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गुरुवार, 28 जनवरी 2010

डा० गणेश दत्त सारस्वत नहीं रहे

डा० गणेश दत्त सारस्वत नहीं रहे

(१० दिसम्बर १९३६--२६ जनवरी २०१०)

हिन्दी साहित्य के पुरोधा विद्वता व विनम्रता की प्रतिमूर्ति सरस्वतीपुत्र, डा० गणेश दत्त सारस्वत २६ जनवरी २०१० को हमारे बीच नहीं रहे।

शिक्षा : एम ए, हिन्दी तथा संस्कृत में पी० एच० डी०

प्राप्त सम्मान: उ० प्र० हिंदी संस्थान से अनुशंसा पुरुस्कार, हिंदी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद से साहित्य महोपाध्याय की उपाधि सहित अन्य बहुत से पुरुस्कार।

पूर्व धारित पद: पूर्व विभागाध्यक्ष हिंदी विभाग आर० एम० पी० पी० जी० कालेज सीतापुर
आप ’हिन्दी सभा’ के अध्यक्ष तथा’ ’मानस चन्दन’ के प्रमुख सम्पादक रहे हैं।



सारस्वत कुल में जनम, हिरदय में आवास..
उमादत्त इनके पिता, सीतापुर में वास.

श्यामल तन झुकते नयन, हिन्दी के विद्वान .
वाहन रखते साइकिल, साधारण परिधान..

कोमल स्वर मधुरिम वचन, करते सबसे प्रीति.
सरल सौम्य व्यवहार से, जगत लिया है जीत..

कर्म साधना में रमे, भगिनी गीता साथ.
मानस चन्दन दे रहे, जनमानस के हाथ..

तजी देह गणतन्त्र दिन, छूट गये सब काज.
हुए जगत में अब अमर, सारस्वत महाराज

हिंदी की सारी सभा, हुई आज बेहाल..
रमारमणजी हैं विकल, साथ निरन्जन लाल..

आपस में हो एकता, अपनी ये आवाज.
आओ मिल पूरित करें, इनके छूटे काज..

अम्बरीष नैना सजल, कहते ये ही बात.
आपस में सहयोग हो, हो हाथों में हाथ..

--अम्बरीष श्रीवास्तव

सारस्वत जी नहीं रहे...

श्री सारस्वत जी नहीं रहे, सुनकर होता विश्वास नहीं.
लगता है कर सृजन रहे, मौन बैठकर यहीं कहीं....
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मूर्ति सरलता के अनुपम,
जीवंत बिम्ब थे शुचिता के.
बाधक बन पाए कभी नहीं-
पथ में आडम्बर निजता के.

वे राम भक्त, भारत के सुत,
हिंदी के अनुपम चिन्तक-कवि.
मानस पर अब तक अंकित है
सादगीपूर्ण वह निर्मल छवि.

प्रभु को क्या कविता सुनना है?
या गीत कोई लिखवाना है?
पत्रिका कोई छपवाना है -
या भजन नया रचवाना है?

क्यों उन्हें बुलाया? प्रभु बोलो, हम खोज रहे हैं उन्हें यहीं.
श्री सारस्वत जी नहीं रहे, सुनकर होता विश्वास नहीं...
******************
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम / दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

आइये! हम उन्हें कुछ श्रद्धा सुमन समर्पित करते हैं।

नवगीत / भजन: जाग जुलाहे! --संजीव 'सलिल'

नवगीत / भजन:

संजीव 'सलिल'

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***

आशा-पंछी चहक रहा है.
सुमन सुरभि ले महक रहा है..
समय बीतते समय न लगता.
कदम रोक, क्यों बहक रहा है?
संयम पहरेदार सो रहा-
सुविधा चतुरा चोर हो गयी.

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***

साँसों का चरखा तक-धिन-धिन.
आसों का धागा बुन पल-छिन..
ताना-बाना, कथनी-करनी-
बना नमूना खाने गिन-गिन.
ज्यों की त्यों उजली चादर ले-
मन पतंग, तन डोर हो गयी.

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***

रीते हाथों देख रहा जग.
अदना मुझको लेख रहा जग..
मन का मालिक, रब का चाकर.
शून्य भले अव्रेख रहा जग..
उषा उमंगों की लाली संग-
संध्या कज्जल-कोर हो गयी.

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी
***
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

विशेष लघु कथा:


सीख

आचार्य संजीव ‘सलिल’

भारत माता ने अपने घर में जन-कल्याण का जानदार आँगन बनाया. उसमें सिक्षा की शीतल हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी, उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे.

सिर पर सफ़ेद टोपी लगाये एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प देखकर ललचाया. पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढाया, तितली उड़ गयी. बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खडा.

कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले मित्र के साथ आया. सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढाया, किनारे लगी काई पर पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापिस लौट गया.

तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशासन को तोड़ता, शोर मचाता घर में घुसा और हाथ में हँसिया-हथौडा थामे चौथा बच्चा उससे जा भिड़ा. दोनों टकराए, गिरे, कांटें चुभे और वे चोटें सहलाते सिसकने लगे.

हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर हाथ-पैर फैलाये. धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी उखाड़ लाये.

कुछ देर बाद भारत माता घर में आयीं, कमरे की दुर्दशा देखकर चुप नहीं रह पायीं, दुःख के साथ बोलीं- ‘ मत दो झूटी सफाई, मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई. काश तुम तितली को भुला पाते, काँटों ओ समय रहते देख पाते, मिल-जुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिये लड़ने की जगह औरों के लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते.

सोमवार, 25 जनवरी 2010

गणतंत्र दिवस पर विशेष गीत:

सारा का सारा हिंदी है

आचार्य संजीव 'सलिल'
*

जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.

लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.

गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,

ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.

लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.

प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.

स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.

बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.

पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.

गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.

अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.

ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.

कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.

झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.

कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.

गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.

रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.

आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.

शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.

तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.

रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

आज की रचना: होता था घर एक -संजीव 'सलिल'

आज की रचना:

संजीव 'सलिल'

शायद बच्चे पढेंगे

'होता था घर एक.'

शब्द चित्र अंकित किया

मित्र कार्य यह नेक.

अब नगरों में फ्लैट हैं,

बंगले औ' डुप्लेक्स.

फार्म हाउस का समय है

मिलते मल्टीप्लेक्स.

बेघर खुद को कर रहे

तोड़-तोड़ घर आज.

इसीलिये गायब खुशी

हर कोई नाराज़.

घर न इमारत-भवन है

घर होता सम्बन्ध.

नाते निभाते हैं जहाँ

बिना किसी अनुबंध.

'ई-कविता' घर की बना

अद्भुत 'सलिल' मिसाल.

नाते नव नित बन रहे

देखें आप कमाल.

बिना मिले भी मन मिले,

होती जब तकरार.

दूजे पल ही बिखरता

निर्मल-निश्छल प्यार.

मतभेदों को हम नहीं

बना रहे मन-भेद.

लगे किसी को ठेस तो

सबको होता खेद.

नेह नर्मदा निरंतर

रहे प्रवाहित मित्र.

'ई-कविता' घर का बने

'सलिल' सनातन चित्र..

++++++++++++++++
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शनिवार, 23 जनवरी 2010

The network underlines a prejudice.

नवगीत: चले श्वास-चौसर पर --संजीव 'सलिल'

नवगीत

संजीव 'सलिल'

चले श्वास-चौसर पर
आसों का शकुनी नित दाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सम्बंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार.
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलाम.
बाद को अच्छा माने दुनिया,
कहे बुरा बदनाम.

ठंडक देती धूप,
ताप रही बाहर बेहद छाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सद्भावों की सती तजी,
वर राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य,
चुन लिया असत मिथ्या..
सत्ता-शूर्पनखा हित लड़ते
हाय! लक्ष्मण-राम.
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें- विधाता वाम..

मोह शहर का किया
उजड़े अपने सुन्दर गाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
'सलिल' समय पर न्याय न होता,
करे देर अंधेर.
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर..
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी,
बिना मोल बेदाम.
और कह रहे बेहयाई से
'भला करेंगे राम'.

अपने हाथों तोड़ खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...

***************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

ग़ज़ल बहुत हैं मन में लेकिन --'सलिल'

ग़ज़ल

'सलिल'

बहुत हैं मन में लेकिन फिर भी कम अरमान हैं प्यारे.
पुरोहित हौसले हैं मंजिलें जजमान हैं प्यारे..

लिये हम आरसी को आरसी में आरसी देखें.
हमें यह लग रहा है खुद से ही अनजान हैं प्यारे..

तुम्हारे नेह का नाते न कोई तोड़ पायेगा.
दिले-नादां को लगते हिटलरी फरमान हैं प्यारे..

छुरों ने पीठ को घायल किया जब भी तभी देखा-
'सलिल' पर दोस्तों के अनगिनत अहसान हैं प्यारे..

जो दाना होने का दावा रहा करता हमेशा से.
'सलिल' से ज्यादा कोई भी नहीं नादान है प्यारे..

********************************

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

माँ सरस्वती शत-शत वन्दन --संजीव 'सलिल'

माँ सरस्वती शत-शत वन्दन

संजीव 'सलिल'

माँ सरस्वती! शत-शत वंदन, अर्पित अक्षत हल्दी चंदन.
यह धरती कर हम हरी-भरी, माँ! वर दो बना सकें नंदन.
प्रकृति के पुत्र बनें हम सब, ऐसी ही मति सबको दो अब-
पर्वत नभ पवन धरा जंगल खुश हों सुन खगकुल का गुंजन.
*
माँ हमको सत्य-प्रकाश मिले, नित सद्भावों के सुमन खिलें.
वर ऐसा दो सत्मूल्यों के शुभ संस्कार किंचित न हिलें.
मम कलम-विचारों-वाणी को मैया! अपना आवास करो-
मेर जीवन से मिटा तिमिर हे मैया! अमर उजास भरो..
*
हम सत-शिव-सुन्दर रच पायें ,धरती पर स्वर्ग बसा पायें.
पीड़ा औरों की हर पायें, मिलकर तेरी जय-जय-जय गायें.
गोपाल, राम, प्रहलाद बनें, सीता. गार्गी बन मुस्कायें.
हम उठा माथ औ' मिला हाथ हिंदी का झंडा फहरायें.
*
माँ यह हिंदी जनवाणी है, अब तो इसको जगवाणी कर.
सम्पूर्ण धरा की भाषा हो अब ऐसा कुछ कल्याणी कर.
हिंदीद्वेषी हो नतमस्तक खुद ही हिंदी का गान करें-
हर भाषा-बोली को हिंदी की बहिना वीणापाणी कर.
*

बुधवार, 20 जनवरी 2010

बासंती दोहा ग़ज़ल --संजीव 'सलिल'

बासंती दोहा ग़ज़ल

संजीव 'सलिल'

स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.
किंशुक कुसुम विहंस रहे या दहके अंगार..

पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..

महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए' सर पर नशा सवार..

नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..

नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..

मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..

ढोलक टिमकी मंजीरा, करें ठुमक इसरार.
तकरारों को भूलकर, नाचो गाओ यार..

घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.
अपने मन का मेल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..

बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सूरत-सीरत रख 'सलिल', निएमल-विमल सँवार..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

मुक्तिका: खुशबू -संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

खुशबू

संजीव 'सलिल'


कहीं है प्यार की खुशबू, कहीं तकरार की खुशबू..

कभी इंकार की खुशबू, कभी इकरार की खुशबू..


सभी खुशबू के दीवाने हुए, पीछे रहूँ क्यों मैं?

मुझे तो भा रही है यार के दीदार की खुशबू..


सभी कहते न लेकिन चाहता मैं ठीक हो जाऊँ.

उन्हें अच्छी लगे है दिल के इस बीमार की खुशबू.


तितलियाँ फूल पर झूमीं, भ्रमर यह देखकर बोला.

कभी मुझको भी लेने दो दिले-गुलज़ार की खुशबू.


'सलिल' थम-रुक न झुक-चुक, हौसला रख हार को ले जीत.

रहे हर गीत में मन-मीत के सिंगार की खुशबू..

****************

सोमवार, 18 जनवरी 2010

माइक्रो पोस्ट :माँ रेवा सद्बुद्धि दे विवादों के जनकों को

विवादों से टी० आर० पी० का गहरा रिश्ता है. जब तक कोई हंगामा न हो आदमी को मज़ा ही नहीं आता . माँ रेवा तेरे कई नाम हैं उन्हें कई लोगों ने अपनी पुत्रियों के लिए चुना ..... माँ तूने कोई हंगामा नहीं किया... अब तू ही इन अतिबुद्धिवनों को समझा कि दुद्धिमानी क्या है

नवगीत: हर चहरे पर / नकली चहरा... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'
*

हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
आँखें रहते
सूर हो गए.
क्यों हम खुद से
दूर हो गए?
हटा दिए जब
सभी आवरण
तब धरती के
नूर हो गए.

रोक न पाया
कोई पहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
भूत-अभूत
पूर्व की वर्चा.
भूल करें हम
अब की अर्चा.
चर्चा रोकें
निराधार सब.
हो न निरुपयोगी
कुछ खर्चा.

मलिन हुआ जल
जब भी ठहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
कथनी-करनी में
न भेद हो.
जब गलती हो
तुरत खेद हो.
लक्ष्य देवता के
पूजन हित-
अर्पित अपना
सतत स्वेद हो.

उथलापन तज
हो मन गहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

रविवार, 17 जनवरी 2010

कविता : प्रति कविता योगी “तुलसीदास” --अम्बरीष श्रीवास्तव / संजीव 'सलिल'

कविता : प्रति कविता

योगी “तुलसीदास”

इं० अम्बरीष श्रीवास्तव
“वास्तुशिल्प अभियंता”

हुलसीनन्दन भक्त कवि, गुरु है नरहरिदास |
आत्माराम दुबे पिता, राजापुर था वास ||


प्राणप्रिया रत्नावली, सदा चाहते पास |
धिक्कारित होकर हुए, योगी तुलसीदास ||


दो दो तुलसी विश्व में, दोनों का नहिं छोर |
पहले हरि के मन बसैं, दूजे चरनन ओर||


कालजयी साहित्य के, रचनाकार महान |
भक्ति रूप आकाश में, तुलसी सूर्य समान ||


रामचरितमानस रची, दिये विनय के ग्रन्थ|
भक्ति प्रेम सदभाव ही, तुलसी का है पन्थ||


सगुण रूप निर्गुण धरे, तुलसी का ये भाव |
कर्म योग और भक्ति ही, सबका होय स्वभाव ||

--ambarishji@gmail.com

*

संजीव 'सलिल'


वास्तव में श्री-युक्त वह, जो रचता शुभ काव्य.
है अम्बर के ईश में, नव शुभता संभाव्य..


रत्न अवलि जो धारती, वह दिखलाती राह.
जो तुलसी का दास है, रखे न नश्वर चाह..


श्री हरि शालिग्राम हैं, सदा गुप्त है चित्र.
तुलसी हरि की भाग है, नाता बहुत विचित्र..


हरि ही प्रगटे राम बन, तुलसी गायें नाम.
निज हित तज रत्ना सकी, साध दैव का काम.


दास न तुलसी का रहा, जब रत्ना के मोह.
तज रत्ना स्वयं ही, चाहा दीर्घ विछोह..


आजीवन रत्ना रही, पति प्रति निष्ठावान.
तुलसिदास को दिखाए, तुलसीपति भगवान्..


रत्ना सा दूजा नहीं रत्न, सकी भू देख.
'सलिल' न महिमा गा सका, मानव का अभिलेख..


रत्नापति को नमन कर. श्री वास्तव में धन्य.
अम्बरीश सौभाग्य यह, दुर्लभ दिव्य अनन्य.


'सलिल' विनत रत्ना-प्रति, रत्ना-पति के साथ.
दोनों का कर स्मरण, झुके-उठे भी माथ..


**********************

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

नवगीत: गीत का बनकर / विषय जाड़ा -संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
कोहरे से
गले मिलते भाव.
निर्मला हैं
बिम्ब के
नव ताव..
शिल्प पर शैदा
हुई रजनी-
रवि विमल
सम्मान करता है...

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...

फूल-पत्तों पर
जमी है ओस.
घास पाले को
रही है कोस.
हौसला सज्जन
झुकाए सिर-
मानसी का
मान करता है...

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...

नमन पूनम को
करे गिरि-व्योम.
शारदा निर्मल,
निनादित ॐ.
नर्मदा का ओज
देख मनोज-
'सलिल' संग
गुणगान करता है...

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
खुदी पर
अभिमान करता है...
******

मुक्तक : संजीव 'सलिल'

हैं उमंगें जो सदा नव काम देती हैं हमें.
कोशिशें हों सफल तो अंजाम देती हैं हमें.
तरंगें बनतीं-बिगड़तीं बहें निर्मल हो 'सलिल'-
पतंगें छू गगन को पैगाम देती हैं हमें.
*
सुनो यह पैगाम मत जड़ को कभी भी छोड़ना.
थाम कर लगाम कर में अश्व को तुम मोड़ना.
जहाँ जाना है वहीं के रास्ते पर हों कदम-
भुला कर निज लक्ष्य औरों से करो तुम होड़ ना.
*
लक्ष्य मत भूलो कभी भी, कोशिशें करते रहो.
लक्ष्य पाकर मत रुको, मंजिल नयी वरते रहो.
इरादों की डोर कर में हौसलों की चरखियाँ-
आसमां में पतंगों जैसे 'सलिल' उड़ते रहो.
*
आसमां जब भी छुओ तो ज़मीं पर रखना नज़र.
कौन जाने हवाओं का टूट जाये कब कहर?
जड़ें हों मजबूत बरगद की तरह अपनी 'सलिल'-
अमावस के बाद देखोगे तभी उजली सहर..
*
अमावस के बाद ही पूनम का उजाला होगा.
सघन कितना हो मगर तिमिर तो काला होगा.
'सलिल' कोशिश के चरागों को न बुझने देना-
नियति ने शूल को भी फूल संग पाला होगा..
*

बुधवार, 13 जनवरी 2010

मुक्तक / चौपदे संजीव वर्मा 'सलिल'

मुक्तक / चौपदे

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / संजिव्सलिल.ब्लॉग.सीओ.इन
सलिल.संजीव@जीमेल.com

साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है.
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है.
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर.
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है.

****************************8

ll नव शक संवत, आदिशक्ति का, करिए शत-शत वन्दन ll
ll श्रम-सीकर का भारत भू को, करिए अर्पित चन्दन ll
ll नेह नर्मदा अवगाहन कर, सत-शिव-सुन्दर ध्यायें ll
ll सत-चित-आनंद श्वास-श्वास जी, स्वर्ग धरा पर लायें ll
****************

दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया.
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया.
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया.


******************************************
कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा.
जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा?
बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा-
पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.

*******************************************
कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.
इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.
सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-
दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.


*******************************************
हमने ख़ुद से करी अदावत, दुनिया से सच बोल दिया.
दोस्त बन गए दुश्मन पल में, अमृत में विष घोल दिया.
संत फकीर पादरी नेता, थे नाराज तो फ़िक्र न थी-
'सलिल' अवाम आम ने क्यों काँटों से हमको तोल दिया?

*******************************************
मुंबई पर दावा करते थे, बम फूटे तो कहाँ गए?
उसी मांद में छुपे रहो तुम, मुंह काला कर जहाँ गए.
दिल पर राज न कर पाए, हम देश न तुमको सौंपेंगे-
नफरत फैलानेवालों को हम पैरों से रौंदेंगे.

*******************************************

http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 11 जनवरी 2010

मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद श्लोक ६८ से ७०

मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद
उत्तरमेघ

पद्यानुवादक प्रो. सी .बी. श्रीवास्तव "विदग्ध "


हस्ते लीलाकमलम अलके बालकुन्दानुविद्धं
नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डुताम आनने श्रीः
चूडापाशे नवकुरवकं चारु कर्णे शिरीषं
सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम॥६८॥
जहाँ सुन्दरी नारियाँ दामिनी सी
जहाँ के विविध चित्र ही इन्द्र धनु हैं
संगीत के हित मुरजताल जिनकी
कि गंभीर गर्जन तथा रव गहन हैं
उत्तुंग मणि रत्नमय भूमिवाले
जहाँ हैं भवन भव्य आमोदकारी
इन सम गुणों से सरल , हे जलद !
वे हैं सब भांति तव पूर्ण तुलनाधिकारी

यत्रोन्मत्तभ्रमरमुखराः पादपा नित्यपुष्पा
हंसश्रेणीरचितरशना नित्यपद्मा नलिन्यः
केकोत्कण्ठा भुवनशिखिनो नित्यभास्वत्कलापा
नित्यज्योत्स्नाः प्रहिततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाः॥६९॥

लिये हाथ लीला कमल औ" अलक में
सजे कुन्द के पुष्प की कान्त माला
जहाँ लोध्र के पुष्प की रज लगाकर
स्वमुख श्री प्रवर्धन निरत नित्य बाला
कुरबक कुसुम से जहाँ वेणि कवरी
तथा कर्ण सजती सिरस के सुमन से
सीमान्त शोभित कदम पुष्प से
जो प्रफुल्लित सखे ! तुम्हारे आगमन से

आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर
नान्यस तापं कुसुमशरजाद इष्टसंयोगसाध्यात
नाप्य अन्यस्मात प्रणयकलहाद विप्रयोगोपपत्तिर
वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनाद अन्यद अस्ति॥७०॥

जहाँ के प्रफुल्लित कुसुम वृक्ष गुंजित
भ्रमर मत्त की नित्य गुंजन मधुर से
जहाँ हासिनी नित्य नलिनी सुशोभित
सुहंसावली रूप रसना मुखर से
जहाँ गृहशिखी सजीले पंखवाले
हो उद्ग्रीव नित सुनाते कंज केका
जहाँ चन्द्र के हास से रूप रजनी
सदा खींचती मंजु आनंदरेखा

रविवार, 10 जनवरी 2010

बाल गीत: मनु है प्यारी बिटिया एक --आचार्य संजीव 'सलिल'

बाल गीत:

मनु है प्यारी बिटिया एक

-आचार्य संजीव 'सलिल'
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मनु है प्यारी बिटिया एक.

सुन्दर-सरल दुलारी नेक.

उससे मिलने चूहा आया.

साथ एक बच्चे को लाया.

मनु ने बढ़कर हाथ बढाया.

नए दोस्त को गले लगाया.

दोनों मिलकर खेलें खेल.

कभी न बिगडे उनका मेल.

रखें खिलौने सदा सम्हाल.

मम्मी करें न कोई बवाल.

मनु नीलम मिल झूला झूल.

गयीं फ़िक्र दुनिया की भूल.

'सलिल' साथ मन घूमे दुनिया,

देखे कैसी भूल-भुलैया.

हँसी-ठहाके खूब लगायें.

पढ़-लिख कर मनु पहला आये.

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Acharya Sanjiv Salil

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शनिवार, 9 जनवरी 2010

सामयिक दोहे: संजीव 'सलिल'

सामयिक दोहे:

संजीव 'सलिल'

यह सारा जग ही झूठा है, माया कहते संत.
सार नहीं इसमें तनिक, और नहीं कुछ तंत..

झूठ कहा मैंने जिसे, जग कहता है सत्य.
और जिसे सच मानता, जग को लगे असत्य..

जीवन का अभिषेक कर, मन में भर उत्साह.
पायेगा वह सभी तू, जिसकी होगी चाह..

झूठ कहेगा क्यों 'सलिल', सत्य न उसको ज्ञात?
जग का रचनाकार ही, अब तक है अज्ञात..

अलग-अलग अनुभव मिलें, तभी ज्ञात हो सत्य.
एक कोण से जो दिखे, रहे अधूरा सत्य..

जो मन चाहे वह कहें, भाई सखा या मित्र.
क्या संबोधन से कभी, बदला करता चित्र??

नेह सदा मन में पले, नाता ऐसा पाल.
नेह रहित नाता रखे, जो वह गुरु-घंटाल..

कभी कहें कुछ पंक्तियाँ, मिलना है संयोग.
नकल कहें सोचे बिना, कोई- है दुर्योग..

असल कहे या नक़ल जग, 'सलिल' न पड़ता फर्क.
कविता रचना धर्म है, मर्म न इसका तर्क..
लिखता निज सुख के लिए, नहीं दाम की चाह.
राम लिखाते जा रहे, नाम उन्हीं की वाह..

भाव बिम्ब रस शिल्प लय, पाँच तत्त्व ले साध.
तुक-बेतुक को भुलाकर, कविता बने अगाध..

छाँव-धूप तम-उजाला, रहते सदा अभिन्न.
सतुक-अतुक कविता 'सलिल', क्यों माने तू भिन्न?
सीधा-सादा कथन भी, हो सकता है काव्य.
गूढ़ तथ्य में भी 'सलिल', कविता है संभाव्य..

सम्प्रेषण साहित्य की, अपरिहार्य पहचान.
अन्य न जिसको समझता, वह कवि हो अनजान..

रस-निधि हो, रस-लीन हो, या हो तू रस-खान.
रसिक काव्य-श्रोता कहें, कवि रसज्ञ गुणवान..

गद्य-पद्य को भाव-रस, बिम्ब बनाते रम्य.
शिल्प और लय में रहे, अंतर नहीं अगम्य..
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