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सोमवार, 5 जुलाई 2021

'सलिल' --एक अजीम शख्सियत प्रोफेसर अनिल जैन

संजीव वर्मा 'सलिल' --एक अजीम शख्सियत
प्रोफेसर अनिल जैन
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यूँ तो होश संभालते ही मेरा मिज़ाज अदबी था । मैंने उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी ज़ुबान के कई रिसाले पढ़ डाले थे । गाहे बगाहे क़लम भी चला लिया करता था
इसी शौक से मुब्तिला होकर कुछेक अंग्रेजी ग़ज़लें लिख डाली । बहुत समय तक तो ना मैंने खुद ने ना ही किसी और ने इन गजलों कोई तरजीह नहीं दी क्योंकि पेशतर तो मेरे क़स्बाई नुमा शहर में अंग्रेजी के जानकार न के बराबर थे दूसरा मैं खुद काफी झिझक महसूस कर रहा था कि पता नहीं लोग इस बारे में क्या सोचेंगे ।
इत्तफाकन मुझे आदरणीय संजीव वर्मा सलिल जी के बारे में पता चला । यहाँ यह भी बताते चलूं कि सलिल जी की प्राध्यापक पत्नी डॉ साधना वर्मा उन दिनों मेरी कलीग हुआ करती थीं । उनसे पता चला कि सलिल का मिज़ाज भी शायराना है ।
सलिल जी से पहली मुलाकात के अनुभव को लफ़्ज़ों में बयान करना बहुत ही मुश्किल काम है । बस इतना ही कहूँगा वे पल जीवन के चंद हमेशा याद रखे जाने वाले पल हैं । उनका गंभीर चेहरा, उनका अंदाज़े बयां, ज़ुबानों पर उनकी धाक औऱ सबसे बड़ी बात उनका हौसला अफजाई का जो शऊर मैंने देखा उस पर केवल रश्क़ किया जा सकता है ।
उन्होंने मेरी गज़लों को पढ़ा, दाद दी, और भरोसा दिया कि वे उन्हे साया करवाएंगे । औऱ ऐसा उन्होंने किया भी । इस तरह मेरी ग़ज़लें जिनका उन्वान 'ऑफ एंड ऑन' है अपने अंजाम तक पहुँची । मेरा सफ़र पूरा हुआ लेकिन सलिल जी यहीं नहीं रुके । ये उनका मेरे लिए स्नेह ही था कि वे मेरी किताब हर एक अदबी जलसों में लेकर जाते औऱ कोशिश करते कि मैं और भी बुलंदियों को छू सकूँ ।
इसी सिलसिले में उन्होंने मेरी किताब केरल के हिंदी के जाने माने एक प्रोफेसर डॉ बाबू जोसेफ को भेंट की और गज़लों की तफसील डॉ जोसेफ को बयां की । मैंने लिखा कम था लेकिन सलिल जी ने जो तफसील बताई उससे डॉ जोसेफ बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मेरे दीवान का तर्जुमा हिंदी ज़ुबान में कर डाला जिसे हिंदी में 'यदा कदा' शीर्षक से प्रकाशित किया गया । इस तरह मेरी टोपी में एक पंख और जुड़ गया ।
इसके बाद रोज़मर्रा की ज़रुरतों में मशरूफ होने के कारण सलिल जी से मुलाकातों का दौर काफ़ी कम हो गया फिर भी फोन पर अक्सर मैं सलाह मशविरा किया करता था । हर मसले पर उनका नज़रिया बहुत साफ था और यही साफगोई उनके हर मशविरे का मज़मून हुआ करती थी ।
वक़्त अपनी रफ्तार से चलता रहा । छुटपुट लेखन भी चलता रहा । और वक्त जैसे फिर उसी मोड़ पर आकर खड़ा हो गया । हुआ यूं कि छोटी छोटी तहरीरों के सफे दर सफे जमा होकर एक किताब की शक्ल अख्तियार करने लगे और साया होने को मचल उठे ।
फिर वही सलिल जी से मुलाकातों का दौर शुरू हुआ । जिस्मानी तौर पर तो उनमें कोई फर्क नज़र नहीं आया लेकिन वैचारिक स्तर वे पूरी तरह से लबरेज़ थे । सलिल जी ने फिर मुझे इनकरेज किया कि मेरी पोयम्स में काफ़ी कुछ है जिसे लोग पसंद करेंगें ।उन्होंने ने यह भी बताया कि आज के दौर में किस तरह के नये नये प्रयोग किये जा रहे हैं । सलिल जी ने खुद ही मेरी अंग्रेजी पोयम्स जिसका टाइटल 'द सेकंड थॉट' है का प्रीफेस लिखा, कवर पेज डिजाइन करवाया और पब्लिश भी करवाई । यहां तक कि किताब का विमोचन भी उन्हीं ने करवाया ।
इस सब के लिए केवल शुक्रगुजार होना कहना मुनासिब नहीं होगा पर यह सच है कि यही सारी बातें किसी इंसान को उन बुलंदियों तक ले जाती हैं जिस बुलंदी पर आज इंजीनियर संजीव वर्मा'सलिल' कायम हैं । वे वास्तव में इसके हकदार हैं ।
[बी 47, वैशाली नगर, दमोह 9630631158 aniljaindamoh@gmail.com]

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