धरोहर:
बाल कविता:
अक्कड़ मक्कड़ 
 भवानीप्रसाद मिश्र
 
 भवानीप्रसाद मिश्र
 *
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
 दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
 हाट से लौटे, ठाठ से लौटे,
 एक साथ एक बाट से लौटे.
 
 बात-बात में बात ठन गयी,
 बांह उठीं और मूछें तन गयीं.
 इसने उसकी गर्दन भींची,
 उसने इसकी दाढी खींची.
 
 अब वह जीता, अब यह जीता;
 दोनों का बढ चला फ़जीता;
 लोग तमाशाई जो ठहरे 
 सबके खिले हुए थे चेहरे !
 
 मगर एक कोई था फक्कड़,
 मन का राजा कर्रा - कक्कड़;
 बढा भीड़ को चीर-चार कर
 बोला ‘ठहरो’ गला फाड़ कर.
 
 अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
 दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
 गर्जन गूंजी, रुकना पड़ा,
 सही बात पर झुकना पड़ा !
 
 उसने कहा सधी वाणी में,
 डूबो चुल्लू भर पानी में;
 ताकत लड़ने में मत खोओ
 चलो भाई चारे को बोओ!
 
 खाली सब मैदान पड़ा है,
 आफ़त का शैतान खड़ा है,
 ताकत ऐसे ही मत खोओ,
 चलो भाई चारे को बोओ.
 
 सुनी मूर्खों ने जब यह वाणी
 दोनों जैसे पानी-पानी
 लड़ना छोड़ा अलग हट गए
 लोग शर्म से गले छट गए
 
 सबकों नाहक लड़ना अखरा
 ताकत भूल गई तब नखरा
 गले मिले तब अक्कड़-बक्कड़
 खत्म हो गया तब धूल में धक्कड़
 
 अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़
 दोनों मूरख, दोनों अक्खड़
 
 
 *
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
हाट से लौटे, ठाठ से लौटे,
एक साथ एक बाट से लौटे.
बात-बात में बात ठन गयी,
बांह उठीं और मूछें तन गयीं.
इसने उसकी गर्दन भींची,
उसने इसकी दाढी खींची.
अब वह जीता, अब यह जीता;
दोनों का बढ चला फ़जीता;
लोग तमाशाई जो ठहरे
सबके खिले हुए थे चेहरे !
मगर एक कोई था फक्कड़,
मन का राजा कर्रा - कक्कड़;
बढा भीड़ को चीर-चार कर
बोला ‘ठहरो’ गला फाड़ कर.
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
गर्जन गूंजी, रुकना पड़ा,
सही बात पर झुकना पड़ा !
उसने कहा सधी वाणी में,
डूबो चुल्लू भर पानी में;
ताकत लड़ने में मत खोओ
चलो भाई चारे को बोओ!
खाली सब मैदान पड़ा है,
आफ़त का शैतान खड़ा है,
ताकत ऐसे ही मत खोओ,
चलो भाई चारे को बोओ.
सुनी मूर्खों ने जब यह वाणी
दोनों जैसे पानी-पानी
लड़ना छोड़ा अलग हट गए
लोग शर्म से गले छट गए
सबकों नाहक लड़ना अखरा
ताकत भूल गई तब नखरा
गले मिले तब अक्कड़-बक्कड़
खत्म हो गया तब धूल में धक्कड़
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़
 
 
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें