ग़ज़ल
'सलिल'
बहुत हैं मन में लेकिन फिर भी कम अरमान हैं प्यारे.
पुरोहित हौसले हैं मंजिलें जजमान हैं प्यारे..
लिये हम आरसी को आरसी में आरसी देखें.
हमें यह लग रहा है खुद से ही अनजान हैं प्यारे..
तुम्हारे नेह का नाते न कोई तोड़ पायेगा.
दिले-नादां को लगते हिटलरी फरमान हैं प्यारे..
छुरों ने पीठ को घायल किया जब भी तभी देखा-
'सलिल' पर दोस्तों के अनगिनत अहसान हैं प्यारे..
जो दाना होने का दावा रहा करता हमेशा से.
'सलिल' से ज्यादा कोई भी नहीं नादान है प्यारे..
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4 टिप्पणियां:
लिये हम आरसी को आरसी में आरसी देखें.
हमें यह लग रहा है खुद से ही अनजान हैं प्यारे..
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ये शेर पूरी ग़ज़ल की जान लगा हमें.
लगातार आपकी उपस्थिति से शब्दकार में जान बनी हुई है.
आभार
छुरों ने पीठ को घायल किया जब भी तभी देखा-
'सलिल' पर दोस्तों के अनगिनत अहसान हैं प्यारे..
.... बेहद प्रसंशनीय शेर !!!!
जिंदगी जिंदादिली का नाम है
आँखों में मस्ती लबों पर जाम है।
-वाह!! बहुत खूब!!
पीठ छुरियों से घायल हुई तो क्या दोस्तों के एहसान भी कहाँ कम थे ..!!
बहुत बढ़िया ...!!
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