कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

सामयिक दोहे: -संजीव 'सलिल'

झूठा है सारा जगत , माया कहते संत.
सार नहीं इसमें तनिक, और नहीं कुछ तंत..

झूठ कहा मैंने जिसे, जग कहता है सत्य.
और जिसे सच मानता, जग को लगे असत्य..

जीवन का अभिषेक कर, मन में भर उत्साह.
पायेगा वह सभी तू, जिसकी होगी चाह..

झूठ कहेगा क्यों 'सलिल', सत्य न उसको ज्ञात?
जग का रचनाकार ही, अब तक है अज्ञात..

अलग-अलग अनुभव मिलें, तभी ज्ञात हो सत्य.
एक कोण से जो दिखे, रहे अधूरा सत्य..

जो मन चाहे वह कहें, भाई सखा या मित्र.
क्या संबोधन से कभी, बदला करता चित्र??

नेह सदा मन में पले, नाता ऐसा पाल.
नेह रहित नाता रखे, जो वह गुरु-घंटाल..

कभी कहें कुछ पंक्तियाँ, मिलना है संयोग.
नकल कहें सोचे बिना, कोई- है दुर्योग..

असल कहे या नक़ल जग, 'सलिल' न पड़ता फर्क.
कविता रचना धर्म है, मर्म न इसका तर्क..

लिखता निज सुख के लिए, नहीं दाम की चाह.
राम लिखाते जा रहे, नाम उन्हीं की वाह..

भाव बिम्ब रस शिल्प लय, पाँच तत्त्व ले साध.
तुक-बेतुक को भुलाकर, कविता बने अगाध..

छाँव-धूप तम-उजाला, रहते सदा अभिन्न.
सतुक-अतुक कविता 'सलिल', क्यों माने तू भिन्न?

सीधा-सादा कथन भी, हो सकता है काव्य.
गूढ़ तथ्य में भी 'सलिल', कविता है संभाव्य..

सम्प्रेषण साहित्य की, अपरिहार्य पहचान.
अन्य न जिसको समझता, वह कवि हो अनजान..

रस-निधि हो, रस-लीन हो, या हो तू रस-खान.
रसिक काव्य-श्रोता कहें, कवि रसज्ञ गुणवान..

गद्य-पद्य को भाव-रस, बिम्ब बनाते रम्य.
शिल्प और लय में रहे, अंतर नहीं अगम्य..
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

1 टिप्पणी:

Sanjay Kumar ने कहा…

- बहुत खूब, लाजबाब !