नवगीत:
संजीव 'सलिल'
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
कोहरे से
गले मिलते भाव.
निर्मला हैं
बिम्ब के
नव ताव..
शिल्प पर शैदा
हुई रजनी-
रवि विमल
सम्मान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
फूल-पत्तों पर
जमी है ओस.
घास पाले को
रही है कोस.
हौसला सज्जन
झुकाए सिर-
मानसी का
मान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
नमन पूनम को
करे गिरि-व्योम.
शारदा निर्मल,
निनादित ॐ.
नर्मदा का ओज
देख मनोज-
'सलिल' संग
गुणगान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
खुदी पर
अभिमान करता है...
******
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
नवगीत: गीत का बनकर / विषय जाड़ा -संजीव 'सलिल'
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7 टिप्पणियां:
Udan Tashtari :
उम्दा गीत..एक नई सी धारा.
गिरीश पंकज :
har baar ki tarah nav alavan. badhai.
वाह, आचार्य जी!
आपने तो कमाल कर दिया!
आपका ऐसा आशीष पाकर हम सब धन्य हो गए!
बहुत खूब मज़ा आया।
यह संवदेनशील जुड़ाव आदरणीय है।
आचार्य जी !
आपके इन सुंदर आशीर्वचनों से वे धन्य हुए जिनके नाम इस रचना में हैं।
काश, मैंने भी अपनी रचना भेजी होती तो मेरा भी नाम यहाँ होता... :(
acchha likha hai aapne
sach sameer bhai (udan tashtaree)se sahamat hoon
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