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बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

मुक्तिका: वेद की ऋचाएँ. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
वेद की ऋचाएँ.
संजीव 'सलिल'
*
बोल हैं कि वेद की ऋचाएँ.
सारिकाएँ विहँस गुनगुनाएँ..

शुक पंडित श्लोक पढ़ रहे हैं.
मन्त्र कहें मधुर दस दिशाएँ..

बौरा ने बौरा कर देखा-
गौरा से न्यून अप्सराएँ..

महुआ कर रहा द्वार-स्वागत.
किंशुक मिल वेदिका जलाएँ..

कर तल ने करतल हँस थामा
सिहर उठीं देह, मन, शिराएँ..

सप्त वचन लेन-देन पावन.
पग फेरे सप्त मिल लगाएँ.

ध्रुव तारा देख पाँच नयना
मधुर मिलन गीत गुनगुनाएँ.

*****

4 टिप्‍पणियां:

- amitasharma2000@yahoo.com ने कहा…

- amitasharma2000@yahoo.com

की बौरा ने बौरा कर देखा-
गौरा से न्यून अप्सराएँ..

बहुत खूब कहा

अमिता

Shriprakash Shukla ने कहा…

Shriprakash Shukla yahoogroups.com

ekavita


आदरणीय आचार्य जी,

अति उत्तम । वाक्यांश पूर्ति की सफल, प्रभावशाली एवं मनोहारी रचना पढ़कर अत्यंत आनंद की अनुभूति हुयी | बधाई स्वीकार करें ।

सादर

श्रीप्रकाश शुक्ल

achal verma ekavita ने कहा…

achal verma

आ. आचार्य जी,
इसे तो साहित्य के इतिहास में
रखने लायक बना दिया आपने । बहुत सुन्दर बन पडा है।

अचल

sanjiv verma 'salil' ने कहा…

अचल जी, श्री प्रकाश जी, अमिता जी

आपकी गुणग्राहकता को नमन