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बुधवार, 21 सितंबर 2011

सामयिक चर्चा: कायस्थ कौन हैं? -- संजीव वर्मा 'सलिल'

सामयिक चर्चा: कायस्थ कौन हैं? -- संजीव वर्मा 'सलिल'

सामयिक चर्चा: 
कायस्थ कौन हैं?
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जिसकी काया में ''वह'' (परात्पr परम्ब्रम्ह जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, जो हर चित्त में गुप्त है) स्थित है, जिसके निकल जाने पर कहें कि 'मिट्टी' जा रही है- वह कायस्थ है. इस सृष्टि में उपस्थित सभी चर-अचर, दृष्ट-अदृष्ट कायस्थ है. व्यावहारिक या सांसारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते और मानते हैं वे 'कायस्थ' है.

इसी लिए कहा गया "कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात'' जिस प्रकार गंगा में स्नान से सही नदियों में स्नान का सुख मिल जाता है, वैसे ही कायस्थ के घर में भोजन करने से हर जाति के घर में भोजन करने अर्थात सबसे रोटी-बेटी सम्बन्ध की पात्रता हो जाती है.
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'गोत्र' तथा 'अल्ल'

'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे भी पूछे जाते हैं.

स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाती के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रोबेर्त्सों कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था.

एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से सम्बंधित होता है. एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित मन जाता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते. हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अगर'' 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे.
प्रस्तुतकर्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
 समय और परिस्थितियों के शिकार कायस्थ जन

संजीव वर्मा 'सलिल'
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समस्त सृष्टि के निर्माता परात्पर परमब्रम्ह निर्विकार-निराकार हैं. आकार न होने से उनका चित्र गुप्त है. जिस अनहद नाद में योगी लीन रहते हैं, वह ॐ ही सकल सृष्टि का जन्दाताजन्मदाता, पालक, तारक है. निराकार चित्र गुप्त जब आकार धारण करते हैं तो सृष्टि ब्रम्हांड के जन्मदाता ब्रम्हा, पालक विष्णु व तारक शिव के रूप में प्रथम ३ कायस्थ अवतार लेते हैं. 'कायास्थितः सः कायस्थः'' अर्थात वह निराकार परमशक्ति जब आकार (काया) धारण करती है तो काया में स्थित होने के कारण कायस्थ होता है.

'ब्रम्हम जानाति सः ब्राम्हणः' जो ब्रम्ह को जानते हैं वे ब्राम्हण हैं अर्थात जिनका काम सृष्टि उत्पत्ति के गूढ़ रहस्य जैसे जटिल विषयों को जानना और ज्ञान देना है वे ब्राम्हण हैं. इसी तरह जो रक्षा करते हैं वे क्षत्रिय, जो व्यापार करते हैं वे वैश्य तथा जो सेवा कर्म करते हैं वे शूद्र हैं. कायस्थ वे हैं जो ये सभी कर्म समान भाव से करते हैं.

जात कर्म तथा जातक कथाओं में 'जात' शब्द का अर्थ जन्म लेना है. व्यक्ति जिस क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त कर उसे व्यवसाय रूप में अपनाता है, उस क्षेत्र में उसका जन्म लेना माना जाता है. कहावत है 'कायथ घर भोजन करे, बचहु न एकौ जात' अर्थात कायस्थ के घर भोजन करने से अन्य किसी जात के घर भोजन करना शेष नहीं रहता, कायस्थ के घर खाया तो हर जात में खा लिया अर्थात कायस्थ की गणना हर वर्ण में है, वह किसी एक वर्ण का नहीं है. जो चारों वर्णों के कार्य समान दक्षता से करने में समर्थ होते हैं वे किसी अन्य की तुलना में अधिक योग्य होने से ''कायस्थ'' कहे गए.

सृष्टि का कण-कण कायायुक्त है. अतः, सभी चर-अचर, दृष्ट-अदृष्ट कायस्थ, जीव-अजीव हैं.

आरम्भ में कायस्थों ने अपने आराध्य श्री चित्रगुप्त का न तो कोई चित्र या मूर्ति बनाई, न मंदिर या मठ, न व्रत-त्यौहार, न कथा-उपवास. वे जानते थे कि हर दैवी शक्ति श्री चित्रगुप्त का अंश है, किसी भी रूप में पूजें पूजा चित्रगुप्त की ही होती है. कायस्थों में विवाहादि प्रसंगों में इसी कारण जन्मना जाति प्रथा मान्य कट्टरता से नहीं रही. कालांतर में कायस्थों के आराध्य निराकार चित्रगुप्त के साकार रूप की कल्पना सत्यनारायण के रूप में हुई जिसे चुटकी भर आटे के साथ कोई गरीब से गरीब व्यक्ति भी पूज सकता था, जो राजा को भी दण्डित कर सकते थे.

कायस्थों में अनेक श्रेष्ठ पंडित, वैद्य, ज्योतिष, संत, योद्धा, व्यापारी, शासक, प्रशासक आदि होने का कारण यही है कि वे चारों वर्णों को अपनाते थे. किसी पिता के ४ पुत्र अपनी रूचि या योग्यता के आधार पर चारों वर्णों में व्यवसाय कर सकते थे. चारों वर्णों में रोती-बेटी के सम्बन्ध स्थापित होना प्रतिबंधित न था. कालांतर में महर्षि व्यास द्वारा श्रुति-स्मृति पर आधारित व्यवस्था को ज्ञान का संहिताकरण कर व्यासपीठ के संचालकों के माध्यम से संचालित करने पर गुरु गद्दी पर जन्मना औरस पुत्र या कर्मणा श्रेष्ठ मानस पुत्र के आसीन होने के प्रश्न खड़े हुए. कायस्थ कर्म को देवता मानते थे तथा निरपेक्ष कर्मवाद के समर्थक थे. उन्होंने मानस पुत्रों (श्रेष्ठ शिष्य) को योग्य पाया जबकि ब्राम्हणों ने जन्मना औरस पुत्र को. यही स्थिति राज गद्दी के सम्बन्ध में भी हुई.

कायस्थ कर्म विधान को मानते थे अर्थात जीव का जन्म पूर्व जन्म के शेष कर्मों का फल भोगने के लिये हुआ है. केवल सत्कर्मों से ही जीव मुक्त हो सकता है. किसी देव की पूजा, उपवास, कर्म काण्ड, कथा श्रावण, भोग-प्रसाद, गण्डा-ताबीज, मन्त्र-तंत्र, नाग-रत्न आदि से कर्म-फल से मुक्ति नहीं पाई जा सकती. ब्राम्हणों ने परिश्रम और योग्यता के स्थान पर कर्मकांड और जन्माधारित विरासत का पक्ष लिया. गरीब, पीड़ित, अभावग्रस्त आम लोगों के मन में धर्म और ईश्वर संबंधी भय अनेक कपोल कल्पित कथाएँ सुनाकर पैदा के दिया तथा निदान स्वरूप कर्म काण्ड, व्रत, उपवास, दान आदि बताये जिनमें स्वयं (ब्राम्हणों) को ही दान का प्रावधान था.

राज गद्दी पर योग्यता के आधार पर सभी लोगों में से योग्यतम को चुनने के स्थान पर राजा के प्रिय या ज्येष्ठ पुत्र को चुनने की परंपरा प्रारंभ कर ब्राम्हण राज परिवार के प्रिय हुए. यहाँ तक कि स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि भी ब्राम्हणों ने खुद को घोषित कर दिया. संतानहीन राजाओं की रानियों को नियोग के माध्यम से ब्राम्हण पुत्र भी देने लेगे. राजा का विवाह होने पर रानी को पहले ब्राम्हण के साथ जाना होता था तथा राजा ब्राम्हण को शुल्क देकर रानी को प्राप्त करता था.

कायस्थ सता से जुड़े रहने से भोग-विलास के आदी, षड्यंत्रों के शिकार तथा निरपेक्ष सत्य कहने के कारण सत्ताधारियों के अप्रिय हुए. स्वामिभक्त होने के कारण वे मारे भी गए. ब्राम्हणों ने राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना. जब जो राजा आया ब्राम्हण उसे ही मान्यता देते रहे, जबकि कायस्थ अपनी निष्ठा बदल नहीं सके. कर्मकांड की बढ़ती प्रतिष्ठा के कारण ब्राम्हण समाज में पूज्य हो गए जबकि कायस्थ किसी एक वर्ण या जाति से न जुड़ने के कारण उपेक्षित हो गए. प्रतिभा के धनी तथा बलिदानी होने पर भी कायस्थ सत्तासीन नहीं हो सके. 

आधुनिक काल में श्री जवाहरलाल नेहरु, डॉ, राजेन्द्र प्रसाद तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को देखें. प्रथम की तुलना में शेष दोनों की प्रतिभा, योग्यता, समर्पण, बलिदान बहुत अधिक होने पर भी उनका प्राप्य अत्यल्प रहा. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नेहरु के कड़े विरोध के बाद राष्ट्रपति बने किन्तु पश्चातवर्ती राजनीति में उनके किसी स्वजन-परिजन को कोई स्थान न मिला जबकि नेहरु का वंश न होने पर भी वे और उनके स्वजन कोंग्रेस और सत्ता पर आसीन रहे. नेताजी के हिस्से में केवल संघर्ष, त्याग, बलिदान ही आया.

अन्यत्र भी कायस्थों की नियति ऐसी ही रही. कायस्थ व्यक्तिगत मूल्यपरक जीवनमूल्यों को जीता है जबके अन्य वर्ण समूह्परक हितों को साधते हैं. लोकतंत्र में समूह-नायक धोबी के आक्षेप पर राम भी सीता को त्यागने पर विवश हो गए थे. कायस्थ में समूह निर्माण का संस्कार ही नहीं है तो समूहगत चेतना या समूह के हितों का संरक्षण का प्रश्न ही नहीं उठता. इसीलिये वह संगठित नहीं हो पाता, न संगठित हो सकेगा. सभी स्टारों पर कायस्थ सभाएं और संस्थाएं असफल हुईं हैं और होती रहेंगी. ऐसा नहीं है कि इनमें योग्य, समर्पित, बलिदानी या संपन्न नेतृत्व नहीं आया या लोग नहीं जुड़े या सुनियोजित कार्यक्रम और नीतियां नहीं बनीं. यह सब होने के बाद भी परिणाम शून्य हुआ.

कायस्थ न तो व्यक्तिपरक रहा, न समष्टिगत हो सका. उदारता-संकीर्णता, साक्षरता-नासमझी, ज्ञान की प्रचुरता-लक्ष्मी का अभाव, दानवृत्ति का ह्रास, अनुकरण करने की भावना का अभाव तथा सामूहिक निर्णय या गतिविधि के प्रति अरुचि ने कायस्थों को उनके मूल आधार से अलग कर दिया और किसी नए विचार को वे अपना नहीं सके. आज की बदलती परिस्थिति में कायस्थों के अपनी मूलवृत्ति विश्व को कुटुंब मानकर जन्मना जाति को ठुकराने, योग्यता और गुण के आधार पर अंतरजातीय विवाह सम्बन्ध करने, आर्थिक गतिविधिपरक समूह बनाने और संस्थाएँ चलाने, सेवावृत्ति पर उद्योग और राजनीति को वरीयता देने, परिश्रम और लगन के साथ कर्म को आराध्य मानने के अपनाना होगा तभी वे व्यक्तिगत रूप से समृद्ध, सामाजिक रूप से संगठित तथा सांस्कृतिक रूप से संपन्न हो सकेंगे. उन्हें स्वयं को विश्व मानव के रूप में ढालना होगा तथा विश्व साक्षरता, विश्व शांति, विश्व न्याय तथा विश्व समानता के ध्वजवाहक बनकर दुनिया के कोने-कोने में जाना और छाना होगा.

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चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल'

चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल'

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चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।

विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।

कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।

वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, नेह नर्मदा नाद।

'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।

जो काया को मानते, परमब्रम्ह का अंश।
'सलिल' वही कायस्थ हैं, ब्रम्ह-अंश-अवतंश।

निराकार परब्रम्ह का, कोई नहीं है चित्र।
चित्र गुप्त पर मूर्ति हम, गढ़ते रीति विचित्र।

निराकार ने ही सृजे, हैं सारे आकार।
सभी मूर्तियाँ उसी की, भेद करे संसार।

'कायथ' सच को जानता, सब को पूजे नित्य।
भली-भाँति उसको विदित, है असत्य भी सत्य।

अक्षर को नित पूजता, रखे कलम भी साथ।
लड़ता है अज्ञान से, झुका ज्ञान को माथ।

जाति वर्ण भाषा जगह, धंधा लिंग विचार।
भेद-भाव तज सभी हैं, कायथ को स्वीकार।

भोजन में जल के सदृश, 'कायथ' रहता लुप्त।
सुप्त न होता किन्तु वह, चित्र रखे निज गुप्त।

चित्र गुप्त रखना 'सलिल', मन्त्र न जाना भूल।
नित अक्षर-आराधना, है कायथ का मूल।

मोह-द्वेष से दूर रह, काम करे निष्काम।
चित्र गुप्त को समर्पित, काम स्वयं बेनाम।

सकल सृष्टि कायस्थ है, सत्य न जाना भूल।
परमब्रम्ह ही हैं 'सलिल', सकल सृष्टि के मूल।

अंतर में अंतर न हो, सबसे हो एकात्म।
जो जीवन को जी सके, वह 'कायथ' विश्वात्म।
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प्रस्तुतकर्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मुक्तिका: सामने आँखों के... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सामने आँखों के...
संजीव 'सलिल'
*
सामने आँखों के सारे दिन सुहाने आ गये.
तुमको देखा याद मिलने के बहाने आ गये..
*
गगन-पनघट, दामिनी के रूप की छवि देखने
मेघ यायावर लिये लोटा नहाने आ गये..
*
मिलन के युग पलों से कब कट गये किसको पता.
विरह के पल युगों से जी को दहाने आ गये..
*
जब हुई बोनी न तब जिनका पता थे खेत पर-
वही लेकर लट्ठ फसलों को गहाने आ गये..
*
तुम नहीं यदि साथ तो जग-जिंदगी है बेमजा.
साथ पाकर 'सलिल' जन्नत के मुहाने आ गये..
*
Acharya Sanjiv Salil

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मंगलवार, 20 सितंबर 2011

नवगीत: हवा में ठंडक... --संजीव 'सलिल'

नवगीत
हवा में ठंडक...
संजीव 'सलिल'
*

हवा में ठंडक

बहुत है...


काँपता है

गात सारा

ठिठुरता

सूरज बिचारा.

ओस-पाला

नाचते हैं-

हौसलों को

आँकते हैं.

युवा में खुंदक

बहुत है...



गर्मजोशी

चुक न पाए,

पग उठा जो

रुक न पाए.

शेष चिंगारी

अभी भी-

ज्वलित अग्यारी

अभी भी.

दुआ दुःख-भंजक

बहुत है...



हवा

बर्फीली-विषैली,

नफरतों के

साथ फैली.

भेद मत के

सह सकें हँस-

एक मन हो

रह सकें हँस.

स्नेह सुख-वर्धक

बहुत है...



चिमनियों का

धुँआ गंदा

सियासत है

स्वार्थ-फंदा.

उठो! जन-गण

को जगाएँ-

सृजन की

डफली बजाएँ.

चुनौती घातक

बहुत है...


नियामक हम

आत्म के हों,

उपासक

परमात्म के हों.

तिमिर में

भास्कर प्रखर हों-

मौन में

वाणी मुखर हों.

साधना ऊष्मक

बहुत है...

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Acharya Sanjiv Salil

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बोध कथा: शब्द और अर्थ -- संजीव 'सलिल'

बोध कथा:
शब्द और अर्थ 
संजीव 'सलिल'
*
शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त होने पर चैन की साँस ली और कमर सीधी करने के लिये लेटा ही था कि काम करने की मेज पर कुछ हलचल सुनाई दी. वह मन मारकर उठा, देखा मेज पर शब्द समूहों में से कुछ शब्द बाहर आ गये थे. उसने पढ़ा - वे शब्द थे प्रजातंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र और लोकतंत्र .

हैरान होते हुए कोशकार ने पूछा- ' अभी-अभी तो मैंने तुम सबको सही स्थान पर रखा था, तुम बाहर क्यों आ गये?'

' इसलिए कि तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे सरासर ग़लत लगते हैं. एक स्वर से सबने कहा.

'एक-एक कर बोलो तो कुछ समझ सकूँ.' कोशकार ने कहा. 

'प्रजातंत्र प्रजा का, प्रजा के लिये, प्रजा के द्वारा नहीं, नेताओं का, नेताओं के लिये, नेताओं के द्वारा स्थापित शासन तंत्र हो गया है' - प्रजातंत्र बोला.

गणतंत्र ने अपनी आपत्ति बतायी- ' गणतंत्र का आशय उस व्यवस्था से है जिसमें गण द्वारा अपनी रक्षा के लिये प्रशासन को दी गयी गन का प्रयोग कर प्रशासन गण का दमन जन प्रतिनिधियों कि सहमती से करते हों.'

' जनतंत्र वह प्रणाली है जिसमें जनमत की अवहेलना करनेवाले जनप्रतिनिधि और जनगण की सेवा के लिये नियुक्त जनसेवक मिलकर जनगण की छाती पर दाल दलना अपना संविधान सम्मत अधिकार मानते हैं. '- जनतंत्र ने कहा.

लोकतत्र ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बताया- 'लोकतंत्र में लोक तो क्या लोकनायक की भी उपेक्षा होती है. दुनिया के दो सबसे बड़ा लोकतंत्रों में से एक अपने हित की नीतियाँ बलात अन्य देशों पर थोपता है तो दूसरे की संसद में राजनैतिक दल शत्रु देश की तुलना में अन्य दल को अधिक नुकसानदायक मानकर आचरण करते हैं.' - लोकतंत्र की राय सुनकर कोशकार स्तब्ध रह गया.

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सामयिक रचना: मनमोहना बड़े झूठे... --संजीव 'सलिल'

सामयिक रचना:                                                                            
मनमोहना बड़े झूठे...
--- संजीव 'सलिल'
*
सरल सहज सज्जन दिखते थे,
इसीलिये हम ठगा गये हैं.
आँख मूँदकर किया भरोसा -
पर वे ठेंगा दिखा गये हैं..
हरियाली बोई पा ठूंठे...
*
ओबामा के मन भाये हैं.
सोच-सोचकर इतराये हैं.
कौन बताये इन्हें आइना-
ममता बिन ढाका धाये हैं.
बंधे सोनिया खूंटे...
*
अर्थशास्त्री कहे गये हैं.
अनर्थशास्त्री हमें लगे हैं.
मंहगाई से नयन लड़ाये-
घोटालों के प्रेम पगे हैं.
अन्ना से हैं रूठे...
*

Acharya Sanjiv Salil

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सोमवार, 19 सितंबर 2011

श्रीमद्भवगत् गीता ,अध्याय 2,हिन्दी पद्यानुवाद ..द्वारा .प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव

श्रीमद्भवगत् गीता
अध्याय 2
हिन्दी पद्यानुवाद
द्वारा .प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव
९४२५८०६२५२

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥

साँख्य योग
संजय ने कहा-
    सजल नयन आकुल हदय मन से दुखित महान
    ऐसे अर्जुन से सहज , बोले श्री भगवान।।1।।

भावार्थ :  संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥
श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌ ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।
भगवान ने कहा-
    जो न उचित है वीर को जो देती अपकीर्ति
    असमय,बाधक स्वर्ग की अर्जुन यह क्या रीति ?।।2।।
  
भावार्थ :  श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है॥2॥

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥

पार्थ ! न कायर तुम बनो ,अनुचित यह व्यवहार
        तज दुर्बलता हदय की , हो लड़ने तैयार।।3।।

भावार्थ :  इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥
अर्जुन उवाच

कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥

अर्जुन ने कहा-
    भीष्म द्रोण गुरू पूज्य हैं ,  करने को संहार
    रण में बाणों से उन्हीं का,  कैसा प्रतिकार ? ।।4।।


भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥

गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌ ॥

भीख माँगना -
    भीख माँग खाना भला,इस जग में महाराज
    गुरूजन वध के बाद क्या , रूधिर सिक्त साम्राज्य ?।।5।।

भावार्थ :  इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥5॥

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥

समझ न आता उचित क्या !  कल जीतेगा कौन।
जिन्हे मारना पाप , वे खड़े युद्ध हित मौन।।6।।
  
भावार्थ :  हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं॥6॥

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥

हीन भाव से व्यापत है मेरा वीर स्वभाव
    शरण शिष्य हूँ, क्या उचित मुझे नाथ समझाव।।7।।

भावार्थ :  इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए॥7॥

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥

क्योंकि सूझता अब नहीं,मुझको कोई उपाय
मन का ताप न मिटेगा,स्वर्ग राज्य भी पाय।।8।।

भावार्थ :   क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥8॥

संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥

ऐसा कह श्री कृष्ण से अर्जुन हो चुपचाप
    नहीं लडूँगा मैं प्रभो ! मन में भर संताप।।9।।

भावार्थ :   संजय बोले- हे राजन्‌! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान्‌ से 'युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए॥9॥

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥

तब सेनाओं बीच में,दुखी सखा को जान
हँसते से, हे भारत !  बोले श्री भगवान।।10।।

भावार्थ :   हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले॥10॥

( सांख्ययोग का विषय )
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥

    जिनका शोक न चाहिये उनका शोक महान
    व्यर्थ बातें बडी तेरी , हो जैसे विद्धान।।11।।

भावार्थ :  श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते॥11॥

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥

मैं तुम राजा सभी,न थे,न कोई काल
और न होंगे फिर कभी यह भी नहीं है हाल।।12।।

भावार्थ :   न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे॥12॥

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

बचपन,यौवन,वृद्धपन ज्यों शरीर का धर्म
वैसे ही इस आत्मा का है हर युग का कर्म।।13।।

भावार्थ :  जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।13॥

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥

बाह्य प्रकृति सुख दुख अनुभवदायी
 ये अनित्य अनिवार्य हैं इसे सहो हे भाई ।।14।

भावार्थ :  हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥14॥

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥

    जिन्हें दुखी करते नहीं ये परिवर्तन पार्थ
    वही व्यक्ति जीवन अमर , जीते हैं निस्वार्थ।।15।।

भावार्थ :  क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥15॥

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥

असत कभी रहता नहीं,सत का कभी अभाव
तत्व ज्ञानियों का यही निश्चित अंतिम भाव।।16।।
  
भावार्थ :  असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥16॥

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥

वह अविनाशी अमर है , जग जिसका निर्माण
    उसे मिटा सकता नहीं , कोई निश्चित जान।।17।।

भावार्थ :  नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है॥17॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥

नाशवान है देह यह , आत्मा अमर अपार
इससे उठ औ"युद्धहित,अर्जुन हो तैयार।।18।।
  
भावार्थ :   इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥18॥

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥

जो इसको हन्ता या कि , मृत करते अनुमान
    न मरती ,न मारती,उनका है अज्ञान।।19।।

भावार्थ :   जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है॥19॥

न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
आत्मा शाश्वत ,अज अमर,इसका नहिं अवसान
मरता मात्र शरीर है , हो इतना अवधान।।20।।
  
भावार्थ :   यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥20॥

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥

अविनाशी अज सतत जो,उसका कहाँ विनाश
    उसके मारण-मरण का झूठा है विश्वास।।21।।

भावार्थ :   हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?॥21॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

जीर्ण वसन ज्यों त्याग नर , करता नये स्वीकार
त्यों ही आत्मा त्याग तन नव गहती हर बार।।22।।
  
भावार्थ :   जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥22॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥

शस्त्र न छेदन कर सके,अग्नि न सके जलाय
    जल न गीला कर सके,पवन न सके उड़ाय ।।23।।

भावार्थ :   इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता॥23॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥

यह अच्छेद्य,अक्लेद्य है,अमर सर्व परिव्याप्त
अचल सनातन अलख है स्वयं आप में आप्त।।24।।

भावार्थ :   क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है॥24॥

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥॥

अविकारी,अव्यक्त है,तथा अचिन्त्य अपार
इससे इसके शोक का नहीं कोई आधार।।25।।

भावार्थ :   यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं
है अर्थात्‌ तुझे शोक करना उचित नहीं है॥25॥

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌ ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥

फिर फिर इसको जन्मता ओै मरता भी जान
तुम्हीं कहो हे वीर है दुख का कोई ध्यान।।26।।
  
भावार्थ :   किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है॥26॥

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

जो भी लेता जन्म है ध्रुव उसका अवसान
    इससे जो निश्चित नियम उसमें क्या दुख भान।।27।।

भावार्थ :   क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥27॥

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥

निराकार जो पूर्व में,मध्य में रह साकार
निराकार होते पुनः तो क्या दुख-आधार।।28।।
  
भावार्थ :   हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?॥28॥

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥

अचरज से कोई देखता,कहता सुनता कोई
    किन्तु बडा आश्चर्य यह जान न पाया कोई।।29।।

भावार्थ :   कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता॥29॥

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

सब शरीर में आत्मा सतत अमर विख्यात
इससे कोई शोक का कारण नहीं है तात।।30।।

भावार्थ :   हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है॥30॥

( क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण )
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥

मन में विचलित हो न तू,अपना धर्म विचार
    क्षत्रिय का तो धर्म है युद्ध ओर प्रतिकार।।31।।

भावार्थ :  तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥31॥

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥

अनायास ही हैं खुले तुझे स्वर्ग के द्वार
भाग्यवान क्षत्रिय ही यह पा पाते उपहार।।32।।
  
भावार्थ :   हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं॥32॥

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥

यदि तू नहीं करेगा यह धर्म समय संग्राम
    तो अपयश देगा तुझे यही "पाप का काम" ।।33।।

भावार्थ :  किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-र्मरणादतिरिच्यते ॥

दीर्घ काल तक करेगें लोग तुझे बदनाम
भले व्यक्ति को,मृत्यु से अधिक दुखद यह काम।।34।।
  
भावार्थ :  तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥

महारथी जो समझते , तुझको वीर महान
    तुझे हटे रणभूमि से देंगे क्या सम्मान ?।।35।।

भावार्थ :  और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥

अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥

शत्रु निन्द्य शब्दावली का कर घृणित प्रयोग
करने तव अपकीर्ति का पायेंगे संयोग।।36।।

भावार्थ :  तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥36॥

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥

उठ निश्चय कर जीतने का खोया साम्राज्य
    मृत्यु हुई भी तो खुला तुझे स्वर्ग का राज्य।।37।।

भावार्थ :  या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥37॥

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥

सुख दुख को सम मान कर लाभ हानि सम जान
धर्म कार्य है युद्ध, उठ , हार औ" जीत समान।।38।।

भावार्थ :   जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥

( कर्मयोग का विषय )

एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥

सांख्य योग यह,सुन जरा बुद्धियोग की बात
    सुन अर्जुन! जिससे न हो तुझे कोई व्याघात।।39।।

भावार्थ :  हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखें।) विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥39॥

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥

किये गये हर कर्म का होता कभी न नाश
थोड़ा सा भी धर्म नित करता पाप विनाश ।।40।।

भावार्थ :   इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥40॥

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥

    शुद्ध कर्म की बुद्धि एक होती सुदृढ महान
    अकर्मण्यता है पालती कई बुद्धि अज्ञान।।41।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं॥41॥

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌ ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥

वेदों पर वार्तायें मधु करते जो विद्वान
उससे अधिक न और कुछ कर लेते अनुमान।।42।।
    जन्मकर्म फलदायी ले स्वर्ग प्राप्ति की चाह
    भोग-ऐश्वर्य क्रियाओे की करते है परवाह।।43।।
ऐसे भोगासक्त की कोई न स्थिर बात
 समय समय पर बेतुकी करते रहते बात।।44।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्‌ दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती॥42-44॥

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥

    त्रिगुण विषय से युक्त है वेद तू त्रिगुणातीत
    हो,अर्जुन निद्र्वन्द औ मन से भावातीत।।45।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो॥45॥

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥

जो संभव है कुयें से वह ही दे तालाब
त्यों वेदों में जो सुलभ ब्रम्हज्ञान में आप।।46।।

भावार्थ :  सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है॥46॥

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

कर्मों पर अधिकार तव हाथ में न परिणाम
    फल से रह निरपेक्ष नित रख कर्मो से काम।।47।।

भावार्थ :  तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥

योगी हो कर कर्म कर,सकल लिप्ति को त्याग
सम दृष्टि ही योग है न कि जीतहार से राग।।48।।


भावार्थ :   हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है॥48॥

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥

    योग श्रेष्ठ है ,  नीच है फल इच्छा से काम
    बुद्धि बना तू योग की मन पर लगा लगाम।।49।।

भावार्थ :   इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्‌ बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं॥49॥

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ॥

बुद्धिमान शुभ-अशुभ से रहता कोसों दूर
अतः युद्ध कर योग है कर्मो से भरपूर।।50।।

भावार्थ :   समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है॥50॥

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ॥

    कर्म बुद्धि रख दृढव्रती देते फल रूचि त्याग
    जन्म बंध से मुक्त हो पाते पद निर्वाण।।51।।

भावार्थ :   क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं॥51॥

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥

मोह मलिनता त्याग जो बुद्धि तव होगी शुद्ध
तो संसार प्रपंच से होगा तू प्रिय मुक्त।।52।।

भावार्थ :   जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा॥52॥

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥

    सुने प्रवादों को भूला जब होगा मन शांत
    पा पायेगी बुद्धि तब सहज योग का प्रांत।।53।।

भावार्थ :   भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा॥53॥

( स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा )

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ॥

अर्जुन ने पूँछा
केशव समझायें मुझे स्थिर प्रज्ञ का रूप
कैसी उसकी रीति गति भाषा रहन अनूप।।54।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?॥54॥
भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥

भगवान ने कहा-
    इच्छाओं को त्याग कर जो मन से बलवान
    होता , उसको पार्थ ! सब कहते प्रज्ञ महान।।55।।

भावार्थ :   श्री भगवान्‌ बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥55॥

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥

दुखों में जो चिंता रहित सुख में भी निष्काम
वीत राग भय क्रोध में स्थिर प्रज्ञ वह नाम।।56।।

भावार्थ :  दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है॥56॥

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

    आनन्दित जो शुभाशुभ को भी पा दिन रात
    सदा राग से रहित जो वही स्थित धी तात।।57।।

भावार्थ :  जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है॥57॥

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

कछुआ सा इंद्रियों को जो समेट रख शांत
प्रज्ञावान किसी समय होता नही अंशांत।।58।।


भावार्थ :  और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥58॥

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥

    भूख देह की मिटाते तो हैं विषय विकार
    किंतु लालसा मिटाता प्रभु का साक्षात्कार।।59।।

भावार्थ :  इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है॥59॥

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥

यत्न किये भी इंद्रियां,मथतीं मन बरजोर
ज्ञानी को भी खींचती अर्जुन अपनी ओर।।60।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात्‌ हर लेती हैं॥60॥
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

वश में कर के इंद्रियाँ,हो मुझसे लवलीन
इंद्रियाँ जिसके वश में है,वही मुनष्य प्रवीण।।61।।

भावार्थ :   इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

विषयों के नित ध्यान से बढ़ती है अनुरक्ति
    आसक्ति से कामना उससे क्रोधोत्पत्ति।।62।।

भावार्थ :   विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

क्रोध  नष्ट करता विवेक,उससे खोती याद
याद बिना सदबुद्धि ओै" बुद्धि के बिना विनाश।।63।।

भावार्थ :   क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥63॥

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

    मन जिसका स्वाधीन है,राग द्वेष से दूर
    इंद्रिय सुख लेते भी वह आंनद से भरपूर।।64।।

भावार्थ :   परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥64॥

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥

निर्मल मन रखता उसे आंनदित निष्काम
अचल बुद्धि नहि जानती किन्ही दुखों का नाम।।65।।

भावार्थ :   अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है॥65॥

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥

योग बिना चंचल मति,न श्रद्धा न भक्ति
भाव रहित जन से सदा सुख की रही विरक्ति।।66।।

भावार्थ :   न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?॥66॥

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥

विषयलीन इंद्रियों से होता मन -भटकाव
जैसे जल में हो कोई वायु प्रवाहित नाव।।67।।

भावार्थ :   क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥67॥

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

अतः पार्थ ! मन जिनका भी सदा विषय से दूर
उनकी स्थिर बुद्धि नित देती सुख भरपूर।।68।।

भावार्थ :   इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है॥68॥

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥

सदा संयमी जागते जब दुनियाँ की रात
जब जगता संसार यह मुनि का नहीं प्रभात।।69।।

भावार्थ :   सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है॥69॥

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥

जैसे भरे समुद्र में नदियाँ आती आप
    वैसे शांति समुद्र में खोते सब संताप।।70।।

भावार्थ :   जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥70॥

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥

सब इच्छायें त्याग नर जो निर्भय निर्भीक
अंहकार से रहित वह पाता शक्ति अलीक।।71।।

भावार्थ :   जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है॥71॥

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥
ऐसी स्थिति ब्राही जिसमें रह निर्मोह
    अर्जुन पाती आत्मा,चिदानंद आरोह।।72।।

भावार्थ :   हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है॥72॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥2॥










  
  

दोहा सलिला: एक हुए दोहा यमक: -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
एक हुए दोहा यमक:
-- संजीव 'सलिल'
*
पानी-पानी हो रहे, पानी रहा न शेष.
जिन नयनों में- हो रही, उनकी लाज अशेष..
*
खैर रामकी जानकी, मना जानकी मौन.
जगजननी की व्यथा को, अनुमानेगा कौन?
*
तुलसी तुलसी-पत्र का, लगा रहे हैं भोग.
राम सिया मुस्का रहे, लख सुन्दर संयोग..
*
सूर सूर थे या नहीं, बात सकेगा कौन?
देख अदेखा लेख हैं, नैना भौंचक-मौन..
*
तिलक तिलक हैं हिंद के, उनसे शोभित भाल.
कह रहस्य हमसे गये, गीता का नरपाल..
*
सिलक पहनकर गिन रहीं, सिलक सिठानी आज.
लक्ष्मी को लक्ष्मी गहे, आप न पूछें राज..
*
राज राज के काज का, गोपनीय श्रीमान.
श्री वास्तव में पाये बिन, श्रीवास्तव श्री-वान..
*
दीक्षित दीक्षित हैं नहीं, पर दीक्षा दें नित्य.
विस्मित होकर देखता, नभ से 'सलिल' अनित्य..
*
चकित दीप्ति की दीप्ति से, दीपक करे सवाल.
भूल तेल को पूजता, जग क्यों केवल ज्वाल??
*
तेल लगाते तेल बिन, कैसा है यह खेल?
बिन नकेल ही नाक में, डालें आप नकेल..
*
हार रहे जो खेल में, गेंद न पाते झेल.
सजा मिले कविताओं को, सुनें-गुनें चुप झेल..
*
Acharya Sanjiv Salil

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रविवार, 18 सितंबर 2011


Hindi poetic translation of Bhagvat Geeta ..by Prof C B s hrivastava 
shlok 41 to 47  chapter 1




अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥

होता सदा अधर्म से कुल स्त्रियों में दोष
दुष्टाओं में वर्ण संकरों से बढता जन रोष।।41।।

भावार्थ :  हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है॥41॥

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥

कुलघाती संतान से पितृ पिण्ड का दान
हो पाता नियमित नहीं पितरों का सम्मान।।42।।

भावार्थ :  वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं॥42॥

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥


कोई न हो पाती सही पितरों की परवाह
जाति धर्म ,कुल धर्म का ,बहुत कठिन निर्वाह।।43।।

भावार्थ :  इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं॥43॥

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥

धर्म रीति का नाश है , कारण एक प्रधान
नरक वास होता है सब ,पुरखों का अवसान।।44।।

भावार्थ :  हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं॥44॥

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌ ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥

अरे,अरे,धिक पाप में गहन फँसे हम आज
जो सुख,राज्य के लोभवश लड़ने चला समाज।।45।।

भावार्थ :  हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं॥45॥

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌ ॥

मुझे निशस्त्र ही युद्ध में कौरव डालें मार
तो भी समझूं कुशल,मैं करूं न कोई प्रहार।।46।।

भावार्थ :   यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा॥46॥

संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥

ऐसा कह अर्जुन गया रथ में निश्चल बैठ
धनुष बाण को फेंककर,मन में दुःख समेट।।47।।

भावार्थ :  संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए॥47॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः। ॥1॥

दोहा सलिला: दोहा के सँग यमक का रंग -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा के सँग यमक का रंग
-- संजीव 'सलिल'
*
खटिया खड़ी न हो अगर, क्यों रोये सरकार?
खटिया खड़ी न हो अगर,चुप सोये सरकार..
*
आँख दिखायी तो भगे,  सर पर रखकर टाँग.
आँख दिखायी तो रहे, फीस डॉक्टर माँग..
*
'माँग भरो ' सुन माँग यह, मजनू भागा दूर.
लैला ने झट कर दिया, लतभंजन भरपूर..
*
साजन सा जन कौन हो?, उस सा कोई न अन्य.
शेष न धर सजनी कहे, सजना 'सलिल' अनन्य..
*
जागना हमने कहा था, जाग ना उसने सुना.
चाहना उसने कहा तो, चाह ना हमने गुना..
*
सबकी है दरकार- हो, सबके दर पर कार.
दर पर कार न हो अगर, लगता सब बेकार..
*
असरदार सरदार बिन, असरहीन सरकार.
चाह रहा भारत मिले, असरकार सरदार..
*
दखल करे खल तो सखे,ऊखल से दो मार.
खल को खल में डाल दो, बट्टा हो हथियार..
*
देवर ने 'दे वर' कहा, भौजी दे वरदान.
कन्यादानी से कहे, विहँस 'गहो वर-दान..
*
मिला भाग से जो करो, उसके समुचित भाग.
गुणा-भाग क्यों कर रहे?, सुख जायेगा भाग..
*
सच कहने में कर रहे, क्यों तुम लाग-लपेट.
लाग लगाकर चोट कर, सारा ध्यान समेट..
*
Acharya Sanjiv Salil

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शनिवार, 17 सितंबर 2011

एक नव गीत : उत्सव का मौसम..... -- संजीव 'सलिल'

एक नव गीत
उत्सव का मौसम.....
संजीव 'सलिल'
*
तुम मुस्काईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
लगे दिहाड़ी पर हम
जैसे कितने ही मजदूर.
गीत रच रहे मिलन-विरह के
आँखें रहते सूर..
नयन नयन से मिले झुके
उठ मिले मिट गया गम.
तुम शर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
देखे फिर दिखलाये
एक दूजे को सपन सलोने.
बिना तुम्हारे छुए लग रहे
हर पकवान अलोने..
स्वेद-सिंधु में नहा लगी
हर नेह-नर्मदा नम.
तुम अकुलाईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
कंडे थाप हाथ गुबरीले
सुना रहे थे फगुआ.
नयन नशीले दीपित
मना रहे दीवाली अगुआ..
गाल गुलाबी 'वैलेंटाइन
डे' की गाते सरगम.
तुम भर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
***********

Acharya Sanjiv Salil

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SHRI MAD BHAGWAT GEETA .. CHAPTER 1 SHLOK 26 TO 40 POETIC HINDI TRANSLATION


SHRI MAD BHAGWAT GEETA ..
CHAPTER 1 SHLOK  26  TO 40 
POETIC HINDI TRANSLATION 


By ..PROF CHITRA BHUSHAN SHRIVASTAVA , JABALPUR 
9425806252




तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌ ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥
श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌ ॥


देखे वहां पै पार्थ ने,पिता प्रपिता महान
गुरू,मामाओं,भाइयों,मित्र ,पौत्र पहचान।।26।।

थे दोनों सेनाओं में श्वसुर,सुहद,सब लोग
जिन्हें देखकर पार्थ को हुआ बड़ा ही क्षोभ।।27।।


भावार्थ :  इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा ,उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।, ॥26 और 27॥


(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌ ।
अर्जुन उवाच
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ ॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥

दया भाव से भरे मन , से बोला तब पार्थ
कृष्ण देख इन स्वजन को तत्पर यों युद्धार्थ।।28।।

शिथिल है मेरे अंग सब , मुख अति सूखा तात !
कंपित है सारा बदन , रोमांचित है गात !!29!!

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है॥28 और 29॥


न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥
दया भाव से भरे मन से बोला तब पार्थ,

गिरा जा रहा हाथ से अनायास गांडीव
त्वचा जल रही,भ्रमित मन,उठना कठिन अतीव।।30।।

भावार्थ :  हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥30॥

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥

लक्षण सारे दिख रहे केशव ! मन विपरीत
स्वजनों का वध युद्ध में , दिखती अनुचित रीति।।31।।

भावार्थ :  हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥

न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥

नहीं विजय की कामना, न ही राज सुख चाह
न ही राज्य वैभव तथा जीवन की परवाह।।32।।

भावार्थ :  हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?॥32॥

येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥

सुख,भोगों औ" राज्य की जिनके हित थी चाह
वे सब उतरे युद्ध में तज,तन धन परवाह।।33।।

भावार्थ :  हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥33॥

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥

पिता,पितामह,पुत्र औ" सब गुरूजन हो अंध
भूल ससुर साले तथा मामा के संबंध।।34।।

भावार्थ :  गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥34॥

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥

इन्हें मारना कब उचित,चाहे खुद मर जाऊं
धरती क्या,त्रयलोक का राज्य भले मैं पाऊं।।35।।

भावार्थ :  हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?॥35॥

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः ॥

धृतराष्ट्रों को मारकर क्या हित होगा श्याम
वध इन आताताइयों का होगा पाप का काम।।36।।

भावार्थ :  हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥36॥

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌ ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥

इन स्वजनों धृतराष्ट्रों का तो उचित नही वध तात
कैसे सुख दे पायेगा,अपनों का आघात।।37।।

भावार्थ :  अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?॥37॥

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌ ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥

लोभ भरी हुई दृष्टि से हो ये अंधे आप
इन्हें न दिखता ,मित्र वद्य कुल विनाष में पाप।।38।।
कुल विनाश के दोष का लखकर फिर सरकार
पाप से बचने के लिये क्यों न करें उपचार।।39।।

भावार्थ :  यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?॥38-39॥

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥

कुल विनाश से सहज है कुल धर्मो का नाश
धर्म नष्ट होता तो फिर सहज अधर्म विकास।।40।।

भावार्थ :  कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है॥40॥

दोहा सलिला: दोहा के सँग यमक का रंग --- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा के सँग यमक का रंग
संजीव 'सलिल'
*
नागिन जैसी झूमतीं , श्यामल लट मुख गौर.
ना-गिन अनगिनती लटें, लगे आम्र में बौर..
*
खो-खोकर वे तंग हैं, खोज-खोज हम तंग.
खेल रुचा खो-खो उन्हें, देख-देख जग दंग..
*
खोना-पाना जिंदगी, खो-ना पा-ना खेल.
पाना ले कस बोल्ट-नट, सके कार्य तब झील..
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नट करतब कर नट नहीं, झटपट दिखला खेल.
चित-पट की मत फ़िक्र कर, हो चित-पट का मेल..
*
गुजर-बसर सबकी हुई, सबने पाया ठौर.
गुजर गया जो ना मिला, कितना चाहा और..
*
बाला-बाली कर रहे, झूम-झूम गुणगान.
बाला बाली उमर की, रूप-रसों की खान..
*
खान-पान जी भर करो, हेल-मेल रख मीत.
पान-खान सीमित रहे, यही जगत की रीत..
*
Acharya Sanjiv Salil

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युग की विभूति: "स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार !" प्रियांजलि शर्मा

स्मृति शेष:                                                      
"स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार !"
प्रियांजलि शर्मा 

 इस देश में संत महात्माओं की कमी नहीं, शाही जिंदगी जीने वाले और कॉरेपोरेट घरानों के लिए कथा करने वाले इन संत- महात्माओं ने अपने ऑडिओ-वीडिओ जारी करने, अपनी शोभा यात्राएं निकालने, अपने नाम और फोटो के साथ पत्रिकाएं प्रकाशित करने और टीवी चैनलों पर समय खरीदकर अपना चेहरा दिखाकर जन मानस में अपना प्रचार करने के अलावा कुछ नहीं किया। मगर इस देश के सभी संत और महात्मा मिलकर भी गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक कर्मयोगी स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार की जगह नहीं ले सकते। शायद आज की पीढ़ी को तो पता ही नहीं होगा कि भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार नामका एक ऐसा सूरज उदय हुआ जिसकी वजह से देश के घर-घर में गीता, रामायण, वेद और पुराण जैसे ग्रंथ पहुँचे सके।

आज `गीता प्रेस गोरखपुर' का नाम किसी भी भारतीय के लिए अनजाना नहीं है। सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित नहीं होगा। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का एक मात्र श्रेय गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक भाईजी हनुमान प्रसाद पोद्दार को है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह भाईजी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है। भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष १९४९ में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ। इस वर्ष यह तिथि शनिवार, 6 अक्टूबर को है।                                                                                         

राजस्थान के रतनगढ़ में लाला भीमराज अग्रवाल और उनकी पत्नी रिखीबाई हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम हनुमान प्रसाद रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण दादी माँ ने किया। दादी माँ के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़न-सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के संत ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दी।

उस समय देश गुलामी की जंजीरों मे जकड़ा हुआ था। इनके पिता अपने कारोबार का वजह से कलकत्ता में थे और ये अपने दादाजी के साथ असम में। कलकत्ता में ये स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों अरविंद घोष, देशबंधु चितरंजन दास, पं, झाबरमल शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले जब कलकत्ता आए तो भाई जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात गाँधीजी से हुई। वीर सावकरकर द्वारा लिखे गए `१८५७ का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से भाई जी बहुत प्रभावित हुए और १९३८ में वे वीर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। १९०६ में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के खिलाफ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरु कर दिया। विक्रम संवत १९७१ में जब महामना पं. मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो भाईजी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।

कलकत्ता में आजादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जखीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में भाईजी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरु करदी। बाद में उन्हें अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान भाईजी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरु करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीजों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, भाई जी ने इस चिकित्सक से होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद खुद ही मरीजों का इलाज करने लगे। बाद में वे जमनालाल बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महादेव देसाई और कृष्णदास जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।

मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिध्द संगीताचार्य विष्णु दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो `पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई जयदयाल गोयन्का जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाई जी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएंगे। फिर उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी और उसे कलकत्ता के वाणिक प्रेस में छपवाई। पहले ही संस्करण की पाँच हजार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन भाईजी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों गलतियाँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोधित संस्करण निकाला मगर इसमें भी गलतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से भाई जी के मन को गहरी ठेस लगी और उन्होंने तय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। बस यही एक छोटा सा संकल्प गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना। उनके भाई गोयन्का जी व्यापार तब बांकुड़ा (बंगाल ) में था और वे गीता पर प्रवचन के सिलसिले में प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके मित्र घनश्याम दास जालान गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके बाद मई १९२२ में गीता प्रेस का स्थापना की गई।

१९२६ में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का अधिवेशन दिल्ली में था सेठ जमनालाल बजाज अधिवेशन के सभापति थे। इस अवसर पर सेठ घनश्यामदास बिड़ला भी मौजूद थे। बिड़लाजी ने भाई जी द्वारा गीता के प्रचार-प्रसार के लिए किए जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए उनसे आग्रह किया कि सनातन धर्म के प्रचार और सद्विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए एक संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए। बिड़ला जी के इन्हीं वाक्यों ने भाई जी को कल्याण नाम की पत्रिका के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया।

इसके बाद भाई जी ने मुंबई पहुँचकर अपने मित्र और धार्मिक पुस्तकों के उस समय के एक मात्र प्रकाशक खेमराज श्री कृष्णदास के मालिक कृष्णदास जी से `कल्याण' के प्रकाशन की योजना पर चर्चा की। इस पर उन्होंने भाई जी से कहा आप इसके लिए सामग्री एकत्रित करें इसके प्रकाशन की जिम्मेदारी मैं सम्हाल लूंगा। इसके बाद अगस्त १९५५ में कल्याण का पहला प्रवेशांक निकला। कहना न होगा कि इसके बाद `कल्याण' भारतीय परिवारों के बीच एक लोकप्रिय ही नहीं बल्कि एक संपूर्ण पत्रिका के रुप में स्थापित होगई और आज भी धार्मिक जागरण में कल्याण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। `कल्याण' तेरह माह तक मुंबई से प्रकाशित होती रही। इसके बाद अगस्त १९२६ से गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने लगा।

भाईजी ने कल्याण को एक आदर्श और रुचिकर पत्रिका का रुप देने के लिए तब देश भर के महात्माओं धार्मिक विषयों में दखल रखने वाले लेखकों और संतों आदि को पत्र लिखकर इसके लिए विविध विषयों पर लेख आमंत्रित किए। इसके साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम कलाकारों से देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकाशित किया। भाई जी इस कार्य में इतने तल्लीन हो गए कि वे अपना पूरा समय इसके लिए देने लगे। कल्याण की सामग्री के संपादन से लेकर उसके रंग-रुप को अंतिम रुप देने का कार्य भी भाईजी ही देखते थे। इसके लिए वे प्रतिदिन अठारह घंटे देते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र हिंदू धर्म की ही पत्रिका के रुप में पहचान देने की बजाय उसमे सभी धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों, रामानुज, निंबार्क, माध्व आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का प्रकाशन किया।

भाईजी ने अपने जीवन काल में गीता प्रेस गोरखपुर में पौने छ: सौ से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित की। इसके साथ ही उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि पाठकों को ये पुस्तकें लागत मूल्य पर ही उपलब्ध हों। कल्याण को और भी रोचक व ज्ञानवर्धक बनाने के लिए समय-समय पर इसके अलग-अलग विषयों पर विशेषांक प्रकाशित किए गए। भाई जी ने अपने जीवन काल में प्रचार-प्रसार से दूर रहकर ऐसे ऐसे कार्यों को अंजाम दिया जिसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। १९३६ में गोरखपुर में भयंकर बाढ़ आगई थी। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के निरीक्षण के लिए पं. जवाहरलाल नेहरु -जब गोरखपुर आए तो तत्कालीन अंग्रेज सरकार के दबाव में उन्हें वहाँ किसी भी व्यक्ति ने कार उपलब्ध नहीं कराई, क्योंकि अंग्रेज कलेक्टर ने सभी लोगों को धौंस दे रखी थी कि जो भी नेहरु जी को कार देगा उसका नाम विद्रोहियों की सूची में लिख दिया जाएगा। लेकिन भाई जी ने अपनी कार नेहरु जी को दे दी।

१९३८ में जब राजस्तथान में भयंकर अकाल पड़ा तो भाई जी अकाल पीड़ित क्षेत्र में पहुँचे और उन्होंने अकाल पीड़ितों के साथ ही मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था करवाई। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद-भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में भाईजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने जीवन-काल में भाई जी ने २५ हजार से ज्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।

फिल्मों का समाज पर कैसा दुष्परिणाम आने वाला है इन बातों की चेतावनी भाई जी ने अपनी पुस्तक `सिनेमा मनोरंजन या विनाश' में देदी थी। दहेज के नाम पर नारी उत्पीड़न को लेकर भाई जी ने `विवाह में दहेज' जैसी एक प्रेरक पुस्तक लिखकर इस बुराई पर अपने गंभीर विचार व्यक्त किए थे। महिलाओं की शिक्षा के पक्षधर भाई जी ने `नारी शिक्षा' के नाम से और शिक्षा-पध्दति में सुधार के लिए वर्तमान शिक्षा के नाम से एक पुस्तक लिखी। गोरक्षा आंदोलन में भी भाई जी ने भरपूर योगदान दिया। भाई जी के जीवन से कई चमत्कारिक और प्रेरक घटनाएं जुड़ी हुई है। लेकिन उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि एक संपन्न परिवार से संबंध रखने और अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण लोगों से जुड़े होने और उनकी निकटता प्राप्त करने के बावजूद भाई जी को अभिमान छू तक नहीं गया था। वे आजीवन आम आदमी के लिए सोचते रहे। इस देश में सनातन धर्म और धार्मिक साहित्य के प्रचार और प्रसार में उनका योगदान उल्लेखनीय है। गीता प्रेस गोरखपुर से पुस्तकों के प्रकाशन से होने वाली आमदनी में से उन्होंने एक हिस्सा भी नहीं लिया और इस बात का लिखित दस्तावेज बनाया कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य इसकी आमदनी में हिस्सेदार नहीं रहेगा। अंग्रेजों के जमाने में गोरखपुर में उनकी धर्म व साहित्य सेवा तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर पेडले ने उन्हें `राय साहब' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन भाई जी ने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद अंग्रेज कमिश्नर होबर्ट ने `राय बहादुर' की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया। देश की स्वाधीनता के बाद डॉ, संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने भाई जी को `भारत रत्न' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई। २२ मार्च १९७१ को भाई जी ने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और अपने पीछे वे `गीता प्रेस गोरखपुर' के नाम से एक ऐसा केंद्र छोड़ गए, जो हमारी संस्कृति को पूरे विश्व में फैलाने में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है.

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शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

नवगीत: हिंद और/ हिंदी की जय हो... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
हिंदी की जय हो...
संजीव 'सलिल'
*
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
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नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय... -- संजीव 'सलिल'






नवगीत:
अपना हर पल है हिन्दीमय...
संजीव 'सलिल'
*

*
अपना हर पल है हिन्दीमय
एक दिवस क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी
जो वे एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को कहते पिछडी.
पर भाषा उन्नत बतलाते.      
घरवाली से आँख फेरकर                                             
देख पडोसन को ललचाते.                                                     
ऐसों की जमात में बोलो,                                                                       
हम कैसे शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक की भाषा.
जिसकी ऐसी गलत सोच है,
उससे क्या पालें हम आशा?
इन जयचंदों  की खातिर
हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ...
*

ध्वनिविज्ञान-नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में  माने जाते.
कुछ लिख, कुछ का कुछ पढ़ने की
रीत न हम हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ...
*
अलंकार, रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की, बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी भाषा में  मिलते,
दावे करलें चाहे झूठे.
देश-विदेशों में हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में संप्रेषण की
भाषा हिंदी सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन में
हिंदी है सर्वाधिक सक्षम.
हिंदी भावी जग-वाणी है
निज आत्मा में 'सलिल' बसाएँ...
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SHRIMADBHAGWAT GEETA
POETIC HINDI TRANSLATION
BY ...Prof C B Shrivastava , Jabalpur
9425806252

Adhyay 1
sholk 12 to 25
 ( दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का कथन )

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान्‌ ॥

संजय ने कहा-
तभी पितामह भीष्म ने करके,शँख निनाद
सबको उत्साहित किया ,सहसा कर सिहंनाद।।12।।

भावार्थ :  कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया॥12॥

ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌ ॥

सब वीरों ने भी बजा अपने अपने वाद्य
शंख,भेरी,पणवानको से किया तुमुल निनाद।।13।।

भावार्थ :  इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ॥13॥

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥

श्वेत अष्वों से युक्त रथ में तब हो आसीन
माधव-पांडव सबो ने दिव्य शंख ध्वनि कीन।।14।।

भावार्थ :  इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए॥14॥

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥

हृषीकेष ने पाञ्चजन्य,अर्जुन  ने देवदत्त
भीम वृकोदर ने किया पौड्र शंख उत्तप्त।।15।।

भावार्थ :   श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया॥15॥

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥

ज्येष्ठ युध्ष्ठिर ने किया अनंत विजय से नाद
नकुल और सहदेव ने भी दिया (शंख) घोष में साथ।।16।।

भावार्थ :  कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए॥16॥

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥

काशिराज धनुवीर ने औ" शिखण्डी रथवान
राजा विराट, धृष्टद्युम्न व सात्यकि वीर महान।।17।।

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌ ॥

द्रुपद द्रौपदी पुत्र सब,महाबाहु अभिमन्यु
सब राजाओं ने किया शंखनाद निज भिन्न।।18।।

भावार्थ :  श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे राजन्‌! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाए॥17-18॥

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्‌ ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्‌ ॥

वह स्वर कौरव सैन्य के हदयों को तब चीर
हुआ व्याप्त नभ-धरा पै गहन और गंभीर।।19।।

भावार्थ :   और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात आपके पक्षवालों के हृदय विदीर्ण कर दिए॥19॥

( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्‌ कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥

तब कुरू सेना को सजी और व्यवस्थित देख
उद्यत लड़ने पार्थ भी हुआ धनुष्य सहेज।।20।।

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाचः
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥

तभी कहा श्री कृष्ण से अर्जुन ने यह वाक्य
अर्जुन ने कहा-
अच्युत,रथ को ले चलो सेन मध्य तत्काल।।21।।

भावार्थ :  हे राजन्‌! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए॥20-21॥

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌ ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥

लड़ने को तैयार जो उनको लूं पहचान
कौन उपस्थित युद्ध की इच्छा ले बलवान।।22।।

भावार्थ :  और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए॥22॥

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥

दुष्ट बुद्धि धृतराष्ट्र के प्रिय जो तथा सहाय
यहां युद्ध का मन बना लड़ने को जो आये।।23।।

भावार्थ :  दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा॥23॥

संजय उवाचः
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्‌ ॥
संजय ने कहा-
अर्जुन ने जब यों कहा हृषीकेष से नाथ
दोनों सेना मध्य गये,उत्तम रथ में साथ।।24।।

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्‌ ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्‌ समवेतान्‌ कुरूनिति ॥

कहा कृष्ण ने पार्थ से देखो कुरूजन सर्व
भीष्म-द्रोण है प्रमुख ओै" राजा कई सगर्व।।25।।

भावार्थ :  संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा कहे अनुसार महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा कर इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख॥24-25॥

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

लेख: साहित्य मे चोरी --आदिल रशीद

लेख:
साहित्य मे चोरी 
आदिल रशीद

कभी -कभी एक ही विषय पर दो कवि एक ही तरह से कहते हैं, उस को चोरी कहा जाए या इत्तिफाक ये एक अहम् सवाल है  आज कल तो ज़रा सा ख्याल टकरा जाने को लोग चोरी कह देते हैं और जिस व्यक्ति  के पास जितने अधिक शब्द हैं वो उतना ही बड़ा लेख लिख मारता है और स्वयंको बहुत बड़ा बुद्धिजीवी साबित करने की कोशिश मे लग जाता है  और बात को बहस का रूप दे देता है जब  के सत्य ये होता है के वो कवि या शायर चोर नहीं होता .
जब भी  कोइ साहित्य मे चोरी की बात करता है तो मैं कहता हूँ ये तवारुदहै और ये किसी के भी साथ हो सकता है खास तौर से नए शायर के साथ जिसने बहुत अधिक साहित्य न पढ़ा हो इसीलिए मैं कहता हूँ के कोई भी नया शेर कहने के बाद ऐसे व्यक्ति को जरूर सुनाना चाहिए जिस ने  बहुत सा साहित्य पढ़ा भी हो और उसे याद भी हो नहीं तो आपके तवारुद को दुनिया चोरी कहेगी
 तवारुद शब्द अरबी का है पुर्लिंग है इसके अर्थ  होते हैं एक ही चीज़ का दो जगह उतरना / एक ही ख्याल का दो अलग अलग कवियों शायरों के यहाँ कहा जाना   
तवारुद के हवाले से जो २  दोहे मैं उदाहरण के तौर पर रखता हूँ वो कबीर और रहीम के हैं  जो अपने अपने काल के महान कवि है 

वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारण, साधुन धरा शरीर।-कबीर(1440-1518

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान।-रहीम(1556-1627.

अब आते हैं मुख्य बात पर ये चोरी है या इत्तफाक:
तो उस ज़माने मे बात का किसी दुसरे के पास पहुंचना नामुमकिन सा था साधन नहीं थे T.V. net फोन अखबार उस समय एक बात दुसरे तक पहुँचने का कोई माध्यम नहीं था और अगर पहुँच भी जाए तो उसमे एक लम्बा और बहुत लम्बा समय लग जाता था इस लिए कबीर और रहीम के दोहों को  तावारुद का नाम दिया जायेगा और आज अगर ऐसा कोई वाकया  होता है तो इसको चोरी और सीना जोरी ही कहा जायेगा.क्युनके आज साधन बहुत हैं 
कवि ने चोरी की है या उस पर तवारुद हुआ है इस बात को उस कवि से बेहतर कोई नहीं जानता जिस ने ये किया होता है क्युनके आज हर बात नेट पर और पुस्तकों मे उपलव्ध है
( लोग चोरी किस किस तरह करते हैं ये मैं अगले  लेखों  में लिखूंगा )

कविता लिखना और कविमना होना और कविमना होने का ढोंग करना अलग अलग बाते हैं  
कविमना तो वह व्यक्ति भी है जो कविता लिखना नहीं जानता ग़ालिब शराबी थे जुआरी थे वेश्याओं के यहाँ भी उनका आना जाना था उन पर अंग्रेजों के लिए मुखबरी के आरोप भी लगे हैं इन सब के बावजूद 
 उर्दू  शायरी मे ग़ालिब बाबा ए सुखन (कविता के पितामाह) हैं और रहेंगे.

एक बात और कहना चाहूँगा के सवाल तो हमेशा छोटा ही होता है जवाब हमेशा सवाल की लम्बाई (उसमे प्रयोग शब्दों की गिनती) से अधिक होता है.
Technicalities को सीखे बग़ैर तो कोई रचना हो ही नहीं सकती जैसे हम बीमार होने पर  झोला  छाप  डॉक्टर या BUMS के पास नहीं जाते  कम से कम उस रोग के माहिर या उस अंग  के माहिर के पास जाते हैं तो ये कहना ग़लत है के बिद्या से क्या.  लेख लिखना भी एक बिद्या है और उसके  अपने अलग फायदे हैं.

 इस्तिफादा और चर्बा(चोरी)
१ . अगर दोनों रचनाकारों के शेर का विषय वही है परन्तु शब्द दुसरे है तो इस्तिफादा कहलाता है यानि प्रेरणा.
२. अगर दोनों रचनाकरों के विषय भी वही है शब्द भी लगभग -लगभग वही हैं तो फिर तो वो चोरी ही हुई
३. अब ये कवि के कविमना होने पर है के वो कितना ईमानदार है और कितनी ईमानदारी से सत्य स्वीकार करता है कहीं वो  बात को छुपा तो नहीं रहा के साहेब मैं ने तो कभी ये शेर सुना ही नहीं.तो मैं कैसे चोर हो सकता हूँ.
३. साहित्य में ईमानदार (कविमना)होना पहली शर्त है.
4 . हम में विद्वान बनने  की होड़ होनी चाहिए किन्तु खुद को विद्वान या बुद्धिजीवी साबित करने की होड़ नहीं होनी चाहिए  
दुनिया में अभी ऐसी कोई तकनीक विकसित नहीं हुई जो झूठ को १०० % पकड़ सके. ये कवि के कविमना होने पर यानी उसकी इमानदारी पर ही है और उसकी इमानदारी पर ही रहेगा.
 मैं  यहाँ प्रेरणा और चोरी दोनों के उदहारण पेश कर रहा हूँ .
इस्तिफादा
मुझे हफीज फ़रिश्ता कहेगी जब दुनिया 
मेरा ज़मीर मुझे संगसार कर देगा (हफीज मेरठी)

खुद से अब रोज़ जंग होनी है
कह दिया उसने आइना मुझको (आदिल रशीद)

यहाँ दोनों ही  शेर  एक  ही  विषय  पर  हैं मगर दोनों  के शब्द अलग अलग हैं ये  प्रेरणा है  यहाँ हफीज मेरठी के शेर का  बिषय है के दुनिया मुझे फ़रिश्ता (कविमना ) कहेगी तो मेरा ज़मीर मुझे पत्थर मारेगा  के तू ऐसा तो है नहीं और दुनिया तुझे देवता(कविमना)  कहती है .
मेरे शेर में भी यही बात है  इस शेर में कहा गया है के उस ने  मुझे आइना यानि फ़रिश्ता ईमानदार (कविमना) कह दिया परन्तु मैं वैसा तो हूँ नहीं अब  इसी बात को लेकर मेरी खुद से जंग होनी है के या तो तू कविमना हो जा या फिर ज़माने को बता दे के तू पाखंडी है धोकेबाज़ है  
अगर मैं न बताऊँ तो कुछ लोग कभी नहीं जान पाएंगे के मैं ने इस शेर की प्रेरणा कहाँ से ली है
चर्बा (CHORI)
कटी पतंग का रुख मेरे घर की जानिब था 
उसे भी लूट लिया लम्बे हाथ वालों ने (आजर सियान्वी)

कटी पतंग मेरी छत पे किस तरह गिरती 
हमारे घर के बगल में में मकान ऊंचे थे (नामालूम, नाम लिखना उचित नहीं)

हमें ईमानदार होना चाहिए किसी की अच्छी बात को अपने नाम से नहीं लिखना चाहिए सत्य को स्वीकार करना चाहिए क्यूँ के साहित्य में भी और जीवन में भी मौलिकता यानि सत्य  बहुत बड़ी चीज़ है
महान शायर अल्लामा इकबाल को यूँ भी महान कहा जाता है के उन्होंने हमेशा खुले मन से स्वीकार किया और खुद लिखा के उनकी मशहूर रचना "लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी " एक अंग्रेजी कविता का अनुवाद है अगर वो ज़माने को उस समय न बताते तो आज के इस नेट युग में सबको पता चल जाता के ये PREY OF CHILD से प्रेरित है उस स्तिथि मे उन पर चोरी का इलज़ाम लगता लेकिन उन्होंने उसी समय जब नेट का  विचार भी नहीं था अब से ५० साल पहले खुद लिख कर अपने को महान बना लिया.

बहुत से लोगो ने उर्दू हिंदी साहित्य में फारसी से कलाम चुराया है जो आज सब लोगों को पता चल गया है उस में बहुत से बड़े नाम हैं.चोरी औरझूठ ऐसी चीज़े है जो कभी छुपती नहीं हैं. इसी लिए कहा जाता है सत्यमेव  जयते  
अंत  में  हिंदी  दिवस  की  हार्दिक बधाई   
जय  हिंद  जय  भारत 
आदिल रशीद

प्रिय पाठकों ,
मेरे ८४ वर्षीय पिता जी , प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव"विदग्ध" ने महाकवि कालिदास की विश्व प्रसिद्ध कृतियों मेघदूतम् , रघुवंशम् , तथा श्रीमद्भगवत्गीता का श्लोकशः छंद बद्ध हिन्दी पद्यानुवाद का कार्य किया है . ग्रंथों में संस्कृत न जानने वाले पाठको की भी इन विश्व ग्रंथो में गहन रुचि है ! ऐसे पाठक अनुवाद पढ़कर ही इन महान ग्रंथों को समझने का प्रयत्न करते हैं ! किन्तु अनुवाद की सीमायें होती हैं ! अनुवाद में काव्य का शिल्प सौन्दर्य नष्ट हो जाता है ! पर इन अनुवादो की विशेषता भावानुवाद , तथा काव्यमय होना ही है . ई बुक्स के इस समय में भी प्रकाशित पुस्तकों को पढ़ने का आनंद अलग ही है ! प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव "विदग्ध" जी ने मेघदूतम् के समस्त १२१ मूल संस्कृत श्लोकों का एवं रघुवंश के सभी १९ सर्गों के लगभग १८०० मूल संस्कृत श्लोकों का , तथा गीता के समस्त १८ अध्यायो के सभी श्लोको का श्लोकशः हिन्दी गेय छंद बद्ध भाव पद्यानुवाद कर हिन्दी के पाठको के लिये अद्वितीय कार्य किया है !
मेघदूतम् के हिन्दी पद्यानुवाद को क्रमशः "दिव्य नर्मदा " में देना प्रारंभ किया था , किन्तु कुछ तकनीकी कारणो से यह क्रम व्याधित हुआ है , जल्दी ही पुनः प्रारंभ किया जावेगा .
आज से श्रीमद्भगवत्गीता के अंश मूल श्लोक , पद्यानुवाद तथा भावार्थ क्रमशः प्रतिदिन पोस्ट किये जावेंगे , पाठको की प्रतिक्रिया ,  सुझाव का स्वागत है .....

श्रीमद्भगवत्गीता विश्व ग्रंथ के रूप में मान्यता अर्जित कर चुका है , गीता में भगवान कृष्ण के अर्जुन को रणभूमि में दिये गये उपदेश हैं , जिनसे धर्म , जाति से परे प्रत्येक व्यक्ति को जीवन की चुनौतियो से सामना करने की प्रेरणा मिलती है . परमात्मा को समझने का अवसर मिलता है . जीवन मैनेजमेंट की शिक्षा गीता से मिलती है .

नयी पीढ़ी संस्कृत नही पढ़ रही है , और ये सारे विश्व ग्रंथ मूल संस्कृत काव्य में हैं , अतः ऐसे महान दिशा दर्शक ग्रंथो के रसामृत से आज की पीढ़ी वंचित है .यह कार्य ८४ वर्षीय प्रो. श्रीवास्तव के सुदीर्घ संस्कृत , हिन्दी तथा काव्यगत अनुभव व ज्ञान से ही संभव हो पाया है . यद्यपि प्रो श्रीवास्तव इसे ईश्वरीय प्रेरणा , व कृपा बताते हैं .

व्यापक जन हित में इन अप्रतिम अनुदित कृतियों को आम आदमी के लिये संस्कृत में रुचि पैदा करने हेतु इन पुस्तकों को प्रकाशित किया जाना है , प्रो श्रीवास्तव ने अपने ब्लाग पर भी अनुवाद के कुछ अंश सुलभ करवाये हैं . उन्होने बताया कि इन ग्रंथो के पुस्तकाकार प्रकाशन के लिये उन्हें प्रकाशको की तलाश है .

उनका पता है
प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर . म.प्र. भारत पिन ४८२००८
फोन ०९४२५८०६२५२
श्रीमद् भगवत गीता

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

( दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥

धृतराष्ट्र ने (संजय से) पूछा-

धर्म क्षेत्र कुरूक्षेत्र में , युद्ध हेतु तैयार
मेरों का पांडवों से , संजय ! क्या व्यवहार।।1।।

भावार्थ :  धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?॥1॥


संजय उवाच
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌ ॥

संजय ने कहा-
पांडव सेना व्यूह रत दुर्योधन ने देख
गुरू द्रोण के पास जा बोला बचन विशेष।।2।।

भावार्थ :  संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा॥2॥


पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌ ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥

दुर्योधन ने कहा (पांडव सेना का वर्णन)

योग्य शिष्य,गुरू आपके द्रुपद पुत्र के हाथ
व्यूह रचित पांडवों की ,सेना देखें नाथ।।3।।

भावार्थ :  हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए॥3॥


अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥

भीमार्जुन सम वीर है , रण में शूर महान
ध्रुपद विराट औ सात्यकी ,धनुधर कुशल समान।।4।।


धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌ ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥

धृष्टकेतु,चेकितान है, काशिराज बलवान
पुरूजित,कुंतीभोज, सब नर श्रेष्ठ,शैव्य समान।।5।।

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌ ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥

युधामन्यु सा पराक्रमी उतमौजा बलवान
अभिमन्यु व द्रौपदी सुत सब रथी महान।।6।

भावार्थ :  इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं॥4-6॥


अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥

कौरव सेना का वर्णन-

अपने पक्ष जो प्रमुख हैं,उन्हें सुनें व्दिज श्रेष्ठ
निज सेना के नायकों में , जो परम् विशिष्ट।।7।।


भावार्थ :  हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ॥7॥


भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥

आप,भीष्म,कृप,कर्ण,सब अति उत्कृष्ट आधार
अश्वत्थामा,सोम दत्ति औ" विकर्ण सरदार।।8।।

भावार्थ :  आप-द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा॥8॥


अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥

अन्य अनेकों वीर वर , मरने को तैयार
मेरे हित कई शस्त्रों के चालन में होशियार।।9।।

भावार्थ :  और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं॥9॥


अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌ ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌ ॥

है विशाल अपना कटक भीष्माधीन पर्याप्त
उनकी सेना भीम की रक्षा में अपर्याप्त।।10।।

भावार्थ :  भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है॥10॥


अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥

अपने अपने अयन में आप सभी तैनात
भीष्म पितामह की सुनें,रक्षा हित सब बात।।11।।

भावार्थ :   इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें॥11॥

दोहा सलिला: हिंदी वंदना --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
हिंदी वंदना
संजीव 'सलिल'
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हिंदी भारत भूमि की आशाओं का द्वार.
कभी पुष्प का हार है, कभी प्रचंड प्रहार..
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हिन्दीभाषी पालते, भारत माँ से प्रीत.
गले मौसियों से मिलें, गायें माँ के गीत..

हृदय संस्कृत- रुधिर है, हिंदी- उर्दू भाल.
हाथ मराठी-बांग्ला, कन्नड़ आधार रसाल..
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कश्मीरी है नासिका, तमिल-तेलुगु कान.
असमी-गुजराती भुजा, उडिया भौंह-कमान..
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सिंधी-पंजाबी नयन, मलयालम है कंठ.
भोजपुरी-अवधी जिव्हा, बृज रसधार अकुंठ..
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सरस बुंदेली-मालवी, हल्बी-मगधी मीत.
ठुमक बघेली-मैथली, नाच निभातीं प्रीत..
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मेवाड़ी है वीरता, हाडौती असि-धार,
'सलिल'अंगिका-बज्जिका, प्रेम सहित उच्चार ..
*
बोल डोंगरी-कोंकड़ी, छत्तिसगढ़िया नित्य.
बुला रही हरियाणवी, ले-दे नेह अनित्य..
*
शेखावाटी-निमाड़ी, गोंडी-कैथी सीख.
पाली, प्राकृत, रेख्ता, से भी परिचित दीख..
*
डिंगल अरु अपभ्रंश की, मिली विरासत दिव्य.
भारत का भाषा भावन, सकल सृष्टि में भव्य..
*
हिंदी हर दिल में बसी, है हर दिल की शान.
सबको देती स्नेह यह, सबसे पाती मान..
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Acharya Sanjiv Salil

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बुधवार, 14 सितंबर 2011

कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना हे चिरनूतन! आजि ए दिनेर प्रथम गाने का भावानुवाद: --संजीव 'सलिल'

कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना  हे चिरनूतन! आजि ए दिनेर प्रथम गाने का भावानुवाद:
संजीव 'सलिल'
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मूल रचना:
हे चिरनूतन! आजि ए दिनेर प्रथम गाने
जीवन आमार उठुक विकाशि तोमारी पाने.
तोमार वाणीते सीमाहीन आशा,
चिरदिवसेर प्राणमयी भाषा-
क्षयहीन धन भरि देय मन तोमार हातेर दाने..
ए शुभलगने जागुक गगने अमृतवायु,
आनुक जीवने नवजनमेर अमल आयु
जीर्ण जा किछु, जाहा किछु क्षीण
नवीनेर माझे होक ता विलीन
धुये जाक जत पुराणो मलिन नव-आलोकेर स्नाने..

(गीत वितान, पूजा, गान संख्या २७३)
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हिंदी काव्यानुवाद:

हे चिर नूतन! गीत आज का प्रथम गा रहा.
हो विकास ऐसा अनुभव हो तुम्हे पा रहा.....
तेरे स्वर में हो असीम अब मेरी आशा
प्राणमयी भाषा चिर दिन की बने प्रकाशा..
तेरे कर से मम मन अक्षय दान पा रहा.....

इस शुभ पल में, अमृत वायु बहे अंबर में.
पूरित करदे नव जीवन अम्लान आयु से..
जो कुछ भी ही जीर्ण-क्षीर्ण नव में विलीन हो.
करे स्नान निष्प्राण-पुराना नवालोक में ..
मलिन शुभ्र हो, मिटे पुराना नया आ रहा.....
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Acharya Sanjiv Salil

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