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गुरुवार, 8 अक्टूबर 2015

||| स्त्री के मन के रंग |||



 ||| स्त्री के  के रं ||| 

ART BY VIJAY KUMAR



 Vijay Kumar
Mobile :  +91 98497465000
Skype :  vijaykumar.sappatti

 Adress :

VIJAY KUMAR SAPPATTI
FLAT NO.402, FIFTH FLOOR,
PRAMILA RESIDENCY; HOUSE NO. 36-110/402,
DEFENCE COLONY, SAINIKPURI POST,
SECUNDERABAD- 500094 [TELENGANA ]
INDIA
  
ART AND POEMS COPYRIGHT © VIJAY KUMAR


 सिलवटों की सिहरन

अक्सर तेरा साया
एक अनजानी धुंध से चुपचाप चला आता है
और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है …..

मेरे हाथ, मेरे दिल की तरह
कांपते है, जब मैं
उन सिलवटों को अपने भीतर समेटती हूँ …..

तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छु जाता है
जहाँ तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था,
मैं सिहर सिहर जाती हूँ,
कोई अजनबी बनकर तुम आते हो;
और मेरी खामोशी को आग लगा जाते हो

तेरी यादो का एहसास मेरे चादरों में धीमे धीमे उतरता है
मैं चादरें तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लूँ
कई जनम जी लेती हूँ तुझे भुलाने में,
पर तेरी मुस्कराहट,
जाने कैसे बहती चली आती है,
न जाने, मुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है …..

कोई पीर पैगम्बर मुझे तेरा पता बता दे,
कोई माझी, तेरे किनारे मुझे ले जाए,
कोई देवता तुझे फिर मेरी मोहब्बत बना दे.......
या तो तू यहाँ आजा,
या मुझे वहां बुला ले......

कही कोई नहीं है जी.......

कहीं कोई नहीं है जी.....कोई नहीं,
बस यूँ ही था कोई
जो जाने अनजाने में
बस गया था दिल में..
पर वो कोई नहीं है जी ...

एक दोस्त था जो अब भी है,
जो कभी कभी फ़ोन करके
शहर के मौसम के बारे में पूछता है,
मेरे मन के आसमान पर
उसके नाम के बादल अब भी है..
पर कोई नहीं है जी....

कुछ झूठ है इन बातो में
और शायद,थोडा सा सच भी है
जज्बातों से भरा हुआ वो था
उम्मीदों की जागीर थी उसके पास
पर मैंने ही उसकी राह पर से
अपनी नजरो को हटा दिया
पर कोई नहीं है जी.....

कोई है, जो दूर होकर भी पास है
और जो होकर भी कहीं नहीं है
बस कोई है.." कहाँ हो जानू ",
क्या.......कौन.........
नहीं नहीं कोई नहीं है जी...

मेरे संग उसने ख्वाब देखे थे चंद
कुछ रंगीन थे, कुछ सिर्फ नाम ही थे
है कोई जो बेगाना है,पता नहीं ?
मेरा अपना नहीं, सच में ?
कोई नहीं है वो जी....

कोई साथी सा था..
हमसफ़र बनना चाहता था,
चंद कदम हम साथ भी चले..
पर दुनिया की बातो में मैं आ गयी
बस साथ छूट गया
कोई नहीं है जी....

कोई चेहरा सा रहता है,
ख्यालो में...याद का नाम दूं उसे ?
कभी कभी अक्सर अकेले में
आंसू बन कर बहता है
कोई नहीं था जी....

बस यूँ ही
मुझे सपने देखने की आदत है
एक सच्चा सपना गलती से देख लिया था
कोई नहीं है जी, कोई नहीं है....

सच में...पता नहीं
लेकिन कभी कभी मैं गली के मोड़ तक जाकर आती हूँ
अकेले ही जाती हूँ और अकेले ही आती हूँ..
कही कोई नहीं है जी.....
कोई नहीं......

तू

मेरी दुनिया में जब मैं खामोश रहती हूँ,
तो,
मैं अक्सर सोचती हूँ,
कि
खुदा ने मेरे ख्वाबों को छोटा क्यों बनाया ……

एक ख्वाब की करवट बदलती हूँ तो;
तेरी मुस्कारती हुई आँखे नज़र आती है,
तेरी होठों की शरारत याद आती है,
तेरे बाजुओ की पनाह पुकारती है,
तेरी नाख़तम बातों की गूँज सुनाई देती है,
तेरी बेपनाह मोहब्बत याद आती है.........

तेरी क़समें,तेरे वादें,तेरे सपने,तेरी हकीक़त ॥
तेरे जिस्म की खुशबु,तेरा आना, तेरा जाना ॥
अल्लाह.....कितनी यादें है तेरी........

दूसरे ख्वाब की करवट बदली तो,तू यहाँ नही था.....
तू कहाँ चला गया....
खुदाया !!!!
ये आज कौन पराया मेरे पास है........

मोरे सजनवा !!!

घिर  आई फिर से... कारी कारी बदरिया
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!
नैनन को मेरे, तुमरी  छवि हर पल नज़र आये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पा, मा गा रे सा........

बावरा मन ये उड़ उड़ जाये जाने कौन देश रे
गीत सावन के ये गाये तोहे लेकर मन में
रिमझिम गिरती फुहारे बस आग लगाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पा, मा गा रे सा........

सांझ ये गहरी, साँसों को मोरी ; रंगाये,
तेरे दरश को तरसे है ; ये आँगन मोरा
हर कोई सजन,अपने घर लौट कर आये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पा, मा गा रे सा........

बिंदिया, पायल, आँचल, कंगन चूड़ी  पहनू सजना 
करके सोलह श्रृंगार तोरी राह देखे ये सजनी
तोसे लगन लगा कर, रोग  दिल को लगाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पा, मा गा रे सा........
बरस रही है आँखे मोरी ; संग बादलवा..
पिया तू नहीं जाने मुझ बावरी का  दुःख रे
अब के बरसये राते ; नित नया जलाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पा, मा गा रे सा........
 
आँगन खड़ी जाने कब से ; कि तोसे संग जाऊं
चुनरिया मोरी भीग जाये ; आँखों के सावन से 
ओह रे पिया, काहे ये जुल्म मुझ पर तू ढाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

घिर  आई फिर से... कारी कारी बदरिया
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!


“ मैं तुम्हारी स्त्री – एक अपरिचिता “

मैं हर रात ;
तुम्हारे कमरे में आने से पहले सिहरती हूँ
कि तुम्हारा वही डरावना प्रश्न ;
मुझे अपनी सम्पूर्ण दुष्टता से निहारेंगा
और पूछेंगा मेरे शरीर से, “ आज नया क्या है ? ”

कई युगों से पुरुष के लिए स्त्री सिर्फ भोग्या ही रही
मैं जन्मो से, तुम्हारे लिए सिर्फ शरीर ही बनी रही..
ताकि, मैं तुम्हारे घर के काम कर सकू..
ताकि, मैं तुम्हारे बच्चो को जन्म दे सकू,
ताकि, मैं तुम्हारे लिये तुम्हारे घर को संभाल सकू.

तुम्हारा घर जो कभी मेरा घर न बन सका,
और तुम्हारा कमरा भी ;
जो सिर्फ तुम्हारे भोग की अनुभूति के लिए रह गया है
जिसमे, सिर्फ मेरा शरीर ही शामिल होता है..
मैं नहीं..
क्योंकि ;
सिर्फ तन को ही जाना है तुमने ;
आज तक मेरे मन को नहीं जाना.

एक स्त्री का मन, क्या होता है,
तुम जान न सके..
शरीर की अनुभूतियो से आगे बढ़ न सके

मन में होती है एक स्त्री..
जो कभी कभी तुम्हारी माँ भी बनती है,
जब वो तुम्हारी रोगी काया की देखभाल करती है ..
जो कभी कभी तुम्हारी बहन भी बनती है,
जब वो तुम्हारे कपडे और बर्तन धोती है
जो कभी कभी तुम्हारी बेटी भी बनती है,
जब वो तुम्हे प्रेम से खाना परोसती है
और तुम्हारी प्रेमिका भी तो बनती है,
जब तुम्हारे बारे में वो बिना किसी स्वार्थ के सोचती है..
और वो सबसे प्यारा सा संबन्ध,
हमारी मित्रता का, वो तो तुम भूल ही गए..

तुम याद रख सके तो सिर्फ एक पत्नी का रूप
और वो भी सिर्फ शरीर के द्वारा ही...
क्योंकि तुम्हारा भोग तन के आगे
किसी और रूप को जान ही नहीं पाता  है..
और  अक्सर न चाहते हुए भी मैं तुम्हे
अपना शरीर एक पत्नी के रूप में समर्पित करती हूँ..
लेकिन तुम सिर्फ भोगने के सुख को ढूंढते हो,
और मुझसे एक दासी के रूप में समर्पण चाहते हो..
और तब ही मेरे शरीर का वो पत्नी रूप भी मर जाता है.

जीवन की अंतिम गलियों में जब तुम मेरे साथ रहोंगे,
तब भी मैं अपने भीतर की स्त्री के
सारे रूपों को तुम्हे समर्पित करुँगी
तब तुम्हे उन सारे रूपों की ज्यादा जरुरत होंगी,
क्योंकि तुम मेरे तन को भोगने में असमर्थ होंगे
क्योंकि तुम तब तक मेरे सारे रूपों को
अपनी इच्छाओ की अग्नि में स्वाहा करके
मुझे सिर्फ एक दासी का ही रूप बना चुके होंगे,

लेकिन तुम तब भी मेरा भोग करोंगे,
मेरी इच्छाओ के साथ..
मेरी आस्थाओं के साथ..
मेरे सपनो के साथ..
मेरे जीवन की अंतिम साँसों के साथ

मैं एक स्त्री ही बनकर जी सकी
और स्त्री ही बनकर मर जाउंगी
एक स्त्री....
जो तुम्हारे लिए अपरिचित रही
जो तुम्हारे लिए उपेछित रही
जो तुम्हारे लिए अबला रही...

पर हाँ, तुम मुझे भले कभी जान न सके
फिर भी..मैं तुम्हारी ही रही....
एक स्त्री जो हूँ.....


“मेहर

मेरे शौहर, तलाक बोल कर
आज आपने मुझे तलाक दे दिया !

अपने शौहर होने का ये धर्म भी
आज आपने पूरा कर दिया !

आज आप कह रहे हो की,
मैंने तुम्हे तलाक दिया है,
अपनी मेहर को लेकर चले जा....
इस घर से निकल जा....

लेकिन उन बरसो का क्या मोल है ;
जो मेरे थे, लेकिन मैंने आपके नाम कर दिए...
उसे क्या आप इस मेहर से तोल पाओंगे....

जो मैंने आपके साथ दिन गुजारे,
उन दिनों में जो मोहब्बत मैंने आपसे की
उन दिनों की मोहब्बत का क्या मोल है...

और वो जो आपके मुश्किलों में
हर पल मैं आपके साथ थी,
उस अहसास का क्या मोल है..

और ज़िन्दगी के हर सुख दुःख में ;
मैं आपका हमसाया बनी,
उस सफर का क्या मोल है...

आज आप कह रहे हो की,
मैंने तुम्हे तलाक दिया है,
अपनी मेहर को लेकर चले जा....

मेरी मेहर के साथ,
मेरी जवानी,
मेरी मोहब्बत
मेरे अहसास,
क्या इन्हे भी लौटा सकोंगे आप ?



“ सन्नाटो की आवाजे “


जब हम जुदा हुए थे..
उस दिन अमावस थी !!
रात भी चुप थी और हम भी चुप थे.....!
एक उम्र भर की खामोशी लिए हुए...!!!

मैंने देखा, तुमने सफ़ेद शर्ट पहनी थी....
जो मैंने तुम्हे ; तुम्हारे जन्मदिन पर दिया था..
और तुम्हारी आँखे लाल थी
मैं जानती थी,
तुम रात भर सोये नही...
और रोते रहे थे......

मैं खामोश थी
मेरे चेहरे पर शमशान का सूनापन था.

हम पास बैठे थे और
रात की कालिमा को ;
अपने भीतर समाते हुए देख रहे थे...

तुम मेरी हथेली पर अपनी कांपती उँगलियों से
मेरा नाम लिख रहे थे...
मैंने कहा,
ये नाम अब दिल पर छप रहा है..

तुमने अजीब सी हँसी हँसते हुए कहा,
हाँ; ठीक उसी तरह
जैसे तुमने एक दिन अपने होंठों से ;
मेरी पीठ पर अपना नाम लिखा था ;
और वो नाम अब मेरे दिल पर छपा हुआ है.....

मेरा गला रुंध गया था,
और आँखों से तेरे नाम के आंसू निकल पड़े थे..

तुम ने कहा, एक आखरी बार वहां चले,
जहाँ हम पहली बार मिले थे....

मैंने कहा,
अब, वहां क्या है...
सिवाए,हमारी परछाइयों के..

तुमने हँसते हुए कहा..
बस, उन्ही परछाइयों के साथ तो अब जीना है .

हम वहां गए,
उन सारी मुलाकातों को याद किया और बहुत रोये....
तुमने कहा,इस से तो अच्छा था की हम मिले ही न होते ;
मैंने कहा, इसी दर्द को तो जीना है,
और अपनी कायरता का अहसास करते रहना है..
हम फिर बहुत देर तक खामोश बुत बनकर बैठे रहे थे...

झींगुरों की आवाज़, पेड़ से गिरे हुए पत्तो की आवाज़,
हमारे पैरो की आवाज़, हमारे दिलों की धड़कने की आवाज़,
तुम्हारे रोने की आवाज़…. मेरे रोने की आवाज़….
तुम्हारी खामोशी.... रात की खामोशी....
मिलन की खामोशी ….जुदाई की खामोशी......
खामोशी की आवाज़ ….
सन्नाटों की आवाज़...

पता नही कौन चुप था ; किसकी आवाज़ आ रही थी..
हम पता नही कब तक साथ चले,
पता नही किस मोड़ पर हमने एक दुसरे का हाथ छोड़ा

कुछ देर बाद मैंने देखा तो पाया, मैं अकेली थी...
आज बरसो बाद भी अकेली हूँ !

अक्सर उन सन्नाटो की आवाजें,
मुझे सारी बिसरी हुई, बिखरी हुई ;
आवाजें याद दिला देती है..

मैं अब भी उस जगह जाती हूँ कभी कभी ;
और अपनी रूह को तलाश कर, उससे मिलकर आती हूँ
पर तुम कहीं नज़र नही आतें..

तुम कहाँ हो..........


“ कोई एक पल”

कभी कभी यूँ ही मैं,
अपनी ज़िन्दगी के बेशुमार
कमरों से गुजरती हुई,
अचानक ही ठहर जाती हूँ,
जब कोई एक पल, मुझे
तेरी याद दिला जाता है !!!

उस पल में कोई हवा बसंती,
गुजरे हुए बरसो की याद ले आती है

जहाँ सरसों के खेतों की
मस्त बयार होती है
जहाँ बैशाखी की रात के
जलसों की अंगार होती है

और उस पार खड़े,
तेरी आंखों में मेरे लिए प्यार होता है
और धीमे धीमे बढता हुआ,
मेरा इकरार होता है !!!

उस पल में कोई सर्द हवा का झोंका
तेरे हाथो का असर मेरी जुल्फों में कर जाता है,
और तेरे होठों का असर मेरे चेहरे पर कर जाता है,
और मैं शर्माकर तेरे सीने में छूप जाती हूँ......

यूँ ही कुछ ऐसे रूककर ; बीते हुए,
आँखों के पानी में ठहरे हुए ;
दिल की बर्फ में जमे हुए ;
प्यार की आग में जलते हुए...
सपने मुझे अपनी बाहों में बुलाते है !!!

पर मैं और मेरी जिंदगी तो ;
कुछ दुसरे कमरों में भटकती है !

अचानक ही यादो के झोंके
मुझे तुझसे मिला देते है.....
और एक पल में मुझे
कई सदियों की खुशी दे जाते है...


काश
इन पलो की उम्र ;
सौ बरस की होती................

" इंतजार "


मेरी ज़िन्दगी के दश्त,
बड़े वीराने है
दर्द की तन्हाईयाँ,
उगती है
मेरी शाखों पर नर्म लबों की जगह.......!!
तेरे ख्यालों के साये
उल्टे लटके,
मुझे क़त्ल करतें है ;
हर सुबह और हर शाम.......!!

किसी दरवेश का श्राप हूँ मैं !!

अक्सर शफ़क शाम के
सन्नाटों में यादों के दिये ;
जला लेती हूँ मैं...

लम्हा लम्हा साँस लेती हूँ मैं
किसी अपने के तस्सवुर में जीती हूँ मैं..

सदियां गुजर गयी है...
मेरे ख्वाब,मेरे ख्याल न बन सके...
जिस्म के अहसास,बुत बन कर रह गये.
रूह की आवाज न बन सके...

मैं मरीजे- उल्फत बन गई हूँ
वीरानों की खामोशियों में ;
किसी साये की आहट का इन्तजार है...

एक आखरी आस उठी है ;
मन में दफअतन आज....
कोई भटका हुआ मुसाफिर ही आ जाये....
मेरी दरख्तों को थाम ले....

अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की नज़र बनूँ
अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की " हीर " बनूँ...
[ Meanings : दश्त : जंगल // शफ़क : डूबते हुए सूरज की रोशनी // दफअतन : अचानक ]

 स्केच और कविताएं © विजय कुमार
सौजन्य - युग मानस

geet: niraj

विरासत:
गीत:
मेरा गीत दिया बन जाए -
गोपालदास नीरज
*










*
अँधियारा जिससे शरमाये,
उजियारा जिसको ललचाये,
ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!
*
इतने छलको अश्रु, थके हर 
राहगीर के चरण धो सकूँ।
इतना निर्धन करो, कि हर 
दरवाज़े पर सर्वस्व खो सकूँ।
ऎसी पीर भरो प्राणों में, नींद 
न आये जनम-जनम तक,
इतनी सुध-बुध हरो कि 
साँवरिया खुद बाँसुरिया बन जायें!
ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
*
घटे न जब अँधियार, करे
तब जलकर मेरी चिता उजेला।
पहला शव मेरा हो, जब
निकले मिटनेवालों का मेला।
पहले मेरा कफ़न पताका
बन फहरे जब क्रान्ति पुकारे।
पहले मेरा प्यार उठे जब
असमय मृत्यु प्रिया बन जाये!
ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
*
मुरझा पाये फसल न कोई
ऎसी खाद बने इस तन की
किसी न घर दीपक बुझ पाये
ऎसी जलन जले इस मन की
भूखी सोये रात न कोई,
प्यासी जागे सुबह न कोई
स्वर बरसे सावन आ जाये
रक्त गिरे, गेहूँ उग आये!
ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
*
बहे पसीना जहाँ-वहाँ
हरयाने लगे नई हरियाली
गीत जहाँ गा आय, वहाँ
छा जाय सूरज की उजियाली
हँस दे मेरा प्यार जहाँ
मुसका दे मेरी मानव-ममता
चन्दन हर मिट्टी हो जाय
नन्दन हर बगिया बन जाये।
ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
*
उनकी लाठी बने लेखनी
जो डगमगा रहे राहों पर
हृदय बने उनका सिंहासन
देश उठाये जो बाहों पर
श्रम के कारण चूम आई
वह धूल करे मस्तक का टीका
काव्य बने वह कर्म, कल्पना-
से जो पूर्व क्रिया बन जाये!
ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
*
मुझे श्राप लग जाये, न दौङूं
जो असहाय पुकारों पर मैं
आँखें  ही बुझ जायें, बेबेसी
देखूँ अगर बहारों पर मैं
टूटें मेरे हांथ न यदि यह
उठा सकें गिरने वालों को
मेरा गाना पाप अगर
मेरे होते मानव मर जाय!
ऎसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!

*****

बुधवार, 7 अक्टूबर 2015

kruti charcha: shivaansh se shiv tak

कृति चर्चा:
शिवांश से शिव तक : ग्रहणीय पर्यटन वृत्तांत
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण: शिवांश से शिव तक (कैलास-मानसरोवर यात्रा में शिवतत्व की खोज), ओमप्रकाश श्रीवास्तव - भारती, यात्रा वृत्तांत, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक लैमिनेटेड, पृष्ठ २०४ + १६ पृष्ठ बहुरंगी चित्र, प्रकाशक: मंजुल पब्लिशिंग हाउस, द्वितीय तल, उषा प्रीत कॉम्प्लेक्स, ४२ मालवीय नगर भोपाल ४६२००३, लेखक संपर्क: opshrivastava@ymail.com]
*
भाषा और साहित्य का एक सिक्के के दो पहलू हैं जिन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। जैसे कोई संतान मन से जन्मती और माँ को परिपूर्ण करती है वैसे ही साहित्य भाषा से जन्मता और भाषा को सम्पूर्ण करता है। भाषा का जन्म समाज से होता। आम जन अपने दैनन्दिन क्रिया-कलाप में अपनी अनुभूतियों और अनुभवों को अभिव्यक्त और साझा करने के लिये जिस शब्द-समुच्चय और वाक्यावलियों का प्रयोग करते हैं, वह आरम्भ में भले ही अनगढ़ प्रतीत होती है किन्तु भाषा की जन्मदात्री होती है। शब्द भण्डार, शब्द चयन, कहन (बात कहने का सलीका), उद्देश्य तथा सैम सामयिकता के पंचतत्व भाषा के रूप निर्धारण में सहायक होते है और भशा से ही वर्ण्य-विषय (कथ्य) पाठक-श्रोता तक पहुँचता है।  स्पष्ट है कि भाषा रचनाकार और पाठक के मध्य संवेदन सेतु का निर्माण करती है।  जो लेखक ये संवेदना-सेतु बना पते हैं उनकी कृति हाथ दर हाथ गुजरती हुई पढ़ी, समझी, सराही और चर्चा का विषय बनाई जाती है. विवेच्य कृति इसी श्रेणी में गणनीय है।

हिंदी में सर्वाधिक लिखी जानेवाली किन्तु न्यूनतम पढ़ी जानेवाली विधा पद्य है। प्रकाशकों के अनुसार गद्य अधिक बिकाऊ और टिकाऊ है किन्तु गद्य की लोकप्रिय विधाएँ कहानी, उपन्यास, व्यंग और लघुकथा हैं। एक समर्थ रचनाकार इन्हें छोड़कर एक ऐसी विधा में अपनी पहली पुस्तक प्रस्तुत करने का साहस करें जो अपेक्षाकृत काम लिखी-पढ़ी और बिकती हो तो उसकी ईमानदारी का अनुमान किया जा सकता है की वह विषय के अनुकूल अपनी भावाभिव्यक्ति और कथ्य के अनुरूप सर्वाधिक उपयुक्त विधा का चयन कर रहा है और उसे दुनियादारी से अधिक अपने आप की संतुष्टि और विषय से न्याय करने की चिंता है। 'स्व' और 'सर्व' का समन्वय और संतुलन 'सत्य-शिव-सुन्दर' की प्रतीति करने के पथ पर ले जाता है। यह कृति आत्त्म-साक्षात के माध्यम से 'शिवत्व' के संधान का सार्थक प्रयास है।

श्री ओमप्रकाश श्रीवास्तव पेशेवर या आदतन लिखने के आदि नहीं हैं इसलिए उनकी अनुभूतियाँ अभिव्यक्ति बनाते समय कृत्रिम भंगिमा धारण नहीं करतीं, दिल की गहराइयों में अनुभूत सत्य कागज़ पर तथ्य बनकर अंकित होता है। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी होने को विस्मृत कर वे आम जन की तरह व्यवहार करते और पाते हुए यात्रा की तैयारियों, परीक्षणों, चरणों तथा समापन तक सजग-सचेष्ट रहे हैं। भारती जी ने भोजन में पानी की तरह कहीं भी प्रत्यक्ष न होते हुए भी सर्वत्र उपस्थित हैं तथा पूरे प्रसंग को सम्पूर्णता दे स्की हैं। धर्म, लोक परम्परा, विज्ञान, कल्पना तथा यथार्थ के पञ्च तत्वों का सम्मिश्रण उचित अनुपात में कर सकने में लेखन सफल हुआ है। किसी भी एक तत्व का अधिक होना रस-भंग कर सकता था किन्तु ऐसा हुआ नहीं ।

यह पुस्तक पाठक को सांगोपांग जानकारी देती है। यथावश्यक सन्दर्भ प्रामाणिकता की पुष्टि करते हैं। दुनियादारी और
वीतरागिता के मध्य संतुलन साधना दुष्कर होता है किन्तु एक का निष्पक्ष होने प्रशासनिक अनुभव और दूसरे का गार्हस्थ जीवन में होकर भी न होने की साधना सकल वृत्तांत को पठनीय बना सकी है।  शिव का आमंत्रण, शिव से मिलने की तैयारी, हे शिव! यह शरीर आपका मंदिर है, शिव- अनेकता में एकता के केंद्र, निःस्वार्थ सेवा की सनातन परंपरा, व्यष्टि का समष्टि में विलय, प्रकृति से पुरुष तक, प्रकृति की रचना ही श्रेष्ठ है, जहाँ प्रकृति स्वयं ॐ लिखती है, रात का रहस्यमयी सौंदर्य, स्वर्गीय सौंदर्य से बंजर पठारों की ओर, चीनी ड्रैगन की हेकड़ी और हमारा आत्म सम्मान, शक्ति और शांति के प्रतीक: राक्षस ताल और मानसरोवर, शिव का निवास कैलास, जहाँ आत्मा नृत्य कर उठे, महाकाल के द्वार से, परम रानी गिरिबरु कैलासू, जहाँ पुनर्जन्म होता है, भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी, कैलास और शिवतत्व, कैलास पर्वते राम मनसा निर्मितं परम, मानसरोवर के चमत्कार, तब इतिहास ही कुछ और होता, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी तथा फिर पुराने जगत में शीर्षक २५ अध्यायों में लिखित यह कृति पाठक के मनस-चक्षुओं में कैलाश से साक्षात की अनुभूति करा पाती है। आठ परिशिष्टों में भविष्य में कैलास यात्रा के इच्छुकों के लिये मार्गों, खतरों, औषधियों, सामग्रियों, ऊँचाईयों, सहायक संस्थाओं तथा करणीय-अकरणीय आदि संलग्न करना यह बताता है कि लेखक को पूर्वानुमान है की उनकी यह कृति पाठकों को कैलास यात्रा के लिए प्रेरित करेगी जहाँ वे आत्साक्षात् के पल पाकर धन्य हो सकेंगे।

हिंदी वांग्मय का पर्यटन खंड इस कृति से निश्चय ही समृद्ध हुआ है। लेखक की वर्णन शैली रोचक, प्रसाद गुण संपन्न है। नयनाभिराम चित्रों ने कृति की सुंदरता ही नहीं उपयोगिता में भी वृद्धि की है। यत्र-तत्र रामचरित मानस, श्रीमद्भगवत्गीता, महाभारत, पद्मपुराण, बाल्मीकि रामायण आदि आर्ष ग्रंथों ने उद्धरणों ने प्रामाणिकता के साथ-साथ ज्ञानवृद्धि का मणि-काञ्चन संयोग प्रदान किया है।  कैलास-मानसरोवर क्षेत्र में चीनी आधिपत्य से उपजी अस्वच्छता, सैन्य हस्तक्षेप, असहिष्णुता तथा अशालीनता का उल्लेख क्षोभ उत्पन्न करता है किन्तु यह जानकारी होने से पाठक कैलास यात्रा पर जाते समय इसके लिये खुद को तैयार कर सकेगा।

विश्व हिंदी सम्मलेन भोपाल में मध्य प्रदेश के मुख्या मंत्री श्री शिवराज सिंग के कर कमलों से कृति का विमोचन होना इसके महत्त्व को प्रतिपादित करता है। कृति का मुद्रण स्तरीय, कम वज़न के कागज़ पर हुआ है, बँधाई मजबूत है। सकल कृति का पाठ्य पठान सजगतापूर्वक किया गया है। अत:, अशुद्धियाँ नहीं हैं।  मूलत: साहित्यकार न होते हुए भी लेखक की भाषा प्रांजल, शुद्ध, तत्सम-तद्भव शब्दावली युक्त तथा सहज ग्राह्य है।  सारत: समसामयिक उल्लेखनीय यात्रा वृत्तांतों में 'शिवांश से शिव तक' की गणना की जाएगी। इस सारस्वत अनुष्ठान  संपादन हेतु श्री ओमप्रकाश श्रीवास्तव तथा श्रीमती भारती श्रीवास्तव साधुवाद के पात्र हैं।
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मंगलवार, 6 अक्टूबर 2015

upma alankar

: अलंकार चर्चा १८ :



















उपमा अलंकार * जब दो शब्दों में मिले, गुण या धर्म समान. 'उपमा' इंगित कर उसे, बन जाता रस-खान.. जो वर्णन का विषय हो, जिसको कहें सच जान. 'सलिल' वही 'उपमेय' है, निसंदेह लें मान.. जिसके सदृश बता रहे, वह प्रसिद्ध 'उपमान' जोड़े 'वाचक शब्द' औ', 'धर्म' हुआ गुण-गान.. 'उपमा' होता 'पूर्ण' जब, दिखते चारों अंग. होता वह 'लुप्तोपमा', जब न दिखे जो अंग.. आरोपित 'उपमेय' में होता जब 'उपमान'. 'वाचक शब्द' न 'धर्म' हो, तब 'रूपक' अनुमान.. साम्य सेतु उपमा रचे, गुण बनता आधार. साम्य बिना दुष्कर 'सलिल', जीवन का व्यापार.. उपमा इकटक हेरता, टेर रहा उपमान. न्यून नहीं हूँ किसी से, मैं भी तो श्रीमान.. इस गुहार की अनसुनी न कर हम उपमा से ही साक्षात् करते हैं. जब किन्हीं दो भिन्न व्यक्तियों या वस्तुओं में किसी गुण या वृत्ति के आधार पर समानता स्थापित होती है तो वहाँ उपमा अलंकार होता है. उपमा के ४ अंग होते हैं. १. उपमेय: वर्णन का विषय या जिसके सम्बन्ध में बात की जाए या जिसे किसी अन्य के समान बताया जाए वह 'उपमेय' है. 2. उपमान: उपमेय की समानता जिस वस्तु से की जाए या उपमेय को जिसके समान बताया जाये वह उपमान होता है. ३. वाचक शब्द: उपमेय और उपमान के बीच जिस शब्द के द्वारा समानता बताई जाती है, उसे वाचक शब्द कहते हैं. ४. साधारण धर्म: उपमेय और उपमान दोनों में पाया जानेवाला गुण जो समानता का कारक हो, उसे साधारण धर्म कहते हैं. उदाहरण: शब्द बचे रहें जो चिड़ियों की तरह कभी पकड़ में नहीं आते - मंगेश डबराल, साहित्य शिल्पी में इस छंदमुक्त कविता में 'शब्द' उपमेय, 'चिडियों' उपमान, 'तरह' वाचक शब्द तथा 'पकड़ में नहीं आते' साधारण धर्म है. उपमा अलंकार के प्रकार: उपमा के उक्त चारों अंग कभी स्पष्ट दिखते हैं, कभी अदृश्य रहते हैं. १. पूर्णोपमा- जहाँ उपमेय, उपमान, वाचक शब्द व साधारण धर्म इन चारों अंगों का उल्लेख हो. उदाहरण: १. सागर सा गंभीर ह्रदय हो, गिरि सा ऊँचा हो जिसका मन ध्रुव सा जिसका अटल लक्ष्य हो, दिनकर सा हो नियमित जीवन उपमेय- ह्रदय, मन,लक्ष्य, जीवन उपमान- सागर, गिरि, ध्रुव, दिनकर साधारण धर्म- गंभीर, ऊँचा, अटल, नियमित वाचक शब्द- सा २. घिर रहे थे घुँघराले बाल, अंस अवलंबित मुख के पास नीलघन शावक से सुकुमार, सुधा भरने को विधु के पास उपमेय- घुँघराले बाल उपमान- नीलघन शावक साधारण धर्म- सुकुमार वाचक शब्द- से २. लुप्तोपमा- जहाँ उक्त चार अंगों में से किसी या किन्हीं का उल्लेख न हो अर्थात वह लुप्त हो तो वहाँ 'लुप्तोपमा अलंकार' होता है. लुप्तोपमा के ४ भेद: उक्त में से जो अंग लुप्त होता है उसके नाम सहित लुप्तोपमा को पहचाना जाता है. (१) उपमेय लुप्तोपमा: जब उपमेय का उल्लेख न हो, यथा: पड़ी थी बिजली सी विकराल, घन जैसे बाल कौन छेड़े ये काले साँप?, अवधपति उठे अचानक काँप (२) उपमान लुप्तोपमा: जब उपमान का उल्लेख न हो, यथा: तीन लोक झाँकी ऐसी दूसरी न बाँकी जैसी झाँकी झाँकी बाँकी जुगलकिशोर की (३) धर्म लुप्तोपमा: जब धर्म का उल्लेख न हो यथा: प्रति दिन जिसको मैं अंक में साथ ले के निज सकल कुअंकों की क्रिया कीलती की अतिप्रिय जिसका है वस्त्र पीला निराला वह किसलय के अंग वाला कहाँ है? (४) वाचक लुप्तोपमा: जब वाचक शब्द का उल्लेख न हो, यथा: नील सरोरुह श्याम, तरुन अरुन वारिज नयन करहु सो मम उर धाम, सदा क्षीर सागर सयन यथा: १. 'माँगते हैं मत भिखारी के समान' - यहाँ भिखारी उपमान, समान वाचक शब्द, माँगना साधारण धर्म हैं किन्तु मत कौन माँगता है, इसका उल्लेख नहीं है. अतः, उपमेय न होने से यहाँ उपमेय लुप्तोपमा है. २. 'भारत सा निर्वाचन कहीं नहीं है'- उपमेय 'भारत', वाचक शब्द 'सा', साधारण धर्म 'निर्वाचन' है किन्तु भारत की तुलना किस से की जा रही है?, यह उल्लेख न होने से यहाँ उपमान लुप्तोपमा है. ३. 'जनता को अफसर खटमल सा'- यहाँ अफसर उपमेय, खटमल उपमान, सा वाचक शब्द है किन्तु खून चूसने के गुण का उल्लेख नहीं है. अतः, धर्म लुप्तोपमा है. ४. 'नव शासन छवि स्वच्छ गगन'- उपमेय नव शासन, उपमान गगन, साधारण धर्म स्वच्छ है किन्तु वाचक शब्द न होने से 'वाचक लुप्तोपमा' है. *********** उदाहरण : १. और किसी दुर्जय बैरी से, लेना हो तुमको प्रतिशोध तो आज्ञा दो, उसे जला दे दावानल सा मेरा क्रोध - मैथिलीशरण गुप्त, पंचवटी २. यहीं कहीं पर बिखर गयी वह, भग्न विजय माला सी. उनके फूल यहाँ संचित हैं, यह स्मृति शाला सी. ३. सुनि सुरसरि सम पावन बानी. - तुलसीदास, रामचरित मानस ४. अति रमणीय मूर्ति राधा की. ५. नव उज्जवल जल-धार हार हीरक सी सोहित. ६. भोगी कुसुमायुध योगी सा बना दृष्टिगत होता है.- मैथिलीशरण गुप्त, पंचवटी ७. नव अम्बुज अम्बर छवि नीकी. - तुलसीदास, रामचरित मानस ८. मुख मयंक सम मंजु मनोहर. ९. सागर गरजे मस्ताना सा. १०. वह नागिन सी फुफकार गिरी. ११. राधा-वदन चन्द्र सौं सुन्दर. १२. नवल सुन्दर श्याम शरीर की. सजल नीरद सी कल कांति थी. १३. कुंद इंदु सम देह. - तुलसीदास, रामचरित मानस १४. पडी थी बिजली सी विकराल, लपेटे थे घन जैसे बाल. १५. जीते हुए भी मृतक सम रहकर न केवल दिन भरो. १६. मुख बाल रवि सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ. १७. छत्र सा सर पर उठा था प्राणपति का हाथ. १८. लज संकोच विकल भये मीना, विविध कुटुम्बी जिमि धन हीना. १९. सहे वार पर वार अंत तक लड़ी वीर बाला सी. २०.माँ कबीर की साखी जैसी, तुलसी की चौपाई सी. माँ मीरा की पदावली सी माँ है ललित रुबाई सी. माँ धरती के धैर्य सरीखी, माँ ममता की खान है. माँ की उपमा केवल माँ है, माँ सचमुच भगवान है.- जगदीश व्योम, साहित्य शिल्पी में. २१. मंजुल हिमाद्रि का मुकुट शीर्ष राज रहा पद में कमल सा- खिला प्रसन्न लंका है -बृजेश सिंह, आहुति महाकाव्य २२.पूजा की जैसी हर माँ की ममता है माँ की लोरी में मुरली सा जादू है - प्राण शर्मा, साहित्य शिल्पी में २३. रिश्ता दुनियाँ में जैसे व्यापार हो गया - श्यामल सुमन, साहित्य शिल्पी में २४. चहकते हुए पंछियों की सदाएं, ठुमकती हुई हिरणियों की अदाएं! - धीरज आमेटा, साहित्य शिल्पी में ===========================

navgeet

नवगीत :

समय के संतूर पर 
सरगम सुहानी 
बज रही.
आँख उठ-मिल-झुक अजाने
आँख से मिल
लज रही.
*

सुधि समंदर में समाई लहर सी
शांत हो, उत्ताल-घूर्मित गव्हर सी
गिरि शिखर चढ़ सर्पिणी फुंकारती-
शांत स्नेहिल सुधा पहले प्रहर सी
मगन मन मंदाकिनी
कैलाश प्रवहित
सज रही.
मुदित नभ निरखे न कह
पाये कि कैसी
धज रही?
*

विधि-प्रकृति के अनाहद चिर रास सी
हरि-रमा के पुरातन परिहास सी
दिग्दिन्तित रवि-उषा की लालिमा
शिव-शिवा के सनातन विश्वास सी
लरजती रतनार प्रकृति
चुप कहो क्या
भज रही.
साध कोई अजानी
जिसको न श्वासा
तज रही.
*

पवन छेड़े, सिहर कलियाँ संकुचित
मेघ सीचें नेह, बेलें पल्ल्वित
उमड़ नदियाँ लड़ रहीं निज कूल से-
दमक दामिनी गरजकर होती ज्वलित
द्रोह टेरे पर न निष्ठा-
राधिका तज
ब्रज रही.
मोह-मर्यादा दुकूलों
बीच फहरित
ध्वज रही. 

navgeet

नवगीत:
किस पण्डे की जय बोलें 
किस डंडे को रोयें, 
हर चुनाव में आश्वासन की 
खेती होती है.
बेबस जनता
पाँच साल तक
बरबस रोती है.
*
केंद्र, राज्य, पंचायत, मंडी,
कॉलेज या स्कूल.
जब भी होता कहीं इलेक्शन
हिल जाती है चूल.
ताड़ बना देते तिनके को
नाहक देकर तूल.
धोखा देते एक-दूजे को
नाता-रिश्ता भूल.
अनदेखी करते तूफां की
झोंक आँख में धूल.
किस झंडे की जय बोलें
किस गुंडे को रोयें,
हर चुनाव में फटा चीर, चुप
कृष्णा खोती है.
हर घुमाव है
भूल-भुलैयाँ
फँस मति खोती है.
बेबस जनता
पाँच साल तक
बरबस रोती है.
*
गिद्ध, बाज, भेड़िया खड़े हैं
ले पैने नाखून.
तनिक विरोध किया तो होगा
गौरैयों का खून.
देश-विदेश मटकता फिरता
नेता अफ़लातून.
सुत, जमाई,साले खाते
नैतिकता-मुर्गा भून.
सुरा-सुंदरी की बहार है
गली-गली रंगून.
किस फंदे की जय बोलें
किस चंदे को रोयें,
हर चुनाव में खूं -आँसू पी
भूखी सोती है.
घिर अभाव में
बेच रही मत
काँटे बोती है.
बेबस जनता
पाँच साल तक
बरबस रोती है.
*

geet-pratigeet

रचना - प्रति रचना: 
गीत:
घुल गए परछाइयों में चित्र थे जितने

प्रार्थना में उंगलियाँ जुडती रहीं
आस की पौधें उगी तुड्ती रहीं
नैन छोड़े हीरकनियाँ स्वप्न की
जुगनुओं सी सामने उड़ती रहीं 

उंगलियाँ गिनने न पाईं  दर्द थे कितने

फिर हथेली एक फ़ैली रह गई
आ कपोलों पर नदी इक बह गई
टिक नहीं पाते घरोंदे रेत  के
इक लहर आकर दुबारा कह गई

थे विमुख पल प्राप्ति के सब,रुष्ट थे इतने

इक अपेक्षा फिर उपेक्षित हो गई
भोर में ही दोपहर थी सो गई
सावनों को लिख रखे सन्देश को
मरुथली अंगड़ाई आई धो गई 

फिर अभावों में लगे संचित दिवस बंटने 

राकेश खंडेलवाल
५ अक्तूबर २०१५
------------------
प्रतिगीत:

[माननीय राकेश खण्डेलवाल जी को समर्पित]
*
घुल गये परछाइयों में 
चित्र थे जितने
शेष हैं अवशेष मात्र 
पवित्र थे जितने.
क्षितिज पर भास्कर-उषा सँग 
मिला थामे हाथ. 
तुहिन कण ने नवाया फिर 
मौन धारे माथ.
किया वंदन कली ने 
नतशिर हुआ था फूल-
हाय! डाली पवन ने 
मृदु भावना पर धूल. 
दुपहरी तपती रही 
चुभते रहे हँस शूल. 
खो गये अमराइयों में 
मित्र थे जितने.
घुल गये परछाइयों में 
चित्र थे जितने.
 
साँझ मोहक बाँझ 
चाहे सूर्य को ले बाँध. 
तोड़कर भुजपाश  
थामे वह निशा का काँध 
जला चूल्हा  धुएँ से नभ 
श्याम, तम का राज्य. 
चाँद तारे चाँदनी 
मन-प्राण ज्यों अविभाज्य. 
स्नेह को संदेह हरदम 
ही रहा है त्याज्य.
श्वास-प्रश्वासों में घुलते 
इत्र थे जितने.
घुल गये परछाइयों में 
चित्र थे जितने.
 
हवा लोरी सुनाती 
दिक् शांत निद्रा लीन.
नर्मदा से नेह पाकर 
झूम उठती मींन.
घाट पर गौरी विराजी 
गौर का धर ध्यान.
सावनों  में, फागुनों में 
गा सृजन का गान.
विंध्य मेकल सतपुड़ा  
श्रम का सुनाते गान.
'सलिल' संजीवित सपन  
विचित्र थे जितने.
घुल गये परछाइयों में 
चित्र थे जितने.
==========

सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

व्यंग्य लेख:

Sanjeev Persai की प्रोफाइल फोटोगउमाता मेरे सपने में !!!

संजीव परसाई
*

आजकल गउमाता का जमाना है। अचानक रातों रात गउमाता महत्वपूर्ण हो चली हैं। हर कोई गउमाता को अपनी प्राथमिकताओं में सबसे पहले व्यक्त करने को आमादा है। सड़क से लेकर संसद तक गउमाता की ही चर्चा हो रही है। गाय छाप नेता, गाय छाप राजनीति करने में अपने आप को भली प्रकार व्यस्त रखे हैं।

एक दिन मेरे सपने में गउमाता आई। लगीं डांटने मुझे, कहने लगीं - तुम लोग मुझे मां का दर्जा देते हो। नालायकों जानते भी हो कि मां होती क्या हैमेरे दूध से लेकर सींग खुर तक का सौदा तुम लोगों ने पहले से ही कर रखा है इसिलिए मुझे कामधेनु का नाम दे दिया। हालत यह है कि मेरा जीवन सिर्फ इस बात से उपयोगी या अनुपयोगी मानते हो कि मैं दूध देती हूँ या नहीं। दूधवाला ज्यादा दूध के लिए इंजेक्शन लगाता है। उसे एक आध लीटर दूध जरूर ज्यादा मिल जाता हैलेकिन मेरा तो जीवन ही नर्क हो जाता है।  डेयरी में या मुझे पालने वाले मेरी सेवा भी तभी तक करते हैं जब तक कि मैं दुधारू होती हूँ। उसके बाद मेरा कोई भी नहीं है।

मैंने कहा मातेसरकार आपके लिए गौशाला बनाती हैजहां आप अपना जीवन गुजार सकती हैं। गउमाता बोलीं - तुम यह पढ़ी या सुनी हुई बातें कह रहे हो। अगर हकीकत जानना हो तो कभी जाकर इन गउशालाओं की हालत देखना कि जिसे तुम मां कहते हो उसकी वहां आकर क्या हालत हो जाती है। अधिकांशा गौपालक दूध बंद होने या मेरी उम्र निकल जाने पर मुझे सड़क का जूठनकचरा और पन्नी खाने के लिए छोड़ देते हैं। मेरे नाम पर राजनीति तो करते हो पर मेरी समस्याओं का समाधान नहीं खोजते। जिसे तुम माँ कहते हो उसके सुखमय जीवन के लिए है कोई योजना तुम्हारे पास? मैं तुम्हें आदेश देती हूं कि तुम कल तक मेरी समस्याओं का जवाब लाओनहीं तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगी।


गउमाता की गुर्राहट से मेरी नींद खुल गयी। लेकिन सपने की वास्तविकता ने मुझे व्यथित कर दिया। गउमाता के सवाल रह-रहकर मुझे परेशान करने लगे। मैं आम आदमी भला क्या करता। सो पशुपालन विभाग के मंत्री के पास दौड़ गया। बंगले पर पता लगा कि मंत्री जी अभी सो रहे हैं। आप आफिस पहुंचो वहीं मुलाकात होगी। मैं समय पर आफिस पहुंच गया, चारों ओर सन्नाटा देखकर हैरान था। लेकिन पीए ने बताया कि ये तो रोज का मामला है। ये तो वैसे भी लूपलाइन का विभाग है। घंटेभर के इंतजार के बाद मंत्रीजी डोलते डोलते पहुंचे। चैबर में पहुंचे तो उनके पीछे पीछे चाय का केतली लेकर प्यादा भी पहुँच गया। आधा घंटा बाद (शायद चाय पीने के बाद) उन्हें बताया गया कि कोई आपसे मिलना चाहता है। गउमाता के बारे में बात करना चाहता है। मुझे बुलावा आया।


मैंने नमस्कार करके उन्हें सपने वाली बात बताईसाथ ही गउमाता की धमकी वाली बात भी सुनाई और समस्याओं का समाधान चाहा। पहले तो वे ठठाकर हंसे,फिर कहने लगे - उन्हें कहिएगा, हम मां को क्यों नहीं पहचानेंगे। हमने तो अभी अपनी अम्मा के मोतिया का आपरेशन कराया है। मां देवी होती है वैसे ही गउमाता भी देवी है। हमने उनके मंदिर भी बनवाए हैंहमारे देवताओं के साथ उनकी पूजा भी तो करते हैं। हम चाहते हैं कि गउमाता का पूरा ख्याल रखा जाए। हमारी सरकार इसके लिए प्रतिबद्ध है। हम जागरूकता लाएंगे। हमने बजट में गउमाता की संरक्षा के लिए विषेष प्रावधान किए हैं। वे पन्नी न खाएं इसिलिए हमने पन्नी पर ही रोक लगवा दी। उनके स्वच्छंद विचरण के लिए हमने हमने पक्की सड़कें बना रखीं हैं भले ही शहरों का ट्रेफिक ही क्यों प्रभावित न हो। हम इनके लिए जल्द ही कोई ठोस उपाय करने वाले हैं। ठीक है अभी मुझे निकलना है आप उन्हें बताइएगा।

मैं भी वापस हो लिया, रास्ते भर सोचता रहा कि इन्होंने यह सब किया है तो गउमाता की हालत इतनी खराब क्यों हैफिर सोचने लगा कि मुझे क्या मैं तो यही जवाब दे दूंगा। पर क्या वो मानेगीवो गउमाता हैमेरी माता थोड़ी जो झूठ को भी सच मान लेती है। मेरा शाप तो पक्का है....

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रविवार, 4 अक्टूबर 2015

arthalankar

: अलंकार चर्चा १६ :

अर्थालंकार :  
*
रूपायित हो अर्थ से, वस्तु चरित या भाव 
तब अर्थालंकार से, बढ़ता काव्य-प्रभाव 

कारण-कार्य विरोध या, साम्य बने आधार 
तर्क श्रृंखला से 'सलिल', अर्थ दिखे साकार

जब वस्तु, भाव, विचार एवं चरित्र का रूप-निर्धारण शब्दों के चमत्कार के स्थान पर शब्दों के अर्थ से किया जाता है तो वहाँ अर्थालंकार होता है. अर्थालंकार के निरूपण की प्रक्रिया का माध्यम सादृश्य, वैषम्य, साम्य, विरोध, तर्क, कार्य-कारण संबंध आदि होते हैं.  
अर्थालंकार के प्रकार-  
अर्थालंकार मुख्यत: ७ प्रकार के हैं 
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार
२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार
३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार
४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार
५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार
६. लोकनयायमूलक अर्थालंकार
७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार:
इस अलंकार का आधार किसी न किसी प्रकार (व्यक्ति, वस्तु, भाव,विचार आदिकी समानता होती है. सबसे अधिक व्यापक आधार युक्त सादृश्य मूलक अलंकार का उद्भव किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का निरूपण करने के लिये समान गुण-धर्म युक्त अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि से तुलना अथवा समानता बताने से होता है. प्रमुख साधर्म्यमूलक अलंकार उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति, पटटीप, भ्रान्ति, संदेह, स्मरण, अपन्हुति, व्यतिरेक, दृष्टान्त, निदर्शना, समासोक्ति, अन्योक्ति आदि हैं. किसी वस्तु की प्रतीति कराने के लिये प्राय: उसके समान किसी अन्य वस्तु का वर्णन किया जाता है. किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का वर्णन करने से इष्ट अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का चित्र स्पष्ट कराया जाता है. यह प्रक्रिया २ वर्गों में विभाजित की जा सकती है.  
अ. गुणसाम्यता के आधार पर  

आ. क्रिया साम्यता के आधार पर तथा 
इनके विस्तार अनेक प्रभेद सदृश्यमूलक अलंकारों में देखे जा सकते हैं. गुण साम्यता के आधार पर २ रूप देखे जा सकते हैं: 
१. सम साम्य-वैषम्य मूलक- समानता-असमानता की बराबरी हो. जैसे उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, स्मरण, संदेह, प्रतीप आदि अलंकारों में.  
२. साम्य प्रधान - अत्यधिक समानता के कारण भेदहीनता।  यह भेद हीनता आरोप मूलक तथा समाहार मूलक दो तरह की होती है.

इनके २ उप वर्ग क. आरोपमूलक व ख समाहार या अध्यवसाय मूलक हैं.

क. आरोपमूलक अलंकारों में प्रस्तुत (उपमेय) के अंदर अप्रस्तुत (उपमान) का आरोप किया जाता है. जैसे रूपक, परिणाम, भ्रांतिमान, उल्लेख अपन्हुति आदि में.
समाहार या अध्यवसाय मूलक अलंकारों में उपमेय या प्रस्तुत में उपमान या अप्रस्तुत का ध्यवसान हो जाता है. जैसे: उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि.  

ख. क्रिया साम्यता पर आधारित अलंकारों में साम्य या सादृश्य की चर्चा न होकर व्यापारगत साम्य या सादृश्य की चर्चा होती है. तुल्ययोगिता, दीपक, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, शक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, पर्यायोक्ति, व्याजस्तुति, आक्षेप आदि अलंकार इस वर्गान्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं. इन अलंकारों में सादृश्य या साम्य का स्वरुप क्रिया व्यापार के रूप में प्रगट होता है. इनमें औपम्य चमत्कार की उपस्थिति के कारण इन्हें औपम्यगर्भ भी कहा जाता है. 

२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार- 

इन अलंकारों का आधार दो व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का अंतर्विरोध होता है. वस्तु और वास्तु का, गुण और गुण का, क्रिया और क्रिया का कारण और कार्य का अथवा उद्देश्य और कार्य का  या परिणाम का विरोध ही वैशान्य मूलक अलंकारों का मूल है. प्रमुख वैषम्यमूलक अलंकार विरोधाभास, असंगति, विभावना, विशेषोक्ति, विषम, व्याघात, अल्प, अधिक आदि हैं. 

३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार- 

इन अलंकारों का मूल आधार क्रमबद्धता है. एकावली, करणमाला, मालदीपक, सार आदि अलंकार इस वर्ग में रखे जाते हैं. 

४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार- 

इन अलंकारों का उत्स तर्कप्रवणता में अंतर्निहित होती है. काव्यलिंग तथा अनुमान अलंकार इस वग में प्रमुख है. 

५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार-

इस वर्ग में परिसंख्या, यथा संख्य, तथा समुच्चय अलंकार आते हैं. 

६. लोकन्यायमूलक अर्थालंकार-

इन अलंकारों की प्रतीति में लोक मान्यताओं का योगदान होता है. जैसे तद्गुण, अतद्गुण, मीलित, उन्मीलित, सामान्य ततः विशेषक अलंकार आदि.


७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार- किसी कथ्य के पीछे छिपे अन्य कथ्य की प्रतीति करने वाले इस अलंकार में प्रमुख सूक्षम, व्याजोक्ति तथा वक्रोक्ति हैं. 

==================================================  निरंतर १७. 


doha

आज का दोहा:
*
दुखी हुआ ताजिंदगी, सुनी न कांता-राय
सुखी हुआ जब स्नेह का, खोल लिया अध्याय
*

doha-muktak

आज का दोहा-मुक्तक :

पूजा कृष्णा को तनिक, कृष्ण हो गये रुष्ट

कोई कहे कैसे करें, हम सब को संतुष्ट?

माखन-मिसरी भूलकर, पिज्जा-बर्गर ठूँस

चाहें जसुदा कन्हैया, हों पहले से पुष्ट। 

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

मुकतक

मुक्तक :
सज्जित कर दे रत्न मणि, हिंदी मंदिर आज 
'सलिल' निरंतर सृजन कर, हो हिंदी-सर ताज
सरकारों ने कब किया भाषा का उत्थान?
जनवाणी जनतंत्र में, कब कर पाई राज??

alankar

: अलंकार चर्चा १५ :
शब्दालंकार : तुलना और अंतर
*
शब्द कथ्य को अलंकृत, करता विविध प्रकार
अलंकार बहु शब्द के, कविता का श्रृंगार
यमक श्लेष अनुप्रास सँग, वक्र-उक्ति का रंग
छटा लात-अनुप्रास की, कर देती है दंग
साम्य और अंतर 'सलिल', रसानंद का स्रोत
समझ रचें कविता अगर, कवि न रहे खद्योत
शब्दालंकारों से काव्य के सौंदर्य में निस्संदेह वृद्धि होती है, कथ्य अधिक ग्रहणीय तथा स्मरणीय हो जाता है. शब्दालंकारों में समानता तथा विषमता की जानकारी न हो तो भ्रम उत्पन्न हो जाता है. यह प्रसंग विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों, जान सामान्य तथा रचनाकारों के लिये समान रूप से उपयोगी है.
अ. अनुप्रास और लाटानुप्रास:
समानता: दोनों में आवृत्ति जनित काव्य सौंदर्य होता है.
अंतर: अनुप्रास में वर्ण (अक्षर या मात्रा) का दुहराव होता है.
लाटानुप्रास में शब्द (सार्थक अक्षर-समूह) का दुहराव होता है.
उदाहरण: अगम अनादि अनंत अनश्वर, अद्भुत अविनाशी
'सलिल' सतासतधारी जहँ-तहँ है काबा-काशी - अनुप्रास (छेकानुप्रास, अ, स, क)
*
अपना कुछ भी रहा न अपना
सपना निकला झूठा सपना - लाटानुप्रास (अपना. सपना समान अर्थ में भिन्न अन्वयों के साथ शब्द का दुहराव)
आ. लाटानुप्रास और यमक:
समानता : दोनों में शब्द की आवृत्ति होती है.
अंतर: लाटानुप्रास में दुहराये जा रहे शब्द का अर्थ एक ही होता है जबकि यमक में दुहराया गया शब्द हर बार भिन्न (अलग) अर्थ में प्रयोग किया जाता है.
उदाहरण: वह जीवन जीवन नहीं, जिसमें शेष न आस
वह मानव मानव नहीं जिसमें शेष न श्वास - लाटानुप्रास (जीवन तथा मानव शब्दों का समान अर्थ में दुहराव)
*
ढाल रहे हैं ढाल को, सके आक्रमण रोक
ढाल न पाये ढाल वह, सके ढाल पर टोंक - यमक (ढाल = ढालना, हथियार, उतार)
इ. यमक और श्लेष:
समानता: दोनों में शब्द के अनेक (एक से अधिक) अर्थ होते हैं.
अंतर: यमक में शब्द की कई आवृत्तियाँ अलग-अलग अर्थ में होती हैं.
श्लेष में एक बार प्रयोग किया गया शब्द एक से अधिक अर्थों की प्रतीति कराता है.
उदाहरण: छप्पर छाया तो हुई, सर पर छाया मीत
छाया छाया बिन शयन, करती भूल अतीत - यमक (छाया = बनाया, छाँह, नाम, परछाईं)
*
चाहे-अनचाहे मिले, जीवन में तय हार
बिन हिचके कर लो 'सलिल', बढ़कर झट स्वीकार -श्लेष (हार = माला, पराजय)
*
ई. श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति:
समानता: श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति दोनों में किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं.
अंतर: श्लेष में किसी शब्द के बहु अर्थ होना ही पर्याप्त है. वक्रोक्ति में एक अर्थ में कही गयी बात का श्रोता द्वारा भिन्न अर्थ निकाला (कल्पित किया जाना) आवश्यक है.
उदहारण: सुर साधे सुख-शांति हो, मुँद जाते हैं नैन
मानस जीवन-मूल्यमय, देता है नित चैन - श्लेष (सुर = स्वर, देवता / मानस = मनस्पटल, रामचरित मानस)
कहा 'पहन लो चूड़ियाँ', तो हो क्यों नाराज?
कहा सुहागिन से गलत, तुम्हें न आती लाज? - श्लेष वक्रोक्ति (पहन लो चूड़ी - चूड़ी खरीद लो, कल्पित अर्थ ब्याह कर लो)
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navgeet

नवगीत:
*
सत्याग्रह के नाम पर. 
तोडा था कानून
लगा शेर की दाढ़ में 
मनमानी का खून
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बीज बोकर हो गये हैं दूर
टीसता है रोज ही नासूर
तोड़ते नेता सतत कानून
सियासत है स्वार्थ से भरपूर
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भगतसिंह से किया था अन्याय
कौन जाने क्या रहा अभिप्राय?
गौर तन में श्याम मन का वास
देश भक्तों को मिला संत्रास
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कब कहाँ थे खो गये सुभाष?
बुने किसने धूर्तता के पाश??
समय कैसे कर सकेगा माफ़?
वंश का ही हो न जाए नाश.
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तीन-पाँच पढ़ते रहे
अब तक जो दो दून
समय न छोड़े सत्य की
भट्टी में दे भून
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नहीं सुधरे पटकनी खाई
दाँत पीसो व्यर्थ मत भाई
शास्त्री जी की हुई क्यों मौत?
अभी तक अज्ञात सच्चाई
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क्यों दिये कश्मीरियत को घाव?
दहशतों का बढ़ गया प्रभाव
हिन्दुओं से गैरियत पाली
डूबा ही दी एकता की नाव
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जान की बाजी लगाते वीर
जीतते हैं युद्ध सहकर पीर
वार्ता की मेज जाते हार
जमीं लौटा भोंकते हो तीर
.
क्यों बिसराते सत्य यह
बिन पानी सब सून?
अब तो बख्शो देश को
'सलिल' अदा कर नून
*

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015

punruktwadabhas alankar

: अलंकार चर्चा १४ :
पुनरुक्तवदाभास अलंकार
*
जब प्रतीत हो, हो नहीं, काव्य-अर्थ-पुनरुक्ति
वदाभास पुनरुक्त कह, अलंकार कर युक्ति

जहँ पर्याय न मूल पर, अन्य अर्थ आभास.
तहँ पुनरुक्त वदाभास्, करता 'सलिल' उजास..

शब्द प्रयोग जहाँ 'सलिल', ना पर्याय- न मूल.
वदाभास पुनरुक्त है, अलंकार ज्यों फूल..

काव्य में जहाँ पर शब्दों का प्रयोग इस प्रकार हो कि वे पर्याय या पुनरुक्त न होने पर भी पर्याय प्रतीत हों पर अर्थ अन्य दें, वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है.

किसी काव्यांश में अर्थ की पुनरुक्ति होती हुई प्रतीत हो, किन्तु वास्तव  में अर्थ की पुनरुक्ति न हो तब पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।

उदाहरण:

१. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
    जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
    अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।

२.
आतप-बरखा सह 'सलिल', नहीं शीश पर हाथ.
नाथ अनाथों का कहाँ?, तात न तेरे साथ..

यहाँ 'आतप-बरखा' का अर्थ गर्मी तथा बरसात नहीं दुःख-सुख, 'शीश पर हाथ' का अर्थ आशीर्वाद, 'तात' का अर्थ स्वामी नहीं पिता है.

३.
वे बरगद के पेड़ थे, पंछी पाते ठौर.
छाँह घनी देते रहे, उन सा कोई न और..

यहाँ 'बरगद के पेड़' से आशय मजबूत व्यक्ति, 'पंछी पाते ठौर' से आशय संबंधी आश्रय पाते, छाँह घनी का मतलब 'आश्रय' तथा और का अर्थ 'अन्य' है.

४.
धूप-छाँव सम भाव से, सही न खोया धीर.
नहीं रहे बेपीर वे, बने रहे वे पीर..

यहाँ धूप-छाँव का अर्थ सुख-दुःख, 'बेपीर' का अर्थ गुरुहीन तथा 'पीर' का अर्थ वीतराग होना है.

५.
पद-चिन्हों पर चल 'सलिल', लेकर उनका नाम.
जिनने हँस हरदम किया, तेरा काम तमाम..

यहाँ पद-चिन्हों का अर्थ परंपरा, 'नाम' का अर्थ याद तथा 'काम तमाम' का अर्थ समस्त कार्य है.

६. . देखो नीप कदंब खिला मन को हरता है
     यहाँ नीप और कदंब में में एक ही अर्थ की प्रतीति होने का भ्रम होता है  किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। यहाँ नीप का अर्थ है कदंब जबकि कदंब का अर्थ है वृक्षों का समूह।

७. जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता है
    यहाँ कनक और सुवर्ण में अर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत होती है किन्तु है नहीं। कनक का अर्थ है सोना और सुवर्ण का आशय है अच्छे वर्ण का।

८. दुल्हा बना बसंत, बनी दुल्हिन मन भायी
    दुल्हा और बना (बन्ना) तथा दुल्हिन और बनी (बन्नी) में पुनरुक्ति का आभास  भले ही हो किन्तु दुल्हा = वर और बना = सज्जित हुआ, दुल्हिन = वधु और बनी - सजी हुई. अटल दिखने पर भी पुनरुक्ति नहीं है।

९. सुमन फूल खिल उठे, लखो मानस में, मन में ।
    सुमन = फूल, फूल = प्रसन्नता, मानस = मान सरोवर, मन = अंतर्मन।

१० . निर्मल कीरति जगत जहान।
    जगत = जागृत, जहां = दुनिया में।

११. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
    जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
    अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।

kundalini

कुण्डलिनी:
आँखों में सपने हसीं, अधरों पर मुस्कान
सुख-दुःख की सीमा नहीं, श्रम कर हों गुणवान
श्रम कर हों गुणवान बनेंगे मोदी जैसे
बौने हो जायेंगे सुख सुविधाएँ पैसे
करें अनुसरण जग में प्रेरित मानव लाखों
श्रम से जय कर जग मुस्कायें आँखों-आँखों

चित्र पर कविता:

चित्र पर कविता








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हाथों में प्याला रखता हूँ

दिल हिम्मतवाला रखता हूँ.
*
हिंदी सा उजला तन लिखें

इंग्लिश-मन काला रखता हूँ.
*
माटी हो, माटी को घुरूँ

माटी में हाला रखता हूँ.
*
छप्पन इंची सीने के सँग

दिल-दिमाग आला रखता हूँ
*
अलगू-जुम्मन को फुसलाने

क्यों बोलूँ खाला रखता हूँ.
*
दिखे मंच पर सिर्फ सचाई

पीछे घोटाला रखता हूँ
*
नफरत की पैनी नोकों पर

'सलिल' स्नेह-छाला रखता हूँ
*
सत्ता की मधुशाला में भी

जनमत गौशाला रखता हूँ.
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