मुक्तिका:
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तुम कैसे जादू कर देती हो
भवन-मकां में आ, घर देती हो
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रिश्तों के वीराने मरुथल को
मंदिर होने का वर देती हो
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चीख-पुकार-शोर से आहत मन
मरहम, संतूरी सुर देती हो
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खुद भूखी रह, अपनी भी रोटी
मेरी थाली में धर देती हो
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जब खंडित होते देखा विश्वास
नव आशा निशि-वासर देती हो
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नहीं जानतीं गीत, ग़ज़ल, नवगीत
किन्तु भाव को आखर देती हो
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'सलिल'-साधना सफल तुम्हीं से है
पत्थर पल को निर्झर देती हो
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