लघुकथा
मोहनभोग
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'क्षमा करना प्रभु! आज भोग नहीं लगा सका.' साथ में बाँके बिहारी के दर्शन कर रहे सज्जन ने प्रणाम करते हुए कहा.
'अरे! आपने तो मेरे साथ ही मिष्ठान्न भण्डार से नैवेद्य हेतु पेड़े लिए था, कहाँ गए?' मैंने उन्हें प्रसाद देते हुए पूछा.
पेड़े लेकर मंदिर आ रहा था कि देखा कुछ लोग एक बच्चे की पिटाई कर रहे हैं और वह बिलख रहा है. मुझसे रहा नहीं गया, बच्चे को छुडाकर कारण पूछ तो हलवाई ने बताया कि वह होटल से डबल रोटी-बिस्कुट चुराकर ले जा रहा था. बच्चे ने बताया कि उसका पिता नहीं है, माँ बुखार से पीड़ित होने के कारण काम पर नहीं जा रही, घर में खाने को कुछ नहीं है, छोटी बहिन का रोना नहीं देखा गया तो वह होटल में चार घंटे से काम कर रहा है. सेठ से कुछ खाने का सामान लेकर घर दे आने को पूछा तो वह गाली देने लगा कि रात को होटल बंद होने के बाद ही देगा. बार-बार भूखी बहिन और माँ के चेहरे याद आ रहे थे, रात तक कैसे रहेंगी? यह सोचकर साथ काम करनेवाले को बताकर डबलरोटी और बिस्किट ले जा रहा था कि घर दे आऊँ फिर रात तक काम करूंगा और जो पैसे मिलेंगे उससे दाम चुका दूंगा.
दुसरे लड़के ने उसकी बात की तस्दीक की लेकिन हलवाई उसे चोर ठहराता रहा. जब मैंने पुलिस बुलाने की बात की तब वह ठंडा पड़ा.
बच्चे को डबलरोटी, दूध, बिस्किट और प्रसाद की मिठाई देकर उसके घर भेजा. आरती का समय हो गया इसलिए खाली हाथ आना पड़ा और प्रभु को नहीं लगा सका भोग' उनके स्वर में पछतावा था.
'ऐसा क्यों सोचते हैं? हम तो मूर्ति ही पूजते रह गए और आपने तो साक्षात बाल कृष्ण को लगाया है मोहन भोग. आप धन्य है.' मैंने उन्हें नमन करते हुए कहा.
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