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सोमवार, 12 अप्रैल 2021

द्विपदि शे'र

द्विपदि सलिला (अश'आर)
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकान हजारों
मैं ढून्ढ-ढून्ढ हारा, घर एक नहीं मिलता
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी
मर गया तो तेरही में दावतें हुईं
*
परवाने जां निसार कर देंगे
हम चरागे-रौशनी तो बन जाएँ
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम
फूल बन महको, चली आएँगी ये
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'
भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
मुझ बिन न तुझमें जां रहे बोला ये तन से मन
मुझ बिन न तू यहां रहे, तन मन से कह रहा
*
औरों के ऐब देखकर मन खुश बहुत हुआ
खुद पर पड़ी नज़र तो तना सर ही झुक गया
*
तुम पर उठाई एक, उठी तीन अँगुलियाँ
खुद की तरफ, ये देख कर चक्कर ही आ गया
*
हो आईने से दुश्मनी या दोस्ती 'सलिल'
क्या फर्क? जब मिलेगा, कहेगा वो सच सदा
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देवों को पूजते हैं जो वो भोग दिखाकर
खुद खा रहे, ये सोच 'इससे कोई डर नहीं'
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आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
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एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
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बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
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आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
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जानेवाले लौटकर आ जाएँ तो
आनेवालों को जगह होगी कहाँ?
*
मंच से कुछ पात्र यदि जाएँ नहीं
मंच पर कुछ पात्र कैसे आयेंगे?
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जो गया तू उनका मातम मत मना
शेष हैं जो उनकी भी कुछ फ़िक्र कर
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मोह-माया तज गए थे तीर्थ को
मुक्त माया से हुए तो शोक क्यों?
*
है संसार असार तो छुटने का क्यों शोक?
गए सार की खोज में, मिला सार खुश हो
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बहे आँसू मगर माशूक ने नाता नहीं जोड़ा
जलाया दिल, बनाया तिल और दिल लूट लिया
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जब तक था दूर कोई मुझे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
ज्योति जलती तो पतंगे लगाते हैं हाजरी
टेरता है जब तिमिर तो पतंगा आता नहीं
.
हों उपस्थित या जहाँ जो वहीं रचता रहे
सृजन-शाला में रखे, चर्चा करें हम-आप मिल
.
हों अगर मतभेद तो मनभेद हम बनने न दें
कार्य सारस्वत करेंगे हम सभी सद्भाव से
.
जब मिलें सीखें-सिखायें शारदा आशीष दें
विश्व भाषा हैं सनातन हमारी हिंदी अमर
.
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
*
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
*
उनका भगवा हाथ है, इनके पंजे में कमल
आम आदमी को ठगें दोनों का व्यवसाय है
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'राज्य बनाया है' कहो या 'तोडा है राज्य'
साध रही है सियासत केवल अपना स्वार्थ
*
दीनदयालु न साथ दें, न ही गरीब नवाज़
नहीं आम से काम है, हैं खासों के साथ
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चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
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सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है
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आह न सुनता किसी दीन की बात दीन की खूब करे
रोज टेरता खुदा न सुनता मुल्ला हुआ परेशां है
*
हो चुका अवतार, अब हम याद करते हैं मगर
अनुकरण करते नहीं, क्यों यह विरोधाभास है?
*
कल्पना इतनी मिला दी, सत्य ही दिखता नहीं
पंडितों ने धर्म का, हर दिन किया उपहास है
*
गढ़ दिया राधा-चरित, शत मूर्तियाँ कर दीं खड़ी
हिल गयी जड़ सत्य की, क्या तनिक भी अहसास है?
*
शत विभाजन मिटा, ताकतवर बनाया देश को
कृष्ण ने पर भक्त तोड़ें, रो रहा इतिहास है
*
रूढ़ियों से जूझ गढ़ दें कुछ प्रथाएँ स्वस्थ्य हम
देश हो मजबूत, कहते कृष्ण- 'हर जन खास है'
*
भ्रष्ट शासक आज भी हैं, करें उनका अंत मिल
सत्य जीतेगा न जन को हो सका आभास है
*
फ़र्ज़ पहले बाद में हक़, फल न अपना साध्य हो
चित्र जिसका गुप्त उसका देह यह आवास है.
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