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बुधवार, 14 सितंबर 2011

राष्ट्रभाषा: मनन-मंथन-मंतव्य -- संजय भारद्वाज, अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन

राष्ट्रभाषा: मनन-मंथन-मंतव्य संजय भारद्वाज,...


राष्ट्रभाषा: मनन-मंथन-मंतव्य
संजय भारद्वाज, अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन

            भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भॉंति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएं लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियॉं उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।

                 यहॉं तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी सभ्यता के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था। किंतु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। फिरंगी देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का "लॉलीपॉप' जरुर दिया गया। धीरे-धीरे "लॉलीपॉप' भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया। अब तो देसी चमड़ी के फिरंगियों की धूर्तता देखकर गोरी चमड़ी का फिरंगी भी दंग रह गया है।

                  प्रश्न है कि जब राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो क्या हमारी व्यवस्था को एक डरा-सहमा लोकतंत्र अपेक्षित था जो मूक और अपाहिज हो? विगत इकसठ वर्षों का घटनाक्रम देखें तो उत्तर "हॉं' में मिलेगा। 

                 राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहॉं की जा रही है।

                राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर सामान्य बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहॉं अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस्क़ृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।

                     सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया- Seeta was sweetheart of Rama! ठीक इसके विपरीत श्रीरामचरित मानस में श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मणजी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मणजी का कहना कि मैंने सदैव भाभी मॉं के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में "चार भिंतीत नाचली' का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

                  शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने प्राथनिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें आज कूड़े-दानों में पड़ी हैं। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।
                   छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में "हर-हर महादेव' और "पीरबाबा सलामत रहें' जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासन कठोर होता हो तो भावुकता अनिवार्य रूप से देश पर लाद दी जानी चाहिए। 

                  वर्तमान में सीनाजोरी अपने चरम पर है। काली चमड़ी के अंगे्रज पैदा करने के लिए भारत में अंग्रेजी शिक्षा लानेवाले मैकाले के प्रति नतमस्तक होता आलेख पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में पढ़ने को मिला। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनरल डायर और जनरल नील-छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के स्थान पर देश में शौर्य के प्रतीक के रूप में पूजे जाने लगेंगे।

                         सामान्यतः श्राद्धपक्ष में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वह सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्रभर में मुद्दा बनाएं। 

                   लगभग तीन दशक पूर्व दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा सा देश आज़ाद हुआ। मंत्रिमंडल की पहली बैठक में निर्णय लिया गया कि देश आज से "रोडेशिया' की बजाय "जिम्बॉब्वे' कहलायेगा। राजधानी "सेंटलुई' तुरंत प्रभाव से "हरारे' होगी। नई सदी प्रतीक्षा में है कि कब "इंडिया'की केंचुली उतारकर "भारत' बाहर आयेगा। आवश्यकता है महानायकों के जन्म की बाट जोहने की अपेक्षा भीतर के महानायक को जगाने की। अन्यथा भारतेंदु हरिशचंद्र की पंक्तियॉं - "

आवहु मिलकर रोवहुं सब भारत भाई,
हा! हा! भारत दुर्दसा न देखन जाई!' 

क्या सदैव हमारा कटु यथार्थ बनी रहेंगी?

सामयिकी: हिंदी का वैश्विक परिदृश्य -- डा. करुणाशंकर उपाध्याय

सामयिकी

हिंदी का वैश्विक परिदृश्य
डा. करुणाशंकर उपाध्याय
 

इक्कीसवीं सदी बीसवीं शताब्दी से भी ज्यादा तीव्र परिवर्तनों वाली तथा चमत्कारिक उपलब्धियों वाली शताब्दी सिद्ध हो रही है। विज्ञान एवं तकनीक के सहारे पूरी दुनिया एक वैश्विक गाँव में तब्दील हो रही है और स्थलीय व भौगोलिक दूरियां अपनी अर्थवत्ता खो रहीं हैं। वर्तमान विश्व व्यवस्था आर्थिक और व्यापारिक आधार पर ध्रुवीकरण तथा पुनर्संघटन की प्रक्रिया से गुजर रही है। ऐसी स्थिति में विश्व के शक्तिशाली राष्ट्रों के महत्त्व का क्रम भी बदल रहा है।
बदलती दुनिया बदलते भाषिक परिदृष्य

यदि हम विगत तीन शताब्दियों पर विचार करें तो कई रोचक निष्कर्ष पा सकते हैं। यदि अठारहवीं सदी आस्ट्रिया और हंगरी के वर्चस्व की रही है तो उन्नीसवीं सदी ब्रिटेन और जर्मनी के वर्चस्व का साक्ष्य देती है। इसी तरह बीसवीं सदी अमेरिका एवं सोवियत संघ के वर्चस्व के रूप में विश्व नियति का निदर्शन करने वाली रही है। आज स्थिति यह है कि लगभग विश्व समुदाय दबी जुबान से ही सही, यह कहने लगा है कि इक्कीसवीं सदी भारत और चीन की होगी। इस सदी में इन दोनों देशों की तूती बोलेगी। इस भविष्यवाणी को चरितार्थ करने वाले ठोस कारण हैं। आज भारत और चीन विश्व की सबसे तीव्र गति से उभरने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से हैं तथा विश्व स्तर पर इनकी स्वीकार्यता और महत्ता स्वत: बढ रही है। इन देशों के पास अकूत प्राकृतिक संपदा तथा युवतर मानव संसाधन है जिसके कारण ये भावी वैश्विक संरचना में उत्पादन के बडे स्रोत बन सकते हैं। अपनी कार्य निपुणता तथा निवेश एवं उत्पादन के समीकरण की प्रबल संभावना को देखते हुए ही भारत और चीन को निकट भविष्य की विश्व शक्ति के रूप में देखा जाने लगा है।

जाहिर है कि जब किसी राष्ट्र को विश्व बिरादरी अपेक्षाकृत ज्यादा महत्त्व और स्वीकृति देती है तथा उसके प्रति अपनी निर्भरता में इजाफा पाती है तो उस राष्ट्र की तमाम चीजें स्वत: महत्त्वपूर्ण बन जाती हैं। ऐसी स्थिति में भारत की विकासमान अंतरराष्ट्रीय हैसियत हिंदी के लिए वरदान-सदृश है। यह सच है कि वर्तमान वैश्विक परिवेश में भारत की बढती उपस्थिति हिंदी की हैसियत का भी उन्नयन कर रही है। आज हिंदी राष्ट्रभाषा की गंगा से विश्वभाषा का गंगासागर बनने की प्रक्रिया में है।
भाषा के वैश्विक संदर्भ की विशेषताएँ-
आखिर, वे कौन सी विशेषताएँ हैं जो किसी भाषा को वैश्विक संदर्भ प्रदान करती हैं। ऐसा करके हम हिंदी के विश्व संदर्भ का वस्तुपरक विश्लेषण कर सकते हैं। जब हम हिंदी को विश्व भाषा में रूपांतरित होते हुए देख रहे हैं और यथावसर उसे विश्वभाषा की संज्ञा प्रदान कर रहे हैं, तब यह जरूरी हो जाता है कि हम सर्वप्रथम विश्वभाषा का स्वरूप विश्लेषण कर लें। संक्षेप में विश्वभाषा के निम्नलिखित लक्षण निर्मित किए जा सकते हैं:-
  •  उसके बोलने-जानने तथा चाहने वाले भारी तादाद में हों और वे विश्व के अनेक देशों में फैले हों।
  • उस भाषा में साहित्य-सृजन की प्रदीर्घ परंपरा हो और प्राय: सभी विधाएँ वैविध्यपूर्ण एवं समृद्ध हों। उस भाषा में सृजित कम-से-कम एक विधा का साहित्य विश्वस्तरीय हो।
  • उसकी शब्द-संपदा विपुल एवं विराट हो तथा वह विश्व की अन्यान्य बडी भाषाओं से विचार-विनिमय करते हुए एक -दूसरे को प्रेरित -प्रभावित करने में सक्षम हो।
  • उसकी शाब्दी एवं आर्थी संरचना तथा लिपि सरल, सुबोध एवं वैज्ञानिक हो। उसका पठन-पाठन और लेखन सहज-संभाव्य हो। उसमें निरंतर परिष्कार और परिवर्तन की गुंजाइश हो।
  • उसमें ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों में वाङमय सृजित एवं प्रकाशित हो तथा नए विषयों पर सामग्री तैयार करने की क्षमता हो।
  • वह नवीनतम वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपलब्धियों के साथ अपने-आपको पुरस्कृत एवं समायोजित करने की क्षमता से युक्त हो।
  • वह अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक संदर्भों, सामाजिक संरचनाओं, सांस्कृतिक चिंताओं तथा आर्थिक विनिमय की संवाहक हो।
  • वह जनसंचार माध्यमों में बडे पैमाने पर देश-विदेश में प्रयुक्त हो रही हो।
  •  उसका साहित्य अनुवाद के माध्यम से विश्व की दूसरी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में पहुँच रहा हो।
  •  उसमें मानवीय और यांत्रिक अनुवाद की आधारभूत तथा विकसित सुविधा हो जिससे वह बहुभाषिक कम्प्यूटर की दुनिया में अपने समग्र सूचना स्रोत तथा प्रक्रिया सामग्री (सॉफ्टवेयर) के साथ उपलब्ध हो। साथ ही, वह इतनी समर्थ हो कि वर्तमान प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों मसलन ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट तथा एस.एम.एस. एवं वेब जगत में प्रभावपूर्ण ढंग से अपनी सक्रिय उपस्थिति का अहसास करा सके ।
  • उसमें उच्चकोटि की पारिभाषिक शब्दावली हो तथा वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की नवीनतम आविष्कृतियों को अभिव्यक्त करते हुए मनुष्य की बदलती जरूरतों एवं आकांक्षाओं को वाणी देने में समर्थ हो।
  • वह विश्व चेतना की संवाहिका हो। वह स्थानीय आग्रहों से मुक्त विश्व दृष्टि सम्पन्न कृतिकारों की भाषा हो, जो विश्वस्तरीय समस्याओं की समझ और उसके निराकरण का मार्ग जानते हों।
वैश्विक संदर्भ में हिंदी की सामर्थ्य
जब हम उपर्युक्त प्रतिमानों पर हिंदी का परीक्षण करते हैं तो पाते हैं कि वह न्यूनाधिक मात्रा में प्राय: सभी निष्कर्षों पर खरी उतरती है। आज वह विश्व के सभी महाद्वीपों तथा महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों- जिनकी संख्या लगभग एक सौ चालीस है- में किसी न किसी रूप में प्रयुक्त होती है। वह विश्व के विराट फलक पर नवल चित्र के समान प्रकट हो रही है। आज वह बोलने वालों की संख्या के आधार पर चीनी के बाद विश्व की दूसरी सबसे बडी भाषा बन गई है। इस बात को सर्वप्रथम सन १९९९ में "मशीन ट्रांसलेशन समिट' अर्थात् यांत्रिक अनुवाद नामक संगोष्ठी में टोकियो विश्वविद्यालय के प्रो. होजुमि तनाका ने भाषाई आँकडे पेश करके सिद्ध किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत आँकडों के अनुसार विश्वभर में चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम और हिंदी का द्वितीय है। अंग्रेजी तो तीसरे क्रमांक पर पहुँच गई है। इसी क्रम में कुछ ऐसे विद्वान अनुसंधित्सु भी सक्रिय हैं जो हिंदी को चीनी के ऊपर अर्थात् प्रथम क्रमांक पर दिखाने के लिए प्रयत्नशील हैं। डॉ. जयन्ती प्रसाद नौटियाल ने भाषा शोध अध्ययन २००५ के हवाले से लिखा है कि, विश्व में हिंदी जानने वालों की संख्या एक अरब दो करोड पच्चीस लाख दस हजार तीन सौ बावन (१, ०२, २५, १०,३५२) है जबकि चीनी बोलने वालों की संख्या केवल नब्बे करोड चार लाख छह हजार छह सौ चौदह (९०, ०४,०६,६१४) है। यदि यह मान भी लिया जाय कि आँकडे झूठ बोलते हैं और उन पर आँख मूँदकर विश्वास नहीं किया जा सकता तो भी इतनी सच्चाई निर्विवाद है कि हिंदी बोलने वालों की संख्या के आधार पर विश्व की दो सबसे बडी भाषाओं में से है। लेकिन वैज्ञानिकता का तकाजा यह भी है कि हम इस तथ्य को भी स्वीकार करें कि अंग्रेजी के प्रयोक्ता विश्व के सबसे ज्यादा देशों में फैले हुए हैं। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशासनिक, व्यावसायिक तथा वैचारिक गतिविधियों को चलाने वाली सबसे प्रभावशाली भाषा बनी हुई है। चूंकि हिंदी का संवेदनात्मक साहित्य उच्चकोटि का होते हुए भी ज्ञान का साहित्य अंग्रेजी के स्तर का नहीं है अत: निकट भविष्य में विश्व व्यवस्था परिचालन की दृष्टि से अंग्रेजी की उपादेयता एवं महत्त्व को कोई खतरा नहीं है। इस मोर्चे पर हिंदी का बडे ही सबल तरीके से उन्नयन करना होगा। उसके पक्ष में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आज अंग्रेजी के बाद वह विश्व के सबसे ज्यादा देशों में व्यवहृत होती है।
आने वाली पीढ़ी की भाषा-
वर्तमान उत्तर आधुनिक परिवेश में विशाल जनसंख्या भारत और चीन के साथ-साथ हिंदी और चीनी के लिए भी फायदेमंद सिद्ध हो रही है। हमारे देश में १९८० के बाद ६५ करोड से ज्यादा बच्चे पैदा हुए हैं। जो विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षित प्रशिक्षित हो रहे हैं। वे सन् २०२५ तक विधिवत प्रशिक्षित पेशेवर के रूप में अपनी सेवाएँ देने के लिए विश्व के समक्ष उपलब्ध होंगे। दूसरी ओर जापान की साठ प्रतिशत से ज्यादा आबादी साठ साल पार करके बुढापे की ओर बढ रही है। यही हाल आगामी पंद्रह सालों में अमेरिका और यूरोप का भी होने वाला है । ऐसी स्थिति में विश्व का सबसे तरुण मानव संसाधन होने के कारण भारतीय पेशेवरों की तमाम देशों में लगातार मांग बढेगी। जाहिर है कि जब भारतीय पेशेवर भारी तादाद में दूसरे देशों में जाकर उत्पादन के स्रोत बनेंगे। वहाँ की व्यवस्था परिचालन का सशक्त पहिया बनेंगे तब उनके साथ हिंदी भी जाएगी। ऐसी स्थिति में जहाँ भारत आर्थिक महाशक्ति बनने की प्रक्रिया में होगा वहाँ हिंदी स्वत: विश्वमंच पर प्रभावी भूमिका का वहन करेगी। इस तरह यह माना जा सकता है कि हिंदी आज जिस दायित्व बोध को लेकर संकल्पित है वह निकट भविष्य में उसे और भी बडी भूमिका का निर्वाह करने का अवसर प्रदान करेगा। हिंदी जिस गति तथा आंतरिक ऊर्जा के साथ अग्रसर है उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि सन २०२० तक वह दुनिया की सबसे ज्यादा बोली व समझी जाने वाली भाषा बन जाएगी।
समर्थ भाषा और वैज्ञानिक लिपि-

यदि हम इन आँकडों पर विश्वास करें तो संख्याबल के आधार पर हिंदी विश्वभाषा है। हाँ, यह जरूर संभव है कि यह मातृभाषा न होकर दूसरी, तीसरी अथवा चौथी भाषा भी हो सकती है। हिंदी में साहित्य-सृजन की परंपरा भी बारह सौ साल पुरानी है। वह ८वीं शताब्दी से लेकर वर्तमान २१वीं शताब्दी तक गंगा की अनाहत-अविरल धारा की भाँति प्रवाहमान है। उसका काव्य साहित्य तो संस्कृत के बाद विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य की क्षमता रखता है। उसमें लिखित उपन्यास एवं समालोचना भी विश्वस्तरीय है। उसकी शब्द संपदा विपुल है। उसके पास पच्चीस लाख से ज्यादा शब्दों की सेना है। उसके पास विश्व की सबसे बडी कृषि विषयक शब्दावली है। उसने अन्यान्य भाषाओं के बहुप्रयुक्त शब्दों को उदारतापूर्वक ग्रहण किया है और जो शब्द अप्रचलित अथवा बदलते जीवन संदर्भों से दूर हो गए हैं उनका त्याग भी कर दिया है। आज हिंदी में विश्व का महत्त्वपूर्ण साहित्य अनुसृजनात्मक लेखन के रूप में उपलब्ध है और उसके साहित्य का उत्तमांश भी विश्व की दूसरी भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से जा रहा है।
जहाँ तक देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता का सवाल है तो वह सर्वमान्य है। देवनागरी में लिखी जाने वाली भाषाएँ उच्चारण पर आधारित हैं। हिंदी की शाब्दी और आर्थी संरचना प्रयुक्तियों के आधार पर सरल व जटिल दोनों है। हिंदी भाषा का अन्यतम वैशिष्ट्य यह है कि उसमें संस्कृत के उपसर्ग तथा प्रत्ययों के आधार पर शब्द बनाने की अभूतपूर्व क्षमता है। हिंदी और देवनागरी दोनों ही पिछले कुछ दशकों में परिमार्जन व मानकीकरण की प्रक्रिया से गुजरी हैं जिससे उनकी संरचनात्मक जटिलता कम हुई है। हम जानते हैं कि विश्व मानव की बदलती चिंतनात्मकता तथा नवीन जीवन स्थितियों को व्यंजित करने की भरपूर क्षमता हिंदी भाषा में है बशर्ते इस दिशा में अपेक्षित बौद्धिक तैयारी तथा सुनियोजित विशेषज्ञता हासिल की जाए। आखिर, उपग्रह चैनल हिंदी में प्रसारित कार्यक्रमों के जरिए यही कर रहे हैं।
मीडिया और वेब पर हिंदी-
यह सत्य है कि हिंदी में अंग्रेजी के स्तर की विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर आधारित पुस्तकें नहीं हैं। उसमें ज्ञान विज्ञान से संबंधित विषयों पर उच्चस्तरीय सामग्री की दरकार है। विगत कुछ वर्षों से इस दिशा में उचित प्रयास हो रहे हैं। अभी हाल ही में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा द्वारा हिंदी माध्यम में एम.बी.ए.का पाठ¬क्रम आरंभ किया गया। इसी तरह "इकोनामिक टाइम्स' तथा "बिजनेस स्टैंडर्ड' जैसे अखबार हिंदी में प्रकाशित होकर उसमें निहित संभावनाओं का उद्घोष कर रहे हैं। पिछले कई वर्षों में यह भी देखने में आया कि "स्टार न्यूज' जैसे चैनल जो अंग्रेजी में आरंभ हुए थे वे विशुद्ध बाजारीय दबाव के चलते पूर्णत: हिंदी चैनल में रूपांतरित हो गए। साथ ही, "ई.एस.पी.एन' तथा "स्टार स्पोर्ट्स' जैसे खेल चैनल भी हिंदी में कमेंट्री देने लगे हैं। हिंदी को वैश्विक संदर्भ देने में उपग्रह-चैनलों, विज्ञापन एजेंसियों, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा यांत्रिक सुविधाओं का विशेष योगदान है। वह जनसंचार-माध्यमों की सबसे प्रिय एवं अनुकूल भाषा बनकर निखरी है।
आज विश्व में सबसे ज्यादा पढे जानेवाले समाचार पत्रों में आधे से अधिक हिन्दी के हैं। इसका आशय यही है कि पढा-लिखा वर्ग भी हिन्दी के महत्त्व को समझ रहा है। वस्तुस्थिति यह है कि आज भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया, मॉरीशस,चीन,जापान,कोरिया, मध्य एशिया, खाडी देशों, अफ्रीका, यूरोप, कनाडा तथा अमेरिका तक हिंदी कार्यक्रम उपग्रह चैनलों के जरिए प्रसारित हो रहे हैं और भारी तादाद में उन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं। आज मॉरीशस में हिंदी सात चैनलों के माध्यम से धूम मचाए हुए है। विगत कुछ वर्षों में एफ.एम. रेडियो के विकास से हिंदी कार्यक्रमों का नया श्रोता वर्ग पैदा हो गया है। हिंदी अब नई प्रौद्योगिकी के रथ पर आरूढ होकर विश्वव्यापी बन रही है। उसे ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट, एस.एम.एस. एवं वेब जगत में बडी सहजता से पाया जा सकता है। इंटरनेट जैसे वैश्विक माध्यम के कारण हिंदी के अखबार एवं पत्रिकाएँ दूसरे देशों में भी विविध साइट्स पर उपलब्ध हैं।
माइक्रोसाफ्ट, गूगल, सन, याहू, आईबीएम तथा ओरेकल जैसी विश्वस्तरीय कंपनियाँ अत्यंत व्यापक बाजार और भारी मुनाफे को देखते हुए हिंदी प्रयोग को बढावा दे रही हैं। संक्षेप में, यह स्थापित सत्य है कि अंग्रेजी के दबाव के बावजूद हिंदी बहुत ही तीव्र गति से विश्वमन के सुख-दु:ख, आशा-आकांक्षा की संवाहक बनने की दिशा में अग्रसर है। आज विश्व के दर्जनों देशों में हिंदी की पत्रिकाएँ निकल रही हैं तथा अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान, आस्ट्रिया जैसे विकसित देशों में हिंदी के कृति रचनाकार अपनी सृजनात्मकता द्वारा उदारतापूर्वक विश्व मन का संस्पर्श कर रहे हैं। हिंदी के शब्दकोश तथा विश्वकोश निर्मित करने में भी विदेशी विद्वान सहायता कर रहे हैं।

राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में हिंदी
जहाँ तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विनिमय के क्षेत्र में हिंदी के अनुप्रयोग का सवाल है तो यह देखने में आया है कि हमारे देश के नेताओं ने समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में भाषण देकर उसकी उपयोगिता का उद्घोष किया है। यदि अटल बिहारी वाजपेयी तथा पी.वी.नरसिंहराव द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में दिया गया वक्तव्य स्मरणीय है तो श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा राष्ट्र मंडल देशों की बैठक तथा चन्द्रशेखर द्वारा दक्षेस शिखर सम्मेलन के अवसर पर हिंदी में दिए गए भाषण भी उल्लेखनीय हैं। यह भी सर्वविदित है कि यूनेस्को के बहुत सारे कार्य हिंदी में सम्पन्न होते हैं। इसके अलावा अब तक विश्व हिंदी सम्मेलन मॉरीशस, त्रिनिदाद, लंदन, सुरीनाम तथा न्यूयार्क जैसे स्थलों पर सम्पन्न हो चुके हैं जिनके माध्यम से विश्व स्तर पर हिंदी का स्वर सम्भार महसूस किया गया। अभी आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव बान की मून ने दो-चार वाक्य हिंदी में बोलकर उपस्थित विश्व हिंदी समुदाय की खूब वाह-वाही लूटी। हिंदी को वैश्विक संदर्भ और व्याप्ति प्रदान करने में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा विदेशों में स्थापित भारतीय विद्यापीठों की केन्द्रीय भूमिका रही है जो विश्व के अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों में फैली हुई है। इन विश्वविद्यालयों में शोध स्तर पर हिन्दी अध्ययन अध्यापन की सुविधा है जिसका सर्वाधिक लाभ विदेशी अध्येताओं को मिल रहा है।

विदेशो में हिंदी
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हिंदी विश्व के प्राय: सभी महत्त्वपूर्ण देशों के विश्व विद्यालयों में अध्ययन अध्यापन में भागीदार है। अकेले अमेरिका में ही लगभग एक सौ पचास से ज्यादा शैक्षणिक संस्थानों में हिंदी का पठन-पाठन हो रहा है। आज जब २१वीं सदी में वैश्वीकरण के दबावों के चलते विश्व की तमाम संस्कृतियाँ एवं भाषाएँ आदान -प्रदान व संवाद की प्रक्रिया से गुजर रही हैं तो हिंदी इस दिशा में विश्व मनुष्यता को निकट लाने के लिए सेतु का कार्य कर सकती है। उसके पास पहले से ही बहु सांस्कृतिक परिवेश में सक्रिय रहने का अनुभव है जिससे वह अपेक्षाकृत ज्यादा रचनात्मक भूमिका निभाने की स्थिति में है। हिंदी सिनेमा अपने संवादों एवं गीतों के कारण विश्व स्तर पर लोकप्रिय हुए हैं। उसने सदा-सर्वदा से विश्वमन को जोडा है। हिंदी की मूल प्रकृति लोकतांत्रिक तथा रागात्मक संबंध निर्मित करने की रही है। वह विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र की ही राष्ट्र भाषा नहीं है बल्कि पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, फिजी, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनिदाद तथा सुरीनाम जैसे देशों की सम्पर्क भाषा भी है। वह भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के बीच खाडी देशों, मध्य एशियाई देशों, रूस, समूचे यूरोप, कनाडा, अमेरिका तथा मैक्सिको जैसे प्रभावशाली देशों में रागात्मक जुडाव तथा विचार-विनिमय का सबल माध्यम है।
यदि निकट भविष्य में बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था निर्मित होती है और संयुक्त राष्ट्र संघ का लोकतांत्रिक ढंग से विस्तार करते हुए भारत को स्थायी प्रतिनिधित्व मिलता है तो वह यथाशीघ्र इस शीर्ष विश्व संस्था की भाषा बन जाएगी। यदि ऐसा नहीं भी होता है तो भी वह बहुत शीघ्र वहाँ पहुँचेगी। वर्तमान समय भारत और हिंदी के तीव्र एवं सर्वोन्मुखी विकास का द्योतन कर रहा है और हम सब से यह अपेक्षा कर रहे हैं कि हम जहाँ भी हैं, जिस क्षेत्र में भी कार्यरत हैं वहाँ ईमानदारी से हिंदी और देश के विकास में हाथ बँटाएँ। सारांश यह कि हिंदी विश्व भाषा बनने की दिशा में उत्तरोत्तर अग्रसर है।

गुण और परिमाण में समृद्ध भाषा
आज स्थिति यह है कि गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से हिंदी का काव्य साहित्य अपने वैविध्य एवं बहुस्तरीयता में संपूर्ण विश्व में संस्कृत काव्य को छोड कर सर्वोपरि है। "पद्मावत', "रामचरित मानस' तथा "कामायनी' जैसे महाकाव्य विश्व की किसी भी भाषा में नहीं है। वर्तमान समय में हिंदी का कथा साहित्य भी फ्रेंच, रूसी तथा अंग्रेजी के लगभग समकक्ष है। हाँ, इतना जरूर है कि जयशंकर प्रसाद को छोड कर हिंदी के पास विश्वस्तरीय नाटककार नहीं हैं। इसकी क्षतिपूर्ति हिंदी सिनेमा द्वारा भलीभाँति होती है। वह देश की सभ्यता, संस्कृति तथा बदलते संदर्भों एवं अभिरुचियों की अभिव्यक्ति का बडा ही सफल माध्यम रहा है। आज हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में जितने रचनाकार सृजन कर रहे हैं उतने बहुत सारी भाषाओं के बोलने वाले भी नहीं हैं। केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में ही दो सौ से अधिक हिंदी साहित्यकार सक्रिय हैं जिनकी पुस्तकें छप चुकी हैं। यदि अमेरिका से "विश्वा', हिंदी जगत तथा श्रेष्ठतम वैज्ञानिक पत्रिका "विज्ञान प्रकाश' हिंदी की दीपशिखा को जलाए हुए हैं तो मॉरीशस से विश्व हिंदी समाचार, सौरभ, वसंत जैसी पत्रिकाएँ हिंदी के सार्वभौम विस्तार को प्रामाणिकता प्रदान कर रही हैं। संयुक्त अरब इमारात से वेब पर प्रकाशित होने वाले हिंदी पत्रिकाएँ अभिव्यक्ति और अनुभूति पिछले ग्यारह से भी अधिक वर्षों से लोकमानस को तृप्त कर रही हैं और दिन पर दिन इनके पाठकों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
आज जरूरत इस बात की है कि हम विधि, विज्ञान, वाणिज्य तथा नवीनतम प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पाठ¬सामग्री उपलब्ध कराने में तेजी लाएँ। इसके लिए समवेत प्रयास की जरूरत है। यह तभी संभव है जब लोग अपने दायित्वबोध को गहराइयों तक महसूस करें और सुदृढ़ इच्छाशक्ति के साथ संकल्पित हों। आज समय की माँग है कि हम सब मिलकर हिंदी के विकास की यात्रा में शामिल हों ताकि तमाम निकषों एवं प्रतिमानों पर कसे जाने के लिये हिंदी को सही मायने में विश्व भाषा की गरिमा प्रदान कर सकें।

साभार : अभिव्यक्ति.

नवगीत: संजीव 'सलिल'

नवगीत:
अपना हर पल है हिन्दीमय....
संजीव 'सलिल'
*
अपना हर पल है हिन्दीमय
एक दिवस क्या खाक मनाएँ?

बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी
जो वे एक दिवस जय गाएँ...

निज भाषा को कहते पिछडी.
पर भाषा उन्नत बतलाते.

घरवाली से आँख फेरकर
देख पडोसन को ललचाते.

ऐसों की जमात में बोलो,
हम कैसे शामिल हो जाएँ?...

हिंदी है दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक की भाषा.

जिसकी ऐसी गलत सोच है,
उससे क्या पालें हम आशा?

इन जयचंदों की खातिर
हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ...

ध्वनिविज्ञान-नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में माने जाते.

कुछ लिख, कुछ का कुछ पढने की
रीत न हमहिंदी में पाते.

वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ...

अलंकार, रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की बिम्ब अनूठे.

नहीं किसी भाषा में मिलते,
दावे करलें चाहे झूठे.

देश-विदेशों में हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ...

अन्तरिक्ष में संप्रेषण की
भाषा हिंदी सबसे उत्तम.

सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन में
हिंदी है सर्वाधिक सक्षम.

हिंदी भावी जग-वाणी है
निज आत्मा में 'सलिल' बसाएँ...
*
Acharya Sanjiv Salil

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हिंदी दिवस पर विशेष गीत: सारा का सारा हिंदी है आचार्य संजीव 'सलिल' * जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है. हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है.... मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है. लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है. गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल, ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल. लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है. हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है.... मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान. प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान. स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर. बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर. पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है. हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है.... जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार. गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार. अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर. ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर. कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है. हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है.... सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना. झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना. कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान. गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान. रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है. हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है.... ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन. आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन. शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर. तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर. रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है. हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है.... ****************************************

हिंदी दिवस पर विशेष गीत:

सारा का सारा हिंदी है

आचार्य संजीव 'सलिल'
*

जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.

लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.

गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,

ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.

लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.

प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.

स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.

बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.

पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.

गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.

अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.

ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.

कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.

झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.

कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.

गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.

रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.

आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.

शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.

तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.

रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....

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Acharya Sanjiv Salil

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मुक्तिका : अब हिंदी के देश में ______ संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
अब हिंदी के देश में
संजीव 'सलिल'
*
करो न चिंता, हिंदी बोलो अब हिंदी के देश में.
गाँठ बँधी अंग्रेजी, खोलो अब हिंदी के देश में..

ममी-डैड का पीछा छोड़ो, पाँव पड़ो माँ-बापू के...
शू तज पहन पन्हैया डोलो, अब हिंदी के देश में

बहुत लड़ाया राजनीति ने भाषाओँ के नाम पर.
मिलकर गले प्रेम रस घोलो अब हिंदी के देश में..

'जैक एंड जिल' को नहीं समझते, 'चंदा मामा' भाता है.
नहीं टेम्स गंगा से तोलो अब हिंदी के देश में..

माँ को भुला आंटियों के पीछे भरमाये बन नादां
मातृ-चरण-छवि उर में समो लो अब हिंदी के देश में..

मत सँकुचाओ जितनी आती, उतनी तो हिंदी बोलो.
नव शब्दों की फसलें बो लो अब हिंदी के देश में..

गले लगाने को आतुर हैं तुलसी सूर कबीरा संत.
अमिय अपरिमित जी भर लो लो अब हिंदी के देश में..

सुनो 'सलिल' दोहा, चौपाई, छंद सहस्त्रों रच झूमो.
पाप परायेपन के धो लो अब हिंदी के देश में..
*****

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

आलेख: तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्रीय भाषा में --- संजीव वर्मा 'सलिल'

लेख:
तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्रीय भाषा में
संजीव वर्मा 'सलिल'
*

राष्ट्र गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा:
              किसी राष्ट्र की संप्रभुता के प्रतीक संविधान, ध्वज, राष्ट्रगान, राज भाषा, तथा राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह (पशु, पक्षी आदि) होते हैं. संविधान के अनुसार भारत लोक कल्याणकारी गणराज्य है, तिरंगा झंडा राष्ट्रीय ध्वज है, 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान है, हिंदी राज भाषा है, सिंह राष्ट्रीय पशु तथा मयूर राष्ट्रीय पक्षी है. राज भाषा में सकल रज-काज किया जाना राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है. दुर्भाग्य से भारत से अंग्रेजी राज्य समाप्त होने के बाद भी अंग्रेजी भाषा का  वर्चस्व समाप्त न हो सका. दलीय चुनावों पर आधारित राजनीति ने भाषाई विवादों को बढ़ावा दिया और अंग्रेजी को सीमित समय के लिये शिक्षा माध्यम के रूप में स्वीकारा गया. यह अवधि कभी समाप्त न हो सकी.
हिंदी का महत्त्व:
               आज भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है. विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा एकाधिक अवसरों पर अमरीकियों को हिंदी सीखने के लिये सचेत करते हुए कह चुके हैं कि हिंदी सीखे बिना भविष्य में काम नहीं चलेगा. यह सलाह अकारण नहीं है. भारत को उभरती हुई विश्व-शक्ति के रूप में सकल विश्व में जाना जा रहा है. संस्कृत तथा उस पर आधारित हिंदी को ध्वनि-विज्ञान और दूर संचारी तरंगों के माध्यम से अंतरिक्ष में अन्य सभ्यताओं को सन्देश भेजे जाने की दृष्टि से सर्वाधिक उपयुक्त पाया गया है.
भारत में हिंदी सर्वाधिक उपयुक्त भाषा:
                  भारत में भले ही अंग्रेजी बोलना सम्मान की बात हो पर विश्व के बहुसंख्यक देशों में अंग्रेजी का इतना महत्त्व नहीं है. हिंदी बोलने में हिचक का एकमात्र कारण पूर्व प्राथमिक शिक्षा के समय अंग्रेजी माध्यम का चयन किया जाना है. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु सर्वाधिक आसानी से अपनी मात्र-भाषा को ग्रहण करता है. अंग्रेजी भारतीयों की मातृभाषा नहीं है. अतः भारत में बच्चों की शिक्षा का सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम हिंदी ही है.
        प्रत्येक भाषा के विकास के  कई सोपान होते हैं. कोई भाषा शैशवावस्था से शनैः- शनैः विकसित होती हुई, हर पल  प्रौढता और परिपक्वता की ओर अग्रसर होती है. पूर्ण  विकसित और परिपक्व भाषा की जीवन्तता और प्राणवत्ता उसके दैनंदिन व्यवहार या प्रयोग पर निर्भर होती है. भाषा की व्यवहारिकता का मानदण्ड जनता होती है क्योंकि आम जन ही किसी भाषा का प्रयोग करते हैं. जो भाषा लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में समा जाती है, वह चिरायु हो जाती है. जिस भाषा में समयानुसार अपने को ढालने, विचारों व भावों को सरलता और सहजता से अभिव्यक्त  करने, आम लोगों की भावनाओं तथा ज्ञान-विज्ञानं की समस्त शाखाओं व विभागों की विषय वस्तु को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है, वह जन-व्यवहार का अभिन्न अंग बन जाती है. इस दृष्टि से हिन्दी सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में सदा से छाई रही है.
              आज से ६४ वर्ष पूर्व, १४ सितम्बर, सन् १९४७ को जब हमारे  तत्कालीन नेताओं, बुध्दिजीवियों ने जब बहुत सोच-विचार के बाद सबकी सहमति से हिन्दी को आज़ाद हिन्दुस्तान की राजकाज और राष्ट्रभाषा बनाने का निर्णय लिया  तो उस निर्णय के ठोस आधार थे –
१)      हिंदी भारत के बहुसंख्यक वर्ग की भाषा है, जो विन्ध्याचल के उत्तर में बसे सात राज्यों में बोली जाती है
२)     अन्य प्रान्तों की भाषाओं और हिन्दी के शब्द भण्डार में इतनी अधिक समानता है कि वह सरलता से  सीखी जा सकती है,
३)     वह विज्ञान और तकनीकी  जगत की  भी एक  सशक्त  और समर्थ भाषा बनने  की क्षमता रखती  है, (आज तकनीकि सूचना व संचार तंत्र की समर्थ भाषा है)
४)     यह अन्य भाषाओं की  अपेक्षा सर्वाधिक व्यवहार में  प्रयुक्त होने के कारण जीवंत भाषा  है,
५)    व्याकरण भी जटिल नहीं है,
६)      लिपि भी सुगम  व वैज्ञानिक है,
७)    लिपि मुद्रण सुलभ है,
८)     सबसे महत्वपूर्ण बात - भारतीय संस्कृति, विचारों और भावनाओं की संवाहक है.
हिंदी भाषा उपेक्षित होने का कारण:
                भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में शिशु को पूर्व प्राथमिक से ही अंग्रेजी के शिशु गीत रटाये जाते हैं. वह बिना अर्थ जाने अतिथियों को सुना दे तो माँ-बाप का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है. हिन्दी की कविता केवल २ दिन १५ अगस्त और २६ जनवरी पर पढ़ी जाती है, बाद में हिन्दी बोलना कोई नहीं चाहता. अंग्रेजी भाषी विद्यालयों में तो हिन्दी बोलने पर 'मैं गधा हूँ' की तख्ती लगाना पड़ती है. अतः बच्चों को समझने के स्थान पर रटना होता है जो अवैज्ञानिक है. ऐसे अधिकांश बच्चे उच्च शिक्षा में माध्यम बदलते हैं तथा भाषिक कमजोरी के कारण खुद को समुचित तरीके अभिव्यक्त नहीं कर पाते और पिछड़ जाते हैं. इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिन्दी यत्किंचित पढ़ता है... फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिन्दी छुटा ही देता है.  
हिंदी की सामर्थ्य:
               हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं. वैज्ञानिक विषयों, प्रक्रियाओं, नियमों तथा घटनाओं की अभिव्यक्ति हिंदी में करना कठिन माना जाता है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है. हिंदी की शब्द सम्पदा अपार है. हिंदी  सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी है. उसमें से लगातार कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं. हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक/स्थानीय भाषाओँ और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं. इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है किन्तु हिन्दी को वैज्ञानिक विषयों की अभिव्यक्ति में सक्षम विश्व भाषा बनने के लिये इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना होगा. अनेक क्षेत्रों में हिन्दी की मानक शब्दावली है, जहाँ नहीं है वहाँ क्रमशः आकार ले रही है.
सामान्य तथा तकनीकी भाषा:
                      जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है वह कही गयी बात का आशय संप्रेषित करता है किन्तु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता. ज्ञान-विज्ञान में भाषा का उपयोग तभी संभव है जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ की प्रतीति हो. इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छाशक्ति की कमी तथा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है. आज तकनीकि विकास के युग में, कुछ भी दायरों में नहीं बंधा  हुआ है. जो भी जानदार है, शानदार है, अनूठापन लिये है, जिसमें जनसमाज को अपनी ओर खींचने  का दम है वह सहज ही और शीघ्र ही भूमंडलीकृत और वैश्विक हो जाता है. इस प्रक्रिया के तहत आज हिन्दी वैश्विक भाषा है. कोई भी सक्रिय भाषा, रचनात्मक प्रक्रिया – चाहे वह लेखन हो, चित्रकला हो,संगीत हो, नृत्यकला हो या चित्रपट हो – सभी युग-परिवेश से प्रभावित होते हैं. भूमंडलीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें दुनिया तेज़ी से सिमटती जा रही है.  विश्व के देश परस्पर निकट आते जा रहे  हैं. इसलिए  ही आज दुनिया को ‘विश्वग्राम’  कहा जा रहा है. इस सबके पीछे ‘सूचना और संचार’  क्रान्ति की शक्ति है, जिसमें ‘इंटरनेट’ की भूमिका बड़ी अहम है. इसमे कोई दो राय नहीं कि इस जगत में हिन्दी अपना सिक्का जमा चुकी है.
हिंदी संबंधी मूल अवधारणाएं:
             इस विमर्श का श्री गणेश करते हुए हम  कुछ मूल बातों भाषा, लिपि, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, लिपि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन, शब्द-भेद, बिम्ब, प्रतीक, मुहावरे जैसी मूल अवधारणाओं को जानें.
भाषा(लैंग्वेज) :
              अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ. आदि मानव को प्राकृतिक घटनाओं (वर्षा, तूफ़ान, जल या वायु का प्रवाह), पशु-पक्षियों की बोली आदि को सुनकर हर्ष, भय, शांति आदि की अनुभूति हुई. इन ध्वनियों की नकलकर उसने बोलना, एक-दूसरे को पुकारना, भगाना, स्नेह-क्रोध आदि की अभिव्यक्ति करना सदियों में सीखा.
लिपि (स्क्रिप्ट):
                 कहे हुए को अंकित कर स्मरण रखने अथवा अनुपस्थित साथी को बताने के लिये हर ध्वनि हेतु अलग-अलग संकेत निश्चित कर अंकित करने की कला सीखकर मनुष्य शेष सभी जीवों से अधिक उन्नत हो सका. इन संकेतों की संख्या बढ़ने व  व्यवस्थित रूप ग्रहण करने ने लिपि को जन्म दिया. एक ही अनुभूति के लिये अलग- अलग मानव समूहों में अलग-अलग ध्वनि तथा संकेत बनने तथा आपस में संपर्क न होने से विविध भाषाओँ और लिपियों का जन्म हुआ.      
चित्रगुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
भाषा-सलिला निरंतर, करे अनाहद जाप.
              भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक), तूलिका के माध्यम से अंकित, लेखनी के द्वारा लिखित तथा आजकल टंकण यंत्र या संगणक द्वारा टंकित होता है. हिंदी लेखन हेतु प्रयुक्त देवनागरी लिपि में संयुक्त अक्षरों व मात्राओं का संतुलित प्रयोग कर कम से कम स्थान में अंकित किया जा सकता है जबकि मात्रा न होने पर रोमन लिपि में वही शब्द लिखते समय मात्रा के स्थान पर वर्ण का प्रयोग करने पर अधिक स्थान, समय व श्रम लगता है. अरबी मूल की लिपियों में अनेक ध्वनियों के लेकहं हेतु अक्षर नहीं हैं.
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.
व्याकरण (ग्रामर ):
             व्याकरण (वि+आ+करण) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.
वर्ण / अक्षर(वर्ड) :
             हिंदी में वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं. स्वरों तथा व्यंजनों का निर्धारण ध्वनि विज्ञान के अनुकूल उनके उच्चारण के स्थान से किया जाना हिंदी का वैशिष्ट्य है जो अन्य भाषाओँ में नहीं है.
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.
स्वर ( वोवेल्स ) :
           स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है जिसका अधिक क्षरण, विभाजन या ह्रास नहीं हो सकता. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ.
स्वर के दो प्रकार:
१. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा
२. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार हैं.
१. स्पर्श व्यंजन (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म).
२. अन्तस्थ व्यंजन (य वर्ग - य, र, ल, व्, श).
३. ऊष्म व्यंजन ( श, ष, स ह) तथा
४. संयुक्त व्यंजन ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं.
अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.
                   अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. शब्द भाषा का मूल तत्व है. जिस भाषा में जितने अधिक शब्द हों वह उतनी ही अधिक समृद्ध कहलाती है तथा वह मानवीय अनुभूतियों और ज्ञान-विज्ञानं के तथ्यों का वर्णन इस तरह करने में समर्थ होती है कि कहने-लिखनेवाले की बात का बिलकुल वही अर्थ सुनने-पढ़नेवाला ग्रहण करे. ऐसा न हो तो अर्थ का अनर्थ होने की पूरी-पूरी संभावना है. किसी भाषा में शब्दों का भण्डारण कई तरीकों से होता है.
१. मूल शब्द:
                   भाषा के लगातार प्रयोग में आने से समय के विकसित होते गए ऐसे शब्दों का निर्माण जन जीवन, लोक संस्कृति, परिस्थितियों, परिवेश और प्रकृति के अनुसार होता है. विश्व के विविध अंचलों में उपलब्ध भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन शैलियों, खान-पान की विविधताओं, लोकाचारों,धर्मों तथा विज्ञानं के विकास के साथ अपने आप होता जाता है.
२. विकसित शब्द:
                     आवश्यकता आविष्कार की जननी है. लगातार बदलती परिस्थितियों, परिवेश, सामाजिक वातावरण, वैज्ञानिक प्रगति आदि के कारण जन सामान्य अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिये नये-नये शब्दों का प्रयोग करता है. इस तरह विकसित शब्द भाषा को संपन्न बनाते हैं. व्यापार-व्यवसाय में उपभोक्ता के साथ धोखा होने पर उन्हें विधि सम्मत संरक्षण देने के लिये कानून बना तो अनेक नये शब्द सामने आये.संगणक के अविष्कार के बाद संबंधित तकनालाजी को अभिव्यक्त करने के नये शब्द बनाये गये.
३. आयातित शब्द:
                  किन्हीं भौगोलिक, राजनैतिक या सामाजिक कारणों से जब किसी एक भाषा बोलनेवाले समुदाय को अन्य भाषा बोलने वाले समुदाय से घुलना-मिलना पड़ता है तो एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्द भी मिलते जाते हैं. ऐसी स्थिति में कुछ शब्द आपने मूल रूप में प्रचलित रहे आते हैं तथा मूल भाषा में अन्य भाषा के शब्द यथावत (जैसे के तैसे) अपना लिये जाते हैं. हिन्दी ने पूर्व प्रचलित भाषाओँ संस्कृत, अपभ्रंश, पाली, प्राकृत तथा नया भाषाओं-बोलिओं से बहुत से शब्द ग्रहण किये हैं. भारत पर यवनों के हमलों के समय फारस तथा अरब से आये सिपाहियों तथा भारतीय जन समुदायों के बीच शब्दों के आदान-प्रदान से उर्दू का जन्म हुआ. आज हम इन शब्दों को हिन्दी का ही मानते हैं, वे किस भाषा से आये नहीं जानते.
हिन्दी में आयातित शब्दों का उपयोग ४ तरह से हुआ है.
१.यथावत:
                मूल भाषा में प्रयुक्त शब्द के उच्चारण को जैसे का तैसा उसी अर्थ में देवनागरी लिपि में लिखा जाए ताकि पढ़ते/बोले जाते समय हिन्दी भाषी तथा अन्य भाषा भाषी उस शब्द को समान अर्थ में समझ सकें. जैसे अंग्रेजी का शब्द स्टेशन, यहाँ अंगरेजी में स्टेशन (station) लिखते समय उपयोग हुए अंगरेजी अक्षरों को पूरी तरह भुला दिया गया है.
२.परिवर्तित:
             मूल शब्द के उच्चारण में प्रयुक्त ध्वनि हिन्दी में न हो अथवा अत्यंत क्लिष्ट या सुविधाजनक हो तो उसे हिन्दी की प्रकृति के अनुसार परिवर्तित कर लिया जाए. जैसे अंगरेजी के शब्द हॉस्पिटल को सुविधानुसार बदलकर अस्पताल कर लिया गया है. .
३. पर्यायवाची:
              जिन शब्दों के अर्थ को व्यक्त करने के लिये हिंदी में हिन्दी में समुचित पर्यायवाची शब्द हैं या बनाये जा सकते हैं वहाँ ऐसे नये शब्द ही लिये जाएँ. जैसे: बस स्टैंड के स्थान पर बस अड्डा, रोड के स्थान पर सड़क या मार्ग. यह भी कि जिन शब्दों को गलत अर्थों में प्रयोग किया जा रहा है उनके सही अर्थ स्पष्ट कर सम्मिलित किये जाएँ ताकि भ्रम का निवारण हो. जैसे: प्लान्टेशन के लिये वृक्षारोपण के स्थान पर पौधारोपण, ट्रेन के लिये रेलगाड़ी, रेल के लिये पटरी.
४. नये शब्द:
             ज्ञान-विज्ञान की प्रगति, अन्य भाषा-भाषियों से मेल-जोल, परिस्थितियों में बदलाव आदि के कारण हिन्दी में कुछ सर्वथा नये शब्दों का प्रयोग होना अनिवार्य है. इन्हें बिना हिचक अपनाया जाना चाहिए. जैसे सैटेलाईट, मिसाइल, सीमेंट आदि.
        हिन्दी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओँ के साहित्य को आत्मसात कर हिन्दी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषय-वस्तु को हिन्दी में अभिव्यक्त करने की है. हिन्दी के शब्द कोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है. इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओँ, विदेशी भाषाओँ, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना जरूरी है.
            अंग्रेजी के नये शब्दकोशों में हिन्दी के हजारों शब्द समाहित किये गये हैं किन्तु कई जगह उनके अर्थ/भावार्थ गलत हैं... हिन्दी में अन्यत्र से शब्द ग्रहण करते समय शब्द का लिंग, वचन, क्रियारूप, अर्थ, भावार्थ तथा प्रयोग शब्द कोष में हो तो उपयोगिता में वृद्धि होगी. यह महान कार्य सैंकड़ों हिन्दी प्रेमियों को मिलकर करना होगा. विविध विषयों के निष्णात जन अपने विषयों के शब्द-अर्थ दें जिन्हें हिन्दी शब्द कोष में जोड़ा जा सके.
शब्दों के विशिष्ट अर्थ:
           तकनीकी विषयों व गतिविधियों को हिंदी भाषा के माध्यम से संचालित करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उनकी पहुँच असंख्य लोगों तक हो सकेगी. हिंदी में तकनीकी क्षेत्र में शब्दों के विशिष अर्थ सुनिश्चित किये जने की महती आवश्यकता है. उदाहरण के लिये अंग्रेजी के दो शब्दों 'शेप' और 'साइज़' का अर्थ हिंदी में सामन्यतः 'आकार' किया जाता है किन्तु विज्ञान में दोनों मूल शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयोग होते हैं. 'शेप' से आकृति और साइज़ से बड़े-छोटे होने का बोध होता है. हिंदी शब्दकोष में आकार और आकृति समानार्थी हैं. अतः साइज़ के लिये एक विशेष शब्द 'परिमाप' निर्धारित किया गया.
             निर्माण सामग्री के छन्नी परीक्षण में अंग्रेजी में 'रिटेंड ऑन सीव' तथा 'पास्ड फ्रॉम सीव' का प्रयोग होता है. हिंदी में इस क्रिया से जुड़ा शब्द 'छानन' उपयोगी पदार्थ के लिये है. अतः उक्त दोनों शब्दों के लिये उपयुक्त शब्द खोजे जाने चाहिए. रसायन शास्त्र में प्रयुक्त 'कंसंट्रेटेड' के लिये हिंदी में गाढ़ा, सान्द्र, तेज, तीव्र आदि तथा 'डाईल्यूट' के लिये तनु, पतला, मंद, हल्का, मृदु आदि शब्दों का प्रयोग विविध लेखकों द्वारा किया जाना भ्रमित करता है.
'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' का दायित्व:
               तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्र भाषा में सम्पादित करने के साथ-साथ अर्थ विशेष में प्रयोग किये जानेवाले शब्दों के लिये विशेष पर्याय निर्धारित करने का कार्य उस तकनीक की प्रतिनिधि संस्था को करना चाहिए. अभियांत्रिकी के क्षेत्र में निस्संदेह 'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' अग्रणी संस्था है. इसलिए अभियांत्रकी शब्द कोष तैयार करने का दायित्व इसी का है. सरकार द्वारा शब्द कोष बनाये जाने की प्रक्रिया का हश्र किताबी तथा अव्यवहारिक शब्दों की भरमार के रूप में होता है. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये साहित्यिक समझ, रूचि, ज्ञान और समर्पण के धनी अभियंताओं को विविध शाखाओं / क्षेत्रों से चुना जाये तथा पत्रिका के हर अंक में तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली और शब्द कोष प्रकाशित किया जाना अनिवार्य है. पत्रिका के हर अंक में तकनीकी विषयों पर हिंदी में लेखन की प्रतियोगिता भी होना चाहिए. विविध अभियांत्रिकी शाखाओं के शब्दकोशों तथा हिंदी पुस्तकों का प्रकाशन करने की दिशा में भी 'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' को आगे आना होगा.
अभियंताओं का दायित्व:
              हम अभियंताओं को हिन्दी का प्रामाणिक शब्द कोष, व्याकरण तथा पिंगल की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब जैसे समय मिले पढ़ने की आदत डालनी होगी. हिन्दी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा/बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं अपितु हिंदी भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है चूँकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती.
        भारतीय अंतरजाल उपभोक्ताओं के हाल ही में हुए गए एक सर्वे के अनुसार ४५%  लोग हिन्दी वेबसाईट देखते हैं, २५% अन्य भारतीय भाषाओं में वैब सामग्री पढना पसंद करते हैं और मात्र  ३०%  अंगरेजी की वेबसाईट देखते हैं. यह तथ्य उन लोगों की आँख खोलने के लिए पर्याप्त है जो वर्ल्ड वाइड वेब / डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू   को राजसी अंगरेजी  का पर्यायवाची माने बैठे हैं. गूगल के प्रमुख कार्यकारी  एरिक श्मिडट के अनुसार अब से ५-६ वर्ष के अंदर भारत विश्व का सबसे बड़ा आई. टी. बाज़ार होगा, न कि चीन. यही कारण है कि हिन्दी आज विश्व की तीन  प्रथम भाषाओं में से- तीसरे से दूसरे स्थान पर आ गयी है. गूगल ने सर्च इंजिन के लिए हिंदी इंटरफेस जारी किया है. माइक्रो सोफ्ट ने भी हिन्दी और अन्य प्रांतीय भाषाओं की महत्ता को स्वीकारा है. विकीपीडिया के अनुसार चीनी विकीपीडिया  यदि २.५०  करोड परिणाम देता है तो हिन्दी विकिपीडिया करोड परिणाम देता है.
              अतः हिंदी की सामर्थ्य उसे विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करा रही है. प्रश्न यह है की हम एक भारतीय, एक हिंदीभाषी और एक अभियंता के रूप में अपने दायित्व का निर्वहन कितना, कैसे और कब करते हैं.   
                                                         ***************************************

सोमवार, 12 सितंबर 2011

दोहा ग़ज़ल: वामांगी वंदना --संजीव 'सलिल'

दोहा ग़ज़ल:                                                              वामांगी वंदना
संजीव 'सलिल'
*
वामांगी को कर नमन, रहो सुरक्षित यार.
सुर-नर सह सकते नहीं वामांगी  के वार..
*
आप अगर मधुकर बनें, वामांगी  मधु-प्यार.
सुखमय हो जीवन जगत, दस दिश खिले बहार..
*
वामांगी सुख-शांति है, वामांगी  घर-द्वार.
अमलतास हों आप यदि, वामांगी  कचनार..
*
उषा, दिवस, संध्या, निशा, प्रति पल नवल निखार.
हर ऋतु भावन लगे, लख वामांगी-सिंगार..
*
हिम्मत, बल, साधन चुके, कभी न वह भण्डार.
संकट में संबल सुदृढ़, वामांगी सुकुमार..
*
दुर्गा लक्ष्मी शारदा, बल-धन-ज्ञान अपार.
वामांगी चैतन्य चित, महिमा अपरम्पार..
*
माँ, बहिना, भाभी, सखी, साली, सुता निहार.
वामांगी में वास है, सबका लख सहकार..
*
गीत, गजल, दोहा मधुर, अलंकार रस-धार.
नेह निनादित नर्मदा, वामांगी साकार..
*
हाथ-हाथ में, साथ पग, रख चलती हर बार.
वामांगी सच मानिये, शक्ति-मुक्ति आगार..
*
कर वामांगी वंदना, रावण मारें राम.
नरकासुर वध करें मिल, वामांगी-घनश्याम..
*
***********

हिंदी दोहा सलिला हिंदी प्रातः श्लोक है..... -- संजीव 'सलिल'

हिंदी दोहा सलिला
हिंदी प्रातः श्लोक है.....
-- संजीव 'सलिल'
*
हिंदी भारत भूमि के, जनगण को वरदान.
हिंदी से हिंद का, संभव है उत्थान..
*
संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..
*
हिंदी आता माढ़िये, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल..
*
ईंट बनें सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिंदी बसी प्रणम्य..
*
संस्कृत, पाली, प्राकृत, हिंदी उर्दू पाँच.
भाषा-बोली अन्य हैं, स्नेहिल बहने साँच..
*
सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह् पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..
*
भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबको स्नेह ही, हो जीवन का ध्येय..
*
उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ हैं अलग पर, पलता स्नेह-विवेक..
*
भाषा बोलें कोई भी, किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर प्रेम प्रबुद्ध..
*
मौसी-चाची ले नहीं, सकतीं माँ का स्थान.
सिर-आँखों पर बिठा पर, उनको माँ मत मान..
*
ज्ञान गगन में सोहाती, हिंदी बनकर सूर्य.
जनहित के संघर्ष में, है रणभेरी तूर्य..
*
हिंदी सजती भाल पे, भारत माँ के भव्य.
गौरव गाथा राष्ट्र की, जनवाणी यह दिव्य..
*
हिंदी भाषा-व्याकरण, है सटीक अरु शुद्ध.
कर सटीक अभिव्यक्तियाँ, पुजते रहे प्रबुद्ध..
*
हिंदी सबके माँ बसी, राजा प्रजा फकीर.
केशव देव रहीम घन, तुलसी सूर कबीर..
*
हिंदी प्रातः श्लोक है, दोपहरी में गीत.
संध्या वंदन-प्रार्थना, रात्रि प्रिया की प्रीत..
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Acharya Sanjiv Salil

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रविवार, 11 सितंबर 2011

मुक्तिका: प्रिय के नाम सुबह लिख दी... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
प्रिय के नाम सुबह लिख दी...
संजीव 'सलिल'
*
प्रिय के नाम सुबह लिख दी है, प्रिय में भी बैठा रब है.
'सलिल' दिख रहा दूर, मगर वह तुझसे दूर हुआ कब है??

जब-जब तुझको हो प्रतीत यह, तेरा कुछ भी नहीं बचा.
तब-तब सच इतना ही होगा, रहा न शेष मिला सब है..

कल करना जो कभी न होगा, कब आया कल बतलाओ?
जो करना है आज करो- वह होता जो कि हुआ अब है..

राजा तो केवल चाकर है, जो चाकर वह राजा है.
चाकर का चाकर वह चाहे, जग जाने उसमें नब है..

दुनिया का क्या तौर-तरीकों की बंदी वह 'सलिल' रही.
जिसको उसकी चाह हुई, उसको कहते सब बेढब है..

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Acharya Sanjiv Salil

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कुण्डलिनी : दन्त-पंक्ति श्वेता रहे..... -- संजीव 'सलिल'

कुण्डलिनी :
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे.....
-- संजीव 'सलिल'
*
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे, सदा आपकी मीत.
मीठे वचन उचारिये, जैसे गायें गीत..
जैसे गायें गीत, प्रीत दुनिया में फैले.
मिट जायें सब झगड़े, झंझट व्यर्थ झमेले..
कहे 'सलिल' कवि, सँग रहें जैसे कामिनी-कंत.
जिव्हा कोयल सी रहे, मोती जैसे दन्त.
*
नेहा स्नेहा श्वास हो, सुगम सुगेहा आस.
गति-यति मति-वारी रहे, अधर सुशोभित हास..
अधर सुशोभित हास, त्रास किंचित न कभी हो.
मत कल पर कुछ टाल, कार्य हर आज-अभी हो..
कहे 'सलिल' कवि रति हो देहा, सुमति विदेहा.
रखें हास-परिहास भरा, जग-जीवन नेहा..
*

लघु कथा २: मुखौटे -- संजीव 'सलिल'

लघु कथा :                                                                                                                                     
मुखौटे
-- संजीव 'सलिल'

*
मेले में बच्चे मचल गये- 'पापा! हमें मुखौटे चाहिए, खरीद दीजिए.'

हम घूमते हुए मुखौटों की दुकान पर पहुँचे. मैंने देखा दुकान पर जानवरों, राक्षसों, जोकरों आदि के ही मुखौटे थे. मैंने दुकानदार से पूछा- 'क्यों भाई! आप राम. कृष्ण, ईसा, पैगम्बर, बुद्ध, राधा, मीरा, गाँधी, भगत सिंग, आजाद, नेताजी, आदि के मुखौटे क्यों नहीं बेचते?'

'कैसे बेचूं? राम की मर्यादा, कृष्ण का चातुर्य, ईसा की क्षमा, पैगम्बर की दया, बुद्ध की करुणा, राधा का समर्पण, मीरा का प्रेम, गाँधी की समन्वय दृष्टि, भगतसिंह का देशप्रेम, आजाद की निडरता, नेताजी का शौर्य  कहीं देखने को मिले तभी तो मुखौटों पर अंकित कर पाऊँगा. आज-कल आदमी के चेहरे पर जो गुस्सा, धूर्तता, स्वार्थ, हिंसा, घृणा और बदले की भावना देखता हूँ उसे अंकित कराने पर तो मुखौटा जानवर या राक्षस का ही बनता है. आपने कहीं वे दैवीय गुण देखे हों तो बतायें ताकि मैं भी देखकर मुखौटों पर अंकित कर सकूँ.' -दुकानदार बोला.

मैं कुछ कह पाता उसके पहले ही मुखौटे बोल पड़े- ' अगर हम पर वे दैवीय गुण अंकित हो भी जाएँ तो क्या कोई ऐसा चेहरा बता सकते हो जिस पर लगकर हमारी शोभा बढ़ सके?' -मुखौटों ने पूछा.

मैं निरुत्तर होकर सर झुकाए आगे बढ़ गया.

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*
Acharya Sanjiv Salil

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बुधवार, 7 सितंबर 2011

लघु कथा: गुरु दक्षिणा संजीव 'सलिल'

लघुकथा:                                                                                
गुरु दक्षिणा
संजीव 'सलिल'
*
एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराये कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए.

उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अँगूठा माँग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया. प्रगट में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा.

'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बायें हाथ का अँगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया. छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अँगूठा जुड़वाया, द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा.

तब से उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अँगूठा लगाने लगे.

*****
Acharya Sanjiv Salil

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शिक्षक दिवस पर: कहाँ गया गुरु?... --- संजीव 'सलिल'

शिक्षक दिवस पर:
कहाँ गया गुरु?...
संजीव 'सलिल'
*
गुरु था गंगा ज्ञान की, अब है गुरु घंटाल.
मेहनत चेलों से करा, खूब उड़ाये माल..

महागुरु बन हो गया, गुरु से संत महंत.
पीठाधीश बना- हुआ, गुरु-शुचिता का अंत..

चेले-चेली पालकर, किया बखेड़ा खूब.
कृष्ण स्वघोषित हो गया, राधाओं में डूब..

करी रासलीला हुआ, दस दिश में बदनाम.
शिक्षा लेना भूलकर, दे शिक्षा बेकाम..

शिक्षक करता चाकरी, चकरी सा नित घूम.
अफसर-चमचे मजे कर, रहे मचाते धूम..

दुश्चक्री फल-फूलकर, कहें सत्य को झूठ.
शिक्षा के रथचक्र की, थामे कर में मूठ..

आई.ए.एस. बन नियंता, नचा रहे दिन-रात.
नाच रहे अँगुलियों पर, शिक्षक पाकर मात..

टीचर टीच न कर हुए, सिर्फ फटीचर आज.
गुरु कह पग वंदन करें, कैसे आती लाज?

शब्दब्रम्ह के निकट जा, दें पुनि अक्षर-ज्ञान.
अभय बने जब शिष्य तब, देगा गुरु को मान..

हिंदी से रोजी जुटा, इंग्लिश लिखते रोज.
कोंवेंट बच्चे पढ़ें, क्यों? करिए कुछ खोज..

जूता पहने पूजते, सरस्वती बेशर्म.
नकल कराते, क्या नहीं, दण्डयोग्य दुष्कर्म?

मूल्यांकन करते गलत, देते गलत हिसाब.
श्वेत हो चुके बाल पर, मलकर रोज खिजाब..

कथनी-करनी में हुआ, अंतर जबसे व्याप्त.
तब से गुरुमुख से नहीं, मिला ज्ञान कुछ आप्त..

कहाँ गया गुरु? द्रोण से, पूछ रहा था कर्ण.
एकलव्य को देखकर, गुरु-मुख हुआ विवर्ण..

सत्ता का चाकर नहीं, होगा जब गुर मुक्त.
तब ही श्रृद्धा-आस्था, पुनि होगी संयुक्त..

कलम करे पगवन्दना, कहें योग्य है कौन?
प्रश्न रहा पुनि अनसुना, प्रभु-मूरत है मौन..

*******
Acharya Sanjiv Salil

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मंगलवार, 6 सितंबर 2011

नवगीत: भाव गिरा है लाज का.... ---संजीव 'सलिल'

नवगीत:
भाव गिरा है लाज का....
संजीव 'सलिल'
*
समाचार है आज का...
मँहगी बहुत दरें नंगई की
भाव गिरा है लाज का....
*
साक्षर-शिक्षित देश हुआ पर
समझ घटी यह सत्य है.
कथनी जिसकी साफ-स्वच्छ
उसका ही गर्हित कृत्य है.
लड़े सारिका-शुक घर-घर में-
किस्सा सिर्फ न आज का...
खुजली-दाद घूस-मँहगाई
लोभ रोग है खाज का...
*
पनघट पर चौपाल न जाता,
लड़ा खेत खलिहान से.
संझा का बैरी क्यों चंदा?
रूठी रात विहान से.
सीढ़ी-सीढ़ी मुखर देखती
गिरना-उठना ताज का.
मूलधनों को गँवा दिया
फिर लाभ कमाया ब्याज का..
*
भक्तों-हाथ लुट रहे भगवा,
षड्यंत्रों का मंथन-मंचन.
पश्चिम के कंकर बीने हैं-
त्याग पूर्व के शंकर-कंचन.
राम भरोसे राज, न पूछो
हाल यहाँ के काज का.
साजिन्दे श्रोता से पूछें-
हाल हाथ के काज का....
*
नवगीत:
भाव गिरा है लाज का....
संजीव 'सलिल'
*
समाचार है आज का...
मँहगी बहुत दरें नंगई की
भाव गिरा है लाज का....
*
साक्षर-शिक्षित देश हुआ पर
समझ घटी यह सत्य है.
कथनी जिसकी साफ-स्वच्छ
उसका ही गर्हित कृत्य है.
लड़े सारिका-शुक घर-घर में-
किस्सा सिर्फ न आज का...
खुजली-दाद घूस-मँहगाई
लोभ रोग है खाज का...
*
पनघट पर चौपाल न जाता,
लड़ा खेत खलिहान से.
संझा का बैरी क्यों चंदा?
रूठी रात विहान से.
सीढ़ी-सीढ़ी मुखर देखती
गिरना-उठना ताज का.
मूलधनों को गँवा दिया
फिर लाभ कमाया ब्याज का..
*
भक्तों-हाथ लुट रहे भगवा,
षड्यंत्रों का मंथन-मंचन.
पश्चिम के कंकर बीने हैं-
त्याग पूर्व के शंकर-कंचन.
राम भरोसे राज, न पूछो
हाल यहाँ के काज का.
साजिन्दे श्रोता से पूछें-
हाल हाथ के काज का....
*
Acharya Sanjiv Salil

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दोहे पर्यावरण के: भारत की जय बोल --- संजीव 'सलिल'

दोहे पर्यावरण के :                                                               
भारत की जय बोल
-- संजीव 'सलिल'
*
वृक्ष देव देते सदा, प्राणवायु अनमोल.
पौधारोपण कीजिए, भारत की जय बोल..
*
पौधारोपण से मिले, पुत्र-यज्ञ का पुण्य.
पेड़ काटने से अधिक, पाप नहीं है अन्य..
*
माँ धरती के लिये हैं, पत्ते वस्त्र समान.
आभूषण फल-फूल हैं, सर पर छत्र वितान..
*
तरु-हत्या दुष्कर्म है, रह नर इससे दूर.
पौधारोपण कर मिले, तुझे पुण्य भरपूर..
*
पेड़ कटे, वर्षा घटे, जल का रहे अभाव.
पशु-पक्षी हों नष्ट तो, धरती तप्त अलाव..
*
जीवनदाता जल सदा, उपजाता है पौध.
कलकल कलरव से लगे, सारी दुनिया सौध..
*
पौधे बढ़कर पेड़ हों, मिलें फूल,फल, नीड़.
फुदक-फुदक शुक-सारिका, नाचें देखें भीड़..
*
पेड़ों पर झूले लगें, नभ छू लो तुम झूल.
बसें देवता-देवियाँ. काटो मत तुम भूल..
*
पीपल में हरि, नीम में, माता करें निवास.
शिव बसते हैं बेल में, पूजो रख विश्वास..
*
दुर्गा को जासौन प्रिय, हरि को हरसिंगार.
गणपति चाहें दूब को, करी सबसे प्यार..
*
शारद-लक्ष्मी कमल पर, 'सलिल' रहें आसीन.
पाट रहा तालाब नर, तभी हो रहा दीन..
*************


Acharya Sanjiv Salil

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दोहा सलिला: एक हुए दोहा-यमक संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                               
एक हुए दोहा-यमक
संजीव 'सलिल'

*
एक हुए दोहा यमक, नव मुद्रा नव अर्थ.
अर्थ-शास्त्री कह रहे, यहाँ न मुद्रा-अर्थ..
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम.
क्या जानें कब प्रगट हों, जीवन-धन घनश्याम..
*
तीर नजर के चीर दिल, चीर न पाये चीर.
दिल-सागर के तीर पर, गिरे न खोना धीर..
*
मार भले के लिये ही, लेकिन कभी न मार.
उसका कर आभार जो, उठा रहा आ भार..
*
खुद पर खुद का बस नहीं, है बेबस इंसान.
परबस हो छल रहा है, खुद को खुद हैरान..
*
चाट रहे हैं उंगलियाँ, जी भर खाकर चाट.
खड़ी हो गयी खाट पा, खटमलवाली खाट..
*
भूख कहे : आ हार- तो, जय पा कर आहार.
जय पाता वह जो करे, अजय जगत व्यवहार..
*
खोली में जा खोलना, खोल, खुले ना पोल.
ढोल रहे जितना बड़ा, उतनी ज्यादा पोल..
*
अ-मन अमन होता नहीं, स-मन अमन हो मीत.
रमण चमन में कर तभी, जब हों सभी अभीत..
*

Acharya Sanjiv Salil

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षडयंत्र के साये में भारतीय सेना.... प्रधानमंत्री खामोश क्यों है?


षडयंत्र के साये में भारतीय सेना.... प्रधानमंत्री खामोश क्यों है?

सांसद का एक वरिष्ठ सांसद यदि प्रधानमंत्री को खत लिखे और पूछे कि क्या
सरकार द्वारा भारत के थल सेनाध्यक्ष पद के भावी उम्मीदवार लेफ्टिनेंट
जनरल की बहू यानी उनके दुबई में काम करने वाले ल़डके की पत्नी पाकिस्तान
की नागरिक है? तो यह गंभीर मामला बन जाता है. प्रधानमंत्री कार्यालय इसका
उत्तर देने की जगह उन सांसद पर उनकी पार्टी द्वारा दबाव डलवाता है कि वह
इस खत को वापस ले लें. इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री के साथ जु़डे एक
मंत्री नारायण सामी संसद में ही इस सांसद को पक़ड लेते हैं और कहते हैं
कि आप खत वापस ले लीजिए, क्योंकि प्रधानमंत्री का़फी अपसेट हैं.


सांसद कहते हैं कि अच्छा हो प्रधानमंत्री चार लाइन का उत्तर भेज दें कि
उनके द्वारा खत में उठाए गए सवाल ग़लत हैं, पर प्रधानमंत्री अब तक खामोश
हैं, कम से कम इस रिपोर्ट के लिखे जाने के समय तक. दरअसल सेना का यह सख्त
नियम है कि अगर कोई भी व्यक्ति जो भारतीय सेना में है, वह या उसका परिवार
किसी विदेशी नागरिक से शादी करता है तो उसे सूचना भी देनी होगी. यहां तो
किसी भी विदेशी नागरिक से नहीं, पाकिस्तानी नागरिक से शादी का मामला है.
अगर यह खबर सही है तो भारत के थल सेनाध्यक्ष के घर में पाकिस्तानी नागरिक
होगा, जिसके पास सेना के सारे राज़ होंगे.

   आ़खिर क्या वजह है कि ले. जनरल बिक्रम सिंह के गंभीर आरोपों में घिरे
होने के बाद भी प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री उन्हें भावी सेनाध्यक्ष
बनाना चाहते हैं. अपने बेटे की शादी पाकिस्तानी लड़की से करने के बाद भी
वह सेनाध्यक्ष जैसे अति संवेदनशील पद पर बैठाए जा रहे हैं. क्या इसके
पीछे स़िर्फ उनका प्रधानमंत्री के समाज का होना कारण है या किसी बड़ी
विदेशी ताक़त का भारत सरकार पर दबाव है? प्रधानमंत्री कार्यालय यूपीए के
ही एक सांसद द्वारा उठाए सवाल पर खामोश क्यों है?

हमेशा खतरा बना रहेगा कि ये राज़ या खु़फिया सूचनाएं पाकिस्तान न पहुंच
जाएं. प्रधानमंत्री द्वारा अब तक खत का जवाब न देना बताता है कि आरोप सही
हैं.

भारत के भावी थल सेनाध्यक्ष अक्सर अपने बेटे और पाकिस्तानी बहू से मिलने
दुबई जाते रहते हैं. इसके बारे में अंग्रेजी के एक मशहूर साप्ताहिक ने
रिपोर्ट छापी है कि जब यह कांगो में भारतीय शांति सेना के चीफ थे तो वहां
रहे कुछ सिपाहियों और अ़फसरों पर यौन शोषण का आरोप लगा था. इसकी जांच
भारतीय सेना कर रही है. जब बिल क्लिंटन राष्ट्रपति के रूप में भारत आए तो
कश्मीर के छत्तीसिंह पुरा में सिखों की हत्या हुई थी. जांच में पता चला
कि इसमें का़फी संदेह है कि ये हत्याएं आतंकवादियों ने की हैं. इसमें
अनदेखी का आरोप इन्हीं ले. जनरल साहब पर लगा. जब यह कश्मीर के कोर कमांडर
थे तो एक पैंसठ साल के व्यक्ति का एनकाउंटर हुआ.पुलिस ने जांच की तो पता
चला कि यह फर्ज़ी एनकाउंटर था. अनंतनाग के डीआईजी ने जांच रिपोर्ट आने के
बाद बाक़ायदा प्रेस कांफ्रेंस की. भारत के भावी थल सेनाध्यक्ष ने कोर
कमांडर रहते हुए सेना से प्रशस्ति पत्र भी ले लिया. कश्मीर में ही रहते
हुए कैसे दुकानों के आवंटन में धांधली हुई, इस पर भी सांसद ने
प्रधानमंत्री को खत लिखा, लेकिन प्रधानमंत्री ने इस खत का जवाब नहीं
दिया.

 
आ़खिर क्या वजह है कि ले. जनरल बिक्रम सिंह के गंभीर आरोपों में घिरे
होने के बाद भी प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री उन्हें भावी सेनाध्यक्ष
बनाना चाहते हैं. उनके द्वारा अपने बेटे की शादी पाकिस्तानी ल़डकी से
करने के बाद भी वह सेनाध्यक्ष जैसे अति संवेदनशील पद पर बैठाए जा रहे
हैं. क्या इसके पीछे स़िर्फ उनका प्रधानमंत्री के समाज का होना कारण है
या इसके पीछे किसी ब़डी विदेशी ताक़त का भारत सरकार पर दबाव है?
प्रधानमंत्री कार्यालय यूपीए के ही एक सांसद द्वारा उठाए सवाल पर खामोश
क्यों है?
पीएम के नाम यूपीए के एक सांसद का पत्र
चौथी दुनिया के पास उपलब्ध एक पत्र, जो तृणमूल सांसद अंबिका बनर्जी
द्वारा 7 जुलाई, 2011 को प्रधानमंत्री को लिखा गया, लेफ्टिनेंट जनरल
बिक्रम सिंह पर एक और संगीन आरोप का खुलासा करता है. हावड़ा से तृणमूल
कांग्रेस के सांसद अंबिका बनर्जी अपने इस पत्र के माध्यम से प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह को लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह के एक कारनामे के बारे में
सूचित करते हैं और कार्रवाई की मांग करते हैं. बनर्जी अपने पत्र में
लिखते हैं कि कोर कमांडर पद पर रहते हुए बिक्रम सिंह ने एच क्यू 15 कोर
(श्रीनगर) में 10 दुकानें आवंटित की थीं. वह आगे लिखते हैं कि मुझे बताया
गया है कि बिक्रम सिंह ने इस आवंटन के बदले हर एक दुकान के लिए 3 से 5
लाख रुपये लिए. बनर्जी इसे शर्मनाक बताते हुए प्रधानमंत्री से इस मामले
को देखने के लिए कहते हैं और यह भी अनुरोध करते हैं कि जब तक जांच पूरी न
हो जाए, तब तक के लिए बिक्रम सिंह को उनकी संवेदनशील पद पर तैनाती से हटा
दिया जाए. बहरहाल, प्रधानमंत्री की ओर से इस मसले पर अब तक क्या कार्रवाई
की गई है, किसी को नहीं पता. क्या इस मामले पर अब भी कोई कार्रवाई होगी,
कहा नहीं जा सकता.
आभार : चौथी दुनिया 

राष्ट्रनिर्माता सावित्री बाई फुले

राष्ट्रनिर्माता सावित्री बाई फुले  
जनवरी, १८३१ को सावित्रीबाई फुले का जन्म हुआ था। भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक को नमन।  

 
एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन १८४८ में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद हम २०११ में नहीं कर सकेंगे । लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी । सावित्री बाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया, वह भी पुणे जैसे कूढ़मगज शहर में । 
 
वे स्कूल जाती थीं, तो लोग पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे । आज से १६० साल पहले बालिकाओ के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम मन जाता था कितना सामाजिक अपमान झेलकर खोला गया होगा देश में एक अकेला बालिका विद्यालय । 
 
 इतिहास लिखने वालों ने इस असली राष्ट्रनायिका के साथ न्याय नहीं किया। इतिहास का पुनर्लेखन एक अनिवार्य कार्यभार है । स्कूल तो क्या कॉलेज तक में विद्यार्थियों को बताते ही नहीं है कि कोई सावित्रीबाई फुले भी थीं, जिन्होंने देश का पहला बालिका विद्यालय खोला था । सावित्रीबाई फुले के स्कूल में हर धर्म और जातियों की बालिकाएँ  पढ़ती थीं । उन्होंने ब्राह्मण विधवा काशीबाई के बच्चे को गोद लिया था । 
 
सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं । हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया । जब सावित्री बाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उनपर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फैंका करते थे। सावित्री बाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं । अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं। 
 
 साभार:फ़ेसबुक पर अमित जी 

दोहा सलिला: गले मिले दोहा-यमक... -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                                
गले मिले दोहा-यमक...
-- संजीव 'सलिल'
*
गले मिले दोहा-यमक, गले भेद का बर्फ.
नये अर्थ बतला रहा, 'सलिल' एक ही हर्फ़..
*
ताना तो नभ में उड़ी, ऊपर 'सलिल' पतंग.
ताना सुन वह भड़ककर, उठी छेड़ने जंग..
*
ताना-बाना बुना पर, ताना अधिक न तार.
बाना धारण किया फिर, करने लगे सिंगार..
*
मनमाना जी भर किया, हो पायें संतुष्ट.
मन माना फिर भी नहीं, खुद ही खुदसे रुष्ट..
*
दधि भाना आता नहीं, पर भाना नंदलाल.
'भा ना', मैया भा रही, आ कर धूम-धमाल..
*
दही बिलोना था मगर, भाग कर रही खेल.                                             
गेंद बिलोना तू नहीं, होगा व्यर्थ झमेल..
*
गुणा-भाग क्या कर रही?, भाग हो रही देर.
गुणा-भाग के फेर में, हो न कहीं अंधेर..
*
दाम न दामन का लगा, होता पाक-पवित्र.
सुर नर असुर सभी पले, इसमें सत्य विचित्र..
*
लड़के लड़ के माँगते, हक न करें कर्त्तव्य.
माता-पिता मना रहे, उज्जवल हो भवितव्य..
*
Acharya Sanjiv Salil

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कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना फिरिया जेओ ना प्रभु! का भावानुवाद: --संजीव 'सलिल'

कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना फिरिया जेओ ना प्रभु! का भावानुवाद:
(’नैवेद्य’ नामक कविता संग्रह में ५वीं कविता)
 संजीव 'सलिल'
*


















 
god20speaks.jpg

मूल रचना उद्धृत कर रहा हूं।
”जोदि ए आमार हृदोयदुआर
 बोन्धो रोहे गो कोभु
 द्वार भेंगे तुमि एशो मोर प्राणे
 फिरिया जेओ ना प्रभु!
          जोदि कोनो दिन ए बीणार तारे
          तोबो प्रियनाम नाहि झोंकारे
          दोया कोरे तुमि क्षणेक दाँडाओ
          फिरिया जेओ ना प्रभु!
तोबो आह्वाने जोदि कोभु मोर
नाहि भेंगे जाय शुप्तिर घोर
बोज्रोबेदोने जागाओ आमाय
फिरिया जेओ ना प्रभु!
            जोदि कोनो दिन तोमार आशोने
            आर-काहारेओ बोशाई जोतोने
            चिरोदिबोशेर हे राजा आमार
            फिरिया जेओ ना प्रभु!"

*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com