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रविवार, 25 अप्रैल 2021

मुक्तिका

प्रयोगात्मक मुक्तिका:
जमीं के प्यार में...
संजीव 'सलिल'
*
जमीं के प्यार में सूरज को नित आना भी होता था.
हटाकर मेघ की चिलमन दरश पाना भी होता था..

उषा के हाथ दे पैगाम कब तक सब्र रवि करता?
जले दिल की तपिश से भू को तप जाना भी होता था..

हया की हरी चादर ओढ़, धरती लाज से सिमटी.
हुआ जो हाले-दिल संध्या से कह जाना भी होता था..

बराती थे सितारे, चाँद सहबाला बना नाचा.
पिता बादल को रो-रोकर बरस जाना भी होता था..

हुए साकार सपने गैर अपने हो गए पल में.
जो पाया वही अपना, मन को समझाना भी होता था..

नहीं जो संग उनके संग को कर याद खुश रहकर.
'सलिल' नातों के धागों को यूँ सुलझाना भी होता था..

न यादों से भरे मन उसको भरमाना भी होता था.
छिपाकर आँख के आँसू 'सलिल' गाना भी होता था..

हरेक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
जहाँ खुद से मिले खुद 'सलिल' अफसाना भी होता था..
२५-४-४-२०११ 
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