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बुधवार, 9 सितंबर 2020

अशिक्षित सर्जन

केप टाउन के अशिक्षित सर्जन श्री हैमिल्टन, 
जिन्हें मास्टर ऑफ मेडिसिन की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था. 

वो न तो पढ़ सकते थे और न ही लिख सकते थे.

यह कैसे संभव हुआ ?

केपटाउन मेडिकल यूनिवर्सिटी का चिकित्सा जगत में अग्रणी स्थान है. दुनिया का पहला बाईपास ऑपरेशन भी इसी विश्वविद्यालय में हुआ था.
इस विश्वविद्यालय ने मास्टर ऑफ मेडिसिन की मानद उपाधि से, एक ऐसे व्यक्ति को सम्मानित किया जिसने अपने जीवन में कभी स्कूल का चेहरा नहीं देखा! जो न तो अंग्रेजी पढ़ सकता था और न ही लिख सकता था, लेकिन 2003 में एक सुबह, विश्व प्रसिद्ध सर्जन प्रोफेसर डेविड डेंट ने विश्वविद्यालय के सभागार में घोषणा की: 

"आज हम एक ऐसे आदमी को चिकित्सा में मानद उपाधि प्रदान कर रहे हैं, जिसने दुनिया में सबसे अधिक डाक्टरों को सर्जन बनने में मदद दी है; जो न सिर्फ एक असाधारण शिक्षक हैं बल्कि एक कमाल के सर्जन भी हैं. इन्होंने चिकित्सा विज्ञान को जिस तरह समझा वह बहुत आश्चर्य जनक है!"
 ...
इस घोषणा के साथ, प्रोफेसर ने जब  "हैमिल्टन" नाम लिया, तो पूरा सभागार खड़ा हो गया और तालियों से अभिनंदन किया. यह इस विश्वविद्यालय के इतिहास का सबसे बड़ा स्वागत समारोह था.

हैमिल्टन का जन्म केपटाउन के एक सुदूर गाँव 'सैनिटानी' में हुआ था. उनके माता-पिता भेड़ बकरियाँ चराते थे. बचपन में हैमिल्टन नंगे पैर पहाड़ों में घूमता था. बाद में वे केपटाउन चले गए. 

उन दिनों केपटाउन विश्वविद्यालय में निर्माण कार्य चल रहा था. हेमिल्टन ने एक मजदूर के रूप में वहां काम शुरू किया. जितना पैसा मिलता, वह घर भेज देता था और खुद चने... खाकर जहां तहां खुले में सो जाता था.
निर्माण पूरा होने तक कई वर्षों तक एक मजदूर के रूप में काम किया। 

अब उसे टेनिस कोर्ट में घास काटने का काम  मिला.
अगले तीन साल तक ऐसे ही चलता रहा.

फिर उनकी जिंदगी में एक अजीब मोड़ आया और वह चिकित्सा विज्ञान में वहां पहुँच गए जहाँ उन जैसा और कोई कभी नहीं पहुंचा.

प्रोफेसर रॉबर्ट जॉयस, जिराफों पर शोध कर रहे थे कि 
 जब कोई जिराफ़ पानी पीने के लिए अपनी गर्दन झुकाता है, तो उसके दिमाग में खून का दौरा कम क्यों नही होता ? उन्होंने ऑपरेटिंग टेबल पर एक जिराफ को लिटा कर  बेहोश कर दिया, लेकिन जैसे ही ऑपरेशन शुरू हुआ, जिराफ ने अपना सिर हिलाना शुरू कर दिया. इसलिए ऑपरेशन के दौरान, जिराफ की गर्दन को मजबूती से थामने के लिए उन्हें एक मजबूत आदमी की जरूरत पड़ गयी.

प्रोफेसर थिएटर से बाहर आए तो बाहर लान में हैमिल्टन घास काट रहा था. प्रोफेसर ने देखा कि वह मजबूत कद काठी का स्वस्थ युवक था. उन्होंने उसे बुलाया और जिराफ की गर्दन पकड़ने को कहा. हैमिल्टन ने जिराफ की गर्दन थाम ली.

ऑपरेशन आठ घंटे तक चला. आपरेशन के दौरान, डॉक्टर लोग चाय और कॉफ़ी ब्रेक लेते रहे जबकि हैमिल्टन चुपचाप जिराफ़ की गर्दन पकड़ कर खड़े रहे. 

जब ऑपरेशन समाप्त हो गया, तो वह चुपचाप बाहर चला गया और वापस घास काटने लगा.

अगले दिन प्रोफेसर ने उसे फिर से बुलाया, वह आया और जिराफ की गर्दन थाम ली. इसके बाद यह उसकी दिनचर्या बन गई. उन्होंने कई महीनों तक इसी तरह दुगना काम किया, और इसके लिए न तो अतिरिक्त मुआवजे की मांग की और न ही कोई शिकायत की!

प्रोफेसर रॉबर्ट जॉयस उनकी दृढ़ता और ईमानदारी से बहुत प्रभावित हुए और हैमिल्ट को टेनिस कोर्ट से "लैब असिस्टेंट" के रूप में पदोन्नत कर दिया गया. अब वह रोज विश्वविद्यालय में आते, ऑपरेटिंग थियेटर में जाते और सर्जनों की मदद करते.
यह सिलसिला सालों चलता रहा.

1958 में उनके जीवन में फिर एक और मोड़ आया. इस वर्ष डॉ क्रिश्चियन बर्नार्ड ने विश्वविद्यालय में हार्ट सर्जरी के ऑपरेशन शुरू किये और  हैमिल्टन उनके सहायक बन गए. डॉक्टर ऑपरेशन करते और ऑपरेशन के बाद उन्हें टांके का काम दे देते. वह बेहतरीन टांके लगाते. उनके हाथों और उंगलियों में बहुत शफ़ा और सफाई थी. कई बार एक  दिन में पचास लोगों तक को भी टांके लगाने पड़े. 

ऑपरेशन थियेटर में काम करने के दौरान, वह सर्जनों से मानव शरीर को समझने लगे. अब वरिष्ठ डॉक्टरों ने उन्हें जूनियर डॉक्टरों को पढ़ाने की जिम्मेदारी भी दे दी.

उन्होंने अब जूनियर डॉक्टरों को सर्जरी की तकनीक सिखाना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे विश्वविद्यालय में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गये. वह चिकित्सा विज्ञान की औपचारिक शब्दावली से अपरिचित थे पर वह दुनिया के सबसे अच्छे सर्जनों में से एक थे.

उनके जीवन में तीसरा महत्वपूर्ण मोड़ 1970 में आया, जब इस साल जिगर पर शोध शुरू हुआ. उन्होंने सर्जरी के दौरान जिगर की एक विशिष्ट धमनी की पहचान की,  जिससे लिवर प्रत्यारोपण पहले से आसान और सफल होना शुरू हो गया.

उनके निष्कर्षों और टिप्पणियों ने चिकित्सा विज्ञान के बड़े बड़े  लोगों  को चकित कर दिया!

आज, जब किसी व्यक्ति का दुनिया के किसी भी कोने में लिवर का सफल ऑपरेशन होता है तो इसका श्रेय सीधे हैमिल्टन को जाता है.

हैमिल्टन ने ईमानदारी और दृढ़ता के साथ यह मुकाम हासिल किया. 

वह 50 वर्षों तक केपटाउन विश्वविद्यालय से जुड़े रहे, उन 50 वर्षों में उन्होंने एक भी  छुट्टी नहीं ली. वह अल सुबह चार बजे घर से निकलते, 14 मील पैदल चलकर विश्वविद्यालय जाते, और सुबह ठीक छह बजे थिएटर में प्रवेश करते थे. लोग उनके आने के समय के साथ अपनी घड़ियों का मिलान कर सकते थे.

उन्हें जो सम्मान मिला वह चिकित्सा विज्ञान में किसी को भी नहीं मिला है.

 वे चिकित्सा इतिहास के पहले अनपढ़ शिक्षक थे और अपने जीवनकाल में 30,000 सर्जनों को प्रशिक्षित करने वाले पहले निरक्षर सर्जन. 

2005 में उनकी मृत्यु हो गई और उन्हें विश्वविद्यालय में ही दफनाया गया. नए शिक्षित सर्जनों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया कि वे विश्वविद्यालय से पास होने के बाद अपनी डिग्री को उनकी कब्र पर ले जाएं, एक तस्वीर लें और फिर चिकित्सा व्यवसाय  में उतरे.

आप जानते हैं कि उनहे यह पद कैसे मिला ?

केवल एक "हाँ" से.

जिस दिन उन्हें जिराफ की गर्दन पकड़ने के लिए ऑपरेटिंग थियेटर में बुलाया गया, अगर उन्होंने उस दिन मना कर दिया होता, अगर उस दिन उन्होंने कहा होता, मैं ग्राउंड मेंटेनेंस वर्कर हूं और मेरा काम जिराफ की गर्दन को पकड़ना नहीं है, 

यह एक हाँ और अतिरिक्त आठ घंटे की कड़ी मेहनत थी,  जिसने उनके लिए सफलता के द्वार खोल दिये और वह सर्जन बन गये.

हममें से ज्यादातर लोग जीवन भर नौकरी की तलाश में रहते हैं कि हमें काम मिलना ही चाहिए. दुनिया में हर काम का एक मानदंड होता है और नौकरी केवल उन लोगों के लिए उपलब्ध होती है जो मानदंडों को पूरा करते हैं जबकि अगर आप काम करना चाहते हैं, तो आप दुनिया में कोई भी काम कुछ ही मिनटों में शुरू कर सकते हैं और दुनिया की कोई भी ताकत आपको रोक नहीं पाएगी.

 "हैमिल्टन" ने इस सूत्र को पाया था. उन्होंने नौकरी के बजाय काम करने को  महत्व दिया. 

इस प्रकार उन्होंने चिकित्सा विज्ञान के इतिहास को बदल दिया.

सोचिए अगर उन्होंने सर्जन की नौकरी के लिए आवेदन किया होता तो क्या वह सर्जन बन सकते ?  कभी नहीं, लेकिन उन्होंने घास छोड़ कर जिराफ की गर्दन पकड़ ली और सर्जन बन गए.

बेरोजगार लोग असफल होते हैं क्योंकि वे सिर्फ नौकरी की तलाश करते हैं, काम की  नहीं. 

जिस दिन आपने "हैमिल्टन" की तरह काम करना शुरू कर दिया, आप सम्मान  पुरस्कार जीतेंगे और महान और सफल इंसान भी बनेंगे!
👍🏼👍🏼👍🏼💐💐💐

मुक्तक मालवी

मुक्तक मालवी
संजीव
जीवन नी सौगात नखत स्वाती लई आयो
सीप सलिल दुई मिला एक मोती झट जायो
हिवड़ा नाच्यो झूम कपासी बोंड़ी फूली
आसमान से तारा उतरि धरा पर आयो

मालवी सरसती वंदना

मालवी सलिला
माँ सरसती
संजीव
*
माँ सरसती! की किरपा घणी

लिखणो-पढ़णो जो सिखई री
सब बोली हुण में समई री
राखे मिठास लबालब भरी

मैया! कसी तमारी माया
नाम तमाया रहा भुलाया
सुमिरा तब जब मुस्कल पड़ी

माँ सरसती! दे मीठी बोली
ज्यूँ माखन में मिसरी घोली
सँग अक्कल की पारसमणि

मिहनत का सिखला दे मंतर
सच्चाई का दे दै तंतर
खुशियों की नी टूटै लड़ी

नादां गैरी नींद में सोयो
आँख खुली ते डर के रोयो
मन मंदिर में मूरत जड़ी
*
२०-११-२०१७
जीवन नी सौगात नखत स्वाती लई आयो
सीप सलिल दुई मिला एक मोती झट जायो
हिवड़ा नाच्यो झूम कपासी बोंड़ी फूली
आसमान से तारा उतरि धरा पर आयो

मालवी संजा गीत प्रभा तिवारी

मालवी संजा गीत
प्रभा तिवारी
*
छोटी सी गाड़ी रुरकी जाय रुरकी जाय।
उसमें बेठी संजा बाई संजा बाई
ऊंची निची बाट में लगे दचका
लगे दचका।
संजा तू थारे घर जा थारे घर जा
कि थारी माय मारेगी कि कूटेगी
कि चांद गयो गुजरात की हिरनि का बड़ा बडा दांत
छोरी डरपेगा की डरपेगा ।
**          

मालवी संजा गीत मनोरमा जोशी

मालवी  संजा गीत
मनोरमा जोशी
*
हमारी लोकसंस्कृति संझा के गीत ।
यह गीत श्राद्ध मे सोलह दिन गाये जाते है।
लड़कियां दीवार पर गोबर से इसे बनाती है ।
और शाम को आरती भोग लगाकर गीत गाती है ।

संझा ब ई जीम ले चूठ ले
मे जिमाऊ सारी रात ,
फूला लाड़ु भरी रे परात ,
चंमंक चादनी सी रात ।
संझा जीमले ।
संझा बाई तम तमारे घरें
जाव ,
तमारी माय मारेगी कने कूटेगी ,
चांद गयो गुजरात ,
हिरनी का बड़ा बड़ा दांत
के छोरा छोरी डरपेगा जी
ड़रपेगा ।

संझा बाई का लाड़ाजी ,
लुगड़ो लाया जाड़ाजी ,
असो कसो लाया ,दारी का ,
लाता गोट किनारी का ।
***

मालवी हाइकु

मालवी सलिला
हाइकु
संजीव
*
मात सरसती!
हात जोड़ी ने थारा
करूँआरती।
*
नींद में सोयो
जागी ने घणो रोयो
फसल खोयो।
*
मालवी बोली
नरमदा का पाणी
मिसरी घोली।
*
नींद में सोयो
टूट गयो सपनो
पायो ने खोयो।
*
कदी नी चावां
बड़ा बंगला, चावां
रेवा-किनारा
*
बिना टेका के
राम भरोसे कोई
छत ने टिकी।
*
लिखणेवाळा!
बोठी न होने दीजे
कलमहुण।
*

नमन हिमालय

।।।। नमन तुम्हें हे, श्रृंग हिमालय।।।

नमन तुम्हें हे, श्रृंग हिमालय।
हर हर शिव के तुम नृत्यालय।
पर्वत राज हे, देवालय।
जीवन दाता सत्य शिवालय।
नमन--
धवलेश्वर हिमाच्छादित।
धवल मणि से सदा जडित।
जननी के मस्तक पर सज्जित।
गिरि राज संज्ञा परिभाषित।
प्रातः संध्या के अरुणालय।
नमन--
जननी गंगा जीवन दाता।
निकसे तुमसे यमुना माता।
पावन तोय प्रवाहित जिसमें।
जो अमृत के सम कहलाता।
भारत मां के तुम रक्षालय।
नमन - -
आज्ञा तेरी माने सरिता।
जिसका वारि अविरल बहता।
खेत को पानी प्यासे को जल।
और उदधि का पेट है भरता।
तुम जलदों के शीतालय।
नमन - -
अविचल हो तुम सदा अडिग हो।
औषधि में तुम संजीवन हो।।
अंबर से संवाद तुम्हारा।
प्रतीक सत्य के सदा धवल हो।
ऋषि मुनियों के तुम शरणालय।

नमन तुम्हें हे, श्रृंग हिमालय।।

। विजय प्रकाश रतूडी।

शुभ कामना

शुभकामना
खरे-खरे प्रतिमान रच
जियें आप सौ वर्ष.
जीवन बगिया में खिलें
पुष्प सफलता-हर्ष ..
चित्र गुप्त जिसका सकें
उसे आप पहचान.
काया-स्थित है वही,
कर्म देव भगवान.
ॐ प्रकाश बिखेरता
रहे अहर्निश संग
आशुतोष आनंद दे
अंशुमान भर रंग
आशा की सुषमा सदा
सफल साधना हो सदा
मन सचेत संजीव
पूनम दे नित चाँदनी
दे सुगंध राजीव
*

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

लेख गीत-नवगीत

लेख  :
श्वास-प्रश्वास की गति ही गीत-नवगीत
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाषा का जन्म
प्रकृति के सानिंध्य में अनुभूत ध्वनियों को स्मरण कर अभिव्यक्त करने की कला और सामर्थ्य से भाषा का जन्म हुआ। प्राकृतिक घटनाओं वर्ष, जल प्रवाह, तड़ित, वायु प्रवाह था जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों की बोली कूक, चहचहाहट, हिनहिनाहट, फुँफकार, गर्जन आदि में अन्तर्निहित ध्वनि-खंडों को स्मरण रखकर उनकी आवृत्ति कर मनुष्य ने अपने सहयोगियों को संदेश देना सीखा। रुदन और हास ने उसे रसानुभूति करने में समर्थ बनाया। ध्वनिखंडों की पुनरावृत्ति कर श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ मनुष्य ने लय की प्रतीति की। सार्थक और निरर्थक ध्वनि का अंतर कर मनुष्य ने वाचिक अभिव्यक्ति की डगर पर पग रखे। अभिव्यक्त को स्थाई रूप से संचित करने की चाह ने ध्वनियों के लिए संकेत निर्धारण का पथ प्रशस्त किया, संकेतों के अंकन हेतु पटल, कलम और स्याही या रंग का उपयोग कर मनुष्य ने कालांतर में चित्र लिपियों और अक्षर लिपियों का विकास किया। अक्षरों से शब्द, शब्द से वाक्य बनाकर मनुष्य ने भाषा विकास में अन्य सब प्राणियों को पीछे छोड़ दिया।
भाषा की समझ 
वाचिक अभिव्यक्ति में लय के कम-अधिक होने से क्रमश: गद्य व पद्य का विकास हुआ। नवजात शिशु मनुष्य की भाषा, शब्दों के अर्थ नहीं समझता पर वह अपने आस-पास की ध्वनियों को मस्तिष्क में संचित कर क्रमश: इनका अर्थ  ग्रहण करने लगता है। लोरी सुनकर बच्चा लय, रस और भाव ग्रहण करता है। यही काव्य जगत में प्रवेश का द्वार है। श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ शिशु लय से तादात्म्य स्थापित करता है जो जीवन पर्यन्त बन रहता है। यह लय अनजाने ही मस्तिष्क में छाकर मन को प्रफुल्लित करती है। मन पर छह जाने वाली ध्वनियों की आवृत्ति ही 'छंद' को जन्म देती है। वाचिक व् लौकिक छंदों में लघु-दीर्घ उच्चार का संयोजन होता है। इन्हे पहचान और गईं कर वर्णिक-मात्रिक छंद बनाये जाते हैं।
गीत - नवगीत का शिल्प और तत्व 
गीति काव्य में मुखड़े अंतरे मुखड़े का शिल्प गीत को जन्म देता है। गीत में गीतकार की वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, लय, रस, बिम्ब, प्रतीक, भाषा शैली आदि हैं। वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या, पद संख्या, अलंकार, मिथक आदि आवश्यकतानुसार उपयोग किये जाते हैं। गीत सामान्यत: नवगीत से अधिक लंबा होता है।
लगभग ७० वर्ष पूर्व कुछ गीतकारों ने अपने गीतों को नवगीत कहा। गत सात दशकों में नवगीत की न तो स्वतंत्र पहचान बनी, न परिभाषा। वस्तुत: गीत वृक्ष का बोनसाई की तरह लघ्वाकारी रूप नवगीत है। नवगीत का शिल्प गीत की ही तरह मुखड़े और अंतरे का संयोजन है। मुखड़े और अंतरे में वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या आदि का बंधन नहीं होता। मुखड़ा और अंतरा में छंद समान हो सकता है और भिन्न भी। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियाँ सम भारीय होती है। अंतरे की पंक्तियाँ मुखड़े की पंक्तियों के समान अथवा उससे भिन्न सम भार की होती हैं। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियों का पदांत  समान होता है। अंतरे के बाद एक पंक्ति मुखड़े के पदभार और पड़ंत की होती है जिसके बाद मुखड़ा दोहराया जाता है।
गीत - नवगीत में अंतर
गीत कुल में जन्मा नवगीत अपने मूल से कुछ समानता और कुछ असमानता रखता है। दोनों में मुखड़े-अंतरे का शिल्प समान होता है किन्तु भावाभिव्यक्ति में अन्तर होता है। गीत की भाषा प्रांजल और शुद्ध होती है जबकि नवगीत की भाषा में देशज टटकापन होता है। गीतकार कथ्य को अभिव्यक्त करते समय वैयक्तिक दृष्टिकोण को प्रधानता देता है जबकि नवगीतकार सामाजिक दृष्टिकोण को प्रमुखता देता है।  गीत में आलंकारिकता को सराहा जाता है, नवगीत में सरलता और स्पष्टता को। नवगीतकारों का एक वर्ग विसंगति, विडम्बना, टकराव, बिखराव, दर्द और पीड़ा को नवगीत में आवश्यक मंटा रह है किन्तु अब यह विचार धारा कालातीत हो रही है। मेरे कई नवगीत हर्ष, उल्लास, श्रृंगार, वीर, भक्ति आदि रसों से सिक्त हैं। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, निर्मल शुक्ल, धनंजय सिंह, गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', जय प्रकाश श्रीवास्तव, अशोक गीते, मधु प्रधान, बसंत शर्मा, रविशंकर मिश्र, प्रदीप शुक्ल,  शशि पुरवार, संध्या सिंह, अविनाश ब्योहार, भावना तिवारी, कल्पना रामानी , हरिहर झा, देवकीनंदन 'शांत' आदि अनेक नवगीतकारों के नवगीतों में सांस्कृतिक रूचि और सकारात्मक ऊर्जा का प्राधान्य है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय पर्वों, पेड़-पौधों और पुष्पों पर नवगीत लेखन कराकर नवगीत को विसंगतिपरकता के कठमुल्लेपन से निजात दिलाने में महती भूमिका निभाई है।
नवगीत का नया कलेवर
साम्यवादी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर सामाजिक विघटन, टकराव और द्वेषपरक नकारात्मकता से  सामाजिक समरसता को क्षति पहुँचा रहे नवगीतकारों ने समाज-द्रोह को प्रोत्साहित कर परिवार संस्था को अकल्पनीय क्षति पहुँचाई है। नवगीत हे इन्हीं लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि विधाओं में भी यह कुप्रवृत्ति घर कर गयी है। नवगीत ने नकारात्मकता का सकारात्मकता से सामना करने में पहल की है। कुमार रवींद्र की अप्प दीपो भव, पूर्णिमा बर्मन की चोंच में आकाश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की काल है संक्रांति का और सड़क पर, देवेंद्र सफल की हरापन बाकी है, आचार्य भगवत दुबे की हिरन सुगंधों के, जय प्रकाश श्रीवास्तव की परिंदे संवेदनाओं के, अशोक गीते की धूप है मुंडेर की आदि कृतियों में नवाशापरक नवगीत संभावनाओं के द्वार खटखटा रहे हैं।
नवगीत अब विसंगति का ढोल नहीं पीट रहा अपितु नव निर्माण, नव संभावनाओं, नवोत्कर्ष की राह पर पग बढ़ा रहा है। नवगीत के आवश्यक तत्व सम-सामयिक कथ्य, सहज भाषा, स्पष्ट कथन, कथ्य को उभार देते प्रतीक और बिंब, सहज ग्राह्य शैली, लचीला शिल्प, लयात्मकता, छांदसिकता। लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता और जमीनी जुड़ाव हैं। आकाश कुसुम जैसी कल्पनाएँ नवगीत के लिए उपयुक्त नहीं हैं। क्लिष्ट भाषा नवगीत के है। नवगीत आम आदमी को लक्ष्य मानकर अपनी बात  कहता है। नवगीत प्रयोगधर्मी काव्य विधा है। कुमार रवींद्र ने बुद्ध के जीवन से जुड़े पात्रों के माध्यम से एक-एक नवगीत कहकर प्रथम नवगीतात्मक प्रबंध काव्य की रचना की है। इन पंक्तियों के लेखक है संक्रांति का में नवगीत में शारद वंदन, फाग, सोहर आदि लोकगीतों की धुन, आल्हा,  सरथा, दोहा आदि छंदों  प्रयोग प्रथमत: किया है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को नवगीतों में बखूबी पिरोया है।
नवगीत के तत्वों का उल्लेख करते हुए एक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें-

मौन तजकर मनीषा कह बात अपनी

नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
तथ्य होता कथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
छंदहीना नई कविता क्यों सिरजनी

सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती
मर्मबेधकता न हो तो रार थांती
लाक्षणिकता, भाव,  रस,रूपक सलोने
बिम्ब टटकापन  सजती नाचता
नवगीत के संग लोक का मन
ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?

नवगीत का भविष्य  तभी उज्जवल  होगा जब नवगीतकार प्रगतिवाद की आड़ में वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर समाप्तप्राय राजनैतिक विचारधारा  के कठमुल्लों हुए अंध राष्ट्रवाद से तटस्थ रहकर वैयक्तिकता और वैश्विकता, स्व और सर्व के मध्य समन्वय-संतुलन स्थापित करते हुए मानवीय जिजीविषा  गुंजाते सकारात्मकता ऊर्जा संपन्न नवगीतों से विश्ववाणी हिंदी के रचना कोष को समृद्ध करते रहें।  

हाइकु

हाइकु सलिला
*
हाइकु करे
शब्द-शब्द जीवंत
छवि भी दिखे।
*
सलिल धार
निर्मल निनादित
हरे थकान।
*
मेघ गरजा
टप टप मृदंग
बजने लगा।
*
किया प्रयास
शाबाशी इसरो को
न हो हताश
*
जब भी लिखो
हमेशा अपना हो
अलग दिखो।
*

मुक्तिका

मुक्तिका
अपना शहर
*
अपना शहर अपना नहीं, दिन-दिन पराया हो रहा।
अपनत्व की सलिला सुखा पहचान अपनी खो रहा।।
मन मैल का आगार है लेकिन नहीं चिंता तनिक।
मल-मल बदन को खूब मँहगे सोप से हँस धो रहा।।
था जंगलों के बीच भी महफूज, अब घर में नहीं।
वन काट, पर्वत खोद कोसे ईश को क्यों, रो रहा।।
थी बेबसी नंगी मगर अब रईसी नंगी हुई।
है फूल कुचले फूल, सुख से फूल काँटे बो रहा।।
आती नहीं है नींद स्लीपिंग पिल्स लेकर जागता
गद्दे परेशां देख तनहा झींक कहता सो रहा।।
संजीव थे, निर्जीव नाते मर रहे बेमौत ही
संबंध को अनुबंध कर, यह लाश सुख की ढो रहा।।
सिसकती लज्जा, हया बेशर्म खुद को बेचती।
हाय! संयम बिलख आँसू हार में छिप पो रहा।।
***
संजीव
८-९-२०१९
७९९९५५९६१८
Anil Jain

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
*
तेवर बिन तेवरी नहीं, ज्यों बिन धार प्रपात
शब्द-शब्द आघात कर, दे दर्दों को मात
*
तेवरीकार न मौन हो, करे चोट पर चोट
पत्थर को भी तोड़ दे, मार लात पर लात
*
निज पीड़ा सहकर हँसे, लगा ठहाके खूब
तम का सीना फाड़ कर, ज्यों नित उगे प्रभात
*
हाथ न युग के जोड़ना, हाथ मिला दे तोड़
दिग्दिगंत तक गुँजा दे, क्रांति भरे नग्मात
*
कंकर को शंकर करे, तेरा दृढ़ संकल्प
बूँद पसीने के बने, यादों की बारात
*
चाह न मन में रमा की, सरस्वती है इष्ट
फिर भी हमीं रमेश हैं, राज न चाहा तात
*
ब्रम्ह देव शर्मा रहे, क्यों बतलाये कौन?
पांसे फेंकें कर्म के, जीवन हुआ बिसात
*
लोहा सब जग मान ले, ऐसी ठोकर मार
आडम्बर से मिल सके, सबको 'सलिल' निजात
*
८-९-२०१७

सोमवार, 7 सितंबर 2020

हस्तिनापुर की बिथा कथा अध्याय ८

हस्तिनापुर की बिथा कथा अध्याय ८ 
युद्ध कौ सोलओ दिन
द्रोण सिधारे स्वर्ग, कर्ण कौरव कौ सेनापति हो गओ
ईसें दुर्योधन के ऊ मित्र कौ मान औरइ बड़ गओ (६१)
कर्ण घुसो पाण्डव सैना में और सैंकरन खौं मारो
कर डारो भूकंप सौ उतै, हाहाकार मचा डारो (६२)
लासन पै लासें बिछ गईं, रकत के छूटे फव्वारे
रुंड मुंड भू पै लोटत, लोहू के बहे नदी नारे (६३)
तब कौरव सैना पै अर्जुन टूट परे आफत बन कें
मार हजारन जोधा डारे अर्जुन और भीम मिल कें (६४)
भीम लड़े अश्वत्थामा सें,बाए हरा युद्ध में दये
लड़े युधिष्ठिर दुर्योधन सें, ऊखौं कर बेहोस दये (६५)
तब कृतवर्मा उनें उठाकें लै गए युद्धभूमि सें दूर
दिन भर चली लड़ाई, संजा होतइं सेनाएँ भइँ दूर (६६)
सत्ररएँ दिन कौ युद्ध
बान दूसरे दिना कर्ण के औरइ जादा भीषन भए
लड़न युधिष्ठिर लगे कर्ण सें, और भौत घायल हो गए (६७)
देख भीम खौं ताव आ गओ , लगे कर्ण से युद्ध करन
मूर्छित करो कर्ण खौं , फिर जाकें औरन सें लगे लड़न (६८)
तबइँ दुसासन दिखा परो , तौ बाए भीम नें ललकारो
अपनी भारी गदा फेंक दुस्सासन के ऊपर डारो (६९)
दुसासन खौं वध
धक्का लगौ गदा कौ , गिरो दुसासन रथ सें दूरी पै
तुरत उचक कें भीम चड़ गसे दुसासन की छाती पै (७०)
दबा पाँव सें गरौ चीर तरवार सें दये छाती खौं
देखत रए कर्ण दुर्योधन , पूरौ करे भीम प्रन खौं (७१)
कर्ण पुत्र वृषसेन क्रोध सें भरो भीम पै झपट परो
चतुराई सें बानें घायल अर्जुन खौं , भीम खौं करो (७२)
तब अर्जुन नें चार बान सें हाँत , मूड़ काटे ऊके
देख पुत्र कौ अंत कँप गए अंग अंग कर्ण जू के (७३)
अर्जुन और कर्ण कौ युद्ध
ज्वालामुखी क्रोध कौ फूटो टूट परे वे अर्जुन पै
बानन की बरसात देर तक भई एक दूसरे पै (७४)
अग्निबान अर्जुन कौ नष्ट कर्ण ने वरुणास्त्र सें करो
ऐन्द्रास्त्र सें अर्जुन नष्ट कर्ण कौ भार्गवास्त्र करो (७५)
वीर कर्ण नें एक बान सें धनुष काट अर्जुन कौ दओ
अर्जुन नें दूसरौ उठा लओ , कर्ण उयै भी काट दओ (७६)
ऐसौ ग्यारा बार भओ तौ गुस्सा फूटो अर्जुन कौ
बानन की बौछारन सें रथ ढाँक दओ ऊ दुस्मन कौ (७७)
तब चलाओ नागास्त्र कर्ण साँप के भयंकर मौ बारौ
चलो अस्त्र आगी उगलत , बिजली जैसी लकीर वारौ (७८)
ऊ कौ कौनउ काट नईं , एकदम अचूक होत वौ अस्त्र 
आउत गरे पाई अर्जुन के देख लओ कृष्ण जू ने बौ अस्त्र (७९)
तुरत कृष्ण ने दबा जोर सें रथ खौं नैचें नवा दओ 
मूड़ बच गओ अर्जुन कौ , अस्त्र के मुकुट भर गिरा दओ (८०)

युद्ध होत रओ , चका कर्ण के रथ कौ धरती में धँस गओ
बाए उठाने कर्ण उतरकें रथ सें धरती पै आ गओ (८१)
धनुष बान छोड़ कें उठाउन चका लगो दोउ हाँतन सें
तब अर्जुन सें कहे कृष्ण तुम अबइँ इयै मारे झट सें (८२)
अर्जुन बोले बार निहत्थे पै करवौ नइँ युद्ध नियम ,
बोले कृष्ण " निहत्थो अभिमन्यु मारो कौन सौ नियम (८३)
कौन नियम सें भरी सभा में चीर हरन कृष्णा कौ भओ
कृष्णा रोउत रई ती , तब जौ धूर्त ठठाकें हँसत रओ (८४)
छल सें पाँसे खेलत कपटी सकुनी मानो कौन नियम ?
सुनो , नियम जो नईं मानत , ऊके लानें कायको नियम ? (८५)
तब अर्जुन नें एक भयंकर बान कर्ण पै चला दओ
सरसरात बौ बान कर्ण कौ मूड़ काट कें गिरा दओ (८६)
भओ कर्ण कौ वध तौ दुर्योधन भीतर व्याकुल हो गओ
जो अर्जुन खौं मार सकत तो , खुद अर्जुन सें मारो गओ (८७)
दुर्योधन की मानो टूटी कमर , न टूटो हठ ऊकौ
लड़ौं साँस आखिरी तक मैं , धरम न छोड़ौं छत्रिय कौ (८८)
अठारएँ दिन कौ युद्ध
कर्ण मरे पै दुर्योधन नें सैनापति सल्य खौं करो
और सगे भानेजन की सैना पै हमला सल्य करो (८९)
युद्ध कौ अठारह दिना हतो , नृप सल्य पराक्रम दरसाए
उतै युधिष्ठिर उनके ऊपर बान वेग सें बरसाए (९०)
युधिष्ठिर के हाँतन सल्य कौ वध
लड़े देर तक सल्य युधिष्ठिर , हीर नईं मानो कोऊ
देख युधिष्ठिर कौ विक्रम अचरज में पर गए सब कोऊ (९१)
जो अब लौं सांत उदार रओ , बौ दरसाओ सूरमाई
उनकौ भीषन रूप देखकें कौरव सेना घबड़ाई (९२)
गुल्ली एक , नोंक पै हीरा जड़ी जोर सें घाल दई
घुसी सल्य की छाती में , निकार लै बाके प्रान गई (९३)
सौ में सें अट्ठानवे मर चुकेते अब लौं कौरव भैया
मार भीम ने दओ सुदरसन नाव कौ कौरव भइया (९४)
अब दुर्योधन पूत अकेलौ धृतराष्ट्र कौ बचो रै गओ
और बचो रओ दासी पुत्र युयुत्सु , पाण्डव सँग जो रओ (९५)
तब ऊ सैना के सेनापति मामा सकुनि बनाए गये
उनसें दो दो हाँत करन तब सम्मुख आ सहदेव गये (९६)
सकुनि कौ अंत
सहदेव पै सकुनि नें भाला एक फेंक जोर सें दओ
माथे पै सहदेव के लगो , ऊनें रकत निकार दओ (९७)
तब सहदेव क्रोध सें भर कें 'क्षुर' नाव कौ बान मारे
बना निसान गरे खौं मूड़ सकुनि कौ तुरत काट डारे (९८)
मारौ गओ सकुनि तौ कौरव सैना में भगदड़ मच गई
तितर बितर भइ पूरी सैना , युद्धभूमि खाली हो गई (९९)
चार जनें बाकी बच रए अब दुर्योधन और कृतवर्मा
कुलगुरु कृपाचार्य और द्रोण कौ पुत्र अश्वत्थामा (१००)
दुर्योधन ने मैदान छोड़ो 
अपनी भारी हानि देख दुर्योधन को दुःख भौत भओ
तपन लगो सरीर ऊकौ, जाकें तलाब जल में दुक गओ (१०१) 
जान गए जा बात पाण्डव तुरत पौंच वे गए उतै 
दुर्योधन खौं टेर कहे "तुम काये आकें ढुके इतै" (१०२) 
दुर्योधन बाहर निकरे , बोले नइँ ढुके इतै आ हम 
तन मन भौत हमाए तप रए , ठंडौ करवे आये हम (१०३)
 हमें नईं कायर जानो , अब एक एक से लड़हैं हम 
आओ एक एक करकें , तुम सबकको लड़कें मारें हम (१०४)
भीम - दर्योधन कौ गदा युद्ध 
भीम तुरंत गदा लै झपटे , गदा उठा लओ दुर्योधन 
बलदाऊ के दोउ गदाधर चेला तुरतइँ लगे लड़न (१०५)
लड़त लड़त भइ भौत देर पै मानी नईं कोऊ नें हार  
दोऊ गदाधर बराबरी के , करत रए आपस में बार (१०६)
तब अर्जुन सें बोले कृष्ण "बताओ  भीम खौं वौ मारै 
अपनी गदा कमर के नैचें , ऊकी जाँघ टोर डारै" (१०७)
अर्जुन अपनी बाईं जाँघ पै ताल ठोक संकेत करे 
सोइ भीम ऊकी बाईं जाँघ पै गदा को बार करे (१०८)
दुर्योधन की हार 
टूट जाँघ गइ दुर्योधन की , तुरत गिर परो धरती पै  
ठाँडौ रै नइँ सको , रै गओ उतइँ बैठकेँ धरती पै (१०९)
ओइ दसा में दुर्योधन खौं छोड़ पाण्डव चले गये  
तड़फावे खौं नइँ मारो , वे अपनौ मौ फेर कें गये (११०)
दुर्योधन के धरती पै गिरतइँ हो गओ संग्राम ख़तम 
तौऊ ऊकौ बैरभाव नइँ गओ , भई नइँ जरन खतम (१११)
अश्वत्थामा और बदले की आग 
युद्ध ख़तम हो गओ , क्रोध अश्वत्थामा कौ नईं भओ 
जितै डरेते दुर्योधन वौ उनसें कहवे उतै गओ       (११२)
बोलो "हे राजा! बदलौ अवश्य मैं पाण्डव सें लैहौं 
आप आग्या देओ तौ उनकौ विनास मैं कर दैहौं (११३)
दुर्योधन नें बाके ऊपर जल छिड़को प्रसन्न होकें 
बोले " तुम अब हौ सैनापति , उनखौं नष्ट करो जाकें (११४)
कृपाचार्य , कृतवर्मा खौं अश्वत्थामा नें संग लओ 
और पाण्डव के डेरन में वौ अधराते चलो गओ (११५)
दोउ जनें बाहर ठाँड़े रए जीसें कोऊ भगन न पाय  
भगन लगे तौ कृतवर्मा , कृप के हाँतन सें मारो जाय  (११६)
अश्वत्थामा पैलें धृष्टद्युम्न के तंबू में घुस गओ 
बाको गरो धनुष डोरी सें कस सोउत में मार दिओ (११७)
युद्ध ख़तम जानकेँ सब जनें सो रएते निरभयता सें 
अश्वत्थामा नें उन सब खौं  मार दओ निरदयता सें (११८)
कृपाचार्य तब उनके डेरा भेंट आग की चड़ा दये 
फिर तीनउँ जन मिलकें रातइ में दुर्योधन पास गये (११९)
दुर्योधन कौ अंत 
अश्वत्थामा बोलो " राजा सुनकेँ खुस हो जाओ तुम 
पूरी पूरी पाण्डव सैना कौ विनास कर आये हम      (१२०)
सुनकेँ सांति पाओ दुर्योधन , जरत करेजौ भओ ठंडौ 
और आखिरी सांस छोड़ दइ , तन ऊकौ हो गओ ठंडौ (१२१)
कुल दस जन बचे रै गये 
अश्वत्थामा की दुष्टइ सें बचे सात जन रै गएते 
श्रीकृष्ण , पाँचउ पाण्डव , सात्यिकी समेत जिअत रएते (१२२)
वे तौ हते दूसरे डेरा में अपनी सैना सें दूर 
अश्वत्थामा नें समझी हमने बदलौ लै लओ भरपूर (१२३)
जिनकें संगै कृष्ण हौंय उनकौ कैसें हो नास सकत 
ऐसौ कोऊ नईं धरती पै जो ऐसन खौं मार सकत (१२४)
कौरव दल के तीन आदमी , पाण्डव दल के सात बचे 
कैऊ अक्षौहिणी नष्ट भईं , अब केवल दस जनें बचे (१२५)
सुनकेँ अत्याचार और कायरपन अश्वत्थामा कौ 
ऊके ऐसे नीच करम सें तड़फो हियो युधिष्ठिर कौ (१२६)
***

संस्कृत में नईं पढ़ो, हिंदी में नईं पढ़ो तो लो
बुंदेली में पढ़ लो महाभारत
- मोहन शशि
*
"साँच खों आँच का" पे जा बात सोई मन सें निकारें नईं निकरे के ए कलजुग में "साँची खों फाँसी" की दसा देखत करेजा धक् सें रै जात। बे दिन सोई लद गए जब 'बातहिं हाथी पाइए, बातहिं हाथी पांव' को डंका पिटत रओ। तुम लगे रओ 'कर्म खों धर्म मानकें', लगात रओ समंदर में गहरे-गहरे गोता, खोज-खोजकें लात रओ एक सें बढ़ कें एक मोेती, पै जा जान लो और मान लो कि आपके मोती रहे आएं आपखों अनमोल, ए तिकड़मबाजी के बजार में नईं लगने उनको कोई मोल। तमगा और इनाम उनके नाम जौन की अच्छी-खासी हे पहचान, भलई कछू लिखो होय के कोई गरीब साहित्यकार पे 'पेट की आगी बुझाबे' के एहसान खों लाद 'गाँव तोरो, नांव मोरो कर लओ होय। 'कऊँ ईगी बरे, काऊ को चूल्हा सदे, जाए भाड़ में, जे धुन के धुनी, आदमी कछू अलगई किसम के होत, हमीर सो हठ ठानो तो फिर नई मानी, काऊ की नई मानी। ऐंसई में से एक हैं अपने भैया डॉ. मुरारीलाल जी खरे। जा जान लो के बुंदेली पे मनसा वाचा कर्मणा से समर्पित, प्रान दए पड़े।

भैया!'हात कंगन खों आरसी का' खुदई देख लो। २०१३ में बुंदेली रामायण, २०१५ में 'शरशैया पर भीष्म पितामह' और बुंदेली में और भौत सों काम करके बी नें थके, नें रुके और धर पटको बुंदेली में संछिप्त महाभारत काव्य 'हस्तिनापुर की बिथा-कथा।'
डॉ.एम.एल.खरे नें ९ अध्याय में रचो है 'हस्तिनापुर की बिथा कथा।' पैले अध्याय में हस्तिनापुर के राजबंस को परिचय कुरुबंसी महाराज सांतनु से शुरू करके महाभारत के युद्ध के बाद तक के वर्णन में साहित्य के खरे हस्ताक्छर डॉ. खरे ने एक-एक पद में ऐसे ऐसे शब्द चित्र उकेरे हैं के पढ़बे के साथई साथ एक-एक दृष्य आंखन में उतरत जात और लगत कि सिनेमा घर में बैठे महाभारत आय देख रअ। कवि जी नें कही हे-
"गरब करतते अपने बल को जो, वे रण में मर-खप गए
वेद व्यास आँखन देखी जा , बिथा कथा लिखकें धर गए"

सांतनु-गंगा मिलन, देवव्रत (भीष्म) जन्म, सत्यवती-सान्तनु ब्याव, चित्रांगद-विचित्रवीर्य जन्म, कासीराज की कन्याओं अंबा, अंबिका, अंबालिका को हरण, अंबिका और अंबालिका के छेत्रज पुत्र धृतराष्ट्र और पाण्डु जनमें, धृतराष्ट्र-गांधारी और पाण्डु-कुंती को ब्याव, कर्ण के जन्म की कथा, माद्री-पाण्डु ब्याव, सौ और पाँच को जनम, पाण्डु मरण और फिर दुर्योधन-शकुनि के षड़यंत्र पे षड़यंत्र -
"भई मिसकौट सकुनि मामा, दुर्योधन, कर्ण, दुसासन में
जिअत जरा दए जाएँ पांडव, ठैरा लाख के भवन में"

कुंती के साथ पांडवों के मरबे को शोक मना दुर्योधन को युवराज के रूप में का भओ के फिर तो नईं धरे ओने धरती पे पाँव। उते पांडवों को बनों में भटकवे से लेके द्रौपदी स्वयंवर और राज के बटबारे को बरनन खरे जी ने ऐसो करो कि पढ़तई बनत। बटबारे में धृतराष्ट्र नें कौरवों खों सजो-सजाओ हस्तिनापुर तो 'एक पांत दो भांत' पांडवों खों ऊबड़-खाबड़ जंगल भरो खांडवप्रस्थ देवे के बरनन में कविवर डॉ. खरे जा बताबे में नई चूके कि धृतराष्ट्र ने पांडवों। पे दिखावटी प्रेंम दरसाओ -
"और युधिष्ठिर लें बोले दै रए तुमें हम आधो राज
चले खांडवप्रस्थ जाव तुम, करो उते अच्छे सें राज"

पांडवों पे कृष्ण कृपा, विश्वकर्मा द्वारा इंद्रप्रस्थ नगरी को अद्भुत निर्माण फिर राजसूय यग्य और दरवाजा से दुर्योधन को टकरावे पे -
"जो सब देखीती पांचाली, अपने छज्जे पे आकें
'अंधे को बेटा अंधा' जो कहकें हँसी ठिलठिलाकें"

जा जान लो के महायुद्ध के बीजा इतई पर गए। चौथो अध्याय 'छल को खेल और पांडव बनबास' अब जा दान लो कि कहतई नई बनत। ऐसो सजीव बरनन के का कहिए। ऐमे द्रौपदी चीरहरन पढ़त गुस्सा आत तो कई जग्घा तरैंया लो भर आत। उते त्रेता में सीता मैया संगे और इते द्वापर में द्रौपती संगे जो सब नें होतो तो सायत कलजुग में बहुओं-बिटिओं के साथ और अत्याचार के रोज-रोज, नए-नए कलंक नें लगते, हर एक निर्भया निर्भय रहकें अपनी जिंदगी की नैया खेती। पे विधि के विधान की बलिहारी, बेटा से बेटी भली होबे पे बी अत्याचार की सिकार हो रई हे नारी।
पांचवें अध्याय में पांडवों के अग्यातवास में कीचक वध वरनन पढ़तई बनत। फिर का खूब घालो उत्तरा अभिमन्यु रो ब्याव। अग्सातवास खतम होवे पे सोच-विचार --
"नई मानें दुर्सोधन तो हम करें युद्ध की तैयारी
काम सांति सें निकर जाए तो काए होय मारामारी"

दुर्योधन तो दुर्योधन, स्वार्थी, हठी, घमंडी। ओने तो दो टूक और साफ - साफ कही, ओहे कवि खरे जी ने अपने बुंदेली बोलन में कछू ई भाँत ढालो -
"उत्तर मिलो पांच गांव की बात भूल पांडव जाएं
बिना युद्ध हम भूमि सुई की नोंक बराबर ना दै पाएं"

आनंदकंद सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्णचंद्र ने बहुतई कोसस करी के युद्ध टल जावे पे दुर्योधन टस से मस नें भओ और तब पाण्डव शिविर में लौट कें किशन जू नें कही -
"कृष्ण गए उपलंब्य ओर बोले दुर्योधन हे अड़ियल
करवाओ सेनाएं कूच सब जतन सांति के भए असफल"

कवि ने युद्ध की तैयारियों को जो बरनन करो वो तो पढ़बे जोग हेई, से सातवे अध्याय में पितामह की अगुआई में महायुद्ध (भाग १) ओर आठवें अध्याय में आखिरी आठ दिन महायुद्ध (भाग २) रो बखान पढ़त उके तो महाराद धृतराष्ट्र खों संजय जी सुनात रए जेहे आदिकवि वेदव्यास नें बखानो ओर प्रथम पूज्य भगवान गनेस जू ने लिखो , पे इते बुंदेली में ओ महायुद्ध पे जब डॉ. एम. एल. खरे ने बुंदेली में कलम चलाई तो कहे बिना परे ने रहाई के ओ महायुद्ध की तिल - तिल की घटना पढ़त - पढ़त आंखन के दोरन सें दिल में समाई । महायुद्ध को बड़ो सटीक हरनन करो हे कवि डॉ. खरे नें । कछू ऐंसो के पढ़तई बनत।
महायुद्ध के बाद नौवें अध्याय में अश्वत्थामा की घनघोर दुष्टता, सजा और श्राप को बरनन सोई नोंनो भओ। फिर पांडवों को हस्तिनापुर आवो, युधिष्ठिर को अनमनोयन, पितामह भीष्म से ग्यान, अश्वमेध, धृतराष्ट्र को गांधारी, कुंती, संजय ओर विदुर संग बनगमन को बरनन करत कविजी नें का खूब कही -
"जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाको अहित कभऊँ नईं होत
दुख के दिन कट जात ओर अंत में जै सच्चे की होत"

समर्थ हस्ताक्षर कविवर डॉ. मुरारीलाल खरे ने बुंदेली में 'हस्तिनापुर की बिथा कथा' बड़ी लगन, निष्ठा और अध्ययन मनन चिंतन के साथ बड़ी मेंहनत सें लिखी। बुंदेली बोली - बानी के प्रेमिन के साथ हुंदेलखंड पे जे उनको जो एक बड़ो और सराहनीय उपकार है । ए किताब खें उठाके जो पढ़वो सुरू करहे वो ५ + १०३४ पद जब पूरे पढ़ लेहे तबई दम लेहे। डूबके पढ़हे तो ओहे ऐसो लगहे जेंसे बो पढ़बे के साथ - साथ ओ घटनाक्रम सें साक्षात्कार कर रहो।

कवि नें 'अपनी बात' में खुदई कही कि उन्हें 'गागर में सागर' भरबे के लानें कई प्रसंग छोड़नें पड़े तो हमें सोई बिस्तार सें बचबे कई प्रसंगन सें मोह त्यागनें पड़ो। बुंदेलों खों बुंदेली में संछेप में महाभारत सहज में उपलब्ध कराबे के लानें डॉ. एम. एल. खरे जी खों बहोतई बहोत बधाइयां तथा उनके स्वस्थ सुखी समृद्ध यशस्वी मंगल भविष्य के लानें मंगलमय सें अनगिनत मंगल कामनाएं। एक शाश्वत, सार्थक ओर अमूल्य रचना के प्रकासन में सहयोग करने ओर बुंदेली में भूमिका लिखाबे के लानें प्यारे भैया आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' खों साधुवाद।
वन्दे।
मोहन शशि
कवि, पत्रकार, सूत्रधार मिलन
चलभाष ९४२४६ ५८९१९

मालवी हाइकु ललिता रावल

मालवी हाइकु
ललिता रावल
*
बिलपत्तर
ठूँठ सावन माय
भोला रिझाय
*
इंद्रधनुष
छटा बिखेरीरियो
अकास माय
*
पँखेरू उड्या
बसेरा पे लौटीर्या
अकास गूंज्यो
*
पूरबी हवा
पच्छम आड़ी लइ
हिलोर लइ
*
रमा-झमा से
सावन सेरो लायो
भादो ग़ैरायो
*
लीलो आकास
सफेद हुइ गया
बूड़ो हुइ ग्यो
*
जेठ को घाम
तपावे आखो गाम
असाड़ पाछे
***
  

माहिया इसरो

माहिया
*
सेविन जी न घबराना
फिर करना कोशिश
चंदा पे उतर जाना।
*
है गर्व बहुत सबको
आँखों का तारा
इसरो है बहुत प्यारा।
*
मंजिल न मिली तो क्या
सही दिशा में पग
रख पा ही लेंगे कल।
*

त्रिपदियाँ

त्रिपदियाँ
जीवन सलिला
*
जीवन जी जिंदा नहीं
जिंदा है वही जीवन
जो करे न पर निंदा।
*
जीवन तो बहाना है
असली नकली परहित
कर हमको जाना है।
*
जीवन है चलना
गिर रुक उठकर बढ़ना
बिन चुक पर्वत चढ़ना।
*
जीवन जी वन में तू
महसूस तभी होगा
क्या मिला न शहरों में?
*
जीवन सलिला बहती
प्रयासों को दे पानी
कुछ साथ नहीं तहती।
*
जीवन में सहारा हो
जब तक न किसी का तू
तब तक न जिया जीवन।
*
संजीव
७९९९५५९६१८