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गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

हिंदी की आरंभिक कहानियाँ - लघुकथाएँ

हिंदी कहानी की विकास कथा :
एडगर एलन पो (१८०९-१८४९), ओ हेनरी (१८६२-१९१०), गाइ द मोपांसा (१८५०-१८९३), ऐंटन पाब्लोविच चेखव (१८६०-१९०४) ने हिंदी कहानी के उद्भव के पूर्व उत्तम कहानियाँ रचीं। प्रणयनी परिचय - किशोरीलाल गोस्वामी १८८७, छली अरब की कथा - अज्ञात १८९३, सुभाषित रत्न - माधवराव सप्रे १९००, इं १९००, इंदुमती - किशोरीलाल गोस्वामी १९००, मन की चंचलता - माधव प्रसाद मिश्र १९००, एक टोकरी भर मिटटी - माधवराव सप्रे १९०१, ग्यारह वर्ष का समय - रामचंद्र शुक्ल १९०३, लड़की की कहानी - माधव प्रसाद मिश्र १९०४, दुलाईवाली - राजेंद्र बाला उर्फ़ बंग महिला १९०७, राखी बंद भाई - वृन्दावनलाल वर्मा १९०७, ग्राम - जयशंकर प्रसाद १९११, सुखमय जीवन - चंद्रधर शर्मा गुलेरी १९११, रक्षाबंधन - विश्वम्भर नाथ शर्मा 'कौशिक' १९१३, उसने कहा था - चंद्रधर शर्मा गुलेरी १९१५। 
लघुकथा 
 अंगहीन धनी (परिहासिनी) - भारतेन्दु हरिश्चंद्र १८७३ 
अद्भुत संवाद (परिहासिनी) - भारतेन्दु हरिश्चंद्र १८७३ 
बिल्ली और बुखार - माखन लाल चतुर्वेदी 
एक टोकरी भर मिटटी - माधवराव सप्रे १९०१
विमाता - छबीलेलाल गोस्वामी १९१५ सरस्वती में प्रकाशित
झलमला - पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी -१९१६ सरस्वती में प्रकाशित
राष्ट्र का सेवक - प्रेमचंद जनवरी १९१७ (अलनाज़िर,  कौम का खादिम प्रेम चालीसी १९३० ) हिंदी रूपांतर गुप्तधन २, १९६२ १९६२ ( मूलत: उर्दू में)
बूढ़ा व्यापारी - जगदीशचंद्र मिश्र १९१९
बांसुरी - प्रेमचंद जनवरी १९२० (उर्दू कहकशां) हिंदी रूपांतर गुप्तधन १, १९६२ ( मूलत: उर्दू में) 
एक अद्भुत कवि - शिवपूजन सहाय १९२४ 
प्रसाद -  जयशंकर प्रसाद  १९२६ (प्रतिध्वनि)
गूदड़ साईं -  जयशंकर प्रसाद  १९२६ (प्रतिध्वनि)
गुदड़ी में लाल -  जयशंकर प्रसाद  १९२६ (प्रतिध्वनि)
पत्थर की पुकार -  जयशंकर प्रसाद  १९२६ (प्रतिध्वनि)
उस पार का योगी -  जयशंकर प्रसाद  १९२६ (प्रतिध्वनि)
करुणा की विजय -  जयशंकर प्रसाद  १९२६ (प्रतिध्वनि)
खंडहर की लिपि - -  जयशंकर प्रसाद  १९२६ (प्रतिध्वनि)
कलावती की सीख -  जयशंकर प्रसाद  १९२६ (प्रतिध्वनि)
स्तंभ -  जयशंकर प्रसाद  १९२६ (प्रतिध्वनि)
बाबाजी का भोग - प्रेमचंद १९२६ (प्रेम प्रतिमा)
वैरागी - -  जयशंकर प्रसाद  १९२९ (आकाशदीप)
सेठ जी - कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर १९२९
बंद दरवाज़ा - प्रेमचंद प्रेम चालीसी १९३०  १९६२ ( मूलत: उर्दू में)
दरवाज़ा  - प्रेमचंद ( अलनाज़िर १९३०) प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य १९३० १९६२ ( मूलत: उर्दू में)  
संग्रह
परिहासिनी भारतेन्दु हरिश्चंद्र १८७३  
प्रतिध्वनि  जयशंकर प्रसाद  १९२६ 
झरोखे बद्रीनारायण सुदर्शन १९४८ 
बंधनों की रक्षा आनंद मोहन अवस्थी 'मुन्नू' १९५० 
आकाश के तारे धरती  कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' १९५२ 
अनजाने जाने पहचाने - रामनारायण उपाध्याय १९५३ 
रोजट की कहानी - शिवनारायण उपाध्याय १९५५ 
कुछ सीप कुछ मोती - अयोध्या प्रसाद १९५७ 
मेरे कथागुरु का  कहना है -रावी १९५८  
अंगहीन धनी - भारतेन्दु हरिश्चंद्र, १८७३  
एक धनिक के घर उसके बहुत से प्रतिष्ठित मित्र बैठे थे। नौकर बुलाने को घंटी बजी। मोहना भीतर दौड़ा पर हँसता हुए लौटा। और नौकरों ने पूछा, "क्यों बे! हँसता क्यों है?"
तो उसने जवाब दिया, "भाई सोलह हट्टे-कट्टे जवान थे। उन सभों से एक बत्ती न बुझे। जब हम गए तब बुझे।"
अद्भुत संवाद - भारतेन्दु हरिश्चंद्र, १८७३ 
"ए, जरा हमारा घोडा तो पकड़े रहो।"
"ये कूदेगा तो नहीं?" 
कूदेगा, भला कूदेगा क्यों? लो सँभालो।"
"यह काटता है?"
"नहीं काटेगा, लगाम पकड़े रहो।"  
"क्या इसे दो आदमी पकड़ते हैं, तब सम्हलता है?"
"नहीं।"
"फिर हमें क्यों तकलीफ देते हैं? आप तो हई हैं।"
टोकरी भर मिट्टी 
माधवराव सप्रे 
रचनाकाल - १९०१ 
*
किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढा़ने की इच्‍छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्‍या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्‍छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्‍न निष्‍फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्‍होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्‍जा करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।

एक दिन श्रीमान् उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान् ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ''महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्‍हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है।'' जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ''जब से यह झोंपड़ी छूटी है, तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत-कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल। वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने यह सोचा कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी-भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्‍हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले आऊँ!'' श्रीमान् ने आज्ञा दे दी।

विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्‍मरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान् से प्रार्थना करने लगी, ''महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।'' जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्‍वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्‍योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्‍योंही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्‍होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्‍थान पर टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ''नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।''

यह सुनकर विधवा ने कहा, ''महाराज, नाराज न हों, आपसे एक टोकरी-भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़़ी है। उसका भार आप जन्‍म-भर क्‍योंकर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।"

जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्‍य भूल गए थे पर विधवा के उपर्युक्‍त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म का पश्‍चाताप कर उन्‍होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी।
*
 लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना की टीस  कचोट को बहुत ही गहनता के साथ उद्घाटित किया जाता है। इस विधा में उस घटना के पीछे छिपे निहित चरित्र को उजागर करने की अवधारणा सक्रिय होनी आवश्यक है, स्थितियों के विस्तार, और आगे-पीछे के प्रसंगों को बताने-जोड़ने की जरूरत नहीं , ज ही कोई गुंजाइश ...... लघुकथा में संक्षिप्तता, सरलता तथा प्रहार क्षमता होना आवश्यक है। अभिव्यंजना में प्रतीक और बिम्ब सटीक होने पर लघुकथा  सुंदर और स्पष्ट हो उठती है। ..... लघुकथा को सदैव व्यंग्य, हास-परिहास या नकारात्मक विचारों से पूर्ण, समाज की विसंगतियों अथवा विरोधाभासों को दर्शानेवाली कथाओं के रूप  भी है। -सरला अग्रवाल, अविरल मंथन सितंबर २००१  
लघुकथा लेखकविहीन विधा है अर्थात लघुकथा में पाठक को लेखक की उपस्थिति का आभास नहीं होना चाहिए - कमलकिशोर गोयनका 
लघुकथा एक निदानात्मक रचना है उपचारात्मक नहीं। ...  लघुकथा से हमारा तात्पर्य आधुनिक यथार्थ बोध की लघ्वाकारीय गद्य कथा रचना से होता है, पारंपरिक दृष्टान्तपरक, बोधपरक, नीतिपरक लघुकथा रचना से नहीं।  - बलराम अग्रवाल 
     

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