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शुक्रवार, 15 मई 2009

ग़ज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली


हस्रतों की उनके आगे यूँ नुमाईश हो गई

लब न हिल पाये निगाहों से गुजारिश हो गई

उम्र भर चाहा किए तुझको खुदा से भी सिवा

यूँ नहीं दिल में मेरे तेरी रिहाइश हो गई

अब कहीं जाना बुतों की आशनाई कहर है

जब किसी अहले-वफ़ा की आजमाइश हो गई

घर टपकता है मेरा, सो लौट जाएगा अबर

हम भरम पाले हुए थे और बारिश हो गई

जब तलक वो गौर फरमाते मेरी तहरीर पर

तब तलक मेरे रकीबों की सिफारिश हो गई

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कविता: मशीनी जीवन -अवनीश तिवारी

बैठते-उठते मशीनों के संग,

मशीन बन गया हूँ मैं,

नैतिक मूल्यों से दूर,

निर्जीव, सजीव रह गया हूँ मैं।

मस्तिष्क के पुर्जों का जंग,

विचारों को करता प्रभावहीन,

और अंगों में पड़ता जड़त्व,

स्फूर्ति को बनाता है।

दिनचर्या का हर काम,

बन चुका पर-संचालित,

और मेरे उद्योग का परिणाम,

लगता है पूर्व - नियोजित।

नूतनता का अभाव,

व्यक्तित्व को निष्क्रिय बनाए,

कार्य-प्रणाली के प्रदूषण,

जर्जरता को सक्रिय कर जाए।

जब स्पर्धा के पेंचों का कसाव,


स्वार्थी बना जाता है,

तब मैत्री के क्षणों का तेल,

द्वंद - घर्षण दूर भगाता है।

अन्य नए मशीनों में,

अनदेखा हो गया हूँ,

मशीन से बिगड़ अब,

कबाड़ हो रहा हूँ।

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पुस्तक पंचायत: धर्मों की कतार में इस्लाम, लेखक: अरुण भोले, समीक्षक: अजित वडनेरकर

स्लामी विचारधारा पर प्रायः हर सदी में सवालिया निशान लगता रहा है। ये सवाल वहां भी खड़े हुए जहां इस्लामी परचम मुहम्मद साहब की कोशिशों से फहरा। वहां भी जहां इस्लाम के सिपहसालारों ने दीन के नाम पर हुकुमत कायम की और तमाम ग़ैरमज़हबी काम किए। इस्लाम अपनी जिन खूबियों के तहत फैलता चला गया उन पर ही आज बहस जारी है। सदियों पहले जो मजबूरी में मोमिन बने होंगे, उनके वारिस आज किन्हीं अलग भूमिकाओं के लिए तैयार है। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हादसे के बाद तो बतौर मज़हब इस्लाम पर चर्चा की जगह इस्लामी आतंकवाद ही चर्चा का विषय बना हुआ है।


मौजूदा दौर में इस्लाम की भूमिका पर चर्चा करती एक पुस्तक पिछले दिनों पढ़ी। इसे लिखा है समाजवादी विचारधारा के विद्वान और चिंतक अरुण भोले ने जिन्होंने वर्षों तक अध्यापन और पटना हाईकोर्ट में वकालत के जरिये लंबा सामाजिक अनुभव बटोरा है। मिश्र टोला,दरभंगा के मूल निवासी श्री भोले अब अहमदाबाद के स्थायी निवासी हैं। धर्मों की कतार में इस्लाम शीर्षक पुस्तक नेशनल पब्लिशिंग हाऊंस, दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है।
पुस्तक में इस्लाम के जन्म की परिस्थितियां, इस्लाम पूर्व की अरब जनजातियों की सामाजिक संरचना, संस्कृति और मान्यताओं पर ऐतिहासिक नज़रिये से अध्ययन किया गया है। इस्लाम से पहले की धार्मिक मान्यताओं, प्रचलित पंथों की चर्चा भी महत्वपूर्ण है। पुस्तक आम गैरमुस्लिम के मन से इस्लाम को लेकर उपजने वाले मूलभूत सवालों का जवाब तलाशती नजर आती है साथ ही कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को भी सामने लाती है जो एक सामान्य गैरमुस्लिम नहीं जानता।


सबसे बड़ी बात यह कि मैने इस पुस्तक में यह तलाशने की बहुत कोशिश की कि यह किताब हिन्दुओं को खुश करने के लिए लिखी गई है या मुसलमानों को, मगर ऐसा कोई स्पष्ट संकेत हमें नहीं मिलता। 9/11 और गोधरा दंगों के बाद लेखक के गहन वैचारिक मनन से उपजे विचार ही इस पुस्तक का आधार हैं। लेखक बेबाकी से स्वीकारते हैं कि इस्लामी शासकों ने अत्याचार किये मगर यह भी कबूल करते हैं कि इस मुल्क को सजाने-संवारने में मुसलमानों का योगदान महत्वपूर्ण है।


इस संदर्भ में लेखक अमीर खुसरो की देशभक्ति को याद करते हैं जिन्होंने एक मसनवी में लिखा कि उन्हें हिन्दुस्तान से इस क़दर मुहब्बत है क्योंकि यह उनका मादरे-वतन है। दिल्ली के खूबसूरत बाग़ान का बयान करते हुए वे लिखते हैं कि अगर मक्का शरीफ यह सुन ले तो वह भी आदरपूर्वक हिन्दुस्तान की ओर ही मुंह घुमा ले। श्री भोले जब मिलीजुली संस्कृति की इस गौरतलब पहचान की चर्चा करते हैं तो साथ ही बहुसंख्यक भारतीय मुसलमानों द्वारा वंदेमातरम् बोले जाने पर एतराज जताने पर भी सवाल खड़े करते हैं।


कई चिंतक, घुमाफिरा कर जो बात कहते रहे हैं, वही बात श्री भोले साफ लफ्जों में कहते हैं। इस्लाम का आधार यानी कुरआन की मंशा समझने में कई ऐतिहासिक भूलें हुई हैं। मुल्ला जमात हमेशा मुस्तैद रही कि इस आसमानी किताब की व्याख्या का एकाधिकार उन तक ही सीमित रहे। इस्लाम पर मुक्त चिंतन के दरवाजे बंद रहें। बडे़ तबके को गुमराह कर यह पट्टी पढ़ाई जाती रही कि दीन और सियासत एक चीज़ है और इस्लाम का मक़सद वैसे राज्य की स्थापना है जो शरीयत के मकसद और उसुलों के मुताबिक चले।


इसी व्याख्या के तहत जन्म के कुछ दशक बाद से धर्मों की कतार में इस्लाम सबसे युवा है। यानी उम्र के पायदान पर सबसे पीछे, मगर इल्म और नेकी में सबसे आगे निकलने की राह सब देख रहे हैं, क्योंकि इसी में दुनिया की भलाई है। भारतीय मुसलमानों का इतिहास सिर्फ हज़ार पांचसौ साल का नहीं माना जाएगा, बल्कि उन्हें अपने पुरखों के इतिहास से भी खुद को जोड़कर देखना होगा और उस विरासत पर गर्व करना होगा ही तथाकथित इस्लामी अमल कायम हुआ।


अरब मुल्कों में ही इसने गैर इस्लामी व्यवस्थाओं के खिलाफ जिहाद की शक्ल ली। हिन्दुस्तान को भी काफिर जैसे अनुभव हुए। यही जिहाद इक्कीसवी सदी में आतंकवाद की शक्ल अख्तियार कर चुका है। मगर नतीजा कुछ नहीं है। इस्लाम पिछड़ गया, इस्लाम के माननेवाले पिछड़ गए तरक्की की दौड़ में।


हिन्दुस्तान को इस्लाम से कभी दिक्क़त नहीं हुई, लेकिन भारत को इस्लामी धर्मराज्य बनाने का सपना देखने वाली कट्टरपंथी ताकतों को यहां कोई भी गै़रमोमिन बर्दाश्त नहीं। पाकिस्तान बनने के बावजूद उनका लक्ष्य भारत को पाप से पवित्र कराना है। श्री भोले का आकलन है कि शायद भारतीय मुसलमान ही खुद को ठीक ठीक नहीं पहचान पा रहे हैं। भोले सवाल खड़ा करते हैं कि गैर मुस्लिम दुनिया के नौजवानों की तुलना में मुसलमान नौजवान खुद को कमतर स्थिति में पाता है। ग़रीबी-बेरोज़गारी के चलते वह जिहाद का रास्ता अपनाता है, मगर इन समस्याओं से तो दीगर तबकों के लोग कहीं ज्यादा परेशान हैं ?
हमारा भी यही मानना है कि बेहतर तालीम हासिल करने की दिशा में किसी भी गैरमुस्लिम देश में किसी मोमिन को कभी नहीं रोका गया। भारत की ही मिसाल लें तो आजादी के बाद से मोटे अंदाज के मुताबिक करीब चार लाख करोड़ रुपए सिर्फ जम्मू-कश्मीर पर खर्च किए जा चुके हैं। यह रकम कम नही होती। इससे पूरे भारत की तस्वीर बदली जा सकती है।


पुस्तक एक महत्वपूर्ण सुझाव इस देश के मुसलमानों, खास कर उस तबके के लिए सुझाती है जो सदियों पहले धर्मान्तरित हुआ था। लेखक कहते हैं कि भारतीय मुसलमानों का इतिहास सिर्फ हज़ार पांचसौ साल का नहीं माना जाएगा, बल्कि उन्हें अपने पुरखों के इतिहास से भी खुद को जोड़कर देखना होगा और उस विरासत पर गर्व करना होगा। मुस्लिम समाज की जो समस्याएं हैं, कमोबेश अन्य तबके भी इनसे जूझ रहे हैं, पर वैसी असहिष्णुता और अराजकता वहां नहीं है।


यह भी मुमकिन नहीं है दुनिया को उस मुकाम पर वापस लौटाया जा सके जहां राम-कृष्ण, बुद्ध-लाओत्से,मूसा-ईसा-मुहम्मद खड़े थे। बेहतर सोच और नज़रिया रखें तो हम इन विभूतियों का अस्तित्व हमेशा अपने इर्दगिर्द पाएंगे और उन्हीं से प्रकाशमान भविष्य की राह भी हमें नजर आएगी। धर्मों की कतार में इस्लाम सबसे युवा है। यानी उम्र के पायदान पर सबसे पीछे, मगर इल्म और नेकी में सबसे आगे निकलने की राह सब देख रहे हैं, क्योंकि इसी में दुनिया की भलाई है। 250 रुपए मूल्य की इस पुस्तक को ज़रूर पढ़ने की सलाह मैं सफर के साथियों को दूंगा।


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कविता: धात्री -शोभना चौरे

वह कभी हिसाब नहीं माँगती
तुम एक बीज डालते हो
वह अनगिनत दाने देती है।
बीज भी उसी का होता है
और वह ही उसके लिए
उर्वरक बनती है।
अनेक कष्ट सहकर
अपनी कोख में
उस बीज को पुष्ट बनाती है।
जब- बीज अँकुरित हो
अपने हाथ-पाँव पसारता है
तब वह खुश होती है,
आनंदित होकर बीज को
अर्थात तुमको पनपने देती है
किंतु तुम
उसे कष्ट देकर
बाहर आ जाते हो,
इतराने लगते हो अपने अस्तित्व पर
पालते हो भरम अपने होने का,
लोगो की भूख मिटाने का।
तुम बडे होकर फ़िर फ़ैल जाते हो
उसकी छाती पर अपना हक़ जमाने
तुम हिसाब करने लगते हो
उसके आकार का,
उसके प्रकार का,
भूल जाते हो उसकी उर्वरा शक्ति को ,
जो उसने तुम्हें भी दी
तुम निस्तेज हो पुनः
उसी में विलीन हो जाते
न ही वह बीज को दर्द सुनाती है,
न ही बीज डालनेवाले को।
वह निरंतर देती जाती है।

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गुरुवार, 14 मई 2009

भजन: राम द्वारे आए -स्व. शान्ति देवी

राम द्वारे आए

धन धन भाग हमारे, राम द्वारे आए...

हरे-हरे गोबर से अंगना लिपायो, मोतियन चौक पुराए।
राम द्वारे आए...

केसर से शुभ-लाभ लिखे हैं, जल गुलाब छिड़काये।
राम द्वारे आए...

नारि सुहागन कलश धरे हैं, पंचमुख दिया जलाये।
राम द्वारे आए...

स्वागत करतीं मातु सुनयना, आरती दिव्य जलाए।
राम द्वारे आए...

उमा रमा ब्रम्हाणी शारदा, मंगल गान गुंजाये।
राम द्वारे आए...

शुभाशीष प्रभु चित्रगुप्त का, ब्रम्हा हरि शिव लाये।
राम द्वारे आए...

परी अप्सरा छम-छम नाचें, देव वधूटी गायें।
राम द्वारे आए...

जगत पिता को जगजननी ने, जयमाल संकुच पहनाएं।
राम द्वारे आए...

नभ में हर्षित चाँद-सितारे, सूर्य न लख पछताए।
राम द्वारे आए...

हनुमत वाल्मीकि तुलसी संग 'शान्ति' विहंस जस गाये।
राम द्वारे आए...

नेह नर्मदा बहा रहे प्रभु, नहा परमपद पाए।
राम द्वारे आए...

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शब्द-सलिला: ब्रहस्पति - अजित वडनेरकर

प्रा चीन भारतीय मनीषियों ने खगोलिकी पर बहुत चिन्तन किया था। ग्रह-नक्षत्रों, उनकी गतियों, ग्रहणों और उसके मानव जीवन पर प्रभावों के बारे में वे लगातार सोचते थे। खगोल संबंधी भारतीय ज्ञान फारस होते हुए अरब पहुंचा और फिर वहां से यूनानी, ग्रीक और रोमन समाज तक पहुंचा। हालांकि ज्ञान के आदान-प्रदान का यह सिलसिला दोनो तरफ से था। सौरमंडल के सबसे बड़े ग्रह का नाम गुरु है। इसे बृहस्पति भी कहते हैं जिसका अंग्रेजी नाम है जुपिटर। सप्ताह के सात दिनों में एक गुरु का होता है इसीलिए उसे गुरुवार कहते हैं। गुरु शब्द में ही गुरुता का भाव है। गुरु शब्द की व्युत्पत्ति भी ग्र या गृ जैसी प्राचीन भारोपीय ध्वनियों से मानी जा सकती है जिनमें पकड़ने या लपकने का भाव रहा। गौर करें गुरु में समाहित बड़ा , प्रचंड, तीव्र जैसे भावों पर। हिन्दी में आकर्षण का अर्थ होता है खिंचाव। ग्रह् का अर्थ भी खिंचाव ही है, इससे ही ग्रहण बना है। घर के अर्थ में ग्रह या गृह भी इसी मूल के हैं। ध्यान दें कि गृहस्थी और घर में जो खिंचाव और आकर्षण है जिसकी वजह से लोग दूर जाना पसंद नहीं करते। ग्रहों – खगोलीय पिंडों की खिंचाव शक्ति के लिए भी गुरुत्वीय बल शब्द प्रचलित है जिसे अंग्रेजी में ग्रैविटी कहते हैं जो इसी मूल से उपजा है। फारसी का एक शब्द है बिरजिस जिसका अभिप्राय तारामंडल के सर्वाधिक चमकीले तारे गुरु से ही है। यह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और बृहस्पति से बना है। संस्कृत में बृह् धातु है जिसमें उगना, बढ़ना, फैलना जैसे भाव हैं। आकार और फैलाव के संदर्भ में इससे ही बना है बृहत् (वृहद) शब्द जो बृह+अति के मेल से बना है। इसका मतलब होता है विस्तृत, प्रशस्त, प्रचुर, शक्तिशाली, चौड़ा, विशाल, स्थूल आदि। बृहत्तर शब्द भी इससे ही बना है। संस्कृत में इसके वृह, वृहत् और वृहस्पति, वृहत्तर जैसे रूप भी हैं जो हिन्दी में भी प्रचलित हैं। ऋषि-मुनियों ने गुरु के अत्यधिक प्रकाशमान होने से "..संस्कृत में बृह् धातु है जिसमें उगना, बढ़ना, फैलना जैसे भाव हैं.." उसके बड़े आकार की कल्पना की और उसे बृहस्पति कहा। पुराणों में बृहस्पति को देवताओं का गुरु भी कहा गया है। बृहस् ही ईरानी के प्राचीन रुपों में बिरहिस हुआ और फिर बिरजिस बना। वाजिदअली शाह के शहजादे का नाम बिरजिस कद्र था। बृहस्पति के बड़े आकार, उसकी द्युति अर्थात चमक ही इसके अंग्रेजी नाम जुपिटर के मूल में हैं। भाषाविज्ञानियों ने इसे प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार का शब्द माना है। यह दो धातुओ के मेल से बना है। द्युस dyeu + पेटर peter = जुपिटर Jupiter जिसका मतलब होता है देवताओं के पिता जो बृहस्पति में निहित देवताओं के गुरु वाले भाव का ही विस्तार है। ग्रीक पुराकथाओं में जिऊस का उल्लेख है जो देवताओं का पिता था। प्राचीन भारोपीय धातु dyeu की संस्कृत धातु दिव् से समानता देखें जिसमें चमक, उज्जवलता, कांति, उजाला जैसे भाव हैं। इसी तरह पेटर की पितृ से। प्राचीनकाल से ही मनुष्य ने चमक, प्रकाश द्युति में ही देवताओं की कल्पना की है। सो द्युस-पेटर में जुपिटर अर्थात बृहस्पति का भाव स्पष्ट है। दिव् से ही बना है दिवस अर्थात दिन या दिवाकर यानी सूर्य। दिव् का एक अर्थ स्वर्ग भी होता है क्योंकि यह लोक हमेशा प्रकाशमान होता है। इन्द्र का एक नाम दिवस्पति भी है। जिसकी वजह से लोग दूर जाना पसंद नहीं करते। ग्रहों – खगोलीय पिंडों की खिंचाव शक्ति के लिए भी गुरुत्वीय बल शब्द प्रचलित है जिसे अंग्रेजी में ग्रैविटी कहते हैं जो इसी मूल से उपजा है। फारसी का एक शब्द है बिरजिस जिसका अभिप्राय तारामंडल के सर्वाधिक चमकीले तारे गुरु से ही है। यह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और बृहस्पति से बना है। संस्कृत में बृह् धातु है जिसमें उगना, बढ़ना, फैलना जैसे भाव हैं। आकार और फैलाव के संदर्भ में इससे ही बना है बृहत् (वृहद) शब्द जो बृह+अति के मेल से बना है। इसका मतलब होता है विस्तृत, प्रशस्त, प्रचुर, शक्तिशाली, चौड़ा, विशाल, स्थूल आदि। बृहत्तर शब्द भी इससे ही बना है। संस्कृत में इसके वृह, वृहत् और वृहस्पति, वृहत्तर जैसे रूप भी हैं जो हिन्दी में भी प्रचलित हैं। ऋषि-मुनियों ने गुरु के अत्यधिक प्रकाशमान होने से "..संस्कृत में बृह् धातु है जिसमें उगना, बढ़ना, फैलना जैसे भाव हैं.." उसके बड़े आकार की कल्पना की और उसे बृहस्पति कहा। पुराणों में बृहस्पति को देवताओं का गुरु भी कहा गया है। बृहस् ही ईरानी के प्राचीन रुपों में बिरहिस हुआ और फिर बिरजिस बना। वाजिदअली शाह के शहजादे का नाम बिरजिस कद्र था। बृहस्पति के बड़े आकार, उसकी द्युति अर्थात चमक ही इसके अंग्रेजी नाम जुपिटर के मूल में हैं। भाषाविज्ञानियों ने इसे प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार का शब्द माना है। यह दो धातुओ के मेल से बना है। द्युस dyeu + पेटर peter = जुपिटर Jupiter जिसका मतलब होता है देवताओं के पिता जो बृहस्पति में निहित देवताओं के गुरु वाले भाव का ही विस्तार है। ग्रीक पुराकथाओं में जिऊस का उल्लेख है जो देवताओं का पिता था। प्राचीन भारोपीय धातु dyeu की संस्कृत धातु दिव् से समानता देखें जिसमें चमक, उज्जवलता, कांति, उजाला जैसे भाव हैं। इसी तरह पेटर की पितृ से। प्राचीनकाल से ही मनुष्य ने चमक, प्रकाश द्युति में ही देवताओं की कल्पना की है। सो द्युस-पेटर में जुपिटर अर्थात बृहस्पति का भाव स्पष्ट है। दिव् से ही बना है दिवस अर्थात दिन या दिवाकर यानी सूर्य। दिव् का एक अर्थ स्वर्ग भी होता है क्योंकि यह लोक हमेशा प्रकाशमान होता है। इन्द्र का एक नाम दिवस्पति भी है।

सूक्ति-कोष - Evening संध्या बी.पी.मिश्र 'नियाज़' / सलिल,

विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।


इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।

सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-


Evening संध्या

The setting Sun, and the music at the close,
As the last taste of sweets, is sweetest last.

ढलता रवि, संगीत अंत का, देता उतना ही आल्हाद।
जितना मृदुतम मधुप्रेमी को, लगता मधु का अंतिम स्वाद.

अस्त हो रहा सूर्य हो, या अंतिम संगीत.
लगे मधुरतम, आख़िरी, मिष्ठानों सा मीत..


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अमर पंक्तियाँ....


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स्व. रामकृष्ण श्रीवास्तव, जबलपुर

जो कलम सरीखे टूट गए पर झुके नहीं,
उनके आगे यह दुनिया शीश झुकाती है.
जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गयी,
वह तो मशाल की तरह उठाई जाती है..

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:: पर्यावरण गीत :: -आचार्य संजीव'सलिल'


फ़र्ज़ हमारा क्या है?, तनिक विचार करें.

नहीं गैर का, खुद का तो उपकार करें..

हरी-भरी धरती, शीतल जल हमें मिला।


नील गगन नीचे, यह जीवन-सुमन खिला॥


प्राणदायिनी पवन शुद्ध ले बड़े हुए।


गिरे-उठे, रो-हँस, लड़-मिलकर खड़े हुए॥


सबल हुए तो हरियाली को मिटा दिया.

पेड़ कटते हुए न कांपा तनिक हिया॥


मलिन किया निर्मल जल, मैल बहाया है।


धुंआ विषैला चारों तरफ उड़ाया है॥


शांति-चैन निज हर, कोलाहल-शोर भरा।


पग-पग पर फैलाया है कूड़ा-कचरा..

नियति-नटी के नयनों से जलधार बही।


नहीं पैर धरने को निर्मल जगह रही..

रुकें, विचारें और न अत्याचार करें.

फ़र्ज़ हमारा क्या है?, तनिक विचार करें....

सम्हले नहीं अगर तो मिट ही जायेंगे।


शाह मिलने के पहले पिट भी जायेंगे॥


रक्षक कवच मिट रहा है ओजोन का.

तेजाबी वर्षा झेले नर कौन सा?

दूषित फिजा हो रही प्राणों की प्यासी।


हुई जिन्दगी स्वयं मौत की ज्यों दासी..

बिन पानी सब सून, खो गया है पानी।


दूषित जल ले आया, बंजर-वीरानी.

नंगे पर्वत भू ऊसर-वीरान है।


कोलाहल सुन हाय! फट रहा कान है.

पशु भी बदतर जीवन जीने विवश हुए।


मिटे जा रहे नदी, पोखरे, ताल, कुए.

लाइलाज हो रोग-पूर्व उपचार करें।


फ़र्ज़ हमारा क्या है?, तनिक विचार करें...

क्या?, क्यों?, कैसे? बिगडा हमें न होश है।


शासन, न्याय, प्रशासन भी मदहोश है.

जनगण-मन को मीत जगना ही होगा।


अंधकार से सूर्य उगाना ही होगा.

पौधे लेकर गोद धरा को हरा करें।


हुई अत्यधिक देर किन्तु अब त्वरा करें..

धूम्र-रहित तकनीक सौर-ऊर्जा की है।


कृत्रिम खाद से अनुपजाऊ की माटी है.

कचरे से कम्पोस्ट बना उर्वरता दें।


वाहन-ईंधन कम कर स्वच्छ हवा हम लें.

कांच, प्लास्टिक, कागज़ फिर उपयोग करें।


सदा स्वच्छ जल, भू हो वह उद्योग करें..

श्वास-आस का 'सलिल' सदा सिंगार करें।


फ़र्ज़ हमारा क्या है?, तनिक विचार करें...

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शनिवार, 9 मई 2009

धुँआधार , जबलपुर

सूक्ति-सलिला: Equality समानता -प्रो बी.पी. मिश्र 'नियाज़' /सलिल

विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।


इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।

सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-


Equality समानता

Mean and mighty, rotting
Together, have one dust.

निर्धन हो या धनी अंत में इसी धूल में मिलना है.

निर्धन या धनवान हो, माने एक समान।

नियति धूल में दे मिला, तनिक न अंतर मान॥


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स्वास्थ्य सम्पदा बचायें : दादी माँ के घरेलू नुस्खे


इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं।

आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।

इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।

रोग: अफारा / पेट फूलना / वायु विकार

जायफल को पीसकर नीबू के रस के साथ मलकर चाटने से दस्त साफ़ होकर पेट की वायु निकल जाती है।
पीस जायफल चाट लें , नीबू रस के संग।
हाजत हो अफरा मिटे, जीत सकें हे जंग॥

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गुरु वन्दना: विद्या सक्सेना, कानपूर,

बलिहारी गुरु सोवत दीन जगाय.
जन्म-जन्म का सोया मनुआ, शब्दन लीन चिताय.
माया-मोह में हम लिपटाने, जग में फिरत भुलाय.
जन्म-कर्म के बंधन निशदिन, रहत हमें भरमाय.
काम-क्रोध की नदिया गहरी, लेती हमें बहाय.
बलिहारी गुरु संत हुलसी!, 'विद्यहि' लीन बचाय.
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कविता: ईश्वर हमारे कितने करीब -डॉ. अनूप निगम, उज्जैन


मंदिर में
सलाखों के बीच
इंसानी फितरत से
भगवान कैद में है.
उसी भगवान से मिलने को
उसकी एक झलक पाने को
इंसानों का समूह बेचैन है.
घने ऊंचे पदों में,
पक्षियों के मधुर कोलाहल के बीच
शांत-सौम्य बहती नदी के साथ
ईशवर स्वतंत्र, स्वच्छंद, जीवंत है.
इन्हें बहुत तेजी से
ख़त्म करता हुआ
नासमझ इन्सान
अपने ही ईश्वर से
दूर रहने को अभिशप्त है..
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शब्द-सलिला: चींटी -अजित vadnerkar

Acharya Sanjiv Salilhttp://divyanarmada.blogspot.com

कि सी चीज़ के अत्यंत छोटे आकार की तुलना अक्सर चींटी से की जाती है। यही नहीं, कम हैसियत को भी चींटी की लघुता से आंकने का प्रचलन रहा है। कमरफ्तारी को भी चींटी की गति से आंका जाता है। जीव जगत में रोज़ नज़र आने वाले लघुतम प्राणियों में चींटी प्रमुख है क्योंकि इसका इन्सान के साथ साहचर्य है और इसीलिए इन्सान का मिथ्या गर्वबोध हमेशा चींटी की तरह मसलने वाले मुहावरे में झलकता है। यह इन्सान की फितरह है कि वह हमेशा सहचरों का ही विनाश करता है, अनिष्ट सोचता है। क्या इसीलिए तो सृष्टि में अकेला नहीं है?
चींटी की व्युत्पत्ति संस्कृत की चुण्ट् धातु से हुई है इसी धातु से हिन्दी के कई अन्य शब्द भी जन्मे हैं। दिलचस्प यह कि इसमें कहीं भी सूक्ष्मता या लघुता का भाव नहीं है। चुण्ट् धातु का अर्थ होता है खींचना, सताना, कष्ट देना, दबाना, नोचना, खरोचना आदि। चुण्टिका से ही बना है ... प्रेमचंद की ईदगाह कहानी में चिमटे की महिमा का खूब बखान हुआ है... चींटी शब्द। चींटी के अग्र भाग में सूई की नोक की तरह तीक्ष्ण स्पर्शक होते हैं जिन्हें चुभाकर यह पौधों और जीवों से आहार ग्रहण करती है। इसके स्पर्शकों की तेज चुभन को ही हम चींटी का काटना कहते हैं।
शरीर की एक ही मुद्रा लगातार बनी रहने पर अक्सर उस हिस्से में रक्त प्रवाह रुक जाता है और इसका बोध होने पर उस हिस्से में संवेदना शून्य हो जाती है। जब रक्त प्रवाह फिर शुरू होता है तो रक्त प्रवाह की तेजी से उस हिस्से में चींटी के हजारों हल्के दंश जैसी पीड़ा महसूस होती है। आमतौर पर इस अनुभूति को चींटी चढ़ना या चींटी आना भी कहा जाता है। बड़े आकार की चींटी को चींटा कहा जाता है। चींटी के काटने के अंदाज़ को ही चिमटी, चिकोटी लेना या चिमटी भरना कहा जाता है। पश्चिमी संभ्यता में न्यू पिंच का शिष्टाचार भी होता है, जिसका चलन हिन्दुस्तान में भी है। यह शब्द भी चुण्ट् से ही बना है। लोहे की दो समानान्तर भुजाओं वाला एक उपकरण जो ज्यादातर रसोईघर में चूल्हे से रोटी उतारने के काम आता है, चिमटा कहलाता है। चिमटी की क्रिया पर गौर करें। दो अंगुलियों से त्वचा पकड़ कर खीचने को चिमटी भरना या चिमटी लेना कहते हैं। चिमटा भी यही काम करता है।
विरक्त या वीतरागी भाव के लिए भी चिमटा बजाना एक मुहावरा है। कभी कभी निठल्लो के लिए भी यह इस्तेमाल होता है। चिमटा यूं घोषित वाद्ययंत्र नहीं है पर लोकसंगीत में चिमटे का प्रयोग होता है। बजानेवाला चिमटा आकार में काफी बड़ा और भारी होता है। इसके सिरे पर एक कुंदा लगा होता है। दोनो भुजाओं को खड़ताल की तरह से एक दूसरे से टकराकर ध्वनि पैदा की जाती है। यह काम एक हाथ करता है और दूसरा हाथ कुंदे को बजाता है। मूलतः यह तालवाद्य की तरह काम करता है। इसे साधु-फकीर-कलंदर भी अपने साथ रखते हैं और गाते हुए इसे बजाते हैं। रुढ़ी और अंधविश्वास के दाग भी चिमटेने ही लगाए हैं। देहात में रोगग्रस्त को अक्सर प्रेतबाधा ग्रस्त बता कर दागने की परम्परा है। यह दाग आग में तपाए हुए चिमटे से ही लगाया जाता है।
प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध कहानी ईदगाह के प्रमुख पात्र नन्हे हमीद के बहाने से चिमटे की महिमा का बखूबी बयान किया है। आए दिन के क्रियाकलापों में शरीर जख़्मी होता रहता है। छोटे मोटे जख्म को संस्कृत में हाथी और चींटी की न सिर्फ राशि एक है बल्कि उनके नाम भी एक ही मूल से उपजे हैं। चोट कहा जाता है जो इसी शब्द श्रंखला का शब्द है। चुण्ट् में नोचने खरोचने का भाव स्पष्ट है जो शरीर के लिए कष्टकारी है। चोट भी एक ऐसा ही आघात है। चोट से ही बना है चोटिल शब्द अर्थात जख्मी होना।
मराठी में चींटा-चींटी को मुंगा-मुंगी कहते हैं। शुद्ध रूप में यह मुंगळा मुंगळी है। “तू मुंगळा मैं गुड़ की डली” वाले उषा मंगेशकर के लोकप्रिय हिन्दी गीत के जरिये कई लोग इस मराठी शब्द से परिचित हो चुके हैं। मुंगा या मुंगी शब्द द्रविड़ मूल का है। दक्षिणी यूरोप के मेडिटरेनियन क्षेत्र की ज्यादातर भाषाओं में चींटी के लिए फार्मिका formica या इससे मिलते जुलते शब्द हैं जैसे फ्रैंच में फोर्मी, स्पेनिश में फोर्मिगा, कोर्सिकन में फुर्मिकुला आदि। यह लैटिन के फोर्मिका से बना है जिसका मतलब होता है लाल कीट। जाहिर है लाल रंग की चींटियों के लिए ही किसी ज़माने में यह प्रचलित रहा होगा। छोटी सी चींटी हाथी को पछाड़ सकती है, जैसी कहावतें खूब प्रचलित हैं। मगर दिलचस्प तथ्य यह है कि संस्कृत में हाथी और चींटी की न सिर्फ राशि एक है बल्कि उनके नाम भी एक ही मूल से उपजे हैं।
संस्कृत में चींटी को कहते हैं पिपीलः, पिपीली। यह बना है संस्कृत की पील् धातु से जिसमें एक साथ सूक्ष्मता और समष्टि दोनो का भाव है। इसका अर्थ होता है अणु या समूह। सृष्टि अणुओं का ही समूह है। चींटी सूक्ष्मतम थलचर जीव है। चींटे के लिए संस्कृत में पिपिलकः, पिलुकः जैसे शब्द हैं। बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में भी चींटी को पिपिलिका ही कहा जाता है। जो लोग पुराने अंदाज़ वाले शतरंज के शौकीन हैं वे इसके मोहरों का नाम भी जानते होंगे। इसमें हाथी को फीलः या फीला कहा जाता है। यह फारसी का शब्द है और अवेस्ता के पिलुः से बना है। संस्कृत में भी यह इसी रूप में है। इसमें अणु, कीट, हाथी, ताड़ का तना, फूल, ताड़ के वृक्षों का झुण्ड आदि अर्थ भी समाये हैं। गौर करें इन सभी अर्थों में सूक्ष्मता और समूहवाची भाव हैं।
फाईलेरिया एक भीषण रोग होता है जिसमें पांव बहुत सूज कर खम्भे जैसे कठोर हो जाते हैं। इस रोग का प्रचलित नाम है फीलपांव जिसे हाथीपांव या शिलापद भी कहते हैं। यह फीलपांव शब्द इसी मूल से आ रहा है। महावत को फारसी, उर्दू या हिन्दी में फीलवान भी कहते हैं।
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शुक्रवार, 8 मई 2009

दो गीतिकाएँ: -रमेश श्रीवास्तव 'चातक', सिवनी

आम जनता के हक में सदा शूल रहे हैं।
आज गाँधी के अनुयायी फल-फूल रहे हैं॥

सीधे-सादे पेड़ तो हर दिन हैं कट रहे।
आरक्षितों में शूल और बबूल रहे हैं॥

कश्मीर तो भारत के माथे का मुकुट है।
भारत समूचा एक है हम भूल रहे हैं॥

आ गया 'चातक' पुनः चुनाव् का मौसम।
वादों के झूठे झूले सब झूल रहे हैं॥

उस दर पे मेरी गर्दन इसलिए न झुक सकी।
'चातक' की इबादत के कुछ उसूल रहे हैं॥

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यह बात मेरे अपने तजुर्बे में आई है।
साफ़ बात कहने में केवल बुराई है॥

जब एक बनो, नेक बनो तभी हो इन्सां।
सब के लिये रब ने यह दुनिया बनाई है॥

आपस में बाँट लें सभी के सुख-औ'- दुःख को हम।
आपस में बँटोगे तो बहुत ही बुराई है॥

क्यों लड़ते-झगड़ते हो, उलझते हो दोस्तों?
आपस में लड़कर किसने सुख-शान्ति पाई है?

'चातक; की प्यास के लिए, दरिया भी कम रहा।
स्वाति की एक बूँद सदा काम आयी है॥

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शोभना चौरे

कविता

ऐसा क्यों?...

शोभना चौरे

ऐसा क्यो होता है ?
जहाँ 'फूल तोड़ना मना है'
लिखा है
हम वहीं पर
सबसे ज्यादा फूल तोड़ते है
जहाँ वाहन खडा करना वर्जित हो,
वनीं सर्वाधिक गाडियां खड़ी होती हैं
जहाँ धूम्रपान 'वर्जित है,
वहीं तथाकथित भद्रजन
धुएँ के छल्ले उडाते देखे जाते हैं
जहाँ कचरा फेंकना मना है,
वहीं पर
घर और शहर कचरा फेकते हैं,
डब्बे में पेट्रोल ले जाना मना है,
तो पेट्रोल पम्प पर धड़ल्ले से
डब्बे में पेट्रोल भरते देखे जा सकते हैं.
हम समझना ही नहीन चाहते
मन्दिर की शान्ति को सराहते हैं,
परन्तु
जूतों की गंदगी
वहाँ भी फैला ही आते हैं.
आप ही बताएन
ऐसा क्यों होता है?
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शब्द-सलिला: गणना -अजित वडनेरकर

गर हम कहें कि सिरों की गिनती से ही सरदार चुने जाते हैं तो इस बात को अटपटा समझा जाएगा। मगर बात सच है। चुनाव को लिए पोल poll शब्द भी भारत में प्रचलित है। पोल, पोलिंग और ओपिनियन पोल जैसे शब्द अब चुनावी संदर्भो में हिन्दी में खूब इस्तेमाल होते हैं। पोल शब्द की व्युत्पत्ति दिलचस्प है।


अंग्रेजी का पोल poll शब्द प्राचीन डच भाषा का है जिसका अर्थ होता है सिर। शरीर का ऊपरी हिस्सा। खासतौर पर वह जिस पर केश हों। प्राचीनकाल में मानव समाज पशुपालक था। विभिन्न समूहों के साथ उनके पालतू पशु भी साथ रहते थे। आमतौर पर इन्हें चिह्मित किया जाता था मगर दिनभर चरागाहों में चरने के बाद शाम को जब ये मवेशी लौटते थे तो इनकी गिनती अनिवार्य तौर पर होती थी। आज भी गांवों में ऐसा ही होता है। पशुओं की गिनती उनके सिर से होती थी।


सिर का प्रतीक सिर्फ इतना ही है कि यह शरीर का वह प्रमुख हिस्सा है जिस पर सबसे पहले नजर पड़ती है। क्योंकि यह शरीर के ऊपरी हिस्से पर होता है। हिन्दी, फारसी, उर्दू का सिर शब्द संस्कृत के शीर्ष से बना है जिसका मतलब होता है सर्वोच्च, सबसे ऊपर। इससे ही फारसी का सरदार शब्द बना है अर्थात प्रमुख व्यक्ति। सरदार में सिरवाला या बड़े सिरवाला जैसा भाव न होकर शीर्ष अर्थात सर्वोच्च का भाव है। यही प्रक्रिया अंग्रेजी में भी प्रमुख व्यक्ति के लिए हैड के संदर्भ में देखी जा सकती है। हैड का अर्थ सिर होता है मगर इसका प्रयोग प्रमुख या प्रधान के तौर पर भी होता है।


पशुगणना से उठकर यह शब्द जन समूहों में किसी मुद्दे पर सबकी राय जानने का जरिया भी बना। जिस मुद्दे पर लोगों की राय जाननी होती है आमतौर पर आज भी सहमति या असहमति व्यक्त करने के लिए सिर हिलाया जाता है। प्राचीनकाल में भी पक्ष और विपक्ष के लोगों के सिर गिनने के बाद बहुमत के आधार पर निर्णय लिया जाता था। इस तरह सिर गिनने की प्रक्रिया किसी मामले पर लोगों की रायशुमारी या निर्वचन का तरीका बन गई।


पशुगणना से होते हुए जन समूहों की रायशुमारी के बाद यही पोल आधुनिक दौर में लोकतात्रिक प्रणाली का आधार बना है। मतपत्र के लिए बैलट शब्द का इस्तेमाल होता है। भाषाविज्ञानियों के मुताबिक यह शब्द भी भारोपीय भाषा परिवार का है। अग्रेजी का बैलट बना है इतालवी के बलोट्टा ballotta से जिसका अर्थ होता है छोटी गेंद।


रोमनकाल में मतों के निर्धारण के लिए नन्हीं गेंदों का प्रयोग किया जाता था। कुछ संदर्भो के अनुसार एक घड़ेनुमा पात्र में मत के प्रतीक स्वरूप ये गेंदें डाली जाती थी जिनकी गणना बाद में की जाती थी। कुछ संदर्भों के अनुसार घड़े मे डाली गई गेंदों में से किसी एक को लाटरी पद्धति से निकाल लिया जाता था।

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