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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

आँख पर मुहावरे-कहावतें:

आँख पर मुहावरे-कहावतें:
संजीव 
*
आँख मारना = इंगित / इशारा करना, छेड़ना। 
मुझे आँख मारते देख गवाह मौन हो गया

आँखें आना = आँखों का रोग होना। 
आँखें आने पर काला चश्मा पहनें

आँखें चुराना = छिपाना। 
उसने समय पर काम नहीं किया इसलिए आँखें चुरा रहा है

आँखें झुकना = शर्म आना। 
वर को देखते ही वधु की आँखें झुक गयीं

आँखें झुकाना = शर्म आना। 
ऐसा काम मत करो कि आँखें झुकाना पड़े

आँखें टकराना = चुनौती देना।
आँखें टकरा रहे हो तो परिणाम भोगने की तैयारी भी रखो

आँखें दिखाना = गुस्से से देखना। 
दुश्मन की क्या मजाल जो हमें आँखें दिखा सके?

आँखें फेरना = अनदेखी करना।
आज के युग में बच्चे बूढ़े माँ-बाप से आँखें फेरने लगे हैं

आँखें बंद होना = मृत्यु होना। 
हृदयाघात होते ही उसकी आँखें बंद हो गयीं

आँखें मिलना = प्यार होना। 
आँखें मिल गयी हैं तो विवाह के पथ पर चल पड़ो 

आँखें मिलाना = प्यार करना। 
आँखें मिलाई हैं तो जिम्मेदारी से मत भागो

आँखों में आँखें डालना = प्यार करना
लैला मजनू की तरह आँखों में ऑंखें डालकर बैठे हैं 

आँखें मुँदना = नींद आना, मर जाना।
लोरी सुनते ही ऑंखें मुँद गयीं।
माँ की आँखें मुँदते ही भाई लड़ने लगे 

आँखें मूँदना = सो जाना, मर जाना। 
उसने थकावट के कारण आँखें मूँद लीं
 
आँखें मूँदना = मर जाना। डॉक्टर इलाज कर पते इसके पहले ही घायल ने आँखें मूँद लीं

आँखें लगना = नींद आ जाना। जैसे ही आँखें लगीं, दरवाज़े की सांकल बज गयी

आँखें लड़ना = प्रेम होना। 
आँखें लड़ गयी हैं तो सबको बता दो

आँखें लड़ाना = प्रेम करना। 
आँखें लड़ाना आसान है, निभाना कठिन

आँखें बिछाना = स्वागत करना। 
मित्र के आगमन पर उसने आँखें बिछा दीं।

आँखों का काँटा = शत्रु 
घुसपैठिए सेना की आँखों का काँटा हैं 

आँखों की किरकिरी = जो अच्छा न लगे। 
आतंकवादी मानव की आँखों की किरकिरी हैं।

आँखों में खून उतरना = अत्यधिक क्रोध आना। 
कसाब को देखते ही जनता की आँखों में खून उतर आया।

आँखों में धूल झोंकना = धोखा देना।
खड़गसिंग बाबा भारती की आँखों में धूल झोंक कर भाग गया। 

आँखों से गिरना = सम्मान समाप्त होना। 
झूठे आश्वासन देकर नेता मतदाताओं की आँखों से गिर गए हैं 

आँखों-आँखों में बात होना = इशारे से बात करना। 
आँखों-आँखों मने बात हुई और दोनों कक्षा से बाहर हो गये
आँखों ही आँखों में इशारा हो गया / बैठे-बैठे जीने का सहारा हो गया
आँखों-आँखों में बात होने दो / मुझको अपनी बाँहों में सोने दो

एक आँख से देखना = समानता का व्यवहार करना
समाजवाद तो नाम मात्र का है, अपने दाल और अन्य दलों के लोगों को कोई भी एक आँख से कहाँ देखता है?

फूटी आँखों न सुहाना = एकदम नापसंद करना 
माली की बेटी रानी को फूटी आँखों न सुहाती थी

अंधो मेँ काना राजा = अयोग्यों में खुद को योग्य बताना
अंधों में काना राजा बनने से योग्यता सिद्ध नहीं होती

कहावत 

अंधे के आगे रोना, अपने नैना खोना = नासमझ/असमर्थ  के सामने अपनीव्यथा कहना
नेताओं से सत्य कहना अंधे के आगे रोना, अपने नैना खोना ही है

आँख का अंधा नाम नैन सुख = नाम के अनुसार गुण न होना। 
उसका नाम तो बहादुर पर छिपकली से डर भी जाता हैं, इसी को कहते हैं आँख का अँधा नाम नैन सुख
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गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

हिंदी की नाट्य परंपरा

हिंदी की नाट्य परंपरा  
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                 हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र से मान्य है। भारतेंदु तथा उनके समकालीन नाटककारों ने जन-जाग्रति हेतु  नाटकों की रचना कर तात्कालिक सामाजिक समस्याओं को नाटकों में अभिव्यक्त किया। अव्यावसायिक साहित्यिक रंगमंच निर्माण का श्रीगणेश आगा हसन ‘अमानत’ लखनवी के ‘इंदर सभा’ नामक गीति-रूपक से मान्य है। 'इंदर सभा’ वस्तुत: रंगमंचीय कृति नहीं थी। इसमें शामियाने के नीचे खुला मंच रहता था। तीन ओर दर्शक बैठते थे, चौथी ओर तख्त पर राजा इंदर का आसन तथा परियों के लिए कुर्सियाँ रखी जाती थीं। साजिंदों के पीछे एक पर्दा लटका दिया जाता था।  पर्दे के पीछे से पात्र प्रवेश करते थे। एक बार आकर मंच पर ही उपस्थित रहते थे,अपने संवाद बोलकर वापस नहीं जाते थे। यह नाट्यरंगन बहुत लोकप्रिय हुआ। अमानत की ‘इंदर सभा’ के अनुकरण पर कई सभाएँ (‘मदारीलाल की इंदर सभा’, ‘दर्याई इंदर सभा’, ‘हवाई इंदर सभा’) आदि बना ली गईं। पारसी नाटक मंडलियों ने भी इन सभाओं और मजलिसे परिस्तान को अपनाया। ये रचनाएँ नाटक नहीं थी और न ही इनसे हिंदी का रंगमंच निर्मित हुआ। भारतेंदु इनको 'नाटकाभास' कहते थे। उन्होंने इनकी पैरोडी के रूप में ‘बंदर सभा’ लिखी थी।
                    भारतेंदु से पूर्व हिंदी रंगमंच और नाट्य-रचना के व्यावसायिक तथा अव्यावसायिक साहित्यिक प्रयास तो हुए पर वास्तविक और स्थायी रंगमंच विकसित नहीं हो सका। सन् १८५० ई. से सन् १८६८ ई. तक हिंदी रंगमंच शैशवावस्था में ही था। पारसी व् अन्य व्यावसायिक नाटक मंडलियाँ मई स्थानों में बनाई गईं किंतु उनमें साहित्यिक समझ नहीं थी। फलत: हिंदी रंगमंच का कुछ प्रचार-प्रसार हुआ, कुछ अच्छे नाटककार हिंदी को मिले पर अवसर और परिस्थिति का लाभ नहीं उठाया जा सका था। 

                    भारतेंदु ने संस्कृत-प्राकृत की पूर्ववर्ती भारतीय नाट्य-परंपरा और बँगला की समसामयिक नाट्यधारा के साथ अंग्रेजी प्रभाव-धारा से प्रेरित हो बाँग्ला के विद्यासुंदर' (१८६७) नाटक का हिंदी अनुवाद कर अपनी यात्रा आरंभ की। नियमित रूप से खड़ीबोली में अनेक नाटक लिखकर भारतेंदु ने ही हिंदी नाटक की नींव को सुदृढ़ किया। भारतेंदु के पूर्ववर्ती नाटककारों में भारतेंदु के पिता गोपालचंद रचित 'नहुष' (१८४१) न रीवा नरेश विश्वनाथ सिंह (१८४६-१९११) के बृजभाषा में लिखे गए नाटक 'आनंद रघुनंदन' हिंदी के प्रथम नाटक मान्य हैं।  हिंदी में साहित्यिक रंगमंच और नाट्य-सृजन परंपरा सन् १८६८ ई. में भारतेंदु के नाटक-लेखन और मंचीकरण से आरंभ हुई।। इसके पूर्व पात्रों के प्रवेश-गमन, दृश्य-योजना आदि से युक्त कोई वास्तविक नाटक नहीं रचा गया था। ‘नहुष’ तथा ‘आनंदरघुनंदन’ भी पूर्ण नाटक नहीं थे, न पर्दों और दृश्यों आदि की योजना वाला विकसित रंगमंच ही तब तक निर्मित हुआ था। नाट्यारंगन के अधिकतर प्रयास मुंबई आदि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में ही हुए थे, भाषा हिंदी-उर्दू का मिश्रित खिचड़ी रूप में थी। 

                    ३ अप्रैल सन् १८६८ को शीतलाप्रसाद त्रिपाठी रचित 'जानकी मंगल' नाटक का अभिनय ‘बनारस थियेटर’ में आयोजित था। जिस लड़के को लक्ष्मण का अभिनय करना था वह बीमार पड़ गया।नाट्यायोजन स्थगित किया जाने लगा तो युवा भारतेंदु ने अभिजात्यता की चिंता न कर, एक-डेढ़ घंटे में ही न केवल लक्ष्मण के संवाद अपितु पूरा ‘जानकी मंगल’ नाटक ही याद कर लिया। तब उच्च कुल के लोग अभिनय करना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थे। इसके बाद भारतेंदु ने अभिनय के साथ-साथ नाट्य-सृजन भी आरंभ किया। १८८५ ई. तक अपने स्वल्प और अति व्यस्त जीवन के शेष १७ वर्षों में भारतेंदु ने अनेक नाटकों का सृजन किया, अनेक नाटकों में अभिनय किया, अनेक रंगशालाएँ निर्मित कराईं और रंगमंच को स्थपित कराया। भारतेन्दु ने अनेक लेखकों और रंगकर्मियों को नाट्य-सृजन और अभिनय की प्रेरणा दी। फलत: काशी, प्रयाग, कानपुर आदि में निम्न अव्यावसायिक हिंदी साहित्यिक रंगमंच स्थापित हुए

                    भारतेंदु के ही जीवन काल में स्थापित मुख्य रंग-संस्थाएँ: १. नेशनल थियेटर काशी- ‘अंधेर नगरी’ प्रहसन इस थियेटर के लिए एक ही रात में लिखा गया था।  २. ‘आर्य नाट्यसभा’ प्रयाग- लाला श्रीनिवासदास रचित ‘रंगधीर प्रेममोहिनी’ प्रथम बार अभिनीत हुआ, ३. कानपुर में भारतेन्दु के मित्र प्रतापनारायण मिश्र ने भारतेंदु के ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, ‘सत्य हरिश्चंद्र’, ‘भारत-दुर्दशा’, ‘अंधेर नगरी’ आदि नाटकों का अभिनय कराया। इनके अतिरिक्त बलिया, डुमराँव, लखनऊ आदि उत्तर प्रदेश के कई स्थानों और बिहार प्रदेश में भी हिन्दी रंगमंच और नाट्य-सृजन की दृढ़ परंपरा का निर्माण हुआ।   
                
                    पूर्व में भास, कालीदास, भवभूति, शूद्रक आदि संस्कृत नाटककारों की समृद्ध नाट्य-परम्परा विद्यमान होने पर भी ९ वीं - १० वीं सदी में प्राकृत और अपभ्रंश में भी नाट्य-सृजन वैसा उत्कृष्ट नहीं हुआ। ईसा की 9वीं-10 वीं शताब्दी के बाद संस्कृत नाटक ह्रासोन्मुख हो गया था।  जैसा पूर्ववर्ती संस्कृत-नाट्य-साहित्य था। अत: भारतेन्दु के सामने संस्कृत-प्राकृत की यह पूर्ववर्ती ह्रासगामी परम्परा रही। संस्कृत के मुरारि, राजशेखर, जयदेव आदि की क्रमश: ‘अनर्घराघव’, ‘बालरामायण’, ‘प्रसन्नराघव’ आदि रचनाएँ ही भारतेन्दु तथा उनके सहयोगी लेखकों का आदर्श बनीं। इनमें न कथ्य- या विषय-वस्तु का वह गाम्भीर्य था, जो कालिदास आदि की अमर कृतियों में था, न उन जैसी शैली-शिल्प की श्रेष्ठता थी। यही कारण है कि भारतेंदु-पूर्व हिंदी नाटक निष्प्राण रहा और भारतेंदु ने उसमें सामयिक सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की झलक पैदा कर नवोन्मेष का प्रयास किया, पर उनके प्रयत्नों के बावजूद भारतेंदु कालीन हिंदी नाटक कथ्य और शिल्प की दृष्टि से शैशव काल में ही रहा। सन् १८८५  ई. में भारतेंदु के निधन के पश्चात् वह उत्साह भी मंद पड़ गया। १९ वीं शती के अंतिम दशक में कुछ छुटपुट प्रयास हुए। कई नाटक मंडलियों जैसे ‘श्रीरामलीला नाटक मंडली प्रयाग’, ‘हिंदी नाट्य समिति प्रयाग’, भारतेंदु जी के भतीजों- श्रीकृष्णचंद्र और श्री ब्रजचंद्र -द्वारा काशी में स्थापित ‘श्री भारतेंदु नाटक मंडली’ तथा ‘काशी नागरी नाटक मंडली' आदि में ‘महाराणा प्रताप’, ‘सत्य हरिश्चंद्र’, ‘महाभारत’, ‘सुभद्राहरण’, ‘भीष्मपितामह’, ‘बिल्व मंगल’, ‘संसार स्वप्न’, ‘कलियुग’ आदि अनेक नाटकों का अभिनय हुआ।
                    धन तथा सरकारी-गैरसरकारी प्रोत्साहन के अभाव में कुछ अच्छे रंगमंचानुकूल साहित्यिक नाटकों की रचना हुई। पारसी नाटक कंपनियों के दुष्प्रभाव के सामने यह स्वल्प सत्प्रयास हिंदी-रंगमंच का विशेष विकास न कर सका। तब हिंदी रंगमंच पारसी रंगमंच से विशेष भिन्न और विकसित नहीं था, पर्दों की योजना, दृश्य-विधान और संगी सामान ही होते थे। ध्वनि-यंत्र आदि भी हिंदी रंगमंच के विकास की दिशा में विशेष योग नहीं दे पाए तथापि पारसी नाटक कंपनियों के भ्रष्ट प्रचार को कुछ धक्का लगा तथा कुछ रंगमंचीय हिंदी नाटक प्रकाश में आए। वैज्ञानिक साधन संपन्न घूमनेवाले रंगमंच का विकास १९ वीं शती में नहीं हो सका था।२० वीं शताब्दी के तीसरे दशक में सिनेमा के आगमन ने पारसी रंगमंच को समाप्त कर दिया। अव्यावसायिक रंगमंच इधर-उधर नए रूपों में जीवित रहा। अब हिंदी रंगमंच शिक्षा संस्थाओं तक सीमित होकर बड़े नाटकों की अपेक्षा एकांकियों को अधिक अपनाकर चला। डॉ॰ राम कुमार वर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, सेठ गोविंददास, जगदीशचंद्र माथुर, कमलेश्वर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मोहन राकेश, स्वदेश दीपक, नाग बोडस, हरिकृष्ण प्रेमी आदि ने उपयोगी एकांकी नाटकों/दीर्घ नाटकों की रचना की है। 
                    प्रसाद जी ने उच्चकोटि के साहित्यिक नाटक रचकर हिंदी नाटक साहित्य को समृद्ध किया। कुछ काट-छाँट के साथ प्रसाद जी के प्राय: सभी नाटकों का अभिनय हिन्दी के अव्यावसायिक रंगमंच पर हुआ। जार्ज बर्नार्ड शॉ, इब्सन आदि पाश्चात्य नाटककारों के प्रभाव से उपर्युक्त प्रसादोत्तर आधुनिक नाटककारों ने कुछ बहुत अच्छे रंगमंचीय नाटकों की सृष्टि की। इन नाटककारों के अनेक पूरे नाटक भी रंगमंचों से प्रदर्शित हुए। स्वतंत्रता के पाश्चात् हिंदी रंगमंच के स्थायी निर्माण की दिशा में अनेक सरकारी-गैर-सरकारी प्रयत्न हुए। कई गैर-सरकारी संस्थाओं को रंगमंच की स्थापना के लिए शासन से आर्थिक सहायता मिली है। पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी अभिनय में भाग लेने लगी हैं। स्कूलों-कॉलेजों में कुछ अच्छे नाटकों का अब अच्छा प्रदर्शन होने लगा है। अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से संबद्ध कुछ अच्छे स्थायी रंगमंच बने हैं। थिएटर सेंटर के तत्त्वावधान में दिल्ली, बंबई, कलकत्ता, इलाहाबाद, हैदराबाद, बंगलौर, शांतिनिकेतन आदि स्थानों पर स्थायी रंगमंच स्थापित हैं। इन सर्वभाषायी रंगमंचों पर हिंदी भिखारिणी-सी ही प्रतीत होती है। केंद्र सरकार ने संगीत नाटक अकादमी की स्थापना की है, जिसमें अच्छे नाटककारों और कलाकारों को प्रोत्साहन दिया जाता है।व्यावसायिक रंगमंच के निर्माण के भी पिछले दिनों कुछ प्रयत्न हुए हैं। प्रसिद्ध कलाकार स्वर्गीय पृथ्वीराज कपूर ने कुछ वर्ष हुए पृथ्वी थियेटर की स्थापना की थी। उन्होंने कई नाटक प्रस्तुत किए हैं, जैसे ‘दीवार’, ‘गद्दार’, ‘पठान’, ‘कलाकार’, ‘आहूति’ आदि। धन की हानि उठाकर भी कुछ वर्ष इस कंपनी ने उत्साहपूर्वक अच्छा कार्य किया। इतने प्रयास पर भी बंबई, दिल्ली या किसी जगह हिंदी का स्थायी व्यावसायिक रंगमंच नहीं बन सका है। इस मार्ग में कठिनाइयाँ हैं।
साभार: विकिपीडिया 
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व्यंग्य लेख सलिला

व्यंग्य लेख
दही-हाँडी की मटकी और सर्वोच्च न्यायालय
संजीव
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दही-हाँडी की मटकी बाँधते-फोड़ते और देखकर आनंदित होते आम आदमी के रंग में भंग करने का महान कार्य कर खुद को जनहित के प्रति संवेदनशील दिखानेवाला निर्णय सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज जाने की तरह शांतिप्रिय सनातनधर्मियों के अनुष्ठान में अयाचित और अनावश्यक हस्तक्षेप करने के कदमों की कड़ी है। हाँडी की ऊँचाई उन्हें तोड़ने के प्रयासों को रोमांचक बनाती है। ऊँचाई को प्रतिबंधित करने के निर्णय का आधार, दुर्घटनाओं को बताया गया है। यह कैसे सुनिश्चित किया गया कि निर्धारित ऊँचाई से दुर्घटना नहीं होगी? इस निर्णय की पृष्ठभूमि किसी प्राण-घातक दुर्घटना और जान-जीवन की रक्षा कहा जा रहा है। यदि न्यायालय इतना ही संवेदनशील है तो मुहर्रम में जलते अलावों पर चलने, उन पर कूदने और अपने आप पर घातक शास्त्रों से वार करने की परंपरा हानिहीन कैसे कही जा सकती है? क्या बकरीद पर लाखों बकरों का कत्ल अधिक जघन्य नहीं है? न्यायालय यह जानता नहीं या इसे प्रतिबंधयोग्य मानता नहीं या सनातन धर्मियों को सॉफ्ट टारगेट मानकर उनके धार्मिक अनुष्ठानों में हस्तक्षेप करना अपना जान सिद्ध अधिकार समझता है? सिख जुलूसों में भी शस्त्र तथा युद्ध-कला प्रदर्शनों की परंपरा है जिससे किसी की हताहत होने की संभावना नकारी नहीं जा सकती।
वस्तुत: दही-हाँडी का आयोजन हो या न हो?, हो तो कहाँ हो?, ऊँचाई कितनी हो?, कितने लोग भाग लें?, किस प्रकार मटकी फोड़ें? आदि प्रश्न न्यायालय नहीं प्रशासन हेतु विचार के बिंदु हैं। भारत के न्यायालय बीसों साल से लंबित लाखों वाद प्रकरणों, न्यायाधीशों की कमी, कर्मचारियों में व्यापक भ्रष्टाचार, वकीलों की मनमानी आदि समस्याओं के बोझ तले कराह रहे हैं। दम तोड़ती न्याय व्यवस्था को लेकर सर्वोच्च न्यायाधिपति सार्वजनिक रूप से आँसू बहा चुके हैं। लंबित लाखों मुकदमों में फैसले की जल्दी नहीं है किंतु सनातन धर्मियों के धार्मिक अनुष्ठान से जुड़े मामले में असाधारणशीघ्रता और जन भावनाओं के निरादर का औचित्य समझ से परे है। न्यायालय को आम आदमी की जान की इतनी ही चिंता है तो दीपा कर्माकर द्वारा प्रदर्शित जिम्नास्ट खेल में निहित सर्वाधिक जान का खतरा, अनदेखा कैसे किया जा सकता है? खतरे के कारण ही उसमें सर्वाधिक अंक हैं। क्या न्यायालय उसे भी रोक देगा? क्या पर्वतारोहण और अन्य रोमांचक खेल (एडवेंचर गेम्स) भी बंद किए जाएँ? यथार्थ में यह निर्णय उतना ही गलत है जितना गंभीर अपराधों के बाद भी फिल्म अभिनेताओं को बरी किया जाना। जनता ने न उस फैसले का सम्मान किया, न इसका करेगी।
इस संदर्भ में विचारणीय है कि-
१. विधि निर्माण का दायित्व संसद का है। न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म) अत्यंत ग़ंभीऱ और अपरिहार्य स्थितियों में ही अपेक्षित है। सामान्य प्रकरणों और स्थितियों में इस तरह के निर्णय संसद के अधिकार क्षेत्र में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है।
२. कार्यपालिका का कार्य विधि का पालन करना और कराना है। हर विधि का हर समय, हर स्थिति में शत-प्रतिशत पालन नहीं किया जा सकता। स्थानीय अधिकारियों को व्यावहारिकता और जन-भावनाओं का ध्यान भी रखना होता है। अत:, अन्य आयोजनों की तरह इस संबंध में भी निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय प्रशासन के हाथों में देना समुचित विकल्प होता।
३. न्यायालय की भूमिका सबसे अंत में विधि का पालन न होने पर दोषियों को दण्ड देने मात्र तक सीमित है, जिसमें वह विविध कारणों से असमर्थ हो रहा है। असहनीय अनिर्णीत वाद प्रकरणों का बोझ, न्यायाधीशों की अत्यधिक कमी, वकीलों का अनुत्तरदायित्व और दुराचरण, कर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ती न्याय व्यवस्था खुद में सुधार लाने के स्थान पर अनावश्यक प्रकरणों में नाक घुसेड़ कर अपनी हेठी करा रही है।
मटकी फोड़ने के मामलों में स्वतंत्रता के बाद से अब तक हुई मौतों के आंकड़ों का मिलान, बाढ़ में डूब कर मरनेवालों, दंगों में मरनेवालों, समय पर चिकित्सा न मिलने से मरनेवालों, सरकारी और निजी अस्पतालों में चिकित्सकों के न होने से मरनेवालों के आँकड़ों के साथ किया जाए तो स्थिति स्पष्ट होगी यह अंतर कुछ सौ और कई लाखों का है।
यह धर्म को कानून की दृष्टि से देखने का नहीं, धर्म में कानून के अनुचित और अवांछित हस्तक्षेप का मामला है। धार्मिक यात्राएँ / अनुष्ठान ( शिवरात्रि, राम जन्म, जन्माष्टमी, दशहरा, हरछट, गुरु पूर्णिमा, मुहर्रम, क्रिसमस आदि) जन भावनाओं से जुड़े मामले हैं जिसमें दीर्घकालिक परंपराएँ और लाखों लोगों की भूमिका होती है। प्रशासन को उन्हें नियंत्रित इस प्रकार करना होता है कि भावनाएँ न भड़कें, जन-असंतोष न हो, मानवाधिकार का उल्लंघन न हो। हर जगह प्रशासनिक बल सीमित होता है। यदि न्यायालय घटनास्थल की पृष्भूमि से परिचित हुए बिना कक्ष में बैठकर सबको एक डंडे से हाँकने की कोशिश करेगा तो जनगण के पास कानून की और अधिकारियों के सामने कानून भंग की अनदेखी करने के अलावा कोई चारा शेष न रहेगा। यह स्थिति विधि और शांति पूर्ण व्यवस्था की संकल्पना और क्रियान्वयन दोनों दृष्टियों से घातक होगी।
इस निर्णय का एक पक्ष और भी है। निर्धारित ऊँचाई की मटकी फोड़ने के प्रयास में मौत न होगी क्या न्यायालय इससे संतुष्ट है? यदि मौत होगी तो कौन जवाबदेह होगा? मौत का कारण सिर्फ ऊँचाई कैसे हो सकती है। अपेक्षाकृत कम ऊँचाई की मटकी फोड़ने के प्रयास में दुर्घटना और अधिक ऊँचाई की मटकी बिना दुर्घटना फोड़ने के से स्पष्ट है कि दुर्घटना का कारण ऊँचाई नहीं फोड़नेवालों की दक्षता, कुशलता, सुरक्षा उपकरणों और संसाधनों में कमी होती है। मटकी फोड़ने संबंधी दुर्घटनाएँ न हों, कम से कम हों, कम गंभीर हों तथा दुर्घटना होने पर न्यूनतम हानि हो इसके लिए भिन्न आदेशों और व्यवस्थाओं की आवश्यकता है -
१. मटकी स्थापना हेतु इच्छुक समिति निकट रहवासी नागरिकों की लिखित सहमति सहित आवेदन देकर स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी से अनुमति ले और उसकी लिखित सूचना थाना, अस्पताल, लोक निर्माण विभाग, बिजली विभाग व नगर निगम को देना अनिवार्य हो।
२. मटकी की ऊँचाई समीपस्थ भवनों की ऊँचाई, विद्युत् तारों की ऊँचाई, होर्डिंग्स की स्थिति, अस्पताल जैसे संवेदनशील और शांत स्थलों से दूरी आदि देखकर प्रशासनिक अधिकारियों और स्थानीय जनप्रतिनिधियों की समिति तय करे।
३. तय की गयी ऊँचाई के परिप्रेक्ष्य में अग्नि, विद्युत्, वर्षा, तूफ़ान, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं तथा गिरने की संभावना का पूर्वाकलन कर अग्निशमन यन्त्र, विद्युत् कर्मचारी, श्रमिक, चिकित्साकर्मी आदि की सम्यक और समुचित व्यवस्था हो अथवा व्यवस्थाओं के अनुसार ऊँचाई निर्धारित हो।
४. इन व्यवस्थों को करने में समितियों का भी सहयोग लिया जाए। उन्हें मटकी स्थापना-व्यवस्था पर आ रहे खर्च की आंशिक पूर्ति हेतु भी नियम बनाया जा सकता है। ऐसे नियम हर धर्म, हर सम्प्रदाय, हर पर्व, हर आयोजन के लिये सामान्यत: सामान होने चाहिए ताकि किसी को भेदभाव की शिकायत न हो।
५. ऐसे आयोजनों का बीमा काबरा सामियितों का दायित्व हो ताकि मानवीय नियंत्रण के बाहर दुर्घटना होने पर हताहतों की क्षतिपूर्ति की जा सके।
प्रकरण में उक्त या अन्य तरह के निर्देश देकर न्यायालय अपनी गरिमा, नागरिकों की प्राणरक्षा तथा सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक व्यावहारिकताओं के प्रति संवेदनशील हो सकता था किन्तु वह विफल रहा। यह वास्तव में चिता और चिंतन का विषय है।
समाचार है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवहेलना कर सार्वजनिक रूप से मुम्बई में ४४ फुट ऊँची मटकी बाँधी और फोड़ी गयी। ऐसा अन्य अनेक जगहों पर हुआ होगा और हर वर्ष होगा। पुलिस को नेताओं का संरक्षण करने से फुरसत नहीं है। वह ग़ंभीऱ आपराधिक प्रकरणों की जाँच तो कर नहीं पाती फिर ऐसे प्रकरणों में कोई कार्यवाही कर सके यह संभव नहीं दिखता। इससे आम जान को प्रताड़ना और रिश्वत का शिकार होना होगा। अपवाद स्वरूप कोई मामला न्यायालय में पहुँच भी जाए तो फैसला होने तक किशोर अपराधी वृद्ध हो चुका होगा। अपराधी फिल्म अभिनेता, नेता पुत्र या महिला हुई तब तो उसका छूटना तय है। इस तरह के अनावश्यक और विवादस्पद निर्णय देकर अपनी अवमानना कराने का शौक़ीन न्यायालय आम आदमी में निर्णयों की अवहेलना करने की आदत डाल रहा है जो घातक सिद्ध होगी। बेहतर हो न्यायालय यह निर्णय वापिस ले ले।
***
लेखक संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८
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बुधवार, 5 दिसंबर 2018

नवगीत

एक रचना
*
जुगनू हुए इकट्ठे
सूरज को कहते हैं बौना।
*
शिल्प-माफिया छाती ठोंके,
मुखपोथी कुरुक्षेत्र।
अँधरे पुजते दिव्य चक्षु बन,
गड़े शरम से नेत्र।
खाल शेर की ओढ़ दहाड़े
'चेंपो' गर्दभ-छौना।
जुगनू हुए इकट्ठे
सूरज को कहते हैं बौना।
*
भाव अभावों के ऊँचे हैं,
हुई नंगई फैशन।
पाचक चूर्ण-गोलियाँ गटकें,
कहें न पाया राशन।
'लिव इन' बरसों जिया,
मौज कर कहें 'छला बिन गौना।
*
स्यापा नकली, ताल ठोंकते
मठाधीश षडयंत्री।
शब्द-साधना मान रुदाली
रस भूसे खल तंत्री।
मुँह काला कर गर्वित,
खुद ही कहते लगा डिठौना।
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संजीव
५-१२-२०१८

सोमवार, 3 दिसंबर 2018

छंद सप्तक १

छंद सप्तक १.
*
शुभगति
कुछ तो कहो
चुप मत रहो
करवट बदल-
दुःख मत सहो
*
छवि
बन मनु महान
कर नित्य दान
तू हो न हीन-
निज यश बखान
*
गंग
मत भूल जाना
वादा निभाना
सीकर बहाना
गंगा नहाना
*
दोहा:
उषा गाल पर मल रहा, सूर्य विहँस सिंदूर।
कहे न तुझसे अधिक है, सुंदर कोई हूर।।
*
सोरठा
सलिल-धार में खूब,नृत्य करें रवि-रश्मियाँ।
जा प्राची में डूब, रवि ईर्ष्या से जल मरा।।
*
रोला
संसद में कानून, बना तोड़े खुद नेता।
पालन करे न आप, सीख औरों को देता।।
पाँच साल के बाद, माँगने मत जब आया।
आश्वासन दे दिया, न मत दे उसे छकाया।।
*
कुण्डलिया
बरसाने में श्याम ने, खूब जमाया रंग।
मैया चुप मुस्का रही, गोप-गोपियाँ तंग।।
गोप-गोपियाँ तंग, नहीं नटखट जब आता।
माखन-मिसरी नहीं, किसी को किंचित भाता।।
राधा पूछे "मजा, मिले क्या तरसाने में?"
उत्तर "तूने मजा, लिया था बरसाने में??"
*


समीक्षा: दोहा शतक मंजूषा

कृति चर्चा:
अगरबत्तियों की तरह महकता दोहा साक्षी समय का
डाॅ. प्रभा ब्यौहार
[कृति विवरण: दोहा दोहा नर्मदा, दोहा सलिला निर्मला, दोहा दिव्य दिनेश, संपादक द्वय;  आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. साधना वर्मा, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ प्रत्येक १६०, आवरण पेपरबैक-बहुरंगी, मूल्य क्रमश: २५०रु., २५०रु. व ३०० रु., प्रकाशक समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, संपादक संपर्क salil. sanjiv@gmail.com ]
जायसी का एक कथन हैः  
‘‘जो इतना जलेगा, वह कैसे नहीं महकेगा’’


                  यह उक्ति विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा "शांतिराज पुस्तक माला" के अंतर्गत सद्य
प्रकाशित दोहा संकलनत्रयी दोहा शतक मंजूषा भाग १ "दोहा-दोहा नर्मदा", भाग २ "दोहा सलिला निर्मला" तथा भाग ३ "दोहा दीप्त दिनेश" पर पूर्णत: चरितार्थ होती है। इस महत्वपूर्ण दोहा त्रयी को प्रकाशित किया है संस्कारधानी जबलपुर में साहित्यिक गतिविधियों और हिंदी-लेखन को प्रोत्साहित कर रहे अव्यावसायिक प्रतिष्ठान समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर ने।

                  काव्य की प्रक्रिया मूलतः अत्यंत जटिल हैं सर्वप्रथम भाव बीजों का अंत:करण में स्फुटन फिर भाषा व छंद के माध्यम से ग्राहक अथवा सहृदय तक संप्रेषण और फिर कवि की मनःस्थिति के अनुरूप भोक्ता की मनःस्थिति से एकाकार होकर विभिन्न रसों को निष्पादित करना। इस समूची प्रक्रिया में कवि एक विशिष्ट संवेदनशील व्यक्ति दृष्टिगत होता है, जो काव्य की विविध शैलियों में से अपने अनुरूप किसी एक को चुनता है और उसे नये भाव, नये शब्द देता है।

                  दोहा वह काव्य विधा है जिसमें दोहा का संसार और जीवन के विविध अनुभवों से प्रभावित होकर काव्य पंक्तियाॅं कह उठता है जहाॅं तक उपर्युक्त दोहा संकलनों का प्रश्न है। संपादक संजीव वर्मा 'सलिल' ने

‘‘दोहा गाथा सनातन, शारद-कृपा पुनीत।
साॅंची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत।।’’

                  कहकर दोहों की परिभाषा, इतिहास, विस्तार पर गहन विवेचन प्रत्येक संकलन में किया है कि यह वह दोहा विधा है जो ‘‘जनगण-मन को मुग्ध कर, करे हृदय पर राज’’।  दोहों का विस्तृत इतिहास है अपभ्रंश से क्रमश: विविध बोलियों में होते हुए दोहा हिंदी के हृदय में आ विराजा है। चंदबरदाई, अमीर खुसरो, कबीर, तुलसीदास आदि के दोहे तो ग्रामीण अंचल के निरक्षरों के मुख से भी सुने जा सकते हैं।

                  उपर्युक्त तीन दोहा संकलनों में से प्रत्येक में १५-१५ दोहाकारों के १००-१०० दोहे हैं जो प्रत्येक दोहाकार का प्रतिनिधित्व करते है विधागत समानता के अतिरिक्त दोहों में अन्वति और बिंब योजना कई स्थानों पर दर्शनीय है। उदाहरणार्थ- 
अ. खेत से डोली चली, खलिहानों की ओर।
पिता गेह से ज्यों बिदा, पिया गेह की ओर।। -अखिलेश  खरे

ब. किरणों की है पालकी, सूरज बना कहार।
ऊषा कुलवधु सी लगे, धूप लगे गुलनार।। -जयप्रकाश श्रीवास्तव

स. झूमी फसलें खेत में, महक रही है बौर।
अमराई संसद बनी, है तोतों का शोर।। -अविनाश  ब्यौहार

द. अलस्सुबह उठ चाय में, घोला प्यार-दुलार। 
है! विधाता माँगते, प्रियतम क्यों अखबार।।  

                  इन दोहों का विष्लेषण करने पर मुख्यतः तीन विषय दृष्टिगत होते है-' प्रकृति या पर्यावरण के प्रति आकर्षण, जीवन और परिवार के प्रति रागात्मक रुझान जो सुखद संकेत देते हैं तथा राजनैतिक जीवन में ह्रास होते नैतिक मूल्य, निश्चय ही प्रकृति सौंदर्य को मनुष्य ही नष्ट कर रहा है और इसलिए "आदम के हाथों हुआ, है जंगल लहू लुहान"। और आवश्यक है-
"रक्षित कर वातावरण, बचा जीव अस्तित्व।
टालो महाविनाश को, रहे मनुज स्वामित्व।।"

                  परिवर्तित मूल्य, तकनालाॅजी के हस्तक्षेप से संबंधों का बिखराव हुआ, परिवार टूट रहें है मानों किसी ने जीवन में नागफनी बो दी है। अविनाश कह उठते हैः
"पत्थर का यह शहर है, यहाॅं बुतों का वास।"
                  राजनीति का क्षेत्र तो मूलहीनता के उस स्तर पर है कि प्रजातंत्र की अवधारणा ही नष्ट हो रही है। उपर्युक्त संकलनों के प्रत्येक दोहाकार के दोहे का अर्थ पूर्ण संप्रेषण करते है। छंद और भाषा कथ्य को स्पष्ट करते हैं। अभिधा, लक्षणा का अधिक प्रयोग है, व्यंजना का कम प्रयोग संभवतः कथन की स्पष्टता के लिए है।
                  दोहा त्रयी में लगभग दो हजार वर्षों की दोहा-यात्रा के पड़ाव, दोहा के तत्व, उच्चार नियम, रस प्रक्रिया, दोहा की विशेषताएँ, विविध रसों के दोहे, भाषा गीत, विविध भाषा-बोलिओं के दोहे, और गीत सम्राट नीरज, राजनेता-कवि अटल जी तथा महीयसी महादेवी जी को स्मरण कर संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी ने वस्तुत: अपने संपादन नैपुण्य का परिचय दिया है। 
  
                  कुल मिलाकर दोहे प्रभावित करते हैं और निश्चय ही ४५ दोहाकार अगरबत्ती की काड़ियों की तरह देर तक महकते रहेंगे।
*****
संपर्क: खण्डेलवाल काॅम्पलेक्स, महानद्दा जबलपुर

रविवार, 2 दिसंबर 2018

अभियान साप्ताहिक कार्यक्रम

                          ॐ     
          - : विश्ववाणी हिंदी संस्थान : -
    अभियान - समन्वय प्रकाशन जबलपुर  
   ✆ संपर्क: ७९९९५५९६१८, ९६६९२५१३१९  
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 । जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार।  
  । सलिल बचा पौधे लगा दें पुस्तक उपहार 
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मार्गदर्शन: आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, ज्ञानरंजन,
डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, पूर्णिमा बर्मन, आशा वर्मा, 
डॉ. निशा तिवारी, बिपिन बिहारी ब्योहार।  
परामर्श मंडल: अमरेंद्र नारायण, वीणा तिवारी, 
पूर्णेन्दु कुमार सिंह, गुरु सक्सेना, डॉ. प्रभा ब्योहार। 
संयोजक/संचालक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
अध्यक्ष: बसंत शर्मा।  
उपाध्यक्ष: जयप्रकाश श्रीवास्तव, सुरेश तन्मय।  
सचिव: मिथिलेश बड़गैया। 
मुख्यालय सचिव: छाया सक्सेना।   
संगठन सचिव: शोभित वर्मा।   
प्रचार सचिव: इंद्र श्रीवास्तव, अविनाश ब्योहार। 
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☘☯☸☼⚙⚛⚝✆✇✍☏✑✪✫✿❀✽✱❋❄
   । हिंदी आटा माढ़िए, देशज मोयन डाल।  
  सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल   
----------------------------------------------------- 
समय:  ६ बजे - १८ बजे तक। 
सोमवार: रस, छंद, अलंकार, मुक्तक काव्य, 
मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) आदि।      
प्रबंधक: मिथलेश बड़गैयाँ।       
प्रभारी: छाया सक्सेना, मीना भट्ट, छगनलाल गर्ग सिरोही।    
समीक्षक: अमरनाथ लखनऊ, प्रेमबिहारी मिश्र दिल्ली। 
-------------------------------------------------------
मंगलवार: कहानी, लघुकथा, विज्ञान कथा, बाल 
कथा, लोककथा, बोधकथा, पर्वकथा, उपन्यास आदि। 
प्रबंधक: राजकुमार महोबिआ उमरिया। 
प्रभारी: छाया त्रिवेदी, राजलक्ष्मी शिवहरे। 
समीक्षक: चंद्रकांता अग्निहोत्री पंचकूला, कांता रॉय भोपाल। 
----------------------------------------------------------- 
बुधवार:  गीत, नवगीत, बालगीत, राष्ट्रीय गीत, 
लोकगीत, प्रबंधकाव्य, खंडकाव्य, महाकाव्य आदि।  
प्रबंधक: अविनाश ब्योहार। 
प्रभारी: जयप्रकाश श्रीवास्तव, सुरेश तन्मय, अनिल 
मिश्र उमरिया । 
समीक्षक: संजीव तनहा एटा, राजा अवस्थी कटनी। 
------------------------------------------------------------                             
गुरुवार: व्यंग्य लेख, निबंध, रिपोर्ताज, साक्षात्कार, 
नाटक, संस्मरण, पर्यटन वृत्त, जीवनी, पत्र साहित्य आदि।  
प्रबंधक: विवेकरंजन श्रीवास्तव।  
प्रभारी:  रमेश श्रीवास्तव 'चातक' सिवनी, रामकुमार 
चतुर्वेदी सिवनी।  
समीक्षक: राजेंद्र वर्मा लखनऊ, प्रतुल श्रीवास्तव। 
----------------------------------------------------------- 
शुक्रवार: पुस्तक-पत्रिका- अंतर्जाल समूह चर्चा,
भाषा, व्याकरण, मुहावरे, सुभाषित, तकनीकी लेख।  
प्रबंधक: प्रो. शोभित वर्मा। 
प्रभारी; सुरेंद्र सिंह पवार, रामकुमार वर्मा।          
समीक्षक: डॉ. अनामिका तिवारी, अवनीश 'अकेला' मेरठ। 
-------------------------------------------------------------------
शनिवार: कविता, क्षणिका, अन्य भाषाओँ के छंद (माहिया, 
लावणी, सॉनेट, हाइकु आदि) 
प्रबंधक: छाया सक्सेना। 
प्रभारी:  विजय बागरी, इंद्रबहादुर श्रीवास्तव, मनोज शुक्ल।   
समीक्षक: देवकीनंदन 'शांत' लखनऊ, गुरु सक्सेना गाडरवारा। 
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रविवार:  संगीत (गायन, वादन), नृत्य, चित्रकला, 
ऑडियो/वीडियो, पर्यावरण, गृह सज्जा, पाक कला आदि। 
प्रबंधक: बसंत शर्मा।   
प्रभारी: शरद भटनागर मेरठ, अखिलेश खरे कटनी, संतोष 
शुक्ल ग्वालियर। 
समीक्षक:  अरुण अर्णव खरे बेंगलुरु।   
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द्विपदि (अश'आर)

आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि  आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
*

पैरोडी- अजीबदास्तां है ये

ई मित्रता पर पैरोडी:
संजीव 'सलिल'
*
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*

चित्रगुप्त

चित्रगुप्त वंदना: १
धन-धन भाग हमारे
*
धन-धन भाग हमारे, प्रभु द्वार पधारे। 
शरणागत को ट्रेन, प्रभु द्वार पधारे....

माटी तन, चंचल अंतर्मन,
पारस हो प्रभु कर दो कंचन।
जनगण-प्राण पुकारे,
प्रभु द्वार पधारे....

प्रीत की रीत सदैव निभाई,
लाज भगत की दौड़ बचाई।
कबहुँ न मन से बिसारें,
प्रभु द्वार पधारे....

मिथ्या जग की तृष्णा-माया,
अक्षय प्रभु की अमृत छाया।
'सलिल' ईश-जय गा रे!
प्रभु द्वार पधारे....

संजीव
७९९९५५९६१८  

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

कुण्डलिया

कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया 
*
बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।।  -आभा सक्सेना 'दूनवी' 

लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।। 
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी। 
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*** 
१.१२.२०१८ 

शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

घनाक्षरी

घनाक्षरी सलिला  
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छंद कवि रचिए।
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए।।
*

विजया घनाक्षरी

घनाक्षरी
*
चलो कुछ काम करो, न केवल नाम धरो,
        उठो जग लक्ष्य वरो, नहीं बिन मौत मरो।
रखो पग रुको नहीं, बढ़ो हँस चुको नहीं,
        बिना लड़ झुको नहीं, तजो मत पीर हरो।।
गिरो उठ आप बढ़ो, स्वप्न नव नित्य गढ़ो,
         थको मत शिखर चढ़ो, विफलता से न डरो।
न अपनों को ठगना, न सपनों को तजना,
         न स्वारथ ही भजना, लोक हित करो तरो।।
***
संजीव ३०.११.२०१८          
       

घनाक्षरी

एक रचना
*
राम कहे राम-राम, सिया कैसे कहें राम?,
                          होंठ रहे मौन थाम, नैना बात कर रहे।
मौन बोलता है आज, न अधूरा रहे काज,
                         लाल गाल लिए लाज, नैना घात कर रहे।।
हेर उर्मिला-लखन, देख द्वंद है सघन,
                         राम-सिया सिया-राम, बोल प्रात कर रहे।
श्रुतिकीर्ति-शत्रुघन, मांडवी भरत हँस,
                         जय-जय सिया-राम मात-तात कर रहे।।
***
संजीव
३०.११.२०१८
  

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

समीक्षा- वतन को नमन

कृति चर्चा
वतन को नमन : पठनीय, मननीय, अनुकरणीय कृति 
प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा 
*
[कृति विवरण- वतन को नमन, राष्ट्रीय काव्य संग्रह, प्रो. सी.बी. एल. श्रीवास्तव 'विदग्ध', आकार डिमाई, आवरण एक रंग, सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १३०, मूल्य १००/-, विकास प्रकाशन, विवेक सदन, नर्मदा गंज, मंडला ४८१६६१, लेखन संपर्क ०७६१ २६६२०५२]
*
                             राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने लिखा है-
"जिसको न निज गौरव तथा निज देश एक अभिमान है
वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है।"
                             नर्मदांचल के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि प्रो. सी.बी. एल. श्रीवास्तव 'विदग्ध' ने देश की नई पीढ़ी को नर-पशु बनने से बचाने के लिए इस कृति का प्रणयन किया है। आदर्श शिक्षक रहे विदग्ध जी ने नेताओं की तरह वक्तव्य देने या तथाकथित समाज सुधारकों की तरह छद्म चिंता विकट करने के स्थान पर बाल, किशोर, तरुण तथा युवा वर्ग के लिए ही नहीं अपितु हर नागरिक में सुप्त राष्ट्रीय राष्ट्र प्रेम की भावधारा को लुप्त होने से बचाकर न केवल व्यक्त अपितु सक्रिय  और निर्णायक बनाने के लिए "वतन को नमन" की रचना तथा प्रकाशन किया है। १३० पृष्ठीय इस काव्य कृति में १०८ राष्ट्रीय भावधारापरक काव्य रचनाएँ हैं। वास्तव में ये रचनाएँ मात्र नहीं, राष्ट्रीयता भावधारा के सारस्वत कंठहार में पिरोए गए काव्य पुष्प हैं।

                             हिंदी साहित्य जिन दिनों छायावादी दौर से गुजर रहा था उन्हीं दिनों छायावादी काव्य धारा के समानांतर और उतनी ही शक्तिशाली एक और काव्यधारा भी प्रवाहमान थी। माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्णशर्मा नवीन, सुभद्राकुमारी चौहान आदि इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। इन्होंने राष्ट्रीय और सांस्कृतिक संघर्ष को स्पष्ट और उग्र स्वर में व्यक्त किया है। छायावाद में राष्ट्रीयता का स्वर प्रतीकात्मक रूप में तथा शक्ति और जागरण गीतों के रूप में मिलता है। इसके बजाय माखनलाल चतुर्वेदी अपने वीरव्रती शीर्षक कविता में लिखते हैं- 
"मधुरी वंशी रणभेरी का डंका हो अब। 
नव तरुणाई पर किसको क्या शंका हो अब।" 

                             बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' विप्लव गान की रचना करते हैं- 
एक ओर कायरता काँपे गतानुगति विगलित हो जाए। 
अंधे मूढ़ विचारों की वह अचल शिला विचलित हो जाए। 

                             सुभद्राकुमारी चौहान ने झाँसी की रानी के रूप में पूरा वीरचरित ही लिख दिया - 
जाओ रानी याद करेंगें ये कृतज्ञ भारतवासी। 
तेरा ये बलिदान जगायेगा स्वतंत्रता अविनाशी। 

                           छायावाद की सीमारेखा इस धारा की सीमारेखा नहीं है। इसने पूर्ववर्ती मैथिलीशरण गुप्त और परवर्ती दौर में भी रामधारी सिंह दिनकर के साथ अपना स्वर प्रखर बनाए रखा।

सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है;
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।


                             नर्मदांचल में भारत माता, देश अपना हिन्दोस्तां, देश हमारा, अपना भारत, जग का अनुपम रतन, भारत हमारा प्यारा, सींचा था जिसे शहीदों ने, भगवान अब फिर आइए, मेरे देश के लिए, जब बीती यादें आती हैं, भारत की वंदना में, कहीं गाँधीका पैगाम नहीं दिखता, सद्भावना और प्यार का संसार चाहिए, आज जरूरत है भारत को, तब और अब, हमारे देश की धरती, क्रांति की अमर कहानी, पुनीत पर्व, गणतंत्र दिवस पर, कर सको कुछ अगर, समय है नाज़ुक मिज़ाज़, दृढ़वती संयमी को प्रणाम, हमारा वतन भारत, गणतंत्र हो अमर, हिमालय, तरुण पीढ़ी से, भारत हमें प्यारा, राजनेताओं से, किसी को राह कैसे दे सकेंगे बंद गलियारे, अब चुनावों के बाद, हम कहीं भी हों हमारा एक ही संसार है, बसंत आओ, बंबई बम विस्फोट दिवस पर, स्वतंत्रता दुवास पर भारतीय तरुणों से, भारत बनाम इंडिया, शहीदों की पुकार, कदम तो आगे बढ़े पर, भारत के गुमराह तरुणों से, श्रृंगार नया कर, जो लड़ता है, पौधे तो विश्व शांति के, स्वर आनेवाले तूफ़ान के, देश को चाहिए, विस्थापित पड़ोसियों से, देशवासियों से, दिल की चाहत, उजड़ी हुई बगिया में, वह हिन्दुस्तान हमारा है, आकांक्षा, बढ़ता भ्रष्टाचार, स्वप्न का संसार, मंडला की शहीदी मिट्टी की संकलन बेला में, फ़ौजी जवानों का अभिनन्दन, सेना के जवानों से, भारत की पवन माटी को प्रणाम, हम कहाँ आ गए, हम देश को अपने सही नज़रों से निहारें आदि काव्य रचनाओं  के माध्यम से  विदग्ध जी ने ५ दशकों तक राष्ट्रीय भावधारा का स्वर गुँजाने का कार्य किया। 

                             'वतन को नमन' विदग्ध जी की राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण कविताओं-गीतों का संग्रह है। विदग्ध जी शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हुए नई पीढ़ी को जगाने के लिए राष्ट्रीय भावधारा के प्रमुख तत्वों राष्ट्र महिमा, राष्ट्र गौरव, राष्ट्रीय पर्व, राष्ट्रीय जीवन मूल्य, राष्ट्रीय संघर्ष, राष्ट्रीयता की दृष्टि से महत्वपूर्ण महापुरुष, राष्ट्रीय संकट, कर्तव्य बोध, शहीदों को श्रद्धांजलि, राष्ट्र का नवनिर्माण, नयी पीढ़ी के स्वप्न, राष्ट्र की कमजोरियाँ, राष्ट्र भाषा, राष्ट्र ध्वज, राष्ट्रीय एकता,  राष्ट्रीय सेना, राष्ट्र के शत्रु, रष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्र की प्रगति, राष्ट्र हेतु नागरिकों का कर्तव्य एवं दायित्व आदि को गीतों में ढालकर पाठक को प्रेरित करने में पूरी तरह सफल हुए हैं। भारत का गौरव गान करते हुए वे कहते हैं- 
हिमगिरि शोभित, सागर सेवित, सुखदा, गुणमय, गरिमावाली। 
शस्य-श्यामला शांतिदायिनी, परम विशाला वैभवशाली।।
ममतामयी अतुल महिमामय, सरलहृदय मृदु ग्रामवासिनी। 
आध्यात्मिक सन्देशवाहिनी, अखिल विश्व मैत्री प्रसारिणी।।
प्रकृत पवन पुण्य पुरातन, सतत नीति-नय-नेह प्रकाशिनि। 
सत्य बंधुता समता करुणा, स्वतन्त्रता शुचिता अभिलाषिणी।।
ज्ञानमयी, युवबोधदायिनी, बहुभाषा भाषिणि सन्मानी। 
हम सबकी मी भारत माता, सुसंस्कारदायिनी कल्याणी।। 

                             कहा जाता है 'अग्र' सोची सदा सुखी' अर्थात जो आनेवाले संकट का पूर्वानुमान कर लेता है वह पूर्व तैयारी कर उससे जूझकर विजय पा सकता है- 
सुन पड़ते स्वर मुझे साफ़ आनेवाले तूफ़ान के 
छीने जाते सुख दिन-दिन ईमानदार इंसान के 
                             लगभग २५ वर्ष पूर्व रची गई यह कविता रचना काल की अपेक्षा आज अधिक प्रासंगिक हो गई है। देश के नागरिकों का चरित्र देश की असली ताकत है। सच्चरिते और देशभक्त नागरिक देश को गंभीर से गंभीर संकट से निकाल सकते हैं। विदग्ध जी कहते हैं- 
आज जरूरत है भारत को बस चरित्र निर्माण की 
नहीं किसी नारे आंदोलन की, न किसी अभियान की 

                             देश के युवाओं का आव्हान करते हुए वे उन्हें युग निर्माता बताते हैं- 
हर नए युग के सृजन का भर युवकों ने सम्हाला 
तुम्हारे ही ओज ने रच विश्व का इतिहास डाला 
प्रगति-पथ का अनवरत निर्माण युवकों ने किया है-
क्रांति में भी, शांति में भी, सदा नवजीवन दिया है 

                             देश, उसकी स्वतंत्रता और देशवासियों के रक्षक सेना के रणबांकुरों के प्रति देश की भावनाएं कवि  के माध्यम से अभिव्यक्त हुई हैं- 
तुम पे नाज़ देश को, तुम पे हमें गुमान 
मेरे वतन के फौजियों जांबाज नौजवान 

                             देश के राजनैतिक क्षितिज पर उठ रहे विवादों की निस्सारता को शब्दांकित करते हुए कवि 'क्षमा करो और भूल जाओ' की नीति के अनुसार देश की वंदना में हर देशवासी से स्वर मिलाने का आव्हान करता है- 
बस याद रख वतन को, सब एक साथ मिलकर
भारत की वंदना को, सब एक स्वर से गाओ
समृद्ध जो विरासत तुमको मिली है उसको 
अपने सदाचरण से कल के लिए सजाओ

                             संस्कारधानी जबलपुर राष्ट्रीय भावधारा के इस सशक्त हस्ताक्षर की काव्य साधना से गौरवान्वित है। हिंदी साहित्य के लब्ध प्रतिष्ठ हस्ताक्षर आचार्य संजीव 'सलिल' देश की माटी के गौरवगान करने वाले विदग्ध जी के प्रति अपने मनोभाव इस तरह व्यक्त करते हैं- 
हे विदग्ध! है काव्य दिव्य तव  सलिल-नर्मदा सा पावन 
शब्द-शब्द में अनुगुंजित है देश-प्रेम बादल-सावन 
कविकुल का सम्मान तुम्हीं से, तुम हिंदी की आन हो
समय न तुमको बिसरा सकता, देश भक्ति का गान हो 
चिर वन्दित तव सृजन साधना, चित्रगुप्त कुल-शान हो 
करते हो संजीव युवा को, कायथ-कुल-अभिमान हो 
***
सम्पर्क: प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा, शासकीय मानकुँवरबाई स्वशासी स्नाकोत्तर अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१  

   



बुधवार, 28 नवंबर 2018

लघुकथा- विकल्प

पहली बार मतदान का अवसर पाकर वह खुद को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था। एक प्रश्न परेशान कर रहा था कि किसके पक्ष में मतदान करे? दल की नीति को प्राथमिकता दे या उम्मीदवार के चरित्र को? उसने प्रमुख दलों का घोषणापत्र पढ़े, दूरदर्शन पर प्रवक्ताओं के वक्तव्य सुने, उम्मीदवीरों की शिक्षा, व्यवसाय, संपत्ति और कर-विवरण की जानकारी ली। उसकी जानकारी और निराशा लगातार बढ़ती गई।

सब दलों ने धन और बाहुबल को सच्चरित्रता और योग्यता पर वरीयता दी थी। अधिकांश उम्मीदवारों पर आपराधिक प्रकरण थे और असाधारण संपत्ति वृद्धि हुई थी। किसी उम्मीदवार का जीवनस्तर और जीवनशैली सामान्य मतदाता की तरह नहीं थी।

गहन मन-मंथन के बाद उसने तय कर लिया था कि देश को दिशाहीन उम्मीदवारों के चंगुल से बचाने और राजनैतिक अवसरवादी दलों के शिकंजे से मुक्त रखने का एक ही उपाय है। मात्रों से विमर्श किया तो उनके विचार एक जैसे मिले। उन सबने परिवर्तन के लिए चुन लिया 'नोटा' अर्थात 'कोई नहीं' का विकल्प।
***

एक रचना

नागनाथ साँपनाथ, जोड़ते मिले हों हाथ, मतदान का दिवस, फिर निकट है मानिए। 

चुप रहे आज तक, न रहेंगे अब चुप, ई वी एम से जवाब, दें न बैर ठानिए।।

सारी गंदगी की जड़, दलवाद है 'सलिल', नोटा का बटन चुन,  निज मत बताइए- 

लोकतंत्र जनतंत्र, प्रजातंत्र गणतंत्र, कैदी न दलों का रहे, नव आजादी लाइए।।                                         ***                                                              संजीव, २८-११-२०१८।      http://divyanarmada.blogspot.in/

नवगीत

नवगीत

कहता मैं स्वाधीन
*
संविधान
इस हाथ से
दे, उससे ले छीन।
*
जन ही जनप्रतिनिधि चुने,
देता है अधिकार।
लाद रहा जन पर मगर,
पद का दावेदार।।
शूल बिछाकर
राह में, कहे
फूल लो बीन।
*
समता का वादा करे,
लगा विषमता बाग।
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटता,
रेवड़ी, दूषित राग।।
दो दूनी
बतला रहा हाय!
पाँच या तीन।
*
शिक्षा मिले न एक सी,
अवसर नहीं समान।
जनभाषा ठुकरा रह,
न्यायालय मतिमान।।
नीलामी है
न्याय की
काले कोटाधीन।
*
तब गोरे थे, अब हुए,
शोषक काले लोग।
खुर्द-बुर्द का लग गया,
इनको घातक रोग।।
बजा रहा है
भैंस के, सम्मुख
जनगण बीन।
*
इंग्लिश को तरजीह दे,
हिंदी माँ को भूल।
चंदन फेंका गटर में,
माथे मलता धूल।।
भारत को लिख
इंडिया, कहता
मैं स्वाधीन।
***
संजीव
२८-११-२०१८

मंगलवार, 27 नवंबर 2018

मतदान कर

मुक्तक
*
मतदान कर,  मत दान कर, जो पात्र उसको मत
मिले।
सब जन अगर न पात्र हों, खुल कह, न रखना लब सिले।।
मत व्यक्त कर, मत लोभ-भय से, तू बदलना राय निज-
जन मत डरे, जनमत कहे, जनतंत्र तब फूले-फले।।
*
भाषा न भूषा, जात-नाता-कुल नहीं तुम देखना।
क्या योग्यता,  क्या कार्यक्षमता, मौन रह अवलोकना।।
क्या नीति दल की?, क्या दिशा दे?, देश को यह सोचना-
उसको न चुनना जो न काबिल, चुन न खुद को कोसना।।
*
जो नीति केवल राज करने हेतु हो,  वह त्याज्य है।
जो कर सके कल्याण जन का, बस वही आराध्य है।
जनहित करेगा खाक वह, दल-नीति से जो बाध्य है-
क्या देश-हित में क्या नहीं, आधार सच्चा साध्य है।।
*
शासन-प्रशासन मात्र सेवक, लोक के स्वामी नहीं।
सुविधा बटोरें, भूल जनगण, क्या यही खामी नहीं?
तज सभी भत्ते और वेतन, लोकसेवा कर सके-
जो वही जनप्रतिनिधियों बने, क्यों भरें सब हामी नहीं??
*
संजीव
२७-११-२०१८

मुक्तिका

मुक्तिका
*
ऋतुएँ रहीं सपना जगा।
मनु दे रहा खुद को दगा।।
*
अपना नहीं अपना रहा।
किसका हुआ सपना सगा।।
*
रखना नहीं सिर के तले
तकिया कभी पगले तगा।।
*
कहना नहीं रहना सदा
मन प्रेम में नित ही पगा।।
*
जिससे न हो कुछ वासता
अपना हमें वह ही लगा।।
***
संजीव
२७-११-२०१८