दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शनिवार, 30 मई 2009
एक मुक्तक
प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव विदग्ध
जिस घर की ईटें हैं जुड़ी गारे के प्यार से
दीवारें हैं रंगी हुई शुभ संस्कार से
उसमें कभी तकरार की आंधी नहीं आती
जलते हैं वहां दीप सदा सद्विचार के
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
शुक्रवार, 29 मई 2009
भारत के गांव

भारत के गांव
प्रो सी.बी. श्रीवास्तव विदग्ध
सात्विक संतोषी बड़े भारत के सब गांव
जिनकि निधि बस झोपड़ी औ" बरगद की छांव
बसते आये हैं जहां अनपढ़ दीन किसान
जिनके जीवन प्राण पशु खीेत फसल खलिहान
अपने पर्यावरण से जिनको बेहद प्यार
खेती मजदूरी ही है जीवन आधार
सबके साथी नित जहां जंगल खेत मचान
दादा भैया पड़ोसी गाय बैल भगवान
जन मन में मिलता जहां आपस का सद्भाव
खुला हुआ व्यवहार सब कोई न भेद दुराव
दुख सुख में सहयोग की जहां सबों की रीति
सबकी सबसे निकटता सबकी सबसे प्रीति
आ पहुंचे यदि द्वार पै कोई कभी अनजान
होता आदर ातिथि का जैसे हो भगवान
हवा सघन अमराई की देती मधुर मिठास
अपनेपन का जगाती हर मन में विश्वास
मोटी रोटी भी जहां दे चटनी के साथ
सबको ममता बांटता हर गृहणी का हाथ
शहरों से विपरीत है गावो का परिवेश
जग से बिलकुल अलग सा अपना भारत देश
मधुर प्रीति रस से सनी बहती यहां बयार
खिल जाते मन के कमल पा एसा व्यवहार
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
चौराहा

चौराहा
विवेक रंजन श्रीवास्तव
आज रंगा है चौराहा
भगवा रंग में
रामनवमीं है आज
कल ईद पर हरे रंग से सराबोर था चौराहा
चुनावों के मौसम में
तिरंगे दो रंगे ,बहुरंगे झण्डों पोस्टरों से
बातो बातों में रातोरात रंग जाता है चौराहा
शहर करता है स्वागत ,
नये साल का चौराहे पर
बिजली टेलीफोन के खम्भों पर बंधे लाउड स्पीकर
हर मौके पर हिट गानो का लगभग
एक सा शोर करते हैं
बैंड बाजों नाचते झूमते लोगो की भीड़ के साथ
अलग अलग मकसदों के लिये
जाने कहां से आ जाते हैं?
जूलूस भर लोग चौराहे पर .
ट्रेफिक थम जाता है
सड़को के दोनो ओर दूकानो से
लोग कौतुहल से देखते हैं जुलूस
जुलूस नारे लगाता गुजर जाता है
लोग फिर अपनी रोजी रोटी के चक्कर में
उलझ जाते हैं
चौराहे पर होती बेइंतिहा आतिशबाजी करती है उद्घोष
क्रिकेट में भारत की जीत का
चौराहे के पान के ठेले पर होती चर्चायें
बन जाती हैं दूसरे दिन अखबारों की खबरें
संसद का प्रति रूप है चौराहा
चौराहे ने देखी हैं
बदलती पीढ़ीयां
पीढ़ीयों के बदलते चाल चलन
सामाजिक बदलाव के बीच
स्थित प्रज्ञ ॠषि सा मूक दर्शक है चौराहा
चौराहे में समाया हुआ है सारा भारत वर्ष
अपनी विविध रंगी संस्कृति के साथ
चौराहे के गोल चक्कर में
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
जिज्ञासा

जिज्ञासा
विवेक रंजन श्रीवास्तव
कैसे निकलता है
चूजा अंडे को फोड़कर ?
कैसे समा जाता है विशाल वट वृक्ष
नन्हें से बीज में
जानना चाहता हूं मै .
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
गुरुवार, 28 मई 2009
सूक्ति सलिला : प्रो. भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' - संजीव 'सलिल'
प्रो. भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' - संजीव 'सलिल'
*
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेँट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं।
सूक्तियां शेक्सपिअर के साहित्य से-Fortune,भाग्य, किस्मत, तकदीर, मुकद्दर, नसीबOur thoughts are ours, their ends none of our own. हम अपने भावों के स्वामी किंतु नहीं परिणामों के.
मात्र विचारों पर ही अपने,'सलिल' हमें अधिकार।
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
ॐ वन्दना: स्व. शान्ति देवी वर्मा
चलीं जानकी प्यारी
चलीं जानकी प्यारी, सूना भया जनकपुर आज...
रोएँ अंक भर मातु सुनयना, पिता जनक बेहाल.
सूना भया जनकपुर आज...
सखी-सहेली फ़िर-फ़िर भेंटें, रखना हमको याद.
सूना भया जनकपुर आज...
शुक-सारिका न खाते-पीते, ले चलो हमको साथ.
सूना भया जनकपुर आज...
चारों सुताओं से कहें जनक, रखना दोउ कुल की लाज.
सूना भया जनकपुर आज...
कहें सुनयना भये आज से, ससुर-सास पितु-मात.
सूना भया जनकपुर आज...
गुरु बोलें: सबका मन जीतो, यही एक है पाठ.
सूना भया जनकपुर आज...
नगरनिवासी खाएं पछाडें, काहे बना रिवाज.
सूना भया जनकपुर आज...
जनक कहें दशरथ से 'करिए क्षमा सकल अपराध.
सूना भया जनकपुर आज...
दशरथ कहें-हैं आँख पुतरिया, रखिहों प्राण समान.
सूना भया जनकपुर आज...
***********
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
काव्य-किरण: सरला खरे
आहत है साहित्य करुण,
करुणा का सागर है कवि।
पावन बूँदें गिर रहीं
तपती रेत पर ॥
*
देश के घर-घर में साहित्य
साहित्य के कर्णधार हैं,
नींव के पत्थर।
*
बैठाये मीडिया ने
मीनारों के कंगूरों पर
साहित्य के पावन स्वरुप का
उपहास करते वानर॥
*
कछुआ-चाल से
चलते हुए भी,
एक दिन साहित्य का
शिखर पर
आधिपत्य होगा।
विद्या का दूषण
कम होगा.
शासन प्रतिभा का होगा।
*****************
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
काव्य-किरण: चुटकी - अमरनाथ
नव काव्य विधा: चुटकी
समयाभाव के इस युग में बिन्दु में सिन्धु समाने का प्रयास सभी करते हैं। शहरे-लखनऊ के वरिष्ठ रचनाकार अभियंता अमरनाथ ने क्षणिकाओं से आगे जाकर कणिकाओं को जन्म दिया है जिन्हें वे 'चुटकी' कहते हैं।
चुटकी काटने की तरह ये चुटकियाँ आनंद और चुभन की मिश्रित अनुभूति कराती हैं। अंगरेजी के paronyms की तरह इसकी दोनों पंक्तियों में एक समान उच्चारण लिए हुए कोई एक शब्द होता है जो भिन्नार्थ के कारण मजा देता है।
गीता
जब से देखा तुझको गीता.
भूल गया मैं पढ़ना गीता..
काले खां
नाम रखा है काले खां
दिल के भी वे काले खां...
चले सदा दो राहों पर. .
पर मिले सदा दोराहों पर॥
नाना
नाना चीजें लाते नाना..
कभी पाइनेपिल कभी बनाना..
है यह कुत्ता पालतू।
पाल सके तो, पाल तू॥
*********************
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 27 मई 2009
लघु कथा:
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराए कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए। उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अंगूठा मांग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया। प्रगट में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा।'
'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बाएँ हाथ का अंगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया। छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अंगूठा जुड़वाया और द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा।
तब से उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अंगूठा लगाने लगे।
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
भाषा वैभव: मगही
गुंजन जय-जय भारती
गाँव-गाँव में, नगर-डगर में
गुन्जय जय-जय भारती....
हिंया न राजा, हिंया न रानी
सबके देश पियारा है।
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
सब में भाईचारा है।
झूम-झूम के भारत-जनता
गावय गाँधी आरती।
गाँव-गाँव में, नगर-डगर में
गुन्जय जय-जय भारती....
मरघट से पनघट तक कैसन
रूप-गंध अलसात है।
बंजर भुइंयाँ विहँस रहल आउ
सगरो सुख अलसात है।
गूंगा गावय गीत सोहावन
मरिया बन गेल मालती।
गाँव-गाँव में, नगर-डगर में
गुन्जय जय-जय भारती....
मड़िया के झाँकय इंजोरिया
मधु रस से मातल हर कोर।
गदरैयल जन-जन के भाषा
उतर पड़ल है सुख के भोर।
सुघड़ गोरिया झूम रहल कि
बुढियन ओढे बरसाती।
गाँव-गाँव में, नगर-डगर में
गुन्जय जय-जय भारती...
****************
हास्य हाइकु: मन्वंतर
लाद दे भार
जो होता नहीं भारी
ले ले आभार॥
२
खाता है चारा
घर होते रबडी
लालू बेचारा॥
३
करें विरोध
संसद में विपक्षी
हैं धृतराष्ट्र॥
************
काव्य किरण: क्षणिकाएँ - देवेन्द्र मिश्रा, छिंदवाडा
अहम्-१
मैंने पूछा-
तुमसे हाल-चाल और
मिला आगे बढ़कर हाथ।
तुम इतराने लगे।
मैंने पूछा-
'किस बात का अहम् तुम्हें?'
तुमने कहा-
'बस, इसी बात का।'
**************
अहम् २
चलो माना कि
झुककर आदमी
आधा हो जाता है.
खड़ा रहकर भी
कौन सा तीर मार लेता है?
सिवाय अहम् को पोसने के.
*******************
मंगलवार, 26 मई 2009
लेख: डॉ. सी. जयशंकर बाबु, संपादक युगमानस
हिंदी के विकास के लिए कई आयामों पर चिंतन के साथ-साथ पूरी निष्ठा के साथ हमें प्रयास करने की आवश्यकता है । देश में आज हिंदी की दुस्थिति को लेकर व्यथित एवं व्यग्र होकर संघर्षपूर्ण स्वर में कोसनेवालों की श्रेणी एक ओर, हिंदी को विश्वभाषा साबित करने की, संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता दिलाने की मांग करनेवालों की श्रेणी दूसरी ओर है । बीच का रास्ता अपनाकर हिंदी के हितवर्धन हेतु अपने स्तर पर योग्य कार्य करनेवाले चंद हितैषी भी हैं । इन सबकी गति से सौ गुना अधिक तेजी से भारत में अंग्रेज़ी के दायरों का विस्तार होता जा रहा है । हिंदी की गति तभी बढ़ेगी जब हम जिम्मेदार एवं प्रभावशाली व्यक्तियों का ध्यान आकर्षित करने में सक्रिय रहेंगे तथा कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें बाध्य करेंगे । भारतीय संविधान की मूल संकल्पना के अनुसार हिंदी को उचित दर्जा दिलाने हेतु उचित दिशा में संघर्ष करना आज हमारा कर्तव्य है ।
सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में हिंदी की स्थिति के संदर्भ में भी हमें तुरंत सचेत होने की बड़ी आवश्यकता है । एक विडंबना है कि हम जानबूझकर कंप्यूटर में जिन चालन प्रणालियों (आपरेटिंग सिस्टम) को अपना चुके हैं उनका आधार अंग्रेज़ी भाषा है । हिंदी भाषा आधारित चालन प्रणालियों से युक्त कंप्यूटर उपलब्ध कराने के लिए हमने उत्पादकों को बाध्य नहीं किया है । सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में राजभाषा नीति के उल्लंघन का यह मूलबिंदु है ।
यहाँ एक और तथ्य पर हमें गौर करने की आवश्यकता है कि कंप्यूटर चालन प्रणालियों में आज सहजतः विश्वभर में मानक अंग्रेज़ी का एक फांट (अक्षर रूप) मिल जाता है । अंग्रेज़ी के अन्य फांट साफ्टवेयर के साथ इसका आदान-प्रदान (परिवर्तनीयता एवं पठनीयता) भी संभव है । हिंदी भाषा आधारित चालन प्रणाली का अभाव तो है ही, मानक हिंदी फांट भी आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं जैसे कि अंग्रेज़ी में उबलब्ध हैं । आज भारतीय बाज़ार में हिंदी के कई साफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनका प्रचार राजभाषा विभाग के तकनीकी कक्ष की ओर से भी किया जा रहा है किंतु मानक फांट साफ्टवेयर के अभाव में हिंदी के हित से बढ़कर अहित ही अधिक हो रहा है ।
हिंदी जिस देश की राजभाषा है वहाँ हिंदी साफ्टवेयर खरीदना पड़ रहा है जब कि अंग्रेज़ी जहाँ की राजभाषा भी नहीं, वहाँ भी मानक अंग्रेज़ी फांट निःशुल्क उपलब्ध हो रहा है । सरकार को चाहिए कि वह एक मानक हिंदी साफ्टवेयर को विकसित कराएँ जिससे कहीं परिवर्तनीयता अथवा पठनीयता की समस्या उत्पन्न न हो । हिंदी के हित में यह आवश्यक है कि विश्वभर में एक मानक फांट साफ्टवेयर निःशुल्क उपलब्ध कराने के लिए प्रावधान रखें । हिंदी के विकास के मार्ग अपने आप खुलने की दिशा में यह भी एक अपेक्षित कदम है । समस्त हिंदी प्रेमी इक दिशा में सरकार को बाध्य करने के लिए आज ही सक्रिय हो जावें, अपने सक्रिय प्रयासों की जानकारी युग मानस को भी अवश्य देते रहें ।
****************
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
गीत - मनोज श्रीवास्तव , लखनऊ
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
विरासत: भजन - स्व. शान्ति देवी वर्मा
ठांडे जनक संकुचाएँ
ठांडे जनक संकुचाएँ, राम जी को का देऊँ ?...
हीरा पन्ना नीलम मोती, मूंगा माणिक लाल।
राम जी को का देऊँ ?
रेशम कोसा मखमल मलमल खादी के थान हजार।
राम जी को का देऊँ ?
कुंडल बाजूबंद कमरबंद, मुकुट अंगूठी नौलख हार।
राम जी को का देऊँ ?
स्वर्ण-सिंहासन चांदी का हौदा, हाथीदांत की चौकी।
राम जी को का देऊँ ?
गोटा किनारी, चादर परदे, धोती अंगरखा शाल।
राम जी को का देऊँ ?
काबुली घोडे हाथी गौएँ शुक सारिका रसाल।
राम जी को का देऊँ ?
चंदन पलंग, आबनूस पीढा, शीशम मेज सिंगार।
राम जी को का देऊँ ?
अवधपति कर जोड़ मनाएं, चाहें कन्या चार।
राम जी को का देऊँ ?
'दुल्हन ही सच्चा दहेज़ है, मत दे धन सामान।'
राम जी को का देऊँ ?
राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन, देन बहु विध सम्मान।
राम जी को का देऊँ ?
शुभाशीष दें जनक-सुनयना, 'शान्ति' होंय बलिहार।
राम जी को का देऊँ ?
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काव्य-किरण
सरला खरे, भोपाल
जब देश पर विपत्ति आएगी
तब काम आएगा
विदेशी बैंकों में
संचित किया धन॥
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देश जूझ रहा है,
मंदी की मार है.
सकल देश में
चुनाव की बहार है॥
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क्या पियेंगे पानी?
कैसे कटेंगी रातें?
बिन पानी सब सून।
बिन बिजली सब अँधेरा॥
*********************
पहले भी थे मंत्री,
सरकार भी थी जोरदार।
आगे भी आयेंगे,
ऐसे ही कर्णधार?
********************
वादा है- छवि सुधारेंगे।
जिनसे वोट खरीदे है,
उन्हीं को तो तारेंगे॥
**************
सोमवार, 25 मई 2009
काव्य किरण :
एक शे'र
आचार्य संजीव 'सलिल'
जब तलक जिंदा था, रोटी न मुहैया थी।
मर गया तो तेरही में दावतें हुईं॥
****************
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
poetry: डॉ. राम शर्मा, मेरठ
Mother, why have you gone away,
why have you become so helpless,
why your face is faded,
why have you engulfed in darkness,
the light of the house,
where have you gone
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
काव्य-किरण: गजल -मनु बेतखल्लुस. दिल्ली
बस आदमी से उखडा हुआ आदमी मिले
हमसे कभी तो हँसता हुआ आदमी मिले
इस आदमी की भीड़ में तू भी तलाश कर,
शायद इसी में भटका हुआ आदमी मिले
सब तेजगाम जा रहे हैं जाने किस तरफ़,
कोई कहीं तो ठहरा हुआ आदमी मिले
रौनक भरा ये रात-दिन जगता हुआ शहर
इसमें कहाँ, सुलगता हुआ आदमी मिले
इक जल्दबाज कार लो रिक्शे पे जा चढी
इस पर तो कोई ठिठका हुआ आदमी मिले
बाहर से चहकी दिखती हैं ये मोटरें मगर,
इनमें इन्हीं पे ऐंठा हुआ आदमी मिले।
देखें कहीं, तो हमको भी दिखलाइये ज़रूर
गर आदमी में ढलता हुआ आदमी मिले
********************************
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
रविवार, 24 मई 2009
लघुकथा: आचार्य संजीव 'सलिल'
Friday, May 22, 2009
गुरु दक्षिणा
रचनाकार परिचय:-
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी. ई., एम.आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है। आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० संस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २० वीं शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, वागविदान्वर सम्मान आदि। म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक रह चुके सलिल जी वर्तमान में लोक निर्माण विभाग मध्य प्रदेश की परिक्षेत्रीय अनुसन्धान प्रयोगशाला में सहायक शोध अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं।
">लघुकथा : गुरु दक्षिणा
एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराए कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए। उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अंगूठा मांग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया। प्रगट में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा।'
'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बाएँ हाथ का अंगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया। छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अंगूठा जुड़वाया और द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा।
तबसे उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अंगूठा लगाने लगे।
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