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सोमवार, 18 जनवरी 2010

नवगीत: हर चहरे पर / नकली चहरा... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'
*

हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
आँखें रहते
सूर हो गए.
क्यों हम खुद से
दूर हो गए?
हटा दिए जब
सभी आवरण
तब धरती के
नूर हो गए.

रोक न पाया
कोई पहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
भूत-अभूत
पूर्व की वर्चा.
भूल करें हम
अब की अर्चा.
चर्चा रोकें
निराधार सब.
हो न निरुपयोगी
कुछ खर्चा.

मलिन हुआ जल
जब भी ठहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
कथनी-करनी में
न भेद हो.
जब गलती हो
तुरत खेद हो.
लक्ष्य देवता के
पूजन हित-
अर्पित अपना
सतत स्वेद हो.

उथलापन तज
हो मन गहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

5 टिप्‍पणियां:

Purnima Varman: ने कहा…

wah

bahut acchha likha hai

kusum thakur: ने कहा…

bahut hi achhi kavita hai

namaskar

संगीता पुरी: ने कहा…

जी .. बहुत बढिया

नमस्‍कार

Ambarish Srivastava ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी आपकी लेखनी नें बहुत ही सार्थक व प्रेरणादायक नवगीत रचा है | आपको बधाई सहित आपकी लेखनी को कोटिश नमन !
अम्बरीष श्रीवास्तव

अवनीश एस तिवारी ने कहा…

कथनी-करनी में
न भेद हो.
जब गलती हो
तुरत खेद हो.

-- वाह | एक समाधान है |
बधाई |

अवनीश तिवारी