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बुधवार, 24 जून 2015

chhand salila: pramanika aur panchchamar chhand -sanjiv

छंद सलिला:
प्रमाणिका और पञ्चचामर छंद
संजीव
*
प्रमाणिका
अन्य नाम: नगस्वरूपिणी
प्रमाणिका एक अष्टाक्षरी छंद है. अष्टाक्षरी छंदों के २५६ प्रकार हो सकते हैं। प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ल ग' है।
इसके दोगुने को पञ्चचामर कहते हैं।
ज़रा लगा प्रमाणिका।
लक्षण: जगण रगण + लघु ।s। s। s । s यति ४. ४
उदाहरण:
१.
ज़रा लगाय चित्तहीं। भजो जु नंद नंदहीं।
प्रमाणिका हिये गहौ। जु पार भौ लगा चहौ। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
सही-सही उषा रहे
सही-सही दिशा रहे
नयी-नयी हवा बहे
भली-भली कथा कहे -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
जगो उठो चलो बढ़ो
सभी यहीं मिलो खिलो
न गाँव को कभी तजो
न देव गैर का भजो - संजीव


पञ्चचामर
अन्य नाम: नराच, नागराज
पञ्चचामर एक सोलहाक्षरी छंद है. सोलहाक्षरी छंदों के ६५,५३६ प्रकार हो सकते हैं. प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ज र ज ग' है.
यह प्रमाणिका का दोगुना होता है: प्रमाणिका पदद्वयं वदंति पंचचामरं
लक्षण: जगण रगण जगण रगण जगण + गुरु ।s। ।s। ।s। ।s। ।s। s
उदाहरण:
१.
जु रोज रोज गोपतीय डार पंच चामरै।
जु रोज रोज गोप तीय कृष्ण संग धावतीं।
सु गीति नाथ पाँव सों लगाय चित्त गावतीं।।
कवौं खवाय दूध औ दही हरी रिझावतीं।
सुधन्य छाँड़ि लाज पंच चामरै डुलावतीं।। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
उठो सपूत देश की, धरा तुम्हें पुकारती
विषाद से घिरी पड़ी, फ़टी दशा निहारती
किसान हो कुदाल लो, जवान हो मशाल लो
समग्र बुद्धिजीवियों, स्वदेश को संभाल लो -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
तजो न लाज शर्म ही, न माँगना दहेज़ रे!
करो सुकर्म धर्म ही, भविष्य लो सहेज रे!
सुनो न बोल-बात ही, मिटे अँधेर रात भी.
करो न द्वेष घात ही, उगे नया प्रभात भी.

रावण कृत शिवतांडव स्तोत्र की रचना पञ्चचामर छंद में ही है.
जटाटवीगलज्जल:प्रवाहपावितस्थले। गलेSवलंब्यलंबितां भुजंगतुंगमालिकां।।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादमड्डमर्वयं। चकार चंडताण्डवं तनोतुन: शिव: शिवं।।

muktika: sanjiv

मुक्तिका :
संजीव 
*
बीज बना करते हैं जो वे फसल न होते 
अपने काटें बात अगर तो दखल न होते  
*
जो विराट कहते खुद को वामन हो जाते 
शक्ल दिखानेवाले रिश्ते असल न होते   
*
हर मुश्किल को हँस अपने सर पर लेते हैं 
मदद गैर की करनेवाले निबल न होते 
*
जवां हौसला रखनेवाले हार न मानें 
शेर वही होते हैं नज़्मों-ग़ज़ल न होते
*
रीत गढ़ा करते हैं जो वे नकल न होते 
शीश हथेली पर धरते जो नसल न होते
*

Muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
*
रौशनी कब चराग करते हैं?
वो न सीने में आग धरते हैं.
तेल-बाती सदा जला करती-
पूजकर पैर 'सलिल' तरते हैं.
*
मिले वरदान चाह की हमने
दान वर का नहीं किया तुमने
दान बिन मान कहाँ मिल सकता
उँगलियों पर लिया नचा हमने
*
माँग थी माँग आज भर देना
दान कन्या का झुका सर लेना
ले लिया कर में कर न छूटेगा
ज़िंदगी भर न चुके, कर देना
*


  

muktika: sanjiv

एक प्रयोग- 
मुक्तक मुक्तिका :
संजीव
*
न हास है, न रास है 
अनंत प्यास-त्रास है
जड़ें न हैं जमीन में 
गगन में न उजास है

लक्ष्य क्यों उदास है?
थका-चुका प्रयास है.
कशिश न कोशिशें रुकें  
हुलास ही हुलास है

न आम है, न ख़ास है
भविष्य तो कयास है 
मालियों से पूछिए 
सुवास तो सुवास है 

***

shubhkamna geet: sanjiv

शुभ कामना गीत:
अनुश्री-सुमित परिणय १२-६-२०१५ बिलासपुर 
संजीव 
*
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने हँस कहा: 
'मन तू मन से मिल गया 
है' मन ने फँस कहा
'हाथ थाम ले जरा
तू संग-संग चल,
मान भी ले बात  मेरी
तू न यूँ मचल.
बेरहम न बन कठोर-
दिल जरा पिघल,
आ गया बिहार से 
बिलासपुर सम्हल'
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने धँस कहा.
*
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने रुक कहा:
'क्या करूँ मैं साथ तेरे 
चार-कदम चल? 
कौन जनता न कहीं 
जाए तू बदल?
देख किसी और को 
न जाए झट फिसल? 
कैसे मान लूँ कि तेरी 
प्रीत है असल?
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने तन कहा.
*
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने मुड़ कहा:
'मैं न राम सिया को जो  
भेज दे जंगल
मैं न कृष्ण प्रेमिका को 
जो दे खुद बदल.
लालू-राबड़ी सी करें    
प्रीत हम अटल. 
मोटियार मैं तू
मोटियारी है नवल.'
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने तक कहा.
*
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने झुक कहा:  
चक्रवात जैसी अपनी 
प्रीत हो प्रबल।
लाख हों भूकम्प नहीं 
प्यार हो निबल 
सात जनम संग रहें
हो न हम निबल 
श्वास-श्वास प्रीत व्याप्त 
ज्यों भ्रमर-कमल 
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने मिल कहा.
*
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने फिर कहा:
नीर-क्षीर मिल गया 
न कोई दे दखल
अंतरों से अंतरों को 
पल में दें मसल
चित्र गुप्त ज़िंदगी के 
देख-जान लें 
रीत प्रीत की निभा 
सकें, सजल नयन 
मन जो मन से मिल गया 
तो मन ने हँस कहा.
*  
संगीत संध्या 
११.६.२०१५
होटल ईस्ट पार्क बिलासपुर

शनिवार, 20 जून 2015

muktika: sanjiv

अभिनव प्रयोग 
दोहा मुक्तिका:
संजीव 
*
इस दुनिया का सार है, माटी लकड़ी आग 
चाहे  तू कह ले इसे, खेती बाड़ी साग 
*
तन-बरतन कर साफ़- भर, जीवन में अनुराग
मन हरियाने के लिये, सूना झूम सुन फाग 
 *
सदा सुहागिन श्वास हो, गाये आस विहाग 
प्यास-रास सँग-सँग पले, हास न छूटे-जाग 
*
ज्यों की त्यों चादर रहे, अपनेपन से ताग  
ढाई आखर के लिये, थोड़ा है हर त्याग 
*
बीन परिश्रम की बजा, रीझे मंज़िल-नाग 
सच की राह न छोड़ना, लगे न कोई दाग 
*
हर अंकुर हो पल्ल्वित, तब ऊँची हो पाग 
कलियाँ मुस्काती रहें, रहे महकता बाग़ 
*
धूप-छाँव जैसे पलें, मन में राग-विराग 
मनुज करे जग को मलिन, स्वच्छ करे नित काग. 
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
बाँस के कल्ले उगे फिर 
स्वप्न नव पलता गया 
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
जुही-जुनहाई मिलीं
झट गले
महका बाग़ रे!
गुँथे चंपा-चमेली
छिप हाय
दहकी आग रे!
कबीरा हँसता ठठा
मत भाग
सच से जाग रे!
बीन भोगों की बजी
मत आज
उछले पाग रे!
जवाकुसुमी सदाव्रत
कर विहँस
जागे भाग रे!
हास के पल्ले तले हँस
दर्द सब मिटता गया
त्रास को चुप झेलता तन-
सुलगता-जलता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
प्रथाएँ बरगद हुईं
हर डाल
बैठे काग रे!
सियासत का नाग
काटे, नेह
उगले झाग रे!
घर-गृहस्थी लग रही
है व्यर्थ
का खटराग रे!
छिप न पाते
चदरिया में
लगे इतने दाग रे!
बिन परिश्रम कब जगे
हैं बोल
किसके भाग रे!
पीर के पल्ले तले पल
दर्द भी हँसता गया
जमीं में जड़ जमाकर
नभ छू 'सलिल' उठता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*

शुक्रवार, 19 जून 2015

muktika: salil

मुक्तिका:
संजीव 
*
मापनी: 
१२१२ / ११२२ / १२१२ / २२ 
ल ला ल ला ल ल ला ला, ल ला ल ला ला ला
महारौद्र जातीय सुखदा छंद 
*
मिलो गले हमसे तुम मिलो ग़ज़ल गाओ 
चलो चलें हम दोनों चलो चलें आओ 
यही कहीं लिखना है हमें कथा न्यारी 
कली खिली गुल महके सुगंध फैलाओ 
कहो-कहो कुछ दोहे चलो कहो दोहे 
यहीं कहीं बिन बोले हमें निकट पाओ 
छिपाछिपी कब तक हो?, लुकाछिपी छोड़ो 
सुनो बुला मुझ को लो, न हो तुम्हीं आओ 
भुला गिले-शिकवे दो, सुनो सपन देखो 
गले मिलो हँस के प्रिय, उन्हें 'सलिल' भाओ 
***  
क्या यह 'बहरे मुसम्मन मुरक़्क़ब मक्बूज़ मख्बून महज़ूफ़ो मक्तुअ' में है?

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
पगड़ी हो 
या हो दिल 
न किसी का उछालिये 
*
हँसकर गले लगाइये 
या हाथ मिलायें 
तीरे-नज़र से दिल, 
छुरे से पीठ बचायें 
हैं आम तो न ख़ास से 
तकरार कीजिए- 
जो कीजिए तो झूठ 
न इल्जाम लगायें 
इल्हाम हो न हो 
नहीं किरदार गिरायें  
कैसे भी हो 
हालात  
न जेबें खँगालिये   
पगड़ी हो 
या हो दिल 
न किसी का उछालिये 
*
दिल से भले भुलाइये  
नीचे न गिरायें  
यादें न सही जाएँ तो 
चुपके से सिरायें 
माने न मन तो फिर 
मना इसरार कीजिए- 
इकरार कीजिए 
अगर तो शीश चढ़ायें 
जो पाठ खुद पढ़ा नहीं 
न आप पढ़ायें   
बच्चे बिगड़ न जाएँ 
हो सच्चे   
सम्हालिए 
पगड़ी हो 
या हो दिल 
न किसी का उछालिये 
*

गुरुवार, 18 जून 2015

dohe: sanjiv

दोहा के रंग बाल के संग 
संजीव  
*
बाल-बाल जब भी बचें, कहें देव! आभार 
बाल न बांका हो कभी कृपा करें सरकार 
बाल खड़े हों जब कभी, प्रभु सुमिरें मनमीत 
साहस कर उठ हों खड़े, भय पर पायें जीत 
नहीं धूप में किये हैं, हमने बाल सफेद
जी चाहा जीभर लिखा, किया न किंचित खेद 
सुलझा काढ़ो ऊँछ लो, पटियां पारो खूब 
गूंथौ गजरा बाल में, प्रिय हेरे रस-डूब 
बाल न बढ़ते तनिक भी, बाल चिढ़ाते खूब 
तू न तरीका बताती, जाऊँ नदी में डूब 
*
बाल होलिका-ज्वाल में, बाल भूनते साथ 
दीप बाल, कर आरती, नवा रहे हैं माथ 
बाल मुँड़ाने से अगर, मिटता मोह-विकार 
हो जाती हर भेद तब, भवसागर के पार
बाल और कपि एक से, बाल-वृद्ध हैं एक 
वृद्ध और कपि एक क्यों, माने नहीं विवेक?
*
बाल बनाते जा रहे, काट-गिराकर बाल
सर्प यज्ञ पश्चात ज्यों, पड़े अनगिनत व्याल 
*
बाल बढ़ें लट-केश हों, मिल चोटी हों झूम
नागिन सम लहर रहे, बेला-वेणी चूम
*
अगर बाल हो तो 'सलिल', रहो नाक के बाल 
मूंछ-बाल बन तन रखो, हरदम उन्नत भाल 
*
भौंह-बाल तन चाप सम, नयन बाण दें मार
पल में बिंध दिल सूरमा, करे हार स्वीकार 
*
बाल पूंछ का हो रहा, नित्य दुखी हैरान 
धूल हटा, मक्खी भगा, थके-चुके हैरान 
*
बाल बराबर भी अगर, नैतिकता हो संग 
कर न सकेगा तब सबल, किसी निबल को तंग 
*
बाल भीगकर भीगते, कुंकुम कंचन देह 
कंगन-पायल मुग्ध लख, बिन मौसम का मेह 
*
गिरें खुद-ब-खुद तो नहीं, देते किंचित पीर 
नोचें-तोड़ें बाल तो, हों अधीर पा पीर 
*

lekh: jal sankat aur naharen -sanjiv

विशेष आलेख 
जल संकट और नहरें 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल''
*
अनिल, अनल, भू, नभ, सलिल, पंच तत्वमय देह 
रखें समन्वय-संतुलन, आत्म तत्व का गेह 

जल जीवन  का पर्याय है. जीवन हेतु अपरिहार्य शेष ४  तत्व मिलने पर भी  जीवन क्रम तभी आरम्भ होता है जब जल का संयोग होता है. शेष ४ तत्वों की तुलना में पृथ्वी पर जल की सीमित मात्रा उसे और अधिक महत्वपूर्ण बना देती है. सकल जल में से मानव जीवन हेतु आवश्यक पेय जल अथवा मीठे पानी की मात्रा न केवल कम है अपितु निरंतर कम होती जा रही है जबकि मानव की जनसँख्या निरंतर बढ़ती जा रही है. फलत:, अगला विश्व युद्ध जल भंडारों को लेकर होने की संभावना व्यक्त की जाने लगी है.पानी की घटती मात्रा और बढ़ती आवश्यकता से बढ़ रही विषमता के लिए लोक और तंत्र दोनों बराबरी से जिम्मेदार हैं. लोक इसलिए कि वह जल का अपव्यय तो करता है पर जल-संरक्षण का कोई उपाय नहीं करता, तंत्र इसलिए की वह साधन संपन्न होने पर भी जन सामान्य को न तो जल-संरक्षण के प्रति जागरूक करता हैं न ही जल-संरक्षण कार्यक्रम और योजनाओं को प्राथमिकता देता है. 

नहर: क्या और क्यों?
जल की उपलब्धता के २ प्रकार प्राकृतिक तथा कृत्रिम हैं. प्राकृतिक संसाधन नदी, झरने, झील, तालाब और समुद्र हैं, कृत्रिम साधन तालाब, कुएँ, बावड़ी, तथा जल-शोधन संयंत्र हैं. भारत जैसे विशाल तथा बहुसांस्कृतिक देश में ऋतु परिवर्तन के अनुसार पानी की आवश्यकता विविध आय वर्ग के लोगों में भिन्न-भिन्न होती है. जल का सर्वाधिक दोहन तथा बर्बादी संपन्न वर्ग करता है जबकि जल-संरक्षण में इसकी भूमिका शून्य है. जल संरक्षण के कृतिम या मानव निर्मित साधनों में नहर सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक है. नहर का आकार-प्रकार प्रकृति, पर्यावरण, आवश्यकता और संसाधन का तालमेल कर निर्धारित किया जाता है. नदी की तुलना में लघ्वाकारी होने पर भी नहर जन-जीवन को अधिक लाभ और काम हानि पहुँचाती है.  

नहर मानव निर्मित कृत्रिम जल-प्रवाह पथ है जिसका आकार, दिशा, ढाल, बहाव तथा पानी की मात्रा तथा समय मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्धारित-नियंत्रित कर सकता है. 

नदी का बहाव-पथ प्राकृतिक भौगोलिक परिस्थिति अनुसार ऊपर से नीचे की ओर होता है. नदी में आनेवाले जल की मात्रा जल संग्रहण क्षेत्र के आकार-प्रकार तथा वर्षा की तीव्रता एवं अवधि पर निर्भर होती है. इसीलिए वर्ष कम-अधिक होने पर नदी में बाढ़ कम या अधिक आती है. वर्षा न्यून हो तो नदी घाटी में जलाभाव से फसलें तथा जन-जीवन प्रभावित होता है. वर्षा अधिक हो तो जलप्लावन से जन-जीवन संकट में पड़ जाता है. नदी के प्रवाह-पथ परिवर्तन से सभ्यताओं के मिटने के अनेक उदहारण मानव को ज्ञात हैं तो सभ्यता का विकास नदी तटों पर होना भी सनातन सत्य है. 

नहर नदियों के समान उपयोगी होती है पर नदियों के समान विनाशकारी नहीं होती। इसलिए नहर का अधिकतम निर्माण कर पीने, सिंचाई तथा औद्योगिक उपयोग हेतु जल की अधिक उपलब्धता कर सकना संभव है. नहर से भूजल स्तर में वृद्धि, मरुस्थल के विस्तार पर रोक, अनुपजाऊ भूमि पर कृषि, वन संवर्धन, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार अवसर तथा वाणिज्य-उद्योग का विस्तार करना भी संभव है. नहरें देश से लुप्त होती वनस्पतियों और पशु-पक्षियों के साथ-साथ जनजातीय संस्कृति के संवर्धन में भी उपयोगी हो सकती है. नहर लोकजीवन, लोक संस्कृति की रक्षा कर ग्रामीण जीवन को सरल, सहज, समृद्ध कर नगरों में बढ़ते जनसँख्या दबाब को घटा सकती है. 

नहर वायुपथ, रेलगाड़ी और सड़क यातायात की तुलना में बहुत कम खर्चीला जल यातायात साधन उपलब्ध करा सकती है. नहर के किनारों पर नई तथा व्यवस्थित बस्तियां बनाई जा सकती हैं. नहरों के किनारों पर पौधरोपण कर वन तथा बागीचे लगाये जाएँ तो वर्षा  की नियमितता तथा वृद्धि संभव है. इस वनों तथा उद्यानों की उपज समीपस्थ गाँवों में उद्योग-व्यापार को बढ़ाकर आजीविका के असंख्य साधन उपलब्ध करा सकती है. नहरों के किनारों पर पवन चक्कियों तथा सौर ऊर्जा उत्पादन की व्यवस्था संभव है जिससे विद्युत-उत्पादन किया जा सकता है. 

नहर बनाकर प्राकृतिक नदियों को जोड़ा जा सके तो बाढ़-नियंत्रण, आवश्यकतानुसार जल वितरण तथा अल्पव्ययी व न्यूनतम जोखिमवाला आवागमन संभव है. नहर में मत्स्य पालन कर बड़े पैमाने पर खाद्य प्राप्त किया जा सकता है. नहर से कमल व् सिंघाड़े की तरह जलीय फसलें लेकर उनसे विविध रोजगार साधन बढ़ाये जा सकते हैं. नहरों में तैरते हुए होटल, उद्यान आदि का विकास हो तो पर्यटन का विकास हो सकता है. नहर के किनारों पर संरक्षित वन लगाकर  उन्हें दीवाल से घेरकर अभयारण्य बनाये जा सकते हैं.  

नहर निर्माण : उद्देश्य और उपादेयता  

नहर निर्माण की योजना बनाने के पूर्व आवश्यकता और उपदेयता का  आकलन जरूरी है. मरुथली क्षेत्र में नहर बनाने का उद्देश्य किसी नदी के जल से पेयजल तथा कृषि कार्य हेतु जल उपलब्ध करना हो सकता है. राजस्थान तथा गुजरात में इस तरह का कुछ कार्य हुआ है. बारहमासी नदियों से जल लेकर सूखती हुई नदियों में डाला जाए तो उन्हें नव जीवन मिलने के साथ-साथ समीपस्थ नगरों को पेय जल मिलता है, उजड़ रहे तीर्थ फिर से बसते हैं. नर्मदा नदी से साबरमती में जल छोड़कर गुजरात तथा क्षिप्रा नदी में जल छोड़कर मध्य प्रदेश में यह कार्य किया गया है. 

नहर निर्माण का प्रमुख उद्देश्य सिंचाई रहा है. देश के विविध प्रदेशों में वृहद, माध्यम तथा लघु सिंचाई योजनाओं के माध्यम से लाखों हेक्टेयर भूमि की सिंचाई कर खड़ी  वृद्धि की गयी  है. खेद है कि  इन नहरों का निर्माण करनेवाला विभाग राजस्व तो संकलित करता है पर नहरों की मरम्मत, देखरेख तथा विस्तार या अन्य गतिविधियों के लिये आर्थिक रूप से विपन्न रहा आता है. जल संसाधन विभाग में नहरों में जम रही तलछट को एकत्र कर खाद के रूप में विक्रय करने, नहरों में साल भर जल रखकर जलीय फसलों का उत्पादन करने, नहरों का जल यातायात हेतु उपयोग करने, नहरी जल को हर गाँव के पास जल शोधन संयंत्र में शुद्ध कर पेयजल उपलब्ध कराने, नहर के किनारों  पर मृदा का रासायनिक परीक्षण कर अधितम् लाभ देनेवाली फसल उगने और गाँवों के दूषित जल-मल को  शोधन संयंत्रों में शुद्ध कर पुन: नहर में मिलाने की कोई परिकल्पना या योजना ही नहीं है. 

नहरों का बहुउद्देश्यीय उपयोग करने के लिये आकार, ढाल, जल की मात्रा, जलक्षरणरोधी होने तथा उनके किनारों के अधिकतम उपयोग करने की व्यावहारिक योजनाएं बनाना होंगी. अभियंताओं और कृषिवैज्ञानिकों को नवीन अवधराओं के विकास तथा  नये प्रयोगों  स्वतंत्रता तथा क्रिवान्वयन हेतु वित्त व अधिकार देना होंगे. विभागों द्वारा संकलित राजस्व का कुछ अंश विभाग को देना होगा ताकि नहरों का संधारण और विकास नियमित रूप से हो सके. 

 स्थल चयन: 

नहर कहाँ बनाई जाए? यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है. अब तक जल परियोजनाओं के अंतर्गत बांधों से खेतों की सिंचाई करने के लिये नहरें बनायी जाती रही हैं. इन नहरों को बारहमासी जलप्रवाही बनाने के लिए उन्हें जलरोधी भी बनाना होग. इस हेतु आर्थिक साधनों की आवश्यकता होगी. पूर्वनिर्मित तथा प्रस्तावित नहरों के प्रवाह-पथ क्षेत्र का सर्वेक्षण कर भूस्तर के अनुसार खुदाई-भराई की  जानेवाली मृदा की मात्रा, समीपस्थ या प्रस्तावित बस्तियों की जनसँख्या के आधार पर वर्तमान तथा २० वर्ष बाद वांछित पेय जल तथा निष्क्रमित जल-मल की मात्रानुसार शोधन संयंत्रों की आवश्यकता, हो रही तथा संभावित कृषि हेतु वांछित जल की मात्रा व समय, नहरों में तथा उपलब्ध स्थल अनुसार मत्स्य पालन कुण्ड निर्माण की संभावना, संख्या तथा व्यय, नहर के किनारों पर लगाई जा सकनेवाली वनोपज तथा वनस्पतियाँ (बाँस आँवला, बेल, सीताफल, केला, संतरा, सागौन, साल ) का मृदा के आधार पर चयन, इन वनोपजों के विक्रय हेतु बाजार की उपलब्धता,  वनोपजों का उपयोग कर सकने वाले लघु-कुटीर उद्योगों का विकास व उत्पाद के विपणन की व्यवस्था, नहरों के किनारों पर विकसित वनों में अभयारण्य बनाकर प्राणियों को खला छोड़ने एवं पर्यटकों को सुरक्षित पिंजरों में घूमने की व्यवस्था,  मृदा के प्रकार, संभावित फसलों हेतु वांछित जल की मात्रा व समय, समीपस्थ तीर्थों तथा प्राकृतिक स्थलों का विकास कर पर्यटन को प्रोत्साहन, नहर के तटों पर वायु प्रवाह के अनुसार पवनचक्कियों  ऊर्जा केन्द्रों की स्थापना, विद्युत उत्पादन-विपणन, जनसंख्यानुसार नए ग्रामों की स्थापना-विकास नहर में जल ग्रहण तह नहर से जल निकास की मात्रा का आकलन तथा उपाय, अधिकतम-न्यूनतम वर्षाकाल में नहर में आनेवाली जल की मात्रा का आकलन व्यवस्था जल-परिवहन तथा यातायात हेति वांछित नावों, क्रूजरों की आवश्यकता और उन्हें किनारों पर लगाने के लिये घाट निर्माण आदि महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिनका पूर्वानुमान कर लक्ष्य निर्धारित किये जाने चाहिए. भौगोलिक स्थिति के अनुसार आवश्यकता होने पर सुरंग बनाने, बाँध बनाकर जलस्तर उठाने का भी ध्यान रखना होगा.  

बाधा और निदान:
बाँध आरम्भ होते समय अभियंताओं की बड़ी संख्या में भर्ती तथा परियोजना पूरी होने पर उन्हें अनावश्यक भार मानकर आर्थिक आवंटन न देने की प्रशासनिक नीति ने अभियंताओं के अमनोबल को तोडा है तथा उनकी कार्यक्षमता व् गुणवत्ता पर  पड़ा है. दूसरी और राजस्व वसूली का पूरा विभाग होते हुए भी अभियंताओं को तकनीकी काम से हटाकर राजस्व वसूली पर लगाना और वसूले राजस्व में से कोई राशि नहर या बांध के संरक्षण हेतु न देने की नीति ने बाँधों और नहरों के रख-रखाव पर विपरीत छोड़ा है. इस समस्या को सुलझाने के लिये एक नीति बनायी जा सकती है. योजना पूर्ण होने पर प्राप्त राजस्व के ४ हिस्से  कर एक हिस्सा भावी निर्माणों के लिये राशि जुटाने के लिये केंद्र सरकार को, एक हिस्सा योजनाओं पर लिया ऋण छकाने के लिये राज्य सरकार को, एक हिस्सा योजना के संधारण हेतु सम्बंधित विभाग / प्राधिकरण को, एक हिस्सा समीपस्थ क्षेत्र या गाँव का विकास करने हेतु स्थानीय निकाय को दिया जा सकता है. योजना के आरम्भ से लेकर पूर्ण होने और संधारण तक का कार्य एक ही निकाय का हो तो पूर्ण जानकारी, नियंत्रण तथा संधारण सहज होग. इससे जिम्मेदारी की भावना पनपेगी तथा उत्तरदायित्व का निर्धारण भी किया जा सकेगा. विविध विभागों को एक साथ जोड़ने पर अधिकारों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को लेकर अनावश्यक टकराव होता है. 

लाभ:   

यदि नहर निर्माण को प्राथमिकता के साथ पूरे देश में प्रारम्भ किया जाए तो अनेक लाभ होंगे. 
१. विविध विभागों में नियुक्त तथा सिंचाई योजनाएं पूर्ण हो चुकने पर निरुपयोगी कार्य कर वेतन पा रहे अभियन्ताओं की क्षमता तथा योग्यता का उपयोग हो सकेगा.
२. असिंचित-बंजर भूमि पर कृषि हो सकेगी, उत्पादन बढ़ेगा. 
३. व्यर्थ बहता वर्ष जल संचित-वितरित कर जल-प्लावन (बाढ़) को नियंत्रित किया जा सकेगा. 
४. गाँवों का द्रुत विकास होगा. शुद्ध पेय जल मिलाने तथा मल-जल शोधन व्यवस्था होने से स्वास्थ्य सुधरेगा. 
५. पवन तथा सौर ऊर्जा का उपयोग कर जीवनस्तर को उन्नत किया जा सकेगा. 
६. सस्ती और सर्वकालिक जल यातायात से को  व्यकिगत वाहन  ईंधन पर व्यय से राहत मिलेगी. 
७. देश के ऑइल पूल का घाटा कम होगा.
८. नये रोजगार अवसरों  होगा। इसका लाभ गाँव के सामान्य युवाओं को होगा.
९. कृषि, वनोपजों, वनस्पतियों, मत्स्य आदि का उत्पादन बढ़ेगा. 
१०. नये पर्यटन स्थलों का विकास होगा. 
११.कुटीर तथा लघु उद्योगों को नयी दिशाएँ मिलेंगी.
१२. पशु पालन सुविधाजनक होगा।
१३. सहकारिता आंदोलन सशक्त होगा.
१४. अभ्यारण्यों  तथा वानस्पतिक उद्यानों के निर्माण से लुप्त होती प्रजातियों का संरक्षण संभव होगा.
१५. समरसता तथा सद्भाव की वृद्धि होगी. 
१६. केंद्र-राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों की आय बढ़ेगी तथा व्यय घटेगा. 
१७. गाँवों में सुविधाएँ बढ़ने और यातायात सस्ता होने से शहरों पर जनसँख्या वृद्धि का दबाब घटेगा.   
१८. पर्यावरण प्रदूषण कम होगा.
१९. भूजल स्तर बढ़ेगा. 
२०. निरंतर बढ़ते तापमान पर अंकुश लगेगा.
२१. वनवासी अपने सांस्कृतिक वैभव और परम्पराओं के साथ सुदूर अंचलों में रहते हुए जीवनस्तर उठा सकेंगे. 

इन्फ्लुएंस ऑफ़ सिल्वीकल्चर प्रैक्टिसेस ऑन द हाइड्रोलॉजी ऑफ़ पाइन फ्लैटवुडस इन फ्लोरिडा के तत्वावधान में एच. रिकर्क द्वारा  संपन्न शोध के अनुसार ''वनस्पतियों का विदोहन किये जाने से वृक्षों के छत्र में  अन्तारोधन तथा भूमि में पानी का अंत:रिसाव घटता है. जलधारा में सीधे बहकर आनेवाले पानी से आकस्मिक बाढ में तेजी आती है.''

नहरों का विकास इस दुष्प्रभाव को रोककर बाढ़ की तीव्रता को कम कर सकता है. वर्तमान भूकम्पीय त्रसदियों के  जनसंख्या सघनता  कम म होना मानव जीवन की हानि को कम करेगा. बड़े बांधों और परमाणु विद्युत उत्पदान की जटिल, मँहगी तथा विवादास्पद  परियोजनाओं की  तुलना में सघन नहर प्रणाली विकसित करने में ही देश का कल्याण है.  क्या सरकारें, जन-प्रतिनिधि, पत्रकार और आम नागरिक इस ओर ध्यान देकर यह परिवर्तन ला सकेंगे? भावी सम्पन्नता का यह द्वार खोलने में जितनी देर होगी नुक्सान उतना ही अधिक होगा.    
​- समन्वयम् २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४ 

बुधवार, 17 जून 2015

dwipadi

द्विपदी 
संजीव
*
औरों की निगाहों से करूँ, खुद का आकलन

ऐसा न दिन दिखाना कभी, ईश्वर मुझे
.

navgeet: sanjiv

नवगीत
संजीव
*
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल 
लाते-दूर करें भूचाल 
.
जिसका जितना अधिक रसूख
उसकी उतनी ज्यादा भूख
छाँह नहीं, फल-फूल नहीं
दे जो- जाए भाड़ में रूख
गरजे मेघ, नाचता देख
जग को देता खुशी मयूख
उलझ न झुँझला
न हो निढाल
हल कर जितने उठे सवाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
.
पेट मिला है केवल एक
पर न भर सकें यत्न अनेक
लगन, परिश्रम, कोशिश कर
हार न माने कभी विवेक
समय-परीक्षक खरा-कड़ा
टेक न सर, कर पूरी टेक
कूद समुद में
खोज प्रवाल
मानवता को करो निहाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
.
मिट-मिटकर जो बनता है
कर्म कहानी जनता है
घूरे को सोना करता
उजड़-उजड़ कर बस्ता है
छलिया औरों को कम पर
खुद को ज्यादा छलता है
चुप रह, करो
न कोई बबाल
हो न तुम्हारा कहीं हवाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
*
१३-१-२०१५
४०१ जीत होटल बिलासपुर

navgeet: bela -sanjiv

नवगीत:
बेला
संजीव
*
मगन मन महका 
*
प्रणय के अंकुर उगे
फागुन लगे सावन.
पवन संग पल्लव उड़े
है कहाँ मनभावन?
खिलीं कलियाँ मुस्कुरा
भँवरे करें गायन-
सुमन सुरभित श्वेत
वेणी पहन मन चहका
मगन मन महका
*
अगिन सपने, निपट अपने
मोतिया गजरा.
चढ़ गया सिर, चीटियों से
लिपटकर निखरा
श्वेत-श्यामल गंग-जमुना
जल-लहर बिखरा.
लालिमामय उषा-संध्या
सँग 'सलिल' दहका.
मगन मन महका
*
१२.६.२०१५
४०१ जीत होटल बिलासपुर

navgeet: bela -sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
बेला 
आहत-घायल 
फिर भी खिलकर
महक रही है
मानो या मत मानो
गुपचुप
करती समर यही है
*
अँगना में बैठी बेला ले
सतुआ खायें उमंगें
गौरैया जैसे ही चहके
एसिड लायें लफंगे
घेरें बना समूह दुष्ट तो
सज्जन भय से सहमें
दहशतगर्दी
करे सियासत
हँसकर मटक रही है
बेला सहती शूल-चुभन
गृह-तरु पर
चहक रही है
बेला
आहत-घायल
फिर भी खिलकर
महक रही है
मानो या मत मानो
गुपचुप
करती समर यही है
*
कैसी बेला आयी?
परछाईं से भी भय लगता
दुर्योधन हटता है तो
दु:शासन पाता सत्ता
पांडव-कृष्ण प्रताड़ित तब भी
अब भी दहले रहते
ला, बे ला! धन
भूख तन्त्र की
निष्ठा गटक रही है
अलबेला
जन मत भरमाया
आस्था बहक रही है
बेला
आहत-घायल
फिर भी खिलकर
महक रही है
मानो या मत मानो
गुपचुप
करती समर यही है
*

navgeet: bela -sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
आइये!
बेला बनें हम
खुशबुएँ कुछ बाँट दें
*
अंकुरित हो जड़ जमायें
रीति-नीति करें ग्रहण.
पल्लवित हो प्रथाओं को
समझ करिए आचरण.
कली कोमल स्वप्न अनगिन
नियम-संयम-अनुकरण
पुष्प हो जग करें सुरभित
सत्य का कर अनुसरण.
देख खरपतवार
करे दें दूर,
कंटक छाँट दें.
खुशबुएँ कुछ बाँट दें.
*
अंधड़ों का भय नहीं कुछ
आजमाता-मोड़ता.
जो उगाता-सींचता है
वही आकर तोड़ता.
सुई चुभाता है ह्रदय में
गूँथ धागों में निठुर
हार-वेणी बना पहने
सुखा देता, छोड़ता.
कहो क्या हम
मना कर दें?
मन न करता डांट दें.
खुशबुएँ कुछ बाँट दें.
*
जिंदगी की क्यारियों में
हम खिलें बन मोगरा.
स्नेह-सुरभित करें जग को
वही आकर तोड़ता.
सुई चुभाता है ह्रदय में
गूँथ धागों में निठुर
हार-वेणी बना पहने
सुखा देता, छोड़ता.
कहो क्या हम
मना कर दें?
मन न करता डांट दें.
आइये!
बेला बनें हम
खुशबुएँ कुछ बाँट दें
*

   

navgeet: bela -sanjiv

नवगीत:
बेला महका 
संजीव 
*
जाने किस बेला में 
बेला बहका था?
ला, बे ला झट तोड़ 
मोह कह चहका था.
*
कमसिन कलियों की कुड़माई सुइयों से 
मैका छूटा, मिलीं सासरे गुइयों से 
खिल-खिल करतीं, लिपट-लिपट बन-सज वेणी 
बेला दे संरक्षण स्नेहिल भइयों से 
बेलावल का मन  
महुआ सा महका था 
जाने किस बेला में 
बेला बहका था?
*
जाने किस बेला से बेला टकरायी 
कौन बता पाये ऊँचाई-गहराई 
आब मोतिया जुही, चमेली, चंपा सी 
सुलभा संग सितांग करे हँस पहुनाई 
बेलन सँग बेलनी कि
मौसम दहका था.  
जाने किस बेला में 
बेला बहका था?
*
बेल न बेली, बेलन रखकर चल बाहर  
दूर बहुत हैं घर से सच बाबुल नाहर 
चंद्र-चंद्रिका सम सिंगार करें हम-तुम 
अलबेली ढाई आखर की है चादर   
अरुणिम गालों पर 
पलाश ही लहका था.  
जाने किस बेला में 
बेला बहका था?
*
टीप: बेला = मोगरा, मोतिया, सितांग, सुलभा, / = समय, अंतराल, / = बेलना क्रिया,/  = तट, तीर, किनारा, / = तरंग, लहर, / = कांसे का कटोरा जैसा  बर्तन, बेलावल = प्रिय, पति,

kruti charcha:

कृति चर्चा: 
हम जंगल के अमलतास : नवाशा प्रवाही नवगीत संकलन
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४ 
[कृति विवरण: हम जंगल के अमलतास, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, २००८, पृष्ठ १२०, १५० रु., आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेटयुक्त, प्रकाशक कादंबरी जबलपुर, संपर्क: २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५] 
*
विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं. इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल  में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता. ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं. संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:

                       नव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं 
                       जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं 
                                              की सरगम तैयार नये संगीत की 
                       कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं 
                       छोटी सी गागर में सागर भरते हैं 
                                              जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की 
                       जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं 
                       गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं 
                                              लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की 
                                              अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की 

सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं. इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है. प्रो. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं. उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं. अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है.' 

निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व. राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व. शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती. सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है. दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव  में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर' 

वृद्ध मेघ क्वांर के (मुखड़ा १२+११ x २, ३ अन्तरा १२+१२ x २ + १२+ ११), वक्त यह बहुरुपिया (मुखड़ा १४+१२ , १-३ अन्तरा १४+१२ x ३, २ अन्तरा १२+ १४ x २ अ= १४=१२), यातनाओं की सुई (मुखड़ा १९,२०,१९,१९, ३ अन्तरा १९ x ६), हम त्रिशंकु जैसे तारे हैं, नयन लाज के भी झुक जाते - पादाकुलक छंद(मुखड़ा १६x २, ३ अन्तरा १६x ६), स्वार्थी सब शिखरस्थ हुए- महाभागवत जाति (२६ मात्रीय), हवा हुई ज्वर ग्रस्त २५ या २६ मात्रा, मार्गदर्शन मनचलों का-यौगिक जाति (मुखड़ा १४ x ४, ३ अन्तरा २८ x २ ), आचरण आदर्श के बौने हुए- महापौराणिक जाति (मुखड़ा १९ x २, ३ अन्तरा १९ x ४), पसलियाँ बचीं (मुखड़ा १२+८,  १०=१०, ३ अन्तरा २०, २१ या २२ मात्रिक ४ पंक्तियाँ), खर्राटे भर रहे पहरुए (मुखड़ा १६ x २+१०, ३ अन्तरा १४ x ३ + १६+ १०),समय क्रूर डाकू ददुआ (मुखड़ा १६+१४ x २, ३ अन्तरा १६ x ४ + १४), दिल्ली तक जाएँगी लपटें (मुखड़ा २६x २, ३ अन्तरा २६x २ + २६), ओछे गणवेश (मुखड़ा २१ x २, ३ अन्तरा २० x २ + १२+१२ या ९), बूढ़ा हुआ बसंत (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा १६ x २ + २६), ब्याज रहे भरते (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा २६ x २ + २६) आदि से स्पष्ट है कि दुबे जी को छंदों पर अधिकार प्राप्त है. वे छंद के मानक रूप के अतिरिक्त कथ्य की माँग पर परिवर्तित रूप का प्रयोग भी करते हैं. वे लय को साधते हैं, यति-स्थान को नहीं. इससे उन्हें शब्द-चयन तथा शब्द-प्रयोग में सुविधा तथा स्वतंत्रता मिल जाती है जिससे भाव की समुचित अभिव्यक्ति संभव हो पाती है.
यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेव ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'...   किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है. अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'. युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं.

राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली'  प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है. अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:

कभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता 
कभी वसंत सुहाना 
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न 
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके 
हों हम मुक्त ऋणों से 

नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:

ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...

.....भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब
हार में भी जीत का निश्चय हुआ है. 
      


प्रो. विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.'

सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'

मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार  रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े.''

नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है. विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं.

'ध्वजा नवगीत की' शीर्षक नवगीत में २२-२२-२१ मात्रीय पंक्तियों के ६ अंतरे हैं. पहला समूह मुखड़े का कार्य कर रहा है, शेष समूह अंतरे के रूप में हैं. तृतीय पंक्ति में आनुप्रसिक तुकांतता का पालन किया गया है.

'हम जंगल के अमलतास' शीर्षक नवगीत पर कृति का नामकरण किया गया है. यह नवगीत महाभागवत जाति के गीतिका छंद में १४+१२ = २६ मात्रीय पंक्तियों में रचा गया है तथा पंक्त्यांत में  लघु-गुरु का भी पालन है. मुखड़े में २ तथा अंतरों में ३-३ पंक्तियाँ हैं.

'जहाँ लोकरस रहते शहदीले' शीर्षक रचना महाभागवत जातीय छंद में है.  मुखड़े तथा २ अंतरांत में गुरु-गुरु का पालन है, जबकि ३ रे अंतरे में एक गुरु है. यति में विविधता है: १६-१०, ११-१५, १४-१२.

'हार न मानी अच्छाई ने' शीर्षक गीत में प्रत्येक पंक्ति १६ मात्रीय है. मुखड़ा १६+१६=३२ मात्रिक है. अंतरे में ३२ मात्रिक २ (१६x४)  समतुकांती पंक्तियाँ है. सवैया के समान मात्राएँ होने पर भी पंक्त्यांत में भगण न होने से यह सवैया गीत नहीं है.

'ममता का छप्पर'  नवगीत महाभागवत जाति का है किन्तु यति में विविधता  १६+१०, ११+१५, १५+११ आदि के कारण यह मिश्रित संकर छंद में है.

'बेड़ियाँ न डालिये' के अंतरे में १२+११=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ, पहले-तीसरे अंतरे में १२+१२=२४ मात्रिक २-२ पंक्तियाँ तथा दूसरे अंतरे में १०+१३=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ है. तीनों अंतरों के अंत में मुखड़े के सामान १२+१२ मात्रिक पंक्ति है. गीत में मात्रिक तथा यति की विविधता के बावजूद प्रवाह भंग नहीं है.

'नंगपन ऊँचे महल का शील है' शीर्षक गीत महापौराणिक जातीय छंद में है. अधिकांश पंक्तियों में ग्रंथि छंद के पिन्गलीय विधान (पंक्त्यांत लघु-गुरु) का पालन है किन्तु कहीं-कहीं अंत के गुरु को २ लघु में बदल लिया गया है तथापि लय भंग न हो इसका ध्यान रखा गया है.


इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है. दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं. उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है.' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है.
***
संपर्क: समन्वयम् २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

   

गीत: राकेश खंडेलवाल

एक गीत:
राकेश खंडेलवाल

आदरणीय संजीव सलिल की रचना ( अच्छे दिन आयेंगे सुनकर जी लिये
नोट भी पायेंगे सुनकर जी लिये ) से प्रेरित
*
प्यास सुलगती, घिरा अंधेरा
बस कुछ पल हैं इनका डेरा
सावन यहाँ अभी घिरता है
और दीप जलने वाले हैं
नगर ढिंढोरा पीट, शाम को तानसेन गाने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं

बँधी महाजन की बहियों में उलझी हुई जन्म कुंडलियाँ
होंगी मुक्त, व्यूह को इनके अभिमन्यु आकर तोड़ेगा
पनघट पर मिट्टी पीतल के कलशों में जो खिंची दरारें
समदर्शी धारा का रेला, आज इन्हें फ़िर से जोड़ेगा

सूनी एकाकी गलियों में
विकच गंधहीना कलियों में
भरने गन्ध, चूमने पग से
होड़ मचेगी अब अलियों में
बीत चुका वनवास, शीघ्र ही राम अवध आने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं

फिर से होंगी पूज्य नारियाँ,रमें देवता आकर भू पर
लोलुपता के बाँध नहीं फिर तोड़ेगा कोई दुर्योधन
एकलव्य के दायें कर का नहीं अँगूठा पुन: कटेगा
राजा और प्रजा में होगा सबन्धों का मृदु संयोजन

लगा जागने सोया गुरुकुल
दिखते हैं शुभ सारे संकुल
मन के आंगन से बिछुड़ेगा
संतापों का पूरा ही कुल
फूल गुलाबों के जीवन की गलियाँ महकाने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं

अर्थहीन हो चुके शब्द ये, आश्वासन में ढलते ढलते
बदल गई पीढ़ी इक पूरी, इन सपनों के फ़ीकेपन में
सुखद कोई अनुभूति आज तक द्वारे पर आकर न ठहरी
भटका किया निरंतर जन गण, जयघोषों के सूने पन में

आ कोई परिवर्तन छू रे
बरसों में बदले हैं घूरे
यहाँ फूल की क्यारी में भी
उगते आये सिर्फ़ धतूरे
हमें पता हैं यह सब नारे, मन को बहकाने वाले हैं
राहें बन्द हो चुकी सारी अच्छे दिन आने वाले हैं ?
*