातें, क्या उनको बतलाना है ।।
सुमन खिलेंगे घर आँगन में, डालें जब हम खाद सही ।
रुचि जिसमें भी हो बच्चे की, पढ़ना उनको आज वही ।।
ठहर जिंदगी जब भी जाये, तभी नई शुरुआत करें,
मंजिल से आगे भी मंजिल, नियमित बढ़ते जाना है ।
सुने धैर्य से उनकी बातें, क्या उनको बतलाना है ।।
हरा भरा आँगन महकेगा, खुशबू को फैलाना है ।
रही लालसा जो भी अपनी, दिल से उसे हटाना है ।
कभी-कभी बातें सब दिल की, आ जाती है आँखों में,
गम को हल्का करना हो तो, आँसू को छलकाना है ।
सुने धैर्य से उनकी बातें, क्या उनको बतलाना है ।।
राष्ट्र भावना विकसित करने, सबको ही इतिहास पढ़ाना ।
भारत की गौरव गाथा का, सब बच्चों को भान कराना ।।
'लक्ष्मण' भीतर बसा
मिनर्वा, हृदय उजाला तब होगा,
सरस्वती की पूजा करके, दिल में ज्योति जलाना है ।।
सुने धैर्य से उनकी बातें, क्या उनको बतलाना है ।।
75. चरणों शीश झुकाता
प्रथम पूज्य हे विघ्न-विनाशक, रिद्धि-सिद्धि के तुम दाता ।
दयावंत हे बुद्धि प्रदायक, जन-जन के भाग्य विधाता ।।
प्रथम पूज्य को प्रथम निमंत्रण, नत मस्तक हम आराधें ।
होते सबके काम सफल जब, गणपति आकर सब साधें ।।
रिद्धि-सिद्धी के संग पधारो, शुभ कर्ता सुख के स्वामी ।
शास्त्र रचेता गणपति बप्पा, वेद-शास्त्र के है ज्ञाता ।।
प्रथम पूज्य हे विघ्न-विनाशक, रिद्धि-सिद्धि के तुम दाता ।
दुख-हर्ता सुख-कर्ता स्वामी, सबका मङ्गल करते हो ।
शम्भू सुत गौरी के नंदन, कष्ट सभी के हरते हो ।।
शूप-कर्ण रक्षार्थ उठाओ, दुख में अब जनता भारी ।
धर्म-धरा पर संकट छाया, धर्म विरोधी हड़काता ।।
प्रथम पूज्य हे विघ्न-विनाशक, रिद्धि-सिद्धि के तुम दाता ।
सकल काज सुधारो आकर, गणपति चार भुजाधारी ।
आस लगाये बैठे हैं सब, आस-तुम्ही से है सारी ।।
दूर करो सब कष्ट जगत के, अंतर्यामी तुम जग के ।
हे प्रथमेश्वर बुद्धि विनायक, मैं चरणों शीश झुकाता ।।
76. कहे उन्हीं को जगत सुजान
पढा-लिखाकर राह दिखाये, देते हमको समुचित ज्ञान ।
शिक्षा देकर योग्य बनाये, कहे उन्हीं को जगत सुजान ।।
मान बढाते हैं शिक्षक का, दिवस मनाना साक्ष्य प्रमाण ।
राधा कृष्णन से शिक्षक ही, करें राष्ट्र का सब निर्माण ।।
दृष्टि दार्शनिक पाकर जिसने, जग में नाम कमाया खूब,
भरा कोष अक्षय विद्या का, बने तभी शिक्षक विद्वान ।
शिक्षा देकर योग्य बनाये, कहे उन्हीं को जगत सुजान ।।
योग्य बनाते जो अनघड़ को, विद्या का देकर के घोल ।
शिक्षक को कहते निर्माता, शिक्षा देते जो अनमोल ।।
वही सिखाते सब बच्चों को, अनुशासन का सच्चा पाठ,
नयी सोच से करे कल्पना, उन्नत होता तब विज्ञान ।
शिक्षा देकर योग्य बनाये, कहे उन्हीं को जगत सुजान ।।
नैतिकता का पाठ पढ़ाये, शिक्षक होता वही महान ।
बोध गम्य शिक्षा देने से, शिशु का बनता सरल रुझान ।।
अपने जैसा निपुण बनाकर, शिक्षक होते बड़े प्रसन्न
ऐसे शिक्षक का ही देखो, पूरा राष्ट्र करे सम्मान ।
शिक्षा देकर योग्य बनाये, कहे उन्हीं को जगत सुजान ।।
77.हिन्दी से भारत का मंगल
कोई और नहीं भाषा है, जो हिन्दी जैसी हो समतल ।
हिन्दी से भारत का मङ्गल, हिन्दी ही हम बोले हरपल ।।
हिन्दी में ही मधुर तान है ।
भारत माँ की यही शान है ।
और नहीं कोई भाषा है ।
जिसका इतना कही मान है।।
देवनागरी लिपि अपनाकर,भरे भाव है इसमें निश्छल।
हिंदी से भारत का मङ्गल, हिन्दी ही हम बोले हरपल ।।
उमड़ रहे वर्षा के बादल ।
नहीं सभी में होता पर जल ।
गूंज रही नदियों तक हिन्दी ।
बोल रही गंगा भी कलकल ।
बाग-बगीचे और पेड़ पर, बोल रही हिन्दी भी कोयल ।
हिन्दी से भारत का मङ्गल, हिन्दी ही हम बोले हरपल ।।
हिन्दी में पशु-पक्षी चहके ।
गूंज सुने हम जंगल-जंगल।।
विस्तृत शब्द-कोष हिन्दी का ।
भविष्य इसका है अति उज्ज्वल।।
जन गण मन अधिनायक की भी,विश्व सुने हिन्दी में हलचल ।।
हिन्दी से भारत का मङ्गल, हिन्दी ही हम बोलें हरपल ।।
78. माने उसको जगत सुजान
पढ़ा-लिखाकर राह दिखाये, देते हमको समुचित ज्ञान ।
शिक्षा देकर योग्य बनाये, माने उसको जगत सुजान ।।
मान बढाते हैं शिक्षक का, दिवस मनाना साक्ष्य प्रमाण ।
राधा कृष्णन से शिक्षक ही, करें राष्ट्र का सब निर्माण ।।
दृष्टि दार्शनिक पाकर जिसने, जग में नाम कमाया खूब,
भरा कोष अक्षय विद्या का, बने तभी शिक्षक विद्वान ।
शिक्षा देकर योग्य बनाये, कहे उन्हीं को जगत सुजान ।।
योग्य बनाते जो अनघड़ को, विद्या का देकर के घोल ।
शिक्षक को कहते निर्माता, शिक्षा देते जो अनमोल ।।
वही सिखाते सब बच्चों को, अनुशासन का सच्चा पाठ,
नयी सोच से करे कल्पना, उन्नत होता तब विज्ञान ।
शिक्षा देकर योग्य बनाये, कहे उन्हीं को जगत सुजान ।।
नैतिकता का पाठ पढ़ाये, शिक्षक होता वही महान ।
बोध गम्य शिक्षा देने से, शिशु का बनता सरल रुझान ।।
अपने जैसा निपुण बनाकर, शिक्षक होते बड़े प्रसन्न
ऐसे शिक्षक का ही देखो, पूरा राष्ट्र करे सम्मान ।
शिक्षा देकर योग्य बनाये, कहे उन्हीं को जगत सुजान ।।
79. कभी न भूले कृत्य
भले चाकरी करे न अजगर, और न पंछी काम ।
सोच समझकर कहे मलूका, सबके दाता राम ।।
खेत भले हो अति उपजाऊ, करता काम किसान ।
बिना खाद पानी खेतों में, कहाँ उपजता धान ।।
श्रम से सिंचित खेती से ही, फसले लें आकार,
तप के प्रतिफल देते आये, सदा खुशी के दाम ।
सोच समझकर कहे मलूका, सबके दाता राम ।।
तपती दोपहरी में चलते, जलते जिनके पाँव ।
जीवन की पगडण्डी देती, उन्हें पेड़ की छाँव ।।
भरे नीर सागर से बादल, सहे धूप भरपूर,
जीवन की गीता दुहराते, रहे भाव निष्काम ।
सोच समझकर कहे मलूका, सबके दाता राम ।।
तर्क-वितर्क विपुल मानस में, करे कभी लाचार ।
धीरज धरकर बढ़े लक्ष्य को, उसका ही संसार ।।
तिनका-तिनका जोड़े पंछी, कभी न भूले कृत्य,
सद्कर्मों के किये बिना क्या, मिले ईश का धाम ।
सोच समझकर कहे मलूका, सबके दाता राम ।।
80. असुरों का संहार किया
शक्ति स्वरूपा ने ही जग में, जन-जन का उद्धार किया ।
नौ स्वरूप ले आदि शक्ति ने, असुरों का संहार किया ।।
मधु-कैटभ हो या महिषासुर, सबको था अभिमान बड़ा ।
ज्ञानी ध्यानी रावण को भी, होता रहा गुमान बड़ा ।।
मस्तक अर्पण कर रावण भी, शिव शंकर का भक्त बना,
पर अभिमानी ने ही प्रभु को, लड़ने को लाचार किया ।
शक्ति स्वरूपा ने ही जग में, जन-जन का उद्धार किया ।।
इसी दिवस को दुष्ट दलन कर, भू का भार उतारा था ।
रामचन्द्र ने दशमी को ही, बाण छोड़ कर मारा था ।।
विजय दिवस के नाम तभी से, हम सब पर्व मनाते हैं,
नगर अयोध्या में जन-जन ने, हर्षित हो सत्कार किया ।
शक्ति स्वरूपा ने ही जग में, जन-जन का उद्धार किया ।।
किन्तु आज फिर अत्याचारी, बढ़ें खूब सारे जग में ।
भीष्म पितामह मौन धारते, भृष्टाचार बढा रग में ।।
नैतिकता का पाठ पढायें, ज्ञान मिले कुछ संस्कारी ।
शिक्षा ले हम इन पर्वो से,अबतक कहाँ विचार किया ।।
शक्ति स्वरूपा ने ही जग में, जन-जन का उद्धार किया ।।
81. हुई विकसित कहानी है
सुगम भाषा लगे हिन्दी, सभी कहते जुबानी है ।
बने अब राष्ट्र-भाषा यह, हुई विकसित कहानी है ।
बने लय ताल सुर इसमें, लिखें बोलें इसे सारे ।
बिहारी और तुलसी ने, रचे दोहे सभी प्यारे ।।
पुरोधा लिख रहे इसमें, भरे भंडार नित इसका -
यही रसखान की हिन्दी, कथा इसकी पुरानी है।
बने अब राष्ट्र-भाषा यह, हुई विकसित कहानी है ।।
यहाँ संस्कृत रही भाषा, भरा साहित्य है जिसमें ।
रचे हैं छंद कवियों ने, मनोहर गीत है इसमें ।
हजारों गीत सब फिल्मी,करे इस बात को पुख्ता -
यही विज्ञान सम्मत है, इसी की लय सुहानी है ।
बने अब राष्ट्र-भाषा यह, हुई विकसित कहानी है ।।
सजाकर भाव का चन्दन, करे इसका सभी वन्दन ।
विधाओं से सजी क्यारी, सजाते काव्य का नंदन ।।
सभी को जान से प्यारी, बसी सबके दिलों में है -
बहुत ही पावनी हिंदी, जगत शोभा बढ़ानी है ।
बने अब राष्ट्र-भाषा यह, हुई विकसित कहानी है ।।
82.विजय पताका फहरें
विजय हमेशा मिलती उसको, जिसको मन में होती आस ।
विजय पताका फहरे उसकी, दृढ़ता से जो करें प्रयास ।।
एकलव्य सी जिसमें दृढ़ता, समझो जीत उसी के द्वार ।
मन में जीते जीत बताते, मन के हारे मानो हार ।।
अगर लक्ष्य कर ले निर्धारित, तभी लक्ष्य पर रहता ध्यान।
अर्जुन जैसी मिले सफलता, बढ़ता जाता तब विश्वास ।।
अपनी करनी पार उतरनी, यहीं सोच खुद करते काम ।
यत्न स्वयं जो करें धैर्य रख, वहीं लक्ष्य को दें अंजाम ।।
सर्वश्रेष्ठ देना ही मकसद, नहीं देखता वह परिणाम ।
नहीं भाग्य के रहें भरोसे, करता रहता सतत विकास ।।
शूल बिछे पथ पर जो चलता, बढ़ने को करता संघर्ष ।
जब पहुँचे गंतव्य जगह पर, मन में होता भारी हर्ष ।।
कर्म बोध का भान जिसे हो,कभी न डिगते उसके पाँव ।
जीते जो अपने बल बूते, उसके मन होता उल्लास ।।
हरीतिमा चहुँ ओर
अपनी बात
कुछ अपने
भावों को लय बद्ध तरीके से प्रस्तुत करते हैं जो कविता कहलाती है । जब पंक्तियो
में यति, गति, लय, सुर ताल में लयात्मकता
लिए काव्य होता है तो वह किसी छंदानुशासन मे लिपि बद्ध होता है । आचार्य विश्वनाथ
के शब्दों में "वाक्यं रसात्मकम काव्यं" । जन साधारण अपने सुख-दुख, हर्ष-विषाद, उत्साह-उमंग, जय-पराजय, संघर्ष आदि की अभिव्यक्ति काव्य की सर्व
लोकप्रिय विधा गीत के माध्यम से करता है, जो कई प्रकार
के रस में अभिव्यक्त किये जाते हैं जिनमें शृंगार, हास्य, करुण, वीर, रौद्र, शांत, विभत्स, वात्सल्य और भक्ति रस प्रमुख है । हमारे सोलह
संस्कार, ऋतुओं, उत्सवों, त्योहारों में गाये जाने वाले गीत भारतीय
जीवन के अभिन्न अंग है । कवि नीरज ने कहा है "आयु है जितनी समय की गीत की
उतनी उमर है।।
गीत के दो भाग
होते है स्थाई/ध्रुवपद और अंतरें । गीत में ध्रुवपद की एक पंक्ति को अंतरें की
पूरक पँक्ति के साथ दोहराते है जबकि राष्ट्रगान में यह बन्धन नही होता । गीत के
अंतर्गत एक विशिष्ट भाव या संवेदना की तीव्र अनुभूति जो संगीतमयता व गेयता के साथ
सम्यक निर्वहन होता है, को गीत का मूल तत्व कहा जा सकता है । समग्र
रूप से कहा जाय तो गेयता, संगीतात्मकता, एकरुपता, और संक्षिप्ति
गीत के प्रमुख लक्षण कहे जा सकते है । गीत में कोमल स्वर के साथ भावों का स्पंदन
प्राण तत्व है जिसके बिना गीत निष्प्राण हो जाता है । अर्थात गेयता गीत की
अनिवार्य शर्त है ।श्रेष्ठतम छंदाधारित गीत में लय स्वतः बैठती चली जाती है ।
प्रवृत्ति के
आधार पर मोठे रूप में गीत को 1. छायावादी, प्रगतिवादी और
नवगीत में विभाजित किया जा सकता है । 60वें दशक में कविता के रूप में नवगीत का
प्रादुर्भाव हुआ । निराला अपनी रचना में संकेत करते कहते है "नवगीत, नवलय, ताल, छन्द, नव । इस
प्रकार नये प्रतीक, बिम्ब और लोक जीवन से संसक्ति नवगीत की
विशेषताएं कही जा सकती है ।
अनेक प्रख्यात
कवियों, गीतकारों यथा जयशंकर प्रसाद, मैथिली शरण गुप्त, गुप्त, निराला, रामधारी सिंह
दिनकर, सुमित्रा नन्दन पंत, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय
बच्चन, बलवीर सिंह रंग, डॉ.कुंवर बेचैन, शिव मङ्गल
सिंह सुमन, तारा प्रकाश जोशी, भरत व्यास, पण्डित
नरेंद्र शर्मा, बालकवि बैरागी, नीरज, संतोषानंद, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी,
आनंद बक्शी और
गीतकार प्रदीप आदि सैकड़ों गीतकारों ने गीत विधा को आबाद किया है जिनके गीतों को
भारतरत्न लता मंगेशकर, आशा भोंसले, लक्ष्मीकांत
प्यारे लाल और मुकेश आदि ने स्वर दिए है । आधुनिक काल में उपरोक्त के अतिरिक्त श्री
सत्यनारायण सत्तन, सोमठाकुर, पण्डित सुरेश
नीरव, राजकुमार रंजन, आचार्य ओम नीरव, संजीव वर्मा
सलिल, आदि बहुत से गीतकार छंदाधारित गीत सृजित कर महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं ।
वैसे तो मेरे
प्रथम दोहा काव्य संग्रह में 8-10 छंदाधारित गीत वर्ष 2016 में प्रकाशित
हो चुके है । किन्तु 101 गीतों का गीत संग्रह संग्रह "मावस रात
उजाली" मेरा प्रथम गीत संग्रह है जो मार्च, 2022 में प्रकाशित
हुआ है ।
मेरा अब दूसरा
गीत संग्रह "हरीतिमा चहुँ ओर" की श्रेष्ठता का आँकलन पुरोधा साहित्य
मनीषियों और सुधि पाठकों के हाथों में सुरक्षित है । आशा सभी स्नेह और प्रतिक्रिया
के साथ सुझावों से अवगत कराकर कृतज्ञ करेंगे । इति शुभम !
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