संतोषी हरदम सुखी
किसी समय एक गाँव में एक पति-पत्नि बुधुआ और लछमी गरीबी के कारण लकड़ी काट-बेचकर अपना पेट भरते थे। लछमी लकड़ी बेचने जाते समय लकड़ी के गट्ठे से एक लकड़ी निकालकर आँगन के एक कोने में रख देती और सपरने (नहाने) के बाद हर दिन आँवले और पीपल के वृक्ष में पानी ढारकर प्रणाम करती। झोपड़़ी की मरम्मत के लिए ईंटे पाती तो कुछ ईंटे अधिक बनाकर रख लेती। झोपड़़ी और आसपास की जगह लीप-पोतकर साफ रखती। गाँव की बाकी औरतों की तरह न तो किसी की चुगली करती, न फालतू घूमती। बुधुआ भी काम से काम रखता और नशा न कर, लछमी की मदद करता। गाँववाले उनकी हँसी उड़ाते, उन्हें घर घुस्सू कहते पर उन्हें कोइ फर्क न पड़ता था।
एक दिन एक साधु गाँव में आए। उन्होंने गाँव में बच्चों को दिन भर खेलते-कूदते देखकर अपने पास बुलाया और उनकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछा तो पता चला गाँव में पाठशाला ही नहीं है। साधु ने गाँव में घूमकर देखा कि ज्यादातर घरों के आसपास कचरा है बहुत कम घर साफ-सुथरे हैं। साधु ने कुछ बच्चों को बुलाकर प्रसाद देते हुए दोपहर में गाँव के स्त्री-पुरुषों को बुलाने को कहा। सब लोग आ गए तो साधु ने एक कथा सुनाकर पेड़ों में देवताओं के रहने और पौधा लगाकर, पेड़ बनने तक उसकी देखभाल और रक्षा करने से पुण्य मिलने की बात कही।
लोगों ने कहा कि लछमी का घरवाला झाड़ काटत आय और जे खुद लकड़ी बेचत आय। ईंसे ईको पाप लगहै। साधु के पूछने पर लछमी ने बताया कि उसका घरवाला सूखे और टूटे हुए झाड़ काटता है, हरे झाड़ नहीं काटता और बरसात के पहले खाली बंजर जमीन में बीज डाल देता है जो अंकुरित होकर नए झाड़ बनते हैं और वह खुद रोज सपरने के बाद पौधों को पानी देती है। साधु ने लछमी की बातों से उसकी सचाई और कपड़ों से गरीबी का अनुमान कर लिया। साधु ने लछमी की तारीफ कर गाँववालों से सीख लेने को कहा।
साधु ने बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए पाठशाला बनाने के लिए कहा। लोग अपनी गरीबी का रोना रोते हुए सरकार को दोष देने लगे। तब लछमी ने कहा की पाठशाला बनाने के लिए ईंटों की जरूरत होगी तो वह बिना मजूरी लिए ईंटे बनाने में मदद करेगी और अपने पति से पाठशाला की खिड़की-दरवाजों की लकड़ी दिलवाएगी। यह सुनकर गाँववालों में उमंग जागी। हर एक ने कुछ न कुछ देने का वायदा किया। साधु ने पटवारी को बुलाकर जमीन के बारे में उपाय पूछा तो वह बोला कि कोई दान में दे दे तो बाधा नहीं है। सरकारी जमीन तो मुश्किल से मिलेगी। तब गाँव के मुखिया ने अपने खेत के एक कोने में पाठशाला बनाने के लिए जमीन दी।
गाँव के मजूर रविवार के दिन बिना मजूरी लिए काम करते, कुम्हार ईंटों के दाम आधा लेते। बड़े किसान मजूरी में अनाज देते। बुधुआ ने लकड़ी दी तो बढ़ई ने बिना मजूरी खिड़कियों-दरवाजों के चौखट-पल्ले बना दिए। पाठशाला का कमरा बनता देखकर आस-पास के गाँववाले भी मदद करने लगे कि उनके बच्चे भीपढ़ सकेंगे। साधु महाराज ने गाँव की स्त्री-पुरुषों के साथ जाकर जिलाधिकारी और विधायक से बात कर उन्हें गाँववालों के प्रयास की जानकारी देते हुए पाठशाला का अधिग्रहण कर शिक्षक नियुक्ति की माँग की तथा उद्घाटन करने का अनुरोध किया। दोनों ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।
कुछ दिन बाद गाँव में पाठशाला आरंभ हो गयी। बच्चे-बच्चियाँ पढ़ने लगे। गाँव में साफ़-सफाई रहने लगी बुधुआ और लक्ष्मी अब भी सूखे झाड़ों की लकड़ी काटते-बेचते हैं। उन्होंने पाठशाला के चारों और बीज बो दिए थे जिनमें से अंकुर निकर आए। बच्चों के समूह बनाकर उन्हें पौधों की देखभाल का जम्मा सौंपा गया है। जहाँ पहले आपस में खींच-तान रहती थी अब भाई चारा बढ़ने लगा है। सबने सुख का एक सूत्र जान लिया है 'संतोषी हरदम सुखी।
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