दोहा लें दिल में बसा
दोहा मित्रो,
जिन्होंने दोहा लेखन का प्रयास किया है, उन सबका अभिनंदन। उन्हें समर्पित है एक दोहा-
हारिये न हिम्मत... लिखते और भेजते रहें दोहे। हम सब कुछ कालजयी दोहाकारों के लोकप्रिय-चर्चित दोहों का रसास्वादन कर धन्य हों।
दोहा है इतिहास:
दसवीं सदी में पवन कवि ने हरिवंश पुराण में 'कउवों के अंत में 'दत्ता' नामक जिस छंद का प्रयोग किया है वह दोहा ही है।
११वीं सदी में कवि देवसेन गण ने 'सुलोचना चरित' की १८ वी संधि (अध्याय) में कडवकों के आरम्भ में 'दोहय' छंद का प्रयोग किया है। यह भी दोहा ही है.
मुनि रामसिंह कृत 'पाहुड दोहा' संभवतः पहला दोहा संग्रह है। एक दोहा देखें-
कहे सोरठा दुःख कथा:
सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) का कालजयी आख्यान पूरी मार्मिकता के साथ गाकर दोहा लोक मानस में अमर हो गया। कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी।। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया। मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किए पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारण वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के किनारे सती हो गयी। अनेक लोक गायक विगत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठों (दोहा का जुड़वाँ छंद) में गाते आ रहे हैं-
दोहा की दुनिया से जुड़ने के लिए उत्सुक रचनाकारों को दोहा की विकास यात्रा की झलक दिखने का उद्देश्य यह है कि वे इस सच को जान और मान लें कि हर काल की अपनी भाषा होती है। जिस तरह उक्त दोहों की भाषा समझना हमारे लिए त्कात्हीं है वैसे ही नमन कवियों की भाषा में आज दोहा रचें तो नयी पीढ़ी के लिए ग्राह्य करना कठिन होगा। अतः, आज के दोहाकार को आज की भाषा और शब्द उपयोग में लाना चाहिए। अब निम्न दोहों को पढ़कर आनंद लें-
मैं दोहा हूँ आप सब हैं मेरा परिवार.
कुण्डलिनी दोही सखी, 'सलिल' सोरठा यार.
कुण्डलिनी दोही सखी, 'सलिल' सोरठा यार.
जिन्होंने दोहा लेखन का प्रयास किया है, उन सबका अभिनंदन। उन्हें समर्पित है एक दोहा-
करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान.
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पड़त निसान.
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पड़त निसान.
हारिये न हिम्मत... लिखते और भेजते रहें दोहे। हम सब कुछ कालजयी दोहाकारों के लोकप्रिय-चर्चित दोहों का रसास्वादन कर धन्य हों।
दोहा है इतिहास:
दसवीं सदी में पवन कवि ने हरिवंश पुराण में 'कउवों के अंत में 'दत्ता' नामक जिस छंद का प्रयोग किया है वह दोहा ही है।
जइण रमिय बहुतेण सहु, परिसेसिय बहुगब्बु.
अजकल सिहु णवि जिमिविहितु, जब्बणु रूठ वि सब्बु.
अजकल सिहु णवि जिमिविहितु, जब्बणु रूठ वि सब्बु.
११वीं सदी में कवि देवसेन गण ने 'सुलोचना चरित' की १८ वी संधि (अध्याय) में कडवकों के आरम्भ में 'दोहय' छंद का प्रयोग किया है। यह भी दोहा ही है.
कोइण कासु विसूहई, करइण केवि हरेइ.
अप्पारोण बिढ़न्तु बद, सयलु वि जीहू लहेइ
अप्पारोण बिढ़न्तु बद, सयलु वि जीहू लहेइ
मुनि रामसिंह कृत 'पाहुड दोहा' संभवतः पहला दोहा संग्रह है। एक दोहा देखें-
वृत्थ अहुष्ठः देवली, बाल हणा ही पवेसु.
सन्तु निरंजणु ताहि वस्इ, निम्मलु होइ गवेसु
सन्तु निरंजणु ताहि वस्इ, निम्मलु होइ गवेसु
कहे सोरठा दुःख कथा:
सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) का कालजयी आख्यान पूरी मार्मिकता के साथ गाकर दोहा लोक मानस में अमर हो गया। कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी।। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया। मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किए पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारण वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के किनारे सती हो गयी। अनेक लोक गायक विगत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठों (दोहा का जुड़वाँ छंद) में गाते आ रहे हैं-
वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.
सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या.
सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या.
दोहा की दुनिया से जुड़ने के लिए उत्सुक रचनाकारों को दोहा की विकास यात्रा की झलक दिखने का उद्देश्य यह है कि वे इस सच को जान और मान लें कि हर काल की अपनी भाषा होती है। जिस तरह उक्त दोहों की भाषा समझना हमारे लिए त्कात्हीं है वैसे ही नमन कवियों की भाषा में आज दोहा रचें तो नयी पीढ़ी के लिए ग्राह्य करना कठिन होगा। अतः, आज के दोहाकार को आज की भाषा और शब्द उपयोग में लाना चाहिए। अब निम्न दोहों को पढ़कर आनंद लें-
कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.
पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.
असन-बसन सुत नारि सुख, पापिह के घर होय.
संत समागम राम धन, तुलसी दुर्लभ होय.
बांह छुड़ाकर जात हो, निबल जान के मोहि.
हिरदै से जब जाइगो, मर्द बदौंगो तोहि. - सूरदास
पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार.
सब सिंगार रतनावली, इक पियु बिन निस्सार.
अब रहीम मुस्किल पडी, गाढे दोऊ काम.
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम.
पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.
असन-बसन सुत नारि सुख, पापिह के घर होय.
संत समागम राम धन, तुलसी दुर्लभ होय.
बांह छुड़ाकर जात हो, निबल जान के मोहि.
हिरदै से जब जाइगो, मर्द बदौंगो तोहि. - सूरदास
पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार.
सब सिंगार रतनावली, इक पियु बिन निस्सार.
अब रहीम मुस्किल पडी, गाढे दोऊ काम.
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम.
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दोहा लें दिल में बसा, लें दोहे को जान.
दोहा जिसको सिद्ध हो, वह होता रस-खान.
दोहा जिसको सिद्ध हो, वह होता रस-खान.
दोहा लेखन में द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु अक्षरों के रूपाकार और मात्रा गणना के लिए निम्न पर ध्यान दें-
अ. सभी दीर्घ स्वर: जैसे- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
आ. दीर्घ स्वरों की ध्वनि (मात्रा) से संयुक्त सभी व्यंजन। यथा: का, की, कू, के, कै, को, कौ आदि।
इ. बिन्दीयुक्त (अनुस्वार सूचक) स्वर। उदाहरण: अंत में अं, चिंता में चिं, कुंठा में कुं, हंस में हं, गंगा में गं,
खंजर में खं, घंटा में घं, चन्दन में चं, छंद में छं, जिंदा में जिं, झुंड में झुं आदि।
ई. विसर्गयुक्त ऐसे वर्ण जिनमें हलंत ध्वनित होता है। जैसे: अतः में तः, प्रायः में यः, दु:ख में दु: आदि।
उ. ऐसा हृस्व वर्ण जिसके बाद के संयुक्त अक्षर का स्वराघात होता हो। यथा: भक्त में भ, मित्र में मि, पुष्ट में पु, सृष्टि में सृ, विद्या में वि, सख्य में स, विज्ञ में वि, विघ्न में वि, मुच्य में मु, त्रिज्या में त्रि, पथ्य में प, पद्म में प, गर्रा में र।
उक्त शब्दों में लिखते समय पहला अक्षर लघु है किन्तु बोलते समय पहले अक्षर के साथ उसके बाद का आधा अक्षर जोड़कर एक साथ बोला जाता है तथा संयुक्त अक्षर के उच्चारण में एक एकल अक्षर के उच्चारण में लगे समय से अधिक लगता है। इस कारण पहला अक्षर लघु होते हुए भी बाद के आधे अक्षर को जोड़कर २ मात्राएँ गिनी जाती हैं।
ऊ. शब्द के अंत में हलंत हो तो उससे पूर्व का लघु अक्षर दीर्घ मानकर २ मात्राएँ गिनी जाती हैं। उदाहरण: स्वागतम् में त, राजन् में ज. सरित में रि, भगवन् में न्, धनुष में नु आदि.
ए. दो ऐसे निकटवर्ती लघु वर्ण जिनका स्वतंत्र उच्चारण अनिवार्य न हो और बाद के अकारांत लघु वर्ण का उच्चारण हलंत वर्ण के रूप में हो सकता हो तो दोनों वर्ण मिलाकर संयुक्त माने जा सकते हैं। जैसे: चमन् में मन्, दिल् , हम् दम् आदि में हलंतयुक्त अक्षर अपने पहले के अक्षर के साथ मिलाकर बोला जाता है. इसलिए दोनों को मिलाकर गुरु वर्ण हो जाता है।
मात्रा गणना हिन्दी ही नहीं उर्दू में भी जरूरी है। गजल में प्रयुक्त होनेवाली 'बहरों' ( छंदों) के मूल अवयव 'रुक्नों" (लयखंडों) का निर्मिति भी मात्राओं के आधार पर ही है। उर्दू छंद शास्त्र में भी अक्षरों के दो भेद 'मुतहर्रिक' (लघु) तथा 'साकिन' (हलंत) मान्य हैं। उर्दू में रुक्न का गठन अक्षर गणना के आधार पर होता है जबकि हिंदी में छंद का आधार उच्चारण समय पर आधारित मात्रा गणना है। वस्तुतः हिन्दी और उर्दू दोनों का उद्गम संस्कृत है, जिससे दोनों ने ध्वनि उच्चारण की नींव पर छंद शास्त्र गढ़ने की विरासत पाई और उसे दो भिन्न तरीकों से विकसित किया।
मात्रा गणना को सही न जाननेवाला न तो दोहा या गीत सही लिख सकेगा न ही गजल। आजकल लिखी जानेवाली अधिकाँश पद्य रचनायें निरस्त किये जाने योग्य हैं, चूंकि उनके रचनाकार परिश्रम करने से बचकर 'भाव' की दुहाई देते हुए 'शिल्प' की अवहेलना करते हैं। ऐसे रचनाकार एक-दूसरे की पीठ थपथपाकर स्वयं भले ही संतुष्ट हो लें किन्तु उनकी रचनायें स्तरीय साहित्य में कहीं स्थान नहीं बना सकेंगी। साहित्य आलोचना के नियम और सिद्धांत दूध का दूध और पानी का पानी करने नहीं चूकते। हिंदी रचनाकार उर्दू के मात्रा गणना नियम जाने और माने बिना गजल लिखकर तथा उर्दू शायर हिन्दी मात्रा गणना जाने बिना दोहे लिखकर दोषपूर्ण रचनाओं का ढेर लगा रहे हैं जो अंततः जानकारों और पाठकों / श्रोताओं द्वारा खारिज किया जा रहा है। अतः 'दोहा गाथा..' के पाठकों से अनुरोध है कि उच्चारण तथा मात्रा संबन्धी जानकारी को हृदयंगम कर लें ताकि वे जो भी लिखें वह समादृत हो।
गंभीर चर्चा को यहीं विराम देते हुए दोहा का एक और सच्चा किस्सा सुनाएँ..
अमीर खुसरो का नाम तो आप सबने सुना ही है। वे
हिन्दी और उर्दू दोनों के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार हैं। वे अपने समय की मांग के अनुरूप
संस्कृतनिष्ठ भाषा तथा अरबी-फारसी मिश्रित जुबान के साथ-साथ आम लोगों की
बोलचाल की बोली 'हिन्दवी' में भी लिखते थे बावजूद इसके कि वे दोनों भाषाओं,
आध्यात्म तथा प्रशासन में निष्णात थे।
जनाब खुसरो एक दिन घूमने निकले। चलते-चलते दूर निकल गए, जोरों की प्यास लगी। अब क्या करें? आस-पास देखा तो एक गाँव दिखा। सोचा, चलकर किसी से पानी मांगकर प्यास बुझायें। गाँव के बाहर एक कुँए पर औरतों को पानी भरते देखकर खुसरो साहब ने उनसे पानी पिलाने की दरखास्त की। खुसरो चकराये कि सुनने के बाद भी उनमें से किसी ने तवज्जो नहीं दी। शायद पहचान नहीं सकीं।
दोबारा पानी माँगा तो उनमें से एक ने कहा कि पानी
एक शर्त पर पिलायेंगी कि खुसरो उन्हें उनके मन मुताबिक कविता सुनाएँ। खुसरो
समझ गए कि जिन्हें वे भोली-भली देहातिनें समझ रहे थे वे ज़हीन-समझदार हैं
और उन्हें पहचान चुकने पर भी उनकी झुंझलाहट का आनंद लेते हुए अपनी मनोकामना पूरी करना चाहती हैं। कोई और रास्ता
भी न था, प्यास बढ़ती जा रही थी। खुसरो ने उनकी शर्त मानते हुए विषय पूछा
तो बिना देर किये चारों ने एक-एक विषय दे दिया और सोचा कि आज किस्मत खुल
गयी। महाकवि खुसरो के दर्शन तो हुए ही चार-चार कवितायें सुनाने का मौका भी
मिल गया।
विषय सुनकर खुसरो एक पल झुंझलाये... कैसे बेढब विषय हैं? इन पर
क्या कविता करें?, न करें तो अपनी अक्षमता दर्शायें... ऊपर से प्यास... इन औरतों से हार मानना भी गवारा न था...
राज हठ और बाल हठ के समान त्रिया हठ के भी किस्से तो खूब सुने थे पर आज
उन्हें एक-दो नहीं चार-चार महिलाओं के त्रिया हठ का सामना करना था। खुसरो
ने विषयों पर गौर किया...खीर...चरखा...कुत्ता...और ढोल... चार कवितायें तो
सुना दें पर प्यास के मरे जान निकली जा रही थी।
इन विषयों पर ऐसी स्थति में आपको कविता करनी हो तो क्या करेंगे? चकरा रहे हैं न? ऐसे मौकों पर अच्छे-अच्छों की अक्ल काम नहीं करती पर खुसरो भी एक ही थे, अपनी मिसाल आप। उन्होंने शरण ली दोहे की और छोटे छंद दोहा ने उनकी नैया पार लगायी। खुसरो ने एक ही दोहे में चारों विषयों को समेटते हुए ताजा-ठंडा पानी पिया और चैन की सांस ली। खुसरो का वह दोहा है-
खीर पकाई जतन से, चरखा दिया जलाय।
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय।।
ला, पानी पिला...
दोहे के साथ 'ला, पानी पिला' कहकर खुसरो ने पानी माँगा था किन्तु कालांतर में इस तरह कुछ शब्द जोड़कर दुमछल्ले दोहे खूब कहे-सुने-सराहे गये। उनकी शेष चर्चा यशास्थान होगी।
अंत में एक काम आपके लिए- अपनी पसंद का एक दोहा लिख भेजिए, दोहाकार का नाम और आपको क्यों पसंद है?,
जरूर बतायें।
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10 टिप्पणियां:
Indira Pratap via yahoogroups.com
संजीव भाई
ज़रा दम तो लेने दीजिए ,बुढ़ापा है , एक साथ इतना पचा पाना ज़रा मुश्किल है फिर भी जो जानकारी आपने दी है वह अमूल्य है | उसके लिए साधुवाद ,जितना परिश्रम आप कर रहे हैं उस रफ़्तार में हम पिछड़ते जा रहे हैं | यहाँ मैं केवल अपनी ही बात कर रही हूँ |
आपको एक दोहा लिख रही हूँ किसका है यह तो मुझे याद नहीं पर बचपन में माँ से सूना था,कहती थीं आँखों के बारे में इससे बढ़िया दोहा उन्होंने नहीं पढ़ा|उसे ही उद्धृत कर रही हूँ, लेखक शायद आप ही बता पाएँगे | दोहा इस प्रकार है
अमिय,हलाहल, रस-भरे, श्वेत, श्याम,रतनार
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, ज्यों चितवत इक बार
अमिय की ख़ासियत जीवन प्रदान करना (जियत), हलाहल पान मृत्यु(मरत) के द्योतक के रूप में और रस भरे आँखों के शर्मीली रूप के लिए प्रवृत्त होना और वह भी सही पुनरावृत्ति के रूप में सौन्दर्य की सृष्टि करता है और अंत में नहले पर दहला प्रियतम यदि ऐसी आँखों को एक बार देख भर ले | दिद्दा
deepti gupta via yahoogroups.com
कबीर निराकार ब्रह्म को मानते थे और सृष्टि में चारों ओर उस परमशक्ति के दर्शन करते थे! उन्होंने'राम'शब्द का खूब प्रयोग किया है लेकिन उनका राम तुलसी के साकार /सगुण राम के ठीक विपरीत निराकार/निर्गुण है!(घट घट में है राम)
सृष्टि के कण-कण में अलौकिक शक्ति के दर्शन करते हुए कबीर कहते है-
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल,
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल!!
हमें कबीर का यह दोहा बहुत पसंद है क्योंकि इसमें'सत्य' का उद्घाटन किया गया है! अनेक ज्ञानी जन इस निराकार शक्ति का विरोध करते हैं !पर यह'आस्था'का मुद्दा(issue) है!
इसी तरह साकार ईश्वर के लिए कहा गया है- मानो तो देवता, न मानो तो पत्थर..! समूचे विश्व में एक से एक भव्य मंदिर मनुष्य की आस्था का ही प्रतीक है और परिणाम हैं! उन मंदिरों को तोडना, उन्हें नगण्य समझना, या उनका उपहास करना 'मानने वालों' की आस्था पे चोट करना है! विशालकाय, सुन्दर शिल्प कला के अद्भुत नमूने अनेक मंदिर मात्र पत्थर का ढांचा नहीं है, बल्कि उनमें सैकडो लोगो की आस्था और विश्वास स्पंदित है जिसे खंडित कर पाना कठिन ही नहीं- बल्कि नामुमकिन है! इसलिए सबको अपनी-अपनी आस्था के साथ जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिए!'आस्था' के विषय बहस के मुद्दे नहीं बनने चाहिए! कबीर के अनुसार इस तरह की 'तू तू..... मैं, मैं ' में समय नहीं गंवाना चाहिए बल्कि अपने अंदर छुपे उस 'परम शक्ति' के अंश को खोजना और पहचानना चाहिए! पता नही कब आप 'व्यक्ति' से 'शक्ति' बन जाए और संसार में रहते हुए भी इसके माया-मोह से मुक्त हुए अलौकिक आनंद की अवस्था में पहुँच जाएं!
सादर,
दीप्ति
deepti gupta via yahoogroups.com
दिद्दा , यह बिहारी का प्रसिद्द दोहा है ! उसमें थोड़ा सा संशोधन करना चाहती हूँ अगर आप इस नाचीज़ को इज़ाज़त दें तो !
अमिय, हलाहल, मद भरे, श्वेत-श्याम, रतनार|
जियत-मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार||
अर्थ तो आपने लिख ही दिया है! फिर भी गुरु रामस्वरूप आर्य जी को याद करते हुए-
नायिका के सुन्दर नेत्रों का गुणगान करते हुए बिहारी ने उसकी आँखों के श्वेत भाग को अमिय अर्थात अमृत के समान जिला देनेवाला, श्याम भाग अर्थात पुतली को हलाहल यानी विष के समान प्राणघातक और नेत्रों की रतनारी/ गुलाबी छवि को मद यानी मादकता / नशा करा देनेवाला वर्णित किया है!
आगे वे कहते हैं कि नायिका अपने ऐसे-एक साथ -अमृत, विष और मद से भरे नयनों से जिस किसी को (जेहि) भी एक बार देख लेती है, जिस किसी पर भी नज़र डाल देती है (चितवत), वह एक साथ जीता है, मर-मर जाता है और नशे में लड़खडाता सा झुक-झुक पडता है!
दिद्दा, आपने कवि की कल्पना की उड़ान व अद्भुत रचना-कौशल से युक्त इस सुन्दर दोहे को उद्धृत करके बीता समय याद करा दिया! शुक्रिया, धन्यवाद और आभार.....!
सस्नेह, दीप्ति
Mahipal Tomar via yahoogroups.com
रस-खान ' सलिल' जी , खुसरो-प्रसंग प्यारा और वाक्-चातुर्य ( व्युत्पन्न मति ) का रोचक उदाहरण भी ।
मेरी पसंद के ढेर दोहों में से दो दोहे -
१ - " कामिहि नारि पियारि जिमि ,लोभिहि प्रिय जिमि दाम ,
तिमि रघुनाथ निरंतर , प्रिय लागहु मोहि राम " -तुलसी ,;सरल सी प्रभु वंदना ।
२ -" गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है ,गढ़ी गढ़ी काढहिं खोट ,
आंतर हाथ सहारि दे ,बाहरि बाहे चोट " - कबीर ,; जिसका मैंने पूरी शिद्दत से अपने profession में पालन किया । रेखांकित को कृपया लघु में पढ़ें , टंकण में मुझसे लघु बना नहीं
आदरणीय
कुछ शब्द अक्षर रूप न पर ऐसा शब्द टंकित करें जिसमें उस अक्षर-रूप का प्रयोग हो फिर शेष अक्षर डिलीट कर दें। टंकित करने पर' ढ़ी ' मिलता है। यदि बढ़िया टंकित करें फिर या और ब को डिलीट करदें तो 'ढ़ि' मिला जाता इस्सके पहले 'ग' लगा दें तो 'गढ़ि' बन जाएगा।
shar_j_
आदरणीय आचार्य जी,
बहुत धन्यवाद, अब लगता है जल्दी ही समय हाथ लगे और पूरा पूरा कई बार पढूँ आपके लेख. ये दोहा मेरा पसंदीदा दोहा है :
कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.
पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.
दुमछल्ले दोहे की कहानी सुनकर मज़ा आया, होली के विषय से जुड़े कई इस तरह के दोहे सुने हैं .
सादर शार्दुला
आचार्य जी से कुछ प्रश्न ;
1. दोहे की प्रथम पंक्ति में कितनी मात्राएँ और दूसरी पंक्ति में कितनी मात्राएँ होनी चाहिएँ ?
2. क का को की कौ कं -- इनकी मात्राओं में गिनती कैसे करेंगे ?
सादर,
कुसुम वीर
कुसुम जी
कृपया, पूर्व कड़ियों को पढ़ें। आपके द्वारा अब तक पूछे गए सभी प्रश्नों के उत्तर उनमें हैं।
1. दोहे की प्रथम पंक्ति में कितनी मात्राएँ और दूसरी पंक्ति में कितनी मात्राएँ होनी चाहिएँ ?
दोहा : २ पंक्ति, ४ चरण।
प्रथम पंक्ति : विषम (१ ला) चरण १३ मात्रा , सम (२ रा) चरण ११ मात्रा
द्वितीय पंक्ति : विषम (१ ला) चरण १३ मात्रा , सम (२ रा) चरण ११ मात्रा
2. क का को की कौ कं -- इनकी मात्राओं में गिनती कैसे करेंगे ?
अ, इ, उ, ऋ लघु, छोटी या हृस्व मात्रा, भार १.
क, कि, कु में १ - १ मात्रा
का, की, कू, के, कै, कं, क: में २ - २ मात्रा
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
ksantosh_45@yahoo.co.in via yahoogroups.com
आ० सालिल जी
शब्द नहीं सराहना के लिए।
उत्कृष्ट दोहे हैं, बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
रसलीन का है यह दोहा असत्य न बताएं किसी को
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