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रविवार, 22 सितंबर 2013

kavita: rivaz -kirti vardhan






सामयिक कविता:
रिवाज़ ---
कीर्ति वर्धन               
रहते थे एक घर में ,परिवार एक साथ,
अकेले रहने का अब चल गया रिवाज़ |

टूटने लगे हैं घर जब से गली गाँव में,
बच्चों के मन से बुजुर्गों का मिट गया लिहाज |

दीवार खिंची आँगन में,मन भी बँट गए,
जब से अलग चूल्हे का चल गया रिवाज |

दीवारें क्या खिंची माँ-बाप बँट गए,
बताने लगे हैं बच्चे अब खर्च का हिसाब |

मुश्किल है आजकल बच्चों को डांटना,
देने लगे हैं बच्चे हर बात का जवाब |

दिखते नहीं हैं बूढों के भी बाल अब सफ़ेद,
लगाने लगे हैं जब से वो बालों में खिजाब |

दौलत की हबस ने "कीर्ति" कैसा खेल खेला,
बदल गया है आजकल हर शख्स का मिजाज |

डॉ अ कीर्तिवर्धन
8265821800

शनिवार, 21 सितंबर 2013

doha salila: anuprasik dohe -sanjiv

दोहा सलिला:
कुछ दोहे अनुप्रास के
संजीव
*

अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
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geet: dr. buddhinath mishra

गीत: 
हिन्दी अधिकारी
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र  
(ओएनजीसी के हिन्दी अधिकारी रह चुके डॉ. मिश्र ने हिन्दी अधिकारियों की पीड़ा और समस्याओं को महसूस कर यह सार्वकालिक गीत  है)
*
पीर बवर्ची भिश्ती खर हैं, कहने को हम भी अफ़सर हैं।
सौ-सौ प्रश्नों की बौछारें, एक अकेले हम उत्तर हैं।

इसके आगे, उसके आगे
दफ़्तर में जिस-तिस के आगे
कदमताल करते रहने को 
आदेशित हैं हमी अभागे
तनकर खड़ा नहीं हो पाये, सजदे में कट गयी उमर है।

यों दधीचि की हैं सन्तानें
रीढ़ नहीं है अपने तन में
ऊपर से गाँधी गिरमिटिया
भीतर भगत सिंह हैं मन में
काशी के दादुर भी पंडित, हम तो बस अछूत मगहर हैं।

उल्टी गंगा बहा रहे हैं
नये दौर के नये भगीरथ
जितना दूर चलें दिन भर में
उतना लम्बा हो जाए पथ
हम तो नाग सँपेरे वाले, हम से नहीं किसी को डर है।

सारी प्रगति आँकड़ों तक है
बढ़ता पेट कर्मनाशा का
रोज देखना पड़ता हमको
होता चीर-हरण भाषा का
हर वैतरणी पार कराने, पूँछ गाय की, छूमन्तर हैं।

geet : pratap singh

मेरी पसंद:
गीत 
प्रताप सिंह





इस तिमिर के पार उज्ज्वल रवि-सदन है
रश्मियों का नृत्य, क्रीडा मधुरतम है
अनिल उष्मित है प्रवाहित चहुँ दिशा में
दृष्टि , पथ, उर में भरेगी दिव्य आभा
प्रज्वलित कर एक दीपक तुम चलो तो

इस मरुस्थल पार है उपवन मनोरम
अम्बु-शीतल से भरा अनुपम सरोवर
तरु , लता, बहु भांति के सुरभित सुमन हैं
तृप्त होगी प्यास, छाया, सुरभि होगी
पत्र ही बस एक सिर पर धर चलो तो

इस नदी के पार है विस्तृत किनारा
फिर नहीं कोई भंवर, ना तीक्ष्ण धारा
भय नहीं कोई, नहीं शंका कुशंका
जीर्णता मन की मिटेगी शांति होगी
एक बस पतवार संग लेकर चलो तो

ईश के तुम श्रेष्ठतम कृति, हीनता क्यों
पल रही मन में सघन उद्विग्नता क्यों
हो रहा क्यों आज इतना दग्ध मन है
घिर रहा तम क्यों हृदय में गहनतम
क्यों निराशा खोलती अपने परों को

सैकडों मार्तण्ड का है तेज तुममे
वायु से भी है अधिक बल, वेग तुममे
अग्नि से भी तप्त, उर्जा से भरे तुम
यह धरा, आकाश सब होगा तुम्हारा
उठ खड़े हो, प्राण से निश्चय करो तो

geet: rakesh khandelwal

गीत गुंजन:






रंग भरने से…
 राकेश खंडेलवाल 

रंग भरने से इनकार दिन कर गया
एक भ्रम में बिताते रहे ज़िंदगी
यह न चाहा कभी खुद को पहचानते 
 
मन के आकाश पर भोर से सांझ तक 
कल्पनाएँ नए चित्र रचती रहीं 
तूलिका की सहज थिरकनें थाम कर
कुछ अपेक्षाएं भी साथ बनती रहीं 
रंग भरने से इनकार दिन कर गया
सांझ के साथ धुंधली हुई रेख भी 
और मुरझा के झरती अपेक्षाओं को 
रात सीढी  उतरते रही देखती 
 
हम में निर्णय की क्षमताएं तो थी नहीं 
पर कसौटी स्वयं को रहे मानते 
 
चाहते हैं करें आकलन सत्य का 
बिम्ब दर्पण बने हम दिखाते रहें 
अपने पूर्वाग्रहों  से न होवें ग्रसित 
जो है जैसा  उसे वह बताते रहें 
किन्तु दीवार अपना अहम् बन गया 
जिसके साए में थी दृष्टि  धुंधला गई 
ज्ञान  के गर्व की एक मोटी परत 
निर्णयों पर गिरी धुल सी छा  गई 
 
स्वत्व अपना स्वयं हमने झुठला दिया
ओढ कर इक मुलम्मा चले शान से 
 
जब भी चाहा धरातल पे आयें उतर 
और फिर सत्य का आ  करें  सामना 
तर्क की नीतियों को चढा ताक पर 
कोशिशें कर करें खुद का पहचानना 
पर मुखौटे हमारे चढाये हुए
चाह कर भी न हमसे अलग हो सके 
अपनी जिद पाँव अंगद का बन के जमी 
ये ना संभव हुआ सूत भर हिल सके 
 
ढूँढते रात दिन कब वह आये घड़ी 
मुक्त हो पायें जब अपने अभिमान से
========================== 

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

muktak salila: sanjiv

मुक्तक सलिला:
संजीव
*
प्रभु ने हम पर किया भरोसा, दिया दर्द अनुपम उपहार
धैर्य सहित कर कद्र, न विचलित हों हम, सादर कर स्वीकार
जितनी पीड़ा में खिलता है, जीवन कमल सुरभि पाता-
'सलिल' गौरवान्वित होता है, अन्यों का सुख विहँस निहार 

salil.sanjiv@gmail.com / divyanarmada.blogspot.in

bhakti geet: -sanjiv

भक्ति गीत:
संजीव
*
हे प्रभु दीनानाथ दयानिधि
कृपा करो, हर विघ्न हमारे.
जब-जब पथ में छायें अँधेरे
तब-तब आशा दीप जला रे….
*
हममें तुम हो, तुममें हम हों
अधर हँसें, नैन ना नम हों.
पीर अधीर करे जब देवा!
धीरज-संबल कहबी न कम हों.
आपद-विपदा, संकट में प्रभु!
दे विवेक जो हमें उबारे….
*
अहंकार तज सकें ज्ञान का
हो निशांत, उद्गम विहान का.
हम बेपर पर दिए तुम्हीं ने
साहस दो हरि! नव उड़ान का.
सत-शिव-सुंदर राह दिखाकर
सत-चित-आनंद दर्श दिखा रे ….
*
शब्द ब्रम्ह आराध्य हमारा
अक्षर, क्षर का बना सहारा.
चित्र गुप्त है जो अविनाशी
उसने हो साकार निहारा.
गुप्त चित्र तव अगम, गम्य हो
हो प्रतीत जो जन्म सँवारे ….
*


pitru tarpan (shraddh): SANJIV


लेख
- : पितृ-तर्पण : -
पितृ तर्पण विधि:
पितृ पक्ष की अवधि में मन-वचन तथा कर्म से सात्विक आचरण कर तामसिक वृत्तियों को नियंत्रित कर पूर्वजों के स्मरण तथा ईश-स्मरण की परंपरा है. प्रति दिन पूर्वजों का आव्हान  कर उन्हें जलांजलि तथा निर्धनों को दान देने का प्रावधान है.                 

पितृ पक्ष अर्थात पूर्वजों की स्मृति को समर्पित पखवाड़ा (१५ दिन) भाद्रपद (भादों) माह के कृष्णपक्ष के १५ दिन, श्राद्ध अर्थात श्रृद्धापूर्वक किया गया कार्य। पितृ पक्ष का अंतिम दिन सर्व पितृ अमावस्या या महालय अमावस्या कही जाती है. श्राद्ध कई प्रकार के होते हैं जिनमें प्रमुख एकोदिष्ट, अनावष्टक तथा पार्णव  प्रमुख हैं. एकोदिष्ट श्राद्ध वर्ष में एक दिन नियत तिथि को किया जाता है. सौभाग्यवती स्त्रियों हेतु अनावष्टक श्राद्ध नवमी तिथि को किया जाता है. पितरों हेतु पार्णव श्राद्ध किये जाने का विधान है. 

सामान्य नियम :
गया में किसी भी समय श्राद्ध कर्म का विशेष महत्त्व है-  'गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं'
पौराणिक कथा है राजा भागीरथ अपने अभिशप्त पूर्वजों की मुक्ति हेतु स्वर्ग से गंगा को धरा पर लाये थे.  
पितृ पक्ष में किसी भी शुभ कार्य के श्री गणेश या संपादन का निषेध है. 
तर्पण विधि TARPAN  vidhi :  

आवाहन Awahan:

दोनों हाथों की अनामिका (छोटी तथा बड़ी उँगलियों के बीच की ऊँगली, ring finger) में कुश (एक प्रकार की घास) की पवित्री (ऊँगली में लपेटकर दोनों सिरे ऐंठकर अँगूठी की तरह छल्ला) पहनकर, बायें कंधे पर सफेद वस्त्र डालकर  दोनों हाथ जोड़कर अपने पूर्वजों को निम्न मन्त्र से आमंत्रित करें-
 First wear pavitree (ring of kushaa- e typa of grass) in ring fingers of both the hands and place a whitk cloth piece on right shoulder. Now invite (call) your ancestor’s spirit by praying (fold your hand) through this mantra: 
  'ॐ आगच्छन्तु मे पितर एवं ग्रहन्तु जलान्जलिम'  
ॐ हे पितरों! पधारिये तथा जलांजलि ग्रहण कीजिए।  
  “Om Aagachchantu Me Pitar Eam Grihanantu Jalaanjalim.” 
'OM! my forefathers! please arrive and accept my offeringa with holy water

तर्पण:  जल करें  Tarpan (offer Water)

किसी पवित्र नदी, तालाब, झील या अन्य स्रोत (गंगा / नर्मदा जल पवित्रतम माने गए हैं) के शुद्ध जल में थोडा सा दूध, तिल तथा जवा मिलाकर बनाया गया तिलोदक निम्न में से प्रत्येक को 3 बार क्रमशः पूर्व, उत्तर तथा दक्षिण दिशाओं में जलांजलि अर्पित करें।
 Now offer water taken from any natural source river, tank, lake etc.( Ganga / narmada Jal considered most pious) mixed with little milk, java & Til  : 3 times for each one in east, north & south directions.


पिता हेतु  For Father: 
 (गोत्र नाम) गोत्रे अस्मतपिता पिता का नाम ................ शर्मा वसुरूपस्त्तृप्यतमिदं तिलोदकम (गंगा/नर्मदा जलं वा) तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः तस्मै स्वधा नमः।

 ........... गोत्र के मेरे पिता श्री ............. वसुरूप में तिल तथा पवित्र जल ग्रहण कर तृप्त हों।
तस्मै स्वधा नमः तस्मै स्वधा नमः तस्मै स्वधा नमः।

“gotra name  Gotrah Asmat Pita (mine father) name of father  ........ Sharma Vasuroopastripyatamidam Tilodakam (Ganga Jalam Vaa) Tasmey Swadha Namah, Tasmey Swadha Namah, Tasmey Swadha Namah.”
 

Tilodakam: Use water mixed with milk java & Til ( water taken fromGanga / narmada rivers cosidered best) Tasmey Swadha Namah recite 3 times while leaving (offering) water from hand
  
pitamah (dada / babba) hetu To Grand Father:  

उक्त में अस्मत्पिता के स्थान पर अस्मत्पितामह पढ़ें  Replace AsmatPita with Asmatpitamah वसुरूपस्त्तृप्यतमिदं के स्थान पर रूद्ररूपस्त्तृप्यतमिदं पढ़ें Replace Vasuroopastripyatamidam with Rudraroopastripyatamidam पिता के नाम के स्थान पर पितामह  का नाम लें Replace Father’s name  with Grand Father’s Name 


माता हेतु  तर्पण Tarpan to Mother



(गोत्र नाम) गोत्रे अस्मन्माता माता का नाम देवी वसुरूपास्त्तृप्यतमिदं तिलोदकम (गंगा/नर्मदा जलं वा) तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः तस्मै स्वधा नमः।

 ........... गोत्र की मेरी माता श्रीमती ....... देवी वसुरूप में तिल तथा पवित्र जल ग्रहण कर तृप्त हों। तस्मै स्वधा नमः तस्मै स्वधा नमः तस्मै स्वधा नमः।

“AmukGotraa Asmnamata AmukiDevi Vasuroopaa Tripyatamidam Tilodakam Tasmey Swadha Namah, Tasmey Swadha Namah, Tasmey Swadha Namah.”

निस्संदेह मन्त्र श्रद्धा अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ माध्यम हैं किन्तु भावना, सम्मान तथा अनुभूति अन्यतम हैं। 

 It is true that mantra is a great medium for pray and offerings. But love, attachment, feelings, sentiments, emotions, regards, Bhawana is a prime not mantras.


पितृ विसर्जन दिवस: आश्विन पितृ पक्ष अमावस्या सोमवार 15 अक्टूबर 2012 
Pitra Visarjan day:Ashwin Pitra Paksha Amvasya: Mon, 15 Oct 2012

जलांजलि पूर्व दिशा में 16 बार, उत्तर दिशा में 7 बार तथा दक्षिण दिशा में 14 बार अर्पित करें  offer jalanjali (take tilodikam in both hands joined and leave graduaalee on earth or in some vassel) 16 times in east, 7 times in north & 14 times in south.                                            
   ______________________________________________________________________________
संक्षिप्त पितृ तर्पण विधि:
 पितरोंका तर्पण करनेके पूर्व इस मन्त्र से हाथ जोडकर प्रथम उनका आवाहन करे -
ॐ आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्णन्तु जलान्जलिम ।

अब तिलके साथ तीन-तीन जलान्जलियां दें - (पिता के लिये) अमुकगोत्रः अस्मत्पिता अमुक (नाम) शर्मा वसुरूपस्तृप्यतामिदं तिलोदकं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः । (माता के लिये) अमुकगोत्रा अस्मन्माता अमुकी (नाम) देवी वसुरूपा तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्यै स्वधा नमः, तस्यै स्वधा नमः, तस्यै स्वधा नमः । जलांजलि पूर्व दिशा में 16 बार, उत्तर दिशा में 7 बार तथा दक्षिण दिशा में 14 बार अर्पित करें  offer jalanjali (take tilodikam in both hands joined and leave graduaalee on earth or in some vassel) 16 times in east, 7 times in north & 14 times in south.
''ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्यः धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्''

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

doha salila: sanjiv

:दोहा सलिला :
गले मिले दोहा-यमक
संजीव
*
चंद चंद तारों सहित, करे मौन गुणगान
रजनी के सौंदर्य का, जब तक हो न विहान
*
जहाँ पनाह मिले वहीं, बस बन जहाँपनाह
स्नेह-सलिल का आचमन, देता शांति अथाह
*
स्वर मधु बाला चन्द्र सा, नेह नर्मदा-हास
मधुबाला बिन चित्रपट, है श्रीहीन उदास
*
स्वर-सरगम की लता का,प्रमुदित कुसुम अमोल
खान मधुरता की लता, कौन सके यश तौल
*
भेज-पाया, खा-हँसा, है प्रियतम सन्देश
सफलकाम प्रियतमा ने, हुलस गहा सन्देश
*
गुमसुम थे परदेश में, चहक रहे आ देश
अब तक पाते ही रहे, अब देते आदेश
*
पीर पीर सह कर रहा, धीरज का विनिवेश
घटे न पूँजी क्षमा की, रखता ध्यान विशेष
*
माया-ममता रूप धर, मोह मोहता खूब
माया-ममता सियासत, करे स्वार्थ में डूब
*
जी वन में जाने तभी, तू जीवन का मोल
घर में जी लेते सभी, बोल न ऊँचे बोल
*
विक्रम जब गाने लगा, बिसरा लय बेताल
काँधे से उतरा तुरत, भाग गया बेताल
*

सोमवार, 16 सितंबर 2013

hasya kavita PAKODA s.n. sharma

हास्य रचना
एस.एन.शर्मा कमल


*
गंगाराम गए ससुराल
आवभगत से हुए निहाल
      बन कर आए गरम पकौडे
      खाए छक कर एक न छोडे 
खा कर चहके गंगाराम 
सासू जी इसका क्या नाम 
       अच्छे लगे और लो थोड़े 
       लल्ला इसका नाम पकौडे 
गद गद लौटे गंगाराम
घर पहुंचे तो भूले नाम
        हुए भुलक्कड़पन से बोर
        पत्नी पर फिर डाला जोर
भागवान तू वही बाना दे
जो खाए ससुराल खिला दे
        बेचारी कुछ समझ न पाई
       फिर बोली जिद से खिसियाई
अरे पहेली नहीं बुझाओ
जो खाया सो नाम बताओ
       गंगाराम को आया गुस्सा
       खीँच धर दिया नाक पे मुक्का
गुस्सा उतरा लगे मनाने 
तब पत्नी ने मारे ताने
         ऐसी भी मेरी क्या गलती
         तुमने नाक पकौड़ा कर दी
बोला अरे यही खाया था
पहले क्यों नहीं बताया था
          सीधे से गर बना खिलाती
          नाक पकौड़ा क्यों हो जाती  ?
sn Sharma via yahoogroups.com 

रविवार, 15 सितंबर 2013

article: HINDI - pushp lata chaswal

विशेष आअलेख:
हिन्दी भाषा की मानकता पर सांस्कृतिक प्रभाव  
पुष्प लता चसवाल 
*
भाषा भावों और विचारों की वाहक होती है जिसके माध्यम से मनुष्य परस्पर व्यवहार करने में सक्षम होते हैं। मानव द्वारा संचालित सृष्टि के सभी कार्यों में भाषा की भूमिका सर्वोत्तम मानी गई है और यह एक आधारभूत सच्चाई है कि जिस भी भाषा को मनुष्य अपने परिवेश से सहज रूप में अपना लेता है वह कोई जन्मजात प्रवृति नहीं होती और न ही उसके या उसके तत्कालीन जनसमुदाय द्वारा रची गई भाषा होती है, वह भाषा तो युग-युगान्तरों से जन समूहों के सांस्कृतिक व सभ्याचारिक सन्दर्भों से निर्मित होती है और उस समाज के विकास के साथ-साथ ही विकसित होती जाती है। यही कारण है कि जो समाज जितना अधिक विकसित होता है उस समाज की भाषा उतनी ही उन्नत होती है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि किसी समाज के विकास की पहचान उसकी भाषा से की जा सकती है।

वस्तुतः संस्कृति भाषा के विकास का मूलाधार होती है और फिर यही भाषा संस्कृति का संरक्षण एवं संवर्धन करती है। इसलिए भाषा और संस्कृति का परस्पर गहरा सम्बन्ध माना जाता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति बहुत प्राचीन एवं सनातन है और संस्कृत भाषा इसकी मूलभाषा है। देवनागरी लिपि में रचित इस भाषा का विधान वैज्ञानिक पद्धति युक्त व्यवस्था पर आधारित है। भाषा का भौतिक आधार ध्वनि होता है। हिंदी भाषा की ध्वनियों का प्राचीनतम रूप वैदिक ध्वनि समूह है, जिन्हें वर्ण या अक्षर कहते हैं। संस्कृत के व्याकरणकार पाणिनी ने वैदिक ध्वनियों की संख्या ६३ या ६४ बताई है जिनमें से ५९ स्वर एवं व्यंजन ध्वनियाँ हिन्दी में भी आती हैं - इन में पर्याप्त ध्वनियाँ वैदिक हैं। हिन्दी भाषा का विकास संस्कृत से हुआ है और इसकी पुरातन विकास धारा वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत से पाली, पाली से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और शौरसेनी अपभ्रंश से हिन्दी भाषा के विकास की मानी जाती है।

हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है जो ध्वनि प्रधान हैं। इसे विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक, सरल एवं सुबोध भाषा माना गया है क्योंकि इसमें सूक्ष्म-सी ध्वनि भेद होने पर नए ध्वनि चिह्न का प्रावधान किया जाता है, यथा- स, श, ष चाहे समान ध्वनि वर्ण हैं किन्तु थोड़ी-थोड़ी ध्वनि में भिन्नता आने पर ही इनके वर्णों के आकार में अन्तर आ जाता है।

हिन्दी की विकास यात्रा में कई स्थानीय समृद्ध बोलियों का योगदान रहा है, जिन्हें वर्तमान हिंदी की सहयोगी भाषाओं के रूप में भी जाना जाता है।

वस्तुतः हिंदी भाषा के संवर्धन में गंगा-जमुनी सभ्यता की झलक विविध रूपों में दिखाई पड़ती है। इसका उत्कृष्ट साहित्य इसी गंगा-जमुनी संस्कृति की देन है। इसके प्राचीन ग्रंथ रामचरितमानस, पद्मावत, सूरसागर कबीर दोहावली जैसे भक्तिकालीन काव्य की उपादेयता एवं प्रसिद्धी आज भी जन-जन के हृदय पटल पर अंकित है, बिहारी, केशव, तथा अष्टछाप या अन्य कवियों की रचनाएं चाहे अवधी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी या खड़ी बोली में ही क्यों न रची गई हों इन सभी में गंगा-जमुनी सभ्यता की विविध छाप-छवियाँ अंकित हैं। यही कारण हैं कि आज की हिन्दी की प्रारम्भिक अवस्था खड़ी बोली को विद्वानों ने हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, वर्नाक्युलर आदि नामों से अभिहित किया। देखा जाए तो ‘खड़ी बोली’ का विकास जन-जीवन के सरोकारों को साहित्य में विषय-वस्तु के रूप में व्यक्त करने के साथ हुआ जो आगे चल कर आधुनिक हिन्दी के रूप में विकसित हुआ। ‘खड़ी बोली’ को विद्वानों ने अनेक रूपों में अभिहित किया है - हिन्दी भाषा-शास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी इसे ऐसी भाषा मानते हैं जो आवश्यकतानुसार स्थिति से खड़ी हुई थी। कामता प्रसाद गुरु 'खड़ी' का अर्थ कर्कश भाषा के रूप में और किशोरी दास वाजपेयी 'खड़ी पाई' होने के कारण खड़ी बोली मानते हैं। गिल्क्राईस्ट ने इसकी 'खड़ी' की अपेक्षा 'खरी' नाम से पहचान करवाई जिसका अर्थ उन्होंने 'परिनिष्ठित' अथवा 'मानक' भाषा के रूप में लिया। कुछ अन्य विद्वान 'खड़ी बोली,' को 'खरी बोली' कहते हैं जिसका अभिप्रायः 'शुद्ध बोली' से है तो कुछ इसे 'खड़ी हुई' बोली मानते हैं यानी 'स्टैंडिंग' -'स्टैण्डर्ड' अथवा 'मानक' भाषा, जबकि भोलानाथ तिवारी ने 'खड़ी बोली' को दो अर्थों में व्यक्त किया है- एक तो साहित्यिक हिन्दी जिस में आज का सारा साहित्यिक रूप आ जाता है और दूसरी दिल्ली, मेरठ के आस-पास की भाषा।(भोला नाथ तिवारी, मानक हिन्दी का स्वरूप, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली)  

ऐसे में जब हिन्दी के उद्भव और विकास की यात्रा पर विचार करते हैं तो इसके विकास में भारतवर्ष के अधिकांश क्षेत्रों की स्थानीय भाषाओं का योगदान दिखाई पड़ता है, जिसे सर्वप्रथम डा. ग्रियर्सन ने हिन्दी भाषा की तीन शाखाओं के रूप में वर्गीकृत किया है - पहली: बहिरंग शाखा जिसमें पश्चिमी समुदाय की भाषाएं सिन्धी-लहंदा, पूर्वी समुदाय की उड़िया, बिहारी, बंगला, असमिया और दक्षिणी समुदाय की मैथिली भाषाएँ आती हैं। दूसरी: मध्य देशीय शाखा में मध्यवर्ती समुदाय की पूर्वी हिन्दी। और, तीसरी: अन्तरंग शाखा के केन्द्रीय समुदाय की पश्चिमी हिन्दी समुदाय में, पंजाबी, गुजराती, भीली, राजस्थानी, खानदेशी तथा पहाड़ी समुदाय में पूर्वी पहाड़ी या नेपाली, मध्य पहाड़ी, पश्चिमी पहाड़ी भाषाएँ सम्मिलित हैं। ये सभी भाषाएँ हिन्दी की सहयोगी व सहोदर भाषाएँ हैं जिनका प्रभाव हिन्दी की ध्वनियों पर प्रचुर मात्रा में पड़ता रहा है। हिन्दी भाषा-शास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी ने भी इसे उदीच्य (उत्तरी) भाषाएँ, प्रतीच्य (पश्चिमी) भाषाएँ, मध्य देशीय भाषाएँ, प्राच्य (पूर्वी) भाषाएँ, दक्षिणात्य भाषाओं में वर्गीकृत किया जो तात्विक दृष्टि से डा. ग्रियर्सन के वर्गीकरण के समान ही प्रतीत होता है।

आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने हिन्दी का प्रारम्भ १८८३ ई. के आस पास 'अमीर खुसरो' के साहित्य से माना है जिसमें सरल भाषा में तत्कालीन जन-जीवन का प्रतिपादन काव्य द्वारा किया गया है। जबकि डा. राम कुमार वर्मा हिन्दी के विकास काल का आरम्भ गोरख नाथ की काव्य रचनाओं के साथ मानते हैं। उनका मानना है कि खड़ीबोली जनपदीय भाषा का परिष्कृत रूप होने के कारण इसका विकास काल आर्य भाषा काल से ही माना जाता है जब नाथ पंथियों की भाषा में नागर अपभ्रंश तथा ब्रज भाषा का समावेश मिलाता है। (डा. राम कुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास,२८) यथा -
         “नौ लाख पात्री आगे नाचै पीछे सहज अखाड़ा।
          ऐसे मन ले जोगी खेलै, तब अन्तर बसे भंडारा।।” (गोरख नाथ)
इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग सरहपाद की साधुकड़ी भाषा में भी दृष्टव्य है जहाँ खड़ी बोली के शब्दों व ध्वनियों का प्रयोग स्पष्ट झलकता है,
         “जह मन पवन न संचरइ, रवि शशि नाह पवेश।
          तहि वड चित्त विसाम करू, सरहे कहीअ उवेश॥”(डा. राम कुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास,४३)

खड़ी बोली तत्कालीन राजनैतिक शोषण के विरूद्ध भी खड़ी हुई जान पड़ती है इसकी पुष्टि नाथ काव्य में दिखाई पड़ती है (शिव कुमार शर्मा; हिंदी साहित्य: युग और प्रवृत्तियां;२४), यथा-
      "हिन्दू मुसलमान खुदाई के बन्दे
      हम जोगी न कोई किसी के छन्दे।"
नाथ जोगियों की ऐसी भाषा उनके सबदियों और पदों में व्यक्त हुई है। खड़ीबोली अपने प्रारम्भिक रूप में आदान प्रदान करने वाली सशक्त भाषा बन कर उभरी जिसे जहाँ अरबी-फ़ारसी के विद्वानों ने अपनी बात आम जनता को समझाने के लिए प्रयुक्त किया तो वहीँ साधू-संतों ने जन-सामान्य को जागृत करने के लिए इसे अपनाया। इसके प्रमुख कवियों में नरपति नाल्ह, अमीर खुसरो, गोरख नाथ, विद्यापति और कबीर हैं जिनकी रचनाओं में जन-जीवन की झाँकियाँ झलकती हैं। इन सभी में 'अमीर खुसरो' की भाषा में अधिक शुद्ध खड़ीबोली का रूप दिखाई पड़ता है।      

खड़ी बोली ऐसी भाषा है जो जन-जन में समझी जाती रही और जन-जन की आपेक्षाओं के अनुरूप उनके पक्षधर के रूप में साहित्य में आई एवं सभी को मान्य थी। देखने में आता है कि 'मानक भाषा’ का मूल आधार चाहे क्षेत्रीय होता है किन्तु कालान्तर में शनैः-शनैः वही भाषा सर्व क्षेत्रीय बन जाती है। हिन्दी के विकास में जहाँ भिन्न-भिन्न भाषाओं और बोलियों का योगदान रहा है तो इस के एक मानक स्वरूप को निर्धारित करने का प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है। तब 'मानक भाषा’ का अर्थ जानना आवश्यक हो जाता है।
भोला नाथ तिवारी के मतानुसार-
'मानक भाषा किसी भाषा के उस रूप को कहते हैं जो उस भाषा के पूरे क्षेत्र में शुद्ध माना जाता है तथा जिसे उस प्रदेश का शिक्षित वर्ग और शिष्ट समाज अपनी भाषा का आदर्श रूप मानता है और प्रायः सभी औपचारिक परिस्थितियों में, लेखन में, प्रशासन में, और शिक्षा के माध्यम के रूप में यथा साध्य उसी का प्रयोग करने का प्रयत्न करता है।'

किसी भी भाषा को एक मानक रूप प्रदान करना उस भाषा का मानकीकरण कहलाता है। ऐसा रूप जिसमें उस भाषा के प्राप्त सभी विकल्पों में से किसी एक रूप को मानक मान लिया जाए और उस भाषा रूप को उस भाषा के सभी भाषा-भाषी सहज ही मान्यता प्रदान करें।

हिन्दी भाषा को भारत की राजभाषा का दर्जा मिलने के बाद इसके मानकीकरण का मुद्दा बहुत संजीदगी से उठा तथा इस सन्दर्भ में ‘नागरी लिपि’ तथा हिन्दी का मानकीकरण केन्द्रीय सरकार की संस्था 'हिन्दी निदेशालय' ने भारत के चुने हुए भाषा विज्ञान के मनीषियों की सहायता से किया है।

हिन्दी भाषा के मानक रूप को जानने से पहले भाषा की मानकता के विषय में जानकारी प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है। ‘मानक’ शब्द को ‘मान’ से निर्मित किया गया है जिसका अर्थ ‘मापदण्ड’, ‘मानदण्ड’ या ‘पैमाना’ है। राम चन्द्र वर्मा कृत 'प्रामाणिक हिन्दी' में सर्वप्रथम मानक शब्द की अर्थ-व्याख्या की गई, जिसे सर्वमान्य माना जाता है।

'मान' का अभिप्राय है 'माप' ऐसा माप जिससे किसी की योग्यता, श्रेष्ठता व गुण आदि का अनुमान या कल्पना की जाए यानी ‘मानक भाषा’ का अर्थ हुआ साधुभाषा, टकसालीभाषा, शुद्ध भाषा, आदर्श भाषा, परिनिष्ठित भाषा। (भोला नाथ तिवारी, मानक हिन्दी का स्वरूप, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली) मोटे तौर पर यह माना जाता है कि भाषा उच्चारण अवयवों से उच्चरित ध्वनि प्रतीकों की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा एक समुदाय के लोग आपस में भावों और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। ये उच्चारित ध्वनियाँ व्यक्ति के भावों एवं विचारों को प्रतीक रूप में व्यक्त करती हैं। हिन्दी भाषा के रूप-संरचना विज्ञान में शब्दों की प्रतीकता को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि- व्यक्ति के विचारों के प्रतीक रूप में उच्चारित की जाने वाली ध्वनियों के समूह या संकेतों को 'शब्द' कहते हैं। शब्दों के माध्यम से ही व्यक्ति अपने भावों व विचारों युक्त सार्थक भाषा का सम्प्रेषण कर पाता है। ऐसे ही महाभारत के ‘शान्ति पर्व’ में श्वेतकेतु ने शब्द के विषय में लिखा है - 'क्ल्पयेन च परिवादकृतो हि यः। स शब्द इति विज्ञेयः।' (भाई योगेन्द्र जीत, हिन्दी भाषा शिक्षण,२३)

उच्चारण का हिंदी भाषा की मानकता पर गहरा प्रभाव पड़ता है इसके सम्बन्ध में डा. भोला नाथ तिवारी का मानना है कि ऐसे उच्चारण और प्रयोग आदि ही मानक माने जाए जो परम्परा समर्थित हों ही, सुशिक्षित मातृभाषियों को मान्य भी हों।"

किन्तु भाषा की एक सहज प्रवृत्ति यह भी है कि वह परिवर्तनशील होती है, यह परिवर्तन ध्वनि तथा रूप दोनों स्तरों पर दृष्टव्य होता है यही कारण है कि हिन्दी के वर्ण जिनके दो-दो रूप मिलते थे (अ, ल, ण ) उनका अब केवल एक रूप ही मानक माना जाता है। इसके साथ ही हिन्दी भाषा की एक और सहज प्रवृत्ति है कि यह अन्य भाषा के शब्दों और उन की उपयुक्त ध्वनियों को सहज रूप से आत्मसात कर लेती है।

ज्यों-ज्यों भारतीय संस्कृति विकसित हो कर अपने अन्दर अन्य संस्कृतियों के उत्कृष्ट तथ्यों का समावेश करती गई त्यों-त्यों हिंदी भाषा भी अन्य संस्कृतियों के शब्दों, ध्वनियों को सहज रूप से आत्मसात करती रही है। यहाँ तक कि जिन विदेशी, तत्सम, तद्भव अथवा स्थानीय शब्दों को हिन्दी भाषा ने आत्मसात किया है उनकी भिन्न ध्वनियों के लिए भी नए ध्वनि चिह्नों का प्रावधान किया गया है, जैसे - ग़ज़ल, कॉलेज, इसके साथ ही जो ध्वनि चिह्न शब्द में जिस स्थान पर आता है वह उसी क्रम में बोली जाता है। (कुछ एक अपवादों को छोड़ कर जैसे ' ि ' की मात्रा वर्ण से पहले लगती है किन्तु उसका उच्चारण बाद में होता है) कोई भी ध्वनि चिह्न मौन नहीं होता। हिन्दी भाषा के सरल ग्राह्य स्वभाव के विषय में स्पष्ट किया गया है -
“इसकी देवनागरी लिपि में उच्चारण के लिए निर्धारित चिह्न 'वर्ण' प्रत्येक स्थिति में निश्चित ध्वनियों की अभिव्यक्ति करते हैं जिनमें किन्हीं परिस्थितियों या वर्ण-संयोजन के कारण किसी प्रकार का ध्वनि परिवर्तन नहीं होता, जबकि पाश्चात्य भाषाओं में वर्ण अन्य वर्णों के सान्निध्य या वर्तनी के कारण अलग-अलग ध्वनियों की अभिव्यक्ति करते हैं, उदाहरणार्थ -अंग्रेज़ी का वर्ण (c) अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग ध्वनियों को संप्रेषित करता है। देवनागरी लिपि में प्रत्येक ध्वनि के लिए वागेंद्रियों से उत्पत्ति स्थल का निर्धारण, मात्रा चिह्न, संयुक्त वर्ण या सामान ध्वनियों में सूक्ष्म अन्तर वाले वर्ण-चिह्न बड़े वैज्ञानिक ढंग से निर्धारित किये गए हैं। सरल, वैज्ञानिक और ध्वनि-प्रधान इस भाषा को सीखना भी सरल है।" (डॉ. प्रेम लता; हिन्दी भाषा शिक्षण ;६५)

पूरा विश्व जब 'वैश्विक-ग्राम' बन कर 'साइबर-कैफे, 'आई-पैड', या आप के 'कम्प्यूटर स्क्रीन' पर चौपाल की पहचान बनता जा रहा है और हिंदी भाषा मात्र भारत की भाषा न रह कर अपनी विश्व स्तरीय पहचान अंकित करने में तत्पर होती दिखाई पड़ रही है, तब हिन्दी की मानकता का प्रश्न और भी समसामयिक हो जाता है। हिन्दी अब अपनी सार्वभौमिक सत्ता को अर्जित करने के लिए निरंतर अग्रसर हो रही है। यह हमारी राष्ट्रभाषा है और किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उस देश का गौरव मानी जाती है साथ ही यह राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार करने, सामाजिक व मानवीय संबंधों को सुदृढ़ करने का प्रमुख साधन है। भारतीय संस्कृति में 'वसुधैव कुटुम्बकं' की उक्ति को चरितार्थ करने के लिए हिन्दी जहाँ विभिन्न संस्कृतियों के उच्च संस्कारों तथा व्यावहारिक शब्दों को सहजता से अपनाती जा रही है वहीँ यह अपने भाषायी स्वरूप को भी परिष्कृत करने में संलग्न है। ऐसे में जब अपने ही देश में हिन्दी के प्रति असम्पृक्तता के भाव देखने को मिलते हैं या फिर भाषा की परिवर्तनशीलता के नाम से वर्तनी के स्तर पर विशेष ध्वनि चिह्नों पर ध्यान न दे कर हिन्दी के मानक स्वरूप को बिगाड़ने के प्रयास किये जाते हैं तो विद्वत-जनों में क्षोभ पैदा होना स्वाभाविक हो जाता है।    

हिन्दी भाषा के पाठ्यक्रम के लिए निर्धारित पुस्तकों में कई बार जब वर्तनी की अशुद्धियों पर अधिक ध्यान न देकर इसे टंकन के माथे मढ़ दिया जाता है तो बहुत खेद होता है। किन्हीं राज्य स्तरीय शिक्षा बोर्ड की पुस्तकों में संयुक्त वर्णों को हिंदी के मानक संयुक्त रूप में न लिख कर अलग-अलग लिखने का प्रचलन प्रायः देखने में आता है, जैसे -
'द् वारा,  'प् र सिद् ध'  क्रमशः ‘द्वारा’ और ‘प्रसिद्ध’ के लिए लिखे जाते हैं।
सबसे ज़्यादा दुःख तो तब होता है जब हिन्दी भाषा की परिवर्तनशीलाता के नाम पर, भाषा मनीषियों के कड़े अनुसंधान के फलस्वरूप विदेशी, तत्सम व स्थानीय शब्दों की सही ध्वनियों के उच्चारण हेतु गढ़े गए मानक ध्वनि चिह्नों को यह कह कर नकार दिया जाता है कि हिन्दी में बिंदी का प्रचलन अब कम होता जा रहा है, बिन्दी की अशुद्धि को ग़लती न माना जाए। ऐसे में मानकता का प्रश्न यूँ ही निरर्थक-सा हो जाता है। पुस्तकें, समाचारपत्र या पत्रिकाएँ भाषा के स्वरूप की सही पहचान करवाती हैं, लेकिन आजकल इनमें भी भाषा अभिव्यक्ति उतनी विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। हस्त लिखित अभिव्यक्ति का तो कहना ही क्या!

जीवन की भागम-दौड़ की स्पष्ट झलक हिन्दी के हस्त लेखन पर है। किसी भी हिन्दी भाषी प्रदेश के विद्यालय या विश्व विद्यालय के पर्चे उठा कर देख लीजिए, प्रायः उनमें ९०% हस्त लेखन ऐसा होगा जिसमें शब्दों पर शिरोरेखा डालने की ज़हमत ही नहीं उठाई जाती। उसे पर्चे लम्बे होने की दुहाई दे कर नज़रअंदाज़ कर देना इस प्रवृत्ति को निरंतर बढ़ावा दे रहा है।
यह हिन्दी की मानकता के साथ कैसा खिलवाड़ है या कोई भाषा के स्तर पर सांस्कृतिक साज़िश? भाषा को संस्कृति की वाहक माना जाता है। हिन्दी की देवनागरी लिपि एक संयुक्त लिपि है जो अक्षरों को एक शिरोरेखा से जोड़ कर सार्थक शब्दों में ढालती है, ठीक वैसे ही जैसे एक परिवार के सदस्य एक दूसरे से जुड़ कर अधिक सार्थक भूमिका निभा सकते हैं। फिर संयुक्त वर्णों को अलग-अलग दर्शाने में क्या प्रयोजन हो सकता है? या फिर विदेशी आगम शब्दों की सही पहचान को बरक़रार न रखने में कौन-सा हेतु सिद्ध हो जाता है?!
हिन्दी की सहजता और लचीलेपन की प्रवृत्ति इसकी विशेष पहचान है, जिसके द्वारा यह विदेशी आगम शब्दों को इतने स्वाभाविक रूप से आत्मसात कर लेती है कि मानो वे शब्द उसके अपने ही हों, चाहे उसके लिए चाहे नए ध्वनि चिह्न ही क्यों न खोजने पड़ें, इसे शब्द ध्वनियों के रूप बिगाड़ने के लचीलेपन से किसी प्रकार न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। यदि हमें हिन्दी का विस्तार विश्वपटल पर रेखांकित करना है तो इसकी भाषाई व सांस्कृतिक उत्कृष्टता को आत्मसात करने की प्रवृत्ति को भी विश्व पटल तक विस्तृत करने के प्रयास इसकी मानकता को सुनिश्चित करते हुए करने होंगे।

शनिवार, 14 सितंबर 2013

kundali: sanjiv

कुंडली सलिला :
संजीव
*
कुसुम बिना उद्यान हो, गंधहीन बेरंग
काँटों को भाता नहीं, 'सलिल' कुसुम का संग
'सलिल' कुसुम का संग, कृष्ण आनंद मनाये
जन्म-अष्टमी का आनंद, दुगना हो जाये
गरिमा जितनी अधिक नम्र उतने ही हो तुम
देता है सन्देश बाग़ में खिला हर कुसुम

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

doha salila: salil

दोहा सलिला: 
सामयिक दोहे: 
संजीव 
*
हम जब घर से निकलते, पथ में मिलते श्वान
भौंके तो होता नहीं, किंचित भी अपमान
 
जो सूरज पर थूकता, कहलाता नादान
सूर्य पूज्य, वह पतित हो, भले बने अनजान
 
कोई दे मत लीजिए, अगर आप सामान
देनेवाला ही बने, निज वचनों की खान



निकट निंदकों को रखें, कहें कबीर पुकार
दुर्वचनों
​से भी 'सलिल', होगा कुछ उपकार
 


जिसकी जैसी भावना, वैसा देखे रूप
भिक्षुक कहने से नहीं, भिक्षुक होता भूप
 


स्नेह आपका 'सलिल' की, थाती है अनमोल
देते हैं उत्साह नव, स्नेह समन्वित बोल

kundali: hindi ki jay -sanjiv

संजीव 'सलिल'
कुंडली (कुंडलिनी) छंद :.


*

http://kundalinidotorg.files.wordpress.com/2013/08/kundalini-energy-rising-cmanin20131.jpg 

कुण्डलिनी चक्र आधारभूत ऊर्जा को जागृत कर ऊर्ध्वमुखी करता है. कुण्डलिनी छंद एक कथ्य से प्रारंभ होकर सहायक तथ्य प्रस्तुत करते हुए उसे अंतिम रूप से स्थापित करता है.

http://hindijyotish.com/thumbnail.php?file=kalsarp_yoga_321244142.jpg&size=article_medium 
नाग के बैठने की मुद्रा को कुंडली मारकर बैठना कहा जाता है. इसका भावार्थ जमकर या स्थिर होकर बैठना है. इस मुद्रा में सर्प का मुख और पूंछ आस-पास होती है. इस गुण के आधार पर कुण्डलिनी छंद बना है जिसके आदि-अंत में एक समान शब्द या शब्द समूह होता है. 

 
कुंडली की प्रथम दो पंक्तिया दोहा तथा शेष चार रोला छंद में होती हैं.दोहा का अंतिम चरण रोल का प्रथम चरण होता है. हिंदी दिवस पर प्रस्तुत हैं कुंडली छंद-  

हिंदी की जय बोलिए, उर्दू से कर प्रीत 

अंग्रेजी को जानिए, दिव्य संस्कृत रीत 
दिव्य संस्कृत रीत, तमिल-तेलुगु अपनायें
गुजराती कश्मीरी असमी, अवधी गायें 
बाङ्ग्ला सिन्धी उड़िया, 'सलिल' मराठी मधुमय 
बृज मलयालम कन्नड़ बोलें हिंदी की जय
*
हिंदी की जय बोलिए, हो हिंदीमय आप.
हिंदी में नित कार्य कर, सकें विश्व में व्याप..
सकें विश्व में व्याप, नाप लें समुद ज्ञान का.
नहीं व्यक्ति का, बिंदु 'सलिल' राष्ट्रीय आन का..
नेह-नरमदा नहा, बोलिए होकर निर्भय.
दिग्दिगंत में गूँज उठे, फिर हिंदी की जय..
*

हिंदी की जय बोलिए, तज विरोध-विद्वेष 
विश्व नीड़ लें मान तो, अंतर रहे न शेष 
अंतर रहे न शेष, स्वच्छ अंतर्मन रखिए 
जगवाणी हिंदी अपनाकर, नव सुख गहिए 
धरती माता के माथे पर, शोभित बिंदी 
मूक हुए 'संजीव', बोल-अपनाकर हिंदी 
***
 

ganesh vandana : sanjiv



http://vishalinternational.in/yahoo_site_admin/assets/images/15_INCH_GANESH_JI.333164607_std.JPG

वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ
निर्विघ्नं कुरु मे देव, सर्वकार्येषु सर्वदा
*
तिरछी सूँढ़ विशाल तन, कोटि सूर्य सम आभ
देव! करें निर्बाध हर, कार्य सदा अरुणाभ        -- दोहानुवाद: संजीव
*
वक्र = टेढ़ी, curves; तुण्ड =सूंढ़,  trunk
महा = विशाल, large; काय =शरीर, body
सूर्य = सूरज, sun; कोटि = करोड़, 10 million
समप्रभ = के समान प्रकाशवान, with the Brilliance of

निर्विघ्नं = बाधारहित, free of obstacles
कुरु = करिए,make
मे = मेरे, my
देव = ईश्वर, lord
सर्व = सभी, all
कार्येषु =कार्य, work
सर्वदा = हमेशा, always
*
O Lord Ganesha, of Curved Trunk, Large Body, and with the Brilliance of a Million Suns, Please Make All my Works Free of Obstacles, Always.
*

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

TRIBUTE: Prof. Ronald Stuart McGregor

श्रृद्धांजलि:  प्रो. रोनाल्ड स्टुअर्ट मक्ग्रेगोर
कविता वाचक्नवी

 प्रथम हिन्दी>अंग्रेजी व्याकरण के लेखक तथा हिन्दी भाषा व साहित्य के क्षेत्र में ऐतिहासिक योगदान करने वाले प्रो. रोनाल्ड स्टुअर्ट मक्ग्रेगोर Prof. Ronald Stuart McGregor (केम्ब्रिज वि. वि.) नहीं रहे। 19 अगस्त को उनका स्वर्गवास हो गया।

न्यूजीलैंड में जन्मे व स्कॉटिश माता-पिता की सन्तान प्रो. McGregor को बालपन  में फ़िजी से प्रकाशित हिन्दी के एक व्याकरण की प्रति किसी ने दी थी, जिसने उनके जीवन का रुख हिन्दी की ओर मोड़ दिया। 1964 से 1997 तक में वे केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते रहे। सर्वप्रथम 1959-60 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी की पढ़ाई करने वे भारत आए थे।

उनका पीएच.डी. शोध 1968 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था "The Language of Indrajit of Orchā - A Study of Early Braj Bhāsā Prose"। (ध्यातव्य है कि इंद्रजीत स्वयं ब्रज भाषा के ख्यात कवि थे और वे ही प्रसिद्ध  कवि केशवदास के संरक्षक भी थे )।

यह हिन्दी का दुर्भाग्य है कि इस भाषा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करवाने वाले एक विद्वान के निधन पर हिन्दी क्षेत्र में किसी ने एक शब्द तक 20 दिन में नहीं लिखा, यद्यपि भारत के एक अंग्रेजी समाचारपत्र में अंग्रेजी के पूर्व प्रोफेसर (दिल्ली वि. वि.) ने एक लेख अवश्य लिखा है। उस लेख को भी यहाँ अंत में पढ़ा जा सकता है ।
उनकी कुछ कृतियों की सूची यों है-
* 1) -The Oxford Hindi-English Dictionary / published 1993 — 2 editions
* 2) - Shorter Oxford English Dictionary by R.S. McGregor, Lesley Brown (Editor) / published 2002
* 3) - Outline of Hindi Grammar: With Exercises / published 1972 — 5 editions
* 4) - Exrcss Spoken Hindi Cassette
* 5) - Devotional Literature in South Asia /published 1992 — 2 editions
* 6) - The Language of Indrajit of Orch: A Study of Early Braj Bhāsā Prose (University of Cambridge Oriental Publication / published 1968 — 2 editions
* 7) - Exercises In Spoken Hindi by R.S. McGregor, A. S. Kalsi / published 1971
* 8) -The Round Dance Of Krishna, And Uddhav's Message by NandDas, R.S. McGregor / published 1974
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                                              The storyteller of Hindi
                                    Harish Trivedi
> hrshttp://www.indianexpress.com/news/the-storyteller-of-hindi/1162437/0

McGregor chronicled the emergence of Hindi as the great popular language of north India.Ronald Stuart MCGREGOR taught Hindi at the University of Cambridge from 1964 to 1997, and was a fellow of Wolfson College there until he passed away on August 19. He had earlier taught at the School of Oriental and African Studies at the University of London. A philologist, grammarian, literary historian, translator and lexicographer of the front rank, he probably did more for Hindi studies in the West than any other scholar of his generation. McGregor was born of Scottish parents in New Zealand, where he took his BA in English. On a scholarship to Oxford, he studied early English philology but then turned to learning Hindi, a language to which he dedicated the rest of his life. He had, as a teenager in New Zealand, been given a copy of a Hindi grammar book published in neighbouring Fiji, where migrant Indians formed a large part of the population. That wind-blown seed grew into a mighty tree. McGregor first visited India in 1959-60 to study Hindi at the University of Allahabad. He had already met in London a student of Indian history,
 

Elaine, who was now researching at Calcutta; they got married there in 1960. McGregor's PhD thesis was published as The Language of Indrajit of Orchha (1968). No one had heard of this Indrajit, a minor prince who was a patron of the major poet Keshav Das (1555-1617) but also himself a pioneering writer of prose in Braj bhasha. This early discovery was characteristic of  McGregor's scholarly method: not to lose sight of the minor in the glare of  the canonical, and to see the text in its wider context, including its vital social and cultural affiliations.​​ 

As a pioneering language teacher, McGregor produced next An Outline of  Hindi Grammar (1972, revised ed. 1995), which remains a standard work of  reference. He then contributed to a multi-volume History of Indian  Literature not one, but two volumes on Hindi literature, the first on the 19th and the early 20th centuries (1974), and the second, from the beginning to the 19th century (1984). Together, they constitute probably the most authoritative history of Hindi literature yet available in English.
 

In these volumes, McGregor sought to modify the periodisation of Hindi literature which Ramchandra Shukla had put in place in his foundational and still canonical history (1929). He gave more space to the early period
and paid the same kind of nuanced attention to some minor poets such as Nand Das (whose major works he translated), Vishnu Das and Bhikhari Das as he did to Kabir, Meera or Tulsi. The work that McGregor is most widely identified with began modestly enough, when the Oxford University Press asked him to update the classic Dictionary  of Urdu, Classical Hindi, and English (1884) by John T. Platts. Like many famous sequels, it soon assumed a divergent life of its own. As McGregor noted, the priority and ascendancy of 

Urdu had long since vanished, there had meanwhile appeared a huge new dictionary, the Hindi Shabd Sagar
(1922-29), and altogether, Hindi had "developed dramatically in scope, status and literary versatility". McGregor's Oxford Hindi-English Dictionary (1993), which was 20 years in the making, now stands supreme as the ultimate go-to resource of its kind. Whenever any Hindi-English bilingual is in doubt or distress, she can do no better than "look up McGregor". His last significant work, a 45-page essay on the "Progress of Hindi" from the 14th to the 19th century (in Literary Cultures in History, edited by  Sheldon Pollock, 2003), is in a sense a fine distillation of McGregor's life's work, his gaagar mein saagar (the ocean in an earthen pot). 

He highlighted here the abiding vitality of Hindi in small but culturally confident centres such as Dalmau, Gwalior, the "Braj district", Orchha and Banaras (in implicit contrast with the metropolitan Persian-Urdu centres  of  Delhi, Lucknow and Lahore), and the emergence of Hindi finally as the great popular language of north India. In his dictionary too, McGregor had weaned colonial "Hindustani" lexicography away from its Perso-Arabic genealogy, to ground Hindi meticulously in its etymological basis in Sanskrit and in its vast tadbhava resources of indigenous dialects. Instead of a composite culture, he spoke, acutely and perhaps more accurately, of a "cultural rapprochement" and of a "bipartite culture".

Stuart McGregor was a gentle and modest man, always quietly dedicated  to  his work. At the end of a lecture I once gave in Cambridge, he took me aside to diffidently ask of me a favour: to find in Delhi and send him a particular Hindi-to-Hindi dictionary that he needed. He graciously acknowledged the receipt of the book in the form of a self-composed doha  in Braj bhasha, to express a feeling we could not have shared in   English.  He was more deeply steeped in Hindi sensibility and literature than many of its contemporary native speakers are, and he did as much to propagate and promote Hindi as anyone.

The writer is a former professor of English, University of Delhi--
साभार:  "विश्वम्भरा" : विश्वहिंदी-भाषा-लेखक संघ B​y - (डॉ.) कविता वाचक्नवी

बुधवार, 11 सितंबर 2013

geet:

मेरी पसंद:
गीत
स्वीकारो मेरा अभिवादन

*
प्रोद्योगिकी सूचना वाली के इकलौते भाग्य विधाता
तेरह घंटों से भी ज्यादा, नित्य काम करने की आदी
अन्तर्जाली दुनिया के तुम राज नगर के हो शहज़ादे
कुंजी वाली एक पट्टिका से कर ली है तुमने शादी
 
प्रभो संगणक अभियन्ता हे ! स्वीकारो मेरा अभिवादन
 
कहां सूचना कितनी जाये, ये निर्णय तुम पर है निर्भर
प्रेमपत्र के लिये कबूतर, केवल एक तुम्हारा इंगित
दिल का मिलना और बिछुड़ना या फिर टूट धरा पर गिरना
इसका सारा घटनाक्रम, बस तुम ही करते हो सम्पादित
 
धन्य तुम्हारा निर्देशन है, धन्य तुम्हारा है सम्पादन
 
खाना भी तुम जब खाते हो, वह इक दॄष्य निराला होता
एक हाथ में सेलफोन है, एक हाथ में रहता काँटा
कहाँ गया लेटस का पत्ता,या कटलेट कहां खोया है
सिस्टम को एडिट करना भी बहुत जरूरी है अलबत्ता
 
तुम पर ही तो निर्भर है हर एक फ़ैक्ट्री का उत्पादन
 
केवल एक तुम्हारा मैनेजर ही बस तुमसे ऊपर है
जिसके आगे नित्य बजाते हो तुम एक हाथ से ताली
यदि वह नर है तो निश्चित ही महिषासुर का है वो वंशज
और अगर नारी है तो वह सचमुच ही है हंटर वाली
 
एक वही है नाच नचाता, हो कितना भी टेढ़ा आँगन
 
माईक्रोसाट तुम्हीं से, तुमसे गूगल है याहू तुमसे ही 
तुमही हो पीसी की खातिर, हैकिंग वाले भक्षक राहू
तुम सिस्को हो  एएमडी तुमतुम ही इन्टेल केअवतारी
पूरा अन्तर्जाल काँपता, फ़ड़का अगर तुम्हारा बाहू
 
यूनीकोड तुम्ही से, मैने आज किया जिससे आराधन
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गीतकार geetkar gazal <geetkar@yahoo.com>

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

doha salila: doha-doha yamakmay sanjiv

दोहा सलिला:
दोहा-दोहा यमकमय
संजीव
*
चरखा तेरी विरासत, ले चर खा तू देश
किस्सा जल्दी ख़त्म कर, रहे न कुछ भी शेष
*
नट से करतब देखकर, राधा पूछे मौन
नट मत, नटवर! नट कहाँ?, कसे बता कब कौन??
*
देख-देखकर शकुन तला, गुझिया-पापड़ आज
शकुनतला-दुष्यंत ने, हुआ प्रेम का राज
*
पल कर, पल भर भूल मत, पालक का अहसान
पालक सम हरियाएगा, प्रभु का पा वरदान
*
नीम-हकीम न नीम सम, दे पाते आरोग्य
ज्यों अयोग्य में योग्य है, किन्तु न सचमुच योग्य
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

ateet salila: sanjiv

अतीत-सलिला:
संजीव
*
श्री राम-श्री कृष्ण अथवा अन्य विषयों संबंधी चर्चा करते समय उस काल खंड की भौगोलिक परिस्थितियों को अवश्य ही ध्यान में रखा जाना चाहिए।
वाल्मीकि, अगस्त्य, परशुराम, अगस्त्य, शरभंग, सुतीक्ष्ण, रावण आदि राम से वरिष्ठ थे.
अगस्त्य धार्मिक संत अथवा सामाजिक सुधारक मात्र नहीं थे, वे शेष्ठ परमाणु वैज्ञानिक और दुर्घर्ष योद्धा भी थे. उत्तर-दक्षिण संपर्क में बाधक विंध्याचल की ऊँचाई कम कर उसमें से रास्ता बनाने के लिए जितनी शक्ति चाहिए थी वह उस अल्प समय में परमाणु विस्फोट के अलावा और किस माध्यम से प्राप्त हो सकती थी? परमाणु अस्त्रों को उनके प्रभाव के अनुसार ब्रम्हास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वायवास्त्र, आग्नेयास्त्र आदि नाम दिए गए थे तथा इनका उपयोग सामान्य युद्धादि में वर्जित था, निर्माण विधि गोपनीय थी, शस्त्र संग्रह ऋषियों के आश्रम में होता था जिनसे संकट के समय नरेश प्राप्त कर युद्ध जीत कर पुनः ऋषियों को लौटाते थे. इसीलिए राक्षस आश्रमों पर आक्रमण करते थे की शस्त्र पा या नष्ट कर सकें।
अगस्त्य के पूर्व शंकर द्वारा अमरकंटक की झील से मीठे जल की धार समुद्र तक प्रवाहित करने तथा त्रिपुर को नष्ट करने में परमाणु अस्त्रों का उपयोग किया जा चुका था. भागीरथ मानसरोवर से गंगा को प्रवाहित करने के लिए शिव से ही अस्त्र और सञ्चालन विधि सीखी।
राम के काल में टैथीज महासागर भर चुका था, जगह-जगह पर पथरीली-नमकीन पानी के पर्व युक्त जमीन थी जिस पर खेती संभव नहीं थी,  हल से जोता न जा सकने के कारण 'अहल्या' कहा गया, जबकि जिस जमीन को जोटा जा सका वह 'हल्या' कही गयी, अहल्या उद्धार बंजर अभिशप्त जमीन को कृषि योग्य बनाने का महान उपक्रम था जो राजकुमार राम के मार्ग दर्शन में राजकीय संसाधनों से पूर्ण किया गया होगा।
वर्तमान छतीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड,बिहार नर्मदा घाटी आदि मिलकर कौसल राज्य था जिसके नरेश महाराजा कौसल तथा एकमात्र संतान राजकुमारी कौशल्या थीं. अयोध्या एक छोटा सा राज्य था जिसके नरेश दशरथ प्रतापी योद्धा थे. अमरकंटक तथा समूचे कौसल में वानरों, ऋक्षों, उलूकों, गृद्धों आदि जनजातियों का निवास था. दशरथ ने राज्य के लोभ में कौसल्या से विवाह तो किया किन्तु रूपसी न होने के कारण प्रेम नहीं कर सके। कश्मीर की रूपवती राजकुमारी कैकयी तथा सुमित्रा से विवाह के बाद कौसल्या उपेक्षित ही रहीं।
निर्वासन के बाद राम अपनी ननिहाल ही आये. इसके पूर्व राम-सीता-लक्षमण ने चित्रकूट में लम्बे प्रवास में ऋषियों के साथ बनी योजनानुसार जबलपुर के समीप नर्मदा के उत्तरी तट पर अगस्त्य आश्रम में अगस्त्य तथा लोपामुद्रा से परमाणु शास्त्र सञ्चालन की विधि तथा शस्त्र ग्रहण किये, अमरकंटक से महाराजा कौसल के विश्वस्त जाम्बवान, बाल मित्र हनुमान आदि के साथ उनके कबीलों का समर्थन लेकर शबरी से भेंट की. चन्द्रणखा (शूर्पणखा), खर-दूषण आदि रक्ष नायकों का वध कर राम दक्षिण की ओर बढ़े.
दिल्ले में वातानुकूलित कक्षों में विराजे अधिकारियों, नेताओं और उनके अनुगामी विद्वानों नव कांग्रेस और भा.ज़.पा. की अनुकूलता के अनुसार रान की वन यात्रा के दो पथों की घोषणा की जिन पर बड़ी धन राशि भी खर्च की गयी. ये दोनों पथ चित्रकूट से मालवा ओंकारेश्वर होकर हैं.
बुंदेलखंड-छतीसगढ़ जहाँ राम का वास्तविक यात्रा पथ है, वह नकारा जा रहा है. वाणासुर जिसने रावण को युद्ध में पराजित किया था को स्थान मंडला (जबलपुर के निकट गोंड राजधानी) को ओंकारेश्वर में बताया जा रहा है.
नर्मदा घाटी का उत्तर तट आर्यों तथा दक्षिण तट अनार्यों की साधना स्थली रहा है. जबकि यह समूची घाटी त्रिपुर के काल से कृष्ण के काल तक नागों, वानरों, ऋक्षों, उलूकों, गृद्धों आदो का मूल स्थान तथा उनकी अपनी सभ्यता का केंद्र रही. विविध संस्कृतियों के संघर्ष का केंद्र होकर परमाणु शस्त्रों के प्रयोगों से यह घटी भीषण वनों और पर्वतों से सम्पन्न तो हुई किन्तु नागरी जीवन शिली से वंचित भी रही.
कालांतर में सत्ता केंद्र गंगा तट पर जाने के बाद रचे गये पुराणों में अमरकंटक-नर्मदा और शिव को लेकर प्रचलित सभी कथाएँ, माहात्म्य आदि कैलाश मानसरोवर गंगा और शिव से जोड़ दी गयीं।
शिव को लेकर रचे गए तीन उपन्यासों मेहुला के मृत्युंजय आदि में मनीष त्रिपाठी ने शिव को कैलाश पर मन है किन्तु शिव के पूर्व रूप महादेव रूद्र का उल्लेख मात्र किया है. ये रूद्र ही अमरकंटक पर थे.
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बुधवार, 4 सितंबर 2013

kundali : -sanjiv

एक कुंडली:
संजीव 
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कुसुम बिना उद्यान हो, गंधहीन बेरंग
काँटों को भाता नहीं, 'सलिल' कुसुम का संग
'सलिल' कुसुम का संग, कृष्ण आनंद मनाये
जन्म-अष्टमी का आनंद, दुगना हो जाये
गरिमा जितनी अधिक नम्र उतने ही हो तुम
देता है सन्देश बाग़ में खिला हर कुसुम
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