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रविवार, 17 अक्टूबर 2021

लघुकथा

लघुकथा:
बाल चन्द्रमा
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते? त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।

'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।

'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।

ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊं?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपडी, कपडे और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।

'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे द्वारा फेंगा गया कचरा बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।

'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस। ' कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था बाल चन्द्रमा।
१७-१०-२०१७ 
**********

शनिवार, 16 अक्टूबर 2021

सरस्वती वंदना, वीना श्रीवास्तव

सरस्वती माता - सकल विद्या दाता
दक्षिण भारत में खास करके तमिलनाडु में सरस्वती माता को विद्या का मूल और सब प्रकार के कला का कारण मानते हैं। विद्यारंभ के पहले "सरस्वती नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणी  विद्यारंभम करिश्यामी सिद्धिर भवतु मे सदा" मंत्र जपते हैं। रोज सुबह शाम जब घर पर दिया जलाया जाता है तब सरस्वती की वंदना की जाती है।
वीना श्रीवास्तव
जन्म - १४ सितंबर १९६६, हाथरस।
आत्मजा - स्व. रमा श्रीवास्तव - स्व. महेश चन्द्र श्रीवास्तव।
जीवन साथी श्री राजेंद्र तिवारी।
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिंदी, अंग्रेजी)।
संप्रति - पत्रकारिता, स्वतंत्र लेखन। अध्यक्ष- शब्दकार, सचिव- (साहित्य ) हेरिटेज झारखंड, कार्यकारी अध्यक्ष – ग्रीन लाइफ।
प्रकाशन - काव्य संग्रह - तुम और मैं, मचलते ख्वाब, लड़कियाँ (३ पुरस्कार), शब्द संवाद (संकलन व संपादन), खिलखिलाता बचपन (स्तंभ)
परवरिश करें तो ऐसे करें (स्तंभ)। संपादन ‘भोर धरोहर अपनी’ त्रैमासिकी।
उपलब्धि - नाटक “बेटी”, "हिम्मत" आकाशवाणी राँची से प्रसारित-पुरस्कृत, प्रभात खबर में स्तंभ लेखन, अंतरराष्ट्रीय सम्मान - मास्को, बुडापेस्ट, इजिप्ट (मिस्त्र), इंडोनेशिया- (बाली), जर्मनी (बुडापेस्ट) में, देश में अनेक सम्मान।
संपर्क - सी- २०१श्री राम गार्डन, कांके रोड, रिलायंस मार्ट के सामने, रांची ८३४००८ झारखंड।
चलभाष - ९७७१४३१९००। ईमेल - veena.rajshiv@gmail.com ।
ब्लॉग लिंक- http://veenakesur.blogspot.in/
*
शारदे माँ! मैं पुकारूँ
शारदे माँ! मैं पुकारूँ
हर पल तेरी बाट निहारूँ
सुर की नदिया तुम बहा दो
द्वेष की दीवार गिरा दो
मन में प्रेम के पुष्प खिलाके
सुर से सुर को तुम मिला दो
तू जो आए चरण पखारूँ
हर पल तेरी बाट निहारूँ
अंधकार को दूर करो माँ!
ज्ञान का संचार करो माँ!
मन मंदिर में दीप जला दो
नव स्वर से झंकार करो माँ!
तेरे दरस से भाग सँवारूँ
हर पल तेरी बाट निहारूँ
*
अपना पता बता दे या मेरे पास आजा
श्वेतांबरी, त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
एक हंस सुवासन हो सरसिज पे एक चरण हो
शोभित हो कर में वीणा, वीणा की मधुर धुन हो
मैं मंत्रमुग्ध नाचूँ, ऐसा समा बंधा जा
श्वेतांबरी त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
तेरा ज्ञान पुंज दमके वीणा के सुर भी खनके
तेरे पाद पंकजों की रज से धरा ये महके
हम धन्य होएँ माता हमको दरस दिखा जा
श्वेतांबरी त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
जहाँ शांति हर तरफ हो और प्रेम की धनक हो
अपनी ज़बां पे माता तेरे नाम के हरफ़ हों
हम भूल जाएँ सब कुछ ऐसी छवि दिखा जा
श्वेतांबरी त्रिधात्री दृग में मेरे समा जा
*

सरस्वती वंदना, रामदेवलाल 'विभोर'

सरस्वती वंदना 
महान वरदे!, सुजान स्वर दे
रामदेवलाल 'विभोर'
*
महान वरदे!, सुजान स्वर दे, सुनाद नि:सृत विचार हो माँ!
समस्त स्वर ले, समस्त व्यंजन, समस्त आखर निखार हो माँ!
सुशब्द हो माँ!, सूअरथ हो माँ!, सुरम्यता सब प्रकार हो माँ!
सुविज्ञ हो माँ!, सुसिद्ध हो माँ!, अदम्य अनुपम उदार हो माँ!
अमर्त्य हो माँ!, समर्थ हो माँ!, समग्रता का लिलार हो माँ!
सुबुद्धि हो माँ!, प्रबुद्ध हो माँ!, असीम आभा प्रसार हो माँ!
सुताल-लय माँ!, सुगीतमय माँ!, सुरागबोधक धमार हो माँ!
सुज्ञानदात्री, सुतानदात्री, अजस्र पावन मल्हार हो माँ!
अनंत हो, चिर वसंत हो माँ!, सुकीर्तिवर्धक बयार हो माँ!
सुश्रव्य हो माँ!, सुदृश्य हो माँ!, समग्र मानस-उभार हो माँ!
सुकंठ हो माँ!, सुपंथ हो माँ!, 'विभोर' कवि की पुकार हो माँ!
नमो भवानी!, विशुद्ध वाणी, अकूत करती दुलार हो माँ।
***

दोहा, गीत

दोहा
पहले खुद को परख लूँ, तब देखूँ अन्यत्र
अपना खत खोला नहीं, पा औरों का पत्र
१६-१०-२०१९ 
*
गीत 
*
लछमी मैया!
माटी का कछु कर्ज चुकाओ
*
देस बँट रहो,
नेह घट रहो,
लील रई दीपक खों झालर
नेह-गेह तज देह बजारू
भई; कैत है प्रगतिसील हम।
हैप्पी दीवाली
अनहैप्पी बैस्ट विशेज से पिंड छुड़ाओ
*
मूँड़ मुड़ाए
ओले पड़ रए
मूरत लगे अवध में भारी
कहूँ दूर बनवास बिता रई
अबला निबल सिया-सत मारी
हाय! सियासत
अंधभक्त हौ-हौ कर रए रे
तनिक चुपाओ
*
नकली टँसुए
रोज बहाउत
नेता गगनबिहारी बन खें
डूब बाढ़ में जनगण मर रओ
नित बिदेस में घूमें तन खें
दारू बेच;
पिला; मत पीना कैती जो
बो नीति मिटाओ
१६-१०-२०२० 
***

गीत

गीत:
अरे मन !
संजीव 'सलिल'
*
सहज हो ले रे अरे मन !
*
मत विगत को सच समझ रे.
फिर न आगत से उलझ रे.
झूमकर ले आज को जी-
स्वप्न सच करले सुलझ रे.
प्रश्न मत कर, कौन बूझे?
उत्तरों से कौन जूझे?
भुलाकर संदेह, कर-
विश्वास का नित आचमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
उत्तरों का क्या करेगा?
अनुत्तर पथ तू वरेगा?
फूल-फलकर जब झुकेगा-
धरा से मिलने झरेगा.
बने मिटकर, मिटे बनकर.
तने झुककर, झुके तनकर.
तितलियाँ-कलियाँ हँसे,
ऋतुराज का हो आगमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
स्वेद-सीकर से नहा ले.
सरलता सलिला बहा ले.
दिखावे के वसन मैले-
धो-सुखा, फैला-तहा ले.
जो पराया वही अपना.
सच दिखे जो वही सपना.
फेंक नपना जड़ जगत का-
चित करे सत आकलन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
सारिका-शुक श्वास-आसें.
देह पिंजरा घेर-फांसे.
गेह है यह नहीं तेरा-
नेह-नाते मधुर झाँसे.
भग्न मंदिर का पुजारी
आरती-पूजा बिसारी.
भारती के चरण धो कर
निज नियति का आसवन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
कैक्टस सी मान्यताएँ.
शूल कलियों को चुभाएँ.
फूल भरते मौन आहें-
तितलियाँ नाचें-लुभाएँ.
चेतना तेरी न हुलसी.
क्यों न कर ले माल-तुलसी?
व्याल मस्तक पर तिलक है-
काल का है आ-गमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
१६-१०-२०१० 
***

मुक्तक

मुक्तक
संजीव
*
'पुष्पा'या है जीवन पूरा, 'गीता' पढ़कर हर मानव का।
'राम रतन' जड़ गया श्वास में, गहना आस ध्येय हो सबका।।
'छाया' है 'बसंत' की पल-पल, यह 'प्रताप' रेवा मैया का-
'निशि'-वासर 'जिज्ञासु' रहे मन, दर्श करें 'गिरीश' तांडव का।।
*
'आकांक्षा' 'अनुकृति' हो पाएँ, अपने आदर्शों की हम भी।
आँसू पोंछ सकें कोई हम, हों 'एकांश' प्रकृति संग ही।।
बनें सहारा निर्बल का हरि, दीनबंधु बन पाए सत्ता-
लिखें कहानी बार-बार हम, नचिकेता यम की।।
*
'विजय' वर सके 'ममता' नारी, 'श्रद्धा' की सींचें फुलवारी।
भाष 'सुभाष' छू सके दिल को, महका दें भारत की क्यारी।।
जगवाणी हो हिन्दी अपनी, बुद्धि 'विनीता' रहे हमेशा -
कंकर में शंकर देखें हम, आदमियत हो मंज़िल न्यारी।।
***
१६-१०-२०२१

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2021

सरस्वती वंदना प्रभाती छंद पज्झटिका

सरस्वती वंदना
प्रभाती
छंद पज्झटिका, (८+s ४+s), १२१ निषिद्ध  
*
टेरे गौरैया जग जा रे!
मूँद न नैना, जाग शारदा
भुवन भास्कर लेत बलैंया
झट से मोरी कैंया आ रे!
ऊषा गुइयाँ रूठ न जाए
मैना गाकर तोय मनाए
ओढ़ रजैया मत सो जा रे!
टिट-टिट करे गिलहरी प्यारी
धौरी बछिया गैया न्यारी
भूखा चारा तो दे आ रे!
पायल बाजे बेद-रिचा सी
चूड़ी खनके बने छंद भी
मूँ धो सपर भजन तो गा रे!
बिटिया रानी! बन जा अम्मा
उठ गुड़िया का ले ले चुम्मा
रुला न आते लपक उठा रे!
अच्छर गिनती सखा-सहेली
महक मोगरा चहक चमेली
श्यामल काजल नजर उतारे
सुर-सरगम सँग खेल-खेल ले
कठिनाई कह सरल झेल ले
बाल भारती पढ़ बढ़ जा रे!
***

दोहा सलिला

कार्य शाला - छंद दोहा
प्रकार: अर्धसम मात्रिक छंद
विधान २ पद, २ विषम चरण, २ सम चरण, १३-११ पर यति, पदादि में एज शब्द में जगण निषेध, पदांत गुरु-लघु
*
दोहा में 'दो' मूल है, द्विपदी दो पग जान। 
दो-दो हैं सम-विषम पद,  कहता चरण जहान।।
*
गौ भाषा को दोहता, दोहा गहता अर्थ। 
गागर में सागर भरे, दोहाकार समर्थ।।
*  
विषम चरण दो आदि में, पहला-तीजा देख। 
दूजा-चौथा सम चरण, दो इनको अवरेख।।
*
दो अक्षर गुरु-लघु रहें, पंक्ति-अंत उच्चार। 
दो शब्दों में जगन का, है प्रयोग स्वीकार।।
*  
मानव की करतूत लख, भुवन भास्कर लाल। 
पर्यावरण बिगाड़कर, आप बुलाता काल।। 
*
प्रकृति अपर्णा हो रही, ठूँठ रहे कुछ शेष। 
शीघ्र समय वह आ रहा, मानव हो निश्शेष।। 
*
नीर् वायु कर प्रदूषित, मचा रहा नर शोर। 
प्रकृति-पुत्र होकर करे, नाश प्रकृति का घोर।। 
*
हत्या करता वनों की, रौंदे खोद पहाड़। 
क्रुद्ध प्रकृति आकाश भी, विपदा रही दहाड़।। 
*
माटी मिट है कीच अब, बनी न तेरी कब्र। 
चेताता है लाल रवि, सुधर तनिक कर सब्र।। 
***

विमर्श : हिंदी लेखन

विमर्श : हिंदी लेखन
देवनागरी लिपि में लिखने वालों के लिए कुछ उपयोगी बाते...
हिन्दी लिखने वाले अक़्सर 'ई' और 'यी' में, 'ए' और 'ये' में और 'एँ' और 'यें' में जाने-अनजाने गड़बड़ करते हैं...।
कहाँ क्या इस्तेमाल होगा, इसका ठीक-ठीक ज्ञान होना चाहिए...।
जिन शब्दों के अन्त में 'ई' आता है वे संज्ञाएँ होती हैं क्रियाएँ नहीं... जैसे: मिठाई, मलाई, सिंचाई, ढिठाई, बुनाई, सिलाई, कढ़ाई, निराई, गुणाई, लुगाई, लगाई-बुझाई...।
इसलिए 'तुमने मुझे पिक्चर दिखाई' में 'दिखाई' ग़लत है... इसकी जगह 'दिखायी' का प्रयोग किया जाना चाहिए...। इसी तरह कई लोग 'नयी' को 'नई' लिखते हैं...। 'नई' ग़लत है , सही शब्द 'नयी' है... मूल शब्द 'नया' है , उससे 'नयी' बनेगा...।
क्या तुमने क्वेश्चन-पेपर से आंसरशीट मिलायी...?
( 'मिलाई' ग़लत है...।)
आज उसने मेरी मम्मी से मिलने की इच्छा जतायी...।
( 'जताई' ग़लत है...।)
उसने बर्थडे-गिफ़्ट के रूप में नयी साड़ी पायी...। ('पाई' ग़लत है...।)
अब आइए 'ए' और 'ये' के प्रयोग पर...।
बच्चों ने प्रतियोगिता के दौरान सुन्दर चित्र बनाये...। ( 'बनाए' नहीं...। )
लोगों ने नेताओं के सामने अपने-अपने दुखड़े गाये...। ( 'गाए' नहीं...। )
दीवाली के दिन लखनऊ में लोगों ने अपने-अपने घर सजाये...। ( 'सजाए' नहीं...। )
तो फिर प्रश्न उठता है कि 'ए' का प्रयोग कहाँ होगा..? 'ए' वहाँ आएगा जहाँ अनुरोध या रिक्वेस्ट की बात होगी...।
अब आप काम देखिए, मैं चलता हूँ...। ( 'देखिये' नहीं...। )
आप लोग अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी के विषय में सोचिए...। ( 'सोचिये' नहीं...। )
नवेद! ऐसा विचार मन में न लाइए...। ( 'लाइये' ग़लत है...। )
अब आख़िर (अन्त) में 'यें' और 'एँ' की बात... यहाँ भी अनुरोध का नियम ही लागू होगा... रिक्वेस्ट की जाएगी तो 'एँ' लगेगा , 'यें' नहीं...।
आप लोग कृपया यहाँ आएँ...। ( 'आयें' नहीं...। )
जी बताएँ , मैं आपके लिए क्या करूँ ? ( 'बतायें' नहीं...। )
मम्मी , आप डैडी को समझाएँ...। ( 'समझायें' नहीं...। )
अन्त में सही-ग़लत का एक लिटमस टेस्ट... एकदम आसान सा... जहाँ आपने 'एँ' या 'ए' लगाया है , वहाँ 'या' लगाकर देखें...। क्या कोई शब्द बनता है ? यदि नहीं , तो आप ग़लत लिख रहे हैं...।
आजकल लोग 'शुभकामनायें' लिखते हैं... इसे 'शुभकामनाया' कर दीजिए...। 'शुभकामनाया' तो कुछ होता नहीं , इसलिए 'शुभकामनायें' भी नहीं होगा...।
'दुआयें' भी इसलिए ग़लत हैं और 'सदायें' भी... 'देखिये' , 'बोलिये' , 'सोचिये' इसीलिए ग़लत हैं क्योंकि 'देखिया' , 'बोलिया' , 'सोचिया' कुछ नहीं होते...।
रचयिता...अज्ञात...
डॉ Anita Singh की वाल से साभार ।
Sanjiv Verma 'salil' आपके अनुसार तो 'भला हुआ' में 'हुआ' क्रिया होने के कारण स्त्रीलिंग 'हुयी' होगा जो गलत है। मूल बात यह है की 'आ' का 'स्त्रीलिंग 'ई' होगा और 'या' का 'यी' बहुवचन में क्रमश: 'ए' और 'ये' होगा। अपवाद भी हैं। जैसे' तू आ' यह स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में समान रहेगा और बहुवचन में 'तुम सब आओ' होगा। हुआ, हुई, हुए, गया, गयी, गये सही रूप हैं।

दोहा दशहरा

दोहा सलिला : दशहरे पर विशेष
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य.
स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य..

आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ.
फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ..

मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत.
हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत..

शर निष्ठा का लीजिये, कोशिश बने कमान.
जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान..

राम वही आराम हो. जिसको सदा हराम.
जो निज-चिंता भूलकर सबके साधे काम..

दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान.
दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान..

सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प.
पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प..

हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ.
विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ..

कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान.
परम सत्य उससे नहीं, रह पाता अनजान..

हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ़ विश्वास.
इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास..

रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार. 
स्वार्थ- बैर, मद-क्रोध को, बन लछमन संहार..
१५-१०-२०१०
***

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2021

नवगीत बुंदेली

नवगीत बुंदेली 
धरती की छाती पर होरा
रओ रे सूरज भून
*
दरक रई छाती खेतन कीं 
मुरझा रए खलिहान। 
माँगे ठंडा पेय भिखारी 
गहे न रूपया दान। 
साँझ नें अधरं पे गुइँया!
काए लगा लौ खून 
धरती की छाती पर होरा
रओ रे सूरज भून
*
धोंय-निचोरें एकई कपरा 
पहने गीले होंय। 
चलत-चलत कूलर हीटर भओ 
पंखे तक-तक रोंय। 
आँख मिचौली खेले बिजुरी 
मलमल लग रओ ऊन। 
धरती की छाती पर होरा
रओ रे सूरज भून
*
गरमा गरम न कोऊ चाहे 
सहो न जाए ताप। 
सब खौं लगे तरावट नीकी 
बैरन लगती भाप। 
आँखन मिरची झोंके मौसम 
दिन दिन तप रओ दून। 
धरती की छाती पर होरा
रओ रे सूरज भून
*
लिखो तजुर्बा; पढ़ तरबूजा 
चक्कर खाय दिमाग। 
लू खें झोजके; मृगनैनी खों 
लगे, लगा रए आग। 
अब नें गलिन में घूमें रसिया 
चौक परे रे सून। 
धरती की छाती पर होरा
रओ रे सूरज भून
अंधड़ रेत बगुले घेरें 
सहर लग रओ भट्टी। 
है कितै पनघट; अमराई 
नीकी खस की टट्टी। 
बूँदें निकरें नई नैनन सें
बहन बदन सेन दून 
धरती की छाती पर होरा
रओ रे सूरज भून
***
    

सरस्वती वंदना

*सरस्वती वंदना*
ईसुरी

मोदी खबर शारदा लइयो ,
खबर बिराजी रइये।
मैं अपडा अच्छर ना जानौ,
भूली कड़ी मिलाइये ।।
***
-- मधु कवि
टेर यो मधु ने जब जननी कहि,
है अनुरक्त सुभक्त अधीना।
पांच प्यादे प्रमोद पगी चली
हे सहु को निज संग न लीना।
धाय के आय गई अति आतुर
चार भुजायो सजाय प्रवीना
एक में पंकज एक में पुस्तक
एक में लेखनी एक में वीना ।।
***

- संजीव 'सलिल'
*मुक्तिका*
*
विधि-शक्ति हे!
तव भक्ति दे।
लय-छंद प्रति-
अनुरक्ति दे।।
लय-दोष से
माँ! मुक्ति दे।।
बाधा मिटे
वह युक्ति दे।।
जो हो अचल
वह भक्ति दे।
****
*मुक्तक*
*
शारदे माँ!
तार दे माँ।।
छंद को नव
धार दे माँ।।
****
हे भारती! शत वंदना।
हम मिल करें नित अर्चना।।
स्वीकार लो माँ प्रार्थना-
कर सफल छांदस साधना।।
*
माता सरस्वती हो सदय।
संतान को कर दो अभय।।
हम शब्द की कर साधना-
हों अंत में तुझमें विलय।।
****

प्रभाती
*
टेरे गौरैया जग जा रे!
मूँद न नैना, जाग शारदा
भुवन भास्कर लेत बलैंया
झट से मोरी कैंया आ रे!
ऊषा गुइयाँ रूठ न जाए
मैना गाकर तोय मनाए
ओढ़ रजैया मत सो जा रे!
टिट-टिट करे गिलहरी प्यारी
धौरी बछिया गैया न्यारी
भूखा चारा तो दे आ रे!
पायल बाजे बेद-रिचा सी
चूड़ी खनके बने छंद भी
मूँ धो सपर भजन तो गा रे!
बिटिया रानी! बन जा अम्मा
उठ गुड़िया का ले ले चुम्मा
रुला न आते लपक उठा रे!
अच्छर गिनती सखा-सहेली
महक मोगरा चहक चमेली
श्यामल काजल नजर उतारे
सुर-सरगम सँग खेल-खेल ले
कठिनाई कह सरल झेल ले
बाल भारती पढ़ बढ़ जा रे!
***
शत-शत नमन माँ शारदे!, संतान को रस-धार दे।
बन नर्मदा शुचि स्नेह की, वात्सल्य अपरंपार दे।।
आशीष दे, हम गरल का कर पान अमृत दे सकें-
हो विश्वभाषा भारती, माँ! मात्र यह उपहार दे।।
*
हे शारदे माँ! बुद्धि दे जो सत्य-शिव को वर सके।
तम पर विजय पा, वर उजाला सृष्टि सुंदर कर सके।।
सत्पथ वरें सत्कर्म कर आनंद चित् में पा सकें-
रस भाव लय भर अक्षरों में, छंद- सुमधुर गा सकें।।
*****

जय जय वीणापाणी
*
जय माँ सरस्वती
जय हो मैया रानी।।
नित सीस नवावा मैं
शब्दा नू मैया
तद पेंट चढावा मैं।।
तू ज्ञान दी गंगा ऐं
अखरा विच तू ही
करदी मन चंगा ऐं।।
हुण तार सानु मैया
दे असीस अपणी
दिल डोले ना मैया।।
तू हंस वराजे ऐं
हथ वीणा सोहे
मन जोत जगावे ऐं।।
जो सरण पया मैया
बेडा उसदा तू
पार लगावे मैया।।
मेरा नां तार दयो
माथे हथ रख के
एे जीव सवार दयो।।
विद्या कमल लोचने
तेरी कृपा नाल
लग गुंगा बी बोलने।।
मात उर उजास परो
ओ मात शारदे
ऐहे करम सँवारो।।
इस कलम च वास करो
साँझ दी वेनती
माई स्वीकार करो।।
संगीता गोयल "साँझ"
नोएडा

*

नवगीत मी टू

नवगीत
मी टू
*
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
दीप-ज्योति गुमसुम हुई
कोयल रही न कूक.
*
मैं माटी
रौंदा मुझे क्यों कुम्हार ने बोल?
देख तमाशा कुम्हारिन; चुप
थी क्यों; क्या झोल?
सीकर जो टपका; दिया
किसने इसका मोल
तेल-ज्योत
जल-बुझ गए
भोर हुए बिन चूक
कूकुर दौड़ें गली में
काट रहे बिन भूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
*
मैं जनता
ठगता मुझे क्यों हर नेता खोज?
मिटा जीविका; भीख दे
सेठों सँग खा भोज.
आरक्षण लड़वा रहा
जन को; जन से रोज
कोयल
क्रन्दन कर रही
काग रहे हैं कूक
रूपए की दम निकलती
डॉलर तरफ न झूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
*
मैं आईना
दिख रही है तुझको क्या गंद?
लील न ले तुझको सम्हल
कर न किरण को बंद.
'बहु' को पग-तल कुचलते
अवसरवादी 'चंद'
सीता का सत लूटती
राघव की बंदूक
लछमन-सूपनखा रहे
एक साथ मिल हूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
*
संजीव, १४.१०.२०१८
७९९९५५९६१८

कुंडलिया

कुंडलिया   
कविता दीप
*
पहला कविता-दीप है छाया तेरे नाम
हर काया के साथ तू पाकर माया नाम
पाकर माया नाम न कोई विलग रह सका
गैर न तुझको कोई किंचित कभी कह सका
दूर न कर पाया कोई भी तुझको बहला
जन्म-जन्म का बंधन यही जीव का पहला
दीप-छाया
*
छाया ले आयी दिया, शुक्ला हुआ प्रकाश
पूँछ दबा भागा तिमिर, जगह न दे आकाश
जगह न दे आकाश, धरा के हाथ जोड़ता
'मैया! जो देखे मुखड़ा क्यों कहो मोड़ता?
कहाँ बसूँ? क्या तूने भी तज दी है माया?'
मैया बोली 'दीप तले बस ले निज छाया
१४-१०-२०१७ 
***

बुधवार, 13 अक्टूबर 2021

मारवाड़ी सरस्वती वंदना

लक्ष्मण कुमार नेवटिया
जन्म - बिराटनगर, नेपाल (मूल निवास शेखावाटी राजस्थान)।
आत्मज - स्व. जयदेवी - स्व. रामस्वरूप नेवटिया।
संप्रति - स्व व्यापार टायर आटोमोबाइल्स।
प्रकाशन - 'लक्ष्मण का कुतकुति' नेपाली हास्य व्यंग्य कविता संग्रह, 'अमृत गीता' (श्रीमद्भगवद्गीता का हिन्दी पद्यानुवाद), 'समाज के गीत', 'थोपा थोपा जिन्दगी' हाइकु संग्रह, 'यो जो संग सम्बन्धित छ' लघुकथा संग्रह, नेपाली कविता संग्रह प्रथम मारवाडी अनुवाद बसन्त चौधरी कृत 'बसंत', 'अग्रभागवत' का नेपाली अनुवाद।
उपलब्धि - संयोजक हासने समाज, मोरंग, विराटनगर।
संपर्क (ठेगाना) - रंगेली रोड, बिराटनगर-९।
चलभाष - , ईमेल - nevatialk@gmail.com
*
मारवाड़ी सरस्वती वंदना
भक्तवत्सल हँसवाहिनी
*
भक्तवत्सल हंसवाहिनी! तूं है करुणा निधान
बलिहारी म्हैं आपकी, शरण में मांगु वास,
भटक्यो घणो हूं थाकगो,एक है थारी आश,
कुबुद्धी म्हारी मिटाय दे,भर कै ज्ञान सुवास,
छवी न्यारी श्वेताम्बरी, चरण पड्यो है दास।
म्हैं सब रचणाकार की,आप सूं ई है पेचाण,
कोई न दाता जगत में, विणावादिनी समान,
गावै चाव सूं चहूं दिशा,आपको मंगल गान,
विपदा मिनटां में मिटै, धर्यां आपको ध्यान।
कृपा माँ की हुणै सूं,बणज्या बिगड्या काम,
जगतमोहिनी रूप आपको प्रज्ञाग्राममें धाम,
बांटै ज्ञान विज्ञान माता,बिन टकै बिन दाम,
तत्त्व प्रकाशक है सदा, माँ सरस्वती को नाम।
विवेक की हो स्वामिनी,सदैव करो कल्याण,
कलम चलाइ राखज्यो,अमृत वचन लेखाण,
आंगली पकड चलाइज्यो,म्हैं तो हाँ अनजान,
चंद्रवदनि हो पद्मासिनि,कृपाकर लेवो संज्ञान।
अवसाद हरो प्रकाश भरो,विन्ती करो विचार,
अब तो करो उद्धार तम सूं,सुखद् हुवै संसार,
मंगलकारी,हितकारी माँ,आया म्हैं थारे द्वार,
टाबरियां पै उपकार करो, हरो थे म्हारो भार।
एक आस-भरोसो एक, सबको करो उत्थान,
घणा दयालु आप हो, जग कल्याण में ध्यान,
वीणा पुस्तक धारिणी माँ, शारदे देवो वरदान,
भक्त वत्सल हँसवाहिनी तूं है करुणा निधान।
*
===

मुक्तक, नवगीत

मुक्तक
वन्दना प्रार्थना साधना अर्चना
हिंद-हिंदी की करिये, रहे सर तना
विश्व-भाषा बने भारती हम 'सलिल'
पा सकें हर्ष-आनंद नित नव घना
*
नवगीत:
हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर
तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की
दिशाहीन
बहसें मुँहजोर
छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश
जाग उठो
फिर लाओ भोर
पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान
साथ चलो
फिर उगाओ भोर
***

हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका

हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका -
बहर --- २२-२२ २२-२२ २२२१ १२२२
*
एक वही सारी दुनिया में, किसको गैर कहूँ बोलो?
औरों के क्यों दोष दिखाऊँ?, मन बोले 'खुद को तोलो'
*
​खोया-पाया, पाया-खोया, कर्म-कथानक अपना है
क्यों चंदा के दाग दिखाते?, मन के दाग प्रथम धो लो
*
जो बोया है काटोगे भी, चाहो या मत चाहो रे!
तम में, गम में, सम जी पाओ, पीड़ा में कुछ सुख घोलो
*
जो होना है वह होगा ही, जग को सत्य नहीं भाता
छोडो भी दुनिया की चिंता, गाँठें निज मन की खोलो
*
राजभवन-शमशान न देखो, पल-पल याद करो उसको
आग लगे बस्ती में चाहे, तुम हो मगन 'सलिल' डोलो
***
मुक्तिका
*
ख़त ही न रहे, किस तरह पैगाम हम करें
आगाज़ ही नहीं किया, अंजाम हम करें
*
यकीन पर यकीन नहीं, रह गया 'सलिल'
बेहतर है बिन यकीन ही कुछ काम हम करें.
*
गुमनाम हों, बदनाम हों तो हर्ज़ कुछ नहीं
कुछ ना करें से बेहतर है काम हम करें.
*
हो दोस्ती या दुश्मनी, कुछ तो कभी तो हो
जो कुछ न हो तो, क्यों न राम-राम हम करें
*
मिल लें गले, भले ही ईद हो या दिवाली
बस हेलो-हाय का न ताम-झाम हम करे
*
क्यों ख़ास की तलाश करे कल्पना कहो
जो हमसफ़र हो साथ उसे आम हम करें
*

दोहा सलिला

दोहा सलिला
बिन अपनों के हो सलिल' पल-पल समय पहाड़
जेठ-दुपहरी मिले ज्यों, बिन पाती का झाड़
*
विरह-व्यथा को कहें तो, कौन सका है नाप?
जैसे बरखा का सलिल, या गर्मी का ताप
*
कंधे हों मजबूत तो, कहें आप 'आ भार'
उठा सकें जब बोझ तो, हम बोलें 'आभार'
*
कविता करना यज्ञ है, पढ़ना रेवा-स्नान
सुनना कथा-प्रसाद है, गुनना प्रभु का ध्यान
*
कांता-सम्मति मानिए, हो घर में सुख-चैन
अधरों पर मुस्कान संग, गुंजित मीठे बैन
*
सुधियों के संसार में, है शताब्दि क्षण मात्र
श्वास-श्वास हो शोभना, आस सुधीर सुपात्र
*
मृदुला भाषा-काव्य की, धारा, बहे अबाध
'सलिल' साधना कर सतत, हो प्रधान हर साध
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्वमय देह
ईश्वर का उपहार है, पूजा करें सनेह
*
हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल
'सलिल'संस्कृत सान दे,पुड़ी बने कमाल
*
जन्म ब्याह राखी तिलक,गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
**
१३-१०-२०१७ 

गीत, रासलीला

रासलीला :
संजीव 'सलिल'
*
रासलीला दिव्य क्रीड़ा परम प्रभु की.
करें-देखें-सुन तरें, आराध्य विभु की.
चक्षु मूँदे जीव देखे ध्यान धरकर.
आत्म में परमात्म लेखे भक्ति वरकर.
जीव हो संजीव प्रभु का दर्श पाए.
लीन लीला में रहे जग को भुलाए.
साधना का साध्य है आराध्य दर्शन.
पूर्ण आशा तभी जब हो कृपा वर्षण.
पुष्प पुष्पा, किरण की सुषमा सुदर्शन.
शांति का राजीव विकसे बिन प्रदर्शन
वासना का राज बहादुर मिटाए.
रहे सत्य सहाय हरि को खोज पाए.
मिले ओम प्रकाश मन हनुमान गाए.
कृष्ण मोहन श्वास भव-बाधा भुलाए.
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.
झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.
कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.
अधर शतदल पाँखुरी से रस भरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.
नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.
खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.
कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.
सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.
चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.
अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.
भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.
कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?
पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?
कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?
क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?
कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाए.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाए.
जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?
ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?
थाप में आलाप कब देता सुनाई?
हर किसी में आप वह देता दिखाई?
अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?
कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?
कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?
कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.
भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?
द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?
कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?
अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.
नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.
आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.
अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् दिगादि दिगंत जैसे एक पाया.
कंकरों में शंकरों का वास देखा.
जमुन रज में आज बृज ने हास देखा.
मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.
रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.
रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.
रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.
रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.
रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.
रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..
रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.
राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचती थीं.
साधिका होकर साध्य को ही बाँचती थीं.
'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्री बांकेबिहारी.
नर्मदा सी वर्मदा सी शर्मदा सी.
स्नेह-सलिला बही ब्रज में धर्मदा सी.
वेणु झूमी, थिरक नाची, स्वर गुँजाए.
अर्धनारीश्वर वहीं साकार पाए.
रहा था जो चित्र गुप्त, न गुप्त अब था.
सुप्त होकर भी न आत्मन् सुप्त अब था.
दिखा आभा ज्योति पावन प्रार्थना सी.
उषा संध्या वंदना मन कामना सी.
मोहिनी थी, मानिनी थी, अर्चना थी.
सृष्टि सृष्टिद की विनत अभ्यर्थना थी.
हास था पल-पल निनादित लास ही था.
जो जहाँ जैसा घटित था, रास ही था.
*******************************३०-४-२०१०
गीत :
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
किस पग-रज की दिव्य स्वामिनी का मन-आँगन राज सखे!
*
कलरव करता पंछी-पंछी दिव्य रूप का गान करे.
किसकी रूपाभा दीपित नभ पर संध्या अभिमान करे?
किसका मृदुल हास दस दिश में गुंजित ज्यों वीणा के तार?
किसके नूपुर-कंकण ध्वनि में गुंजित हैं संतूर-सितार?
किसके शिथिल गात पर पंखा झलता बृज का ताज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसकी केशराशि श्यामाभित, नर्तन कर मन मोह रही?
किसके मुखमंडल पर लज्जा-लहर जमुन सी सोह रही?
कौन करील-कुञ्ज की शोभा, किससे शोभित कली-कली?
किस पर पट-पीताम्बरधारी, मोहित फिरता गली-गली?
किसके नयन बाणकान्हा पर गिरते बनकर गाज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसकी दाड़िम पंक्ति मनोहर मावस को पूनम करती?
किसके कोमल कंठ-कपोलों पर ऊषा नर्तन करती?
किसकी श्वेताभा-श्यामाभित, किससे श्वेताभित घनश्याम?
किसके बोल वेणु-ध्वनि जैसे, करपल्लव-कोमल अभिराम?
किस पर कौन हुआ बलिहारी, कैसे, कब-किस व्याज सखे?
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसने नीरव को रव देकर, भव को वैभव दिया अनूप?
किसकी रूप-राशि से रूपित भवसागर का कण-कण भूप?
किससे प्रगट, लीन किसमें हो, हर आकार-प्रकार, विचार?
किसने किसकी करी कल्पना, कर साकार, अवाक निहार?
किसमें कर्ता-कारण प्रगटे, लीन क्रिया सब काज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*****

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2021

मुक्तिका, राजस्थानी मुक्तिका

मुक्तिका
गम के बादल अंबर पर छाते जब भी
प्रियदर्शी को देख हवा हो जाते हैं
हुए गमजदा गम तो पाने छुटकारा
आँखों से झर मन का ताप मिटाते हैं
रखो हौसला होता है जब तिमिर घना
तब ही दिनकर-उषा सवेरा लाते हैं
तूफानों से नीड़ उजड़ जाए चाहे
पंछी आकर सरस प्रभाती गाते हैं
दिया शारदा ने वर गीतों का अनुपम
गम हरने वे मन-कुंडी खटकाते हैं
अमरकंटकी विष पीने की परंपरा
शब्दामृत पी विष को अमिय बनाते हैं
बे-गम हुई जिंदगी तो क्या जीतें हम
गम आ मिल मिट हमको जयी बनाते हैं
अंबर का विस्तार नहीं गम नाप सके
बारिश बन बह, भू को हरा बनाते हैं
१२-१०-२०१९
*

राजस्थानी मुक्तिका
*
आसमान में अटक्या सूरज
गेला भूला भटक्या सूरज
*
संसद भीतर बैठ कागलो
काँव-काँव सुन थकग्या सूरज
कोरोना ने रस्ता छेंका
बदरी पीछे छिपग्या सूरज
भरी दफेरी बैठ हाँफ़ र् यो
बिना मजूरी चुकग्या सूरज
धूली चंदण नै चपकेगी
भेळा करता भटक्या सूरज
चादर सीतां सीतां थाका
लून-तेल में फँसग्या सूरज
साँची-साँची कहें सलिल जी
नेता बण ग्यो ठग र् या सूरज
***
१३-१०-२०२०