दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
कथ्य, भाव, रस, शिल्प, लय, साधें कवि गुणवान.
कम न अधिक कोई तनिक, मिल कविता की जान..
*
मेघदूत के पत्र को, सके न अब तक बाँच.
पानी रहा न आँख में, किससे बोलें साँच..
ऋतुओं का आनंद लें, बाकी नहीं शऊर.
भवनों में घुस कोसते. मौसम को भरपूर..
पावस ठंडी ग्रीष्म के. फूट गये हैं भाग.
मनुज सिकोड़े नाक-भौं, कहीं नहीं अनुराग..
मन भाये हेमंत जब, प्यारा लगे बसंत.
मिले शिशिर से जो गले, उसको कहिये संत..
पौधों का रोपण करे, तरु का करे बचाव.
भू गिरि नद से खेलता, ऋषि रख बालक-भाव..
मुनि-मन कलरव सुन रचे, कलकल ध्वनिमय मंत्र.
सुन-गा किलकिल दूर हो, विहँसे प्रकृति-तंत्र..
पत्थर खा फल-फूल दे, हवा शुद्ध कर छाँव.
जो तरु सम वह देव है, शीश झुका छू पाँव..
तरु गिरि नद भू बैल के, बौरा-गौरा प्राण .
अमृत-गरल समभाव से, पचा हुए सम्प्राण..
सिया भूमि श्री राम नभ, लखन अग्नि का ताप.
भरत सलिल शत्रुघ्न हैं, वायु- जानिए आप..
नाद-थाप राधा-किशन, ग्वाल-बाल स्वर-राग.
नंद छंद, रस देवकी, जसुदा लय सुन जाग..
वृक्ष काट, गिरि खोदकर, पाट रहे तालाब.
भू कब्जाकर बेचते, दानव-दैत्य ख़राब..
पवन, धूप, भू, वृक्ष, जल, पाये हैं बिन मोल.
क्रय-विक्रय करते असुर, ओढ़े मानव खोल..
कलकल जिनका प्राण है, कलरव जिनकी जान.
वे किन्नर गुणवान हैं, गा-नाचें रस-खान..
वृक्षमित्र वानर करें, उछल-कूद दिन-रात.
हरा-भरा रख प्रकृति को, पूजें कह पितु-मात..
ऋक्ष वृक्ष-वन में बसें, करें मस्त मधुपान.
जो उलूक वे तिमिर में, देख सकें सच मान..
रहते भू की कोख में, नाग न छेड़ें आप.
क्रुद्ध हुए तो शांति तज, गरल उगल दें शाप..
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
सोमवार, 12 जुलाई 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें