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शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

रस, छंद, अलंकार सलिला १

रस, छंद, अलंकार सलिला १
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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सारांश 
रस
रस का शब्द का शब्दकोशीय अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने, दृश्य, चित्र, नाटक या नृत्य को देखने से जिस 'आनन्द' की प्रतीति होती है, उसे 'रस' कहा जाता है। आनंदानुभूति की प्रगाढ़ता के कारण ही कृष्ण की नृत्य लीला 'रास' कही गयी है। रास का अपभृंश 'रहस' है। 'रहस बधावा' का लोक पर्व ह्रदय में छिपा आनंद के प्रगटीकरण का माध्यम रहा है। श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण से जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही 'रस' है।

'रस' शब्द अनेक संदर्भों में प्रयुक्त होता है तथा प्रत्येक संदर्व में इसका अर्थ अलग–अलग होता है। पदार्थ की दृष्टि से रस का प्रयोग षडरस के रूप में तो , आयुर्वेद में शस्त्र आदि धातु के अर्थ में , भक्ति में ब्रह्मानंद के लिए तथा साहित्य के क्षेत्र में काव्य स्वाद या काव्य आनंद के लिए रस का प्रयोग होता है।

रस के भेद

इसके मुख्यतः ग्यारह भेद हैं :- १.वीभत्स, २.शृंगार, ३.करुण, ४.हास्य, ५.वीर, ६.रौद्र, ७.भयानक, ८.अद्भुत, ९.शांत, १०.वात्सल्य, और ११.भक्ति। 

छंद 

छंद का शाब्दिक अर्थ 'छाना' है। कक्षा के एक कोने में जलाई गयी अगरबत्ती की सुगंध पूरे कक्षा में छा जाती है। छंद को वेदों का चरण कहा गया है। चरण ही चलने और लक्ष्य तक पहुँचाने का माध्यम होते हैं। वेदों की रचना वैदिक छंदों में की गयी है जिन्हें जाने बिना वेदों को समजह नहीं जा सकता। तत्पर्य यह कि छंद को जाने बिना पद्य (कुछ अंश तक गद्य भी) को समझा नहीं जा सकता।  

छंद की उत्पत्ति 'ध्वनि' से हुई है। मनुष्य ही नहीं अन्य पशु-पक्षी और जीव-जंतु भी ध्वनि से प्रभावित होते हैं। हमारे कानों में शेर की दहाड़ पड़े तो हम भयभीत हो जाते हैं, सर्प की फुफकार सुनकर सिहर जाते हैं, कोयल की कूक सुनकर प्रसन्न होते हैं। ध्वनियों के उच्चार की समयावधि अलग-अलग होती है। साहित्य की दृष्टि से अल्प काल में उच्चारित की जा सकनेवाली ध्वनियों  को लघु (छोटी) तथा अपेक्षाकृत अधिक समय में उच्चारित की जा सकनेवाली ध्वनियों को गुरु (दीर्घ या बड़ी) कहा जाता है। लोककाव्य इन ध्वनियों पर ही आधारित होते हैं। ध्वनि के उच्चार की समझ ग्रहण कर लेने पर अशिक्षित भी ध्वनिखंडों की आवृत्ति कर लोकगीत रच और गा लेते हैं।   
 
ध्वनियों की आवृत्ति से लयखण्ड बनते हैं। इन्हें साहित्य में गण (रुक्न) कहा जाता है। 

अलंकार 

मनुष्य और अन्य जीव-जंतुओं या पशु-पक्षियों में प्रमुख अंतर 'चेतना' का है। चेतना से 'समझ' उत्पन्न होती है। समझ से भले-बुरे, शुभ-अशुभ की प्रतीति होती है। मनुष्य में स्वच्छ रहने, सज-सँवर कर रहने की मूल प्रवृत्ति का कारण उसकी समझ ही है। यह समझ जिनमें कम होती है, उन्हें व्यंजना में पशु-पक्षी  (जानवर, गधा या उल्लू) कह दिया जाता है। सज-सँवर कर रहने की प्रवृत्ति को 'अलंकृत' होना कहा जाता है। इसी अर्थ में आभूषण को 'अलंकार' कहा जाता है। साहित्य में भाषा की सजावट, शब्दों की जमावट, कथ्य के लालित्य-चारुत्व की वृद्धि करनेवाले अलंकार कहा जाता है। 

कथ्य के लालित्य और चारुत्व के दो कारक शब्द और अर्थ हैं। शब्द उनमें अन्तर्निहित ध्वनि के माध्यम से और अर्थ उनमें अन्तर्निहित भाव के माध्यम से भाषा के अलंकरण का कार्य संपादित करते हैं। अलंकार की भूमिका पद्य में तो है ही, गद्य में भी अनुभव की जा सकती है। शब्द के माध्यम से उत्पन्न अलंकार को 

रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी ही साहित्य को सरल (सहज ग्राह्य), सरस और सारगर्भित बनाती है। 
                                                                                                                                                                                               - क्रमश: 

         

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