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रविवार, 11 दिसंबर 2022

दोहा, शिव, राम, लघुकथा, गीत, दृष्टान्त अलंकार, नवगीत,

दोहा सलिला
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राम लोक मंगल करें, सिया लोक कल्याण।
सिया-राम मिल फूँकते, जनगण-मन में प्राण।।
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श्रद्धा शिवा ह्रदय बसें, शिव विश्वास अनंत।
मिले शिवा-शिव आस हर, करते पूर्ण दिगंत।।
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निज अंत: सुख हेतु ही, करें राम गुणगान।
शिव शंका का अंत कर, दें चाहा वरदान।।
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ताप त्रयी से मुक्ति दें, शिव जग-जनक विराट।
धरें हलाहल कंठ में, जिसकी कहीं न काट।।
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सत्य बसा उर या नहीं, प्रभु पल में लें देख।
करें कृपा हर भक्त पर, कहीं न सीमा रेख।।
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हनुमत बल के धाम हैं, तनिक नहीं अभिमान।
निगुण-सगुण श्री राम हैं, सकल गुणों की खान।।
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ऊष्म-शीत संगम परम, शिव जी जग-आराध्य।
शिवा मातु शक्ति अगम, सुगम सभी को साध्य।।
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है सरोज शत गुण लिए, कौशल अनुपम प्राप्त।
देव-देवियों को सदा, प्रिय है शदल आप्त।।
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नमन करें कैलाश को, जहाँ शिवा-शिव साथ।
बस श्रद्धा विश्वास उर, वंदन लें- नत माथ।।
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नारी महिमावान है, सकल गुणों की खान।
नदी सदृश जाती जहाँ, दे पाती वरदान।।
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वंदनीय नारी वही, जो माने मर्याद।
दंडनीय केवल तभी, जब तोड़े मर्याद।।
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अवगुण आठ न हों अगर, तब ही नारी इष्ट।
अवगुण का बाहुल्य ही, करता रहा अनिष्ट।।
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मानस में है समाहित, सत्चिंतन का सार।
मानव मूल्यों के बिना, है साहित्य असार।।
११.१२.२०२२
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शिवमय दोहे
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डिम-डिम डमरू-नाद है, शिव-तात्विक उद्घोष.
अशुभ भूल, शुभ ध्वनि सुनें, नाद अनाहद कोष.
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डमरू के दो शंकु हैं, सत्-तम का संयोग.
डोर-छोर श्वासास है, नाद वियोगित योग.
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डमरू अधर टँगा रहे, नभ-भू मध्य विचार.
निराधार-आधार हैं, शिव जी परम उदार.
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डमरू नाग त्रिशूल शशि, बाघ-चर्म रुद्राक्ष.
वृषभ गंग गणपति उमा कार्तिक भस्म शिवाक्ष.
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तेरह तत्व त्रयोदशी, कभी न भूलें भक्त.
कर प्रदोष व्रत, दोष से मुक्त, रहें अनुरक्त.
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शिव विराग-अनुराग हैं, क्रोधी परम प्रशांत.
कांता कांति अजर शिवा, नमन अमर शिव कांत.
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गौरी-काली एक हैं, गौरा-काला एक.
जो बतलाए सत्य यह्, वही राह है नेक.
११-१२-२०१९

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लघुकथा -
समरसता
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भृत्यों, सफाईकर्मियों और चौकीदारों द्वारा वेतन वृद्धि की माँग मंत्रिमंडल ने आर्थिक संसाधनों के अभाव में ठुकरा दी।
कुछ दिनों बाद जनप्रतिनिधियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की कार्य कुशलता की प्रशंसा कर अपने वेतन भत्ते कई गुना अधिक बढ़ा लिये।
अगली बैठक में अभियंताओं और प्राध्यापकों पर हो रहे व्यय को अनावश्यक मानते हुए सेवा निवृत्ति से रिक्त पदों पर नियुक्तियाँ न कर दैनिक वेतन के आधार पर कार्य कराने का निर्णय सर्व सम्मति से लिया गया और स्थापित हो गयी समरसता।
७-१२-२०१५

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दोहा दुनिया
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आलम आलमगीर की, मर्जी का मोहताज
मेरे-तेरे बीच में, उसका क्या है काज?
*
नयन मूँद देखूं उसे, जो छीने सुख-चैन
गुम हो जाता क्यों कहो, ज्यों ही खोलूँ नैन
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पल-पल बीते बरस सा, अपने लगते गैर
खुद को भूला माँगता, मन तेरी ही खैर
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साया भी अपना नहीं, दे न तिमिर में साथ
अपना जीते जी नहीं, 'सलिल' छोड़ता हाथ
*
रहे हाथ में हाथ तो, उन्नत होता माथ
खुद से आँखे चुराता, मन तू अगर न साथ
११-१२-२०१६

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गीत
समय के संतूर पर
सरगम सुहानी
बज रही.
आँख उठ-मिल-झुक अजाने
आँख से मिल
लज रही.
*
सुधि समंदर में समाई लहर सी
शांत हो, उत्ताल-घूर्मित गव्हर सी
गिरि शिखर चढ़ सर्पिणी फुंकारती-
शांत स्नेहिल सुधा पहले प्रहर सी
मगन मन मंदाकिनी
कैलाश प्रवहित
सज रही.
मुदित नभ निरखे, न कह
पाए कि कैसी
धज रही?
*
विधि-प्रकृति के अनाहद चिर रास सी
हरि-रमा के पुरातन परिहास सी
दिग्दिन्तित रवि-उषा की लालिमा
शिव-शिवा के सनातन विश्वास सी
लरजती रतनार प्रकृति
चुप कहो क्या
भज रही.
साध कोई अजानी
जिसको न श्वासा
तज रही.
*
पवन छेड़े, सिहर कलियाँ संकुचित
मेघ सीचें नेह, बेलें पल्ल्वित
उमड़ नदियाँ लड़ रहीं निज कूल से-
दमक दामिनी गरजकर होती ज्वलित
द्रोह टेरे पर न निष्ठा-
राधिका तज
ब्रज रही.
मोह-मर्यादा दुकूलों
बीच फहरित
ध्वज रही.
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अलंकार सलिला ४०
दृष्टान्त अलंकार
अलंकार दृष्टान्त को जानें, लें आनंद
*
अलंकार दृष्टान्त को, जानें-लें आनंद|
भाव बिम्ब-प्रतिबिम्ब का, पा सार्थक हो छंद||
जब पहले एक बात कहकर फिर उससे मिलती-जुलती दूसरी बात, पहली बात पहली बात के उदाहरण के रूप में कही जाये अथवा दो वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो तब वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है|
जहाँ उपमेय और उपमान दोनों ही सामान्य या दोनों ही विशेष वाक्य होते हैं और उनमें बिम्ब - प्रतिबिम्ब भाव हो तो दृष्टांत अलंकार होता है|
दृष्टान्त में दो वाक्य होते हैं, एक उपमेय वाक्य, दूसरा उपमान वाक्यदोनों का धर्म एक नहीं होता पर एक समान होता है|
उदाहरण:
१. सिव औरंगहि जिति सकै, और न राजा-राव|
हत्थी-मत्थ पर सिंह बिनु, आन न घालै घाव||
यहाँ पहले एक बात कही गयी है कि शिवाजी ही औरंगजेब को जीत सकते हैं अन्य राजा - राव नहीं| फिर उदाहरण के रूप में पहली बात से मिलती-जुलती दूसरी बात कही गयी है कि सिंह के अतिरिक्त और कोई हाथी के माथे पर घाव नहीं कर सकता|
२. सुख-दुःख के मधुर मिलन से, यह जीवन हो परिपूरन|
फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि में ओझल हो घन||
३. पगीं प्रेम नन्द लाल के, हमें न भावत भोग|
मधुप राजपद पाइ कै, भीख न माँगत लोग||
४. निरखि रूप नन्दलाल को, दृगनि रुचे नहीं आन|
तज पीयूख कोऊ करत, कटु औषधि को पान||
५. भरतहिं होय न राजमद, विधि-हरि-हर पद पाइ|
कबहुँ कि काँजी-सीकरनि, छीर-सिन्धु बिलगाइ||
६. कन-कन जोरे मन जुरै, खाबत निबरै रोग|
बूँद-बूँद तें घट भरे, टपकत रीतो होय||
७. जपत एक हरि नाम के, पातक कोटि बिलाहिं|
लघु चिंगारी एक तें, घास-ढेर जरि जाहिं||
८. सठ सुधरहिं सत संगति पाई|
पारस परसि कु-धातु सुहाई||
९. धनी गेह में श्री जाती है, कभी न जाती निर्धन-घर में|
सागर में गंगा मिलती है, कभी न मिलती सूखे सर में||
१०. स्नेह - 'सलिल' में स्नान कर, मिटता द्वेष - कलेश|
सत्संगति में कब रही, किंचित दुविधा शेष||
११. तिमिर मिटा / भास्कर मुस्कुराया / बिन उजाला / चाँद सँग चाँदनी / को करार न आया| - ताँका
टिप्पणी:
१. दृष्टान्त में अर्थान्तरन्यास की तरह सामान्य बात का विशेष बात द्वारा या विशेष बात का सामान्य बात द्वारा समर्थन नहीं होता| इसमें एक बात सामान्य और दूसरी बात विशेष न होकर दोनों बातें विशेष होती हैं|
२. दृष्टान्त में प्रतिवस्तूपमा की भाँति दोनों बातों का धर्म एक नहीं होता अपितु मिलता-जुलता होने पर भी भिन्न-भिन्न होता है|
११-१२-२०१५
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नवगीत 
ठेंगे पर कानून
*
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
जनगण - मन ने जिन्हें चुना
उनको न करें स्वीकार
कैसी सहनशीलता इनकी?
जनता दे दुत्कार
न्यायालय पर अविश्वास कर
बढ़ा रहे तकरार
चाह यही है सजा रहे
कैसे भी हो दरबार
जिसने चुना, न चिंता उसकी
जो भूखा दो जून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
सरहद पर ही नहीं
सडक पर भी फैला आतंक
ले चरखे की आड़
सँपोले मार रहे हैं डंक
जूते उठवाते औरों से
फिर भी हैं निश्शंक
भरें तिजोरी निज,जमाई की
करें देश को रंक
स्वार्थों की भट्टी में पल - पल
रहे लोक को भून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
परदेशी से करें प्रार्थना
आ, बदलो सरकार
नेताजी को बिना मौत ही
दें कागज़ पर मार
संविधान को मान द्रौपदी
चाहें चीर उतार
दु:शासन - दुर्योधन की फिर
हो अंधी सरकार
मृग मरीचिका में जीते
जैसे इन बिन सब सून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
११-१२-२०१५
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नवगीत:
जिजीविषा अंकुर की
पत्थर का भी दिल
दहला देती है
*
धरती धरती धीरज
बनी अहल्या गुमसुम
बंजर-पड़ती लोग कहें
ताने दे-देकर
सिसकी सुनता समय
मौन देता है अवसर
हरियाती है कोख
धरा हो जाती सक्षम
तब तक जलती धूप
झेलकर घाव आप
सहला लेती है
*
जग करता उपहास
मारती ताने दुनिया
पल्लव ध्यान न देते
कोशिश शाखा बढ़ती
द्वैत भुला अद्वैत राह पर
चिड़िया चढ़ती
रचती अपनी सृष्टि आप
बन अद्भुत गुनिया
हार न माने कभी
ज़िंदगी खुद को खुद
बहला लेती है
*
छाती फाड़ पत्थरों की
बहता है पानी
विद्रोहों का बीज
उठाता शीश, न झुकता
तंत्र शिला सा निठुर
लगे जब निष्ठुर चुकता
याद दिलाना तभी
जरूरी उसको नानी
जन-पीड़ा बन रोष
दिशाओं को भी तब
दहला देती है
११-१२-२०१४

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लघुकथा:
जंगल में जनतंत्र
*
जंगल में चुनाव होनेवाले थे।
मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे।- ' जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।'
' मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ। ' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया। मंत्री जी खुश हुए।
तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धांसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी' और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।
विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी।
राष्ट्रवादी मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद। '
११-१२-२०१३
***

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