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काल चक्र नित घूमता, - कहता कर ले कर्म.
मत रहना निष्कर्म तू- - ना करना दुष्कर्म.....
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स्वेद गंग में नहाकर, होती देह पवित्र.
श्रम से ही आकार ले, मन में चित्रित चित्र..
पंचतत्व मिलकर गढ़ें, माटी से संसार.
ढाई आखर जी सके, कर माटी से प्यार..
माटी की अवमानना, - सचमुच बड़ा अधर्म.
काल चक्र नित घूमता, - कहता कर ले कर्म......
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जैसा जिसका कर्म हो, वैसा उसका 'वर्ण'.
'जात' असलियत आत्म की, हो मत जान विवर्ण..
बन कुम्हार निज सृजन पर, तब तक करना चोट.
जब तक निकल न जाए रे, सारी त्रुटियाँ-खोट..
खुद को जग-हित बदलना, - मनुज धर्म का मर्म.
काल चक्र नित घूमता, - कहता कर ले कर्म......
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माटी में ही खिल सके, सारे जीवन-फूल.
माटी में मिल भी गए, कूल-किनारे भूल..
ज्यों का त्यों रख कर्म का, कुम्भ न देना फोड़.
कुम्भज की शुचि विरासत, 'सलिल' न देना छोड़..
कड़ा न कंकर सदृश हो, - बन मिट्टी सा नर्म.
काल चक्र नित घूमता, - कहता कर ले कर्म......
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नीवों के पाषाण का, माटी देती साथ.
धूल फेंकती शिखर पर, लख गर्वोन्नत माथ..
कर-कोशिश की उँगलियाँ, गढ़तीं नव आकार.
नयन रखें एकाग्र मन, बिसर व्यर्थ तकरार.. - धूप-छाँव sसम smसमझना,
- है जीवन का मर्म.
काल चक्र नित घूमता, - कहता कर ले कर्म......
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salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
7 टिप्पणियां:
आदरणीय आचार्यजी,
आपके दोहों की प्रस्तुति में दूसरा दोहा -
स्वेद गंग में नहाकर, होती देह पवित्र.
श्रम से ही आकार ले, मन में चित्रित चित्र..
इस दोहे के प्रथम विषम का अंत हाकर (२११) से हो रहा है. यह भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर रहा है. यह दोहा के २३ प्रकारों में से कौन सा प्रकार है.
नियमानुसार - १३ मात्राओं के विषम चरण का अंत सगण (११२) , रगण (२१२)और नगण (१११) से ही हो सकता है. जबकि आपके प्रस्तुत दोहे में प्रथम विषम चरण का अंत भगण (२११) से हो रहा है.
कृपया प्रकाश डालें आदरणीय.
सादर
Er. Ganesh Jee "Bagi"
सभी दोहे बढ़िया लगे आदरणीय आचार्य जी । बहुत बहुत बधाई ।
सौरभ भईया जहाँ अटके ,वहां मैं भी भ्रमित हूँ, कृपया जिज्ञासा शांत करें ।
- mcdewedy@gmail.com
सलिल जी सुन्दर नीति के दोहे है. बहुत बधाई .
महेश चन्द्र द्विवेदी
Dr.M.C. Gupta द्वारा yahoogroups.com
वाह--
कड़ा न कंकर सदृश हो,
बन मिट्टी सा नर्म.
काल चक्र नित घूमता,
कहता कर ले कर्म......
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नीवों के पाषाण का, माटी देती साथ.
धूल फेंकती शिखर पर, लख गर्वोन्नत माथ..
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एक मतला-मकता-द्वय पेश है--
सूई पल-पल चलती जाए
धार समय की बहती जाए
नाम ख़लिश ले ले तू हरि का
सारी उम्र गुज़रती जाए.
--ख़लिश
बहुत खूब . धन्यवाद.
achal verma
Worth preserving . Thanks.
Achal
आपकी गुणग्राहकता को नमन.
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