कुल पेज दृश्य

बुधवार, 6 जुलाई 2022

सॉनेट, मतदान,अर्चन,ज्योति,धर्म,अरुण अर्णव,

सॉनेट
मतदान
*
मत दान कर, मतदान कर
शुभ का सदा गुणगान कर
श्रम-साधना वरदान कर
विद्वान का सम्मान कर

जो हो रहा, वह देख-सुन
क्या उचित-अनुचित मौन गुन
सपने नए दिन-रात बुन
साकार करने एक चुन

वर लक्ष्य, शर-संधान कर
रख देह अपनी तानकर
हो दृष्टि स्थिर, संकल्प दृढ़
हँस कोशिशों का मानकर

कह बात हर रस-खान कर
रस-लीन हो, सज जानकर
६-७-२०२२
•••
सॉनेट
अर्चन
*
अर्चन कर पाऊँ शिव तेरा
अर्पण कर रस-छंद गीत कुछ
नर्तन काव्य कामिनी का हो
अर्जन हो यश-कीर्ति का तनिक

श्वासों से सध सके तरन्नुम
आसें में अदायगी उसकी
त्रासों-हासों का दाता जो
रासें बनें बंदगी उसकी

ज्यों की त्यों चादर धर पाएँ
अंतिम पल प्रभु रहें ध्यान में
तब तक सत् शिव सुंदर गाएँ
चारण बनकर ईश-शान में

शिव तुझ बिन सब कुछ केवल शव
शिवा कर कृपा, छूट सके भव
६-७-२०२२
•••
पुस्तक चर्चा:
'ऐसा भी होता है' गीत मन भिगोता है
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय: ऐसा भी होता है, गीत संग्रह, शिव कुमार 'अर्चन', वर्ष २०१७, आईएसबीएन ९७८-९३-९२२१२- ८९-५, आकार २१ से.मी.x १४ से.मी., आवारण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य ७५/-, पहले पहल प्रकाशन, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल, ९८२६८३७३३५, गीतकार संपर्क: १० प्रियदर्शिनी ऋषि वैली, ई ८ गुलमोहर विस्तार, भोपाल, ९४२५१३७१८७४]
*
सौंदर्य की नदी नर्मदा अपने अविरल-निर्मल प्रवाह के लिए विश्व प्रसिद्ध है। आदिकाल से कलकल निनादिनी के तट पर शब्द-साधना और शब्द-साधकों की अविच्छिन्न परंपरा रही है। इस परंपरा को वर्तमान समय में आगे बढ़ाने में महती भूमिका का निर्वहन के प्रति सचेष्ट सरस्वती-सुतों में शिवकुमार 'अर्चन' का नाम उल्लेखनीय है। शिवकुमार गीत और ग़ज़ल दोनों विधाओं में दखल रखते हैं। विवेच्य कृति के पूर्व दो कृतियों ग़ज़ल क्या कहे कोई २००७ तथा गीत संग्रह उत्तर की तलाश २०१३ के माध्यम से हिंदी जगत ने अर्चन के कृतित्व में अंतर्निहित बाँकी बिम्बात्मकता और मौलिक कहन के गंगो-जमुनी संगम का आनंद लिया है।

अर्चन के गीत आम आदमी के दर्द-दुःख, जीवन के उतार-चढ़ाव, मौसम की धूप-छाँव और संघर्ष-सफलता के बीच में से उभरते हैं। अर्चन आकाश कुसुम की तरह काल्पनिक कमनीयता, दिवास्वप्न की तरह वायवी आदर्शवादिता, कृत्रिम क्रंदन के कोलाहल, ऐ.सी. में बैठकर नकली अभावों की प्रदर्शनी लगाने, अथवा गले तक ठूस कर भोग लगाने के बाद भुखमरी को शोकेस में सजानेवाले शब्द-बाजीगरों से सर्वथा अलग शिष्ट-शांत, मर्यादित तरीके और सलीके से अपनी बात सामने रखने में दक्ष हैं।

प्रेम और श्रृंगार अर्चन के प्रिय विषय है किन्तु सात्विकता के पथिक होने के नाते वे प्रदर्शनप्रियता, प्रगल्भता और अश्लीलता का स्पर्श भी नहीं करते। साहित्यिक गोष्ठियों, काव्य मंचों, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अपने गीतों और ग़ज़लों के माधुर्य के लिए अर्चन जाने जाते हैं। सात्विक श्रृंगार की एक बानगी 'फूल पारिजात के' गीत से-

आँखों में उग आये / फूल पारिजात के

ऐसे अनुदान हुए / भीगी बरसात के

साँसों पर टहल रहीं / अनछुई सुगन्धियाँ

राजमार्ग जीती हैं / सूनी पगडंडियाँ

तितली के पंखों पर / हैं निबंध रात के

कविता का उत्स पीड़ा से सर्व मान्य है। भारतीय वांग्मय में मिथुनरत क्रौंच युगल पर व्याध के शर-प्रहार से नर का प्राणांत होने पर व्याकुल क्रौंची के आर्तनाद को काव्य का उद्गम कहा गया है तो अरब में हिरन शावक के वध पश्चात हिरनी के आर्तनाद को ग़ज़ल का मूल बताया गया है। पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ''Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.'' गीतकार शैलेन्द्र कहते हैं- ''हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं'' अर्चन का अनुभव इनसे जुदा न होते हुए भी जुदा है। जुदा इसलिए नहीं कि अर्चन भी छंद का उत्स दर्द से मानते हैं, जुदा इसलिए कि यह दर्द मृत्युजनित नहीं, प्रेमजनित है।

जो ऐसे अनुबंध न होते / दर्द हमारे छंद न होते

अगर न पीड़ाओं को गाते / तो शायद कब के मर जाते

और

जब-जब हमने गीत उठाया / दौड़ा, दौड़ा आँसू आया

अर्चन गीत और नवगीत को एक शाख पर खिले दो फूलों की तरह देखते हैं। उन्हें गीत-नवगीत में भारत-पकिस्तान की तरह अनुल्लंघ्य सीमारेखा कहीं नहीं दिखती। इसलिए वे दोनों को साथ-साथ रचते, गुनगुनाते, गाते है नहीं छपाते भी रहे हैं। अर्चन के नवगीत 'अभाव' को सहजता से सहकर 'भाव' की भव्यता को जीते भारतीय मानस के आत्मानंद को अभिव्यक्त करते हैं। वे सहज सुलभ सुविधा से रहते हुए आडम्बरी असुविधा को शब्दों में गूँथने का पाखंड नहीं करते। संभवत: इसीलिये साम्यवादी विचारधारा समर्थक आलोचक अर्चन के नवगीतों में सामाजिक विघटन परक विसंगति-विडम्बना और ओढ़े हुए दर्द-अन्याय के भाव में उन्हें नवगीत कहते झिझकते हैं। अर्चन ने नवगीत को उत्सवधर्मी भावमुद्रा दी है। एक झलक 'धरती मैया' शीर्षक नवगीत से- जय-जय धरती मैया रे / चल-चल-चल हल भैया रे!

गीत उगायें माटी में / गीतों के राम रखैया रे!

झम्मर-झम्मर बदरा बरसे / महकी क्यारी-क्यारी...

... धरती के पृष्ठों पर लिख दें / श्रम की नयी कहानी...

... अमृत बाँटा, ज़हर पी लिया / श्रम इस तरह जिया है

धरती पलना, डूब बिछौना / अम्बर ओढ़ लिया है

जिन्हें नहीं है श्रम से मतलब खाएं दूध मलैया रे!

यह नवगीत लोकगीत, जनगीत और पारंपरिक गीत तीनों में गिना जा सकता है। यह गीत अर्चन की समरसतापरक सोच की बानगी प्रस्तुत करता है।

'संध्या' शीर्षक नवगीत में ताम के हाथों तमाचा खाकर शंकाओं को जनम देने वाला उजियारा हो या प्रश्न चिन्ह लिए लौट रहा श्रम अथवा सौतन रात के कहर से रोती सूर्यमुखी तीनों का अंत आशा, उल्लास के सूर्य का वंश पालने से होता है। नवगीत के उद्गम के समय चिन्हित किये गए कुछ लक्षणों को पत्थर की लकीर मान रहे तथाकथित प्रगतिवादी खेमे के समीक्षक 'गीत' के मरने की घोषणा कर खुद को कालजयी मानने की मृग मरीचिका से छले जाकर इहलोक से प्रस्थान कर गए किन्तु गीत और छंद अदम्य जिजीविषा के पर्याय बनकर नवपरिवेशानुकूल साज-सज्जा के साथ सर उठाकर खड़े ही नहीं हुए, सृजनाकाश में अपनी पताका भी फहरा रहे हैं। नवगीत की उत्सवधर्मी भावमुद्रा के विकास में अर्चन का योगदान उल्लेखनीय है।

जले-जले, दीपक जले-जले

अँधियारों की गोदी / सूरज के वंश पले

पोखर में डूब गया / सूरज का गोला
***
चिंतन : ज्योति
- ज्योति से ज्योति जलाते चलो...
- ज्योति जलेगी तो आलोक फैलेगा, तिमिर मिटेगा।
- ज्योति तब जलेगी जब बाती, स्नेह (तेल) और दीपक होगा।
- बाती बनाने के लिए कपास उगाने, तेल के लिए तिल उगाने और दीप बनाने के लिए अपरिहार्य है माटी।
- माटी ही मिटकर दीप, तेल और बाती में रूपांतरित होती है तथापि इन तीनों से तम नहीं मिटता, आलोक नहीं फैलता।
- माटी का मिटना सार्थक तब होता है जब अग्नि ज्योतित होती है।
- अग्नि बिना पवन के ज्योतित नहीं हो सकती।
- माटी पानी को आत्मसात किए बिना दीपक नहीं बन सकती।
- पानी पाए बिना न तो कपास उत्पन्न हो सकती है न तिल।
- आकाश न हो तो प्रकाश कहाँ फैले?
- माटी, पानी, पवन, आकाश और अग्नि होने पर भी उन्हें रूपांतरित और समन्वित करने के लिए मनुष्य का होना और उद्यम करना जरूरी है।
- उद्यम करने के लिए चाहिए मति या बुद्धि।
- मति रचने की ओर प्रवृत्त तभी होगी जब उसे जग और जीवन में रस हो।
- रसवती मति सरसवती होकर सत-शिव-सुंदर का सृजन करती है और सरस्वती के रूप में सुर, नर, असुर, वानर, किन्नर सबकी पूज्य और आराध्य होती है।
- वह सरस्वती ही विधि (ब्रह्मा), हरि (विष्णु) और हर (महेश) की नियामक है।
- सरस्वती ही त्रिदेवों की आत्मशक्ति के रूप में उन्हें सक्रिय करती है।
- शक्ति का अस्तित्व शक्तिवान को बिना संभव नहीं। यह शक्तिवान निर्गुण है, निराकार है।
- निराकार का चित्र नहीं हो सकता अर्थात चित्र गुप्त है।
- निराकार ही सगुण-साकार होकर सकल सृष्टि में अभिव्यक्त होता है।
- निवृत्ति और प्रवृत्ति का सम्मिलन हुए बिना रचना नहीं होती।
- रचनाकार ही खुद को भाषा, भूषा, लिंग, क्षेत्र, विचारधारा को आधार पर विभाजित कर मठाधीशी करने लगे तो सरस्वती कैसे प्रसन्न हो सकती है?
- विश्वैक नीड़म्, वसुधैव कुटुम्बकम्, अयमात्मा ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि और शिवोsहम् की विरासत पाकर भी जीवन में रस का अभाव अनुभव करना विडंबना ही है।
- आइए! रसाराधना कर श्वास-श्वास को रसवती, सरसवती बनाएँ ।
***
***
विमर्श : धर्म
*
- धर्म क्या है?
- धर्म वह जो धारण किया जाए
- क्या धारण किया जाए?
- जो शुभ है
- शुभ क्या है?
- जो सबके लिए हितकारी, कल्याणकारी हो
- हमने जितना जीवन जिया, उसमें जितने कर्म किए, उनमें से कितने सर्वहितकारी हैं और कितने सर्वहितकारी? खुद सोचें गम धार्मिक हैं या अधार्मिक?
- गाँधी से किसी ने पूछा क्या करना उचित है, कैसे पता चले?
- एक ही तरीका है गाँधी' ने कहा। यह देखो कि उस काम को करने से समाज के आखिरी आदमी (सबसे अधिक कमजोर व्यक्ति) का भला हो रहा है या नहीं? गाँधी ने कहा।
- हमारे कितने कामों सो आखिरी आदमी का भला हुआ?
- अपना पेट तो पशु-पक्षी भी भर लेते हैं। परिंदे, चीटी, गिलहरी जैसे कमजोर जीव आपत्काल के लिए बताते भी हैं किंतु ताकतवर शेर, हाथी आदि कभी जोड़ते नहीं। इतना ही नहीं, पेट भरने के बाद खाते भी नहीं, अपने से कमजोर जानवरों के लिए छोड़ देते हैं जिसे खाकर भेजिए, सियार उनका छोड़ा खाकर बाज, चील, अवशिष्ट खाकर इल्ली आदि पाते हैं।
- हम तथाकथित समझदार इंसान इसके सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। खाते कम, जोड़ते अधिक हैं। यहाँ तक कि मरने तक कुछ भी छोड़ते नहीं।
- धार्मिक कौन है? सोचें, फकीर या राजा, साधु या साहूकार?, समय का अधिकारी?
- गम क्या बनना चाहते हैं? धार्मिक या अधार्मिक?
***
***
स्नेहांजलि
प्रात नमन करता अरुण, नित अर्णव के साथ
कहे सत्य सारांश में, जिओ उठाकर माथ
जिओ उठाकर माथ, हाथ यदि थाम चलोगे
पाओगे आलोक, धन्य अखिलेश कहोगे
रमन अनिल में करो, विजय तब मिल पाएगी
श्रीधर दिव्य ज्योत्सना मुकुलित जय गाएगी
मीनाक्षी सपना चंदा नर्मदा नहाएँ
तारे हो संजीव, सलिल में भव तर जाएँ
शिव शंकर डमडम डिमडिम डमरू गुंजाएँ
शिवा गजानन कार्तिक से मन छंद लिखाएँ
जगवाणी हिंदी दस दिश हो सके प्रतिष्ठित
संग बोलियाँ-भाषाएँ सब रहें अधिष्ठित
कर उपासना सतत साधना सद्भावों की
होली जला सकें हम मिलकर अलगावों की
६-७-२०
***
बहुआयामी प्रतिभा के धनी इंजी. संजीव वर्मा सलिल
संजीव जी मेरे यांत्रिकी मित्र है,लोक निर्माण विभाग और विकास प्राधिकरण सामान विभाग होने से हमारा मित्रवत रिश्ता वर्षो पुराना है,आपका झुकाव हिंदी लेखन में होने से एव साहित्यिक होने से मुझे आपकी सराहना के कई मौके मिले है । अब पुन: आपको ट्रू मीडिया मासिक पत्रिका दिल्ली, प्रसंग ६८ वीं वर्ष ग्रंथि। सम्मानित कर आपकी और हमारी प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाए जा रहे है। आपने इंस्टीटूशन ऑफ़ इंजीनियर्स के लिए अभियंता बंधु का सफल संपादन किया व 'वैश्विकता को निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ' लेख लिखा जिसको अखिल भारतीय द्वितीय श्रेष्ठ पुरस्कार प्राप्त हुआ ।शुभकामना और धन्यवाद ।
तरुण कुमार आनंद
अध्यक्ष
इंस्टीटूशन ऑफ़ इंजीनियर्स लोकल सेंटर जबलपुर
***
रमन, चेन्नई
मुझे भी लगभग डेढ वर्ष पूर्व आचार्य जी से उनके ही निवास पर मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। मैं भी उनके विषय में सहर्ष यही कहना चाहूँगा कि मैंने भी एक चलता फिरता बृहद ज्ञान कोश देखा है।
६-७-२०१९
***
दो कवि रचना एक:
*
शीला पांडे:
झूठ मूठ की कांकर सांची गागर फोड़ गयी
प्रेम प्रीत की प्याली चटकी घायल छोड़ गयी
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
लिए आस-विश्वास फेविक्विक आँख लगाती है
झुकी पलक संबंधों का नव सेतु बनाती है.
***
एक रचना:
पौधा पेड़ बनाओ
*
काटे वृक्ष, पहाडी खोदी, खो दी है हरियाली.
बदरी चली गयी बिन बरसे, जैसे गगरी खाली.
*
खा ली किसने रेत नदी की, लूटे नेह किनारे?
पूछ रही मन-शांति, रहूँ मैं किसके कहो सहारे?
*
किसने कितना दर्द सहा रे!, कौन बताए पीड़ा?
नेता के महलों में करता है, विकास क्यों क्रीड़ा?
*
कीड़ा छोड़ जड़ों को, नभ में बन पतंग उड़ने का.
नहीं बताता कट-फटकर, परिणाम मिले गिरने का.
*
नदियाँ गहरी करो, किनारे ऊँचे जरा उठाओ.
सघन पर्णवाले पौधे मिल, लगा तनिक हर्षाओ.
*
पौधा पेड़ बनाओ, पाओ पुण्य यज्ञ करने का.
वृक्ष काट क्यों निसंतान हो, कर्म नहीं मिटने का.
*
अगला जन्म बिगाड़ रहे क्यों, मिटा-मिटा हरियाली?
पाट रहा तालाब जो रहे , टेंट उसी की खाली.
*
पशु-पक्षी प्यासे मारे जो, उनका छीन बसेरा.
अगले जनम रहे बेघर वह, मिले न उसको डेरा.
*
मेघ करो अनुकंपा हम पर, बरसाओ शीतल जल.
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित, प्लावन करे न बेकल.
*

६.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

*

कोई टिप्पणी नहीं: