दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
रविवार, 19 जुलाई 2009
अवनीश तिवारी
मुंड माल ,
त्रिशूल विशाल ,
देख डमरू हाथ ,
मन शिवम् गात |
त्रिनेत्र - ललाट ,
जटा गंग- धार ,
गले झूलत नाग ,
मन शिवम् गात |
चन्द्र - भाल ,
ओढे मृग - छाल,
हो तांडव नाच ,
मन शिवम् गात |
कैलाश - नाथ,
करें काम - नाश ,
वंदन दिन - रात ,
मन शिवम् गात |
*********
रविवार, 12 जुलाई 2009
परिचर्चा: चिट्ठाकारी और टिप्पणी-लेखन
यह परिचर्चा सभी के लिए खुली है. आप अपनी राय दें... टिप्पणी देने का औचित्य, तरीका, आकर, प्रकार, शब्दों का प्रयोग, शैली, शिल्प आदे विविध पक्षों पर लिखें - सं.
क्या हिन्दी जगत में ब्लॉग पर टिप्पणी पाने के लिए खुद भी उनके ब्लॉग पर टिपियाना ज़रूरी है ???
हिंदी जगत में चिट्ठाकारी (ब्लोगिंग) का उपयोग अन्यत्र से बिलकुल अलग है. मूलतः चिटठा का उपयोग व्यक्तिगत दैनन्दिनी (डायरी) की तरह किया जाता है किन्तु हिंदी या भारत में यह सामूहिक मंच बन गया है. साहित्य में तो इसने अंतर्जाल पत्रिका का रूप भी ले लिया है. विविध रुचियों और विषयों की रचनाएँ परोसी जा रही हैं. सामान्यतः जो विधाओं के निष्णात हैं वे तकनीक से पूरी तरह अनजान या अल्प जानकर हैं. तकनीक के निष्णात जन बहुधा विधाओं में निपुण नहीं हैं. हिंदी का दुर्भाग्य यह कि ये दोनों पूरक कम स्पर्धी अधिक हैं.
कविता 'गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई' की तरह हर किसी के मन बहलाव का साधन बन गयी है. हर साक्षर महाकवि और युगकवि बनने के मोह में अपने लिखे को भेजने और उन पर प्रशंसात्मक टिप्पणियों के लिए आग्रह करने लगा है. इसी क्रम में टिप्पणियों का आदान-प्रदान और चंद शब्दों का प्रयोग हो रहा है.
रूपाकारविहीन कविता को 'सुन्दर' कहा जा रहा है तोजबकि क्या रूपवती को 'स्वादिष्ट' कहेंगे? दर्द से भरी मर्मस्पर्शी कविता पर 'आह'' नहीं 'वाह' की जा रही है. किसी साहित्यिक विधा के मापदंडों को समझने के स्थान पर खारिज करने का दौर है. 'चोरी और सीनाजोरी' का आलम यह की कोइ जानकार कमी बता दे तो नौसिखिया ताल ठोंककर कहता है 'यह मेरी स्टाइल है'.
टिप्पणी से कोई अमर नहीं होता, अपना प्रचार आप कर प्रशंसा जुटानेवाला भी जनता है की बहुधा किसी रचना को पढ़े बिना ही टिप्पणी ठोंक दी जाती है. बहुत खूब, सराहनीय, लिखते रहिये, क्या बात है? अथवा रचना की कुछ पंक्तियों को कॉपी-पेस्ट करना आम हो गया है. समय बिताना या खुद को महत्वपूर्ण मानने का भ्रम पलना ही इस स्थिति का कारण है.
अच्छी रचनाओं को समझनेवाले कम हैं तो बहुत टिप्पणियाँ कहाँ से आएँगी? इस स्थिति में सुधर केवल तभी संभव है जब जानकार रचनाकार एक-दुसरे को लगातार पढें, तिपानी करें और नासमझों के टिप्पणी भेजने के आग्रह पर मौन रहें.
सामान्यतः रचना किसी योग्य न होने पर भी शिष्टता-शालीनता के नाते उत्साहवर्धन के लिए लिखी गयी टिप्पणियों का उपयोग आत्म-प्रचार में यह कहकर होता है कि इतने योग्य व्यक्ति ने भी इसे सराहा है. अर्चनाओं पर टिप्पणी में गुण-दोषों का विवेचन हो तो हर दिन शतक नहीं लगाया जा सकता. टिप्पणियों के गुण-स्तर या सामग्री को परखे बिना सिर्फ संख्या के आधार पर पुरस्कार देनेवाले भी इस अराजकता के जिम्मेदार हैं.
सारतः यह सत्य है कि 'सब चलता है' और 'लघु-मार्ग (शोर्ट कट) के आदी हम टिप्पणियों में भी बेईमानी पर उतारू हैं. बहुधा प्रशंसात्मक टिपण्णी-लेखन आदान-प्रदान (व्यापार) ही है. अल्प अंश में अच्छे रचनाकार, विद्वान् विवेचक तथा सुधी पाठक भी टिपण्णी करते हैं और ऐसी एक भी टिप्पणी मिल जाये तो रचनाकर्म सार्थक लगता है. मैं अपने रचनाओं को मिलनेवाली ऐसी टिप्पणियों को ही महत्त्व देता हूँ संख्या को नहीं.
गुरुवार, 9 जुलाई 2009
गजल मनु बेतखल्लुस
ये नस्ल, कुछ तुझे बदली नज़र नहीं आती ?
किसी भी फूल पे तितली नज़र नहीं आती
हवा चमन की क्या बदली नज़र नहीं आती ?
ख्याल जलते हैं सेहरा की तपती रेतों पर
वो तेरी ज़ुल्फ़ की बदली नज़र नहीं आती
हज़ारों ख्वाब लिपटते हैं निगाहों से मगर
ये तबियत है कि बहली नज़र नहीं आती
न रात, रात के जैसी सियाह दिखती है
सहर भी, सहर सी उजली नज़र नहीं आती
हमारी हार सियासत की मेहरबानी सही
ये तेरी जीत भी, असली नज़र नहीं आती
कहाँ गए वो, निशाने को नाज़ था जिनपे
कि अब तो आँख क्या, मछली नज़र नहीं आती
न जाने गुजरी हो क्या, उस जवां भिखारिन पर
कई दिनों से वो पगली, नज़र नहीं आती
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
रविवार, 28 जून 2009
तीन गीतिकाएं : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
तुमने कब चाहा दिल दरके?
हुए दिवाने जब दिल-दर के।
जिन पर हमने किया भरोसा
वे निकले सौदाई जर के..
राज अक्ल का नहीं यहाँ पर
ताज हुए हैं आशिक सर के।
नाम न चाहें काम करें चुप
वे ही जिंदा रहते मर के।
परवाजों को कौन नापता?
मुन्सिफ हैं सौदाई पर के।
चाँद सी सूरत घूँघट बादल
तृप्ति मिले जब आँचल सरके।
'सलिल' दर्द सह लेता हँसकर
सहन न होते अँसुआ ढरके।
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गीतिका-२
आदमी ही भला मेरा गर करेंगे।
बदी करने से तारे भी डरेंगे.
बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.
कलम थामे, न जो कहते हकीक़त
समय से पहले ही बेबस मरेंगे।
नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के ख़ुद तरेंगे।
न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।
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(अभिनव प्रयोग)
दोहा गीतिका
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख़्वाब की कैसे हो ताबीर?
बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तकरीर
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी ख़तरनाक तक़्सीर
फेंक द्रौपदी ख़ुद रही फाड़-फाड़ निज चीर
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।
हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर
प्यार-मुहब्बत ही रहे मज़हब की तफ़सीर।
सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।
हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।
हाय!सियासत रह गयी, सिर्फ़ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।
तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
गुरुवार, 18 जून 2009
नवगीत: हवा में ठंडक --सलिल
नवगीत
आचार्य संजीव 'सलिल'
हवा में ठंडक
बहुत है...
काँपता है
गात सारा
ठिठुरता
सूरज बिचारा.
ओस-पाला
नाचते हैं-
हौसलों को
आँकते हैं.
युवा में खुंदक
बहुत है...
गर्मजोशी
चुक न पाए,
पग उठा जो
रुक न पाए.
शेष चिंगारी
अभी भी-
ज्वलित अग्यारी
अभी भी.
दुआ दुःख-भंजक
बहुत है...
हवा
बर्फीली-विषैली,
नफरतों के
साथ फैली.
भेद मत के
सह सकें हँस-
एक मन हो
रह सकें हँस.
स्नेह सुख-वर्धक
बहुत है...
चिमनियों का
धुँआ गंदा
सियासत है
स्वार्थ-फंदा.
उठो! जन-गण
को जगाएँ-
सृजन की
डफली बजाएँ.
चुनौती घातक
बहुत है...
नियामक हम
आत्म के हों,
उपासक
परमात्म के हों.
तिमिर में
भास्कर प्रखर हों-
मौन में
वाणी मुखर हों.
साधना ऊष्मक
बहुत है...
divyanarmada.blogspot.com
divynarmada@gmail.com
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
श्रृद्धांजलि: अल्हड बीकानेरी - संजीव 'सलिल'
सूनापन बढ़ गया हास्य में चला गया है कवि धाँसू ।।
ऊपरवाला दुनिया के गम देख हो गया क्या हैरां?
नीचेवालों को ले जाकर दुनिया को करता वीरां।।
शायद उस से माँग-माँगकर हमने उसे रुला डाला ।
अल्हड औ' आदित्य बुलाये उसने कर गड़बड़ झाला।।
इन लोगों से तुम्हीं बचाओ, इन्हें हँसाया-मुझे हँसाओ।
दुनियावालों इन्हें पढो हँस, इनसे सदा प्रेरणा पाओ।।
ज़हर ज़िन्दगी का पीकर भी जैसे ये थे रहे हँसाते।
नीलकंठ बन दर्द मौन पी, क्यों न आज तुम हँसी लुटाते?
भाई अल्हड बीकानेरी के निधन पर दिव्य नर्मदा परिवार शोक में सहभागी है-सं.
बुधवार, 17 जून 2009
poem: plant a tree- Dr. Ram Sharma, Meerut.
PLANT A TREE
Plant a tree,
become tension free,
water it with care,
no pollution will be there,
birds will chirp,
cool breeze will pup,
it provides shadow,
for peace of dove,
gives us lesson of sacrifice,
make us learn to be suffice,
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हिंदी काव्यानुवाद - संजीव 'सलिल'
एक पौधा लगायें
एक पौधा लगायें
तनाव से मुक्ति पायें
सावधानी से पानी दीजिये
प्रदूषण से पिंड छुडा लीजिये।
चिडियाँ चहचहांयेंगी।
शीतल पवन झूला झुलायेगी।
सघन परछाईं छायेगी।
शान्ति की राह दिखाएगी।
हमें पढ़ाएगी बलिदान का पाठ.
और सिखाएगी- 'कैसे हों ठाठ?'
********************
ग़ज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली
हमसे कभी तो हँसता हुआ आदमी मिले
इस आदमी की भीड़ में तू भी तलाश कर,
शायद इसी में भटका हुआ आदमी मिले
सब तेजगाम जा रहे हैं जाने किस तरफ़,
कोई कहीं तो ठहरा हुआ आदमी मिले
रौनक भरा ये रात-दिन जगता हुआ शहर
इसमें कहाँ, सुलगता हुआ आदमी मिले
इक जल्दबाज कार लो रिक्शे पे जा चढी
इस पर तो कोई ठिठका हुआ आदमी मिले
बाहर से चहकी दिखती हैं ये मोटरें मगर
इनमें, इन्हीं पे ऐंठा हुआ आदमी मिले.
देखें कहीं, तो हमको भी दिखलाइये ज़रूर
गर आदमी में ढलता हुआ आदमी मिले
*****************************
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
आरोग्य-आशा: स्व. शान्ति देवी वर्मा के नुस्खे
इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं।
आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।
इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।
वायु भगाएँ दूर :
एक चुटकी अजवाइन में नीबू रस की कुछ बूँदें डालकर थोड़े से नमक के साथ मिलकर रगड़ लें।
आधा कप पानी के साथ सेवन करने पर कुछ देर बाद वायु निकलना प्रारम्भ हो जायेगी।
पांडू रोग / पीलिया :
अदरक की पतली-पतली फाँकें नीबू के रस में डूबा दें। इसमें अजवाइन के दाने तथा स्वाद के अनुसार नमक मिला दें. अदरक का रंग लाल होने पर तीन-चार बार सेवन करने पर पांडू रोग में लाभ होगा.
इसका साथ रोज सवेरे तथा शाम को किसी बगीचे या मैदान में जहाँ खूब पेड़-पौधे हों घूमना लाभदायक है। बगीचे में खूब गहरी-गहरी साँसें लें ताकि अधिक से अधिक ओषजन वायु शरीर में पहुँचे।
जोडों का दर्द:
सरसों के तेल में लहसुन तथा अजवाइन दल कर आग पर गरम करें। लहसुन काली पड़ने पर ठंडा कर छान लें और किसी शीशी में भर लें। इसकी मालिश करते समय ठंडी हवा न लगे। धीरे-धीरे दर्द कम होकर आराम मिलेगा।
यह तेल कान के दर्द को भी दूर करेगा. दाद, खारिश, खुजली में इसके उपयोग से लाभ होगा. कब्ज से बचें तथा कढ़ी, चांवल जैसा वायु बढ़ने वाला आहार न लें.
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सोमवार, 15 जून 2009
दोहा-अंजलि: सलिल
प्यास मिटा दो दरश की, तब हो 'सलिल' सनाथ.
दुनिया ने छल-कपट कर, किया 'सलिल' को दूर.
नेह-लगन तुमसे लगी, अब तक था मैं सूर.
आभारी हूँ सभी का, तुम ही सबमें व्याप्त.
दस दिश में तुम दिख रहे, शब्दाक्षर हरि आप्त.
मैं-तुम का अंतर मिटा, छाया देव प्रकाश.
दिव्य-नर्मदा नाद सुन, 'सलिल' हुआ आकाश.
कविता: शोभना चौरे
शोभना चौरे
तार तार रिश्तों को
आज महसूस किया|
मैंने बार-बार सीने की कोशिश में
अपने हाथों में सुई भी चुभोई|
किन्तु रिश्तों की चादर
और अधिक जर्जर होती गई
क्या उसे फेंक दूँ?
या संदूक में रख दूँ?
सोचती रही भावना शून्य क्या सच है ?
कितनी ही बार का भावना शून्य व्यवहार
मानस पटल पर अंकित हो गया
चादर तार तार जरूर थी पर उसके रंग गहरे थे |
और उन रंगों ने मुझे फ़िर
भावना की गर्माहट दी
और मैं पुनः उन रंगों को पुकारने लगी |
उन पर होने लगी फ़िर से आकर्षित
उस चादर को फ़िर से सहेजा ,
और उसमें खुश्बू भी ढूंढने लगी
और उस खुशबू ने मुझे
ममता का अहसास दे दिया
और मैंने चादर को फ़िर सहलाकर
सहेजकर रख दिया|
रिशतों की महक को महकने के लिए |
*****************************
शनिवार, 13 जून 2009
कविता: श्रीमती सरला खरे
साहित्य तो रत्नात्मक है .
सीमा नहीं क्षितिज पार है .
मेरे तो क्षीण डैने(पंख) है .
छूट गई हूँ सागर में .
" साहित्य के "सा" का ज्ञान नहीं .
नवीन विधाओं से अनभिज्ञ रही .
सह्र्दये सज्जन का द्रवित हो रहा .
पहुँचा दिए करुण शब्द सागर में "
"कुछ साहित्य सेवियों के मन में दर्द था.
मुखर न हो रहा था , मन में था .
मेरे मन में गूँजते थे वो स्वर
कागज में उतरे अश्रु बनकर."
साहित्य को समाज का दर्पण दिखाइए .
अपनी क्षमता को अम्बर तक पहुचाइए .
रचनाये क्षितिज पार पहुंचे , लेखनी को सतत चलाइए
श्री प्राण शर्मा को जन्म दिन की बधाई
प्राण पा सम्प्राण हो सजती गजल.
बहर में कह रहे बातें अनकही-
अलंकारों से सजी रुचती गजल.
गुजारिश है दिन-ब-दिन रहिये जवां
और कहिये रोज ही महती गजल.
जन्मदिन की शत बधाई लीजिये.
दीजिये बिन कुछ कहे कहती गजल.
'सलिल' शैदा आपके फन पर हुआ-
नर्मदा की लहर सी बहती गजल.
*************************
बाल-गीत: लंगडी खेलें... आचार्य संजीव 'सलिल'
बाल गीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************
गुरुवार, 11 जून 2009
नव-गीत: आचार्य संजीव 'सलिल'
भवनों के जंगल
घनेरे हजारों...
*
कोई घर न मिलता
जहाँ चैन सुख हो।
कोई दर न दिखता
रहित दर्द-दुःख हो।
मन्दिर में हैरां
मनाता है हरि ही
हारा-थका हूँ
हटो रे कतारों...
*
माटी को कुचलो
पर्वत भी खोदो।
जंगल भी काटो-
खुदी नाश बो दो।
मरघट बना जग
तू धूनी रमाना-
न फूलो अहम् से
ओ पंचर गुब्बारों...
*
जो थोथा चना है,
वो बजता घना है।
धोता है, मन
तन तो माटी सना है।
सांसों से आसों का
है क़र्ज़ भारी-
लगा भी दो कन्धा
न हिचको कहारों...
*********************
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
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ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 9 जून 2009
दोहा-गीत संजीव 'सलिल'
दोहा-गीत
-संजीव 'सलिल',संपादक दिव्य नर्मदा
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक.
स्नेह-सलिल सिंचन करें,
महकें सुमन अनेक...
*
मन-वृन्दावन में बसे,
कोशिश का घनश्याम.
तन बरसाना राधिका,
पाले कशिश अनाम..
प्रेम-ग्रंथ के पढ़ सकें,
ढाई अक्षर नेक.
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक.....
*
कंस प्रदूषण का करें,
मिलकर सब जन अंत.
मुक्त कराएँ उन्हें जो
सत्ता पीड़ित संत..
सुख-दुःख में जागृत रहे-
निर्मल बुद्धि-विवेक.
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो, लगायें एक.
*
तरु कदम्ब विस्तार है,
संबंधों का मीत.
पुलक सुवासित हरितिमा,
सृजती जीवन-रीत..
ध्वंस-नाश का पथ सकें,
निर्माणों से छेक.
तरु कदम्ब काटे बहुत,
चलो लगायें एक.....
*********************
दो नवगीत - पूर्णिमा बर्मन
http://www.abhivyakti-hindi.org/lekhak/purnimavarman.htm
रखे वैशाख ने पैर

रखे वैशाख ने पैर
बिगुल बजाती,
लगी दौड़ने
तेज़-तेज़
फगुनाहट
खिले गुलमुहर दमक उठी फिर
हरी चुनर पर छींट सिंदूरी!
सिहर उठी फिर छाँह
टपकती पकी निबौरी
झरती मद्धम-मद्धम
जैसे
पंखुरी स्वागत
साथ हवा के लगे डोलने
अमलतास के सोन हिंडोले!
धूप ओढनी चटक
दुपहरी कैसे ओढ़े
धूल उड़ाती
गली-गली
मौसम की आहट!
*****************
अमलतास
डालों से लटके
आँखों में अटके
इस घर का आसपास
गुच्छों में अमलतास
झरते हैं अधरों से जैसे मिठबतियाँ
हिलते है डालों में डाले गलबहियाँ
बिखरे हैं--
आँचल से इस वन के आँचल पर
मुट्ठी में बंद किए सैकड़ों तितलियाँ
बात बात रूठी
साथ साथ झूठी
मद में बहती वतास
फूल फूल सजी हुईं धूल धूल गलियाँ
कानों में लटकाईं घुँघरू सी कलियाँ
झुक झुक कर झाँक रही
धरती को बार बार
हरे हरे गुंबद से ध्वजा पीत फलियाँ
मौसम ने टेरा
लाँघ के मुँडेरा
फैला सब जग उजास
*******************
सोमवार, 8 जून 2009
कवि-नाटककार दिवंगत
कला जगत व साहित्य जगत के लिए ७ जून २००९ रविवार का दिन अत्यंत दुखद रहा. देश के जाने माने हास्य कवि ओम प्रकाश 'आदित्य' , नीरज पुरी तथा लाड़ सिंह गुज्जर की भोपाल में आयोजित बेतवा महोत्सव से दिल्ली लौटते समय सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी. इस हादसे में तीन लोग गंभीर रूप से घायल हुए हैं। घायलों में ओम व्यास की हालत गंभीर बनी हुई है. दक्षिण दिल्ली के मालवीय नगर में एक स्कूल में अध्यापन का कार्य कर चुके आदित्य को हास्य कविता के क्षेत्र में खासी ख्याति मिली। उनके दो बहुचर्चित काव्य संग्रह 'गोरी बैठे छत्ते पर' और 'इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं' बहुत लोकप्रिय हुए.
जाने माने रंगकर्मी हबीब तनवीर भी इस रविवार नहीं रहे . वे विगत कई दिनों से बीमार चल रहे थे . दिव्य नर्मदा परिवार, परम पिता से दिवंगत आत्माओं को शांति, स्वजनों को यह क्षति सहन करने हेतु धैर्य तथा घायलों के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्रदान करने की कामना करता है.
प्रस्तुत है स्व.ओम प्रकाश'आदित्य' की एक प्रसिद्ध रचना-
इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं।
गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है।
हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है?
जवानी का आलम गधों के लिए है।
ये रसिया, ये बालम गधों के लिए है॥
ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिए है।
ये संसार सालम गधों के लिए है॥
पिलाये जा साकी पिलाये जा डट के।
तू व्हिस्की के मटके पै मटके पै मटके ॥
मैं दुनिया को अब भूलना चाहता हूँ।
गधों की तरह झूमना चाहता हूँ॥
घोडों को मिलती नहीं घास देखो।
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो॥
यहाँ आदमी की कहो कब बनी है?
ये दुनिया गधों के लिए ही बनी है॥
जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है।
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है॥
जो खेतों पे दीखे वो फसली गधा है।
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है॥
मैं क्या बक गया हूँ?, ये क्या कह गया हूँ?
नशे की पिनक में कहाँ बह गया हूँ?
मुझे माफ़ करना मैं भटका हुआ था।
वो ठर्रा था भीतर जी अटका हुआ था॥
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
शनिवार, 6 जून 2009
मालवी कविता - बड़ा की बड़ी भूल
मालवी सलिला :
*
कविता
बड़ा की बड़ी भूल
बालमुकुंद रघुवंशी 'बंसीदा'
*
बड़ा-बड़ा घराणा की,
बड़ी-बड़ी हे पोल।
नी हे कोई में दम,
जी उनकी उडई ले मखोल।
दूर-दराज की
तो बात कई
बड़ा का सांते रेणेवाला
बी सदा डरे।
हर बड़ा मरनेवालो
चार-छे के सांते
ली ने मरे।
थोड़ी दूर
घिसाणा में बी
हरेक छोटो हुई
जाय चकनाचूर।
ईकई वास्ते
अपणावाला बी,
छोटा से
सदा रेवे दूर।
हूँ तमारे आज
दिवई दूं याद,
सबसे बड़ा की
एक बड़ी भूल।
ऊपरवाला ने
तीख काँटा में,
दिया हे
गुलाब का फूल।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
दोहे ;चन्द्रसेन 'विराट', इंदौर
चन्द्रसेन 'विराट', इंदौर
जहाँ देखिये आदमी, जहाँ देखिये भीड़।
दैत्य पसारे जा रहा, धीरे-धीरे पाँव।
महानगर को लग गया, जैसे गति का रोग।
शहरों में जंगल छिपे, डाकू सभ्य विशुद्ध।
धीरे-धीरे कट गए, हरे पेड़ हर ओर।
चले कुल्हाडी पेड़ पर, कटे मनुज की देह।
पेड़ काटने का हुआ, साबित यों आरोप।
बस्ती का होता यहाँ, जितना भी विस्तार।
महानगर यह गावदी!, कसकर गठरी थाम।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.