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शनिवार, 28 मई 2011

नवगीत: टेसू तुम क्यों?.... संजीव वर्मा 'सलिल'

नवगीत:                                                                                           
टेसू तुम क्यों?....
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
टेसू तुम क्यों लाल हुए?...
*
टेसू तुम क्यों लाल हुए?
फर्क न कोई तुमको पड़ता
चाहे कोई तुम्हें छुए.....
*
आह कुटी की तुम्हें लगी क्या?
उजड़े दीन-गरीब.
मीरां को विष, ईसा को
इंसान चढ़ाये सलीब.
आदम का आदम ही है क्यों
रहा बिगाड़ नसीब?
नहीं किसी को रोटी
कोई खाए मालपुए...
*
खून बहाया सुर-असुरों ने.
ओबामा-ओसामा ने.
रिश्ते-नातों चचा-भतीजों ने
भांजों ने, मामा ने.
कोशिश करी शांति की हर पल
गीतों, सा रे गा मा ने.
नहीं सफलता मिली
'सलिल' पद-मद से दूर हुए...
*

रोचक चर्चा: क्या करूँ?... -- संजीव 'सलिल'

रोचक चर्चा:
क्या करूँ?...
संजीव 'सलिल'
*
एक अन्य बच्चे ने अनुवाद करने के लिये शब्द दिया: 'the wall'
मैंने अनुवाद किया 'दीवाल' तो बोला: 'अनुवाद करिए मेरा दिया शब्द क्यों दुहरा रहे है?'
अब क्या करूँ?
*
मैंने हार मान ली तो बोला : चलिए एक शब्द का अर्थ ही बता दें. शब्द दिया 'what?'
मैंने अर्थ बताया 'क्या' तो बोला: 'अरे अब आप अर्थ बताने की जगह मुझसे पूछ रहे हैं.
मैं क्या करूँ? 
*

हस्ताक्षर: ख्याति प्राप्त अन्तर्राष्ट्रीय शायर श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी जी -- नवीन चतुर्वेदी

हस्ताक्षर: 

ख्याति प्राप्त अन्तर्राष्ट्रीय शायर श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी जी

-- नवीन चतुर्वेदी 
मैं कोई हरिश्चंद्र तो नहीं हूँ, पर सच बोलने को प्राथमिकता अवश्य देता हूँ| और सच ये है कि चंद हफ़्ते पहले तक मैं नहीं जानता था आदरणीय तुफ़ैल चतुर्वेदी जी को| कुछ मित्रों से सुना उन के बारे में| सुना तो बात करने का दिल हुआ| बात हुई तो मिलने का दिल हुआ| और मिलने के बाद आप सभी से मिलाने का दिल हुआ| हालाँकि मैं जानता हूँ कि आप में से कई सारे उन्हें पहले से भी जानते हैं| फिर भी, जो नहीं जानते उन के लिए और अंतर्जाल के भावी संदर्भों के लिए मुझे ऐसा करना श्रेयस्कर लगा|

पर क्या बताऊँ उन के बारे में, जब कि मैं खुद भी कुछ ज्यादा जानकारी नहीं रखता| तो आइये सबसे पहले पढ़ते हैं उन के प्रिय शिष्य, भाई विकास शर्मा ‘राज़’ के हवाले से प्राप्त उन के कुछ चुनिन्दा शेर:-



उस की गली को छोड़ के ये फ़ायदा हुआ|
ग़ालिब, फ़िराक़, जोश की बस्ती में आ गये||
***
मैं सदियाँ छीन लाया वक़्त तुझसे|
मेरे कब्ज़े में लमहा भी नहीं था||
***
मेरे पैरों में चुभ जाएंगे लेकिन|
इस रस्ते से काँटे कम हो जाएंगे||
***
हम तो समझे थे कि अब अश्क़ों की किश्तें चुक गईं|
रात इक तस्वीर ने फिर से तक़ाज़ा कर दिया||
***
अच्छा दहेज दे न सका मैं, बस इसलिए|
दुनिया में जितने ऐब थे, बेटी में आ गये||
***
तुमने कहा था आओगे – जब आयेगी बहार|
देखो तो कितने फूल चमेली में आ गये||
***
हर एक बौना मेरे क़द को नापता है यहाँ|
मैं सारे शहर से उलझूँ मेरे इलाही क्या||
***
बस अपने ज़ख्म से खिलवाड़ थे हमारे शेर|
हमारे जैसे क़लमकार ने लिखा ही क्या||
***
हम फ़कीरों को ये गठरी, ये चटाई है बहुत|
हम कभी शाहों से मखमल नहीं माँगा करते||
***
लड़ाई कीजिये, लेकिन, जरा सलीक़े से|
शरीफ़ लोगों में जूता नहीं निकलता है||
***
बेटे की अर्थी चुपचाप उठा तो ली|
अंदर अंदर लेकिन बूढ़ा टूट गया||
***
नई बहू से इतनी तबदीली आई|
भाई का भाई से रिश्ता टूट गया||
***
तुम्हारी बात बिलकुल ठीक थी बस|
तुम्हें लहज़ा बदलना चाहिए था||
***
नहीं झोंका कोई भी ताज़गी का|
तो फिर क्या फायदा इस शायरी का||
***
किसी दिन हाथ धो बैठोगे हमसे|
तुम्हें चस्का बहुत है बेरुख़ी का||
***





तो ये हैं तुफ़ैल चतुर्वेदी जी - हिंदुस्तान-पाकिस्तान दोनों मुल्कों के शायरों के अज़ीज़| नोयडा [दिल्ली] में रहते हैं| पेंटिंग्स, रत्न, रेकी और न जाने क्या क्या इन के तज़रूबे में शामिल हैं – ग़ज़ल के सिवाय| उस्ताद शायर के रुतबे को शोभायमान करते तुफ़ैल जी की बातों को अदब के हलक़ों में ख़ासा सम्मान हासिल है|


आप की गज़लों में सादगी के साथ साथ चुटीले कथ्यों की भरमार देखने को मिलती है| उरूज़ के उच्चतम प्रामाणिक पैमानों का सम्मान करते हुए ऐसी गज़लें कहना अपने आप में एक अप्रतिम वैशिष्ट्य है|

अदब को ले कर हिन्दी हल्के में सब से बढ़िया मेगज़ीन निकालते हैं ये, जिसका कि नाम है “लफ्ज”| ये मेगज़ीन अब तक अनेक सुख़नवरों को नुमाया कर चुकी है| ग़ज़ल के विद्यार्थी जिनको कहना चाहिए, ऐसे क़लमकार भी स्थान पाते हैं “लफ़्ज़” में|

मेरा सौभाग्य है कि मैंने कुछ घंटे बिताए आप के साथ में| पूरी सादगी और विनम्रता के साथ आप ने अपना अनुभव और ज्ञान जो मेरे साथ बाँटा, उस के लिए मैं सदैव आप का आभारी रहूँगा|

मुझे यह लिखना ज़रूरी लग रहा है कि हर ज्ञान पिपासु के लिए आप के दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं|

तुफ़ैल जी का ई मेल पता:- tufailchaturvedi@yahoo.com
मोबाइल नंबर :- +91 9810387857
आभार: वातायन 

छंद परिचय: मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त -- संजीव 'सलिल'

मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त

संजीव 'सलिल'
*
मनहरण घनाक्षरी छंद एक वर्णिक छंद है.
इसमें मात्राओं की नहीं, वर्णों अर्थात अक्षरों की गणना की जाती है. ८-८-८-७ अक्षरों पर यति या विराम रखने का विधान है. चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु हो. इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दें. स्व. ॐ प्रकाश आदित्य ने इस छंद में प्रभावी हास्य रचनाएँ की हैं.

इस छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर है जिसके हिंदी में ४ अर्थ १. मेघ/बादल, २. सघन/गहन, ३. बड़ा हथौड़ा, तथा ४. किसी संख्या का उसी में ३ बार गुणा (क्यूब) हैं. इस छंद में चारों अर्थ प्रासंगिक हैं. घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होता है मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. घंक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो. घनाक्षरी पाठक/श्रोता के मन पर प्रहर सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है.

घनाक्षरी में ८ वर्णों की ३ बार आवृत्ति है. ८-८-८-७ की बंदिश कई बार शब्द संयोजन को कठिन बना देती है. किसी भाव विशेष को अभिव्यक्त करने में कठिनाई होने पर कवि १६-१५ की बंदिश अपनाते रहे हैं. इसमें आधुनिक और प्राचीन जैसा कुछ नहीं है. यह कवि के चयन पर निर्भर है. १६-१५ करने पर ८ अक्षरी चरणांश की ३ आवृत्तियाँ नहीं हो पातीं. 

मेरे मत में इस विषय पर भ्रम या किसी एक को चुनने जैसी कोई स्थिति नहीं है. कवि शिल्पगत शुद्धता को प्राथमिकता देना चाहेगा तो शब्द-चयन की सीमा में भाव की अभिव्यक्ति करनी होगी जो समय और श्रम-साध्य है. कवि अपने भावों को प्रधानता देना चाहे और उसे ८-८-८-७ की शब्द सीमा में न कर सके तो वह १६-१५ की छूट लेता है.

सोचने का बिंदु यह है कि यदि १६-१५ में भी भाव अभिव्यक्ति में बाधा हो तो क्या हर पंक्ति में १६+१५=३१ अक्षर होने और १६ के बाद यति (विराम) न होने पर भी उसे घनाक्षरी कहें? यदि हाँ तो फिर छन्द में बंदिश का अर्थ ही कुछ नहीं होगा. फिर छन्दबद्ध और छन्दमुक्त रचना में क्या अंतर शेष रहेगा. यदि नहीं तो फिर ८-८-८ की त्रिपदी में छूट क्यों?

उदाहरण हर तरह के अनेकों हैं. उदाहरण देने से समस्या नहीं सुलझेगी. हमें नियम को वरीयता देनी चाहिए. इसलिए मैंने प्रचालन के अनुसार कुछ त्रुटि रखते हुए रचना भेजी ताकि पाठक पढ़कर सुधारें और ऐसा न हों पर नवीन जी से अनुरोध किया कि वे सुधारें. पाठक और कवि दोनों रचनाओं को पढ़कर समझ सकते हैं कि बहुधा कवि भाव को प्रमुख मानते हुए और शिल्प को गौड़ मानते हुए या आलस्य या शब्दाभाव या नियम की जानकारी के अभाव में त्रुटिपूर्ण रचना प्रचलित कर देता है जिसे थोडा सा प्रयास करने पर सही शिल्प में ढाला जा सकता है.

अतः, मनहरण घनाक्षरी छंद का शुद्ध रूप तो ८-८-८-७ ही है. ८+८, ८+७ अर्थात १६-१५, या ३१-३१-३१-३१ को शिल्पगत त्रुटियुक्त घनाक्षरी ही माँना जा सकता है. नियम तो नियम होते हैं. नियम-भंग महाकवि करे या नवोदित कवि दोष ही कहलायेगा. किन्हीं महाकवियों के या बहुत लोकप्रिय या बहुत अधिक संख्या में उदाहरण देकर गलत को सही नहीं कहा जा सकता. शेष रचना कर्म में नियम न मानने पर कोई दंड तो होता नहीं है सो हर रचनाकार अपना निर्णय लेने में स्वतंत्र है.

घनाक्षरी रचना विधान :

आठ-आठ-आठ-सात पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
वर्षा-वर्णन :
उमड़-घुमड़कर, गरज-बरसकर,
जल-थल समकर, मेघ प्रमुदित है.
मचल-मचलकर, हुलस-हुलसकर,
पुलक-पुलककर, मोर नरतित है..
कलकल,छलछल, उछल-उछलकर,
कूल-तट तोड़ निज, नाद प्रवहित है.
टर-टर, टर-टर, टेर पाठ हेर रहे,
दादुर 'सलिल' संग स्वागतरत है..
*
भारत गान :
भारत के, भारती के, चारण हैं, भाट हम,
नित गीत गा-गाकर आरती उतारेंगे.
श्वास-आस, तन-मन, जान भी निसारकर,
माटी शीश धरकर, जन्म-जन्म वारेंगे..
सुंदर है स्वर्ग से भी, पावन है, भावन है,
शत्रुओं को घेर घाट मौत के उतारेंगे-
कंकर भी शंकर है, दिक्-नभ अम्बर है,
सागर-'सलिल' पग नित्य ही पखारेंगे..
*
हास्य घनाक्षरी
 सत्ता जो मिली है तो जनता को लूट खाओ,
मोह होता है बहुत घूस मिले धन का|

नातों को भुनाओ सदा, वादों को भुलाओ सदा,
चाल चल लूट लेना धन जन-जन का|

घूरना लगे है भला, लुगाई गरीब की को,
फागुन लगे है भला, साली-समधन का|

विजया भवानी भली, साकी रात-रानी भली,
चौर्य कर्म भी भला है आँख-अंजन का||

मुक्तिका: सुबह को, शाम को, रातों को -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सुबह को, शाम को,  रातों को
संजीव 'सलिल'
*


सुबह को, शाम को,  रातों को कैसे तू सुहाया है?
सितारे पूछते, सूरज ने गुर अपना छिपाया है..

जिसे देखो उसी ने ख्वाब निज हित का सजाया है.
गुलिस्तां को उजाड़ा, फर्श काँटों का बिछाया है..

तेरे घर में जले ईमान का हरदम दिया लेकिन-
मुझे फानूस दौलत के मिलें, सबने मनाया है..

न मन्दिर और न मस्जिद में तुझको मिल सकेगा वह.
उसे लेकर कटोरा राह में तूने बिठाया है..

वो चूहा पूछता है 'एक दाना भी नहीं जब तो-
बता इंसां रसोईघर में चूल्हा क्यों बनाया है?.

दिए सरकार ने पैसे मदरसे खूब बन जाएँ.
मगर अफसर औ' ठेकेदार ने बंगला बनाया है..

रहनुमा हैं गरीबों के मगर उड़ते जहाजों में.
जमूरों ने मदारी और मजमा बेच खाया है..

भ्रमर की, तितलियों की बात सुनते ही नहीं माली.
जरा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है..

वो राधा हो या रज़िया हो, नहीं उसका सगा कोई.
हरेक अपने को उसने घूरते ही 'सलिल' पाया है.

'सलिल' पत्थर की छाती फाड़, हरने प्यास आया है -
इसे भी बेच पत्थर दिलों ने धंधा बनाया है.

मंगलवार, 24 मई 2011

छंद परिचय: मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त -- संजीव 'सलिल'

छंद परिचय:
मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त

संजीव 'सलिल' *
मनहरण घनाक्षरी छंद एक वर्णिक छंद है.
इसमें मात्राओं की नहीं, वर्णों अर्थात अक्षरों की गणना की जाती है. ८-८-८-७ अक्षरों पर यति या विराम रखने का विधान है. चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु हो. इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दें. स्व. ॐ प्रकाश आदित्य ने इस छंद में प्रभावी हास्य रचनाएँ की हैं.
इस छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर है जिसके हिंदी में ४ अर्थ १. मेघ/बादल, २. सघन/गहन, ३. बड़ा हथौड़ा, तथा ४. किसी संख्या का उसी में ३ बार गुणा (क्यूब) हैं. इस छंद में चारों अर्थ प्रासंगिक हैं. घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होता है मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. घंक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो. घनाक्षरी पाठक/श्रोता के मन पर प्रहर सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है. घनाक्षरी में ८ वर्णों की ३ बार आवृत्ति है.
घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधर सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
वर्षा-वर्णन:
उमड़-घुमड़कर, गरज-बरसकर,
जल-थल समकर, मेघ प्रमुदित है.
मचल-मचलकर, हुलस-हुलसकर,
पुलक-पुलककर, मोर नरतित है..
कलकल,छलछल, उछल-उछलकर,
कूल-तट तोड़ निज, नाद प्रवहित है.
टर-टर, टर-टर, टेर पाठ हेर रहे,
दादुर 'सलिल' संग स्वागतरत है..
*
भारत वंदना:
भारत के, भारती के, चारण हैं, भाट हम,
नित गीत गा-गाकर आरती उतारेंगे.
श्वास-आस, तन-मन, जान भी निसारकर,
माटी शीश धरकर, जन्म-जन्म वारेंगे..
सुंदर है स्वर्ग से भी, पवन है, भवन है,
शत्रुओं को घेर घात मौत के उतारेंगे-
कंकर भी शंका रही, दिक्-नभ अम्बर है,
सागर-'सलिल' पग नित्य ही पखारेंगे..
*
षडऋतु वर्णन : मनहरण घनाक्षरी/कवित्त छंद
संजीव 'सलिल'
*

वर्षा :
गरज-बरस मेघ, धरती का ताप हर, बिजली गिराता जल, देता हरषाता है. 
शरद:
हरी चादर ओढ़ भू, लाज से सँकुचती है, देख रवि किरण से, संदेशा पठाता है.
शिशिर:
प्रीत भीत हो तो शीत, हौसलों पर बर्फ की, चादर बिछाता फिर, ठेंगा दिखलाता है. 
हेमन्त :
प्यार हार नहीं मान, कुछ करने की ठान, दरीचे से झाँक-झाँक, झलक दिखाता है.
वसंत :
रति-रतिनाथ साथ, हाथों में लेकर हाथ, तन-मन में उमंग, नित नव जगाता है.
ग्रीष्म :
देख क्रुद्ध होता सूर्य, खिलते पलाश सम, आसमान से गरम, धूप बरसाता है..
*
टिप्पणी : घनाक्षरी छंद को लय में पढ़ते समय बहुधा शब्दों को तोड़कर पड़ा जाता ताकि आरोह-अवरोह (उतर-चढ़ाव) बना रहे.

सोमवार, 23 मई 2011

मुक्तिका: सागर ऊँचा... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सागर ऊँचा...
संजीव 'सलिल'
*
सागर ऊँचा, पर्वत गहरा.
अंधा न्याय, प्रशासन बहरा..

खुली छूट आतंकवाद को.
संत-आश्रमों पर है पहरा..

पौरुष निस्संतान मर रहा.
वंश बढ़ाता फिरता महरा..

भ्रष्ट सियासत देश बेचती.
देश-प्रेम का झंडा लहरा..

शक्ति पूजते जला शक्ति को.
मौज-मजा श्यामल घन घहरा..

राजमार्ग ने वन-गिरि निगले..
सारा देश हुआ है सहरा..

कब होगा जनतंत्र देश में?
जनमत का ध्वज देखें फहरा..

हिंसा व्यापी दिग-दिगंत तक.
स्नेह-सलिल है ठहरा-ठहरा..

जनप्रतिनिधि ने जनसेवा का
'सलिल' न अब तक पढ़ा ककहरा..

************************

रचना आमंत्रण : परिकल्पना ब्लॉगोत्सव हेतु रचनाएँ आमंत्रित

रचना आमंत्रण :
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव हेतु रचनाएँ आमंत्रित
*
 महोदय/महोदया
हर्ष के साथ सूचित करना है कि  विगत वर्ष की तरह इस वर्ष भी परिकल्पना पर ब्लॉगोत्सव मनाने का निर्णय लिया गया है, जिसमें भाग लेने हेतु निम्नलिखित वर्गों में रचनाएँ आमंत्रित है :
  • आलेख वर्ग हेतु साहित्यिक-सांस्कृतिक और कला को रेखांकित करता हुआ दो विवेचनात्मक निबंध,एक फोटो और संक्षिप्त परिचय  प्रेषित करें
  • कथा-कहानी वर्ग हेतु दो कहानी, लंबी कहानी, लघु कथा, एक फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • कविता वर्ग हेतु दो कवितायें एक फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • ग़ज़ल वर्ग हेतु दो गज़लें  एक फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • गीत-नवगीत हेतु दो नवगीत अथवा गीत  एक फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • चर्चा-परिचर्चा हेतु किसी भी विषय पर कम से  कम दस लोगों का मंतव्य फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • चौपाल हेतु किसी भी राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय मुद्दे पर कम से  कम दस व्यक्तियों की राय फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • बतकही हेतु राजनीति/साहित्य/पत्रकारिता और समाज से जुड़े  महत्वपूर्ण व्यक्तियों की विवादास्पद टिप्पणियों अपनी मजेदार टिप्पणियाँ फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • बाल-मन हेतु बच्चे की रचनाएँ/रेखा चित्र अथवा बच्चों के मनोविज्ञान को समझने वाले रचनाकारों की रचनाये  फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • मनोरंजन के अंतर्गत अपनी रचनाये स्वयं या किसी अन्य गायक अथवा गायिका के स्वर में वीडियो/ऑडियो तैयार करते हुए फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • लोकमंच के अंतर्गत आंचलिक/क्षेत्रीय  रचनाएँ फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • विमर्श के अंतर्गत किसी भी मुद्दे पर वेबाक राय  फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • विविध के अंतर्गत आप किसी भी प्रकार की रोचक जानकारियाँ फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • समीक्षा के अंतर्गत आप किसी भी पात्र-पत्रिका अथवा पुस्तक की समीक्षा  फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • साक्षात्कार के अंतर्गत विभिन्न क्षेत्रों की चर्चित हस्तियों के साथ वार्तालाप फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • साहित्य के अंतर्गत ललित निबंध  फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • सुर-संगीत के अंतर्गत किसी भी प्रकार की मंचीय प्रस्तुति का वीडियो फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • हास्य-व्यंग्य के अंतर्गत दो हास्य व्यंग्य रचनाएँ फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • गतिविधियों के अंतर्गत कार्यक्रमों की रपट फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
  • कार्टून वर्ग में शामिल होने हेतु कम से कम पांच कार्टून्स फोटो, संक्षिप्त परिचय के साथ प्रेषित करें
अपनी रचनाये, फोटो, संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित ई-मेल पर प्रेषित करें
 
नोट : प्राप्त सभी रचनाएँ परिकल्पना ब्लॉगोत्सव (www.parikalpna.com/) पर प्रकाशित की जायेगी तथा उन प्रकाशित रचनाओं से ५१ श्रेष्ठ रचनाओं का चयन करते हुए उन्हें सार्वजनिक  मंच से "परिकल्पना सम्मान-२०११" से सम्मानित किया जाएगा
 
आप सभी से विनम्र निवेदन है कि अपना-अपना रचनात्मक सहयोग देकर ब्लॉगोत्सव-२०११ को सफल बनाएं  
सादर-
रवीन्द्र प्रभात

सामयिक लेख- हिंदी : चुनौतियाँ और संभावनाएँ -संजीव 'सलिल'

सामयिक लेख-
हिंदी : चुनौतियाँ और संभावनाएँ
-संजीव 'सलिल'
भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में शिशु को पूर्व प्राथमिक से ही अंग्रेजी के शिशु गीत रटाये जाते हैं. वह बिना अर्थ जाने अतिथियों को सुना दे तो माँ-बाप का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है. हिन्दी की कविता केवल २ दिन १५ अगस्त और २६ जनवरी पर पढ़ी जाती है, बाद में हिन्दी बोलना कोई नहीं चाहता. अंग्रेजी भाषी विद्यालयों में तो हिन्दी बोलने पर 'मैं गधा हूँ' की तख्ती लगाना पड़ती है. इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उअच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिन्दी यत्किंचित पढ़ता है... फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिन्दी छुटा ही देता है.

इस मानसिकता की आधार भूमि पर जब साहित्य रचना की ओर मुड़ता है तो हिन्दी भषा, व्याकरण और पिंगल का अधकचरा ज्ञान और हिन्दी को हेय मानने की प्रवृत्ति उसे उर्दू की ओर उन्मुख कर देती है जबकि उर्दू स्वयं हिन्दी की अरबी-फारसी शब्द बाहुल्यता की विशेषता समेटे शैली मात्र है.  

गत कुछ दिनिं से एक और चिंतनीय प्रवृत्ति उभरी है. राजनैतिक नेताओं ने मतों को हड़पने के लिये आंचलिक बोलियों (जो हिन्दी की शैली विशेष हैं) को प्रान्तों की राज भाषा घोषित कर उन्हें हिन्दी का प्रतिस्पर्धी बनाने का कुप्रयास किया है. अंतरजाल (नेट) पर भी ऐसी कई साइटें हैं जहाँ इन बोलियों के पक्षधर जाने-अनजाने हिन्दी विरोध तक पहुँच जाते हैं जबकि वे जानते हैं कि क्षेत्र विशेष के बाहर बोलिओं की स्वीकृति नहीं हो सकती. 

मैंने इस के वेरुद्ध रचनात्मक प्रयास किया और खड़ी हिन्दी के साथ उर्दू, बृज, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, मारवाड़ी, छत्तीसगढ़ी, बुन्देली आदि शिलियों में रचनाएँ इन साइटों को भेजीं, कुछ ई कविता के मंच पर भी प्रस्तुत कीं. दुःख हुआ कि एक बोली के पक्षधर ने किसी अन्य बोली की रचना में कोई रूचि नहीं दिखाई. इस स्थिति का लाभ अंग्रेजी के पक्षधर ले रहे हैं. 

उर्दू के प्रति आकर्षण सहज स्वाभाविक है... वह अंग्रेजों के पहले मुग़ल काल में शासन-प्रशासन कीभाषा रही है. हमारे घरों के पुराने कागजात उर्दू लिपि में हैं जिन्हें हमारे पूर्वजों ने लिखा है. उर्दू की उस्ताद-शागिर्द परंपरा इस शैली को लगातार आगे बढ़ाती और नये रचनाकारों को शिल्प की बारीकियाँ सिकती हैं. हिन्दी में जानकार नयी कलमों को हतोत्साहित या उपेक्षित करने में गौरव मानते हैं. अंतरजाल आने के बाद स्थिति में बदलाव आ रहा है... किन्तु अभी भी रचना की कमी बताने पर हिन्दी का कवि उसे अपनी शैली कहकर शिल्प, व्याकरण या  पिंगल के नियम मानने को तैयार नहीं होता. शुद्ध शब्द अपनाने के स्थान पर उसे क्लिष्ट कहकर बचता है. उर्दू में पाद टिप्पणी में अधिक कठिन शब्द का अर्थ देने की रीति हिन्दी में अपनाना एक समाधान हो सकता है. 
 
हर भारतीय यह जनता है कि पूरे भारत में बोली-समझी जानेवाली भाषा हिन्दी और केवल हिन्दी ही होसकती है तथा विश्व स्तर पर भारत की भाषाओँ में से केवल हिन्दी ही विश्व भाषा कहलाने की अधिकारी है किन्तु सच को जानकर भी न मानने की प्रवृत्ति हिन्दी के लिये घातक हो रही है. 

हम रचना के कथ्य के अनुकूल शब्दों का चयन कर अपनी बात कहें... जहाँ लगता हो कि किसी शब्द विशेष का अर्थ सामान्य पाठक को समझने में कठिनाई होगी वहाँ अर्थ कोष्ठक या पाद टिप्पणी में दे दें. किसी पाठक को कोई शब्द कठिन या नया लगे तो वह शब्द कोष में अर्थ देख ले या रचनाकार से पूछ ले. 

हिन्दी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओँ के साहित्य को आत्मसात कर हिन्दी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषय-वस्तु को हिन्दी में अभिव्यक्त करने की है. हिन्दी के शब्द कोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है. इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओँ, विदेशी भाषाओँ, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना जरूरी है. 

एक सावधानी रखनी होगी. अंग्रेजी के नये शब्द कोष में हिन्दी के हजारों शब्द समाहित किये गये हैं किन्तु कई जगह उनके अर्थ/भावार्थ गलत हैं... हिन्दी में अन्यत्र से शब्द ग्रहण करते समय शब्द का लिंग, वचन, क्रियारूप, अर्थ, भावार्थ तथा प्रयोग शब्द कोष में हो तो उपयोगिता में वृद्धि होगी. यह महान कार्य सैंकड़ों हिन्दी प्रेमियों को मिलकर करना होगा. विविध विषयों के निष्णात जन अपने विषयों के शब्द-अर्थ दें जिन्हें हिन्दी शब्द कोष में जोड़ा जाये.

रचनाकारों को हिन्दी का प्रमाणिक शब्द कोष, व्याकरण तथा पिंगल की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब जैसे समय मिले पढ़ने की आदत डालनी होगी. हिन्दी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी या ने किसी भाषा/बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं अपितु भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है चूँकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती. 
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

Pl decide it is who's world : vijay kaushal

Please, decide it is who's world


India now ruled by……..

Amma in South;
Didi in East;
Bhenji in North;
Aunty in the Capital;
Madam in Center;
Nani on top (the president)
&
"Wife At Home"
And yet people say.. It’s a Man's World? …….

*

कुण्डलिनी : नव संवत्सर ----- संजीव 'सलिल'

कुण्डलिनी
नव संवत्सर
संजीव 'सलिल'
*
नव संवत्सर पर करें, शब्द-पुत्र संकल्प.
राष्ट्र-विश्व हित ही जियें, इसका नहीं विकल्प..
इसका नहीं विकल्प, समय के साथ चलेंगे.
देश-दुश्मनों की छाती पर दाल दलेंगे..
जीवन का हर पल, मानव सेवा का अवसर.
मानव में माधव देखें, शुभ नव संवत्सर..
*
साँसों के साम्राज्य का, वह मानव युवराज.
त्याग-परिश्रम का रखा, जिसने निज सिर ताज..
जिसने निज सिर ताज, शीश को नित्य नवाया.
अहंकार का पाश 'सलिल' सम, व्यर्थ बनाया..
पीड़ा-वन में राग छेड़ता, जो हासों के.
उसको ही चंदन-वंदन, मिलते श्वासों के..
*
हर दिन, हर पल कर सके, यदि मन सच को याद.
जग-जीवन आबाद कर, खुद भी होता शाद..
खुद भी होता शाद, नेह-नर्मदा बहाता.
कोई रहे न गैर, सकल जग अपना पाता.
कंकर में शंकर दिखते, उसको हर पल-छिन.
'सलिल' करे अभिषेक, विहँसकर उसका हर दिन..
*
धुआँ-धुआँ सूरज हुआ, बदली-बदली धूप.
ऊषा संध्या निशा सा, दोपहरी का रूप..
दोपहरी का रूप,  झुका आकाश दिगंबर.
ऊपर उठती धारा, गले मिल, मिटता अंतर.
सिमट समंदर खुद को, करता कुआँ-कुआँ.
तज सिद्धांत सियासत-सूरज धुआँ-धुआँ..
*
मरुथल बढ़ता, सिमटता हरियाली का राज.
धरती के सिर पर नहीं, शेष वनों का ताज.
शेष वनों का ताज, नहीं पर्वत-कर बाकी.
सलिल बिना सलिलायें, मधुशाला बिन साक़ी.
नहीं काँपता पंछी-कलरव बिन क्यों मानव?
हरियाली का ताज सिमटता, बढ़ता मरुथल..
*
कविता कवि करता अगर, जिए सुकविता आप.
सविता तब ही सकेगा, कवि-जीवन में व्याप..
कवि-जीवन में व्याप, लक्ष्मी दूर रहेगी.
सरस्वती नित लेकर, सुख-संतोष मिलेगी..
निशा उषा संध्या वंदन कर, हर ढल-उगता.
जिए सुकविता आप, अगर कवि करता कविता..
*

एक षटपदी (कुण्डलिनी): भारत के गुण गाइए... संजीव 'सलिल'

एक षटपदी (कुण्डलिनी):                                                   
भारत के गुण गाइए...
संजीव 'सलिल'
*
भारत के गुण गाइए, ध्वजा तिरंगी थाम.
सब जग पर छा जाइये, सब जन एक समान..
सब जन एक समान प्रगति का चक्र चलायें.
दंड थाम उद्दंड शत्रु को पथ पढ़ायें..
बलिदानी केसरिया की जयकार करें शत.
हरियाली सुख, शांति श्वेत, मुस्काए भारत..
********

रविवार, 22 मई 2011

मुक्तिका: ... निज बाँह में -संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
... निज बाँह में
संजीव 'सलिल'

*


 नील नभ को समेटूँ निज बाँह में.
जी रहा हूँ आज तक इस चाह में..

पड़ोसी को कभी काना कर सके.
हुआ अंधा पाक दुर्मति-डाह में..

मंजिलें कब तक रहेंगी दूर यों?
बनेंगी साथी कभी तो राह में..

प्यार की गहराई मिलने में नहीं.
हुआ है अहसास बिछुड़न-आह में..

काट जंगल, खोद पर्वत, पूर सर.
किस तरह सुस्ता सकेंगे छाँह में?

रोज रुसवा हो रहा सच देखकर.
जल रहा टेसू सा हर दिल दाह में..

रो रही है खून के आँसू धरा.
आग बरसी अब के सावन माह में..

काश भिक्षुक मन पले पल भर 'सलिल'
देख पाये सकल दुनिया शाह में..

देख ऊँचाई न बौराओ 'सलिल
 ..दूब सम जम जाओ गहरी थाह में
***
Acharya Sanjiv 'salil

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मुक्तिका: आये हो --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

आये हो

संजीव 'सलिल'

*

बहुत दिनों में मुझसे मिलने आये हो.
यह जाहिर है तनिक भुला न पाये हो..


मुझे भरोसा था-है, बिछुड़ मिलेंगे हम.

नाहक ही जा दूर व्यर्थ पछताये हो..



खलिश शूल की जो हँसकर सह लेती है.

उसी शाख पर फूल देख मुस्काये हो..



अस्त हुए बिन सूरज कैसे पुनः उगे?

जब समझे तब खुद से खुद शर्माये हो..



पूरी तरह किसी को कब किसने समझा?

समझ रहे यह सोच-सोच भरमाये हो..



ढाई आखर पढ़ बाकी पोथी भूली.

जब तब ही उजली चादर तह पाये हो..



स्नेह-'सलिल' में अवगाहो तो बात बने.

नेह नर्मदा कब से नहीं नहाये हो..

*

गुरुवार, 19 मई 2011

हास्य रचना: कान बनाम नाक --- संजीव 'सलिल'


हास्य रचना:                                                                                                                                                   
कान बनाम नाक
संजीव 'सलिल'
*
शिक्षक खींचे छात्र के साधिकार जब कान.

कहा नाक ने- 'मानते क्यों अछूत श्रीमान?
क्यों अछूत श्रीमान मानकर नहीं खींचते.
क्यों कानों को लाड़-क्रोध से आप भींचते?'

शिक्षक बोला- "छात्र की अगर खींच लूँ नाक.
कौन करेगा साफ़ यदि बह आयेगी नाक?
बह आयेगी नाक, नाक पर मक्खी बैठे.
ऊँची नाक हुई नीची तो हुए फजीते.''

नाक एक है, कान दो, बहुमत का है राज.                                                   
जिसकी संख्या अधिक हो सजे शीश पर साज.
सजे शीश पर साज, सभी संबंध भुनाते.
गधा बाप को और गधे को बाप बताते.

नाक कटे तो प्रतिष्ठा का हो जाता अंत.
कान खिंचे तो सहिष्णुता बढ़ती बनता संत.
कान खिंचे तो ज्ञान पा खुल जाती है आँख.
नाक खिंचे तो आँख संग मुंद जाती है साँस.

कान ज्ञान को बाहर से भीतर ले आते.
नाक बंद अंदर की दम बाहर पहुँचाते.
आँख, गाल न अधर खिंचाई-सुख पा सकते.
'सलिल' खिंचाकर कान तभी नेता हैं हँसते.

मुक्तिका: लोगों संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
लोगों
संजीव 'सलिल'
*
कुछ तो बोलो न चुप रहो लोगों.
सच है जैसा-जहाँ, कहो लोगों..

जो गलत है उसे सहन न करो.
देश दहके न यूँ दहो लोगों..

नर्मदा नेह की न मैली हो.
तोड़ तटबंध मत बहो लोगों..

भेद मत के रहें, न मन में हों.
हँस के मत-भिन्नता सहो लोगों..

आधुनिकता के साथ-साथ चलो.
कुछ पुरातन भी संग गहो लोगों..

ढाई आखर की बाँचकर पोथी.
ज्यों की त्यों चदरिया तहों लोगों..

चूक हो तो सुधार भी लो 'सलिल'
हो सजग, दुबारा न हो लोगों..
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एक कविता- मैं समय हूँ --संजीव 'सलिल'

एक कविता-
मैं समय हूँ
संजीव 'सलिल'
*
मैं समय हूँ, साथ उनके
जो सुनें आवाज़ मेरी.
नष्ट कर देता उन्हें जो
सुन न सुनते करें देरी.
चंद दशकों बाद का
संवाद यह सुन लो जरा तुम.
शिष्य-गुरु की बात का
क्या मर्म है गुन लो जरा तुम.
*
''सर! बताएँ-
घास कैसी और कैसी दूब होती?
किस तरह के पेड़ थे
जिनके न नीचे धूप होती??''
*
कहें शिक्षक- ''थे धरा पर
कभी पर्वत और टीले.
झूमते थे अनगिनत तरु
पर्ण गिरते हरे-पीले.
डालियों की वृक्ष पर
लंगूर करते खेल-क्रीडा.
बना कोटर परिंदे भी
रहे करते प्रणय-लीला.
मेघ गर्जन कर बरसते.
ऊगती थी घास कोमल.
दूब पतली जड़ें गहरी
नदी कलकल, नीर निर्मल.
धवल पक्षी क्रौंच था जो
युग्म में जल में विचरता.
व्याध के शर से मरा नर
किया क्रंदन संगिनी ने.
संत उर था विकल, कविता
प्रवाहित नव रागिनी ले.
नाचते थे मोर फैला पंख
दिखते अति मनोहर.
करें कलरव सारिका-शुक,
है न बाकी अब धरोहर.
*
करी किसने मूढ़ता यह?
किया भावी का अमंगल??
*
क्या बताऊँ?, हमारे ही
पूर्वजों ने किया दंगल.
स्वार्थवश सब पेड़ काटे.
खोद पर्वत, ताल पूरे.
नगर, पुल, सडकें अनेकों
बनाये हो गये घूरे.
नीलकंठी मोर बेबस
क्रौच खो संगी हुई चुप.
शाप नर को दे रहे थे-
मनुज का भावी हुआ घुप.
विजन वन, गिरि, नदी, सरवर
घास-दूबा कुछ न बाकी.
शहर हर मलबा हुआ-
पद-मद हुआ जब सुरा-साक़ी.
*
समय का पहिया घुमाकर
दृश्य तुमको दिखाता हूँ.
स्वर्ग सी सुषमा मनोरम
दिखा सब गम भुलाता हूँ.''
*
देख मनहर हरीतिमा
रीझे, हुई फिर रुष्ट बच्चे.
''हाय! पूर्वज थे हमारे
अकल के बिलकुल ही कच्चे.
हरीतिमा भू की मिटाकर
नर्क हमको दे गये हैं.
क्षुद्र स्वार्थों हित लड़े-मर,
पाप अनगिन ले गये हैं.
हम तिलांजलि दें उन्हें क्यों?
प्रेत बन वे रहें शापित.''
खुली तत्क्षण आँख कवि की
हुई होनी तभी ज्ञापित..
*
दैव! हमको चेतना दो
बन सकें भू-मित्र हम सब.
मोर बगुले सारिका शुक
घास पौधे हँस सकें तब.
जन्म, शादी अवसरों पर
पौध रोपें, तरु बनायें.
धरा मैया को हरीतिमा
की नयी चादर उढ़ायें.
****

बुधवार, 18 मई 2011

चिंतन: धर्म और आस्था: संजीव 'सलिल'

चिंतन:
धर्म और आस्था:
संजीव 'सलिल'
महाभारतकार ने कह है 'धरमं सह धारयेत' अर्थात जो धारण किया जाए वह धर्म है. आगे चर्चा है कि धारण क्या किया जाए? उत्तर है कि वह जो धारण करने योग्य है. धारण करने योग्य क्या है? वह जो सबके लिये हितकारी हो, सत-शिव-सुन्दर अर्थात सत=सत्य हो, शिव=कल्याणकारी हो, सुंदर=विकृत या कुरूप न हो.
आस्था धर्मसंगत मूल्यों के प्रति लोक का विश्वास है. आस्था अपने आपमें साध्य नहीं है, साध्य धर्म है.
सचिन जी ने मेरा जो लेख उद्धृत किया है वह पूरी तरह धर्म और विज्ञानं सम्मत है. समय के चक्र में सत्य विरूपित होकर अंध श्रृद्धा या अंध विश्वास बन जाते हैं, धर्म का निरंतर विश्लेषण होना अनिवार्य है ताकि वह सनातन मूल्यों को देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप परिभाषित कर सके. आस्था के नाम को धर्म को जड़ बना देने से वह अभिशाप हो जाएगा. हर पंथ के गुरु (पंडित, पुजारी, गुरु, मुल्ला, पादरी आदि) धर्म को विज्ञानं से अलग बताकर उसे अंध श्रृद्ध पर आधरित कर अपनी रोजी-रोटी का जरिया बनाते हैं.
कायस्थवाद सत्य और तथ्य का परीक्षण कर स्वीकार्य और अस्वीकार्य का निर्णय करना है. कायस्थ बुद्धि तत्त्व को इसीलिये प्रधानता देता है कि सत्य का अन्वेषण कर सके. धर्म का कोई भी अंग विज्ञानं विरोधी नहीं है. धर्म के संन्तान सिद्धांत दुरूह (कठिन) होने पर आमजनों को समझाने  के लिये दृष्टान्तों तथा उदाहरणों के माध्यमसे समझाए जाते हैं. कालांतर में ये हे जन-मन में पैठ जाते हैं और सत्य ओझल हो जाता है.
सनातन धर्म के मूल चारों वेद पूरी तरह वैज्ञानिक ग्रन्थ हैं. जब तक उनका अनुवाद पश्चिम में नहीं गया, पश्चिम का विज्ञानं विकसित ही नहीं हुआ. दुर्भाग्यवश भारत में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा वैज्ञानिक-संतों की हत्याओं और नालंदा जैसे पुस्तकालयों को महीनों तक जलाये जाने के बाद केवल कर्मकांडी पंडित शेष रहे जिन्होंने पुराणों की कल्पित कथाओं को आधार बनाकर प्रसंगों की अवैज्ञानिक व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं.
मैंने अपने उक्त लेख में पूरी तरह दर्म और विज्ञानं सम्मत तथ्यों का उल्लेख किया है.
रामकथा से सम्बंधित प्रश्न करनेवाले बंधु रामकथा के सत्य से अनभिज्ञ हैं. राम, सीता, रावण, दशरथ आदि पूरी तरह प्रामाणिक ऐतिहासिक चरित्र हैं किन्तु वैसे नहीं जैसा तुलसी ने लिखा है. इस पर स्वतंत्र चर्चा हो तो सत्य सामने ला सकूँगा.
कृष्ण कथा भी सत्य है किन्तु सूरदास का वर्णन काल्पनिक है.
इन प्रसंगों के सत्य को जानने के लिये समय का ध्यान रखें. जिस काल की घटनाएँ हैं उस काल की भौगोलिक, पुँरातात्विक, नाक्षत्रिक, सामुद्रिक, सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक परिस्थितियों के प्रकाश में घटना क्रम को सही-सही समझा जा सकता है.
चित्रगुप्त जी के प्रसंग में जिन्हें आपत्ति हो वे प्रसंग से सम्बंधित साहित्य का अध्ययन कर मनन-चिंतन करें तब सत्य को समझ सकेंगे.
मैं इस विषय में गत कई वर्षों से निरंतर शोधरत हूँ. स्वयं भी विस्मित हूँ कि हमारे पूर्वजों ने वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित कायस्थ धर्म का अन्वेषण किया किन्तु उसमें कर्मकाण्ड न होने के कारण वह आजीविका का आधार न हो सका. उससे पंडितों की आजीविका छिनने का खतरा हुआ तो पंडितों ने राज्याश्रय में काल्पनिक कथा गढ़कर सत्य को नष्ट करने का प्रयास किया.
आपत्ति करनेवाले बंधुओं को यह भी बता दूँ कि इन पंडितों ने इन्हीं कथाओं में चित्रगुप्त जी को क्रूर, राक्षस प्रवृत्तिवाला कहा  है. क्या आपको यह भी स्वीकार्य है? यह भी लिखा है कि कायस्थ और साँप मिले तो पहिले कायस्थ को मारो, वह साँप से भी अधिक ज़हरीला है.
ये आस्थावान सज्जनगण क्या यह बताने का कष्ट करेंगे कि पुरुष (ब्रम्हा) के लिये अन्य जीव (चित्रगुप्त) को जन्म देना कैसे संभव है? जन्म हुआ तो आकार भी होगा... आकार से चित्र भी बनेगा... फिर चित्र गुप्त कैसे है? दूज पर कोरे कागज़ पर 'ॐ' लिखकर पूजा क्यों करते हैं?
क्या हमारे पूर्वज जो राजा, महामात्य, सेनापति, राजवैद्य आदि थे इतने साधनहीन थे कि अपने इष्ट का एक मंदिर तक न बना सकें. सर्वाधिक शिक्षित होने पर भी कोई आरती, कथा, पूजन विधि या पुराण न लिख सकें. कोई व्रत, उपवास आदि न प्रचलन में न ला सकें.
बंगाली कायस्थ चित्रगुप्त जी की पूजा नहीं करते... माँ सरस्वती और शक्ति की उपासना करते हैं... क्यों?
तमिल के कायस्थ मछली मारने के लिये जाते समय कलम की पूजा करते हैं... क्यों?
मराठी कायस्थ चित्रगुप्त जी की पूजा नहीं करते...
इन सबके पीछे ऐतिहासिक घटनायें हैं.
आस्थावान सज्जन यह भी बता दें कि कायस्थों की गणना किस वर्ण में करेंगे और क्यों?
निवेदन मात्र यह है कि युवा पीढी वैज्ञानिक शिक्ष पद्धति से शिक्षित है. उसे विज्ञानं सम्मत सत्य सम्मत धर्म नहीं मिलेगा तो वह केवल आस्था के नाम पर नहीं मानेगी. तर्क पर खरा उतरने के बाद ही सत्य को सत्य कहकर स्वीकारेगी.
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दोहा सलिला : रूपमती तुम... --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला :
                                                                                                                                      
रूपमती तुम...

संजीव 'सलिल'
*
रूपमती तुम, रूप के, कवि पारखी अनूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ रूप का कूप..
*
जुही चमेली चाँदनी, चम्पा चर्चित देह.
चंद्रमुखी, चंचल, चपल, चतुरा मुखर विदेह..
*
नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
तन श्यामल नीलाभ, मुख पौ फटता अरुणाभ..
*
वाक् सारिका सी मधुर, भौंह नयन धनु बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..
*
सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण-कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..
*
देह-गंध मादक-मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..
*
दस्तक कर्ण-कपाट पर, देते रसमय बोल.
पहुँच माधुरी हृदय तक, कहे नयन-पट खोल..
*
दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..
*
वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा, कर रसपान.
बीत न जाए उमरिया, रीते ना रस-खान..
*
रस-निधि पा रस-लीन हो, रस पी हो लव-लीन.
सरस सृष्टि, नीरस बरस, तरस न हो रस-हीन..
*
दरस-परस बिन कब हुआ, कहो सृष्टि-विस्तार?
दृष्टि वृष्टि कर स्नेह की, करे सुधा-संचार..
*
कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
करें दीद दीदार कह, तुम सा कौन उदार?.
*
मधुशाला से गाल हैं, मधुबाला सी चाल.
छलक रहे मधु-कलश लख, होते रसिक निहाल..
*
कदली-दल सम पग युगल, भुज द्वय कमल-मृणाल.
बंधन में बँधकर हुआ, तन-मन-प्राण निहाल..
*
करधन, पायल, चूड़ियाँ, खनक खोलतीं राज.
बोल अबोले बोलकर, साधें काज-अकाज..
*
बिंदी चमके भाल पर, जैसे नभ पर सूर्य.
गुँजा रही विरुदावली, 'सलिल' नासिका तूर्य..
*
झूल-झूल कुंडल करें, रूप-राशि का गान.
नथनी कहे अरूप है, कोई न सके बखान..
*
नग-शोभित मुद्रिका दस, दो-दो नगाधिराज.
व्याल-जाल कुंतल हुए, क्या जाने किस व्याज?.
*
दीवाने-दिल चाक कर, हुई हथेली लाल.
कुचल चले अरमान पग, हुआ आलता काल..
*
रूप-रंग, मति-वाक् में, निपुणा राय प्रवीण.
अविरल रस सलिला 'सलिल', कीर्ति न किंचित क्षीण,,
*
रूपमती का रूप-मति, मणि-कांचन संयोग.
भूप दास बनते विहँस, योगी बिसरे योग..
*
रूप अकेला भोग बन, कर विलास हो लाज.
तेज महालय ताज हो, जब संग हो मुमताज़..
*
मीरा सी दीवानगी, जब बनती श्रृंगार.
रूप पूज्य होता तभी, नत हों जग-सरकार..
*
रूप शौर्य का साथ पा, बनता है श्रद्धेय.
करे नमन झुक दृष्टि हर, ज्ञेय बने अज्ञेय..
*
ममता के संग रूप का, जब होता संयोग.
नटवर खेलें गोद में, सहा न जाए वियोग..
*
होता रूप अरूप जब, आत्म बने विश्वात्म.
शब्दाक्षर कर वन्दना, देख सकें परमात्म..
******************

मुक्तक: भारत संजीव 'सलिल'

मुक्तक:
भारत
संजीव 'सलिल'
*
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा.
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा..
हम-आप मेहनती हों, हम एक-नेक हों तो-
भारत नहीं पिटा है, भारत नहीं पिटेगा..
*
तम हरकर प्रकाश पा-देने में जो रत है.
दंडित उद्दंदों को कर, सज्जन हित नत है..
सत-शिव-सुंदर, सत-चित-आनंद जीवन दर्शन-
जिसका है वह देश जगत-प्यारा भारत है..
*
भारत को भाता है जीवन सीधा-सच्चा.
नहीं सुहाता देना या लेना नित गच्चा..
धीर वीर गंभीर रहा नेतृत्व हमारा-
'सलिल' नासमझ समझ रहा है हमको कच्चा..
*